गुरुवार, 26 जून 2008

नफ़रत है मुझे इस दादागिरी से....

पिछले कुछ दिनों से यह जो हम जगह जगह देख रहे हैं कि रेलें बीच रास्ते में ही रोकी जा रहूी हैं, क्या आप को नहीं लगता कि यह एक दादागिरी आखिर कब खत्म होगी। आज भी अखबार में देखा कि लोगों नें पत्थर लाईनों पर रखे हुये हैं और उन पर बैठ कर रेलें रोके हुये हैं।

जितनी मेरी समझ है...उस के अनुसार तो यही सोचता हूं कि इस तरह के प्रदर्शनकारियों की जब कोई मांग मान ली जाती है तो इस से सारे देश के लोगों को एक बिलकुल गलत सिगनल मिलता है। मैं नहीं जानता किसी भी मांग को .....वह कुछ भी हो, किसी भी जाति की हो, किसी भी संप्रदाय की हो, किसी भी स्टेटस वाले बंदे की हो.......यह जो रेलें रोक कर रखने वाला चक्कर है ना,......यह बेहद आपत्तिजनक है, इस से तो यही लगता है कि सारे देश ने इन आंदोलनकारियों के आगे अपने घुटने टेक दिये हैं। पंजाबी में कहूं तो यही लगता है कि असीं तां ऐन्नां अग्गे कोडे हो गये।

जब कोई भी समूह ये रेलें रोकते हैं तो वे यह क्यों भूल जाते हैं कि इसी रेल में कोई बालक अपनी परीक्षा देने जा रहा है जिस का वह बरसों से इंतज़ार कर रहा है, किसी की बच्ची अपनी नौकरी की इंटरव्यू के लिये जा रही है जिस में  वह पहले छः बार फेल हो चुकी है, कोई आदमी अपनी बूढ़ी मां को इलाज के लिये शहर के बड़े हास्पीटल ले जा रहा है, कोई अपनी बाप के मरने पर उस के दर्शन के लिये दौड़ा जा रहा है....उस का दाह-संस्कार उस के आने की इंतज़ार कर रहा है कि किसी तरह वह सूर्यास्त होने से पहले अपने गांव पहुंच जाये।

लेकिन इन आंदोलनकारियों को इन से क्या मतलब........सोचता हूं कि यह तो बर्बरता है, कितनी कठोरता है, बस मेरे पास इस तरह के आंदोलनों के विरोध में बोलने के लिये शब्द नहीं मिल रहे हैं। मैं इस झमेले में तो बिलकुल पड़ ही नहीं रहा हूं कि डिमांड वाजिब है कि नहीं है.....एक प्रजातंत्र देश में इसे जांचना का एक बढ़िया सिस्टम है।

सोच रहा हूं कि अगर इन रेल रोको आँदोलनकारियों को तुरंत ही न रोका गया तो वह समझ दूर नहीं जब ये आंदोलनकारी किसी गांव में इन गाड़ियों को रोके रखेंगे और इसी दौरान चोर-डाकू इन पर डाके डालेंगे, इस देश की बहन-बेटियों की आबरू से खेलेंगे और फिर क्या पता आने वाले समय में इन खड़ी हुई गाड़ियों के स्थान पर धर्म,संप्रदाय, जाति, श्रेणी के नाम पर कत्लो-गैरत ही हो जाये .............इसलिेये कुछ भी हो इन आंदोलनकारियों को तुरंत रोकना ही होगा।

वैसे भी अभी तो हम गाड़ियों से धक्का देकर नीचे गिरा देने वाली घटनाओं को याद करते हैं तो कांप उठते हैं। आज़ाद भारत में इस तरह से किसी भी तरह से विद्रोह को प्रगट करने का यह ढंग बेहद बेहूदा है.......आम सीधी सादी निर्दोष जनता पर अत्याचार है.......आम आदमी कभी भी इस तरह के प्रदर्शनकारियों के साथ नहीं होता।

सोचिये कि अगर किसी बंदे के पास उतने ही पैसे थे जितने का उस ने रेल टिक्ट खरीद लिया( मेरे साथ ही बहुत बार ऐसा हो चुका है, आज नेट पर बैठ कर प्रवचन करने लग गया हूं तो क्या !!)......तो जब किसी सुनसान जगह पर उस की ट्रेन रोक दी जाती है तो वह किस की अम्मा को अपनी मौसी बोलेगा, किस पेड़ से अपनी सिर टकरायेगा कि उस की ही किस्मत ऐसी क्यों है या फिर कटोरा पकड कर भीख मांगने पर वह मजबूर हो जायेगा।