मेरी हिंदी कोई अच्छी नहीं है, मुझे यह पता है इसलिये मैं बहुत ही धुरंधर हिंदी में लिखी हुई कुछ पोस्टें समझ ही नहीं पाता हूं –केवल बोलचाल वाली हिंदी ही लिख पाता हूं, लेकिन फिर भी एक सपना मन में ज़रूर संजो कर रखा है कि ये जो मैं सेहत संबंधी पोस्टें लिखता हूं ना इन की एक किताब बने और खूब बिके।
मुझे उस महान कवि का नाम भी नहीं याद है और उस की कही हुई पूरी लाइनें भी याद नहीं हैं....एक रचना उस कवि की आठवीं कक्षा में पढ़ी थी –पुष्प की अभिलाषा, जिस में पुष्प ने ख्वाहिश जाहिर की थी कि उस की चाह केवल इतनी है कि उसे उस पथ पर गिरा दिया जाये जिस रास्ते से होकर देश पर अपनी जान लुटाने वाले वीर सिपाही रणभूमि की तरफ़ जा रहे हों।
मैं ना तो अपनी किसी पुस्तक को किसी अवार्ड के लिये और न ही किसी पुरस्कार के लिये भेजना चाहता हूं- मुझे चिढ़ है , क्योंकि मेरा व्यक्तिगत विचार है कि किसी इनाम को लेने के लिये लिखा तो क्या लिखा। यह तो एक तरह का प्रायोजित लेखन हो गया। लेखन मेरी समझ में वही है जिस को लिखे बिना आप रह ही न सकें।
अच्छा तो मैं जिस पुस्तक की बात कर रहा हूं वह केवल पांच-दस रूपये में लोगों तक पहुंचनी चाहिये----सस्ते से रीसाइकल्ड पेपर पर छपनी चाहिये और यह बस-स्टैंडों पर, बसों के अंदर चुटकलों वाली किताबों के साथ ही बिकनी चाहिये----यह फुटपाथों पर भी मिलनी चाहिये----हां, हां, उन्हीं फुटपाथों पर जिन पर मस्तराम के नावल भी बिकते हों--- यह केवल इन जगहों पर ही बिकनी चाहिये क्योंकि अधिकांश लोग बुक-स्टाल से खरीदने से या किसी पुस्तक के बारे में पूछने से झिझकते हैं कि पता नहीं कितनी महंगी हो।
मेरी ही नहीं ---मैं सोच रहा हूं कि सभी हिंदी ब्लोगरों की सभी पोस्टों सीधे उन के दिल से निकल कर दुनिया के सामने आ रही हैं। हम चिट्ठाकार लोग किसी दिन अगर किसी मुद्दे के बारे में बहुत शिद्दत से सोच रहे होते हैं तो हम जो भी मन में आता है लिख कर हल्का हो लेते हैं। लेकिन शत-प्रतिशत सच्चाई।
अब मैंने सोचना शुरू किया है कि मैंने जितनी भी सेहत के विषय पर पोस्टें लिखी हैं अब समय आ गया है कि उन्हें एक बिल्कुल सस्ती सी, फुटपाथ-छाप किताब के रूप में एक आम आदमी के लिये ले कर आऊं---इतनी सस्ती होनी चाहिये कि कोई मज़दूर और कोई रिक्शा-चालक भी इसे खरीदने में ना हिचकिचाये।
मुझे इस किताब से कोई कमाई करने की कतई अपेक्षा नहीं है और न ही कोई इनाम की चाह है। बस मकसद केवल इतना है कि साधारण से सेहत के संदेश आम आदमी तक पहुंच जाने चाहिये।
क्या कोई ऐसी संस्था है जो इस तरह के प्रकाशन में मदद कर सकती है, वैसे मैं अपने खर्च पर भी इसे छपवा कर इसे नो-प्राफिट-नो-लास पर उपलब्ध करवा सकता हूं , लेकिन मुझे इस का कुछ अनुभव नहीं है।
आज विचार आ रहा था कि इतनी सच्चाई से ये पोस्टें लिखी हुईं हैं और हर एक पोस्ट पर जो डेढ़-दो घंटे की मेहनत की है वह तभी सार्थक होगी जब ये सब खुले दिल से कही बातें आम आदमी तक भी तो पहुंचे ---जिसे न तो कंप्यूटर के बारे में ही पता है , न ही इंटरनेट का कुछ ज्ञान है लेकिन मुझे लगता है कि मेरे लेखन को पढ़ने का सब से उपयुक्त पात्र वही है।
तो, मैं क्या करूंगा---मैं यह देखूंगा कि मेरा यह सपना साकार हो---और मैं इसे साकार कर के ही रहूंगा और यह भी देखूंगा कि ये किताबें लगभग लागत-दाम (cost-price) पर ही आम आदमी तक पहुंचे क्योंकि दिल से निकली बात का कहां कोई दाम लिया जाता है। उस की तासीर कायम रखने के लिये उसे वैसे ही परोसा जाना ज़रूरी होता है।
आप सब की तरह, दोस्तो, मेरी भी ये पोस्टों सच्चाई से इतनी लबा-लब भरी हुई हैं कि कईं बार यकीन नहीं होता कि आखिर ये लिखी कैसे गईं। लेकिन लिखी कहां गईं ----बस, पता ही नहीं चला कि कब अपने आप मन की बातें निकल पर पोस्टों पर आ गईं। कईं बार तो अपनी पोस्टों में ही हमें इतनी सच्चाई की मिठास इतनी ज़्यादा लगती है कि हम ही इन्हें चख नहीं पाते ---कहने का भाव यह है कि कईं पोस्टें में इतना खुलापन आ जाताहै, इतनी सच्चाई , इतनी साफ़गोई कि समझ ही नहीं आता कि यह सब इतने खुलेपन से कैसे पब्लिक डोमैन में हम नें डाल दिया।
दोस्तों, आप सब की पोस्टों की तासीर भी बहुत गर्म है। तो यह समय है कि इसे गर्मा-गर्म ही आम आदमी को भी परोसा जाये।
मैं भी बहुत समय से इस के बारे में सोच रहा हूं और इस के बारे में ज़रूर कुछ करूंगा। अगर आप के पास भी कुछ सुझाव हों तो बतलाईयेगा, वरना अपना तो फंडा सीधा है कि अगर मस्तराम के नावल खरीदने वाले लोग मौजूद हैं तो अगर 5 या 10-12 रूपये में बिकने वाली किताब लोगों से सेहत की बातें करना चाह रही है तो वह भी बिक कर रहेगी। बाकी प्रभु इच्छा ।
और इस किताब को पढ़ कर अगर कोई बीड़ी पीने से पहले, दारू का पैग उंडेलने से पहले, जंक-फूड खाने से पहले, रैड-लाइट एरिया में जाने से पहले, कैज़ुएल सैक्स से पहले ----थोड़ा सा इस पाकेट-बुक की तरफ़ ध्यान कर लेगा तो मेरे प्रयास सफल हो जायेंगे।
और एक बात और भी है कि जहां से भी इस का प्रकाशन करवाऊंगा इस किताब का कोई भी अधिकार सुरक्षित कभी नहीं रखूंगा ----बिल्कुल कॉपी-लैफ्टेड----जितनी मरजी कापी कोई भी मारे और मुझे किसी तरह का क्रेडेट देने की भी कोई बिल्कुल ज़रूरत है ही नहीं । ठीक है, जो मन में आया , जो ठीक समझा लिख दिया ----उस में अपना आखिर बड़प्पन काहे का ?
मुझे उस महान कवि का नाम भी नहीं याद है और उस की कही हुई पूरी लाइनें भी याद नहीं हैं....एक रचना उस कवि की आठवीं कक्षा में पढ़ी थी –पुष्प की अभिलाषा, जिस में पुष्प ने ख्वाहिश जाहिर की थी कि उस की चाह केवल इतनी है कि उसे उस पथ पर गिरा दिया जाये जिस रास्ते से होकर देश पर अपनी जान लुटाने वाले वीर सिपाही रणभूमि की तरफ़ जा रहे हों।
मैं ना तो अपनी किसी पुस्तक को किसी अवार्ड के लिये और न ही किसी पुरस्कार के लिये भेजना चाहता हूं- मुझे चिढ़ है , क्योंकि मेरा व्यक्तिगत विचार है कि किसी इनाम को लेने के लिये लिखा तो क्या लिखा। यह तो एक तरह का प्रायोजित लेखन हो गया। लेखन मेरी समझ में वही है जिस को लिखे बिना आप रह ही न सकें।
अच्छा तो मैं जिस पुस्तक की बात कर रहा हूं वह केवल पांच-दस रूपये में लोगों तक पहुंचनी चाहिये----सस्ते से रीसाइकल्ड पेपर पर छपनी चाहिये और यह बस-स्टैंडों पर, बसों के अंदर चुटकलों वाली किताबों के साथ ही बिकनी चाहिये----यह फुटपाथों पर भी मिलनी चाहिये----हां, हां, उन्हीं फुटपाथों पर जिन पर मस्तराम के नावल भी बिकते हों--- यह केवल इन जगहों पर ही बिकनी चाहिये क्योंकि अधिकांश लोग बुक-स्टाल से खरीदने से या किसी पुस्तक के बारे में पूछने से झिझकते हैं कि पता नहीं कितनी महंगी हो।
मेरी ही नहीं ---मैं सोच रहा हूं कि सभी हिंदी ब्लोगरों की सभी पोस्टों सीधे उन के दिल से निकल कर दुनिया के सामने आ रही हैं। हम चिट्ठाकार लोग किसी दिन अगर किसी मुद्दे के बारे में बहुत शिद्दत से सोच रहे होते हैं तो हम जो भी मन में आता है लिख कर हल्का हो लेते हैं। लेकिन शत-प्रतिशत सच्चाई।
अब मैंने सोचना शुरू किया है कि मैंने जितनी भी सेहत के विषय पर पोस्टें लिखी हैं अब समय आ गया है कि उन्हें एक बिल्कुल सस्ती सी, फुटपाथ-छाप किताब के रूप में एक आम आदमी के लिये ले कर आऊं---इतनी सस्ती होनी चाहिये कि कोई मज़दूर और कोई रिक्शा-चालक भी इसे खरीदने में ना हिचकिचाये।
मुझे इस किताब से कोई कमाई करने की कतई अपेक्षा नहीं है और न ही कोई इनाम की चाह है। बस मकसद केवल इतना है कि साधारण से सेहत के संदेश आम आदमी तक पहुंच जाने चाहिये।
क्या कोई ऐसी संस्था है जो इस तरह के प्रकाशन में मदद कर सकती है, वैसे मैं अपने खर्च पर भी इसे छपवा कर इसे नो-प्राफिट-नो-लास पर उपलब्ध करवा सकता हूं , लेकिन मुझे इस का कुछ अनुभव नहीं है।
आज विचार आ रहा था कि इतनी सच्चाई से ये पोस्टें लिखी हुईं हैं और हर एक पोस्ट पर जो डेढ़-दो घंटे की मेहनत की है वह तभी सार्थक होगी जब ये सब खुले दिल से कही बातें आम आदमी तक भी तो पहुंचे ---जिसे न तो कंप्यूटर के बारे में ही पता है , न ही इंटरनेट का कुछ ज्ञान है लेकिन मुझे लगता है कि मेरे लेखन को पढ़ने का सब से उपयुक्त पात्र वही है।
तो, मैं क्या करूंगा---मैं यह देखूंगा कि मेरा यह सपना साकार हो---और मैं इसे साकार कर के ही रहूंगा और यह भी देखूंगा कि ये किताबें लगभग लागत-दाम (cost-price) पर ही आम आदमी तक पहुंचे क्योंकि दिल से निकली बात का कहां कोई दाम लिया जाता है। उस की तासीर कायम रखने के लिये उसे वैसे ही परोसा जाना ज़रूरी होता है।
आप सब की तरह, दोस्तो, मेरी भी ये पोस्टों सच्चाई से इतनी लबा-लब भरी हुई हैं कि कईं बार यकीन नहीं होता कि आखिर ये लिखी कैसे गईं। लेकिन लिखी कहां गईं ----बस, पता ही नहीं चला कि कब अपने आप मन की बातें निकल पर पोस्टों पर आ गईं। कईं बार तो अपनी पोस्टों में ही हमें इतनी सच्चाई की मिठास इतनी ज़्यादा लगती है कि हम ही इन्हें चख नहीं पाते ---कहने का भाव यह है कि कईं पोस्टें में इतना खुलापन आ जाताहै, इतनी सच्चाई , इतनी साफ़गोई कि समझ ही नहीं आता कि यह सब इतने खुलेपन से कैसे पब्लिक डोमैन में हम नें डाल दिया।
दोस्तों, आप सब की पोस्टों की तासीर भी बहुत गर्म है। तो यह समय है कि इसे गर्मा-गर्म ही आम आदमी को भी परोसा जाये।
मैं भी बहुत समय से इस के बारे में सोच रहा हूं और इस के बारे में ज़रूर कुछ करूंगा। अगर आप के पास भी कुछ सुझाव हों तो बतलाईयेगा, वरना अपना तो फंडा सीधा है कि अगर मस्तराम के नावल खरीदने वाले लोग मौजूद हैं तो अगर 5 या 10-12 रूपये में बिकने वाली किताब लोगों से सेहत की बातें करना चाह रही है तो वह भी बिक कर रहेगी। बाकी प्रभु इच्छा ।
और इस किताब को पढ़ कर अगर कोई बीड़ी पीने से पहले, दारू का पैग उंडेलने से पहले, जंक-फूड खाने से पहले, रैड-लाइट एरिया में जाने से पहले, कैज़ुएल सैक्स से पहले ----थोड़ा सा इस पाकेट-बुक की तरफ़ ध्यान कर लेगा तो मेरे प्रयास सफल हो जायेंगे।
और एक बात और भी है कि जहां से भी इस का प्रकाशन करवाऊंगा इस किताब का कोई भी अधिकार सुरक्षित कभी नहीं रखूंगा ----बिल्कुल कॉपी-लैफ्टेड----जितनी मरजी कापी कोई भी मारे और मुझे किसी तरह का क्रेडेट देने की भी कोई बिल्कुल ज़रूरत है ही नहीं । ठीक है, जो मन में आया , जो ठीक समझा लिख दिया ----उस में अपना आखिर बड़प्पन काहे का ?