शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

गुड मार्निंग ..लखनऊ !


लखनऊ की तहजीब की छींटे-फौहारें सुबह-सवेरे से ही इस के वासियों पर पड़नी शुरू हो जाती हैं...

समय की आंधी से जो खबरदार नहीं हैं..
वे और कुछ भी हों, समझदार नहीं हैं! 

ये शब्द आज सुबह टहलते हुए एक मित्र-मंडली की सजी महफिल से सुनने को मिले...कहने का अंदाज़ इतना दिलकश ..पहली लाइन को इतनी बार इतने बढ़िया अंदाज़ में पेश किया गया कि दूसरी लाइन सुनने तक सांसे रुकी रहीं....यही है लखनऊ वालों को निराला अंदाज़...

हां, सुबह टहलने से बात शुरू करते हैं....दरअसल हम लोग सुबह टहलने के मामले में बड़े आलसी टाइप के हैं...आज उमस है, आज लेट हो गया, धूप चढ़ गई है ...बस, ऐसे ही टाल देते हैं...


आज सुबह उठा तो वही मेरी पुरानी तकलीफ़ सिर भारी....ए.सी में सोना मेरी मजबूरी है, मुझे बहुत नफ़रत है ए.सी से ...क्योंकि सोने से पहले तो अच्छा लगता है, उस के बिना शायद नींद ही नहीं आए....लेकिन सुबह उठते ही सिर भारी हुआ होता है ...
जब तक ३०-४० मिनट टहल के न आया जाए, और वापिस लौटने के बाद १०-१५ मिनट शांति से न बैठा जाए तबीयत ठीक नहीं होती...

आज टहलने का मन हो ही गया...थोड़ी हवा भी चल रही थी, मौसम भी खुशगवार ही था...

पार्क के बाहर यह होम-ट्यूशन की इश्तिहार देखा...इस तरह के विज्ञापन जो अखबार में भी छपते हैं, वे मुझे बड़े अजीब से लगते हैं...एक बात का इतमीनान तो होता ही है कि चलिए, इसी चक्कर में कुछ बेरोज़गारों को काम-धंधा मिल जाता है...
लेकिन मेरी सोच यह है कि कुछ भी हो प्यासे का ही कुएं पर जाना ठीक होता है ....मुझे तो यह भी लग रहा है ...जैसा मैं समझता हूं कि जो बच्चे घर में ही ट्यूशन पढ़ते हैं वे पढ़ाई में ज्यादा आगे चल नहीं पाते..कारण कुछ भी हों ...लेकिन पास वास बस हो जाते होंगे ...लेकिन मुझे नहीं लगता कुछ विशेष हासिल कर पाते होंगे...

बच्चों के अगर हाथ-पांव चलते हैं तो उन्हें गुरूजनों के पास भिजवा कर ही विद्या दान ग्रहण करना चाहिए....उस स्थान की एक अलग ही आलौकिक ऊर्जा होती है...घर में तो बच्चा यही समझता है कि जैसे उस का रईस बाप ही सर की रोटी का इंतज़ाम कर रहा है ...हम लोग घर आए गुरूजनों से अति-शिष्ट व्यवहार करते हैं ...यह हमारे संस्कार की बात है या शायद इसमें भी हमारा स्वार्थ ही होता है लेकिन इस से गुरू-शिष्य के पारंपरिक संबंध पैदा नहीं हो पाते....मैं तो पूरे विश्वास के साथ ऐसा सोचता हूं...

हम ने भी बेटे के लिए एक हिंदी टीचर की व्यवस्था करी थी बंबई में १९९० के दशक में ...कुछ महीनों के लिए..उसने बेटे को हिंदी का शब्द-बोध करवाया...अच्छा अभ्यास भी करवाया...चूंकि यह उस के खेलने का समय होता था ..इसलिए उस के हाव-भाव से ऐसे लगता था जैसे उस टीचर का आना उस के लिए बोझ होता था..हमें यह देख कर बहुत असुविधा होती थी..चलिए, जैसे तैसे टाइम पास हो गया..

शुक्र है ईश्वर का कि हम लोगों का कितना भी बैंक बेलेंस हो, लेकिन कुछ चीज़ें हम खरीद नहीं सकते ...जैसे उस्ताद की कृपा-दृष्टि....इसके लिए समर्पण चाहिए....

मैं भी सुबह सुबह क्या प्रवचन झाड़ने लगा! 

प्रवचन से ध्यान आया ..बाग में यह भाई साहब कुछ परचे बांट रहे थे ..११ सितंबर को एक प्रोग्राम है...जितनी आत्मीयता से  ये टहलने वालों से आग्रह कर रहे थे, मन को छू गई यह बात और मैंने सोचा कि मैं भी अपने ब्लॉग के माध्यम से इस का प्रचार करूंगा ... पढ़िए, अगर आप भी आना चाहें तो ज़रूर पधारिए.... अता,पता,ठिकाना सब लिखा है इस परचे में....



टहलते हुए मेरी नज़र एक चबूतरे पर पड़ी तो मैंने देखा कि बीस के करीब पुरूष एक गोलाकार आकृति की व्यवस्था बना कर बैठे हुए हैं...ठहाके लगा रहे हैं...हर बंदा कुछ न कुछ सुना रहा था ....कोई चुटकुला, कविता, किस्सा.....एक शेयर तो मैंने ऊपर लिख दिया है ....एक बात और भी वहां दो  मिनट बैठने पर सुनने को मिली ....
"कोई आप को बेवकूफ कहे तो यह नाराज़ होने की बात नहीं है, बुरा मनाने की भी बात नहीं है, धैर्य खोने की भी बात नहीं है, रिएक्ट करने की भी बात नहीं है, परेशान भी होने की बात नहीं है, लड़ाई-झगड़े पर उतारू होने की भी बात नहीं है......
बस, एक कुर्सी पर आराम से टेक लगा कर बैठिए.....अपने गाल पर हाथ रखिए.....और सोचिए ....कि इसे आखिर पता कैसे चला.. !"
कहने का अंदाज़ उस बंदे का बिल्कुल लखनऊवा किस्सागोई वाला ....खूब ठहाके लगे इस बात पर ....

आगे चले तो देखा कि चार पांच पुरूष अकबर बीरबल का कोई किस्सा मरदमशुमारी पर कह रहे थे ..वह मैं सुन नहीं पाया ...यह लखनऊ की किस्सागोई की बड़ी उमदा रवायत है ...मैं यहां एफएम पर रेडियो जॉकी की बातें भी सुनता हूं तो ऐसे लगता है कि बढ़िया किस्से सुन रहा हूं....


मुझे अभी यह ध्यान आ रहा था कि इस तरह के बाग-बगीचों में ये जो लोगों को इस तरह की गोष्ठियां होती हैं ...मित्र -मंडलियों की ..यही असली गोष्ठियां हैं, वरना धर्म के ठेकेदार या दूसरे ठेकेदार लोग जो भोली भाली जनता को अच्छे दिनों के सपने बेच कर तितर बितर हो जाते हैं ... कुछ सालों के बाद फिर से लौटने के लिए....

अच्छा तो दोस्तो...आप का दिन बहुत खुशगवार हो... मस्त रहिए, व्यस्त रहिए.... take care! मुझे भी अभी अपने काम-धंधे पर निकलना है ... 

जाते जाते इस सपने के सौदागर की बातें भी सुनते जाइए.... क्या मालूम आप के मतलब की भी कोई चीज़ इस के पास हो ...