मैं जब भी 26 जनवरी के राष्ट्रीय महोत्सव में सम्मिलित होता हूं तो एक बात मेरे को बहुत ही ज़्यादा कचोटती है कि इस के माध्यम से वैसे तो हम अपने संविधान की सालगिरह मनाते हैं, जश्न मनाते हैं ------यही संविधान जो हमें सब की बराबरी का सुंदर पाठ पढ़ाता है, यह कहता है कि देश के सब नागरिक एक समान हैं, कोई बड़ा नहीं, कोई छोटा नहीं ---- और यह संविधान प्रत्येक भारतीय को बराबरी का हक दे रहा है, लेकिन अकसर जहां पर ये समारोह चल रहे होते हैं मैं अकसर देखता हूं कि बहुत से लोगों को लड्डू के लिफ़ाफे तो दूर, यारो ,एक दरी भी नसीब नहीं होती ----- कुछ लोग दो-तीन घंटे तक बस चुपचाप खड़े होकर सारे प्रोग्राम का आनंद ले कर चुप चाप घर चले जाते हैं।
और मैं जब ऐसे ही किसी प्रोग्राम में सोफ़े पर बैठा इन सब की तरफ़ नज़र दौड़ाता हूं तो पाता हूं कि इन में से ऐसे भी हैं जो कि उम्र में मेरे से बहुत बड़े हैं, बुजुर्ग हैं ----और यह उन की देश-प्रेम की भावना है कि जो ये इन समारोहों में खिंचे चले आते हैं। और साथ में यह भी सोचता रहता हूं कि क्या मैं सोफ़े पर बैठा इस खड़ी जनता-जनार्दन के किसी भी सदस्य से ज़्यादा बड़ा भारतीय हूं, इन में से किसी से भी ज़्यादा देशभक्त हूं, इन में से किसी से भी किसी भी किस्म से ज़्यादा श्रेष्ठ हूं तो पाता हूं कि ऐसा बिलकुल नहीं है---------यही लोग इसी देश की जान है, संविधान रचे जाने की प्रेरणा है, इन्हीं लोगों के सपने इस संविधान में पड़े हैं, इन की आशायें-उम्मंगें-----सब कुछ इऩ का इसी संविधान में ही है। मैं इन्हें सम्मान पूर्वक कुर्सी जैसी छोटी वस्तु दिलाने की बात सोचता हूं ---- लेकिन अगर यह संविधान ही न होता तो इऩ की क्या हालत होती,यही सोच कर कांप जाता हूं !! जो भी होती , वह तो अलग बात है लेकिन चूंकि अभी तो हम सब भारतीयों की बराबरी का मसीहा ---यह संविधान है ---- तो फिर इन्हें बैठने के लिये कुर्सी नसीब क्यों नहीं होती ? मुझे यह प्रश्न परेशान कर देता है।
और हां, इस तस्वीर में यह जो आप संगीत का यंत्र देख रहे हैं ना, यह गणतंत्र दिवस के समारोह-स्थल के बाहर से लिया गया है ---- कल तो मैं और मेरा बेटा इसे तानपुरा कह कर ही बुलाते रहे, लेकिन आज ध्यान आ रहा है कि यह तो एक-तारा है ---- क्या मैं ठीक कह रहा हूं ?.
मुझे इस तरह के यंत्र देख कर बहुत ही खुशी होती है क्योंकि अपना बचपन याद आ जाता है और इन लुप्त हो रहे यंत्रों से जिन से देश की मिट्टी की खुशबू आती है ।
और इसे बेचने वाली महान आत्मा की बात ही क्या करें ---- यह फ़िराक दिल इंसान इसे बजाने की कला भी खरीदने वाले हर खरीददार को सिखाये जा रहा है। लेकिन मुझे इस यंत्र होने के धीरे धीरे लुप्त होने के साथ साथ इसे बेचने वाले उस गुमनाम से हिंदोस्तानी की भी फिक्र है क्योंकि मुझे दिख रहा है कि उस की खराब सेहत उस की निश्छल एवं निष्कपट मुस्कुराहट का साथ दे नहीं पा रही है , लेकिन साथ में सब को गणतंत्रदिवस की शुभकामनायें तो कह ही रही हैं। गणतंत्रदिवस के मायने सब के लिये अलग हैं ---इस जैसे हिंदोस्तानियों के लिये शायद यह कि इस दिन उस के ये यंत्र इतने बिक जायेंगे कि अगले पांच दिन बढ़िया निकल जायेंगे। यही सोचता हुआ कि इस महात्मा के बाद इस यंत्र का क्या होगा----कौन करेगा इतनी मेहनत इसे बनाने में, और कौन ही परवाह करेगा इन्हें खरीदने की !! ---बिना किसी विशेष प्रयास के यह वाद्य़ यंत्र भी लुप्त हो कर रह जायेगा---- तभी बेटे को कहता हूं कि चलो, बैठो यार चलते हैं।
गणतंत्र दिवस की आप सब को बहुत बहुत शुभकामनायें। तो, उस उस गुमनाम राही ( जो वह इकतारा बेच रहा था ) के नाम पर यह गीत ही हो जाये ----