गुरुवार, 21 अप्रैल 2022

महीनों बाद हुई आज साईकिल की सवारी

सुबह 5 बजे के करीब उठ तो गया...चाय भी पी ली..लेकिन वही भारी सिर ...क्या करे कोई ऐसे सिर का ...वैसे भी ड्यूटी से आने के बाद ऐसे लगता है जैसे बस लेटे ही रहें...पीठ अकड़ी हुई, घुटने टस टस करते ...एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते ऐसे लगता है जैसे 90 बरस तक जी चुके हैं...बिल्कुल ऐसा ही है, और यह हाल तब है जब कि कोई मेहनत का काम नहीं है, खुद को ए.सी कमरों में ठूंसे रखना है ...हां, तो आज सुबह सोचा कि साईकिल पर ही गेड़ी लगाई जाए...लिखे भी कोई कितना लिखे, वैसे भी कौन सा लिख लिख कर पद्म-विभूषण मिल जाना है, अगर मिल भी जाए तो भी क्या!!😎

मैंने किसी राहगीर को कहा कि एक तस्वीर ही खींच दे...पीछे बोर्ड में दिख भी रहा है जुहू तारा रोड़ 

मैंने शायद अपनी किसी पोस्ट में लिखा था कि मैं एक डेढ़ बरस पहले साईकिल रोज़ाना चलाने लगा था ...फिर एक दिन कॉलोनी के और फिर एक दिन वार्डन रोड के कुत्ते पीछे पड़ गए...बस, उस दिन के बाद सुबह सुबह साईकिल पर निकलना बंद सा ही हो गया...और बंबई जगह ऐसी है कि यहां पर इस तरह के शौक साईकिल पर टहलना वहलना अगर मुंह अंधेरे हो जाए तो ठीक, वरना दिन चढ़ते ही जैसे ही बंबई नगरी जाग जाती है तो फिर ये सब काम बेहद जोखिम के लगते हैं...उस के बाद तो सड़कों से डर लगने लगता है ...इसलिए मैं उस के बाद फुटपाथों का रुख कर लेता हूं ..😁

कुत्तों के डर से अपने साथ एक छोटी सी स्टिक रख ली आज...और कोई भी काम इतने दिनों बाद करो तो उसे शुरू करने से पहले ही बोरियत सी तो होती है ...इसलिए जेब में मोबाइल पर रविंद्र जैन के गीत लगा लिए ...उन के गीत सुनना बहुत अच्छा लगता है ...लेकिन एक बात तो है, जैसे वो कहते हैं न कि घर से बाहर निकलने की ही देरी होती है ..तबीयत एक दम हरी होने लगती है ...

इसीलिए मैं हरेक को कहता हूं कि घर से बाहर निकलना बहुत ज़रुरी है ..पैदल, साईकिल पर ...कैसे भी ...बस, बहाना ढूंढिए घर से बाहर जा कर दुनिया का मेला देखिए...मुझे कोई कहता है कि इतना चल नही ंपाते, मैं उन्हें कहता हूं कि जितना चल पाते हैं, उतना चलिए...कोई रेस थोड़े न लगा रहे हैं, बस थोड़ी सी खुशी बटोरने निकले हैं...हंसते-मुस्कुराते चेहरे, रंग बिरंगे फूल, कुछ नेक रूहें जो सुबह सुबह राह पर इंतज़ार करते छोटे जानवरों के खाने के लिए कुछ ले कर आते हैं उन्हें देख कर तो दिल में जो अहसास उमड़ते हैं उन्हें कोई कैसे ब्यां करे...सच में ये जानवर उन का ऐसे इंतज़ार कर रहे होते हैं जैसे बच्चे अपनी मां की रसोई में पक रहे खाने का करते हैं...अभी याद आया कुछ दिन पहले एक ऐसे ही लम्हे को अपने मोबाइल में कैद किया था ...

जो लोग चल ही नहीं पाते, मै उन को लाठी से ही नहीं, वाकर से भी चलते देखा है ...लेकिन वे लोग निकलते ज़रूर हैं घर से ..अगर बिल्कुल ही कुछ नहीं हो सकता, तो दो पहिया चार पहिया पर सवार हो कर जाइए और किसी पार्क में ही जा कर बैठिए...आते जाते दुनिया का तमाशा देखिए...ताज़गी मिल जाएगी...हां, एक बात याद आई कि घूमने से ख्याल आया कि ये जो रेलवे स्टेशन हैं न ये भी एक ऐसी जगह हैं जहां पर सारे हिंदोस्तान के दर्शन आप कर सकते हैं....हर प्र्रांत का बंदा, हर मिज़ाज का शख्स, शरीफ़ से शरीफ़, खुराफाती से खुराफाती,  जेबकतरे, फांदेबाज़, चेन-स्नेचर, फेरी वाले, रईस, फकीर, गायक ......शायद ही कोई तबक हो जो यहां पर हमें नहीं दिखता। मैं तो बहुत बार मज़ाक में कहता हूं कि रेेलवे प्लेटफार्म आना, ट्रेन में सफर करना भी एक फिल्म देखने जैसा ही है, ज़िंदगी की एक किताब पढ़ने जैसा ही है ... 

किशोर कुमार का घर दिख गया, गौरी कुंज ....बस, अपना दिन बन गया...😀😀
सुबह के वक्त की छटा ही निराली होती है ...साईकिल पर चलते चलते मुझे बीस पच्चीस मिनट हो गए तो मैने देखा कि बंबई की सड़कें जाग गई हैं...बस, वहीं से लौटने का मन बना लिया...सामने देखा तो के.के.गांगुली मार्ग लिखा था ....और उस के ठीक सामने किशोर कुमार का बंगला था ..हां, एक बात का ख्याल आ रहा था कि लोग सुबह सुबह धार्मिक जगहों पर जाते हैं, बड़े बड़े ग्रंथ पढ़ते हैं...जो भी कोई करता है मुबारक है ...लेकिन मुझे तो कुछ पुराने गीत ही भजनों जैसे लगते हैं, और अगर मन लगा कर सुनते हैं तो धर्म जो हमें सीख देते हैं ...वही सीख ही इन में भरी होती है बहुत बार ..इसीलिए भई मुझे तो इन महान फ़नकारों के घरों के सामने से जब गुज़रने का मौका भी मिल जाता है ...मैं अकसर कहता हूं कि मुझे यह किसी तीर्थ स्थान से कम नहीं लगता ..

लगता है यह बोर्ड ताज़ा ताज़ा ही लगा है ...साधु वासवानी को सादर नमन🙏

ये लोग कोई आम लोग नहीं थे, सब के सब रब्बी लोग थे ...ये जो कर गए, ये उन्हीं के बस का काम था...जहां रहता हूं, और जहां ड्यूटी के लिए जाता हूं, उन दोनों जगहों में काफी दूरी है ...लगभग दो -ढाई घंटे तो आने जाने में लगते हैं ...लेकिन आते जाते जब कभी नौशाद साहब का घर, गुलजार साहब का घऱ, आनंद बख्रशी के घर की तरफ़ जाती सड़क, रविंद्र जैन चौक, मोहम्मद रफी चौक, आरडीबर्मन चौक, महेन्द्र कपूर चौक जैसी हस्तियों के नाम ही दिख जाते हैं तो आने जाने की परेशानी कितनी तुच्छ लगती है ...ऐसे लगता है कि वे लोग अभी यहीं कहीं है ..किसी दरवाज़े से बाहर निकलते हुए दिख जाएंगे...

निदा फ़ाज़ली साहब फरमाते हैं ...

सब की पूजा एक सी...अलग अलग हर रीत...

मस्जिद जाए मौलवी, कोयल गाए गीत ..


मैं आज कल यह किताब पढ़ रहा हूं ..इस के कुछ पन्ने पढ़ कर ही मुझे साईकिल चलाने के लिए बाहर निकलना पड़ा....देखता हूं कितनी दिन इस किताब में लिखी बातों को मान पाता हूं ...एक दम का आलसी बंदा हूं मैं भी ...लेकिन हां, आप यह देख रहे होंगे मैंने इस किताब को उस स्टैंड पर रखा है जिस पर धार्मिक पोथी रखते हैं क्योंकि इस के बारे में मेरा स्टैंड यह है कि जो भी किताब हमें जीने की राह दिखाए, अच्छी ज़िंदगी की तरफ़ इशारा करे ...वे सभी किताबें हमारे लिए धार्मिक ही हैं...जो लोग भी रचनाकार है, सृजन कर रहे हैं ...वे खुद नहीं ये सब कर सकते, ईश्वर ही इन के घट में बैठ कर यह सब लिखवाता है, पेंट करवाता है, सुरों में ढलवाता है ...

मुझे आज सुबह एक ख्याल आया, कैसे आया , यह फिर कभी लिखूंगा ...ख्याल यही आया कि दुनिया में सब से भयंकर क्या चीज़ हैं...तो मुझे लगा कि इस सारी कायनात में सब से डरावनी चीज़ है किसी लाचार, बेसहारा की आंखें....बिना उस के मुंह से कुछ बोले वे सब कुछ ब्यां कर देती हैं..और अगर हमें इन बेबस आंखों से भी डर नहीं लगता तो इस का मतलब साफ है। और ये वही बेसहारा आंखें होती हैं जो किसी तिनके के सहारे की तलाश में होती हैं...बात तो मैं बहुत बड़ी कह गया, लेकिन है यह बिल्कुल प्रामाणिक। कभी फुर्सत में इस के बारे में चर्चा करेंगे। बस, यही इल्तिजा है कि और किसी चीज़ से डरिए या न डरिए, इस तरह की सहमी हुई बेबस आंखों से ज़रूर डरिए...

प्रामाणिक तो और भी बहुत कुछ है...यह होर्डिंग ही देख लीजिए, हमारे घर के पास ही एक बिल्डींग बन रही है, और बिल्डर इतनी ठोस प्रामाणिकता से कह रहा है कि इतने महीने, इतने घंटे और इतने मिनट तक उसे आक्यूपेशन सर्टिफिकेट (ओ.सी) मिल जाएगा...

अब मेैने कंकरीट के जंगल की बातें शुरू कर दीं ..इस का मतलब है अब इस पोस्ट को यहीं पर समेट देने का वक्त है...आइए, जाते जाते रविंद्र जैन के ज्यूक-बॉक्स से एक गीत सुनते हैं .. हिट्स आफ रविंद्र जैन ...ज्यूक-बॉक्स .... हां, मेरा सिर का भारी पन पता ही नहीं कहां चला गया है...ईश्वर की अपार कृपा है, शुक्र है...सब ख़ैरियत से, प्यार-मोहब्बत से रहें....🙏