शनिवार, 13 दिसंबर 2014

आज से ४० साल पहले कितने डा मुन्ना भाई तैयार होते होंगे!!...(1979 से पूर्व)

आज कल जब मैं रोज़ाना सुबह उठ कर लखनऊ का कोई भी अखबार उठाता हूं तो व्यापम् घोटाले के बारे में खबरें देख देख कर दुःख होता है कि किस तरह से मैडीकल कालेजों में दाखिला दिलाने का यह रैकेट चल रहा था....और किस तरह से एमबीबीएस पढ़ रहे छात्र भी इस गोरखधंधे में शामिल मिल रहे हैं...और वे ही नहीं, उन के प्रोफैसर लोग भी। कितनी शर्मनाक बात है ..धंधा डाक्टरी का और प्रैक्टिस फर्जीवाड़े की।

मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि छात्र दूसरे प्रांतों में जाकर दूसरे छात्रों की जगह पर परीक्षा दे आते थे और एवज़ में दस-पंद्रह लाख की रकम वसूला करते थे। यह तो हो गई आज कल की बात जब हम लोग इमानदारी और पारदर्शिता का ढंका पीटते फिरते हैं।

चलिए, आप इस तरह के फर्जीवाडे से तैयार होने वाले डा मुन्नाभाईयों के बारे में तो आने वाले दिनों में भी पढ़ते रहेंगे...लेकिन आज से पैंतीस-चालीस साल पहले क्या होता था, ज़रा मैं उसे भी तो याद कर लूं।

मैं यह जो बातें आप से शेयर कर रहा हूं ..यह पंजाब की है..लेकिन यकीन मानिए आप इसे सत्तर के दशक के किसी भी प्रांत की ही समझ सकते हैं।

होता क्या था, पंजाब में मैडीकल कालेजों में दाखिले के लिए प्री-मैडीकल की परीक्षा के अंकों को ही आधार माना जाता था.....प्रीमैडीकल का मतलब आप समझ लें कि इंटर। दरअसल उस दौर में दसवीं करने के बाद चाहे तो आप ग्यारहवीं स्कूल में कर लें जिसे हायर सैकंडरी कहा जाता था फिर अगले साल आप कालेज में दाखिल लेकर प्री-मैडीकल कर सकते थे....या फिर दसवीं के बाद सीधा ही कालेज में प्री-यूनिवर्सिटी (मैडीकल या नॉन-मैडीकल) में दाखिला और उस के बाद वहीं से प्री-मैडीकल (या प्री-इंजीनियरिंग) की क्लास भी वहीं से हो जाती थी।

१९७८ तक पंजाब में यही प्रैक्टिस थी कि प्री-मैडीकल में जितने नंबर आएंगे उसी के आधार पर मैरिट लिस्ट बनेगी कि किसे पंजाब के सरकारी मैडीकल कालेजों में दाखिला मिलेगा। हां, एक बात और भी थी, जिस किसी को लगता था कि अंक अच्छे नहीं आएंगे तो वे एक साल के लिए ड्राप कर दिया करते थे.....अच्छा जुगाड़ था... फिर अगले साल जब फिर से आप उसी क्लास में पढ़ेंगे तो अंक तो बढ़ेंगे ही ना...ज़ाहिर सी बात है।

मुझे एक बात का और भी ध्यान आ रहा है कि कुछ लोग इम्प्रूवमैंट भी कर लिया करते थे....जी हां, इस की भी अनुमति हुया करती थी कि आप अगले साल फिर से पेपर देकर अपनी पर्सेंटेज को सुधार लें ताकि मेरिट में आप का नाम आ जाए और आप कहीं न कहीं एडमिशन पा जाएं।

आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि इस सिस्टम में कितनी गंदगी थी, बिल्कलु बास मारने वाली सड़ी व्यवस्था थी.....क्या है ना मैं छोटा था उन दिनों लेकिन इस तरह के बातों में पूरी रूचि लिया करता था, क्यों, यह भी सिर दुःखाने वाला एक अलग किस्सा है, बाद में बात करूंगा, अभी मूड नहीं है।

पहले तो इस गंदगी के बारे में दो बातें कर लूं........ठीक है यार होते होंगे कुछ लोग जो पढ़ाई में अच्छे होते होंगे कि केवल और केवल अपनी मेरिट के बलबूते एमबीबीएस में दाखिला ले लेते होंगे, लेकिन इस तरह के सड़े-गले सिस्टम में किस तरह से व्यापक सड़न (गैंगरीन) फैली हुई थी, यह तो आप से शेयर करना बनता है।

ट्यूशन पढ़ने वालों पर विशेष कृपादृष्टि 

आम तौर पर यह देखा जाता था कि जो छात्र अपने प्रोफैसरों से प्री-मैडीकल में ट्यूशन ले लेते थे, उन्हें प्रैक्टीकल परीक्षा में खूब अच्छे अंक दे दिये जाते थे......यही नहीं, धिक्कार है ऐसे टीचरों पर जो इन छात्रों की इंटरनल एसेसमैंट भी इस बात पर तय करते थे कि वे उन के यहां ट्यूशन पढ़ रहे हैं या नहीं।

फिट्टेमुंह ओए फिट्टेमुंह तुहाडे ते....पता नहीं तुसीं किन्नीयां अनडिजर्विंग रूहां नूं अग्गे धिक्कन लई किन्नीयां जिंदगीयां तबाह कीतीयां...फिट्टेमुंह ओए फिट्टेमुंह...हुन तक तुसीं सारे ही मर-खप गये होने ओ......चलो, धरती दा भार होला होया........(दोस्तो, जब मुझे गुस्सा आता है ना तो मैं अपने आप से ठेठ पंजाबी में बातें कर लेता हूं).......मैंने सिर्फ इतना निवेदन किया है जी पंजाबी भाषा में कि जो टीचर इस तरह के गोरखधंधों में लिप्त थे उन्हें शर्म आनी चाहिए कि इस तरह की प्रैक्टिस के द्वारा उन छात्रों को तो आगे ले आए जो इस के योग्य नहीं थे और जो योग्य थे, उन्हें ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया। फिर मुझे ध्यान आया कि शायद उन में से ज्यादातर टीचर तो नरक-सिधार चुके होंगे.......चलो, इसी बहाने धरती का भार थोड़ा हल्का तो हुआ।

 वैसे यहां यह भी लिखना ज़रूरी है कि जो छात्र उन के पास ट्यूशन लेते थे उन का व्यवहार क्लास में भी और लैब में भी उन के साथ अलग ही किस्म का बेतक्लुफ्फी वाला हुआ करता था।

बाप के नाम की धौंस.....रसूख का खेल 

एक बात यह भी थी कि अगर किसी छात्र का बाप बड़ी पोस्ट पर था......कालेज या यूनिवर्सिटी में किसी भी विभाग में प्रोफैसर था या वहां पर किसी भी पोस्ट पर था, या फिर शहर के मैडीकल कालेज के कुछ प्रोफैसरों के लोंडे-लोंडियां, शहर के मशहूर डाक्टर, अब कमबख्त किस किस का नाम गिनाएं.......हर कोई कुछ न कुछ जुगाड़ शायद निकाल लिया करता था......शायद बिल्कुल शुद्ध लोअर मिडल और मिडल की बार्डर लाइन वाले छात्र ही कुछ नहीं कर पाते थे (अपना खून जलाने के अलावा)......ट्यूशन का फायदा लेने में और रसूख का लाभ लेने में वे वंचित रहते थे......नतीजा यही कि प्रैक्टीकल और वाईवा में और इंटरनल असैसमेंट में वे बुद्धु (या कुछ और) ऐसे पिट जाते थे कि मेरिट में आने का उन का सपना केवल एक फेंटेसी ही रह जाता था (ऐसी फेंटेसी भी किस काम की!!).... चाहे वे थ्यूरी कितनी भी अच्छी कर आएं लेकिन वे प्रैक्टीकल, वाईवा और इंटरनेल एसेसमेंट में इतना कम स्कोर ले पाते थे कि वे मेरिट से बाहर ही रहते थे।

पेपरों की चैकिंग 
अब अगर आज की तारीख में इतने डा मुन्नाभाई तैयार हो रहे हैं तो क्या आप को लगता है कि आज से पैंतीस-चालीस साल पहले रसूखवालों के लिए पेपरों के चेकरों तक पहुंच पाना मुश्किल होता होगा...इस का निर्णय मैं आप के ऊपर छोड़ता हूं।

डोनेशन वाली सीटें

अगर किसी रईस का लोंडा सरकारी कालेजों की मेरिट लिस्ट में आने से रह भी जाता था तो उसे डोनेशन खर्च कर (१९७० के शुरूआती दिनों में ये सीटें दस हज़ार में िबक जाती थीं) उसी साल पंजाब के दो प्राईव्हेट मैडीकल कालेजों के सुपुर्द कर दिया जाता था कि लोंडे को अच्छा डाक्टर बना कर तैयार करो। और जो बिल्कुल रद्दी सौदा होता था, पंजाब या दिल्ली का, उसे आंध्र प्रदेश आदि जगहों पर डोनेशन पर भेज दिया जाता था........और जो एक बार घुस गया, वह तो डाक्टर बन कर ही निकलेगा।

आज मुझे चालीस साल पुरानी बातें याद कर के आग लगी हुई है.....मैंने कुछ भड़ास तो इस पोस्ट के द्वारा निकाल ली है,  मैंने जो लिखा है ईश्वर को हाज़िर-नाज़िर जान कर लिखा है, इस पर आप में से मेरे साथ कोई भी चर्चा करना चाहे, उसे खुला निमंत्रण है.........लेकिन होता यही कुछ था, बिल्कुल गरीब-मार सरेआम हुआ करती थी........मैं बार बार यही कह रहा हूं कि योग्य छात्र भी अपनी योग्यता के बलबूते ज़रूर आगे आते होंगे लेकिन रद्दी और खोटे सिक्के भी खूब चल जाया करते थे.....इस पैसे, रसूख, और ओहदे के घिनौने खेल में।

अब लगता है थूक भी दूं इन सड़ी यादों को.......मन खराब होता है यह सब याद आने पर.........लेकिन मुझे पता है इस समय मेरा मन कैसे ठीक हो जाएगा......अच्छा, दोस्तो, मैं तो अपनी पसंद का एक सुपरहिट पंजाबी गीत सुनने लगा हूं.....आप भी सुनेंगे तो ज़रूर पसंद करेंगे........अगर पंजाबी भाषा नहीं भी आती, तो फिक्र नॉट------प्यार की भी क्या कोई भाषा होती है!!

१९७८ के बाद क्या क्या देखा, यह फिर किसी दिन आप से शेयर करूंगा। आह..हा...हा...अब कुछ ह्लकापन महसूस हुआ।