सोमवार, 15 नवंबर 2021

पवाड़ा जूतों का ...

"एक तो हमारी समझ में यह नहीं आता कि आप लोग जूते उतरवाने के पीछे क्यों इतना हाथ धो कर पड़े रहते हो हर वक्त" .. जब आईसीयू के बेड नंबर तीन पर ज़िंदगी और मौत की जंग लड़ रही एक दादी के पोते ने बड़ी बेरुखी से संदीप को यह कहा तो उसे कहना ही पड़ा -   " ताकि आप अपने मरीज़ को सही सलामत लेकर घर लौट सको!"

संदीप एक बहुत बड़े सरकारी अस्पताल के आईसीयू में एक मेल-नर्स है ...जिसे आज कर ब्रदर कहने का चलन है...बड़ी निष्ठा से अपना काम करता है ...यह जो एक दादी का पोता उसे कुछ कह गया, यह उस के लिए कुछ नया नहीं था। कभी किसी को आईसीयू के अंदर जाने से रोकने पर, कभी किसी को मरीज़ के पास ज़्यादा न रूकने की ताक़ीद करने पर, कभी जूता बाहर उतार कर आने के लिए कहने पर ...इस तरह की थोड़ी बहुत नोंक-झोंक होती ही रहती थी...

ख़ैर, किसी को बुरा लगे या अच्छा, संदीप किसी को अच्छा-बुरा लगने की परवाह किए बगैर कायदे से अपनी ड्यूटी करता था ताकि आईसीयू में किसी तरह के संक्रमण से मरीज़ों को बचाया जा सके...

संदीप को आज ऐसे ही बैठे बैठे ख़्याल आ रहा था कि जूतों की भी अजब चिक-चिक है...कभी न पहनने की बातें, कभी पहनने की ज़िद्द ....कभी फटे हुए, कभी सिले हुए...किसी के तीन सौ रूपये के ...किसी के छः हज़ार के ...

दो दिन पहले एतवार के दिन गांव से उस का चचेरा भाई बिट्टू उस से मिलने आया था...उसे शहर में कुछ काम था, बैंक के लोन-वोन का कुछ चक्कर था, किसी बड़े अफसर से कुछ सैटिंग करने आया था...सुबह संदीप से कहने लगा - भाई, सुना है यहां की रेस-कोर्स देखने लायक है ...अगर फ़ुर्सत हो तो मुझे भी दिखा दो। संदीप को आज फ़ुर्सत ही थी और वैसे भी बिट्टू इतने बरसों बाद आया था..।

 वे दोनों साढ़े बारह बजे के करीब पहुंच जाते हैं रेस-कोर्स ...संदीप ने मोटर साईकिल पार्किंग में खड़ी की और गेट पर पहुंच गए जहां अंदर जाने के लिए टिकट मिलती थी। संदीप को यह तो पता था कि टिकट लगती है लेकिन उसे लगा कि यही कोई सौ-दो रूपये की टिकट होगी..इसलिए उस की जेब में सात-आठ रूपये ही थे, एटीएम कार्ड भी था वैसे तो..लेकिन यह क्या !

टिकट के काउंटर पर पहुंचने से पहले ही दो दरबानों ने बिट्टू को अंदर जाने से रोक दिया...संदीप को एक झटका सा लगा...बिटटू ने कपड़े भी ठीक ठाक पहने हुए थे ..और लेदर की चप्पल भी नयी ही लग रही थी। लेकिन यही चप्पल का ही तो पंगा था...सिक्यूरिटि गार्ड ने कहा कि बिना शूज़ पहने अंदर नहीं जा सकते। दो चार बार संदीप ने उन से कहा कि कहा कि जाने दो ऐसे ही, पता नहीं था, लेकिन आप लोगों को पता ही है कि ये दरबान कहां मानते हैं...इन का रुआब तो बड़े बड़े को उनकी औकात याद दिला देता है...

संदीप मन ही मन सोच रहा था कि यार, यह तो बड़ी मुसीबत हो गई बैठे-बिठाए...अब कहां से लाएं शूज़.... लेकिन बिट्टू का मन तो अंदर जाने के लिए मचल रहा था..उसने संदीप से कहा कि चलो, यार, कहीं से कोई चालू किस्म के शूज़ खरीद लेते हैं....

दस मिनट बाद वे लोगों मोटरसाईकिल पर बैठ कर एमजी रोड पहुंच गए...ऐसे ही छोटी-मोटी दुकाने थीं, दो तीन दुकानें घूम कर उन्होंने एक गुरगाबी खरीद ली...चार सौ रूपये में ....बिट्टू चाह तो रहा था कि सौ-दो सौ रूपये में ही कुछ मिल जाए...लेकिन उस के लिए उन लोगों को किसी चोर-बाज़ार में ही जाना पड़ता...शायद चले भी जाते, लेकिन वक्त न था।

वापिस लौटते हुए संदीप ने बिटटू को कहा कि अंदर जाने का टिकट ५०० रूपए है...अगर मोबाइल साथ लेकर अंदर जाना है...और दो सौ रूपये अगर मोबाइल बाहर ही रख कर जाना है...बिट्टू ने संदीप से कहा कि वह तो अपना फोन साथ ही रखे, आई फोन है,  वह (बिट्टू) अपना फोन बाहर ही रख देगा। संदीप ने उस से इतना ही कहा कि देखते हैं...

बाइक को दोबारा पार्किंग में खड़ी करने के बाद एन्ट्रेंस गेट की तरफ़ जाते हुए दोनों देख रहे थे जो लोग मर्सिडीज़ से नीचे उतर रहे थे  सिर्फ़ अपने थ्री-पीस सूट की वजह से और महंगी गाडि़यों में आने की वजह ही से उन की पहचान थी...वे दोनों आपस में मज़ाक कर रहे थे अगर इन सेठ लोगों ने यह थ्री-पीस न पहना हो और पैरों में चप्पल पहनी हो तो ये मोहल्ले की किसी किराना दुकान चलाने वाले लगें..उन की शख्शियत में ऐसा कुछ भी न था जिन की वजह से वे कुछ विशिष्ठ लग रहे हों....हंसते हंसते वे लोग अंदर घुस गए...

बिट्टू को उस की ब्राउन पैंट के साथ मैचिंग करती गुरगाबी पहने देख कर एक सिक्यूरिटि गार्ड ने इतना ही कहा ... " यह हुई न बात ! "...लेकिन उन दोनों ने उस की बात को सुना-अनसुना कर दिया...वे वैेसे ही खीज से रहे थे ...मन ही मन बिट्टू ने सिक्यूरिटी गार्ड को दो-तीन गालियां निकालीं और यही सोचा कि वे लोग ठीक हैं जो इन लोगों को इन की औकात का आइना दिखाते रहते हैं....ये लोग ज़्यादा मुंह लगने वाले नहीं होते। 

टिकट खिड़की पर संदीप ने टिकट लेने के लिए पर्स निकाला तो काउंटर पर बैठे स्टॉफ ने कहा कि एक टिकट एक हज़ार की है ...संदीप ने सोचा कि बिट्टू को ही टिकट दिलवा कर अंदर भेज देता हूं ..फिर पता नहीं उसके मन में क्या ख़्याल आया कि उसने दो हज़ार में दो टिकटें खरीद लीं और अंदर चले गए...रेस चल रही थीं ...और हां, अंदर जाने से पहले बिट्टू ने रेस की किताब खरीद ली थी ..चालीस रुपये में ..उसे रेस में बेटिंग करने का कुछ इल्म था...

एक रेस में बिट्टू ने १०० रूपये की बेटिंग की ...चार सौ रूपये जीत गया...फिर उसने एक बार सौ और एक बार दो सौ रूपये की बेटिंग की ...लेकिन वे डूब गये। बि्टटू ने मज़ाक मज़ाक में अपने मुंह पर हल्के से एक चपत लगाई कि मैंने कैसे इतना बेकार दांव लगा दिया..संदीप ने कहा, ज़्यादा सोचा मत कर, जो हो गया उसे बिसार दे, आगे की सुध ले ....गलतियों से सीखना ही आदमी का धर्म है। संदीप बिट्टू को खुश देख कर और भी खुश था...लेकिन वह जिधर भी नज़रें दौड़ा रहा था उसे यही लग रहा था कि यार, अगर यह बंदा सूट की जगह बनियान और पायजामा पहने हो तो रामू हलवाई से भी गया गुज़रा दिखे...और अगर देख, बिट्टू, देख, उस ग्रे-सूट वाले को देख....अगर यह महंगे सूट में न हो तो बाहर खड़े दरबान उसे माली समझ कर बाहर ही रोके रखें...

संदीप और बिट्टू का हंसी मज़ाक भी चल रहा था...संदीप बि्टटू से यही कह रहा था कि यार, हिंदोस्तान में दो देश बसते हैं....भारत और इंडिया ...इन दोनों का पहरावा, इन का रहन-सहन, इन की भाषा, इन की किताबें, इन की कलमें ......सब कुछ अलग अलग है..हम तो हिंदु-मुस्लमान के मुद्दे पर ही अटके पड़े हैं, लेकिन असल मुद्दे तो यही हैं ....असली पवाड़ों की जड़ तो ये सब बाते हैं....इन की फिल्में अलग, इन के नाटक अलग, रेस्ट्रां अलग, बातें अलग .......कुछ भी नहीं मिलता इन दोनों का आपस में ...यह असलियत है ......यही असलियत है....

यही सोचते सोचते वे लोग रेस खत्म होने पर बाहर आ गए...मोटरसाईकिल पर बैठ कर वापिस लौटते हुए संदीप यही सोच रहा था कि ऐसी टुच्ची जगह पर इतना रिजिड ड्रेस-कोड ---समझ से परे है.......अचानक उसे ख्याल आया कि दो दिन पहले जब देश के राष्ट्रपति महोदय पद्म अवार्ड से महान शख्शियतों को सम्मानित कर रहे थे तो जो लोग बिना जूतों के ही वहां पहुंच गये थे या हवाई चप्पल में ही अवार्ड लेने पहुंच गये थे, सारा देश उन की सरलता, उन के काम की विशालता, महानता और विनम्रता की तारीफ़ कर रहा था...और यहां ऐसी जगहों पर लोगों के पैसे की लूट मची हुई है लेकिन सलीके से उसे शूज़ पहना कर, उसे जेंटलमेन होने का मुखौटा पहना कर ....


और हां, अगले दिन जब शाम को संदीप बिट्टू को स्टेशन पर गाड़ी में बिठाने गया तो उसकी नज़र बिट्टू के पास बैठे किसी युवक के सीमेंट में लिपे हुए शूज़ की तरफ़ गई तो वह सोचने लगा कि इस के शूज़ तो उन सफेदपोश लुटेरों से कहीं ज़्यादा चमकदार, शानदार हैं जो दूसरों का माल हड़प कर जाते हैं ....यह बंदा तो सुबह से शाम घरों की चिनाई-लिपाई-पुताई कर के खून-पसीने की खा रहा है...इस के जूते उन सब फरेबियों, जालसाज़ों, फांदेबाज़ों से कहीं ज़्यादा उम्दा हैं...क्योंकि इन पर चिपका हुआ  दिन भर की मेहनत का सबूत इन की शान बढ़ा रहा है...


शनिवार, 13 नवंबर 2021

जब टूटी चप्पलें घर लाना लाज़िम होता था...

मेरी पिछली पोस्ट शायद आपने देखी होगी...अगर नहीं देखी, तो कभी फ़ुर्सत में देख लीजिएगा...यकीं है आप बोर नहीं होंगे ...यह रहा उस का लिंक ...जब टूटी हुई चप्पलों को सिलवा लिया जाता था...

हां, तो बड़े भाई को बहुत पसंद आई ....और जो उन्होंने उस के ऊपर मुझे टिप्पणी लिख कर भेजी, मैं वह देख कर बहुत हंसा...क्योंकि इतने पते की बात पता नहीं मैं कैसे लिखनी भूल गया था...वैसे भी मैं तो अकसर कहता ही हूं अपनी बड़ी बहन से और बड़े भाई से जो मेरे से क्रमशः १० और ८ साल बड़े हैं कि हमारे माहौल में रहने का उन के पास मेरे से कहीं ज़्यादा ख़ज़ाना है ...तभी तो वे कभी कभी ऐसी बातें कह देते हैं कि मैं भी हैरान हो जाता हूं...

हां, तो भाई ने लिखा कि पोस्ट पढ़ कर उन्हें भी वह गुज़रा दौर याद आ गया...और वे लिखते हैं - चप्पल चाहे कितनी भी बुरी तरह से टूटी होती, लेकिन उसे उसी हालत में लेकर घर लौटना ज़रूरी होता था...और टूटी हुई चप्पल घर लाने के लिए बंदे को चाहे कितना भी आढ़ा-तिरछा, टेढ़ा-मेढ़ा  होकर चलना पड़ता, वह चलता ...कईं बार तो चप्पल हाथ में उठा कर नंगे पांव चलते हुए घर तक पहुंचते और कईं बार टूटी चप्पल से घिसट-घिसट कर चलते हुए और हाथ से साईकल के हैंडल को थामे हुए घर पहुंच कर ऐसी फीलिंग आती थी मानो कोई किला फतह कर के पहुंचे हों... 

भाई मुझे जब सामने बैठ कर यह बात करता है तो हंसते हंसते पूछता है कि उस माई हावी टुट्टी चप्पल नूं बाहर ही सुट्ट के फ़ारिग हो कर घर लौटने का रिवाज़ नहीं सी, न जाने क्यों...

भाई आगे लिखता है टूटी चप्पल घर पर पहुंचाने के बाद फिर लगभग घर के सारे लोग उसे देखते ताकि एक अहम फ़ैसला लिया जा सके कि चप्पल नई खरीदनी है या उसी को ही गंढवा (सिलवा) कर काम चल सकता है...और इस फ़ैसले में महीने के उस दिन का भी बड़ा अहम रोल था जिस दिन चप्पल टूटने का हादसा पेश आया होता ...क्योंकि राशन, स्कूल की फीसें, दूध-साग-सब्जी का जुगाड़ करते करते,  उस वक्त घरेलू बजट की हालत कितनी नाज़ुक है, इन सब से यह तय होता था  कि चप्पल नयी आयेगी या पुरानी ही से अभी काम चलेगा..ख़ैर, अगर तो चप्पल नयी आ जाती तो कम से कम कईं महीनों क्या, एक बरस तक तो फिर बंदा चैन की बंसी बजाते हुए चलता, उस चप्पल को पहन कर एक दो  महीने तो उस नई चप्पल की वजह से इतराता रहता क्योंकि यह नशा भी एक अलग किस्म का ही था, जिन्होंने इस नशे को कभी किया है, वे ही जान पाएंगे...लेकिन अगर उस टूटी चप्पल को गंढवा के ही काम चलाने का फ़ैसला ले लिया गया है तो फिर यही सिलसिला चप्पल टूटने का और घसीटते हुए उसे घर के आंगन तक पहुंचाने का आगे भी चलता ही रहता जब तक कि ..............आप नहीं समझेंगे, छोड़ो, आगे चलते हैं। यह सब भी भाई ने ही याद दिलाया है।एक बात जो क़ाबिलेतारीफ़ यह भी लिख दूं कि वह पीढ़ी इतनी समझदार थी कि मां-बाप के बिन कहे कि उन के हालात समझती थी...किसी भी चीज़ के लिए ज़िद्द नहीं करती थी....वाह, क्या दौर था वह भी!!

हां, तो भाई साहब को मैंने भी उन के टूटे हुए शूज़ की बात याद दिला दी...तो जनाब हुआ यूं कि भाई सात-आठ साल का रहा होगा...निक्कर, बुशर्ट पहन रखी है उसने....पापा के चार पांच दोस्तो ने एक फोटो खिंचवानी थी, भाई भी वहीं पास ही खेलता हुआ फोटो खिंचवाने के वक्त पापा के पास जा पहुंचा और उस फोटो में उस की भी फोटो है...मुझे वह फोटो बड़ी प्यारी लगती है ...मेरा तो शायद उस तरफ़ ख्याल भी न जाता, और मेरे लिए यह कोई ख़ास या मामूली बात भी नहीं कि उस फोटो में भाई के बूट आगे से फटे हुए हैं....लेकिन पहले घरों मे तस्वीरें कम ही होती थीं, जब भी घर में रखी तस्वीरें देखी जातीं तो मां अपनी तरफ़ से यह बात ज़रूर याद दिला देती सब को ..देखो, पपू तो वैसे ही खेल रहा था, और फटे बूट में ही पहुंच गया फोटो खिंचवाने।

मैंने मां से कभी नहीं पूछा...ज़िंदगी भर, और न ही भाई से कभी पूछा कि क्या इस आगे से फटे हुए बूट के अलावा भी भाई के पास कोई दूसरे बूट भी थे....लेकिन पूछना वहां होता है जहां कुछ पता न हो, मुझे यकीं है कि उस के पास कोई और जूता होगा ही नहीं....ख़ैर, कोई बात नहीं, बड़े लोगों के जूते कोई नहीं देखता....महान् साहित्यकार प्रेम चंद के भी जूते टूटे हुए थे...और परसों-नरसों जिन लोगों को पद्‌म सम्मान से सुशोभित किया गया है उनमें से एक देवी तो नंगे पांव ही महामहिम के पास पहुंची थी और दूसरी एक देवी जो पंजाब से आई थी उन्होंने पैर में हवाई चप्पल पहनी हुई थी ....यह सब क्या सिद्ध करता है, आप भी जानते हैं....

आज इस बात को यहीं पर विराम देते हैं. आगे की बातें फिर कभी करेंगे... खुश रहिए, मस्त रहिए...मैं हमेशा कहता हूं कि ज़िंदगी में पैर कहीं ज़्यादा ज़रूरी हैं, वे चलते रहने चाहिेए....इन चप्पलों, बूटों की ऐसी की तैसी ...ये हैं तो ठीक है, जिन के पास जूते नहीं होते क्या वे ज़िंदगी नहीं जीते....आप का क्या ख़्याल है?

डालडे दा वी कोई जवाब नहीं...

हमारे बचपन का साथी...डालडा घी...आज सुबह इस का ख्‍याल आ गया जब कल की अख़बार के पन्ने उलट रहा था तो एक हेल्थ-कैप्सूल दिख गया जिस में वनस्पति घी की जम कर बुराईयां की गई थीं...मुझे भी बचपन याद आ गया - वह दौर जब मां के द्वारा अंगीठी पर रखे तवे पर  डालडा घी में सिक रहे, नहीं, नहीं सिक नहीं ...तैर रहे परांठों को देख कर हमारे रोम-रोम में ख़ुशी की एक लहर दौड़ जाया करती थी..

सारा बचपन और जवानी इन्हीं डालडा घी के परांठों पर ही पले हैं..कम से कम हर रोज़ चार परांठे--दो सुबह स्कूल-जाने से पहले आम के अचार के साथ, साथ में चाय, या दही या बाद के बरसों में बोर्नविटा वाले दूध के साथ...चार परांठों का हिसाब भी तो दे दूं...दो घर में खाते थे और दो स्कूल-कालेज़ में खाने के लिए ले जाते थे ...साथ में आम का अचार और अधिकतर कोई न कोई सूखी सब्जी के साथ। 

इस वक्त मुझे लिखते लिखते डालडे में बने परांठों की ख़ुशबू का ख़्याल आ रहा है ...जैसे कि वह हमें घर के किसी कोने में बैठे हुए अपनी तरफ़ खींच लेती थी, वह मां का उस डालडे या रथ के डिब्बे से चम्मच की मदद से घी को निकालना और उसे तवे पर सिंक रहे परांठें पर चुपड़ना....और फिर जो उसमें से धुआं निकलना...हम तो बस उस दृश्य के दीवाने थे...दो तीन परांठे खाने के बाद पेट तो भर भी जाता लेकिन निगाहें न भरती थीं....पंजाबी में कहते हैं ढिड भर जाना पर नीयत न भरना...

मैं अभी लिखने लगा था कि ज़्यादातर घरों में यह डालडा ही इस्तेमाल होता था आज से चालीस-पचास साल पहले ...फिर मुझे लगा कि यार अपनी बात कर, अपने घर की बात कर...ऐसे ही दूसरे के घरों के बारे में ज़्यादा मत कुछ कहा कर। वैसे भी हम लोग दूसरे के घरों में जाते ही कितना था ..सिवाए इस के छुट्टी वाले दिन किसी यार दोस्त के घर जब सुबह सुबह जाते तो एक मंज़र देखने को मिलता ...उसकी मां अंगीठी पर बेतहाशा परांठे पे परांठे सिके जा रही है...क्योंकि उन के कुनबे में सात-आठ लोग तो कम से कम थे ही ..जहां ये लोग बरामदे में लंबी तान कर सोए रहते उस के बिल्कुल पास ही उन की मां ने अंगीठी पर तवा रखा होता ...वही धुएंधार डालडे के परांठे ..साथ साथ वह आवाज़ें देती जाती...वे टीटे उठ जा वे, परांठे तैयार ने ...वे बिट्टे तू वी उठ...। मुझे अच्छे से याद है कि हमारे दोस्त ने आंखे मलते हुए उठना....दांत साफ़ करना तो दूर, बिना हाथ मुंह धोए ही उस को दो तीन गर्मागर्म परांठे पीतल की एक थाली में डाल कर पकड़ा दिए जाते ...और साथ में पीतल के एक गिलास में गर्मागर्म चाय....हां, आम का अचार तो होना लाज़िम था ही ...अब वो लोग यह तसव्वुर भी नहीं कर सकते जिन लोगों ने यह किल्लर कंबीनेशन देखा नहीं कभी ....

हमें उस दोस्त को परांठे छकते देख कर मन ही मन में यही लगता रहता कि ये लोग कितने अच्छे थे, घर वाले किसी को इतना सब खाने को देने से पहले पेस्ट करने को भी नहीं कहते ....बस, हम यह सोचते रहते ...दोस्त की मां हमें भी पूछ लेती कि तू भी खा ले...पता नहीं मैं क्या जवाब देता, याद नहीं इस वक्त....लेकिन इतना याद है कि मैं ऐसे कभी किसी के यहीं खाया नहीं....

देशी घी ....देशी घी का मतलब था पंजाब में वेरका देशी घी...और इसे ज़्यादातर देसी घी कहते थे, जैसे देशी दारू तो कहते हैं हिंदोस्तान में, लेकिन पंजाब में कहते हैं...देसी दारू। रोटी फिल्म के मुमताज़ और राजेश खन्ना पर फिल्माए गए उस ढाबे वाले यादगार सीन से किसी को भी उस दौर में देसी घी की अहमियत का अंदाज़ हो जाएगा। अगर कुछ नहींं भी याद आया तो इस पोस्ट को पढ़ने के बाद रोटी फिल्म देखिए। 

सच में घरों में ही कईं बार ऐसा ही होता था...देसी घी को चपातियां चुपड़ने के लिए या एक आध-चम्मच देसी घी दाल में डाल दिया जाता था, या काली तोरई को देसी घी में तैयार किया जाता था....ऐसी और भी बहुत सी बेकार की बातें हैं, लेकिन याद करना पडे़गा उन को। तवे पर डालडा घी में तैर रहे डालडा घी के परांठों का मंज़र तो मैंने पेश करने की कोशिश की ...लेकिन देसी घी में तैयार हो रहे परांठों की तो बात ही क्या करें....सारा घर उस रूहानी खुशबू से महक जाता था...कभी कभी हमें भी देसी घी का परांठा और देसी घी में तैर रहा हलवा नसीब हो जाता था...

कुछ लोग सब्जी भी देसी घी में बनाते थे और सारे मोहल्ले में जो लोग घर में देसी घी ही इस्तेमाल करते थे उन की रईसी का चर्चा दूर दूर तक होता था ...ऐसे ही थे पड़ोस के कपूर आंटी-अंकल...मोहल्ले में दूर-दूर तक उन के बारे में लोगों को पता था कि वे घर मे डालडा घुसने नहीं देते थे ( Another foolish status symbol of 1970s) ...और जब कभी लोग उन के सामने इस बात का ज़िक्र करते तो सच में वे दोनों ऐसे शरमा जाते या ऐसे इतरा देते कि मुझे उसी दौर का वह गीत याद आ जाता ...हाय शरमाऊं किस किस को बताऊं ....अपनी प्रेम कहानियां ...) 


लेकिन मैं डालडे पर पला-बड़ा, देशी घी के डिब्बे की तरफ़ क्यों ताक रहा हूं.....आज जब मैं यह लिख रहा हूं तो मुझे नील कमल फिल्म का वह गीत ...खाली डिब्बा खाली बोतल ...खाली सब संसार ...याद आ रहा है...उसमें डालडे का डिब्बा भी दिख रहा है।हमारे ज़माने में यह गीत रेडियो पर खूब बजा करता था...और महमूद के तो हम सब दीवाने हैं ही..

मुझे डालडे से याद आया कि मैं नवीं कक्षा में था, और नौमाही साईंस की परीक्षा में मुझे साईंस के पेपर में ४० में से ३८ अंक मिले थे,  उसमें एक सवाल यह भी था कि हाईड्रोजिनेटेड फैट्स (यही डालडा, वालड़ा) कैसे तैयार किया जाता है, उस को तैयार करने की रासायनिक प्रक्रिया लिखनी थी...हमें उन दिनों यह लिख कर ऐसे लगता था मानो हमने ही कोई आविष्कार कर दिया हो...और ऊपर से हमारे साईंस टीचर ने सारी क्लास को मेरी आंसर-शीट दिखा कर बताया कि पेपर लिखने का यह सलीका होता है ...मेरी १५ साल की ब्लागिंग के दौरान कभी इतनी हौंसलाअफ़ज़ाई नहीं हुई, जितनी उस दिन हुई थी। 

जब हम कालेज तक पहुंचे तो दिल्ली बंबई में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के यहां पोस्टमैन रिफाँइड तेल की इस्तेमाल होते देख कर मां पोस्टमैन का एक बड़ा सुंदर सा चौकोर सा टीन का डिब्बा भी ले कर आने लगी... जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है, यह डालडे की बनिस्पत कुछ या काफ़ी महंगा था, इसलिए डालडा के साथ यह भी आने लगा। फिर धीरे धीरे यही पोस्टमैन ही इस्तेमाल होने लगा...और अब तो बाज़ार में तेलों का एक अलग संसार ही है ...किसी भी दुकान पर तेलों की सजावट देख कर सिर चकरा जाता है ...पढा़ लिखा भी अनपढ़ महसूस करने लगता है ...ऐसे ऐसे लोग हैं जो ऑलिव ऑयल इस्तेमाल करते हैं लेकिन सारा दिन जंक भी खाते हैं...ऊपर से यह मेडीकल वैज्ञानिक ...कभी कुछ खाओ, कभी यह मत खाओ...कभी यह न करो, वो न करो....हमारे बड़े-बुज़ुर्ग यही कहते थे कि सरसों का तेल ही सब से बढ़िया है, खाने-पकाने के लिए...हम भी यही मानते हैं...लेकिन तवे पर परांठे कैसे तैर पाएंगे इस सरसों के तेल में ....जैसे स्कूल में सरसों के तेल से चुपड़े सिर -मुंह दूर से ही भांप लिए जाते थे...वैसे ही उन परांठों की बास भला कौन झेल पायेगा...तो फिर परांठे खाना ही बंद करिए....न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी...न ही पेट बाहर निकलेंगे और न ही अँदर करने के जुगाड़ ढूंढने पड़ेंगे।

वैसे एक बात और भी गांठ बांध लेने वाली यह है कि सिर्फ एक ही चीज़ खाने या न खाने से कुछ होता नहीं...बेलेंस्ड डाइट चाहिए होती है सब को ...सब से पहले मैं अपनी बात ही करूं, फिर दूसरों की करूंगा....मैं कुछ अनाप-शनाप नहीं खाता, लेकिन सारा दिन मीठा खाता रहता हूं ...यह भी बहुत गलत है सेहत के लिए....बहुत से लोगों को जानता हूं सलाद, फल-फ्रूट खाते हैं...स्पराउट्स भी ....लेकिन इस के साथ सारा दिन बीड़ी-सिगरेट से फेफड़ों की सिंकाई भी चालू रहती है...आज के युवा ऑलिव आयल ही इस्तेमाल करेंगे, लेकिन सारा दिन जंक-फूड....गांव में महिलाएं कुछ खाना पका रही थीं, अभी वीडियो देखी, सब कुछ सरसों के तेल में तला हुआ ...डीप-फ्राई किया हुआ...यह भी गलत है, मैंने तो ज़िंदगी का एक ही सिट्टा निकाला है ...कि आप किसी एक भी बंदे की ज़िंदगी बदल नहीं सकते, जो जिस के मुकद्दर में लिखा है, उसे वह मिलेगा....यूं ही हर बंदे को खाने-पीने के उपदेश देने के चक्कर में खुद को हलकान करने की ज़रूरत नहीं, दुनिया जैसे चल रही है, वैसे ही चलेगी....अपने आप को खुश रखिए, मस्त रहिए....और नशे-पत्ते से दूर रहिए....महंगे से महंगे सिगरेट, महंगी से महंगी दारू, महंगे महंगे बॉडी-बिल्डिंग टॉनिक, मोटे शऱीर को पतले करने वाली और पतले को मोटा करने वाली दवाईयां, बिस्कुट सब के सब पंगे हैं....मानो या न मानो.....चाहे तो अपने ऊपर अजमा कर देख लो...

मंगलवार, 9 नवंबर 2021

इंसान तो इंसान, जानवरों से भी इतना प्यार...

ToI 8.11.21

 कल का अख़बार अभी देख रहा था तो टाइम्स ऑफ इंडिया की इस ख़बर पर नज़र पड़ गईं...हैरानी यह हुई कि पेज़ थ्री पर नहीं, टाइम्स जैसे अख़बार ने पेज़ दो पर इसे छाप दिया...हैं कुछ लोग जो जानवरों से भी इंसानों की तरह ही मुहब्बत करते हैं, वरना यह कायनात चल न पाती। यहां पर हरामी से हरामी और मेहरबान से मेहरबान लोग भरे पड़े हैं...

जानवरों से प्यार से पेश आने वाली बात पर मुझे यह बात याद आ गई कि जब हम लोगों को इंसानों से ही पेश आने की तहज़ीब नहीं है तो जानवर किस खेत की मूली हैं...मैंने जितनी भी पढ़ाई की या नहीं है, जितनी भी किताबों में टक्करें मारी हैं या नहीं मारी हैं, जितने भी सत्संगों में जाकर पाखंड भोरे हैं ...(मेरा मन कभी भी सत्संग में न तो लगता था, न ही कभी लगता है ...बस, मैं अपनी मां की खुशी के लिए उन के साथ रविवार के दिन ज़रूर जाता था...और मन ही मन कुढ़ता भी रहता था कि यार, इस काम के चक्कर में सारी छुट्टी .....लग गई (फिल इन दॉ ब्लैंक्स कर लीजिए, जो पंजाबी जानते हैं😎)....कईं बार मां को कह भी देता कि बीजी, मेरा दिल नहीं करता, बस, चला जाता हूं क्योंकि आप को वहां ले कर जाने वाला कोई नहीं है....वह भी संजीदा हो कर कह देती कि बिल्ले, दिल नहीं करदा जेकर, तू न जाया कर, मैं तां घर बैठ के वी रब दा ना लै लैनी हां...!!) लेकिन जब तक मां की सेहत ठीक थी, हम दोनों सत्संग चले ही जाते थे...(मेरा मन बिल्कुल भी न होते हुए...). 

क्यों चिढ़ है मुझे इन पाखंडों से, बाहरी दिखावे से, अपने आप को दूसरे से बेहतर समझने की आदत से, ऐवें ही भोरी च रहन ते....क्योंकि सब बातों का सार तो एक ही है कि हम किसी को पैसा नहीं भी दे सकते न दें, और किसी की कोई सहायता करने में सक्षम नहीं हैं तो न करें, कोई जबरदस्ती नहीं चल सकती ....लेकिन ज़िंदगी का केवल एक फंड़ा होना चाहिए कि हर बंदे के साथ बातचीत ऐसे करें जैसे कि मेरे मां-बाप कहा करते थे और वे ऐसे ही थे कि जैसे बात करते करते किसी के पेट में घुस जाए बंदा...इतनी सादगी, इतनी विनम्रता, इतनी झुकाव हो ..सामने वाले बंदे के बौद्धिक स्तर को देख कर उस तक पहुंच कर बात की जाए...उसे किसी भी तरह से उस की कमज़ोर या विषम परिस्थिति का अहसास होने देना ही कम्यूनिकेशन की एक बहुत बड़ी त्रासदी है ...मैं ऐसा समझता हूं ...अमूमन मैं किसी के साथ आपा नहीं खोता....ड्यूटी पर कभी किसी के साथ ऊंची आवाज़ में बात हो भी जाए तो मैं जब तक उस के खेद प्रकट न कर दूं ..मुझे चैन नहीं आता...

मैंने कहीं यह भी पढ़ा था कि किसी जेंटलमेन की निशानी क्या है ...(कहीं मैं भी तो अपने आप को कोई जेंटलमेन नहीं समझ रहा (नहीं, नहीं, मुझे अपनी औकात पता है)। उस में लिखा था कि कोई इंसान जेंटलमेन है या नहीं, इस का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि जो जेंटलमेन होगा वह उस व्यक्ति से भी बहुत अच्छे तरीके से पेश आएगा जिस के साथ उस का कोई वास्ता नहीं है और जो किसी भी तरह से उसे नुकसान पहुंचाने के क़ाबिल नहीं है.....मुझे यह बात बेहद पसंद आई...फिर मैंने देखा कि हम डरते हैं उन लोगों से जो हमें नुकसान पहुंचाने की स्थिति में हैं, उन से तो पेश आते हैं, कमबख्त इतना झुक जाते हैं जैसे रब ने रीड़ दी ही नहीं, बातों में इतनी मिठास घोल देते हैं कि सुनने वाले को सुन कर ही डॉयबीटीज़ हो जाए... लेकिन जो लोग हमें लगता है, हमारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते, हम उन के साथ ठीक से पेश भी नहीं आते...अमूमन मैंने ऐसा देखा है, शायद मेरे देखने में नुक्स हो (वैसे आंखों की जांच कुछ महीने करवाई तो थी) ..लेकिन जो दिखता है वही लिखता हूं ...और यह भी यहां जोड़ दूं कि उस लिहाज से मैं भी कोई जेंटलमेन कतई नहीं हूं....लेकिन हां, मुझे अपने अल्फ़ाज़ का पूरा ख़्याल रहता है, कभी ये इधर हो जाएं तो फ़ौरन इन्हें सुधार लेता हूं ...और बहुत बार माफ़ी मांगने से भी गुरेज़ नहीं करता ...(उन से भी जो किसी तरह से मेरा नुकसान कर पाने की स्थिति में नहीं हैं...) ...तो क्या ये बातें मुझे जेंटलमैन की श्रेणी में ले आती हैं?...नहीं भाई नहीं..)

यहां पर हम लोग इंसानों से ढंग से पेश आने की बात कर रहे हैं, दुनिया में लोग परे से परे पड़े हैं....एक पंजाबी गीत का ख्याल आ गया है, उसे नीचे लगा दूंगा..पंजाबी तो वैसे सब ही समझ लेते हैं, नहीं समझ सकते तो भी लगा दूंगा ..क्योंकि मैं उसे एक ज़रूरी खुराक की तरह सुन लेता हूं जब भी मुझे कुलदीप मानक  की याद आती है ...वह इस गीत में कहते हैं कि दुनिया में लोग परे से परे पड़े हैं, बेवकूफ इंसान तू किस भ्रम में जी रहा है ...)....मुझे भी यह बहुत ज़रूरी लगता है कि किताबी ज्ञान के साथ साथ झुकना, विनम्रता होना भी बेहद....बेहद...बेहद ज़रूरी है ...मैं जब भी कभी ऐसे लोगों से बात करता हूं मुझे लगता है मैं फरिश्तों से बात कर रहा हूं...

पंजाबी में एक बड़ी पापुलर कहावत है जो बचपन से हम लोग घर में अकसर सुना करते थे ...हमारी ज़ुबान ही है जो हमें हम चाहें तो हमें राजा बना दे, और यही ज़ुबान हम अगर ख़्याल न करें तो छित्तर भी पड़वा सकती है...बिल्कुल सही बात है ...बस, सारा लफ़्ज़ों का ही फेर है ....सब के पास वही हैं, किन को कहां इस्तेमाल करना है, और कैसे इस्तेमाल करना है...ज़िदंगी का यही फ़लसफ़ा है ...क्यों होता है कि कुछ लोगों के साथ आप का बार बार बात करने को दिल करता है और कुछ लोगों को आप एवॉयड करते हो ....सोचने वाली बात है...

इंसान तो इंसान , कुछ लोगों को जब रास्ते पर चल रहे जानवरों से भी इतनी मुहब्बत करते हैं तो मेरी आंखें टपके न भी सही, भीग तो जाती ही हैं और जब मैं ऐसे लोगों को देखता हूं मुझे लगता है मैंने कोई फरिश्ता देख लिया हो....मैं एक ऐसी ही महिला की बात कर रहा हूं ...उस की उम्र यही कोई ६० के करीब होगी...सुबह अकसर देखता हूं वह अपने कंधों पर कैट-फूड (बिल्लीयों का खाना) और पानी लेकर निकलती है ...और जगह जगह उस की इंतज़ार में बैठी बिल्लीयों को छोटी छोटी कटोरियों में ऐसे खाना परोसती हैं जितना आज के मशीनी दौर में कुछ औरतें भी अपने बच्चों को न दे पाती होंगी ...(नौकरी के चक्कर में या अनेकों और व्यस्तताओं के रहते ) ....फिर जब वे उस खाने को खा रही होती हैं तो उन दस-पंद्रह बिल्लीयों को सहला कर प्यार करती है, बिना किसी जल्दबाजी के उन का खाना फ़िनिश होने का इंतज़ार करती है....इस महिला को दूर से तकना ही मुझे किसी देवी को तकने जैसा लगता है ...मैं फोटो खींचने का शैदाई तो हूं लेकिन मैंने कभी इन के इन ख़ुशनुमा पलों को कैमरे में कैद करने की बेवकूफ़ी नहीं की....मुझे लगता है कि यह अगर करूंगा तो बहुत घटिया काम हो जाएगा....या तो यह कांसिएस हो जाएंगी, शायद बिल्लीयों के खाने में ही खलल पड़ जाए...बस, इस तरह की बातें सोच कर मैं यह गुस्ताखी नहीं करता ....एक साल पहले जब यह दो तीन बिल्लीयों को खाना खिला रही थीं, और इन की पीठ मेरी तरफ़ थी, उस दिन एक फोटो ज़रूर खींची थी...एक रिमाइंडर के तौर पर कि ऐसे लोग भी हैं....) 

इसी बात पर मुझे निदा फ़ाज़ली साहब की नसीहत याद आ गई....

बाग में जाने के भी आदाब हुआ करते हैं...

फूलों से तितलियों को न उड़ाया जाए...!!

मैंने ज़िंदगी को बंद कमरों में नहीं, बाहर निकल कर जिया है, देखा है...इसलिेए मेरे पास इस तरह के बहुत से वाक्यात हैं बताने के लिए...लेकिन बहुत बार कुछ लिखने का मन ही नहीं होता...क्या करें..इस पोस्ट को शुरू तो कर लिया है लेकिन लगता है बेकार की बातें लिख दी हैं, लेकिन जो लिख दिया है, अपनी ही डॉयरी से उसे डिलीट क्या करना...पड़ा रहने देते हैं...

कम्यूनिकेशन इतना बड़ा मौज़ू है मुझे नहीं पता था...१९९२ में मैं टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साईंसेस में जब हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन की पढ़ाई कर रहा था तो हमारा एक विषय था कम्यूनिकेशन....जो हमें एक साल तक पढ़ाया गया...तीस साल की उम्र थी मेरी और मुझे यह अफ़सोस हुआ कि यह सब हम लोगों ने स्कूल में ही क्यों नहीं पढ़ा....कम्यूनिकेशन बस लिखा हुआ या बोला जाने वाला शब्द ही नहीं है, इस के साथ बहुत सी और बातें जुड़ी हैं जो यह बात तय करती हैं कि हम किसी के साथ क़ायदे से पेश आ भी रहे हैं या नहीं.....कभी इस के बारे में और भी बहुत सी बातें करेंगे .


ज़िंदगी की सच्चाई यह है, बाकी सब बकवास है .....हमें ज़्यादा उड़ने-उछलने की ज़रूरत कतई नहीं है! 

गुरुवार, 4 नवंबर 2021

जब टूटी चप्पलें सिलवा लेते थे...

एक बात बताऊं...बहुत बार ऐसा होता है कि जब भी मैं कुछ लिखने लगता हूं तो मुझे यही लगता है कि मैं अपनी मां-बोली (मादरी-ज़बान) पंजाबी में ही लिखूं...फिर मुझे लगता है कि नहीं, पंजाबी आज कल लोग बोलने से परहेज़ करते हैं, पढ़ने वाले कहां मिलते हैं...इसलिए मैं पंजाबी में लिखने की अपने दिल की हसरत को दिल ही में रहने देता हूं और हिंदी में लिखने लगता हूं ...अंग्रेज़ी में भी लिख सकता हूं ..लेकिन अपनी बात को ठीक उस तरह से रख नहीं पाता जिस तरह से वह दिल में चल रही होती है...इसलिए मुझे फिर हिंदी की तरफ़ ही मुड़ना पड़ता है ...दरअसल जिस ज़ुबान में मैं लिखता हूं वह हिंदी की बजाए हिंदोस्तानी ज़्यादा है ...

दोस्त ने ग्रुप में यह तस्वीर साझा की और इसी बहाने हमें अपनी औकात याद आ गई...😎

कल अपने एक दोस्त ने कॉलेज के साथियों वाले वाट्सएप ग्रुप में एक टूटी हुई हवाई चप्पल की तस्वीर पोस्ट की ...जिसको एक सेफ्टी पिन से जोड़ने का जुगाड़ कर रखा था ...और साथ में एक सवाल था कि क्या आपने कभी ऐसा किया है..? मैंने उसी वक्त सोचा कि यार, किया तो है ......लेकिन यही नहीं किया, जूतों, चप्पलों, गुरगाबियों से बहुत कुछ किया है ....इतनी यादें जुड़ी हुई हैं ..दोस्तो, अब पता नहीं मैं थका हुआ हूं या मुझे जम्हाईयां आ रही हैं, इस बार को आगे लिखने की मेरी इच्छा नहीं है...ठीक है, शुभ-रात्रि ..कल सुबह उठ के देखते हैं ...सुबह की ताज़गी किन किन यादों को दिल के कुएं से निकाल बाहर करेगी...😄सो जाइए अब आप भी और मीठे सपने लीजिए। 

प्रवीण ३.११.२१ - रात २३.२० बजे 

लो जी, सुबह हो गई है, जहां पर हम रहते हैं वहां पर बाहर कौवों की आवाज़े आना शुरू हो गई हैं...हां, तो अपनी बात कल शुरू ही की थी कि हमें नींद आ गई। अभी बात को पूरा करने की कोशिश करते हैं...जी हां, बिल्कुल कोशिश ही कर सकते हैं, क्योंकि यादों के पिटारे में से जितना भी निकाल कर यहां सजाने की कोशिश करेंगे, फिर भी बहुत कुछ तो रह ही जाएगा...चलिए, जितना बन पड़े उतना ही सही। 

जी हां, हम तो जो बातें करेंगे ५०-६० पुरानी ही करेंगे क्योंकि हम उस दौर के गवाह रहे हैं...यह वह दौर था जब हम जैसे मिडल-क्लास घरों के लोगों के पास बाहर-अंदर पहनने के लिए एक जोड़ी ढंग का फुटवेयर होता था और अकसर घर के सभी लोगों के पास अपनी अपनी एक हवाई चप्पल भी हुआ करती थी...हवाई चप्पल कह लें, या कैंची चप्पल ...जहां तक मुझे याद है बाटा कंपनी की आती थी या कोरोना कंपनी की ...लोग तरजीह बाटा कंपनी की हवाई चप्पल को ही दिया करते थे...और यकीं मानिए, इतनी मज़बूत कि रोज़ पहनने पर भी कईं साल न भी सही (अच्छे से याद नही) लेकिन कईं कईं महीनों तक चलती थी, आज कल की हवाई चप्पलों की तरह घिसती बहुत कम थी, उस ज़माने में चप्पल की क्वालिटी का यह भी एक मापदंड (इंडीकेटर) होता था...

बहुत बार तो पहनते पहनते हम ऊब जाया करते थे लेकिन उस की सेहत जस-की-तस बनी रहती थी..टनाटन...उन दिनों हम लोग इतने रईस भी न हुए थे कि उन्हें बॉथरूम चप्पल कह कर उन का अपमान करते ...और करते भी कैसे, हम लोग अकसर उसे ही पहन कर बाज़ार भी हो आते, मेहमान के आने पर साईकिल पर चढ़ कर बर्फी, समोसा भी ले आते ...और सुबह टहलने निकलते तो उसे ही पहन कर हो आते ....क्योंकि ये जो आज कल कईं कईं हज़ार में वाकिंग, रनिंग, जॉगिंग शूज़ मिलते हैं, इन सब की तो हम कभी कल्पना करने की ज़ुर्रत ही न करते थे...

अच्छा, हवाई चप्पल भी खरीदना किसी जश्न से कम न होता था...यही कोई ४-५ रूपये की आती होगी...कईं दिन तक प्रोग्राम बनता कि घर के फलां फलां बंदे के लिए नई हवाई चप्पल लेनी है, उस की चप्पल बिल्कुल घिस गई है, या इतनी बार मोची से उस की तुपाई हो चुकी है कि अब न हो पाएगी...अकसर मां के ही साथ जाते बाज़ार --अमृतसर के पुतलीघर बाज़ार में ...मां किसी दुकान से चप्पल हमारे लिए चप्पल खरीद देतीं...और हमें वहीं दुकान पर पहन कर उसी १० बॉय १० फुट की दुकान में माडल की तरह रैंप-वॉक कर के यह भी मुतमईन होना पड़ता था कि कहीं यह छोटी तो नहीं ...या बड़ी तो नहीं....लेकिन यह काम मैं अकसर अपने एक मास्टर की दुकान पर न कर पाता......कारण?- वही कारण कि यहां तो रैंप-वॉक कर लूंगा, स्कूल में जब उस का ख़मियाज़ा भुगतना पड़ेगा, उस का क्या। हमारे स्कूल के एक मास्टर साब थे, हमें पढ़ाते भी थे, उन की भी जूतों की एक दुकान थी...अगर कभी उन की दुकान पर जाना होता तो मेरी कोशिश रहती कि यार, जो मास्टर जी दे रहे हैं न वही तेरे पैरों के लिए भी और तेरी सलामती के लिए मुबारक है, ज़्यादा दिमाग़ मत लगा...बीजी को कह दे कि हां, बीजी, यही ठीक है। यहां तक कि मास्टर की दुकान से खरीदी चप्पल में अगर कुछ खराबी भी दिखती, जिस का घर आने पर ही पता चलता तो मैं उसे जा कर एक्सचेंज करवाने की भी कभी सोचता तक नहीं था। 

और हां, मैं यह कैसे लिखना भूल गया कि पहले अगर घर में एक कैंची चप्पल भी आती थी तो घर के सभी को बताया जाता था...जैसे जैसे घर के अफ़राद के साईकिल खड़े होने लगते, हम उसी वक्त उन चप्पलों को पहन कर, उन के पानी पीते पीते उन के आगे पीछे हो कर आज की उस खरीद के बारे में इत्ला कर देते ..

जब भी कोई नई चप्पल, नया जूता घर में लेकर आता और पहन कर दिखाता तो न्यू-पिंच के चोंचले बाज़ी मां न करती, जूतों पर तो वैसे भी कोई क्या न्यू-पिंच दे,,,,लेकिन मां इतना ज़रूर कहतीं कि ...बड़े चंगे ने, सुख हंडावने होन...(बहुत अच्छे हैं, इन्हें पहन कर सारे सुख तुम्हारे नसीब में आ जाएं) ....यह आशीष हमारे लिए बहुत बड़ी बात थी, और मां की दुआएं तो लगती भी ज़रूर हैं...😄

चलिए जी हवाई चप्पल इतनी पहन ली कि उस का स्ट्रैप टूट गया...कोई बात नहीं, मोची के पास इलाज के लिए ले गए...उन की फीस रहती थी पांच पैसे या दस पैसे ....अगर तो सीधा सीधा उन्होंने स्ट्रैप को टांक ही दिया तो पांच पैसे लेकिन यह काम कितना पुख्ता है, उस की कोई गारंटी न होती थी, लेकिन अगर वे छोटे से चमड़े के टुकड़े के साथ उस टूटी हवाई चप्पल को रिपेयर करते थे तो १० पैसे लेते थे और समझिए कि एक गारंटी जैसी सुविधा भी उस के साथ संलग्न रहती थी...लिखते लिखते सोच रहा हूं कि यार, बस पंजे-दस्से में उस मोची की और क्या जान ले लेते!!

अकसर सफेदपोश लोग चमड़े का टुकड़ा लगे टॉकी वाली चप्पल पहनना पसंद न करते थे ...बस, फिर उसे घर ही में, बाथरूम के लिए रख लिया जाता था और बाहर-अंदर जाने के लिए हैसियत मुताबिक एक और हवाई चप्पल आ जाया करती थी...और हां, जब कोई चप्पल के स्ट्रैप बार बार टूटने लगते तो फिर उस के स्ट्रैप बाज़ार से लाकर ख़ुद ही घर में बदल लिए जाते ...पूरी ज़ोर-अजमाईश करने के बाद कईं बार तो यह काम हो जाता और कईं बार मोची के पास चप्पल ले जाकर पुराने की जगह नए स्ट्रैप लगवा लिये जाते। ये नए स्ट्रैप यही कोई डेढ़-दो रूपये में शायद बिकते थे....मुझे यह इतना अच्छे से याद नहीं है, अब जितना याद कर पा रहा हूं, उसी का आनंद लीजिए 😎...फ़ोकट में।

लिखने बैठे तो कहां से पुरानी पुरानी यादें उमड़-घुमड़ कर आने लगती हैं ...जब तक उन को लिख न दो, कमबख़्त पीछा नहीं छोड़तीं, हां, तो पुरानी हवाई चप्पल को डिस्कार्ड करने का एक और भी क्राईटीरिया हुआ करता था...बहुत बार ऐसा भी होता था कि चप्पल लंबे अरसे से पहने जा रहे हैं लेकिन अभी तक वह मोची की वर्कशाप में नहीं गई ....लेकिन नीचे से वह इतना घिस चुकी है कि गुसलखाने में या आंगन में चलते चलते बंदा स्लिप होने लगे तो भी नई चप्पल की सैंक्शन समझिए मिल ही जाती थी...

जब हवाई चप्पल खरीदने जाते तो उस के रंग का भी ख्याल रखा जाता कि नीले रंग की तो बहुत बार पहन कर पक चुके हैं, इस बार भूरी चप्पल लेते हैं..हा हा हा हा ...सच में हम लोगों ने भी ज़िंदगी भरपूर जी है। कईं बार जब बाज़ार से नए स्ट्रैप लेकर आते तो कईं बार उन का साइज़ बड़ा-छोटा होता तो वह अगले दिन जा कर बदल कर आ जाते ...कईं बार नए स्ट्रैप खरीदते वक्त घर के उस सदस्य की चप्पल के कलर का ख़्याल न आता...न कैसे आता...खरीदारी करने गये साथ किसी तीसरे मैंबर को तो ख़्याल आ ही जाता कि पपू दीयां चप्पलां दा तो रंग नीला ए (पपू की चप्पलों का रंग तो नीला है)...तो उसी रंग का स्ट्रैप खऱीदा जाता ...नहीं, तो अगले दिन जा कर बदल लिया जाता ...

एक चप्पल का स्ट्रैप खरीद कर जब घर में आता तो वह भी बड़ी घटना न सही, लेकिन लगभग सारे घर को खबर हो जाती कि आज फलां फलां बंदे की चप्पलों के नए स्ट्रैप आए हैं, उस की तो मौज हो जाएगी...मुझे अब यह याद नहीं आ रहा कि नए स्ट्रैप तो घर पर नहीं तो मोची के पास जा कर लगवा लिेए, लेकिन उस पुराने खस्ताहाल स्ट्रैप का क्या करते थे, कुछ न करते थे भाई....जहां तक याद है उन की हालत के ऊपर यह निर्भर करता था कि उस पुराने स्ट्रैप को भी वापिस घर हमारे साथ चलना है या नहीं...अगर भविष्य में कभी उस के काम आने की कोई गुंजाइश होती, एमरजेंसी में ही सही, तो उसे मोची से लेकर वापिस घर ले कर आया जाता...फिर उसे कभी इस्तेमाल होते देखा तो नहीं, यही कहीं कचरे-वचरे में डाल दी जाती होगी...

हां, कभी कभी ऐसा भी देखा ...एमरजैंसी है, मोची के पास जाने का वक्त नहीं है, तो जैसे उस दोस्त ने कैंची चप्पल की फोटी भेजी है न ...उसे सेफ्टी पिन से चलने लायक करने की कोशिश भी की जाती थी...लेकिन यह काम दो चार मिनट में अकसर फेल हो जाया करता...मैंने कईं बार लोगों को देखता जिन ने अपनी हवाई चप्पल के स्ट्रैप को एक कपड़े की कतरन (लीर) से बांधा होता ...ईश्वर की अपार कृपा रही हम पर कि कभी इतनी ज़्यादा कड़की के बादल भी हमारे घर पर न मंडराए कि हम मोची का मेहनताना भी बचा लेने के चक्कर में उन्हें घर पर ही मुरम्मत करने लगें...

और एक बात यह हवाई चप्पलें गुस्सा आने पर मार-कुटाई करने का काम भी करती थीं....हमारे घर में तो नहीं हुआ कभी ऐसे, लेकिन मैंने कईं बार लड़ाई झगड़ों में इन हवाई चप्पलों के इस्तेमाल का चश्मदीद गवाह रहा हूं...😎

इस से पहले कि मां एक बात भूल जाऊं इन चप्पलों, वप्पलों, ब्रॉंडेड शूज़ से कुछ नहीं होता....असल बात होती है काबलियत ....मेरे फूफा जी का घर मेरी मां की नानी के गांव में था, हमारी नानी अकसर उन के बारे में बताया करती थीं कि बचपन में उन का बाप चल बसा...उन्होंने इतनी तंगी देखी उस दौर में कि हमारे फूफा जी की मां के पास उन्हें चप्पल दिलाने के लिए पैसे न होते थे, स्कूल दूर था, और दिन गर्मी के, पैरों को जलने से तो बचाना ही था, उन की मां उन के पैरों पर बरगद (बौहड़) के पेड़ के खूब सारे पत्ते मोटी सूतली से बांध कर उन्हें स्कूल भेज देतीं......ऐसी मां को, ऐसे बेटे की याद को सादर नमन....पढ़ाई लिखाई में इतने अच्छे ..कि बाद में देश आज़ाद होने पर जब बंंबई आए तो कालेज में पढ़ाने लगे ....इक्नॉमिक्स में उन का नाम था, कालेज के वाईस-प्रिंसीपल रिटायर हुए ..और कईं किताबें उन्होंने लिखीं...

इस का मतलब तो यही हुआ कि सिर्फ़ कीमती शूज़ से कुछ नही ंहोता, कुछ कर गुज़रने के लिए और भी बहुत असला चाहिए होता है ...दिल में आग, जुनून, उमंग और जोश से भरा जज़्बा....

बहुत बहुत शुक्रिया, बेदी साब, आप की भेजी चप्पल ने तो हमें यादों के समंदर में डुबो दिया....और यह जो हम कभी कभी उड़ने लगते हैं न ...हमारी ऐसी लूत-परेड कर दी कि क्या कहें..😄😄...इसलिए कहते हैं कि पुराने दौर के दोस्तों की बातें भी सुनते रहना चाहिए..

चप्पलों के बारे में बाकी बातें कभी अगली पोस्ट में ....अगर आप की भी कुछ यादें हों तो नीेचे कमैंट में क्यों नहीं लिखते आप। कोई नाराज़गी है क्या!

बुधवार, 3 नवंबर 2021

चलती है लहरा के पवन ..कि सांस सभी की चलती रहे!

अगर हमारे दौर के फिल्मी गीतकारों को जिनको स्वर्गवासी हुए भी ज़माना गुज़र गया, यह पता चले कि उन के लिखे अल्फ़ाज़ के लोग इतने बरसों बाद भी इतने दीवाने हैं और अगर वे फ़रियाद करें (वहीं स्वर्ग में अगर कोई पिटिशन डालने की व्यवस्था होती) कि उन्हें फिर से पुराना चोले में हिंदोस्तान रवाना कर दिया जाए ..तो ख़ुदा भी उन की यह फ़रमाईश मान लेता। 

सांसें....कितना ख़ूबसूरत लफ़्ज़ है न , है कि नहीं! सब से पहले तो मुझे इस बात का ख़्याल आ रहा है कि यह जो हिंदी-उर्दू का विवाद खड़ा किए रहते हैं न ....यह सांसें भी उर्दू का ही लफ़्ज़ है, इस का क्या करें, इसे बोलना बंद कर दें या इन लेना ही बंद कर दें, क्या आप और हम इन के बिना रह पाएंगे...बिल्कुल ऐसे ही हिंदोस्तानी ज़बान न तो हिंदी है न ही उर्दू है ...वह मिली-जुली हिंदी-उर्दू की एक गंगा-जमुनी दरिया की तरह हिंदोस्तान के हर कोने में बह रही है ...ज़बान किसी धर्म की, मज़हब की नहीं होती, यह किसी की मिल्कियत भी नहीं होती, ज़बान तो इलाकों की होती है...अगर यह बात किसी की समझ में आ जाए तो ठीक है, यह उसी की ज़िंदगी आसान कर देगा...वरना जो है सो है। मुझे भी इतनी सी बात ५५ साल की उम्र में उर्दू की पहली जमात में पता चली थी...

सांसें....बेहद खूबसूरत लफ़्ज़, जो देखा जाए तो हर पल हमारी ज़िंदगी के साथ रहता है पल..पल...हर पल। जब हम लोग किसी बाबा-वाबा को सत्संग में सुना करते और वह सांसों की अहमियत पर बोलते थे तो हमें कहां समझ में आता था यह सब...हमें तो बस जम्हाईयां आती रहती थीं कि बहुत हो गया यार, अभी भी भोग पड़ने में बीस मिनट लगेंगे, तब कहीं प्रसाद लेकर यहां से निकलेंगे...

कितनी बार सुन चुके हैं, पढ़ चुके हैं कि ज़िंदगी से ज़्यादा गिले-शिकवे करने का कोई मतलब है नहीं, बात बस इतनी सी है कि अगर बाहर गई एक सांस लौट कर वापिस आ रही है न, इस का मतलब सब ठीक है...कुछ साल पहले की बात है, बड़ा बेटा जब बाली गया था तो उसने समंदर के नीचे स्वीमिंग की थी, जिसे स्कूबा-डाईविंग कहते हैं...उसने भी वहां से वापिस लौटना पर यही ज्ञान दिया था कि बाप, जब तक बंदे की सांसें चल रही हैं न, सब ठीक है....इस के आगे कुछ टेंशन करने का मतलब है भी तो नहीं। 

बात है भी कितने पते की है! सांसे ये जो हमारी चल रही हैं, मैं अकसर सोचता हूं कि क्या यह किसी करिश्मे से कम हैं...सारे शरीर में लाखों-करोड़ों रासायनिक प्रक्रियाएं निरंतर चल रही हैं ....चौबीस घंटे, सातों दिन ...एसिड-बेलेंस मेन्टेन हो रहा है, शरीर में इलैक्ट्रोलाइट बेलेंस भी हो रहा है, अनेकों तरह की पदार्थ हमारी ग्रंथियों से निकल रहे हैं जो विभिन्न क्रियाओं को कंट्रोल कर रहे हैं...अब क्या क्या लिखें, ईश्वर की दी गई नेमतों की फेहरिस्त बनाने लगें....है कि नहीं बेवकूफ़ी वाली बात ........बात तो सिर्फ़ इतनी सी है जो जितनी जल्दी समझ आ जाए उतना ही अच्छा है ...कि हमें हर सांस के साथ ईश्वर को याद करना है, हर पल, हर श्वास के साथ प्रभु का शुक्रिया अदा करना है ...कि आप की अपार कृपा से सांसें चल रही हैं, वरना शु्क्रिया करने की बजाए, इन सांसों को अपनी अकल से समझने की कोशिश करेंगे तो हाथ कुछ नहीं आएगा....यह सब रेहमत की बातें हैं, जैसे जैसे हमारी लिखाई-पढ़ाई बढ़ने लगती है, हम ख़ुद को कुछ समझने लगते हैं ये रब्बी बातें हमारी समझ में आना कम हो जाती हैं ...हम समझते हैं कि हम धन-दौलत के बलबूते सब कुछ अपने कंट्रोल में रखेंगे .....लेकिन ऐसा होता कहां है! इत्मीनान से पलों के साथ जिएं...ज़्यादा टेंशन से, ज़्यादा सोच-विचार से कुछ मिलने वाला नहीं, जो हाथ में है वह भी सरक जाएगा। 

सांसें ...इतना ख़ूबसूरत लफ़्ज़ और बातें मैं इस के बारे में इतनी पकाने वाली लिखता जा रहा हूं ...इतने खूबसूरत शब्द के बारे में बातें भी  ख़ुशगवार ही होना चाहिए...वैसे यह काम हमारे फिल्मी गीतकार बख़ूबी कर गये हैंं....मैं जब भी फिल्मी दुनिया के दिलकश गीतों को याद करता हूं तो मुझे सांसें लफ़्ज़ का ख्याल आते ही दो तीन गीत याद आ जाते हैं....एक तो वही है ...मधुबन खुशबू देता है, सागर सावन देता है ......चलती है लहरा के पवन ..कि सांस सभी की चलती रहे। यह गीत मेरे मन के बहुत करीब है ...इतने बरसों से इसे देखते सुनते यह मन में पक्का घऱ बना चुका है...

सांसों की जब बात चली तो कल बड़े भाई ने ३१ साल पुराना यह गीत भी याद दिला दिया....सांसों की ज़रूरत है जैसे ज़िंदगी के लिए ..यह भी बहुत खूबसूरत गीत है। हिंदी फिल्मों के नगमों के साथ अकसर हमारें ढ़ेरों यादें जुड़ी होती हैं...१९९० के जुलाई माह में हम लोग शादी के बाद मसूरी घूमने गए थे ...वहां पर जुलाई में मौसम बड़ा ख़ुशग़वार था ...हल्की हल्की बारिश की फुहार चलती ही रहती थी, बादलों की आंख-मिचौली भी चलती रहती ...मुझे याद है हम लोगों को वहां की सड़कों पर टहलते हुए दुकानदारों के टेपरिकार्डरों पर चलता यह गीत बहुत बार सुनाई पड़ता ....'आशिकी' फिल्म का यह बेहद सुपरहिट गीत है ...यह पिक्चर उन्हीं दिनों रिलीज़ हुई थी...


सांसों पर लिखे बहुत से गीत और भी याद आ रहे हैं ...

सांसों पर लिखते लिखते अब बोर सा होने लगा हूं ...सोच रहा हूं फिर से थोड़ा सो ही जाऊं..लेकिन यह बात है कि सांसों पर बहुत से नग्मे हैं ...जिन्हें हम नेट पर तलाश कर सकते हैं...सांसों को जिस भी नज़रिए से देखा जाए, शोखी की निगाह से, रूहानियत की निगाह से, ज़िंदगी के फ़लसफ़े की निगाह से .......गीतकार अपनी बात लिख कर हमें दे गए हैं....हम उन्हें सुनें न, उन से सबक न लें तो कसूर किसका है😎

मंगलवार, 2 नवंबर 2021

दर्पण झूठ न बोले...

सच बात है कि दर्पण झूठ नहीं बोलता....वो बात अलग है जब वह हमारी पसंद मुताबिक हमारी तस्वीर दिखा नहीं पाता, सफेद बाल, झुर्रियां जब दिखाने लगता है तो हम उसे कोसने लगते हैं...है कि नहीं....

आज मेरे बड़े भाई ने मेरे साथ दर्पण फिल्म का एक गीत शेयर किया जिस का लिंक मैं यहां नीचे लगा रहा हूं ...आप इस पर क्लिक कर के उसे सुन सकते हैं...आनंद बख्शी की कलम का जादू है ...वे इस के गीतकार हैं ...

भाई ने मुझे कहा कि वह जो तपस्या फिल्म का भी जो गीत है न ...कभी पेड़ का साया, पेड़ के काम न आया...उस गीत में जब ये लाइनें आती हैं न ...तेरी अपनी कहानी यह दर्पण बोल रहा है, भीगी आँख का पानी हक़ीक़त खोल रहा है ...जब वह इस गीत के सुरों में डूबे हुए थे तो उन्हें दर्पण फिल्म पर और भी कुछ गीत याद आने लगे...

दर्पण चीज़ ही ऐसी है ...भाई को दर्पण से गीत याद आ गए ...हमें तो बचपन ही याद आ गया....जब हम लोग बिल्कुल छोटे थे तो घर में एक शीशा होता था जो सारे कुनबे के बालों पर कंघी करने के काम में आता था...और एक छोटा सा शीशा था जिसे पापा अपनी दाढ़ी बनाते वक्त रज़ाई पर ही रख लिया करते थे...और हां, मां के पास भी तो एक बिल्कुल छोटा सा था अपना शीशा हुआ करता था..यह शीशा कोई अलग न था, एक गोल पावडर की डिब्बी में ही फिक्स हुआ रहता था, जिसे मां अकसर ट्रेन में यात्रा करते वक्त अपने पर्स में रख तो लेती लेकिन हमने मां को कभी ट्रेन में इसे इस्तेमाल करते नहीं देखा...कभी कभार किसी शादी ब्याह में ज़रूर वह इस पावडर की डिब्बी को इस्तेमाल ज़रूर कर लेती....उन्हें वैसे भी कासमेटिक्स का बिल्कुल भी शौक न था...

लिखते वक्त कैसे पुरानी पुरानी बातें याद आने लगती हैं...अच्छा, एक भ्रांति थी, थी या है, ख़ुदा जाने ...आज कल तो लोग अपने अपने पिंजरों में क़ैद रहते हैं, किसी फ़ुर्सत है छोटी छोटी बातें करने और सोचने की ...हां, तो भ्रांति यह थी कि अगर मैंने किसी आसपास के बच्चे को या अपने ही बेटे को आइना दिखा दिया तो बडे़-बुज़ुर्ग टोरक देते थे....न कर वे, ओहनूं टट्टीयां लग जानीयां ने ...(इसे शीशा मत दिखा, उसे जुलाब लग जाएंगे)...मुझे तो कभी यह लॉजिक समझ में आया नहीं....कि आईने और जुलाब का यह कैसा रिश्ता है ....और यह बात भी याद आ गई कि कैसे जब हम लोग आठवीं-नवीं कक्षा तक पहुंचते पहुंचते आइने में अपना चेहरा बार बार देखने लगते हैं ....और पुराने दौर में लोग तब उस तरूण का मज़ाक उड़ाने लगते कि देखो, इसे हवा लग रही है....देखते जाओ। 😎ये जो आदमकद शीशे, ये जो ड्रेसिंग टेबल हैं न, ये भी हर घर में कहां होते थे...लेकिन जब इस तरह की चीज़ें घर के लिए खरीदी जातीं तो बहुत अच्छा फील होता था...कईं महीनों, बरसों तक कंघी करने का मज़ा कईं गुना न भी सही, कम से कम दो गुना तो हो ही जाया करता। 

और कुछ गीत जो भाई ने लिख भेजे ...दर्पण पर ...दो तो यही हैं...इन में से किसी पर भी क्लिक कर के आप इन्हें देख-सुन सकते हैं...

तोरा मन दर्पण कहलाए...तोरा मन दर्पण कहलाए...भले बुरे सारे कर्मो को देखे और दिखाए... (फिल्म- काजल, गीतकार- साहिर लुधियानवी) 

दर्पण झूठ न बोले...जो सच था तेरे सामने आया ( दर्पण फिल्म - गीतकार ...आनंद बख्शी) 

दर्पण पर मुझे जो मेरे पसंदीदा गीत याद आ गए वे ये रहे ....

मैं वही दर्पण वही....सब कुछ लागे नया नया .... (फिल्म- गीत गाता चल... गीतकार ...रविन्द्र जैन) 

आईना वही रहता है, चेहरे बदल जाते हैं...(फिल्म- शालीमार -1978- आनंद बख्शी) 

शीशा हो या दिल हो , आखिर टूट जाता है ...(फिल्म-आशा- 1980- आनंद बख्शी) 

मुखड़ा न देखो दर्पण में ...झांको ज़रा मेरे मन में ...(फिल्म- अपना देश- 1972 के गीत ...कजरा लगा के, गजरा सजा के..) गीतकार ...आनंद बख्शी..

भाई का मशविरा है कि दरअसल ये जो सीटी, एमआरआई और एक्स-रे, वैक्स-रे हैं, इन का नाम भी कुछ दर्पण, आईना, शीशे जैसे होना चाहिए क्योंकि वे कह रहे हैं कि ये सब टेस्ट भी कोई कम नहीं हैं...एक आईना ही तो हैं, दूध का दूध पानी का पानी कर देते हैं....और सच सामने ले कर आ जाते हैं....बंदा चाहे हंसे या रो ले...

बात है भी कितनी सही...सच में, हम लोग दुनिया भर के फ़ैसलों को चेलेंज कर लेते हैं, अपनी धन-दौलत और रुतबे का रूआब दिखा कर...ये हम सब देखते ही हैं ...कोई छिपी बात नहीं है ...लेकिन मैं एक बार हमेशा यही कहता हूं कि डाक्टर लोग ही ऐसे हैं, इन की पारखी निगाहें जब कुछ देख लेती हैं, ताड़ लेती हैं और जब ये इन एक्सरे, सीटीस्कैन, एमआरआई रूपी आइने में मरीज़ की तस्वीर देखते हुए अपनी क़लम से अपना फ़रमान लिखते हैं ....उन को कभी कोई चेलेंज नहीं कर पाया, है कि नहीं...इसलिए मैं कहता हूं कि डाक्टर अगर अल्ला, ईश्वर, गॉड न भी हों तो कम से कम उस के भेजे हुए उस के मैसेंजर ज़रूर हैं, जैसे फिल्मों के गीत भी उस ख़ुदा के भेजे बंदे हैं, जिन का मक़सद है आवाम को अपनी अल्फ़ाज़ के ज़रिए रास्ता दिखाना ...