गुरुवार, 25 सितंबर 2025

चलिए, आज उस 40 साल पुरानी स्पोर्ट्स्टार मैगजीन में झांकते हैं....

 पिछले रविवार के दिन एक प्रेत-लेखक से साथ सारा दिन बिताने का मौका मिला  …प्रेत-लेखक यानि गोश्त राईटर …जो लेखक लिखता तो है लेकिन कहीं भी उस का नाम नहीं आता…नाम उस का आता है जो उसे लिखने के लिए हॉयर करता है ….


यह प्रेत-लेखक भी 80-85 के आस पास के हैं….नाम मैं नहीं लिख रहा, ज़रूरी नहीं है, उन्होंने मुझे मना नहीं किया लेकिन मुझे खुद ही लगता है….राज़ को राज़ रहने दो …जाने महफिल में फिर क्या हो!😀


उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने किन किन हस्तियों के लिए प्रेत-लेखन किया है ….किन पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी लोगों ने उन से लेखन करवाया है …कहीं पर भी जो भी छपा उन के नाम से नहीं छपा….लेकिन उन्हें इस से कोई फ़र्क नहीं पड़ता….उन्होंने भरपूर लिखा है ….और अभी भी लिख रहे हैं…और मज़े में बंबई के जुहू इलाके में बढ़िया से फ्लैट में रहते हैं…


ये लेखक मेरे फूफा जी के छोटे भाई हैं….मेरे दिवंगत फूफा जी साउथ मुंबई के एक कॉलेज के प्रिंसीपल रह चुके थे, एक बहुत नामचीन ईकानमिस्ट ….और रिटायर होने के बाद उन्होंने बंबई में बहुत से शिक्षण संस्थानों के खड़े होने में अपनी निष्काम सेवाएं दी थीं…मैं जब भी उन को मिलने जाता तो उन के घर भी किताबों की अलमारियां देख कर दंग रह जाता था…


हां, तो उस प्रेत-लेखक के पास बैठ कर, उन की बातें सुन कर मज़ा आ रहा था ….उन के पूरे फ्लैट में किताबें, पत्रिकाएं और अखबारें ही फैली हुई थीं….चाय की चुस्कियां लेते लेते मेरी नज़र एक स्पोर्टस्स्टार मैगज़ीन पर पड़ गई …


मैंने उसे उठा लिया ….यह लगभग 40 चालीस पुरानी मैगज़ीन थी ….शायद मैं कल ज़िंदगी में पहली बार किसी खेल मैगज़ीन के पन्ने उलट-पलट रहा था …मैंने आजतक कभी भी एक भी खेल मैगज़ीन नहीं खरीदी…..क्योंकि मेरी खेलों में बिल्कुल भी रूचि ही नहीं, कोई समझ ही नहीं….अखबारों में भी जो स्पोर्टस के पन्ने होते हैं, मैंने उन को न तो पढ़ने की कोशिश की है न ही मेरी समझ में कुछ भी आएगा…काला अक्षर भैंस बराबर …..


खैर, कल जब मैं इस पत्रिका के पन्ने उलटा-पलटा रहा था …तो यह क्रिकेट और फुटबाल खेल की कवरेज से भरा हुआ था ….मुझे नहीं था उन से कुछ भी वास्ता…..लेकिन हां, एक बात मज़ेदार रही कि मुझे चालीस साल पुराने जो विज्ञापन दिख गए, उन को देख कर मुझे बहुत मज़ा आया….उन के बारे में आप से कुछ साझा करना चाहता हूं….




थम्स-अप …..


फ्रंट-कवर के अंदर वाला साईड में थम्स-अप का इश्तिहार दिखा जिस में सुनील गवास्कर और इमरान खां एक साथ बैठे थम्स-अप की बोतल का मज़ा ले रहे हैं। कांच वाली बोतल जो हमें बहुत लुभाती थी। उन की फोटो देख कर मैं यही सोच रहा था कि दोनों देशों के हालात भी इतने बरसों में कहां से कहां पहुंच गए हैं……





अवंती-गैरेली मोपेड


इस का विज्ञापन भी देख कर मज़ा आया…पुराने दिन याद आ गए…हालांकि जहां तक मुझे याद है उत्तर भारत के जिस हिस्से में मैं बहुत बरसों तक रहा ….वहां पर यह मोपेड नहीं चलती थी…वहां पर तो ज़्यादातर हीरो-मैजेस्टिक मोपेड ही चलती थी। चलती क्या थी, खूब चलती थी, दौड़ती थी…..जहां तक मेरी यादाश्त साथ दे रही है, उस के विज्ञापन के साथ लिखा रहता था कि यह एक लिटर में 65 किलोमीटर चल जाती है ….जब कि यह अवंती-गैरेली के एक लिटर में 81 लिटर तक चलने का लिखा है…यह विज्ञापन देख कर मुझे पता चला कि इसे केल्वीनेटर कंपनी बनाती थी …मैं तो समझता था कि केल्वीनेटर के केवल रेफ्रिजरेटर ही आते हैं….





लूना भी दिख गई यहां तो ….


इस मैगज़ीन में लूना के भी दर्शन हो गए …कितना अरसा हो गया था लूना को देखे ….लेकिन पंजाब में लूना भी खूब चलती थी ….सीधी सीधी सी बात थी ….यह अस्सी के दशक का वह दौर था जिन दिनों जिस की स्कूटर लेने की हैसियत नहीं होती थी, वह मोपेड ले लेता था …यानि हीरो-मैजस्टिक या लूना ….। और खास कर के कामकाजी महिलाओं के लिेए यह एक वरदान साबित हुई थी। पैट्रोल के खर्च की बचत तो थी ही ….


कुछ लघु-उद्योग करने वालों ने भी मोपेड खरीद ली थी ..जैसे जो लोग घर में पापड़-वडीयां बनाते थे या लिफाफे बनाते थे या कोई भी और काम-धंधा करते थे, वे अपना सामान मार्कीट में बेचने के लिए इस पर लाद लेते थे…..


एक खास बात जो मुझे बार बार खटक रही है …..आज से चालीस साल पहले लोग इतने भारी-भरकम नहीं थे, लोग दुबले-पतले, स्लिम-ट्रिम होते थे जो ये हल्की-फुल्की मोपेड उन को आसानी से ढो लेती थी ….एक बंदे को क्या, उस के पीछे उस की बीवी भी बैठ जाती थी….लेकिन अगर कोई तगड़ा बंदा बैठ कर चला रहा होता और पीछे उस के बीवी भी थोड़ी ज़्यादा तंदरुस्त सी ही होती …तो यह मोपेड इतना लोड न लेने के कारण बिल्कुल धीमी स्पीड से चलती …..फिर भी रास्ते में जिस का भी ध्यान इस मोपेड और इन की सवारियों की तरफ़ चला जाता, यह उन के लिए एक मनोरंजन जैसा होता …मानो कह रहे हों कि …अब क्या मोपेड की जान ले लोगे?


मैं जब इस मैगजीन में से इतनी तस्वीरें खींच रहा था तो वह प्रेत-लेखक हंसने लगे ….क्या करोगे इन तस्वीरों का। 


मैंने बताया कि इन की मदद से एक कहानी बुनूंगा ….तो बहुत खुश हुए….हां, हां, यह बात बढ़िया है …जो भी कंटेट मिले, उस में वेल्यू-एडिशन करते रहना चाहिए। 




व्ही-आई-पी ब्रांडो और क्रिस्टल स्पोर्ट …


वह दौर था जब मर्दों के अंडरवियर-बनियान के विज्ञापन भी पत्र-पत्रिकाओं में छपते थे …इस मैगजीन में भी ये दोनों छपे हैं …मुझे एक और विज्ञापन जो उन दिनों खूब दिखता था ….व्हीआईपी…फ्रैंची। 


उस दौर के युवाओं की अंडरवियर की च्वाईस भी इन विज्ञापनों से ही प्रभावित हुआ करती थी….मैं सोच रहा था कि इन विज्ञापनों की तस्वीरें यहां ब्लॉग में लगाऊं या रहने दूं….फिर मुझे यही लगा कि एक तो लगा ही दूं…..मेरी उम्र के लोगों को तो वो दिन याद आ ही जाएंगे जब इतने बोल्ड विज्ञापन आते थे ….यह जो तस्वीर मैं यहां लगा रहा हूं, अगर हो सके तो उसमें पूरा लिखा वार्तालाप पढ़िए…


हम अकसर कह देते हैं कि आज कल मीडिया में, ओटीटी पर, फिल्मों में यह हो रहा है, वह हो रहा है …..लेकिन पहले भी कुछ कम न था, अपने वक्त के मुताबिक वे भी वक्त के आगे ही थे ….




बाटा का पावर ब्रॉंड - 


इस मैगज़ीन में एक विज्ञापन देख कर तो मज़ा ही आ गया…बाटा के पावर शूज़। मैंने यह भी खूब पहने हैं, लेकिन शायद इस से पहले नार्थ-स्टार के शूज़ आते थे …और मैंने इन को 1979 में खरीदा था…मैं ग्याहरवीं में पढ़ता था…अपनी बड़ी बहन के साथ बाज़ार गया तो उन्होंने मुझे नार्थ-स्टार के शूज़ दिलाए थे …125 रुपए के। आज 15-20 हज़ार तक के शूज़ पहनने के बाद भी उस नार्थ-स्टार वाले शूज़ नहीं भूला….क्योंकि उन दिनों मेरे पास दो ही जोड़ी शूज़ थे, एक तो लैदर के काले शूज़ और दूसरे यह नार्थ-स्टार के। और जहां तक मुझे याद है मैंने उन को अगले चार पांच सालों तक लगातार पहना….अब भी मैं जब बहन को मिलता हूं तो बातों बातों में उस के वह वाले तोहफे का ज़िक्र आ ही जाता है ….और मैं अकसर उसे कहता हूं कि मुझे उस दौर में उन दिनों उस शूज़ की बहुत ज़रूरत थी ….


पहले एक दो शूज़ होते थे …हम उन को पहन पहन कर घिस देते थे, जब वे फट जाते थे तो कईं बार मोची से मुरम्मत भी करवा लेना कोई बड़ी बात न होती थी….अब घरों में शूज़ रैक भरे होते हैं…कईं कईं महीने तक जिन शूज़ को पहनते नहीं, जब कभी पहनने के लिए उठाएं तो फटे मिलते हैं, पेस्टिंग उखड़ी पाते हैं, सोल क्रैक हुआ मिलता है …..महंगे से महंगे शूज़ का यही हाल है…। 




कावासाकी बजाज मोटरसाईकिल …


इस मैगज़ीन के बैक कवर पर कावासाकी बजाज मोटरसाईकिल का विज्ञापन भी देख लीजिेए….कैसे स्टंट किया जा रहा है, उसे भी देखिए….बस, जैसा आज कल लिखते हैं कि इस तरह से स्टंट मत करिए, यह प्रोफैशनल ने किया है, यह जोखिम का काम है….इस विज्ञापन में ऐसा कुछ नहीं लिखा है….


खैर, उस दौर में जिस दौर का यह मैगज़ीन है हमें तो तीन मोटरसाईकिल का ही पता था…एक तो राजदूत जिसे कहा जाता था दूध वाले खरीदते हैं, दूसरा फैशनुबेल येज्दी…और तीसरा थोड़ा रूआब वाले खरीदते थे …बुलेट …। मेरे बड़े भाई से मुझे 1986 जनवरी में येज़्दी मोटरसाईकिल मिल गया था ….मुझे उसे चलाने में बड़ा मज़ा आता था ….बस, उन सुनहरी यादों की तहें इस वक्त नहीं खोल रहा हूं….अभी उन को ठप्पे ही रहने देते हैं, बाद में फिर कभी देखते हैं….बाकी मुझे उस की आवाज़ बहुत पसंद थी…, मैंने उसे पांच-छः साल तक खूब चलाया….फिर वह आए दिन रिपेयर मांगने लगा और मुझे ऐसे लगने लगा कि वह पैट्रोल से चलता नहीं, पैट्रोल पी जाता है…..इसी चक्कर में सिर्फ 6500 रूपए में वह बिक गया 1990 में…..किसी आटो-मैकेनिक ने खरीदा था, उसने उसे बिल्कुल नया जैसा कर लिया और कईं सालों तक उसे मैं चलाते देखा करता था।  


तो चलिए, बहुत हुई बातें आज एक चालीस साल पुराने मैगज़ीन के ऊपर …..यह तो मात्र एक ट्रेलर ही रहा ….उस सब्जेक्ट के बारे में तो मैंने कोई बात की नहीं जिस के बारे में वह मैगज़ीन था, क्योंकि स्पोर्ट्स के मामलों में मैं बिल्कुल कोरा हूं….अंगूठाछाप …मैं अकसर कहता हूं कि जैसे किसी लेखक की किताब पढ़ना उसे मिलने के बराबर है, किसी पुरानी मैगजीन को देखना, उस में छपे कंटैंट को पढ़ना भी उस गुज़रे दौर की बहुत सी मीठी यादें को फिर से जी लेने जैसा अनुभव है…..


अब इन किताबों मैगज़ीनों की बातें चली हैं तो मैं दो बातें भी यहां दर्ज करना चाहता हूं…..


कपूर साहब मौसा जी…..


दिल्ली में हम लोग 1990 में श्रीमती जी के जी मौसा जी कपूर साहब के घर गए….वह दिल्ली में अध्यापक थे, रिटायर हो चुके थे, बहुत खुश-मिज़ाज इंसान, एक रात ही उन के पास ठहरे …बहुत अच्छा लगा था। पढ़ने-लिखने के शौकीन, कपूर साहब के कमरे में देखा तो हर तऱफ़ किताबें ही किताबें, इंगलिश के टीचर थे, अधिकतर इंगलिश की किताबें, मेज़ के ऊपर किताबें, नीचे किताबें, परछत्ती पर किताबें, पलंग के बॉक्स में किताबें, पलंग पर बिछे गद्दों के नीचे किताबें…..और उन किताबों के बारे में सुन कर मुझे बहुत अच्छा लग रहा था, लगभग सभी जॉनर की किताबें थीं उन के पास…..चलो जी, सोने का वक्त आ गया…सो तो मैं गया उन के ही कमरे में …लेकिन सच मानिए मुझे रात में करवट लेते हुए भी डर लगता रहा कि कहीं दो चार किताबें ही न फट-फटा जाएं….


वह बहुत नेक इंसान थे, अभी नहीं रहे, लेकिन उस के बाद जब कभी किसी भी पारिवारिक समारोहों में मिले, मैं उन के साथ उन की किताबों के बारे में अपनी यादें साझा करता तो हम खूब हंसते। और अब उन के बेटे के साथ जब भी मुलाकात होती है तो उन के बुक-लवर डैड का ज़िक्र तो जरूर होता ही है ….


 देहरादून वाले चाचा जी ..


यह भी बात 1990 की है …हम लोग देहरादून वाले नाना जी (नाना जी के छोटे भाई) के घर गए….आलीशान घर ….देहरादून के पॉश इलाके में….उस वक्त उन की उम्र इतनी हो चुकी थी कि उन्हें ज़्यादा कुछ समझ नहीं आ रहा था ….उन्हें वन-विभाग के उच्च अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए बरसों बीत चुके थे …पढ़ते बहुत थे और किताबों, अखबारों और पत्रिकाओं को संभाल कर भी रखते थे ….सामने एक बहुत बड़ा लोहे का ट्रंक पड़ा हुआ था ….(लोहे के बडे़ ट्रंक का मतलब ज़्यादातर हिंदोस्तानियों के लिए वह ट्रंक जिस में पांच सात रज़ाईयां, कंबल, बीसियों स्वैटरें, जैकटें सर्दी खत्म होने के बाद रख दी जाती हैं…) …लेकिन चाची जी ने बताया कि इस ट्रंक में इन की किताबें हैं, पुराने मैगज़ीन हैं, और बहुत पुरानी पुरानी अखबारों की कतरने हैं…., लेकिन रद्दी में नहीं देने देते, कहते कहते हंसने लगी…। 


अभी उस स्पोटर्स-मैगज़ीन में में छपी कुछ और तस्वीरें यहां साझा कर रहा हूं…




अप्रैल 1987 




और हां, पद्मिनी कोल्हापुरे भी दिख गईं एक विज्ञापन में ....