शनिवार, 29 नवंबर 2014

हिंदी चीनी भाई भाई..कोई शक?

हिंदी चीनी भाई भाई नारे के बारे में बचपन में सुना करते थे कि किस तरह से उन के फौजी एक तरफ़ तो हमला बोल देते थे लेकिन साथ ही मुंह से हिंदी चीनी भाई भाई के नारे लगाया करते थे।

वैसे हिंदोस्तानियों का चीनी प्रेम भी कुछ कम नहीं है। हर शहर में शायद अगर बहुत सी तो नहीं तो एक अदद चाईना बाज़ार तो मिल ही जाता है...वहां पर चीन में बने खिलौनों से लेकर घर के बहुत सी चीज़ें सस्ते रेट में मिल जाती हैं। गारंटी कोई नहीं.. क्योंकि दुकान के बाहर निकलते ही खिलौना चलना बंद कर दे तो अपने टीटू-पप्पू को आप संभालें...यही बात हर तरह के इलैक्ट्रोिनक उपकरणों पर भी लागू होती है। 

दीवाली पर सारे बाज़ार में चीनी लड़ियां, बल्ब और अन्य सजावटी सामान देख कर ऐसे लगता है जैसे कि असली दीवाली तो चीन की हो रही है। हम लोग भी पांच सौ रूपये की लड़ियां खरीद कर जब घर में टांग देते हैं कि हम ने तो इतने सस्ते में लूट लिया......लेकिन असलियत से रू-ब-रू तब होते हैं जब अगले वर्ष उन्हें चालू करने की बीसियों कोशिशें नाकाम रहती हैं.....और फिर वही झुंझलाहट।

वैसे भी दीवाली आदि त्योहारों के दौरान जितना चीन में तैयार किया हुआ सामान बिक रहा होता है उसे देख कर तो यही लगता है कि दीवाली का असली जश्न तो चीनी लोग ही मनाते होंगे। 

कल मुझे एक पोस्ट-ऑफिस में काम था.....मैंने देखा कि उस के बाहर चीनी सामान के बहुत से फुटपाथ सजे हुए थे...अब तो यह सब हर तरफ़ ही दिखने लगा है, मेरे नाश्ते की प्लेट में भी। वैसे भी चाइनीज़ फूड इस देश में बेहद पसंद किया जाता है--हर जगह खोमचे, स्टाल, रेस्टरां में बिकती ढेरों चाईनीज़ डिशिज़। 

नाश्ते की प्लेट से याद आया....कल रात में घर में मनचूरियन बना था...इसे फ्राइड राइस के साथ खाना अच्छा लगता है... वैसे हमारे यहां नाम का ही फ्राइड होता है, घी नहीं होता उस में। मैंने यह खाना पिछले वर्ष ही शुरू किया था.....घर में तैयार हुआ तो बहुत अच्छा लगा। 

वैसे तो मैं चाइनीज़ आइट्म नहीं खाता.....मैदा की वजह से.......मैदा मेरे को पचता नहीं...बाकी लोग खाते हैं.......लेकिन यह मनचूरियन-फ्राइड राइस तो ऐसा मुंह लगा कि कुछ महीने पहले की बात बताऊं.... रविवार की दोपहर जब यह डिश बनी तो मैंने इतनी ज़्यादा मात्रा में खा लिया कि मैं क्या कहूं। शायद ही मैंने कभी इतनी ओव्हर-इटिंग की हो, बस, पेट ठसाठस भर कर ...हो गया लमलेट.....नींद आ गई..

लेकिन यह क्या, शाम होते होते ...बेचैनी, गैस, मतली जैसा होने लगा, सिरदर्द ....हे भगवान, जो उस दिन मेरी हालत हुई मैं ही जानता हूं...मैंने ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि बाबा जी, एस वार बचा लओ...इक वारी उलटी करवा देओ.........अग्गों तो ध्यान रखांगा.......लेकिन नहीं, उस समय तो उल्टी नहीं हुई लेकिन कुछ घंटों बाद जब उल्टीयां हुईं तो जैसे जान में जान आई। वह दिन भूले नहीं भूलता। 

अगले दिन मिसिज़ से बात हो रही थी कि ये मनचूरियन में आखिर होता क्या है। तो पता चला कि विभिन्न सब्जियों को मैदे में गूंथा जाता है......सारी बात मेरी समझ में आ गई.......उस िदन कसम खाई कि आज के बाद इन की तरफ़ देखूंगा भी नहीं। 

पिछले कुछ महीनों में कुछ बार बना होगा लेकिन मैंने इसे नहीं खाया.....मिसिज़ कहती कि थोड़ा-बहुत खाने से कुछ नहीं होता। लेकिन मैं नहीं माना। 

अच्छा तो दोस्तो कल रात में भी यह मनचूरियन ही बना था...पता नहीं खुशबू इतनी अच्छी लगी कि रहा नहीं गया और फ्राइड राइस के साथ सिर्फ़ तीन चार पीस ही लिए.....बहुत लुत्फ़ आया।

फ्यूज़न.....>>मूली वाली मक्के की रोटी ते मनचूरियन
आज जब नाश्ते में इसे मूली वाली मक्के की रोटी के साथ फिर से खाने का अवसर मिला तो हंसी आ गई.......यही लगा कि हिंदी-चीनी का कितना बढ़िया फ्रूज़न... मक्के की रोटी के साथ मनचूरियन.......खाना बीच में ही छोड़ कर यह तस्वीर खींची। 

मैं अभी मिसिज से पूछ रहा था कि आप इस डिश में ऐसा क्या डालते हो कि यह चाइनीज़ फूड की श्रेणी में आती है, जवाब मिला कि इस में जो सासेज़ (sauce)  soya sauce --सोया सॉस, टोमैटो सॉस आदि इस्तेमाल होती हैं वे चाईनीज़ डिश का ही हिस्सा होने के कारण शायद ......अब यह चीनी लोगों की डिश है तो है.......आगे उन्होंने कहा कि अब दाल तो हर जगह बिकती है......अब दाल को क्यों भारतीय डिश कहते हैं। झट से बात मेरी समझ में आ गई।

हिंदी चीनी दोस्ती का एक और प्रूफ यह भी रहा......


पेड़ पर अदब से कुल्हाड़ी चलाने का फन...

जहां तक मेरी यादाश्त जाती है...मैं ३०-४०वर्ष पुरानी बात लिख रहा हूं..हम लोग जिस घर में रहते थे, उस में बहुत बड़े बड़े पेड़ थे। हर साल इन की छंटाई होती थी। जाड़े के दिनों में काश्मीर से वहां से पुरूष लोग रोज़गार की तलाश में अमृतसर आ जाते थे....और भी शहरों में आते थे कि नहीं, मैं नहीं जानता लेकिन अमृतसर में तो आते ही थे।

उन्हें कुल्हाड़ी दी जाती .. वे पेड़ पर चढ़ कर पेड़ को काटते और फिर नीचे उतर कर लकड़ियों के छोटे छोटे टुकड़े करते। अच्छे से याद है मुझे --एक दो घंटे लगते थे उन्हें और बीस-तीस रूपये लिया करते थे। 

एक तरह से एक प्रतीक्षा हुआ करती थी कि कब हातो आएं...(इन्हें हातो कहा जाता था, मुझे नहीं पता इस का क्या मतलब होता है, बस हातो ही याद है).. और पेड़ काट कर धूप का जुगाड़ करें। 

वैसे एक बात मैं अपने अनुभव के आधार पर कहना चाहूंगा.....बचपन के अनुभव के आधार पर.....मैंने बचपन में आसपास के लोगों में पेड़ों के प्रति प्रेम का कोई विशेष अनुभव नहीं किया...हां, उन का प्यार सब्जी और फलों के पेड़ों से तो था, लेकिन घने छायादार पेड़ इन्हें हमेशा एक बोझ ही लगते दिखे......इन के पत्ते आंगन में गिरते हैं जिस से गंदगी फैलती है, ऐसी सोच अकसर अपने आसपास देखी बचपन में। 

जहां तक मेरी बात है मेरा हाथ में हो तो मैं किसी भी पेड़ की एक टहनी भी न काटूं और न ही काटने दूं......मेरे बच्चों का भी यही भावनात्मक रिश्ता पेड़ों से है। पेड़ों के साथ लोगों का लगाव मैंने चंडीगढ़, बंगलोर, बंबई आदि शहरों में खूब देखा। लखनऊ आने से पहले हम जिस घर में रहते थे वहां पर भी बहुत से घने पेड़ थे.....बेटा उन्हें कटवाने नहीं देता था, जब जाड़े के दिनों में उन की छंटवाई करवानी होती थी तो मिसिज़ यह काम मेरे और बेटे की अनुपस्थिति में करवाया करती थीं....कालेज से आने पर वह बहुत नाराज़ हुआ करता था, एक दो दिन तक यह नाराज़गी चला करती थी। 

अब मेरी मां की भी सुन लीजिए....हमारे गृह-नगर में जो मकान है, वहां पर एक बहुत बड़ा पेड़ था.....मां उधर कुछ दिन अकेली थीं.......पांच सात दिन.....सात वर्ष पहले की बात है... पेड़ कटवाने वालों की बातों में आकर मां ऩे उस शीशम के बड़े से पेड़ को जड़ से ही कटवा दिया.....सात सौ रूपये मां को देकर गये थे वे लोग...वैसे मां की पैसों में इतनी दिलचस्पी नहीं थी जितनी इस बात में कि पेड़ अपने आप काट गये और उठा कर भी ले गये....जब शाम तक सारा पेड़ कट गया ...मैं घर पहुंचा तो मुझे वह वीरानगी इतनी बुरी लगी कि मैं ब्यां नहीं कर सकता.......मुझे पता नहीं उस दिन क्यों लगा कि घर में मातम जैसा माहौल है। मुझे उस दिन अपनी मां पर बहुत ही गुस्सा आया था, लेिकन मां को कहना क्या था, कुछ नहीं। मैं चुपचाप ही रहा दो तीन दिन। 

पेड़ों से मुझे बेइंतहा मोहब्बत है.....मैंने कहा न कि मैं किसी को एक टहनी काटने की भी इजाजत न दूं....लेकिन यह तो एक इमोशनल पहलू है....वास्तविकता तो यह है कि घर में भी और सरकारी विभागों को भी यदा कदा विभिन्न कारणों से पेड़ थोड़े काटने-छांटने ही पड़ते हैं.. वाहनों के रास्तों में, बिजली, टैलीफोन की तारों के रास्ते में आने वाले पेड़ों की छंटाई तो होती ही रहती है। इस का सब से बढ़िया ढंग मैंने बंबई में देखा जिस में एक गाड़ी पर एक लंबी सी एडजेस्टेबल सीढ़ी फिट हुई रहती है.. और इस तरीके से पेड़ के किनारे लगे पेड़ों की नियमित छंटाई होती रहती है। 

यहां लखनऊ में भी मैंने कुछ व्ही-आई-पी एरिया में पेड़ इसी तरीके से बड़े सलीके से कटते देखे हैं। 

आज दोपहर जब मैं लखनऊ के एक एरिया में घूम रहा था तो अचानक मेरी नज़र पेड़ों की एक कतार पर पड़ी जिन की छंटाई बड़े ही अच्छे ढंग से (कम से कम) की गई थी .....आप देखिए कि बड़ी बड़ी टहनियों को बिल्कुल छुआ तक नहीं गया है। Well done!!




पेड़ों की अच्छे से छंटाई होने की ये बढिया मिसालें
पेड़ों की इतनी अच्छे से छंटाई शायद मैंने एक दो बार ही पहले कईं देखी थी। जो मैंने पंजाब हरियाणा में देखा ... शायद जो मैंने अनुभव किया कि कुछ घरों में सब से हट्टे-कट्टे लोंडे को कुल्हाडी देकर पेड़ पर चढ़ा दिया जाता है ...कि चला बेटा कुल्हाडी,  जितना आसानी से काट सकता है, छांग दे पेड़ को (पंजाबी में पेड़ की छंटाई को छांगना कहते हैं) ......ताकि धूप तो नीचे आए।   ऐसे पेड़ देख कर बहुत बुरा लगता था...ऐसा लगता था िसर मुंडवा दिए गये हों इन सब के...........कितने बदसूरत दिखा करते थे तब पेड़......बिना हरियाली के, बिना फूल-पत्तों के. धूप की चिंता हम लोगों को बड़ी सताती है ....और फिर जब गर्मी में छांव कम दिखती है तो झुंझलाते ही हमीं लोग हैं।

हां, जहां तक हमारे गृह-नगर वाले मकान की बात है, वह पेड़ हमारी बाउंडरी वाल के साथ गेट के साथ सटा हुआ था...शीशम का पेड़ था, अपने आप ही उग आया था.. उस के पत्ते नीचे गिरते थे, गार्डन में गंदगी फैलती थी, मां को लगता था.......इसलिए उस से छुटकारा पा तो लिया......लेकिन उस के बाद घर बड़ा सूना सूना लगने लगा. उस पेड़ के रहने से हमारे घर का कोई भी हिस्सा बाहर गेट से नहीं दिखता था.... 

तो हुआ यह कि पेड़ के कटने के कुछ ही महीनों के बाद उस मकान में ऐसी चोरी हुई कि घर के बर्तन तक चोर-उचक्के उठा कर ले गये, पंखे के पर तक काट कर ले गये, गैस के सिलेंडर...बस फर्नीचर छोड़ कर जाना शायद उन की मजबूरी रही होगी। मेरी मां को यही लगा िक पेड़ कटवाना अशुभ रहा ...इसलिए इतनी बड़ी चोरी हो गई.......और मैंने कभी नहीं कहा कि नहीं, नहीं, इस का पेड़ कटवाने से कुछ लेना देना नहीं है, मुझे लगता है कि मां की यही सजा है, उन का यही पश्चाताप है कि उन्हें लगे कि ऐसे पेड़ को जड़ से कटवाना बुरी बात है..........वैसे उस दिन के बाद उन्होंने कभी किसी पेड़ को नहीं कटवाया और कहती हैं कि न ही कटवाएंगी..

एक बात और याद आ गई........लखनऊ आने से पहले हम लोग जिस घर में रहते थे हरियाणा में, वह घर जिस महांपुरूष को अलाट हुआ तो सुना है कि उसने पहले तो सभी पेड़ कटवाए, फिर उस घऱ में रहने को आए वे लोग.....बाबा रामपाल की जय हो। 

मुंह के अंदर कोई भी दवाई लगाने से पहले

अकसर मेरे बहुत से मरीज़ मेरे पास पहुंचने से पहले टीवी पर ताबड़-तोड़ दिखाए जाने वाले उन दो-तीन फोरन में प्रैक्टिस कर रहे दंत चिकित्सकों के विज्ञापन द्वारा कही बातें मान कर वह पेस्ट कईं महीने इस्तेमाल कर के ही पहुंचते हैं। बड़ा अजीब लगता है कि हमारी बातें तो कोई पिछले ३०सालों से सुन नहीं रहा और उस विज्ञापन में बताई जाने वाली मुश्किल से नाम वाली पेस्ट का नाम अनपढ़ी महिलाएं भी रट लेती हैं......यह तो हुआ विज्ञापन का जादू, बाकी कुछ नहीं।

दरअसल जब हम लोगों ने पढ़ाई की तो इन पेस्टों को medicated toothpastes कहा जाता था ...जिन्हें किसी विशेष कारण से ही दंत चिकित्सक मरीज़ों को इस्तेमाल करने की सलाह दिया करते थे। बिना वजह ऐसे ही कोई भी पेस्ट मंजन इस्तेमाल करने से दांतों की तकलीफ़ का निवारण हो ही नहीं सकता...यह जस की तस तो बनी रहती है, वैसे बहुत से केसों में शायद इस के प्रभाव से लक्षण दब जाते हों और दंत रोग जटिल हो जाते हैं...अकसर। अकसर ये पेस्टें महंगी तो होती ही हैं।

टुथपेस्ट-दंतमंजन का कोरा सच... भाग १
टुथपेस्ट-दंतमंजन का कोरा सच..भाग२

(जैसे एक कहावत है ना कि हलवाई अपनी मिठाई नहीं खाता....मैं अकसर एक बार किसी लेख को लिखने के बाद दो एक दिन के बाद उसे नहीं पढ़ पाता.....कारण?... यही कारण कि लगता है कि ऐसा क्या लिख दिया कि उसे बार बार देखूं......क्योंकि यह इत्मीनान होता है कि जो भी लिखा है सच एवं अपने अनुभव पर आधारित ही लिखा है तो फिर मुझे क्यों इतनी हड़बड़ी बार बार उसे देखने की..)

विषय से और न भटक जाऊं.....वापिस लौट रहा हूं....हां, तो पेस्ट को अपनी इच्छा से (और आज के दौर में विज्ञापन में दिख रहे विलायती डाक्टरों की ताकीद पर)...लेकिन परेशानी की बात है कि मुंह में कुछ भी ज़ख्म, घाव या छाले आदि होने पर भी लोग अपनी मरजी करने से बाज नहीं आ रहे हैं।

यह पोस्ट लिखने का ध्यान मुझे इसलिए आया कि मैंने एक स्टीरायड-युक्त मुंह में लगाई जाने वाली दवाई (ओएंटमैंट) के ऊपर जब लिखा देखा कि इस मुंह के छालों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। नहीं, यह बिल्कुल गलत है, अकसर बिना दंत चिकित्सक की सलाह के इस तरह की दवाई इस्तेमाल की ही नहीं जा सकती है। यह जो स्टीरायड-युक्त मुंह में लगाई जाने वाली दवाई की मैं बात कर रहा हूं, इसे हम लोग ही बड़े सोच समझ कर लगाने की सलाह देते हैं और इस के लगाने की बहुत ही कम केसों में ज़रूरत पड़ती है।

एक बात और, मुंह में ज़ख्म, घाव या छाले किस वजह से...कब से हैं, यह तो केवल दंत चिकित्सक ही बता पाता है.....मुंह में छाले जलने से हो जाते हैं, खाने-पीने में किसी कैमीकल की वजह से होते हैं, किसी इंफैक्शन की वजह से, बिना किसी कारण के (idiopathic), किसी दांत की रगड़ से, तंबाकू-पान-गुटखा से होने वाली किसी बीमारी की वजह से, या फिर किसी दवा के रिएक्शन से ही मुंह में घाव हो गया हो.........बहुत से कारण हैं, चूंकि दंत चिकित्सकों ने इन सब तरह के सैंकड़ों-हज़ारों मरीज़ देख रखे होते हैं, अधिकांश केसों में उन्हें चंद सैकिंडों में पता चल जाता है कि क्या कारण है और उन के ऊपर कुछ लगाने की ज़रूरत है भी या ये अपने आप तीन-चार दिन में ठीक हो जाएंगे।
जुबान के ज़ख्म बहुत जल्द ठीक हो जाते हैं...

अब बुखार के बाद जो अकसर होंठ के किनारे पर जो एक छाला सा बन जाता है ...वह वायरस इंफैक्शन की वजह से होता है, किसी दवाई विशेष की ज़रूरत होती नहीं, दो दिन दिन में वैसे ही दुरूस्त हो जाता है....वैसे यह हरपीज़ सिंपलेक्स इंफैक्शन की वजह से होता है।

मरीज़ तो मुंह की हर तकलीफ़ को पेट की सफ़ाई से ही जोड़ लेते हैं, यह सरासर गलत है......वह अलग बात है कि पेट तो साफ़ रहना ही चाहिए, वह एक अलग मुद्दा है, लेकिन यह भी सदियों पुरानी एक भ्रांति है...कब्ज और मुंहों के छालों से संबंधित.....।

बाज़ार में बहुत से मसूड़ों की मालिश करने के लिए तेल मिलते हैं जिन्हें गम-पेन्ट कहते हैं......इन्हें आप चिकित्सक की सलाह अनुसार मसूडों पर लगा सकते हैं... कोई खराबी नहीं, लेकिन यह मसूडों के रोग को दुरूस्त नहीं कर पायेगा, वह तो इलाज से ही होगा, इस से शायद लक्षणों में ही थोड़ा-बहुत राहत मिल पाती है।

घाव पर लगाने वाली दवाईयों की बात करें तो तंबाकू-पान-गुटखा की वजह से होने पर ज़ख्मों में वे कोई असर नहीं करतीं, थोड़ा बहुत राहत मरीज़ को लगती होगी, लेकिन सच्चाई यह है कि इन का कुछ असर होता नहीं, कईं बार इन के चक्कर में मरीज़ बेशकीमती समय बरबाद कर देते हैं.....तंबाकू-वाकू हमेशा के लिए थूकना ही होगा और ऐसे ज़ख्मों, घावों या छालों को दंत-चिकित्सक को दिखाना ही होगा।

यह तो थी दवाईयों की बात हम लोग तो मरीज़ को लौंग का तेल घर पर अपने आप लगाने के बारे में भी सचेत करते रहते हैं क्योंकि इस का गलत इस्तेमाल भी कईं बार परेशानी पैदा कर देता है...

दांत में लौंग-तेल लगाने का सही तरीका

और मुंह में डिस्प्रीन की गोली को पीस कर लगाने से भी बहुत बार आफत हो जाती है..ऐसे प्रयोग से मुंह में बड़ा ज़ख्म हो जाता है जिसे ठीक होने में कईं दिन लग जाते हैं।

एक बात और .. अकसर मरीज़ मुंह में लगाने वाली कोई भी दवाई में भेद कर नहीं पाते, ऊपर मैंने जिस गम-पेन्ट की बात की है, उसे अगर मुंह के छालों में लगाया जाता है तो अकसर ये बुरी तरह से खराब हो जाते हैं।

लगता है अब यहीं पर विराम लगाऊं......काफ़ी लिख दिया है .......कुछ दिनों से बार बार ध्यान आ रहा था इस विषय पर लिखने के लिए.........बस, अगली बार मुंह में कोई भी दवा लगाने से पहले थोड़ा सोच-विचार कर लें या दंत चिकित्सक से पूछ लें.......या पेस्ट को सिलेक्ट करने से पहले "विलायती दंत चिकित्सकों" द्वारा दिए जा रहे विज्ञापनों के बारे में भी थोड़ा-सा सचेत रहिये ...हो सकता है कि आप को इन की ज़रूरत ही न हो, वैसे भी इन विज्ञापनों को देख कर ऐसा लगता है कि देश में साफ़-सफ़ाई की समस्या एक तरफ, और दांतों में ठंडा-गर्म लगने की समस्या दूसरी ओर.... विज्ञापन तो ऐसे कहते हैं कि जैसे १२५ करोड़ लोग ही दांतों में ठंडा-गर्म लगने से परेशान हैं..आइसक्रीम खा नहीं पा रहे हैं.........बस, वह पेस्ट करने से ही दांतों की तकलीफ़ें एक दम ठीक हो जाएंगी........ऐसा होता है क्या? मैंने तो कभी ऐसा होता देखा नहीं .......दांतों की झनझनाहट है तो उस का कारण खोज कर उसे ठीक कराएं......और याद रखने वाली बात है कि  इस झनझनाहट के भी एक नहीं, बहुत से कारण हैं।

बातें बहुत हो गईं.......एक गाना सुनते हैं.....शायद तीसरी-चौथी कक्षा में यह फिल्म देखी थी...महमूह साब भी मिलावटी चीज़ों का ही रोना रो रहे हैं.....अपने अनूठे अंदाज़ में.....खूब बजा करता था यह गाना भी रेडियो पर....आज सुबह सुबह पता नहीं कैसे इस का ध्यान आ गया....चालीस साल पहले भी बाज़ार के जो हालात थे, उस का साक्षी है यह गीत..