रविवार, 29 मई 2016

मस्ती की पाठशाला ..

सुबह एक पोस्ट डाली थी...बचपन के दिन भुला न देना...उसे लिखते ही लग रहा था कि कुछ तो छूट रहा है..इतना बड़ा टॉपिक एक पोस्ट में समेटना किसी के बस में नहीं।

एक मित्र का वाट्सएप मैसेज आया कि मैंने कंचे का खेल तो छोड़ ही दिया..उसी समय पिछली पोस्ट पर एक कमैंट भी आया कि कंचे कैसे छूट गये...

कंचों का तो मैं चैंपियन था ही 

जी हां, मैं कंचों का चैंपियन था उस दौर का ..और हम लोग एक डिब्बे में कंचे इक्ट्ठे कर के रखते थे...और शाम को आखिरी गेम के बाद उन्हें धोने के बाद चमका लेना....हा हा हा हा हा हा ....

फिर अगले दिन पहले खराब कंचों को जेब में भर के निकलना...

अभी दिमाग पर ज़ोर दे रहा था बैठा बैठा तो याद आया कि कंचों की कईं गेमें हुआ करती थीं...एक थी ताना, जिस में हम लोग दूर से निशाना लगाया करते थे...और एक थी नक्की पूर...इस में हम लोग मुट्ठी में कंचे बंद कर लेते थे ..और दूसरे को कुछ बताना होता था...पता नहीं यार, अब डिटेल नहीं पता...इस गेम में बचपन का एक साथी दया नाम से था ...अगर वह शाम को हार जाता तो कमबख्त सुबह सुबह ही बाहर बुलवा लेता...जेबें हम लोग ऐसे ठूंस के भरे रहते कंचों से ..

बड़ा मज़ा आता था कंचे खेलने में ....बस मेरे पिता जी को पसंद नहीं था कि मैं कंचों में खेल कर अपने कपड़े गंदे कर लूं..इसलिए उन के आने से दस मिनट पहले सब कुछ समेट लिया जाता ..और हाथ पांव धो कर अच्छा बच्चा बन जाता।

सूआ खेलना..

हां, एक गेम जो मुझे सुबह भी याद थी...वह अब आपसे शेयर करनी है ..इसे हम लोग पंजाबी में सूआ खेलना कहते थे... इस के लिए हमें एक मैदान में जाना होता था..और इसे खेलने के लिए हम लोग बरसात का इंतज़ार किया करते थे..बरसात के मौसम में ज़मीन नरम हो जाती है यह खेल तभी खेला जा सकता है..

इस लिए हम लोगों के पास एक लोहे की पतली छड़ी नुकीली सी ..होती थी ..लगभग एक या डेढ़ फुट लंबी..जिसे हम लोग अगर गीली ज़मीन में ज़ोर से मारें तो वह अंदर धंस जाए...

हां, गेम इस तरह से होती थी कि हम मैदान के एक कोने में एक गोलाकार बना लेते ...उस के अंदर खड़े होकर एक खिलाड़ी दूर सूआ फैंकता ...अगर वह धंस जाता तो गेम शुरू हो जाती..फिर जहां वह सूआ धंसता, वहां से उसे उखाड़ के आगे उसे फैंका जाता...यह सिलसिला तब तक चलता रहता जब तक सूआ धंसने की बजाए गिर जाता....

हां, फिर उस जगह से दूसरी टीम के बंदे को हमें अपनी पीठ पर चढ़ा कर उस गोलाकार तक लाना होता...बीच में अगर उस का दम फूल जाता तो उस के टीम के किसी दूसरे मैंबर की पीठ पर हम लोग सवार हो जाते ...it used to be great fun...हम लोग उस समय हंसी से लोटपोट हो रहे होते....आखिर हमें गोलाकार तक पहुंचाने पर ही उन की जान छूटती ..

फिर उन का नंबर ...
यह था सूए का खेल...


हां, मेरे से एक भूल हो गई सुबह...अपने स्कूल के साथी डा रमेश ने सुबह जो तस्वीरें भेजी थीं ..वे सब मैंने अपनी पोस्ट में लगा दी थीं, लेकिन एक कैरम-बोर्ड की छूट गई थी...उसे भी यहां लगा कर छुट्टी करूं...वैसे लिडो ने भी ..सांप सीडी ने भी अपना बड़ा साथ दिया...

हो गई यार खेलों की बहुत सी बातें...अब पढ़ाई लिखाई की बात कर लें, हमें छुट्टियों का काम भी कुछ इस तरह का मिलता था...रोज़ हिंदी, पंजाबी और इंगलिश का एक सुलेख पन्ना लिखना है... जितनी छुट्टियां उतने पन्ने ...और कलम से लिखना होता था ...हां, एक बात याद आ गई...जितने भी स्कूल के साथी फोन पर बात करते हैं, सब मेरी लिखावट को बड़ा याद करते हैं....एक ने पूछा कि क्या अब भी वैसा ही लिखते हो, एक साथी जो वाईस-प्रिंसीपल हैं अभी वह बता रहे थे कि वह स्कूल के बच्चों को मेरी लिखावट के बारे में बताते हैं अकसर.....I felt flattered...हां, दोस्तो, अभी भी कुछ शेयरो-शायरी को नोटबुक पर लिखने के बहाने कभी कभी सुलेख लिख लेता हूं...अभी कोई सेंपल लगाऊंगा...

घर में ही हमारी विजिलेंस टीम भी होती थी जो यह निगरानी रखती थी कि छुट्टियों का काम रोज किया जाए...एक ही दिन में पूरा न किया जाए..एक बार पांचवी कक्षा में गणित की कुंजी का जुगाड़ हो गया... मैंने एक ही दिन में सारा काम खत्म कर लिया...बड़ी बहन को पता चला..वह मेरे से दस साल बड़ी हैं...अभी यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर हैं. उन्होंने कहा कि लाओ ..कापियां लाओ..सारे होमवर्क की कापियां फाड़ने को कहा ..और चुपचाप रोज़ अपना दिमाग लगा कर थोड़ा थोड़ा काम करने को कहा .... मैंने चुपचाप कापियां फाड़ दीं...नईं कापियां ला कर रोज़ाना समझ लगा कर होमवर्क करना शुरू कर दिया....बहन मेरी पढ़ाई का बड़ा ध्यान किया करतीं..

फिर हम लोग रिश्तेदारों के यहां चले जाते ...कभी रिश्तेदार आ जाते ...बस ऐसे ही छुट्टियां बढ़िया बीत जातीं..

पिछले रविवार मैं एक अखबार में लेख पढ़ रहा था कि आज कर बच्चों की छुट्टियों का फार्मेट ही बदल गया है .. छुट्टियों के दिनों में भी सुबह से शाम तक उन का प्रोग्राम फिक्स है ...इतने बजे यह एक्टिविटी, इतने बजे स्वीमिंग, इतने बड़े फलां कैंप, इतने बजे ढिमका.....सब कुछ परफैक्टली पहले से तय होता है ....उस लेख में बताया गया था कि ऐसा ठीक नहीं है...ठीक है बच्चे कुछ एक्टिविटी करें, लेकिन ऐसा भी नहीं कि सब कुछ इतना वाटर-टाइट शैड्यूल में बंधा हुआ हो .. उस लेखक ने बड़ा सुंदर लिखा था कि बच्चों को छुट्टियां हैं तो उन्हें देर से उठने का हक है, उन्हें टीवी भी, कार्टून भी देखने चाहिए, उन्हें बाहर दूसरे बच्चों के साथ खेलना भी चाहिए...और नानी-दादी के पास भी जाना चाहिए कुछ दिन बिताने के लिए ताकि वे उम्र भर के लिए यादें संजो लें.....मैं भी इस बात से पूरी तरह से सहमत हूं...

हां, मैंने लिखावट का सैंपल दिखाने की बात कही थी...पेशेखिदमत है ..


अब एक ऐसे ही मस्ती वाले गीत की बारी है .. रेखा जी भी कुछ मशविरा दे रही हैं... आप भी सुनिए...😊😊😊😊😊😊😊😊😊 😊😊😊





चूहों का शिकार तो आपने भी कभी किया ही होगा!

एक बड़ी जबरदस्त हिंदी फिल्म आई थी.. प्यार तो होना ही था...बहुत बार देखी...क्लाईमेक्स में हीरो ने फ्लाईट को रूकवाना होता है..काजोल के पास जाने के लिए...टेक-ऑफ होने ही वाला था..एयरपोर्ट आफीसर नहीं मानता..देवगन ईमोशनल पत्ता फैंकता है ...सर, प्यार तो आपने भी कभी न कभी किसी से किया ही होगा!....बस, फिर क्या था, निशाना लग गया टिकाने पर...फ्लाईट को रोक दिया गया...

मेरी इस पोस्ट का शीर्षक भी इसे संवाद से प्रेरित है कहीं न कहीं...विषय थोड़ा पकाने वाला ही है, ऐसा करते हैं...पहले इसी फिल्म से मेरा पसंदीदा गीत सुन लेते हैं....अजनबी मुझ को इतना बता, दिल मेरा क्यों परेशान है!


अब बात शुरू करते हैं...चूहों की...परसों मैं अपनी कॉलोनी के बाहर निकला तो देखा एक बंदा एक पिंजड़े में बंद कुछ जानवरों की कुछ खिला रहा है...



एक तो मेरी यह उत्सुकता हर जगह मुझे रूकवा देती है ...हां जी, क्या कर रहे हैं?... चूहों को अंडा रोल खिला रहे हैं...चूहे और सफेद रंग के... पता नहीं यह भी कोई हाईब्रिड ब्रीड है या क्या है, लेिकन ये चूहे हैं बहुत सुंदर ..उस पिंजडे में उन के खाने-पीने की अलग व्यवस्था कर रखी थी...एक दो कटोरे फिक्स करवा रखे थे...

और जितने चाव से जितने उत्साह से वह बंदा इन की सेवा-सुश्रुषा में लगा हुआ था वह भी देखते बन रहा था...साथ साथ मेरे को बताने लगा कि इस एक चूहे को अगर आप कमरे में छोड़ दें तो दूसरे चूहे कभी उस कमरे में नहीं आते...
अच्छा, तो यह बात है!




मैं यही सोच रहा था कि ये नेक किस्म के चूहे अगरे चालीस पचास साल पहले आ जाते तो हम लोगों की बचपन की सिरदर्दी भी थोडी कम हो जाती..

हम लोगों के घर में एक चूहों के पकड़ने के लिए लोहे की तारों का बना पिंजड़ा था...कभी कभी उस में रोटी टांगने की ड्यूटी मेरी लगती थी...यही दूसरी तीसरी कक्षा की बातें हैं...उस ज़माने में मुझे घर में सब से ज़्यादा जटिल मशीन ही वह लगती थी....मैं देख कर हैरान हो जाया करता कि किस तरह के हमें उस में एक चूहा कैद हुआ मिलता...फिर मैं देखता कि कैसे वह अंदर फंसा होगा...उस के लिए बुरा भी लगता ..फिर यही तसल्ली होती कि अभी चंद मिनटों की बात है, इसे बाहर तो छोड़ ही आना है..

हम लोग उसे घर के बाहर छोड़ आते....फिर वह किस पड़ोसी के घर घुस जाता ...इस से हमें कोई लेना देना नहीं होता..मुझे लगता है कि कमबख्त यह भी एक खेल ही था...आज उस के घर से, परसों उस के घर से, फिर से वापिस हमारे घर से... बस, ऐसे ही सिलसिला चल रहा था...शायद १९७०-७२ के आस पास तक...

फिर धीरे धीरे पता चलने लगा कि अब सभी लोग एतराज करने लगे थे कि चूहे अगर पकड़ें हैं तो उन्हें घर के बाहर ही क्यों छोड़ देते हैं...हमारे घर में घुस जाते हैं...इसलिए लोगों ने घर से सौ पचास मीटर दूर ऩाली या किसी नाले के पास जाकर कैद चूहों को विदा करना शुरू कर दिया...

एक याद मुझे बहुत अच्छे से है ...हमारी कॉलोनी में ही कुछ घर छोड़ के ...श्याम लाल जी रहते थे...पता नहीं यार उन के घर में कितने चूहे थे ..या क्या चक्कर था, क्या नहीं, जब भी मैं घर के बाहर होता उन का बड़ा बेटा हमेशा मुझे साईकिल के कैरियर पर चूहेदानी टिकाए हुए ही दिखता ...यह उस का पढाई से बचने का बहाना था, या सिर्फ टाइम-पास... अकसर उसे देख कर हंसी आ जाती थी मुझे ...हम लोग भी इस काम के लिए जाते थे..लेकिन इतने ताम-झाम के साथ नहीं, चुपचाप गये ...उस लोहे वाले पिंजड़े का दरवाजा खोल दिया ...और उसे आज़ाद कर दिया...हां, एक बात और ध्यान में आ रही है, गली मोहल्लों में इस काम के लिए सुबह तड़के के समय को सब से अच्छा माना जाता था..न कोई देखेगा..अगर चूहे मस्ती मस्ती में विद्या की मां, कश्मीरन, कपूरनी, सोडन ...किसी के भी घर घुस गया तो कोई पंगा नही...वरना थोड़ी बहुत चिक चिक तो...चाहे मामूली ही सही ... होने के चांस तो थे ही!

लोग स्मार्ट होने लगे १९७० के दशक में ...हमारे सामने रहने वाला अशोक एक पिंजड़ा ले आया जिस में चूहे की हत्या ही हो जाती थी...मुझे वह बहुत बुरा लगा ...हम ने यह सब काम कभी नहीं किया....मारने वारने का क्या काम, बंद किया ..छोड़ दिया...हो गई बात ....कुदरत के कानून को अपने हाथ में लेने से क्या हासिल!

तब तक लकड़ी के चूहेदान आ चुके थे....हैंडल के साथ...वह भी हम लोगों के यहां था... और हां, ये चूहेदान एक दूसरे के यहां से मांग कर भी काम चला लिया जाता था...बेवजह की इतनी अकड़  भी तो नहीं थी ना तब!

लेकिन फिर कुछ ऐसा पंगा हो गया कि चूहेमार दवाई बाज़ार में मिलने लगी ...  हम लोगों को यह सब बहुत बुरा लगता था..और आज भी लगता है ...जीव हत्या बहुत गलत है..बाकी सब बातें अपनी जगह ठीक हैं...हम लोगों ने इसे कभी इस्तेमाल नहीं किया...अब जब घर में कभी कोई चूहा दिख जाता है तो काम वाली बाई उस के पीछे भाग भाग के उसे बाहर का रास्ता दिखा देती है...

यह तो थी फ्लैशबेक....

आज मैं सुबह बेटे के साथ बाज़ार में घूमने निकला तो एक मोटर साईकिल पर यह पिंज़ड़ा देखा..इस में दो चूहे थे...क्योंकि मुझे परसों चल गया था कि चूहे सफेद रंग के भी होते हैं...मैंने इस बंदे से पूछा कि कितने में खरीद लाए ?....मैं भी न पंगे लेने से बाज नहीं आता...बताने लगा कि १५० के आये हैं...मैंने पूछा...पिंजड़ा भी साथ में?...नहीं, नहीं, पिंजड़ा अलग लिया है २५० में ... अच्छा मजबूत लिया है, वरना ये तार को काट देते हैं.....बंदा बड़ा खुश था...

बताने लगा कि इन चूहों की वजह से घर में दूसरे चूहे नहीं आते....मैंने पूछा कि इन को खुला तो छोड़ना पड़ता होगा घर में, उसने बताया कि नहीं, पिंजड़ें में ही इन की महक से दूसरे चूहे घर में नहीं फटकते......मैं हैरान था कि यह कैसा चक्कर है! लेकिन उसे इन को पालने का पूरा अनुभव था...जैसा कि उस की इस बात से पता चला कि जोड़ा लिया है, और आने वाले दो महीने में यह पिंज़ड़ा पूरा इन के बच्चों से भर जाएगा....वाह यार ...यह तो बहुत अच्छी बात है!

 पोस्ट को खत्म करने से पहले यहां यह भी दर्ज कर दूं कि मुझे हर तरह के पिंजड़ों से सख्त नफ़रत है..कितनी घुटन होती होगी ....काश, पिंजड़े बनने ही बन हो जाएं...हम लोगों में कुछ ऐसे बदलाव आ जाएं कि हम जीवों को पिंजड़ों में कैद करना ही छोड़ दें....घुटन से याद आया ...अभी हमारे सत्संग वाले ग्रुप पर एक मैसेज आया ..आप से शेयर करने की इच्छा हो गई....

और इस पोस्ट रूपी लिफाफे को बंद करते करते बेटे ने यह मैसेज भेजा है ...अभी पढ़ता हूं...

अचानक मुझे भी यह गीत ध्यान में आ गया ....

बचपन के दिन भुला न देना..

मुझे अभी याद आया कि इस नाम से एक पोस्ट मैंने आठ दस साल पहले भी लिखी थी जब एक दिन मैंने बेटे के हाथ में गुलेल देखी थी..

अभी इस का ध्यान सुबह सुबह इसलिए आ गया कि आज हमारे स्कूल वाले ग्रुप पर डा रमेश ने सुबह खूब सारी फोटो भेजीं यह लिख कर कि जब टीवी और इंटरनेट नहीं थे तो हम लोगों की छुट्टियां कुछ इस तरह से बीता करती थी...मजा आ गया इन तस्वीरों को देख कर ...सब कुछ फ्लैशबैक की तरह मन में घूम गया..इन सभी तस्वीरों को तड़का लगाने की इच्छा हुई और इन्हें  ब्लॉग में सहेजने की भी इच्छा हुई ताकि आज कल के बच्चे-युवा कभी अगर इन्हें ढूंढते हुए भूले-भटके यहां तक पहुंच जाएं तो उन्हें कुछ मिल जाए!

हमारी बालकनी से आज की सुबह ऐसी दिख रही है...
मेरे विचार में पहले तस्वीरें टिका दूं....यह टापिक बहुत लंबा है..क्योंकि लगभग हर गेम के साथ हमारी इतनी यादें तो बावस्ता हैं जिन के लिए कम के कम अलग से एक एक पोस्ट तो चाहिए ही चाहिए... अभी तो मैं इन के साथ केवल इन के नाम लिख कर छुट्टी करूंगा...क्योंकि बाहर मौसम बड़ा खुशगवार हो गया है ..बरसात की वजह से ..ऐसे में यहां लैपटाप के आगे टिकना भी एक गुनाह जैसा ही है ...बेटा भी कह रहा है...चल बापू, कहीं चलते हैं!

अच्छा, मैं फोटो तो यहां लगा रहा हूं..साथ में इन के नाम जो पंजाबी में हम लोगों को याद हैं, वही लिख रहा हूं...अगर आप चाहें तो मुझे कमैंट्स में इन के अन्य भाषाओं के नाम भी िलख भेजिए....मैं उन्हें भी तस्वीरों के साथ लिख दूंगा...
 
यह है जी पिट्ठू सेका...जो इस ढेरी को गिरायेगा. फिर भागेगा ..पीठ की सिकाई से बचने के लिए .. .हा हा हा 

पतंगबाजी...मुझे यह कभी नहीं उड़ानी आई...क्योंकि मेरे में पेशेंस नहीं है
हमेशा इन से ईर्ष्या ही करता रहा कि कैसे करते हैं ये इतना बढ़िया बैलेंस और ऊपर से रेस ...हा हा हा 

वाह भई वाह...लाटू का खेल...हमारे समय में हम लोगों को ये मिट्टी के बने हुए भी मिलते थे..पांच पैसे के पांच ...घऱ आकर फिर पायजामे से नाड़ा निकाल कर यह खेल शुरू हो जाता था...लाटू पर लपेटने के लिए!😊 

लड़कियों का खेल...जो मुझे याद रहा ..कोकलाशी पाकी जुम्मे रात आई जे...जेहडा अग्गे पिच्छे वेखे ओहदी शामत आई जे...

वाह ही वाह...यह स्टापू वाला खेल तो हम भी खेला करते थे..
गीटे ....वाह जी वाह...यह हम भी बहन के साथ और पड़ोस की लड़कियों के साथ खेला करते थे...जब लकड़ी के बने गीटे नहीं होते थे तो इमली के बीजों को तोड़ कर गीटों का जुगाड़ हो जाता था..
गुल्ली डंडा...बड़ा एक्सपर्ट था मैं इस में...हर कोई ही था उस दौर में! 
विकेट तो भाई ऐसी ही होती थी..लेकिन बैट की जगह हाथ में कपड़े धोने वाली थापी या जिसे सोटा कहते थे, वही हुआ करता था...कुछ बच्चों की घर में इसी थापी से पिटाई भी हुआ करती थी, हम लोगों की तो कभी भी एक बार भी पिटाई नहीं हुई...मैं अकसर मां से यह गिला करता हूं! 

खो खो  का खेल...दसवीं कक्षा में मेरी यह गेम थी..हमारा एक साथ गुलशन आज कल अमृतसर के एक स्कूल का वाईस-प्रिंसीपल है, वह इस गेम का बादशाह हुआ करता था, दो दिन पहले याद करवा रहा था... 
कुछ कुछ बच्चे इतने एक्सपर्ट होते थे जमान पर घूमते लाटू को यूं अपनी हथेली पर उठा लिया करते .....और हम..दांतों तले अंगुली दबा लिया करते!!
चल भाग, तू चोर मैं सिपाही ....छू-छिपाई का खेल... कुछ याद आया?
लिड्डो का खेल...अकसर बच्चे ट्रेन में भी यह लेकर चला करते थे..
यह गुल्ली डंडा फिर से दिख गया....इसे तैयार करने का भी एक आर्ट था...क्योंकि नोकीली गुल्ली से ही खेल का मजा आता था..
इस का नाम नहीं याद आ रहा ..

ऐसा तो मुझे कुछ याद नहीं है... 

यह जो कैंची साईकिल वाली फोटो है ना यह मुझे सब से प्यारी लगी...क्योंकि इस तरह के लफड़े हम लोगों ने बहुत किये...घर में पड़ी कोई भी साईकिल लेकर निकल पड़ना ग्राउंड में ...कैंची साईकिल चलाते चलाते गिर भी जाना ..लेकिन हिम्मत नहीं हारनी...बहुत मजा आता था... एक िदन हमारी बड़ी बहन जैसी कंचन को मेरी इस हालत पर तरस आ गया...कहने लगी ...चल काठी ते बैठ, मैं पिच्छों कैरियर फड़दी हां....सच में, उस दिन उस की चंद मिनटों की हल्ला-शेरी से हम सीट पर बैठ कर साईकिल चलाने लगे......I can't forget that thrill...जब पहली बार सीट पर बैठ कर साईकिल चलाया था...शायद हवाई जहाज़ का आविष्कार करने वालों को भी उतना ही मज़ा आया होगा.... फिर तो बस यही तमन्ना था कि कब हमें भी साईकिल पर स्कूल जाने की इजाजत मिल जाए...

अच्छा दोस्तो ऐसा है कि मुझे इस पोस्ट में और भी बहुत कुछ लिखना है, लेकिन सोच रहा हूं कि अगली पोस्ट में वे सब बातें लिख दूंगा...अभी मैं बस उस पोस्ट को लगा रहा हूं जिसे मैंने आठ दस साल पहले लिखा था...जब मैंने अपने बेटे के हाथ में गुलेल देखी थी...आप उसे भी ज़रूर देखिएगा....मैंने अभी गूगल किया ...बचपन के दिन भुला न देना मीडिया डाक्टर ...तो झट से यह लेख दिख गया....आप के लिए इस का लिंक यहां लगा रहा हूं...बचपन के दिन भुला न देना..