बुधवार, 12 सितंबर 2012

राइटर ब्लॉक से निजात मिल ही गई

आज से दस बारह वर्ष पहले का समय था जब अखबार में यह सोच सोच कर लेख भेजा करते थे कि हम गिनती के 40-45 लेख ही तो लिख पाएंगे ...इसलिए लेखों को इस तरह संभाल कर रखते थे मानो....। 

लेकिन एक बार अच्छी यह हुई कि 2-3 नवलेखक शिविरों में शिरकत करने का अवसर मिल गया --जोरहाट में, अमृतसर में -------बस तब से समझ आ गया कि लेखों की कमी तो कोई है ही नहीं, कमी हम में है जो इस विधा को समय दे नहीं पाते। 

अब मेरी ही देखिए कि यह मेरा सबसे पहले ब्लॉग -मीडिया डाक्टर --इस को ही मैं कितने लंबे अरसे के लिए नज़रअंदाज़ करता रहा। पिछले सात महीने से कुछ नहीं लिख इस पर --बस आज लिखूंगा-कल लिखूंगा के चक्कर में सर्दी से गर्मी हो गई और अब फिर से लगभग सर्द ऋतु की कगार पर ही तो खड़े हैं। 

अब समस्या यह है कि सुबह से लेकर शाम तक बीसियों लेख आंखों के सामने तैरते रहते हैं ...लेकिन बस यह आलस बुरी बला है.....दुआ करें कि मैं इसे त्याग पाऊं ... 

हां, तो एक बात तो बतानी भूल ही गया जो कि मैं सभी पाठकों से सांझा करना चाहता हूं ---जब मैं जोरहाट --यह शहर गुवाहाटी से ट्रेन के एक रात के सफर जितना दूर है --सुबह शायद चार पांच बजे ही सूर्योदय और शाम को पांच साढ़े पांच बजे सू्र्यास्त ...हां, तो जो गुरू जी हमारे लेखक शिविर के प्रभारी थे, उन्होंने हमें एक बात कही .. क्या तुम लोग समझते हो कि बहुत बड़ी बड़ी बातें लिख कर ही साहित्यकार बना जा सकता है? --उन्हें हमें अपने नाना जी के बारे में बताया -- बहुत पुरानी बात बता रहे होंगे क्योंकि वे स्वयं भी वयोवृद्ध थे -- हां, तो उन्होंने एक दिन हमें मूड में आकर सुनाया कि उन के नाना जी नित प्रतिदिन एक पोथी पर रोज़ाना होने वाला खर्च लिखा करते थे ---लेकिन कोई आलस नहीं ---बिना नागा ...........हुआ क्या कि जब इतने दशकों बात उसे खोल कर देखते हैं तो पता चलता है कि तब आटे-नमक का क्या भाव था, यह भी साहित्य ही है .........और हम अच्छे से समझ गये कि वे कितनी बड़ी बात कितनी सहजता से कह गये।

अपने सभी पाठकों से एक बात और भी कहना चाहूंगा कि आप भी लिखने की आदत डालें --- चाहें तो ब्लॉग ही शुरू कर डालें --- देश-समाज को बदलने का मंसूबा बनाने की कोई ज़रूरत नहीं ---सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा -- डोंट वरी -- बस रोज़ाना एक पन्ना लिखने से शुरू तो कर के देखिए -- अगर नियमित लिखेंगे साल में 365 पन्ने तैयार हो जाएंगे और उन में से हमारे लेखन के गुरूजी ने बताया कि 50-60 तो कम से कम प्रकाशित होने के क़ाबिल तो होंगे ही.... 

शायद मैं पूरी तरह से राइटर ब्लॉक का शिकार नहीं था -- क्योंकि मैं अपने दूसरे ब्लॉगों पर .... सेहतनामा और Health baba पर लगभग नियमित लिख ही रहा था, इन पर क्लिक कर के क्या आप देखना चाहेंगे कि मैं पिछले लगभग छः सात महीने आखिर कर क्या रहा था।

आज के लिए इतनी बातें काफ़ी हैं, कल फिर से करेंगे ...................चलते चलते एक गीत ही सुन लिया जाए, मेरी पसंद का ..... 
आंखे भी होती हैं दिल की जुबा, बिन बोले कर देती हैं हालत ये पल में ब्यां .......

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

तुम बेसहारा हो तो ...

कल बाद दोपहर मैं अंबाला छावनी में एक टी-स्टाल पर चाय की चुस्कियां ले रहा था .... उसी स्टाल पर किसी मोबाइल पर यह सुंदर सा गीत भी बज रहा था, बहुत दिनों बाद सुन रहा था, अच्छा लग रहा था। मुझे नहीं पता था यह उस महान कलाकार नुसरत फतेह अली खान के महान् भतीजे राहत अली खान ने गाया है ...... गुमसुम गुमसुम प्यार दा मौसम....अज न दर्द जगावीं.......


अभी मैं उस टी स्टाल से बाहर निकला ही था कि मैंने देखा कि एक बहुत ही बुज़ुर्ग महिला अपने बेटे का हाथ थाम कर पास की ही एक ऊन की दुकान के बाहर खड़ी थी..... महिला इतनी वृद्ध थीं कि शायद अकेले चल पाने में असमर्थ थी, बिना किसी सहारे के ............और यह देख कर और भी महसूस हुआ कि उस का बेटा भी मानसिक रूप से चैलेंजड था, लग नहीं रहा था कि वह अकेला कोई खरीददारी कर सकता होगा। उन दोनों को देख कर ऐसा लग रहा था कि शरीर उस के बेटे का चल रहा था और दिमाग उस मां का चल रहा था।

वैसे भी हम लोग कितनी बात देखते हैं कि दो बुज़ुर्ग एक दूसरे का हाथ थाम कर सड़क क्रास कर रहे होते हैं, बाज़ार में खरीददारी कर रहे होते हैं.....मैं उन बुज़ुर्गों की बात कर रहा हूं जिन के लिये अपनी बढ़ती उम्र की वजह से बाहर निकलना इतना दूभर हो जाता है कि उन्हें किसी दूसरे पर निर्भर होना पड़ता है....वे एक दूसरे का सहारे बनते दिखते हैं।

अकसर ऐसे मंजर देख कर मुझे उस महान् अभिनेता अशोक कुमार का मेरा बेहद पसंदीदा गीत याद आ जाता है, आप भी सुन लें, लंबे अरसे से सुना नहीं होगा।


बाज़ार में घूमते हुये बहुत से मंज़र हमारी ढोंगी सामाजिक व्यवस्था की पोल खोलते दिख जाते हैं, है कि नहीं ?