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बुधवार, 19 मार्च 2014

कुकिंग ऑयल और टमाटर सॉस में मिलावट

जब भी कोई त्योहार आता है तो इस तरह की खबरें-वबरें बहुत आनी शुरू हो जाती हैं.....अभी दो दिन पहले ही देखा कि कुकिंग ऑयल में किस हद तक मिलावट की खबरें आ रही हैं।

मुझे याद है कि कुछ वर्ष पहले तक और वैसे तो आज भी इस देश के घरों में सरसों का तेल किसी कोल्हू से लाने का बड़ा रिवाज सा था.....मुझे अभी एक कहावत भी याद आ गई..कोल्हू का बैल...शायद मैंने कभी देखा नहीं कोल्हू में बैल को तेल निकालते हुए या फिर ४० वर्ष पहले कभी देखा होगा ऐसा कुछ अमृतसर में जिस की धुंधली सी याद अभी कायम है। या फिर पता नहीं मैं जिस बैल की बात कर रहा हूं उसे हम लोग गन्ने का रस निकालते ही देखा करते थे.....यह तो बहुत बार देखा अमृतसर में हमारे स्कूल के रास्ते में एक बैल गोल-गोल घूमा करता था और गन्ने का रस निकालने में मालिक की मदद किया करता था।

हां, तो बात चल रही थी, सरसों के तेल की...पंजाबी में एक शब्द है ..कच्ची घानी का तेल.....मतलब मुझे भी नहीं पता लेकिन अकसर जिन दुकानों पर खुला सरसों का तेल बिकता है, वे इसे अपनी यूएसपी बताते हैं कि उन के यहां कच्ची घानी का तेल बिकता है।

कुछ महीने पहले मुझे सरसों का तेल लाने के लिए कहा गया.......मैं एक मशहूर दुकान पर गया...और उस से पूछा कि किस ब्रांड का तेल उस के पास है। उस ने दो -तीन नाम गिना दिए और साथ में अपने यहां निकाले गये तेल (खुले में बिकने वाले) की तारीफ़ करने लगा.....दाम उस के यहां खुले बिकने वाले तेल का ब्रांडेड बिकने वाले तेल से ज़्यादा ही थी, इसलिए मुझे लगा कि यही सब से बढ़िया विक्लप है।

मैं उस के यहां बिकने वाले खुले तेल की बोतल ले आया। लेकिन घर आने पर मेरी श्रीमति ने बताया कि खुला तेल कभी नहीं लाना चाहिए......बात मेरी समझ में तुरंत आ गई। आजकल किस की बात का भरोसा करें किस का न करें, समझ नहीं आता। मिलावट का बाज़ार इतना गर्म है कि लोग अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।

ब्रांडेड क्वालिटी में तो इतने तरह के नियम-कायदे मानने पड़ते हैं, फिर भी उन में भी कभी कभी मिलावट की खबरें आ ही जाती हैं। ऐसे में खुले में बिकने वाली किसी चीज़ पर कैसे भरोसा किया जा सकता है। ब्रांडेड सील बंद बोतल में कम से कम कंपनी की साख तो दाव पर लगी होती है।

चार छः वर्ष पहले की बात है जब से ये देसी घी के मिलावटी होने की खबरें आम हो गई थीं तो मैं सोचता था कि कुछ मिठाईयां तो हमें रिफाईंड घी आदि की तैयार हुई ही खरीद लेनी चाहिए ...कभी कभी अगर खाने की इच्छा हो तो...लेकिन अब वह रिफाईंड की तैयार मिठाईयों, भुजिया-वुजिया से भी डर ही लगता है......पता नहीं खुले में बिकने वाली इन खाध्य पदार्थों में लोभी लोगों ने क्या क्या धकेला होता है। एक बार की बात है हरियाणा की एक मिठाई की दुकान की....हम ने बेसन के लड्डू खरीदे ..लेकिन यकीन मानिए जब उन्हें हाथ लगाया तो वे इतने पिलपिले की मैं बता नहीं सकता.....उन्हें खाना तो क्या था, छूते ही सिर दुखने लगा....पता नहीं उन में कौन सा तेल डाला गया था। कहते ये सारे एक ही बात हैं.....हम तो रिफाईन्ड के अलावा कुछ भी इस्तेमाल नहीं करते।

दो दिन पहले ही की खबर है कि ये जो सॉस---  जी हां, सॉस, एकता कपूर के नाटकों वाली सास नहीं, जगह जगह बाज़ार में बिकती है ..इन में प्रिज़र्वेटिव की मात्रा इतनी ज़्यादा होती है कि इन्हें खाना कैंसर को निमंत्रण देने के बराबर है। और ये सब पदार्थ वे इतनी ज़्यादा मात्रा में इसलिए डाल देते हैं ताकि उन का सामान बहुत दिनों तक खराब न हो।  दोनों खबरें टाइम्स ऑफ इंडिया में आई थीं........बाहर बाल्कनी में अखबार पड़ी है, मैं लिंक यहां दे देता लेकिन आज कल हमारे घर में इतने ज़्यादा मच्छर हैं कि हम लोग शाम के वक्त बाल्कनी का दरवाज़ा नहीं खोलते, बाहर से ढ़ेरों मच्छर आ जाते हैं।

इस टमाटर सॉस एवं चिल्ली सॉस वाली खबर में तो यहां तक लिखा था कि इन में से कुछ की तो टैस्टिंग की गई और टमाटर सॉस में टमाटर गायब था और चिल्ली सॉस से चिल्ली नदारद थी.......सब तरह के सस्ते सब्स्टिच्यूट उन में पाए गये थे। इस तरह के प्रमाण एक प्रसिद्ध फूड एंड टॉक्सीकॉलोजी रिसर्च इंस्टीच्यूट के द्वारा दिए गये थे। ये सॉस वो हैं जो बिना किसी ब्रांड के ऐसे ही समोसे-कचौरी, नूडल के खोमचों, चाईनीज़ फूड के आउटलैट्स पर पड़ी रहती हैं।
इतनी मिलावट....इतना लोभ, पब्लिक की सेहत से इतना खिलवाड़..........इन सब के बारे में पढ़ कर सिर तो दुःखता ही है, उलटी होने लगती है।

समाधान क्या है, यही है कि हम लोग इन चीज़ों से दूरी बनाए रखें.......सरकारी तंत्र किन किन चीज़ों की टैस्टिंग करेगा, कब कब करेगा, क्या क्या रिपोर्ट आयेगी.... कब कब किसी को सजा होगी.......इन चक्करों में ना ही पड़ें तो बेहतर होगा............ऐसी सब सस्ती किस्म की बाजार में खुले में बिकने वाली चीज़ों का बहिष्कार तो हम आज ही से कर ही सकते हैं..........यह हमारी आपकी सेहत का मामला है। 

सोमवार, 27 जून 2011

आम के आम .... रोगों के दाम !

यह तो लगभग अब सारी जनता जानती है कि फलों को पकाने के लिये तरह तरह के हानिकारक मसालों का इस्तेमाल होता है....लेकिन हरेक यही सोच कर आम चूसने में लगा है कि क्या फर्क पड़ता है, सारी दुनिया के साथ ही है, जो सब का होगा, अपना भी हो जाएगा, कौन अब इन मसालों-वालों के पचड़े में पड़े।

कुछ समय तक मेरी भी सोच कुछ ऐसी ही हुआ करती थी ...पिछले आठ-दस वर्षों से ही सुनते आ रहे हैं कि फलों को जल्दी पकाने के लिये कैल्शीयम कार्बाइड (calcium carbide) नामक साल्ट इस्तेमाल किया जाता है। और कईं बार आप सब ने भी नोटिस तो किया ही होगा कि फलों पर राख जैसे पावडर के कुछ अंश दिखते हैं, यही यह कैल्शीयम कार्बाइड होता है।

कुछ साल पहले जब यह मसालों वालों का पता चला तो कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने फलों की धुलाई अच्छे से करनी शुरू कर दी ....तीन-चार साल हो गये हैं मेरे पास इस मौसम में कुछ मरीज़ ऐसे आने लगे जिन के मुंह में अजीब सी सूजन, छाले, घाव .....जिन का कारण ढूंढना मेरे लिये मुश्किल हो रहा था.... बिल्कुल कैमीकल से जलने जैसी स्थिति (chemical burn) ....और लगभग सभी केसों में आम चूसने की बात का पता चलता। मैं अपने मरीज़ों को तो आम के छिलके को मुंह लगाने से मना करता ही रहा हूं ....और मैंने भी दो-तीन साल से चम्मच से ही आम खाना शुरू कर दिया। लेकिन अब चार-पांच दिन से आम खाने की इच्छा नहीं हो रही --- कारण अभी बताऊंगा।

लगभग एक सप्ताह पहले की बात है ... इंगलिश की अखबार में --- The Hindu/ The Times of India में एक खबर दिखी की दिल्ली शासन ने आम को पकाने के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले कैल्शीयम कार्बाइड पर प्रतिबंध लगा दिया है। प्रिंट मीडिया अपनी भूमिका बखूबी निभा रहा है ---बार बार अहम् बातें दोहरा कर हमें चेता रहा है। वह खबर ही ऐसी थी कि पढ़ कर बहुत अजीब सा लगा कि अगर देश की राजधानी में बिक रहे फलों के साथ यह सब हो रहा है तो हमारे शहर में कौन सा रत्नागिरी से फार्म-फ्रैश आम बिक रहे हैं।

पिछले कुछ दिनों से फलों को नकली ढंग से पकाने के तरीकों के लिये गूगल-सर्च कर रहा था। फिर calcium carbide लिख कर गूगल किया --- आप भी करिये- ज़्यादातर परिणाम अपने देश के ही पाएंगे की फलां जगह पर इस पर बैन हो गया है, फलां पर इस से पकाये इतने टन फलों को नष्ट कर दिया गया है। वैसे तो मैंने भारत की सरकारी संस्थाओं Indian Council of Medical Research एवं Health and family welfare ministry की वेबसाइट पर इस विषय के बारे में जानकारी ढूंढनी चाही लेकिन कुछ नहीं मिला।

जो जानकारी मुझे नेट पर मिली, उस में जितनी इस समय मुझे याद है, वह मैं आप सब से सांझी करना चाहता हूं। हां, तो जिस कैमीकल—कैल्शीयम कार्बाइड से पकाये आम या अन्य फल हम इतनी बेफिक्री से इस्तेमाल किये जा रहे हैं--- वह एक भयंकर कैमीकल है जिसे वैल्डिंग के वक्त इस्तेमाल किया जाता है। और बहुत सी जगहों पर इस को फलों को पकाने के लिये इस्तेमाल किये जाने पर प्रतिबंध है।

अगर आपने कभी देखा हो तो फलों के विक्रेता इस कैमीकल की पुड़िया फलों के बक्सों में रख देते हैं। यह कैमीकल सस्ते में मिल जाता है –50-60रूपये किलो में आसानी से इसे हासिल किया जा सकता है और एक किलो 50-60 किलो आम पकाने के लिये काफी होता है, ऐसा भी मैंने नेट पर ही पिछले दिनों पढ़ा है।

कैल्शीयम कार्बाइड जब नमी (जो कि कच्चे फलों में तो होती ही है) के संपर्क में आता है तो इथीलीन गैस (Ethylene gas) निकलती है, जो फलों को पकाने का काम करती है। और इस क्रिया के दौरान आरसैनिक एवं फॉसफोरस जैसे कैमीकल भी निकलते हैं जो कि हमारे शरीर के प्रमुख अंगों पर बहुत बुरा प्रभाव डालते हैं। यहां तक की गुरदे फेल, कैंसर, पेट के अल्सर, सिरदर्द, दस्त आदि तक के खतरे गिनाये गये हैं।

मुझे यही लगता है कि कोई मीटर तो लगा नहीं हुआ हमारे शरीर में यह दर्शाता रहे कि इस ने इतने आम खाये हैं और इतना आरसैनिक या फॉसफोरस इस के शरीर में प्रवेश कर चुका है ....या कोई ऐसा मीटर जो यह बता सके कि इस ने गलत विधि से तैयार किये गये इतने फल खाए इसलिये इस के गुर्दे बैठ गये हैं......डाक्टर लोग भी क्या सकें....उन को भी निश्चिता से कहां चल पाता है कि कैंसर का, गुर्दे फेल होने का या अन्य तरह तरह के भयंकर रोगों की किसी व्यक्ति में जड़ आखिर है कहां ?

बस इसी अज्ञानता की वजह से इस तरह का गोरख-धंधा करने वाले का काम चलता रहता है। किसी जगह पर शायद मैंने यह भी पढ़ा है कि Prevention of Food Adulteration Act (PFA Act) के अंतर्गत भी कैल्शीयम कार्बाइड के इस्तेमाल पर पाबंदी है लेकिन फिर भी हो क्या रहा है, हम चैनलों पर देखते हैं, प्रिंट मीडिया में पढ़ते रहते हैं। पता नहीं क्यों इस तरह का धंधा करने वालों को आम आदमी की सेहत के साथ इतना बड़ा खिलवाड़ करने में ज़रा भी तरस नहीं आता !

मैं कहीं यह पढ़ रहा था कि प्राकृतिक ढंग से तैयार हुये आम  तो जून के अंत से पहले  मार्कीट में आ ही नहीं सकते ..लेकिन इतने बढ़िया कलर के रंगों वाले आम  मई में इन कैमीकल्स की कृपा से ही आने लगते हैं। और एक जगह पढ़ा कि जो आम बिल्कुल एक जैसे पके, बढ़िया कलर के चमकते हुये दिखें वे तो शर्तिया तौर पर इस मसाले से ही पकाये होते हैं। अकसर आपने नोटिस किया होगा कि बाहर से कुछ आम इतने खूबसूरत और अंदर से सड़ा निकलता है या तो स्वाद बिलकुल बकबका सा मिलता है।नेट पर सर्च करने पर आप पाएंगे कि इस तरह से पके आमों की निशानियां भी बताई गई हैं।

स्वाद बकबका निकले या एक-दो आम खराब निकलें बात उस की भी नहीं है, असली मुद्दा है कि हम इन फलों के नाम पर किस तरह से हानिकारक तत्व अपने अंदर इक्ट्ठा किये जा रहे हैं..... और पपीता, केले आदि को भी इन्हीं ढंगों से पकाने की बातें पढ़ने को मिलीं। एक जगह यह भी पढ़ा कि कैल्शीयम कार्बाइड का घोल तैयार किया जाता है और किसी जगह पर यह दिखा कि फलों में इस का इंजैक्शन तक लगाया जाता है – लेकिन इस बात की कोई पुष्टि हुई नहीं .... न ही यह बात मुझे ही हजम हुई .... अब पता नहीं वास्तविकता क्या है, वैसे अगर इस तरह की कैमीकल की पुड़िया के जुगाड़ से ही फल-विक्रेताओं का काम चल रहा है तो वे क्यों इन टीकों-वीकों के चक्कर में पड़ते होंगे। लेकिन इन के गोदामों में क्या क्या चल रहा है, ये तो यही जानें या मीडिया वाले ही हम तक पहुंचा सकते हैं।

जो भी हो, इतना तो तय है कि इस कैमीकल के इस्तेमाल से आरसैनिक एवं फॉसफोरस जैसे हानिकारक पदार्ध निकलते हैं....अब कोई यह समझे की हमने फल धो लिये, छिलके को मुंह नहीं लगाया, काट के चम्मच से खाया .....इस से क्या फल के अंदर जो इन कैमीकल्स से प्रभाव हुआ वह खत्म हो जाएगा, आप को भी लगता है ना कि यह नहीं हो सकता, कुछ न कुछ तत्व तो अंदर धंसे रह ही जाते होंगे।

केला का ध्यान आ रहा है, आज से बीस-तीस साल पहले प्राकृतिक तौर पर पके हुये केले का स्वाद, उस की मिठास ही अलग हुआ करती थी ...और आज केला छील लेने पर जब उसे चखा जाता है तो लगता है कोई गलती कर दी, उसे फैंकने की इच्छा होती है लेकिन उस का रेट ध्यान में आते ही जैसे तैसे निगल लिया जाता है।

अभी अभी एक मित्र ने लिखा कि आखिर करें क्या, जो मिल रहा है बाज़ार में वही तो खाएंगे......मुझे लगता है कि अब हालात इतने खराब हो गये हैं कि या तो पब्लिक फल व्यापारियों पर दबाव बनाए, सरकार दबाव बनाए, पीएफए एक्ट (Prevention of Food Adulteration Act ) के अंतर्गत कड़ी कार्यवाही हो ताकि हम तक सही वस्तुएं पहुंचे।

लेकिन दिल्ली दूर ही लगती है अभी तो....इसलिये मैंने तो पिछले चार पांच दिनों से आम खाना बंद कर दिया है, फिलहाल तो मुझे यही करना आसान लगा , वैसे भी पता नहीं पहले से कितने कैमीकल खा चुके हैं.........पता नहीं कितने दिन आमों से दूर रह पाऊंगा लेकिन अभी तो बंद ही हैं, लेकिन आप  मेरे लिखे ऊपर मत जाइये, स्वयं calcium carbide लिख कर गूगल करिये, फिर सोच विचार कर कोई निर्णय लीजिए।

रविवार, 1 मई 2011

पतला करने वाले हर्बल जुगाड़..सावधान !

काफी समय से यह खबरें तो सुनने में आ ही रही हैं कि कुछ हर्बल दवाईयों में, या कुछ देसी दवाईयों में एलोपैथिक दवाईयों को डाल दिया जाता है जिस के बारे में पब्लिक को कुछ बताया नहीं जाता। इस का परिणाम यह होता है कि उस दवाई से कुछ अप्रत्याशित परिणाम निकलने से लोगों को नुकसान हो जाता है। इस पर मैंने पहले भी बहुत से लेख लिखे हैं।

अभी मैं बीबीसी की साइट पर यह न्यूज़-स्टोरी देख रहा था कि किस तरह से यूरोपीयन देशों में हर्बल दवाईयों पर शिकंजा कसा जा रहा है। अनेकों दवाईयां ऐसी बिक रही हैं जिन की प्रामाणिकता, जिन की सेफ्टी प्रोफाइल के बारे में कुछ पता ही नहीं ...इसलिये वहां पर कानून बहुत कड़े हो गये हैं।
New EU regulations on herbal medicines come into force....(BBC Health)

लेकिन भारत में क्या है, देसी दवाईयों की तो वैसे ही भरमार है, लेकिन जगह जगह पर मोटापा कम करने वाले कैप्सूल, हर्बल दवाईयों के इश्तिहार चटका कर भोली भाली जनता को बेवकूफ़ बनाया जा रहा है।

आज सुबह मैं टीवी पर देख रहा था कि एक हर्बल चाय का विज्ञापन दिखाया जा रहा था ... दो महीने के लिये 2000 रूपये  का कोर्स –मोटापा घटाने के लिये इसे रोज़ाना कईं बार पीने की सलाह दी जा रही थी। और विज्ञापन इतना लुभावना की मोटापे से परेशान कोई भी शख्स कर्ज़ लेकर भी इस खरीदने के लिये तैयार हो जाये।

मैं उस विज्ञापन को देखता रहा –बाद में जब उस में मौजूद पदार्थों की बात आई तो बहुत बढ़िया बढ़िया नाम गिना दिये गये ..जिन्हें सुन कर कोई भी प्रभावित हो जाए... और साथ में इस चाय में चीनी हर्बल औषधियों के डाले जाने की भी बात कही गई।

इस तरह के हर्बल प्रोडक्ट्स से अगर विकसित देशों के पढ़े लिखे लोग बच नही पाये तो इस देश में किसी को कुछ भी बेचना क्या मुश्किल काम है?
वजन कम करने वाली दवाईयों के बारे में चेतावनी 

बात केवल इतनी सोचने वाली है कि ऐसा क्या फार्मूला कंपनियों के हाथ लग गया कि इन्होंने एक चाय ही ऐसा बना डाली जिस से इतना वज़न कम हो जाता हो......मेरी खोजी पत्रकार जैसी सोच तो यही कहती है कि कुछ न कुछ तो लफड़ा तो होता ही होगा.....अगर सब कुछ हर्बल-वर्बल ही है तो इस देश में इतने महान् आयुर्वैदिक विशेषज्ञ हैं, वे क्यों इन के बारे में नहीं बोलते ....क्यों यह फार्मूला अभी तक रहस्य ही बना हुआ है?

पीछे भी कुछ रिपोर्टें आईं थीं कि मोटापे कम करने वाले कुछ उत्पादों में कुछ ऐसी एलोपैथिक दवाईयों की मिलावट पाई गई जिस से भयंकर शारीरिक परेशानियां इन्हें खाने वालों में हो गईं........तो फिर इस से सीख यही लें कि ऐसे ही हर्बल वर्बल का लेबल देख कर किसी तरह के झांसे में आने से पहले कम से कम किसी की सलाह ले लें, और अगर हो सके तो ऐसी हर्बल दवाई की लैब में जांच करवा लें, लेकिन क्या ऐसी जांच वांच करवाना सब के वश की बात है!!

बुधवार, 7 अक्टूबर 2009

एनडीटीवी इंडिया ने खोल दी मीठे ज़हर की पोल

आजकल मैं एनडीटीवी इंडिया खूब देखता हूं ---मेरे लड़के ने मुझे हिदायत दी हुई है कि हिंदी में खबरें सुननी हैं तो एनडीटीवी इंडिया देखा करो। कल रात एनडीटीवी पर एक बहुत बढ़िया कार्यक्रम देखने का अवसर मिला जिस में उन्होंने आज कल मिठाईयों के रूप में बिक रहे मीठे ज़हर की अच्छी तरह पोल खोली। कार्यक्रम की प्रस्तुति भी बहुत प्रभावपूर्ण थी।
Mithai ke dukaanअकसर ऐसे कार्यक्रम देख कर लगने लगता है कि ये जो हिंदी के न्यूज़-मीडिया चैनल हैं ये भी आम आदमी की आंखे और कान ही हैं। इन के संवाददाता इतनी मेहनत कर के, अपने आप को जोखिम में डाल के ऐसी ऐसी बातें जनता के सामने लाते हैं जिन के बारे में वैसे तो उसे कभी पता चल ही नहीं सकता।
लेकिन सोचने की बात यह भी है कि जागरूकता से भरपूर इतने बढ़िया बढ़िया कार्यक्रम देखने के बाद क्या पब्लिक सब तरह का कचरा खाने से गुरेज़ करनी लगती है--जिस तरह से बाज़ार में मिठाईयों आदि की दुकानों पर भीड़ टूट रही होती है उसे से मुझे तो ऐसा नहीं लगता। लेकिन लोगों के मन में आज के आधुनिक मीडिया द्वारा इस तरह की बातें डालना भी एक बहुत अच्छा प्रयास है ----ठीक है जब किसी को ज़रूरत महसूस होगी वह उस ज्ञान को इस्तेमाल कर ही लेगा (इतनी जल्दी भी क्या है यारो, जब जीना है बरसों !!!)..
असर होता है---डाक्टर हूं, सब देखता, पढ़ता-सुनता रहता हूं ----अभी कुछ दिन पहले की ही बात है जब टीवी पर पाव रोटी या पांव रोटी का कार्यक्रम आ रहा था ---- उस दिन के बाद डबलरोटी खाने की इच्छा ही नहीं हुई। और अब घर में जब कभी ब्रैड आती है तो केवल एक ही बढ़िया ब्रांड की ही आती है ---- लोकल ब्रांड तो बच्चे अपने डॉगी को भी नहीं डालते ----कहते हैं कि जो हम नहीं खाते इस छोटू को भी नहीं देंगे।
जिस तरह से कल एनडीटीवी ने दिखाया कि किस तरह से सिंथैटिक दूध बनता है ---जिस में दूध तो होती ही नहीं, केवल कैमीकलों की ही मिश्रण होता है जो कि बीसियों भयंकर बीमारियों की खान होते हैं। मिलावटी मावे में क्या क्या होता है इसे देख कर तो लगता नहीं कि कोई मावे के पास भी फटक जाए।
देसी घी की पोल भी अच्छी तरह से खोली गई कि उस में कितनी तरह के ज़हरीले पदार्थ डाले जाते हैं। कल का कार्यक्रम देख कर छोटे बच्चे भी कहने लगे कि लगता है अब तो केवल दाल-रोटी पर ही टिक के रहना चाहिये।
dabba mithai kaमिठाईयां किसे अच्छी नहीं लगतीं----मुझे भी बेसन के लड्डू, पतीसा और बर्फी बहुत अच्छी लगती है लेकिन महंगी से महंगी दुकान की भी खरीदी इन मिठाईयों पर मेरा तो भई बिल्कुल भी भरोसा नहीं रहा। इसलिये मैं कभी गलती से एक आधा टुकड़ा खा लूं तो भी मैं अपराधबोध का शिकार ही हुआ रहता हूं कि सब कुछ पता होते हुये भी .....।
हां तो बताया यह भी जा रहा है कि अगर हम इस तरह की मिलावटों से बचना चाहते हैं तो किसी मशहूर दुकान से ही खरीदी मिठाई खाएं अथवा स्वयं मिलावट की जांच कर लें। लेकिन मैं इस से इत्तफाक नहीं रखता ----किसी दुकान में बढ़़िया कांच लगवा लेने से ,एक-दो स्पलिट एसी फिट करवा लेने से क्या क्वालिटी की भी गारंटी हो जाती है। और जहां तक मिलावट को खुद जांचने की बात है अभी तक तो चांद को मांगने जैसी बात लगती है। लेकिन भवि्ष्य में इस के बारे में कुछ हो तो बहुत बढ़िया रहेगा।
मैं कईं बार सोचता हूं लोग ठीक ही कहते हैं ---हमारे यहां शायद जानें बहुत सस्ती हैं। मिलावट के बारे में टीवी चैनल इतनी जागरूकता फैला रहे हैं लेकिन फिर भी यह गोरख-धंधा फल-फूल ही रहा है। दो दिन पहले कहीं पढ़ रहा था कि अमेरिका में एशियाई मुल्कों से आयात किये हुी सूखे आलूबुखारे बिक रहे थे ----जब वहां की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने उन की जांच की तो उन में ---- Lead (शीशा) की मात्रा बहुत अधिक पाई गई । तुरंत वहां पर उस एजेंसी ने लोगों को हिदायत दे दी कि इन सूखे आलुबुखारों से बच के रहो और यहां तक कि वहां की सरकार ने इस तरह के प्रोडक्ट्स की फोटो कंपनियों के नाम के साथ वेबसाईट पर भी डाल दी।
और एक हम हैं कि दीवाली आ रही है और शुद्ध मिठाई के लिये तरसे जा रहे हैं। मैं आज सुबह ही किसी के साथ हंसी मज़ाक कर रहा था कि देखना, खन्ना साहब, वही दिन वापिस आ जायेंगे जब हम लोगों को चीनी के खिलौनों एवं कुरमुरे से ही दीवीली मनानी पड़ा करेगी।
जावेद अख्तर ने लिखा है कि पंछी नदियां पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके, सोचा तूमने और मैंने क्या पाया इंसा होके -------उसी तरह हम लोगों ने इतनी ज़्यादा तरक्की कर ली कि हम लोग मिठाई के लिये ही तरस गये ---- बचपन में अमृतसर में खाई बर्फी का स्वाद अभी में मुंह में वैसे का वैसा ही है-------तब हमारे जैसे ही सिरफिरे हलवाई हुआ करते थे जो घंटों एक कड़ाई में पक रही दूध की रबड़ी में घंटों कड़छे मार मार के थकते नहीं थे -------लेकिन अब कहीं भी न तो ऐसे सिरफिरे हलवाई ही दिखते है और न ही वैसी छोटी छोटी हलवाईयों की दुकानें जिन की खुशबू दूर से ही आ जाया करती थी और हम बच्चों का नाटक शूरू हो जाया करता था।
PS....Please let me know some good on-line tutorials for knowing the proper placement of pictures in a blog post. And also for putting some text-boxes, full-quotes etc. Thanks.

गुरुवार, 4 जून 2009

वज़न कम करने वाली दवाईयों के बारे में आई है फिर से चेतावनी

अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन में एक बार फिर से मोटापा कम करने वाली कुछ ऐसी दवाईयों की एक लंबी-चौड़ी लिस्ट जारी की है जिन में कुछ ऐसे तत्व मौजूद हैं जो कि हमारी सेहत को बहुत बुरी तरह खराब कर सकते हैं।
मैं भी जब कभी बाज़ार वगैरा जाता हूं तो अकसर पेट कम करने वाले, वज़न कम करने वाले विज्ञापन स्कूटरों की स्टपनी के कवर पर प्रिंट हुये देखता ही रहता हूं और अकसर मेरा सुबह का हिंदी का अखबार भी मुझे इस तरह के करिश्माई नुस्खों की खबर देता ही रहता है। लेकिन मैं यह सोच कर, देख कर सकते में हूं कि चलो, हमारे यहां की तो बात क्या करें, हम लोगों की जान की तो कीमत ही क्या है, लोगों को उल्लू बनाना किसे के भी बायें हाथ का खेल है लेकिन अमेरिका जैसे विकसित देश में भी अगर ये सब चीज़ें बिक रही हैं तो निःसंदेह यह एक बहुत संगीन मामला है।
मैं शायद पहले भी बता चुका हूं कि हमारी दूर की रिश्तेदारी में एक 35 वर्ष की महिला थी --- सेहत एवं सुंदरता की मूर्ति थी --- हम लोग छोटे छोटे से थे तो हमें उसे देख कर लगता था कि हमारी उस आंटी में और हेमा मालिनी में कोई फ़र्क ही नहीं है। लेकिन परिवार वाले बताते हैं कि उन्होंने मोटापा कम ( पता नहीं, उन की क्या परिभाषा थी मोटापे की ---हमें तो वह कभी भी मोटी नहीं लगीं) करने के लिये कुछ ऐसी ही दवाईयां खाईं थी जिस से वह अपनी भूख मार लिया करती थीं। बस, कुछ ही महीनों में उन्हें लिवर-कैंसर हो गया और देखते ही देखते वह चल बसीं।
हमारे देश में एक समस्या हो तो बतायें --- चलो, इस आंटी का तो हमें पता था कि इस ने कुछ दवाईयां खाईं थीं लेकिन अधिकतर तौर पर तो परिवार वालों तक को यह पता नहीं होता कि परिवार के सदस्य किस किस मर्ज़ के लिये किस किस सयाने के चक्करों में हैं। परेशानी की बात भी तो यही है कि ये झोलाछाप नीम-हकीम ( बिना किसी क्वालीफिकेशन के ही ) मरीज़ों को अपनी बातों में इस कद्र उलझा कर रखते हैं कि उन्हें उस के आगे कोई और दिखता ही नहीं है।
अब मेरा वह जुबान की कैंसर वाला मरीज़ जिस चमत्कारी इलाज का वायदा करने वाले शख्स के चंगुल में है वह उस से इतना ज़्यादा प्रभावित है कि कोई भी बात सुनने के लिये राज़ी ही नहीं है। वह तो उस झोलाछाप की इस अदा का ही कायल है कि बंदा हर समय मुंह में पान रखे रखता है और बार बार थूकता जाता है ----और साथ में कहता है कि वह भी बंदा क्या बंदा है, कोई टैस्ट ही नहीं करवाता , बस दो बातें करता है और अपने पैन को अपने नुस्खे पर घिसट देता है। इस बार तो मैंने उस मरीज़ को थोड़ा सख्ती से कह ही दिया था कि आप अपना समय नष्ट कर रहे हैं।
हां, तो बात हो रही थी --- वज़न कम करने वाली दवाईयों की जिन्होंने अमेरिका जैसे देश में हड़कंप मचा रखा है। समस्या इस तरह की दवाईयों में जो अमेरिका में भी दिखी वह यही थी कि इन दवाईयों की पैकिंग या लेबल पर अकसर यह ही नहीं बताया गया था कि इन में क्या क्या साल्ट मौजूद हैं. और इन तथाकथित दवाईयों का जब अमेरिका की सरकारी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने परीक्षण करवाया तो इन में कुछ इस तरह की दवाईयां मिलीं जिन के बारे में सुन कर आप भी परेशान हो जायेंगे।
इन तथाकथित मोटापा दूर भगाने वाली दवाईयों में कुछ गैर-कानूनी दवाईयां भी मौज़ूद थीं।
सिबूट्रामीन ( sibutramine) – इस दवा से भूख को दबाया जाता है और इसे केवल डाक्टर के नुस्खे द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। ये जो चालू किस्म की दवाईयों की लिस्ट अमेरिका में जारी की गई है इन में से कुछ में यह दवा बहुत ही ज़्यादा मात्रा ( much higher doses than maximum daily doses) में पाई गई।
फैनप्रोपोरैक्स ( Fenproporex) – एक ऐसा साल्ट है जिस की मार्केटिंग अमेरिका में हो ही नहीं सकती।
फ्लूयोएक्सटीन ( Fluoxetine) – इस दवाई को वैसे तो डिप्रेशन के मरीज़ों को ही दिया जाता है लेकिन अगर मोटापा कम करने वाली दवाईयों में भी यह मिला दिया जाये तो इस के क्या परिणाम हो सकते हैं, शायद इस की आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
ब्यूमीटैनाईड ( Bumetanide) – यह एक जबरदस्त डाययूरैटिक – potent diuretic- है जिसे केवल डाक्टर का नुस्खा दिखा कर ही प्राप्त किया जा सकता है। डाययूरैटिक वह दवाई होती है जिसे डाक्टर लोग विभिन्न प्रकार की जांच-वांच करने के बाद ब्लड-प्रैशर के रोगी को, दिल के मरीज़ को देते हैं ----अब अगर इस तरह की दवाई बिना वजह बिना किसी डाक्टरी सलाह के केवल मोटापा घटाने के लिये इस्तेमाल की जायेंगी तो इस के परिणाम कितने खौफ़नाक निकलेंगे, इस के बारे में कोई नॉन-मैडीकल बंदा क्या सोचेगा !!
रिमोनाबैंट ( rimonabant) – इस दवा की भी अमेरिका में मार्केटिंग नहीं हो सकती।
सैटिलिस्टैट ( cetilistat) – यह मोटापा कम करने वाली एक ऐसी दवा है जिस पर अभी भी प्रयोग ही हो रहे हैं और जिस की मार्केटिंग अमेरिका में हो नहीं सकती।
फैनीटॉयन ( phenytoin) – इस दवाई को मिर्गी के इलाज के लिये दिया जाता है लेकिन लालच के अंधे सिरफिरों ने इसे मोटापा कम करने वाली दवाईयों में ही झोंक दिया।
फिनोलथलीन ( phenolphthalein) – इस को कैमिस्ट्री के एक्सपैरीमैंट्स में इस्तेमाल किया जाता है और कैंसर उत्पन्न करने में इस की संदेहास्पद भूमिका है। इस की मिलावट भी वज़न कम करने वाली तथाकथित दवाईयों में पाई गई है।
अब अमेरिका की सरकारी संस्था ने तो सारे अमेरिका को तो सचेत कर दिया लेकिन मुझे कौन बतायेगा कि मोटापा कम करने वाले जिन इश्तहारों को मैं स्कूटरों की स्टपनी पर या हिंदी के अखबारों में रोज़ाना देखता हूं आखिर इन में क्या है ------ और मुझे पूरा यकीन है कि अगर अमेरिका में इन चालू किस्म की दवाईयों में खतरनाक किस्म की मिलावट है तो फिर हमारे यहां मिलने वाली दवाईयों में क्या क्या नहीं होगा। बेशक हमारे यहां तो स्थिति अमेरिका से तो बहुत ही बदतर होगी।
तो, फिर आज के पाठ से यही शिक्षा ले ली जाये कि कभी भी इन मोटापा कम करने वाली दवाईयों के चक्कर में न ही पड़ें तो ही ठीक है। लेकिन अगर किसी ने ठान ही ली है कि मोटापा कम करने के लिये दवाईयां लेनी ही हैं तो शहर के किसी topmost specialist ( फिज़िशियन) से मिल कर ही कोई भी फैसला करें।
और एक गुज़ारिश ---अगर किसी ने पहले इस तरह की दवाईयां खाई हुई हैं तो भी किसी फिज़िशियन से अपनी पूरी जांच अवश्य करवा लें।
जाते जाते अमेरिका की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन का बहुत बहुत धन्यवाद तो अदा कर लें कि उन की इस तरह की कार्यवाई से सारे विश्व को सचेत हो जाने का एक अवसर तो मिल जाता है ----आगे सब लोग अपनी मरजी के मालिक हैं, अपना तो काम है बस एक सीटी बजा देना।

बुधवार, 3 जून 2009

मिलावटी दूध का गोरख-धंधा

चंद मिनट पहले आजतक न्यूज़-चैनल पर मिलावटी दूध पर एक विशेष रिपोर्ट देख रहा था। डा राम मनोहर लोहिया से एक विशेषज्ञ भी अच्छी तरह से सब कुछ बता रहे थे। रिपोर्ट में ऐसे फोटो भी दिखे जिस में मिलावटी दूध तैयार करने के लिये उस में शैंपू, यूरिया मिलाया जा रहा था और इस को तैयार करने के लिये तरह तरह के ऊल-जलूल कामों का खुलासा भी किया गया।

मुझे अच्छा लगता है जब कोई लोकप्रिय चैनल इस तरह का कार्यक्रम पेश करता है ---क्योंकि मैं समझता हूं कि इस तरह के पाठों को बार बार दोहराने में ही हम लोगों की भलाई है क्योंकि हम लोगों की यादाश्त में ज़रूर कुछ न कुछ गड़बड़ है। हम लोग सब कुछ जानते हुये भी इस तरह के दूध का इस्तेमाल करने से ज़रा भी गुरेज़ क्यों नहीं करते। अब अगर कोई यह कहे कि कोई विकल्प भी तो नहीं है ना -----लेकिन इस का मतलब यह भी तो नहीं कि हम लोग ऐसे दुध का इस्तेमाल करने लगें जो केवल सेहत बिगाड़ने का ही काम करता हो।

मैंने तो इस मिलावटी दूध के बारे में ----- चलिये, इस वाक्य को बाद में पूरा करता हूं । पहले तो मेरी इच्छा यह जानने की हो रही है कि इस मिलावटी दूध के कारण कितने लोगों पर आज तक मुकद्मा चला है और कितनों की सज़ा हुई है। अब मेरे पास प्रश्नों का तो अंबार है ..... लेकिन समय की कमी है। सारा दिन हास्पीटल की ड्यूटी करने के बाद ये प्रश्न केवल प्रश्न ही बने रहते हैं। लेकिन कभी न कभी इन सब सवालों का जवाब तो ढूंढ ही लूंगा और इस से भी बहुत बड़े बड़े प्रश्न हैं जिन्हें मैं अभी तो इक्ट्ठे ही किये जा रहा हूं। उपर्युक्त समय आने पर ही इन का झड़ी लगाऊंगा, इस के बिना मुझे भी चैन आने वाला नहीं है।

हां, तो मैं पिछले पैरे में कह रहा था कि इस मिलावटी दूध के बारे में इतना कुछ पढ़ लिया है कि अब तो मुझे दूध से बनी कोई भी चीज़ बाहर खाने से एक ज़बरद्स्त फोबिया सा ही हो गया है । और मैं जहां तक हो सके खाता भी नहीं हूं। मैंने बहुत सोच विचार कर यह फैसला किया हुया है।

ड्यूटी के दौरान अपने हास्पीटल में चाय पीना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है --शायद साल में एक दो बार फार्मैलिटी के तौर पर यह दिखावा करना ही पड़ता है।

घर के बाहर मैं कहीं भी चाय पीना पसंद नहीं करता हूं लेकिन कईं बार दो-चार महीने में यह कसम टूट ही जाती है। लेकिन इस समय मैं उन लोगों का ध्यान कर रहा हूं जो अपने काम पर बार बार चाय पीने के शौकीन हैं---अब कैसे दूध की क्वालिटी का पता लगे। हर चाय भेजने वाला कहता तो यही है कि वह तो बिल्कुल शुद्ध दूध ही इस्तेमाल करता है।

आज जब मैं उस आजतक का यह विशेष कार्यक्रम देख रहा था तो सुन रहा था कि विशेषज्ञ बता रहे थे कि मिलावटी दूध खालिस दूध से कैसे भिन्न होता है। बता तो वह रहे थे कि उस की महक अलग होगी, जब दही जमेगा तो भी पता चल जायेगा कि दुध कितना शुद्ध है और एक बात और भी बता रहे थे कि अगर दूध बार बार फटता है तो समझ लीजिये मामला गड़बड़ है।

जैसा कि आप जानते हैं कि मैं दंत-चिकित्सक हूं और मूलतः पिछले 25 वर्षों से यही काम कर रहा हूं और किसी तरह का आत्मा पर बोझ नहीं है ---- बिल्कुल सच बात ही करता हूं और कोई भी मेरे से मेरे प्रोफैशनल अनुभव पूछे तो शत-प्रतिशत इमानदारी से साझे भी कर दूंगा ----बिना किसी परवाह के जैसा कि मैं अपनी दांतों के सेहत वाले लेखों में करता ही रहता हूं।

हम लोग 100 करोड़ से भी ऊपर हैं लेकिन क्यों हमारे डेयरी विशेषज्ञ दूध की शुद्धता के बारे में अपना मुंह क्यों नहीं खोलते ----मुझे इस से बहुत ज़्यादा आपत्ति है । कईं बार सोचता हूं कि शायद दूध के धंधे में इतना ज़्यादा गोरख-धंधा है कि कुछ चंद लोग चाहते हुये भी मुंह नहीं खोल पाते ----सोचने की बात है कि हम लोगों ने इतनी तरक्की हर क्षेत्र में कर ली है लेकिन हम लोगों को दो-चार साधारण टैस्ट घर में ही करने क्यों नहीं सिखा पाये जिस से कि वे पूरे विश्वास से अपने दूधवाले से कह सकें कि कल से यह गोरख-धंधा बंद करो --- बहुत हो गया।

अब आप से समझ सकते हैं कि अगर कोई ग्राहक दूध वाले से यह सब कहेगा कि दूध की महक ठीक नहीं लगती, दूध पिछले कुछ दिनों से कुछ ज़्यादा ही पीला सा लग रहा है, दही सही नहीं जम रही और पिछले हफ्ते में दो बार दूध फट गया ----- तो ग्राहक यह सब कह कर अपनी ही खिल्ली उड़वाता है क्योंकि हर बात का उस शातिर दूध वाले के पास रैडी-मेड जवाब पहले ही से तैयार होता है।

ऐसे में ज़रूरत है किसी वैज्ञानिक टैस्ट की जो कि लोग घर पर ही दूध में कुछ मिला कर थोड़ा जांच कर के देख लें कि कहीं वे दूध के भेष में यूरिया तो नहीं पीये जा रहे , कहीं दूध में पड़ा शैंपू ही तो नहीं आंतों को खराब किये जा रहा और भी तरह तरह के कैमीकल्स जिन की आप कल्पना भी नहीं कर सकते। बेहतरी होगी कि ये डेयरी विशेषज्ञ कुछ इस तरह के टैस्टों के बारे में लोगों को बतायें जिस से कि लोग अपने आप ये टैस्ट कर सकें और मिलावटी दूध को तुरंत बॉय-बॉय कह सकें।

बहरहाल, मिलावटी दूध से बच कर रहने में ही समझदारी है । लेकिन अफसोस इसी बात का है कि जब हम लोग बैठे आजतक चैनल पर दिखाई जा रही कोई ऐसी विशेष रिपोर्ट देखते हैं तो हम सब यही सोचते हैं कि यह समस्या कम से कम हमारे दूध वाले के साथ तो नहीं है ------यह तो किसी दूसरे शहर की, दूसरे लोगों की समस्या है ----अगर आप भी ऐसा ही सोचते हैं तो शायद आप भी मेरी तरह कुछ ज़्यादा ही खुशफहमी का शिकार हैं।

और क्या लिखूं ? ----बस बार बार यही लिखना चाहता हूं कि दूध के बारे में पूरे सचेत रहा करें ------मिलावटी दूध पीने या इस से बने प्रोडक्टस खाने से हज़ारों गुणा बेहतर है कि इस से बच कर रहा जाये। सिर दुखता है इस विषय पर लिखते हुये, लेकिन लालच की आंधी में ये दूध बेचने वाले अंधे हुये जा रहे हैं।

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

क्या आप जो दूध पी रहे हैं उस की क्वालिटी के बारे में आश्वस्त हैं ?

हो ही नहीं सकता कि आप ने कभी मेरी तरह इसे टैस्ट करवाने की या इस की उत्तमता जानने की रत्ती भर कोशिश भी की हो। बस, यहां वहां नकली सिंथैटिक दूध, मिलावटी दूध की खबरें देख-पढ़ कर थोड़ा सा डर लिये, सहम गये ( और हर बार यही सोच कर बेफिक्र हो गये कि अपना रामू काका तो पिछले 35 सालों से आ रहा है , इस के दद्दू के ज़माने से ) ----बस हो गई अपनी ड्यूटी पूरी .... क्योंकि तभी अपने मोटर-साइकल ब्रांड दूध वाले ने घंटी दे दी । और साथ में ही पड़ा है आज का अखबार जिस से हम ने न्यूक्लियर समझौते के बारे में और भी गहराई से जानना है-----दूध के बारे में सोचने की अभी किसे फुर्सत है !!

इस पोस्ट में लिखे जाने वाले दूध के बारे में मेरा विचार एकदम पर्सनल हैं ---इसलिये कृपया इन्हें इसी ढंग से लें। बचपन से देख रहे हैं कि दूध की उत्तमता जानने का एक तरीका जो हिंदोस्तानी घरों में बहुत इस्तेमाल होता है वह यही है कि अंगुली को दूध में डुबो के देखा जाता है जैसे कि यह कोई गोल्ड-स्टैंडर्ड टैस्ट हो।

दूसरा, हमारे यहां दूध को उबालने के बाद कितनी मलाई आती है ---यह भी देश की करोड़ों महिलायों के लिये सत्संग के पंडाल में पीछे बैठ कर विचार-विमर्श करने लायक एक बहुत हॉट टॉपिक होता रहा है और आज भी है। ये भोली महिलायें आज तक यह नहीं जानतीं कि मलाई की मात्रा किसी दूध की उत्तमता की कोई गारंटी नहीं है-----कम से कम मैं तो ऐसा ही सोचता हूं क्योंकि सिंथैटिक दूध में और मिलावटी दूध भी मलाई तो अच्छी खासी आ जाती है।

इस मिलावटी दूध की वजह से शायद आप लोग इतना परेशान नहीं होंगे क्योंकि आप ने तो अपने परिवार के लिये ही यह निर्णय लेना होता है लेकिन मुझे एक आठ-दस के बच्चे का हाथ थामे उस सीधी-सादी मां को यह कहना बहुत अजीब सा लगने लगा है कि इस को दूध पिलाया करो। और विशेषकर के बिना दूध के स्रोत को जाने तो यह काम और भी मुश्किल लगता है। पिछले कुछ हफ्तों से तो मीडिया में दूध के बारे में जो कुछ पढ़ा है, उस ने तो और भी डरा दिया है।

इस पोस्ट के ज़रिये किसी तरह का पैनिक क्रियेट करना मेरी मंशा नहीं है----लेकिन जब कभी मन को हिला देने वाली खबरें दिख जाती हैं तो आम पब्लिक के स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिये मन बहुत कुछ सोचने तो लगता है लेकिन लाख सोचने के बाद भी इस लंबी सी पोस्ट के इलावा आज तक तो कुछ हाथ लगा नहीं।

अभी अभी मैं यह सोच रहा था कि हमारे विज्ञानिक इतने चोटी के हैं कि उन्होंने हमें चन्द्रमा तो दिला दिया लेकिन अफ़सोस इस बात का बहुत ही ज़्यादा है कि हम लोग एक आम-आदमी को आज तक यह नहीं बता पाये कि यह जो दूध तुम बच्चे को पिला रहे हो......क्या यह शुद्ध है, मिलावटी है, मिलावट किस चीज़ की है, या फिर है ही सिंथैटिक !

कुछ दिन पहले मेरी मुलाकात एक बुजुर्ग महिला से हुई जो पिछले पचास सालों तक भैंसों-गायों का दूध बेचने का काम करती रही हैं। और उस की एक बात मेरे को हमेशा याद रहेगी कि गाय-भैंस का दूध तो जब उस के स्तन से निकल रहा है तब ही शुद्ध है।

मेरा बहुत दृढ़ विश्वास है कि हम लोग जिस दूध को इस्तेमाल कर रहे हैं उस के बारे में कुछ भी नहीं जानते----शायद हम भी कहीं दूध में मैलामाइन की मिलावट की दो-चार रिपोर्टों की इंतज़ार ही तो नहीं कर रहे।
हां, तो मिलावट से याद आया कि चार पांच दिन पहले REUTERS की साइट पर एक खबर दिखी कि झारखंड के एक स्कूल में मिलावटी दूध पिये जाने से छः बच्चों की मौत हो गई और साठ के करीब हास्पीटल में इलाज करवा रहे हैं। मुझे यह खबर अपने समाचार-पत्र में तो कहीं दिखी नहीं----शायद इसलिये कि ये सभी बच्चे आदिवासी थे ---शायद मीडिया के लिये इन आदिवासी बच्चों की मौत की खबर से कहीं ज़्यादा यह खबर थी कि इस दुनिया में सब से हसीं नितंब किस महिला के हैं ----जी हां, चार पांच दिन पहले एक न्यूज़ यह भी थी और तस्वीर के साथ ---Most beautiful bottom of the world!! अगर यह खबर ना भी होती तो उस की जगह पर दिल्ली के किसी बड़े स्कूल के एमएमएस कांड की फोटो की छोंक उसी पेज पर लगी होती। अब आदिवासी बच्चों की मिलावटी दूध की वजह से हुई मौत से रीडरशिप पर खाक असर पड़ना था ?

चीन से आने वाला पावडर दूध बहुत ज़्यादा मात्रा में आज कल नष्ट किया जा रहा है –अमेरिका में तो वे उन डेयरी उत्पादनों को नष्ट करते जा रहे हैं जिन में भी मैलामाइन की मिलावट का अंदेशा है । ज्ञात रहे कि पिछले दिनों चीन में मैलामाइन ( एक इंडस्ट्रियल कैमीकल) की पावडर-दूध में मिलावट की वजह से चीन में कुछ बच्चों की दुःखद मौत हो गई थी और बहुत से बच्चे गुर्दे की पथरी से होने वाली बीमारी से जूझ रहे हैं।

क्या आप को लगता है कि हमारे यहां बिकने वाला मिल्क पावडर एकदम शुद्ध होगा ---- इस का जवाब टटोल कर अपने पास ही रखिये, प्लीज़। वैसे इस पावडर दूध की खपत हमारे देश में बहुत ही ज़्यादा है---दरअसल इस की भी बहुत सी किस्में बाज़ार में उपलब्ध हैं और मुझे बताया गया है कि दूध की मिलावट के लिये उस पावडर-दूध का इस्तेमाल किया जाता है जो 80 रूपये किलो बिकता है। और इस एक किलो पावडर दूध से दस किलो दूध तैयार किया जाता है। और मैं समझता हूं कि इन ब्याह-शादियों में और बड़े बड़े समारोहों में सब कुछ इसी तरह के पावडर दूध से ही बना हुआ खाने के बाद ही हम इतना अजीब सा अनुभव करते हैं।

पहले कहा करते थे कि शादी-ब्याह में ज़्यादा खाना ठीक नहीं होता---बस दही-चावल लेकर ही बस कर लेनी चाहिये। लेकिन अब तो दही का एक चम्मच भी इन जगहों पर खाने की इच्छा ही नहीं होती -------केवल मन में इतना विचार ही आता है कि और कुछ भी हो यह शुद्ध दूध से बना हुआ नहीं हो सकता।

थोड़ी सी अपनी बात कहता हूं ----- बिल्कुल पर्सनली स्पीकिंग ----मैं घर से बाहर जब भी होता हूं तो ऐसी किसी भी चीज़ से बिल्कुल परहेज़ ही करता हूं जिस में दूध का इस्तेमाल हुआ हो। मेरी ऐसी सोच है ---बस वो पिछले तीन-चार में तरह तरह की अजीबो-गरीब रिपोर्टें देख कर बन चुकी है कि जब तो सिद्ध न हो, जो भी दूध बिक रहा है उस में गड़बड़ी है। कृपया नोट करें कि ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं और आप इन से कतई प्रभावित न हों----आप सच्चाई को अपने ढंग से खोजने की कोशिश कीजिये।

हां, तो मैं परहेज़ की बात कर रहा था ---वैसे तो मैं चाय का ही इतनी कोई ज़्यादा शौकीन हूं नहीं लेकिन मैं बाहर कहीं भी चाय पीने से गुरेज़ ही करता हूं क्योंकि उस चाय बेचने वाले से आप उम्मीद ही कैसे कर सकते हैं कि उसे अपने दूध की क्वालिटी का कुछ भी ज्ञान होगा या वह भी कुछ गोरख-धंधा नहीं करता होगा।

आगे आते हैं ---मिल्क प्राड्क्टस-----ये आइस-क्रीम, मिठाईयां, बाज़ारी पनीर, खोआ----- इन सब से एकदम नफ़रत सी ही हो चुकी है और इस के पीछे भी इस विषय पर दिखी अनगिनत रिपोर्टों का ही हाथ है।

बच्चे अकसर खुश होते हैं कि फलां-फलां ज्वाईंट पर सात रूपये में सॉफटी मिलती है-------मैं अकसर कहता हूं कि सात रूपये का दूध तो हम लोग जानते ही हैं कि कितना होता है तो फिर यह बड़ी सी साफ्टी आखिर जो सात रूपये में बिक रही है इस की शुद्धा कितनी होगी, कितनी नहीं राम जाने। मिठाईयां इसी चक्कर में मैं कभी नहीं खाता ----- बिल्कुल भी नहीं -----कुछ सालों से ही नहीं खाता था लेकिन जब से यह चीनी दूध की बातें सुनी हैं तो इन्हें बिल्कुल चखने का भी दुःसाहस नहीं कर पाता। मेरा पर्सनल अनुभव यही रहा है कि अगर हमें या अपने बच्चे को बीमारी की छुट्टी दिलानी हो तो किसी ब्याह-शादी में जाकर शाही पनीर का आनंद ले कर लौट आयें-----अगले दिन की छुट्टी लगभग पक्की !!

सात रूपये वाली साफ्टी का तो रोना रो लिया ---लेकिन उस का क्या करें जो दूध की कुल्फियां दो-दो रूपये में मैले-कुचैले थर्मोकोल में जगह जगह बिकती दिखती हैं। यह भी दूध तो नहीं हो सकता ----और क्या क्या है , इस की तो रिसर्च करनी होगी ----परसों मैं दिल्ली में भी देख रहा था कि ऐसे बीसियों कुल्फी-वाले लोगों को अपना माल बेधड़क, सरे-आम परोस रहे थे -----विचार तब भी यह आ रहा था कि क्या पब्लिक को गर्मी में गन्ने के रस के बारे में जागरूक करने के इलावा हमारे पास कोई विषय नहीं है !!

जो लोग किसी जगह पर एकदम शुद्ध बर्फी के मिलने की बात करते हैं उन्हें मैं हमेशा यही याद दिलाना चाहता हूं कि जितने में बर्फी का एक डिब्बा मिल रहा है, आप उतने पैसे में दूध,चीनी स्वयं उबाल कर देख लीजेये कि कितना वज़न आप के हाथ में आता है ----सो , यह शुद्ध बर्फी वाली बातें कोरी ढकोसलेबाजी ही हैं----शुद्ध बर्फी और वह भी आज के दौर में ---मैं तो यही सोचता हूं कि शुद्ध एवं नरम-नरम बर्फी वही थी जो हम लोग बचपन में पचास-सौ ग्राम किसी ऐसे हलवाई से लेकर खाया करते थे जो बेचारा सुबह से दूध की कडाही में कड़छी घुमा घुमा कर शाम तक पसीने से लथ-पथ हुआ करता था----और यह दो-तीन किलो बर्फी बनाने की सारी प्रक्रिया सब के सामने ही किया करता था और इतनी मेहनत करने का उसे बहुत गर्व हुआ करता था ------सच में बतलाइये कि अपने बचपन के दौर के किसी मशहूर हलवाई की याद आ गई ना ?----तो बढ़िया है उस की मिठाईयों का स्वाद हम सब से भी बांटिये।

मैं यह चाहता हूं कि देश का हर बंदा दूध एवं दूध उत्पादों की गुणवत्ता के बारे में सजग हो और सवाल पूछने शुरू करे। यही एक आशा है----वरना कोई बात नहीं, चलता है ,हम अकेले थोड़े ही हैं, करोड़ों लोग यही सब खा-पी रहे हैं.....ऐसी सोच नहीं चलेगी, दोस्तो। आप का आज पूछा हुआ सवाल आने वाले कईं वर्षों तक आप की और अगली पीढ़ी की सेहत का फैसला करेगा !!

इस विषय पर मैं भी बार बार इंटरनैट खंगाल लेता हूं और 3-4 वर्षों में इस विषय के बारे में पढ़ पढ़ कर जितना समझ पाया, जो इस विषय के बारे में अपना ओपिनियन बना पाया, उसे आप तक रख दिया ----सिर्फ़ एक राइडर के साथ ( शायद एक ज़रूरी फारमैलिटि के लिये ही !!) कि यह मेरे व्यक्तिगत विचार हैं -----आप अपने विचारों से हम सब को रू-ब-रू करवाइये।

जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा है कि हम डाक्टरों की समस्या और भी विकट इसलिये है क्योंकि हम लोगों को इस बात का ध्यान तो रखना ही होता है कि लोग जिस चीज़ का भी सेवन कर रहे हैं उस से उन्हें अवश्य स्वास्थ्य लाभ होना ही चाहिये ---और यह तो कतई बरदाश्त ही नहीं हो सकता कि फायदा-वायदा तो कुछ हुआ नहीं ---लेकिन बीमारियां ज़रूर मोल ले लीं। इसलिये कुछ मरीज़ों को जवाब देना बेहद मुश्किल हो जाता है कि क्या बच्चे को दूध पिलाने से उस की सेहत ठीक हो जायेगी !! हमें खुद ही नहीं पता कि दूध में आखिर कौन-कौन सी मिलावट है तो हम क्या जवाब दें ----इसलिये केवल इतना ज़रूर कह देता हूं कि दूध की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दें ---मात्रा पर नहीं।

पावडर से बने हुये दूध के बारे में आप भी सोचिये कि क्या उस को बनाने के लिये भी श्रेष्ठ दूध का ही इस्तेमाल हुआ होगा-----वैसे आप इस समय यही सोच रहे हैं ना कि अब तू बस कर, हमारी खटिया-चाय का समय हो रहा है , पहले ही से तूने इतना लिख दिया है कि हो न हो आज तो उस का स्वाद कड़वा ही लगेगा और उस कड़वाहट को झेलने के बाद तो हमें अपने दूध-वाले को शक की निगाहों से देखने पर मजबूर होना ही पड़ेगा।

बस, कुछ भी खायें, कुछ भी पियें, लेकिन अपना ध्यान रखियेगा। पिछले बड़े अरसे से ये सारी बातें, अपने विचार आप सब के साथ साझे करने के लिये व्याकुल हो रहा था, आज सुबह जल्दी जाग आ गई ( क्योंकि ठंडी लगने से ,छींकों से परेशान हूं !!) तो सोचा यही काम कर लेता हूं -----इतना लिखने के बाद हल्कापन सा महसूस हो रहा है---जुकाम में भी राहत लगने लगी है। सोचता हूं अब दो-एक घंटे के लिये सो ही जाता हूं, उस के बाद टहलने का समय हो जायेगा।

अच्छा तो दोस्तो, सुप्रभात !!....a very good morning to all of you !!
PS....मैंने यह पोस्ट लिखी तो कल 19नवंबर की सुबह सुबह लिखी थी ...लेकिन पोस्ट नहीं कर पाया ---कल से ब्राड-बैंड में कुछ तकनीकी खराबी थी ।

रविवार, 23 मार्च 2008

दूध-दही की नदियां............लेकिन कहां हैं ये ?


जैसे ही गर्मी थोड़ी बढ़ने लगेगी हमारे दूध वाले (जिस घर से जाकर हम ताज़ा दूध लाते हैं)...कहने लग जाते हैं कि पशुओं ने दूध सुखा दिया है, इसलिये अब कुछ महीनों तक आधा किलो या एक किलो दूध कम ही मिलेगा। यह आज की बात नहीं है, बचपन से ही देख रहा हूं। चलिये, सब से पहले अपने दूध लाने वाले दिनों की ही यादें थोड़ी ताज़ी कर लें।

सब से पहले तो हम लोगों को कभी भी उन दूध वालों के दूध पर कभी भरोसा हुया ही नहीं कि जो घर-घर साईकिल पर या मोटर-साईकिल पर दूध पहुंचाने जाते हैं। हो सकता है कि आप के विचार इस के बारे में बिलकुल अलग हों ,लेकिन मेरे विचार तो भई इस मामले में बहुत रिजीड़ से हैं .....शायद बचपन से ही किसी ने किसी परिवार के सदस्य को ही इस दूध को ढोते देख-देख कर ऐसी धारणा बन चुकी है। और बचपन के दिन याद हैं कि छठी-सातवीं कक्षा में जैसे ही साईकिल चलाना आया, तो दूध लाने के बहाने साईकिल पर घूम कर आने में बहुत मज़ा आता था। लेकिन छोटी छोटी अंगुलियां कभी कभी दूध के उस एल्यूमीनियम के या पीतल के भारी से ढोल को उठा कर थोड़ा थोड़ा दर्द भी करना शुरू कर देती थीं, लेकिन तब इस तरह की छोटी-मोटी बातों की भला किसे परवाह थी। खैर, बहुत मौके आये कि काफी लोगों ने जब ऑफर किया कि डाक्टर साहब, दूध आप के यहां घर ही पहुंच दिया करेंगे ना......लेकिन कभी भी मन माना नहीं ................हर बार यही लगा कि यार, इसे क्या इंटरैस्ट हो सकता है कि यह शत-प्रतिशत खालिस दूध ही मेरे यहां पहुंचायेगा। जब लोग आप की आंखों के सामने सब तरह की हेराफेरी कर रहे हैं तो ऐसे में इतनी ज़्यादा ईमानदारी की उपेक्षा करना भी कहां मुनासिब है।

खैर, जहां जहां से भी दूध लिया...........इतने विविध अनुभव रहे कि इस पर एक अच्छा खासा छोटा मोटा नावल लिख सकता हूं लेकिन अब किस किस बात पर ग्रंथ रचूं.........ब्रीफ़ में ही थोड़ा सा बतला रहा हूं कि कभी यह कहा जाता कि आज तो आप दूध दोहने के टाइम से पहले ही आ गये ...इसलिये जानबूझ कर आधा घंटा खड़ा रखा जाता....और अगले दिन जब लेट पहुंचा जाता तो पहले से ही निकला दूध यह कह कर थमा दिया जाता कि आज तो आप लेट हो गये, हमारे बछड़े को भूख लगी थी इसलिये हमें पहले ही निकालना पड़ा। अब पता नहीं असलियत क्या थी....बछड़े की भूख या कुछ और !!.....और भी बहुत सी बातें तो याद आ रही हैं लेकिन उन के चक्कर में पड़ गया तो केंद्र बिंदु से ही कहीं न हट जाऊं।

खैर, एक तरफ तो यह बात है कि गर्मी आते ही दूध की कमी की दुहाई दी जाने लगती है, लेकिन कईं वर्षों से मेरे मन में कुछ विचार रोज़ाना कईं कईं बार दस्तक देने के बाद ...हार कर, थक टूट कर लौट जाते हैं.................ऐसे ही कुछ विचारों से आप का तारूफ़ करवाना चाह रहा हूं.......

- बाज़ारों में इतना दूध हर समय कैसे बिकता रहता है ?
- इतनी शादियों, पार्टियों में इतना दूध लगता है , यह कहां से आता है?
- इतना ज़्यादा पनीर बाज़ार में बिकता है, इतनी बर्फी बिकती है, इतना मावा बिकता है, इतनी दही बिकती है ..........सोच कर सिर दुःखता है कि यह सब कहां से आता है?
- कुछ शहरों में जगह जगह सिक्का डालने पर मशीन से दूध बाहर आ जाने का भी प्रावधान है, यह दूध कैसा दूध हैर ?
- बम्बई में जहां हम रहते थे ....बम्बई सैंट्रल एरिया .....में, तो पास ही में एक बहुत बड़ी दूध की दुकान थी जिस में एक दूध का टैंकर बहुत बड़ी पाइप से दुकान के अंदर रखी एक बहुत बड़ी स्टील की टैंकी को भरने रोज़ाना आता था. यह क्या है ?...........क्या यह शुद्ध दूध है ?
- मिलावटी दूध की मीडिया में इतनी बात होती है लेकिन फिर भी डेयरी विशेषज्ञ लोगों को केवल इतना ही क्यों नहीं बता देते कि देखो, इस सिम्पल टैस्ट से आप यह पता लगा सकते हैं कि आप के यहां आने वाला दूध असली है या मिलावटी है......इस में कितना पानी मिला हुया है........ओहो, मैं भी पता नहीं किस सतयुग की बातें उधेड़ने लग जाता हूं.....अब कहां यह मुद्दा रहा है कि दूध में पानी कितना मिला हुया है और न ही अब यह मुद्दा ही रहा है कि जिस पानी से मिलावट की गई है ....वह स्वच्छ है भी या नहीं ......यह सब गुज़रे ज़माने की घिसी-पिसी बातें हैं.....अब तो बस यही फिक्र सताती है कि इस में यूरिया तो नहीं है, साबुन तो नहीं है.................लेकिन यह चिंता भी कभी कभी ही सताती है क्योंकि ज़्यादा समय तो हमें वो सास-बहू वाले सीरियल्स की , पाकिस्तान के नये प्रधानमंत्री के नामांकन की, या किसी विवाहित फिल्मी हीरो के अपनी को छोड़ कर किसी दूसरी अनमैरिड के साथ इश्क लड़ाने की चिंता सताती रहती है...............हमारा अजैंडा भी तो अच्छा खासा बदल गया है।

- ये जो बाज़ार में तरह तरह के पैकेटों में भी दूध बिकता है उस की भी शुद्धता की आखिर क्या गारंटी है ?....उन की मिलावट के बारे में भी आये दिन सुनते ही रहते हैं ।
- मैंने स्वयं अपनी आंखों से कुछ अरसा पहले देखा कि एक सवारी गाड़ी में सुबह के समय कुछ लड़के लोग अपनी अपनी दूध की कैनीयों में बाथरूम से पानी निकाल निकाल कर उस में उंडेल रहे थे। ये वही लोग हैं जिन के बारे में हम जैसे शहरी लोग यही सोच कर खुशफहमी पालते रहते हैं कि यार, हमारा दूध तो गांव से आता है। लेकिन मेरी उन नौजवानों को रोकने की हिम्मत थी नहीं.......और न ही कभी मैं यह हिमाकत करूंगा..............क्योंकि मैं भी खबरों में पढ़ता रहता हूं कि आज कल चलती गाड़ी में से किसी को फैंकने की वारदातें हो रही हैं।

आज तो इस पोस्ट के माध्यम से मैंने एक अच्छे मास्टर की तरह आप के मन में तरह तरह के प्रश्न डालने का काम किया है क्योंकि मैं समझता हूं कि एक अच्छा मास्टर अपने शागिर्दों के मन में विषय के प्रति उत्सुकता जगाने का काम ज़्यादा करता है.....सो, मैंने भी एक तुच्छ सा प्रयास किया है ।

यानि कि सब गोलमाल है भई सब गोलमाल है.................ईमानदारी से बतला दूं तो मुझे तो इस चक्रव्यूह से निकलने का कोई समाधान दिख नहीं रहा ।इसीलिये आप के सामने यह मुद्दा रख रहा हूं। कुछ दिन पहले मैं एक आर्थोपैडिक सर्जन का इंटरव्यू कर रहा था...जब दूध के कैल्शियम के सर्वोत्तम स्रोत होने की बात चली तो मैंने यह कहा कि बाज़ारों में तो इतना मिलावटी, सिंथैटिक किस्म का दूध बिक रहा है तो ऐसे में आम बंदे को आप का क्या संदेश है...................उस ने तपाक से उत्तर दिया कि मेरी तो लोगों को यही सलाह है कि दूध अच्छी क्वालिटी का ही खरीदा करें,...चाहे उस के लिये उन्हें कुछ ज़्यादा ही खर्च करना पड़े।

मैं उस का यह जवाब सोच कर यही मंगल-कामना करने लगा कि काश ! यह सब कुछ इतना आसान भी होता !!

वैसे जाते जाते एक विचार तो यह भी आ रहा है कि शहरों में अब गायें दिखती ही कहां हैं................नहीं ,नहीं , दिखती तो हैं ....जो तिरस्कृत कर दी जाती हैं और वे जगह जगह पर पालीथिनों के अंबारों पर तब तक मुंह मारती रहती हैं जब तक उन की जान ही नहीं निकल जाती या फिर बंबई के फुटपाथों पर भी अकसर एक गाय दिख जाती है जिस के पास बैठी औरत का पेट यह गाय पालती है......वह राहगीरों को एक-दो रूपये में चारे की एक दो शाखायें देती हैं जिसे वह उसी की गाय को खिला कर अपने पापों की गठड़ी को थोड़ा हल्का करने की खुश-फहमी पालते हुये आगे दलाल-स्ट्रीट की तरफ़......नहीं तो कमाठीपुरे जाने वाली पतली गली पकड़ लेता है।

और रही देश में दूध दही की नदियां बहने वाली बातें, वे तो शायद मनोज कुमार की किसी पुरानी फिल्म में दिखे तो दिखे........................वैसे, छोड़ो आप भी किन चक्करों में पड़ना चाह रहे हो, यह गीत सुनो और इत्मीनान से इंतज़ार करो अपने दूधवाले का , वह भी आता ही होगा !!


5 comments:

Gyandutt Pandey said...
दूध के बारे में जमाने से मेरा विचार था कि स्किम्ड मिल्क का पाउडर ले कर दूध बनाया जाये - वसा तो जरूरी है नहीं। अथवा सोयाबीन का दूध घर में बनाया जाये। पर हम किचन के प्रबन्धक हैँ नहीं। सो हमारी चल नहीं पाई!
आपने वाजिब चिंता व्यक्त की है।
राज भाटिय़ा said...
चोपडा जी एक राय आप भी एक बकरी खरीद लो ,फ़िर जब चाहो तभी ताजा दुध, याकिन ना आये तो मुंशी प्रेमचन्द जी की कहानी* कोई दुख न हो तो बकरी खरीद लो *पढे सच दुध बिना मिलावट के ओर ताजा मिलेगा.
SUNIL DOGRA जालि‍म said...
दूध तो बच्चे पीते हैं..
Neeraj Rohilla said...
हम तो कक्षा ५ तक यही समझते थे कि हिन्दुस्तान में दूध दही की नदियाँ बहती हैं और दूध बेचने वाले वहीं से डिब्बे भर कर लाते हैं । जब माताजी ने इस मिथक को तोडा था तब असलियत पता चली थी ।
mamta said...
प्रवीन जी पर इस समस्या का हल क्या है क्यूंकि हर कोई अपने घर मे गाय-बकरी तो नही पाल सकता है ना।