मंगलवार, 15 फ़रवरी 2022

क्या सच में ये सब खेल ज़रूरी हैं...

जब हम बचपन में खेल खेलते हैं तो कितना मज़ा आता है, कोई किसी का ख़ास मक़सद नहीं ...बस, मस्ती करना और खुश रहना..पसीनों पसीना होकर जब सांस फूलने लगता तो आराम कर लेते ...और सांस रलने लगती (सामान्य होने पर) फिर से उन मासूम खेलों में मशगूल हो जाते ...और सच में ये सब खेल हमें तंदरूस्त रखते थे ..ह

लेकिन आज कल ये जो मोबाइल पर हम हर वक्त खेल खेलते रहते हैं, यह हमें बीमार करने के लिए काफी है ...कोई किसी तकलीफ से परेशान है, किसी की दूसरी कोई परेशानी है ...हो न हो, इस में कुछ तो रोल उन सब गेम्स का है जो हम सुबह उठने से शुरू हो कर रात को सोने तक खेलते रहते हैं ...बचपन वाली गेम्स से तो सेहत अच्छी रहती थी, लेकिन ये जो वाट्सएप वाली गेम्स हैं इन से तो दिमाग में ऐसी खिचड़ी पकती है कि कुछ पूछो मत ... 

Games people play! 

मुझे भी कुछ दिनों से ऐसा ख्याल आ तो रहा था कि यार, हम लोग इस वाट्सएप पर भी कितनी गेम्स खेलते रहते हैं...और ख्याल रखने वाली बात यह है कि ये सभी की सभी गेम्स हमें बीमार करने के लिए काफी हैं...हमें लगता है कि हम रोमांच का मज़ा ले रहे हैं लेकिन ऐसा नहीं है...सोचने वाली बात है कि हमारे दिमाग पर कितना दबाव रहता होगा ...तरह तरह के तथ्य याद रखने के लिए...चलिए, शुक्र है मैं तो अपने मन की बात लिख कर हल्का हो जाता हूं ...बस, मुझे मेरी क़लम सामने रखी मिलनी चाहिए... 
मैंने इंगलिश में ये बातें लिख तो लीं लेकिन जी भरा नहीं ....ऐसे लग रहा है कि कुछ तो रह गया है और मुझे ऐसे नींद कैसे आने वाली है ....इसलिए सोच रहा हूं कि इन चारों चेहरों के बारे में अपने दिल की तहों में कहीं छुपे बैठे विचार एक जगह लिख लूं ...अपने लिए ...किसी दूसरे के लिए ...मुझे इस का ध्यान रखना है, दूसरों की दूसरे जानें....

चेहरा नं ..1...यह चेहरा हमारा वाट्सएप ग्रुप पर नज़र आता है ...हम बडे़ बीबे बच्चे बने होते हैं वहां पर ..या तो चुप रहते हैं ...नहीं तो सब कुछ चंगा ही चंगा , सब वधिया जी वधिया ...बस जी तुसीं से चक दित्ते फट्टे ...चक दित्ते फट्टे ...इस मोड में भी होते हैं अकसर ..सभी नहीं ...लेकिन वही जो ज़्यादा टपोशियां मारने के आदि होते हैं ..बिल्कुल मेरे जैसे ...जब कि दिल से जानते हैं कि यह सब बकवास है, किसी काम की बातें नहीं ..क्या सिद्ध कर लेंगे और इस से हो क्या जाएगा...कुछ भी तो नहीं। बस, एक तरह का चस्का ...हर पोस्ट पर कूदने का ...अपनी राय देने का ...इस में भी समझदार लोगों को interpersonal relations की झलक साफ़ देखने को मिलती है ...आजकल हर कोई समझदार है, सिर्फ अपने आप को ही समझदार समझने वाला सही में खोता (गधा) है ...चलिए, यह जो चेहरा है, इस में कुछ खास पता नहीं चलता...क्योंकि सब दनादन तालियां मारने के मोड में पाए जाते हैं ..वरना चुप्पी साधे रहते हैं....

चेहरा नं 2 ..अच्छा, कोई एक ग्रुप है कल्पना कीजिए...उस के दो मेेंबर जब आपस में अलग से मैसेज करते हैं तो उन की टोन, उन की आत्मीयता या कठोरता (कुछ भी हो सकता है) अलग ही होती है ...यह स्वभाविक भी है, भीड़ में हम लोग जिस तरह से पेश आते हैं वह वन-टू-वन में बदला हुआ पाते हैं ...अधिकतर यह अनुभव अच्छा ही होता है ..बस, वही चंगा जी चंगा, वधिया जी वधिया...तुसीं बड़े घैंट जी ...बड़े घैंट ...

चेहरा नं 3 .. यह जो हमारा चेहरा है वह तब दूसरों की नज़र में आता है जब किसी वाट्सएप ग्रुप से तालुल्क रखने वाले कुछ लोग किसी गोष्ठी में मिलते हैं.... इस परिस्थिति में हम लोग जिस तरह से दूसरे सदस्यों से पेश आते हैं या वे हम से पेश आते हैं, यह सब बड़ा विचारोत्तेजक होता है ..आदमी सोच में पड़ जाता है कि क्या ये वही लोग हैं जो अलग से तो ऐसे मैसेज करते हैं या जिन का चेहरा नं 4 तो अलग ही ब्यां कर रहा होता है .. 

इस चेहरा नं 3 की गेम के बारे में हम ऐसे समझ सकते हैं कि हम शायद आपस में दूसरे मैंबरों का ऐसा तवा लगा चुके होते हैं (बुरा भला कह चुके होते हैं) अलग से कि वहां पर हमें आपस में एक दूसरे की बात पर कोई प्रतिक्रिया देनी भारी पड़ती है ...हम बस कटे-कटे से उस गोष्ठी में बैठे उस के खत्म होने का इंतज़ार करते रहते हैं... इस तरह से जब एक वाट्सएप ग्रुप वाले मिलते हैं एक जगह तो बड़ा अजीब सा लगता है ..सब कुछ कमबख्त बनावटी ...कागज़ के फूलों जैसा ...जो रंग ले भी आएं तो रूप कहां से लाएंगे...सोशल इंजीनियरिंग के फंडे भी जो लोग समझते हैं, चाहे वे गेम्स खेले या न खेलें, फालतू की गुटबाजी का वक्त किस के पास है ....जिन को इन सब का शौक का उन्हें यह मुबारक ...क्योंकि इस से होता-हवाता कुछ नहीं है ...दोस्तो, कभी फ़ुर्सत के लम्हों में सोचिएगा कि किसी बंदे को किसी दूसरे के आगे बुरा-भला कहने से आखिर हो क्या जाएगा....यकीन मानिए..कुछ नहीं होगा..जिस की बुराई कर रहे हैं उस का तो यकीनन कुछ न होगा...गारंटी से कह रहा हूं..लेकिन बुराई करने वाले ज़रूर आसपास के साथियों में घटिया सा, सस्ता सा लगने लगता है ..क्योंकि बातें कभी भी छुपी रहती नहीं हैं, दीवारों के भी कान होते हैं .। खैर, गुटबाजी बिल्कुल बेकार है ... मस्त रहिए...खुश रहिए...यहां पर किसी को 150 साल तो रहना नहीं ...राज़ी खुशी जो वक्त पास हो जाए, उसी का शुक्र मनाइए...बस खेल खेलना बंद करिए... वह कैसा है, क्या कर रहा है, क्यों कर रहा है....छोड़ो यार इन बातों को, हम सब को अपने अपने गिरेबान में झांकने से ही फुर्सत नहीं मिलनी चाहिए....अगर बैठ कर कमियां ही निकालनी हैं तो ... 

चेहरा नं 4 ...चेहरा नं 4 तो बड़ी मज़ेदार एंटिटि होती है ...यह चेहरा हमें तब दिखाई पड़ता है या हम तभी दिखा पाते हैं जब किसी वाट्सएप ग्रुप के दो मेंबर जो एक दूसरे पर भरोसा करते हों, ऐसे दो सदस्य जब आपस में दिल खोल कर बातें करते हैं तो इस चेहरे के दर्शन हो पाते हैं ....वरना नहीं..। और इतने खुले वातावरण में जब इन मेंबरों को बात चल रही होती है, हंसी-मज़ाक भी चल रहा होता है तो ये दोनों यह सोच कर चक्कर में पड़ जाते हैं दूसरे बंदे के बारे में कि क्या यह वही शख्स है जो वाट्सग्रुप पर तो मुंह पर पट्टी बांधे रखता, और किसी मीटिंग में भी किसी की बात पर कोई खास प्रतिक्रिया देता नहीं, अपनी बात कहता नहीं...लेकिन जब अलग से मिल रहा है तो इतनी खुल कर बात कर रहा है ....