शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

सुबह टहलने वाले इस शख़्स के जज़्बे को सलाम

मैं अच्छे से जानता हूं कि सुबह का वक़्त अपने लिए ही होता है ... खु़द के साथ रहने के लिए, क़ुदरत के साथ रहने के लिए...रोज़ाना टहलने के लिए भी ...लेकिन पिछले कुछ हफ़्तों से मेरा टहलना छूटा हुआ था ...कुछ नहीं, बस बहानेबाजी, आज देर से उठा हूं तो टाइम नहीं है, आज जल्दी उठ गया हूं तो कैसे जाऊं...अभी तो कुहासा है ... कभी ठंड बड़ी है तो कभी कुछ लिखना है ...लेकिन ये सब कोरे बहाने हैं मुझे पता है ... मुझे सुबह जल्दी उठ कर टहलना बहुत भाता है ... क़ुदरत का वह रूप बस उस वक्त ही दिखता है, हमारी चार्जिंग भी उसी वक़्त ही हो सकती है ...जैसे ही इंसान पूरी तरह से जाग जाता है ...फिर तो वह क़ुदरत से ख़िलवाड़ शुरू कर देता है ...

पिछले कुछ दिनों से पता नहीं क्यो, बुढ़ापे के एक और लक्षण ने घेर रखा है ...रात तीन बजे के करीब जाग आ जाती है ...हिज्जे लगा लगा कर उर्दू की कोई क़िताब पढ़ने की कोशिश करते करते १-२ घंटे बीत जाते हैं, फिर सो जाता हूं ...फिर उठने में देर हो जाती है ...ऐसे में टहलना नहीं हो पाता।

जितने वक्त भी घर होते हैं, सर्दी की वजह से घर के दरवाज़े खिड़कियां बंद ही रहते हैं... ऐसे में माहौल बड़ा डिप्रेसिंग सा बन जाता है ... अगर सुबह टहलने भी न निकलें तो सारा दिन अजीब सी सुस्ती घेरे रखती है ...

आज भी एक ऐसी ही सुबह थी ... लेकिन आज ठान लिया कि टहलने तो जाना ही है ..और कुछ काम हो चाहे न हो...देखा जायेगा। मैंने बेटे को कहा कि चलो, चलते हैं..वह भी उठ गया।

घर के पास ही एक पार्क में टहल रहे थे तो एक बुज़ुर्ग दिखे ...एक तो मुझे यह बुज़ुर्ग लफ़्ज भी अब अजीब लगने लगा है ...मैं भी ५५ पार कर चुका हूं ...मैं भी तो छोटा-मोटा बुज़ुर्ग ही तो हूं... किसी को बुज़ुर्ग कहना मुझे ऐसा लगता है जैसे अपने आप को ऐसे दिखाना कि अभी तो मैं जवान हूं!!


ख़ैर, इस बुज़ुर्ग के बारे में मैंने कुछ महीने पहले भी लिखा था जब इन्हें पहली बार देखा था, आज भी जब इन को देखा तो मुझे बड़ी खुशी हुई...मैंने बेटे से कहा, यार, इस बुज़ुर्ग को इस तरह साक्षत टहलते देखना, क्या इस से भी बड़ी कोई प्रेरणा या इंस्पिरेशन हो सकती है...उसने भी हामी भरी। अगर यह शख़्श इस हालत में टहल सकता है तो लिहाफ़ में दुबके पडे़ वे तमाम लोग क्यों नहीं!!


एक तो होता है टहलना एक होता है दस हज़ार कदम चलने का कोटा पूरा करना ..एप पर देख कर ... चलिए, उम्र दराज़ होने की वजह से आहिस्ता तो चल ही रहे थे लेकिन वह इस का लुत्फ़ उठा रहे थे .. सुबह सुबह इन के दर्शन कर के, इन का जज़्बा देख कर रुह खुश हो गई ...इन के साथ शेल्फ़ी लेने की इच्छा हुई, लेकिन वह भी ग़ुस्ताखी हो जाती ...लेकिन एक ख़्याल यह आया कि शहरों में जिन पांच दस लोगों की तस्वीरें-मूर्तियां टंगी रहती हैं, सिर्फ़ वे ही तो हमारे प्रेरणा-स्रोत नहीं होते, ऐसे आमजन भी तो हमें अपनी जीवन-शैली से, अपने जज़्बे से सिखा ही रहे होते हैं...अगर मेरे हाथ में हो तो मैं तो इस तरह के लोगों की तस्वीरें पार्क के गेट पर लगवा दूं कि देखिए, अगर कोहरे के दिनों में यह टहलने निकल सकते हैं तो आप क्यों नहीं!! ईश्वर इन्हें शतायु प्रदान करे और ये स्वस्थ रहें, यही कामना है।

 कईं बार मैं अपनी कॉलोनी में कुछ लोगों के बारे में लिखता हूं जो वॉकर की मदद से टहलते दिखते हैं ...उन का जज़्बा भी क़ाबिले-तारीफ़ तो होता ही है ....और मैं यह भी देखता हूं कि उन की हालत में निरंतर सुधार ही होता है ...यहां तक कि बहुत से लोगों को कुछ हफ़्तों-महीनों बाद बिना वॉकर के चलते भी देखता हूं। अच्छा लगता है ..

कुछ भी कहें वाट्सएप कॉलेज भी है कमाल की चीज़, उस दिन जनाब मिलखा सिंह जी की एक वीडियो किसी ने भेजी, इतने प्यार से इतने अपनेपन से वह शरीर को हिलाने-ढुलाने की बात कह रहे थे कि ऐसे लगा कि मेरा ही कोई बुज़ुर्ग कुछ समझ रहा है...उन की बात मन को ऐसी छुई कि इस वीडियो को वाट्सएप पर कहीं गुम होने के डर से ख़ुद के यू-ट्यूब चैनल पर ही अपलोड कर लिया ... ताकि बार-बार इन की इस बात को सुन सकूं और आगे दूसरों तक भी पहुंचा सकूं। लीजिए, आप भी इन से सीख लीजिए...


ब्लॉग तो यह ११ साल पुराना है ...पहले सैंकड़ों लेखों में बीमारियों के बारे में लिख लिख कर इतना ऊब गया कि फिर लगा कि बेकार है यह सब कुछ लिखना ...लोग सब कुछ गूगल चच्चा से पूछ लेते हैं, बेकार में दिमाग़ पर बोझ नहीं डालना चाहिए, हां, अगर कुछ कहना है, कुछ लिखना ही है तो ज़िंदगी की बात की जाए, ज़िंदादिली की बात की जाए...अगर कोई मंज़र दिल को छू गया तो उसे शेयर किया जाए...ताकि पढ़ने वाले भी लुत्फ़ उठाएं और शायद थोड़ी इंस्पिरेशन लें या कम से कम उस के बारे में सोचें तो ....

एक बात जाते जाते और कह दूं...आज की पीढ़ी समझती है कि सब कुछ पिज़ा-बर्गर की तरह की तरह फॉस्ट हो सकता है ..जब चाहो हीरो की तरह सिक्स-एब्स बना लो, चब चाहो जिम जा कर हीरोइन की तरह ज़ीरो-फ़िगर ह़ासिल कर ली जाए....लेकिन ऐसा हो नहीं सकता, अगर होता भी है तो वह लंब समय तक बना नहीं रह सकता ...और इन लोगों के तो पर्सनल-ट्रेनर होते हैं, आम लोग देख-सुन कर ही कुछ भी सप्लीमेंट खाना शुरू कर लेते हैं.. ..लंबी बात को छोटी यह कह कर किया जा सकता है कि किसी भी शख्स की जब तक बॉडी-क्लॉक सही नहीं है, जब तक वह समय पर खाता-पीता और सोता नहीं, कुछ नहीं हो सकता.....बीस, तीस, चालीस लाख के पैकेज के लिए नई पीढ़ी अपनी सेहत को दांव पर लगा रही है, लेकिन सच्चाई यही है कि  दुनिया का सब से बड़ा रईस भी कोई बन जाए, सब बेकार है ...अगर हमें बॉडी-क्लॉक ही नहीं सेट कर पा रहे...

शायद मेरा व्यक्तिगत विचार हो लेकिन है तो पक्का ...सुबह का टहलना, क़ुदरत के साथ वक़्त बिताना ...जिन में आस पास के मनाज़िर --पेढ़, पौधे, पंक्षी सब शामिल होते हैं....यह किसी के भी शरीर को चार्ज तो कर ही देता है उस की रुह को ख़ुराक भी मुहैय्या करवा देता है .......मेरी समझ यही कहती है कि अगर कैलेरीज़ को जलाना ही मक़सद हो तो ए.सी जिम में यह काम हो सकता है, इस के आगे कुछ नहीं!! मैं मानता हूं कि मेरी यह सोच ग़लत भी तो हो सकती है!