शुक्रवार, 29 मई 2020

कोरोना की पढ़ाई पढ़ते पढ़ते ....

अमूमन लोग इतना डिग्री हासिल करने के लिए नहीं पढ़ते जितना पिछले दो-ढाई महीने में हम सब ने कोरोना की पढ़ाई कर ली...मुझे याद है मेरा ममेरा भाई जो मेरी नानी के पास रहता था, वह बी.ए की परीक्षा आने पर ही दो दिन किताबें देख लिया करता था - एक बार मैं वहीं पर था, उस का मिलिट्री साईंस का फाइनल परचा था- किताब तक उस के पास नहीं थी, अकसर वह किताबों की परवाह न किया करता ...नानी से उसने पैसे लिए, किताब लाया।

किताब भी कौन सी? - किताब के नाम पर एक कुंजी चला करती थी हमारे ज़माने में जो कोई भी परचा पास करवा देने की गारंटी लिया करती थी ... अकसर परचे से कुछ दिन पहले मिलने वाली ऐसी कुंजियां पढ़ने के लिए कम और नकल का सामान (परचियां) बनाने के लिए ज़्यादा इस्तेमाल में लाई जाती थीं...लो जी, मैंने देखा वह रात 9 बजे के करीब वह कुंजी खरीद लाया - फिर मैंने देखा कि वह उस के पन्ने फाड़ फाड़ कर नकल की सामग्री तैयार करने में जुट गया है ...साथ में कहता जा रहा था कि प्रैक्टीकल का तो सब सैट है, बस थियोरी पास करने की मेहनत लगेगी ...पेपर में नकल करने का सिलसिला उस का बचपन से ही चला आ रहा था ... पहले शरीर में जगह जगह नोटस लिख कर ले जाता था...मैं जब उससे पूछता - पपू, तुम्हें डर नहीं लगता, यार। जवाब में जब वह बिंदास हंसता तो मुझे यह बात बड़ी अजीब सी लगती...ख़ैर, उस रात भी वह नकल की परचीआं बनाने में व्यस्त रहा ....मैं और नानी सो चुके थे ...

चलिए, पपू का रिजल्ट तो देख लें, आगे चलने से पहले ...जी हां, वह हाई-सैकंड डिवीज़न में पास हो गया (जो उस दौर में एक छोटा-मोटा स्टेट्स सिंबल से कम न था) ...इसलिए मैंने कहा कि आम तौर पर बी.ए की पढ़ाई के लिए लोगों को इतना पढ़ते नहीं देखा जितना कोरोना ने पढ़ा दिया...

लेकिन आम आदमी ने जितनी भी कोरोना की पढ़ाई की या वह कर रहा है,वह बेकार है- वह वाट्सएप के आंकड़ों से सहम जाता है, अमीर मुल्कों के मरीज़ों की दिल दहला देने वाली तस्वीरें देख कर घबरा जाता है ...क्या क्या लिखें, इसे पढ़ने वाले सब जानते हैं कि हम लोगों ने वाट्सएप पर कोरोना के नाम पर परोसी गई क्या क्या जानकारी हासिल कर ली है ....लेकिन अधिकतर जानकारी उस के लिए थी ही नहीं, उस के किसी काम की थी ही नहीं, उस का उस से कोई लेना देना भी नहीं था...कुछ तो उसे गुमराह करने के लिए ठेली गई थी ...मेडीकल विषय बड़ा विशाल है, यह शौकिया पढ़ने-समझने वाली बात नहीं है ... डाक्टर लोग 10-15 साल पढ़ते हैं ...फिर कहीं जाकर वे उस मुकाम पर पहुंचते हैं जहां वे अपनी बात को अच्छे से कह पाते हैं और मरीज़ भी उन की बात को गंभीरता से लेने लगते हैं ...

तो फिर क्यों वाट्सएप पर हर तरह का कचरा देख कर हम अपना मूड खराब कर लेते हैं...मुझे तो सच में लगने लगा है कि मेरा सिरदर्द का थ्रैशहोल्ड ही कम है, कमबख़्त छोटी छोटी बात पर दुःखने लगता है ...मैं उस दौरान यही सोचता हूं कि हम लोग इस महामारी के बारे में जानते हैं ...लेकिन जो आम इंसान इस के बारे में नहीं जानता उस के ऊपर क्या गुज़रती होगी...लेकिन बात वही है कि वाट्सपर पर मिलने वाली जानकारी को छानना सब को सीखना होगा ....लेकिन यह काम जितना कहने में आसान लगता है उतना है नहीं, कम से कम थोड़ा कम पढ़े-लिक्खों के लिए...लेकिन वाट्सएप पर शेयरिंग के धुरंधरों में कम पढ़े-लिखे क्या और ज़्यादा पढ़े-लिखे क्या..

बातें तो दो चार थीं जो हम सब लोगों को शुरूआती दौर से ही चल चुकी थीं...खांसने, छींकते वक्त इंसान होने का परिचय देना है, एक दूसरे से दूरी बना कर रखनी है, नाक-मुंह को ढक कर रखना है, मिलते समय हाथ मिलाना नहीं है, हाथ साफ रखने हैं  ... बस, बात तो इतनी सी थीपता ..लेकिन उस का बतगंड ऐसा बना कि हम दूसरे चक्करों में पड़ कर सब से ज़्यादा ज़रूरी इन बातों को ही नहीं सही से मान पा रहे हैं ..

पिछले कुछ दिनों से जब से यह थोड़ी-बहुत ढील मिली है, मैंने जब भी बाहर देखा न तो आपस में दूरी बनाए रखने वाली बात का पालन होते देखा और न ही नाक-मुंह ढक लेने की बात का कोई असर होते दिखा ... मुंह पर कुछ लोग ज़रूरत से ज़्यादा हाई-फाई और महंगे फेस-मास्क टिकाए घूम रहे हैं जिन का उन के लिए कौई औचित्य नहीं है, और कुछ ऐसे ही एक पट्टी सी बांध कर बाज़ार के लिए निकल पड़े हैं .. आते जाते दारू की दुकानों पर नज़र पड़ी तो देख कर दुःख ही हुआ ...इस बार दारू के नुकसान के बारे में नहीं, लेकिन बिल्कुल पास पास खड़े लोगों को देख कर दुःख हुआ ...

बहुत से लोगों को देखता हूं कि वे फेसमास्क से मुंह तो ढक ले रहे हैं लेकिन उसे नाक से नीचे ही रखते हैं...लेकिन यह भी खतरनाक है - कितनी बार जगह जगह से कहा जा रहा है कि सादा कपड़ा, गमछा आदि भी आमजन के लिए पर्याप्त है .. लेकिन जो मैंने देखा है इस को कम लोग मान रहे हैं....

एक बात यह हम को समझना होगी कि आज कल आप के सामने वाला हर आदमी (मेरे समेत) एक बायोलॉजिक हथियार लिए हुए है ...वह सक्रिय कब होता है?-  जब वह छींकता है, खांसता है ...और ज़ोर से बात करता है ...ये वे अवसर हैं जब उस के शरीर से ड्राप-लेट्स की तरह निकलने वाले संक्रामक पार्टीकल्स उस के आसपास खड़े दस-बीस लोगों तक पहुंच जाते हैं....अब उस की छींक एक साधारण छींक थी जो गांव में किसी के द्वारा याद करने पर आती है, एलर्जी है ....या कोरोना संक्रमण से है, यह कौन तय करेगा....खांसी उसे किसी पुरानी छाती के संक्रमण की वजह से आ रही है, धूम्रपान एवं प्रदूषण से जुड़ी व्याधियों की वजह से है, या हृदय रोग की वजह से होने वाली खांसी है यह या चक्कर कोरोना का ही है, इन सब के चक्कर में आप पड़ ही नहीं सकते .....और न ही आप उस से उलझ सकते हैं कि हां, भई तुम ने छींका क्यों, खांसी क्यों करी.......बस, हर इंसान इतना ज़रूर कर सकता है कि जब भी भीड़-भाड़ वाली जगह पर निकलें तो नाक-मुंह कवर होना चाहिए....यह जो भीड़-भाड़ वाली बात मैंने कही है -- इस का भी ख्याल रखें कि आप ठेलिया से सब्ज़ी ले रहे हैं, गिनती के तीन लोग हैं ...कौन कब खांस देगा, कौन कब छींक देगा, क्या आप कह सकते हैं......इसलिए नाक-मुंह कवर रखने के अलावा कोई भी रास्ता है ही नहीं...।

फेसमास्क की बात हो रही है....इतना लिखा-पढ़ा जा रहा है भई इस मौज़ू पर भी कि कोई चाहे तो एक छोटा-मोटा थीसिस तैयार कर ले, लेकिन जैसा कि मैं तो पहले ही कह चुका हूं कि ज़्यादा ज्ञान पढ़ना और फिर शेयर करना मेरे बस की बात नहीं है, मेरा तो यह सोच कर ही सिर भारी होने लगता है ...सच में ...हम तो उस ज़माने के पढ़े लिखे लोग हैं जब क्लास में जो हमारे मास्टर जी या बहन ही कह दिया करती थीं, कापी पर लिखवा दिया करती थीं...हम तो भई उस से टस-मस नहीं होते थे, वे चीज़ें हमारे लिए पत्थर पर खुदी लकीरें हुआ करती थीं...उन्हें ही याद कर के रट लेते थे, मान लेते थे और उन पर ही अमल किया करते थे - बस, उन बातों से टस मस होने का सवाल ही पैदा नहीं होता था .. और दूसरे भर के ज्ञान का तो छोड़िए, किताबों में भी क्या लिखा है, उस से भी हमें कोई ज़्यादा सरोकार नहीं होता था, हमें तो बस अपनी तख्ती पर लिखी हुई बात ही शाश्वत सत्य लगतीं।

हमारे ज़माने के हमारे मास्टर जी हमें इतनी सी बात लिखा देते और हम चुपचाप उसे मान लेते ... खांसने, छींकते वक्त इंसान होने का परिचय देना है, एक दूसरे से दूरी बना कर रखनी है, नाक-मुंह को ढक कर रखना है, मिलते समय हाथ मिलाना नहीं है, हाथ साफ रखने हैं  ... बस, बात तो इतनी ही है...!!

अच्छा एक बात और है....छोटी छोटी बातें ही सब से ज़्यादा ज़रूरी हुआ करती हैं.... इन्हें बार बार रेडियो और अख़बार में देखने-सुनने से असर तो होता ही है ... नाक में उंगली डालने की बात करें तो फ़र्क़ कम-ज़्यादा पढ़े लिखे में इतना होगा कि यह काम पढ़ा-लिखा ज़रा परदे में करता है जब उसे कोई देख नहीं रहा है ..लेकिन करते सभी हैं.....लेकिन इन दो महीनों में दो-तीन बार जब कभी मुझ से ऐसी हरकत हुई तो मैं तुरंत बाथ-रूम की तरफ़ भागा हूं और उसी वक्त नाक और हाथ को अच्छे से साफ़ किया है ...असर तो ज़रूर होता है ...इसलिए सही जानकारी का भी पहुंचना बहुत ज़रूरी है ...एक बात है, पहले लोग जल-नेती वगैरह कर लिया करते थे ...नाक साफ रहती थी, अब मेरे जैसों को नहीं आता यह सब कुछ, सीखने की ख़्वाहिश ज़रूर है, ज़रूर सीखूंगा और किया भी करूंगा ..यह बिल्कुल वैज्ञानिक है ...लेकिन जब तक नहीं सीखते सुबह-शाम अच्छे से साबुन से हाथ धोकर नाक साफ़ कर लेने में ही समझदारी है ......आप का क्या ख्याल है, ऐसा नहीं कि मैं कह रहा हूं इसलिए समझदारी वाली बात ही होगी...आप अपनी समझ से चलिए.....जिस किसी से परामर्श करना है, करिए लेकिन छोटी छोटी बातें बेहद ज़रूरी हैं ....

डाक्टर हूं, हर वक्त सर्जीकल मास्क पहन कर घूम सकता हूं .....लेकिन ऐसा जानबूझ कर नहीं करता ....जब मरीज़ों के बीच नहीं होता हूं तो चेहर पर रूमाल इत्यादि ही बांध कर रखता हूं ....लोग जैसा हमें करते देखेंगे, वैसे ही वे भी करने लगते हैं ...लक्ष्य यही होना चाहिए कि लोग वैसे ही इतना ज़्यादा त्रस्त हैं इतने लंबे समय से ...उन्हें आसान सी बातें बताएं, उन्हें चक्करों में मत डालें ....किसी को भी चक्कर में डालना बहुत आसान है, लेकिन चक्करों के चक्रव्यूह से निकालने में थोड़ी मेहनत तो लगती है, ऐसी मेहनत करते रहना चाहिए...कोई भी चीज़ सीख कर तो कोई भी नहीं आता, जो बात हमें मालूम है, उसे बिल्कुल आसान शब्दों में दूसरों तक ज़रूर पहुंचाएं...हमारी बात में जितनी संप्रेष्णीयता होगी, उतना ही व असर करेगी..।

आज के लिए अभी के लिए इस डायरी को यहीं बंद कर रहा हूं... जाते जाते यह गाना सुनिए...



सोमवार, 25 मई 2020

बड़े शहरों की बुनियाद ये आम लोग...

श्रमिक घर लौट रहे हैं ...जो रेलगाड़ियों से आ पा रहे हैं, उन्हें देख कर सुकून मिलता है ...और जो तस्वीरें हमने पिछले दिनों देखीं सड़क के रास्ते आने वाले श्रमिक जो हर तरह की दुश्वारी झेल कर- भूखे, प्यासे, बाल-बच्चों और बुज़ुर्ग मां-बाप के साथ, शिखर दोपहरी में रिक्शा पर, ठेलिया पर, नहीं तो पैदल ही गांव के रास्ते पर चल निकले हैं ....उन्हें देख कर मन दुःखी भी हुआ और बार बार उन के सही सलामत अपने अपने आशियाने तक पहुंचने की दुआ करता रहा।

ज़िंदगी ज़िंदाबाद ...👍
अभी कुछ समय पहले वाट्सएप पर देखा कि अपने जिस साथी की आज लखनऊ के चारबाग स्टेशन पर बाहर से आने वाले श्रमिकों की स्क्रिनिंग करने की ड्यूटी लगी थी ...उस ने कुछ तस्वीरें शेयर की थीं...उन में से एक फोटो को ध्यान से देखा तो ऐसे लगा जैसे एक श्रमिक थर्मल स्कैनिंग के वक़्त अपनी शेल्फी लेने के चक्कर में है ...। उसे देख कर मुझे कैसा लगा ? - उसे देख कर मुझे हंसी आई ....लेकिन यह हंसी किंचित भी किसी की हंसी उड़ाने वाली हंसी न थी, यह वह हंसी थी जो मुझे अकसर अपने ऊपर भी आ जाती है ...हां, तो मुझे उस श्रमिक की इस छोटी सी बात से यह अहसास हुआ कि हिंदोस्तान का आम आदमी भी कितना ज़िंदादिल है ...जैसा कि मेरे साथ होता है, मेरे से रहा नहीं गया....मैंने कुछ लिखा...वाट्सएप ग्रुप पर लेकिन उसे तुरंत पोंछ दिया...क्योंकि मुझे अधिकतर वाट्सएप ग्रुप्स पर कुछ ज़्यादा मज़ा आता नहीं ...बहुत से कारण हैं इसके, लेकिन यह मुद्दा नहीं है ..।

उस फोटो को ज़ूम कर के देखा ...मेरे से रहा नहीं गया, मैंने तुरंत उस डाक्टर को ही फोन मिलाया जिसने ये तस्वीरें भेजी थीं...मैंने उसे कहा कि भाई, ये जो बंदा अपनी शेल्फ़ी खींच रहा है, इस की ज़िंदादिली ने तो मेरे दिल को छू लिया ...पता नहीं बंदा कहां से आ रहा है, कहां जाना है, इस स्टेशन से आगे जाने का क्या ठिकाना है, रहने, खाने-पीने का शायद ही कोई ठौर-ठिकाना होगा...लेकिन इस शख़्स की ज़िंदादिली पर प्यार आ गया ...इन हालात में भी शेल्फ़ी लेने के चक्कर में है...। उस डाक्टर ने बताया- शेल्फ़ी कहां, वह तो वीडियो बना रहा था, उसे मेडीकल स्टॉफ को कहना पड़ा कि जल्दी आगे चलिए, भाई, भीड़ इक्ट्ठा हो रही है..

शेल्फ़ी लेने के बारे में बहुत सी बातें आती रहती हैं ...लेकिन मुझे कभी भी कोई बंदा शेल्फ़ी लेता आक्वर्ड नहीं लगा- भला ऐसा क्यों ? - उस का कारण मैं बाद में बताता हूं ...लेकिन अभी एक बात और याद आ गई कि हम लोग कुल्लू से मनीकरण गुरुद्वारा जा रहे थे ..जून 2007 की बात है ...इतनी खराब सड़क, भुरते हुए किनारे, नीचे ब्यास दरिया अपने उफ़ान पर ...यकीं मानिए, उस सड़क पर एक तरफ़ से ही जैसे गाड़ियां जा रही थीं, देख कर डर लग रहा था...ऐसे में दूसरी तरफ़ से आती गाड़ी देख कर तो क्या हालत होती होगी, हम लोग आज भी याद करते हैं तो कांप जाते हैं ...लेकिन फिर भी पहाड़ के एक्सपर्ट ड्राईवर कैसे कट-वट मार कर....एक दूसरे को रास्ते देते-लेते अपने ठिकानों की तरफ़ चले जा रहे थे ...लेकिन उस दिन के बाद मुझे कभी भी ट्रैफिक जाम से डर नहीं लगा .......जैसे मैंंने कहा न कि मुझे कभी भी कोई भी शेल्फ़ी लेता बंदा गलत नहीं लगता, अब नहीं लगता तो नहीं लगता, क्या करें......बस, मैं यह दुआ ज़रूर करता हूं कि आज कल के युवा रेलवे लाइनों पर और ख़तरनाक पहाड़ियों पर खड़े होकर शेल्फी न खिंचवाया करें....

मेरे घर आई इक नन्हीं परी ...रेलगाड़ी पर हो के सवार !!
कल भी जिस डाक्टर की ड्यूटी थी उसने भी एक श्रमिक की पत्नी की डिलीवरी के बारे में लिखा था ...साथ में उस प्यारी सी  बच्ची की फोटो भी थी...ऐसे हालात में उस परी ने इस दुनिया में आंखें खोली थीं ...जच्चा-बच्चा को अग्रिम देखभाल के लिए लखनऊ के दूसरे अस्पताल में उन्हें तुरंत रेफर भी कर दिया गया था ...यह तस्वीर दिखाई दी तो इस परी की अच्छी सेहत की दुआ की और अपने मां-बाप के साथ सही सलामत अपने घर पहुंचने की प्रार्थना की ..

बस, ऐसे ही यह लिखने बैठ गया .... आम आदमी की ज़िंदादिली को सलाम करने के लिए....कभी भी देखिए, मैंने तो बहुत कुछ देखा है, देख देख कर बुड्ढा हो गया हूं कि आम इंसान को जितनी दुश्वारी होती है उन्हें उतनी ही कम शिकायत होती है किसी भी व्यवस्था से ....मैं अकसर यह सोच कर बहुत हंसी आती है कि जैसे जैसे रेल गाड़ी की यात्रा का दर्जा बढ़ने लगता है ...शिकायतों उन की ही सब से ज़्यादा होती हैं ...कभी आप भी इस तरफ़ गौर फरमाईएगा..

अनुपम खेर की एक फिल्म आई थी ..ए वेडनेसडे ---अच्छी फिल्म थी ...एक डॉयलाग था उसमें - never underestimate the power of a poor bloody common man! आम आदमी के साथ मैं कोई विशेषण नहीं लगा रहा हूं ....क्योंकि मैं समझता हूं कि जिन्हें हम श्रमिक कहते हैं, आम जन कहते हैं ....यह भी बहुत ज़हीन होते हैं ...और ज़िंदादिल भी .... वो बात अलग है कि रोज़ी-रोटी के लिए इन्हें अपने गांव-कसबे को छोड़ कर दर-बदर भटकना पड़ता है ...और बड़े शहरों में इन श्रमिकों के साथ जैसा व्यवहार होता है ... वे किन हालात में वहां गुज़र-बसर करते हैं ...सामाजिक सुरक्षा नाम की कोई चीज़ नहीं होती इन के पास.... यह सब हम जानते ही हैं......इस सब के बावजूद भी अगर इन में से कुछ लोग अपनी ज़िंदादिली कायम रख पाते हैं तो उन के इस जज़्बे को सलाम करना तो बनता है ......है कि नहीं!

हिन्दुस्तान दिनांक 25 मई 2020, लखनऊ 

और हांं, मैंने ऊपर लिखा है कि दो अढ़ाई बरस पहले मेरी मां जब हम से रूख़सत हुई तो मैं और उस के पोते उन के पार्थिव शरीर के साथ शेल्फ़ी ले रहे थे ...इसलिए उस दिन के बाद मुझे कभी भी कहीं भी कोई भी शेल्फ़ी लेता अजीब नहीं लगता ... (बस, वह अपनी सुरक्षा का ध्यान रख रहा हो..) ...अच्छा, एक बार फिर से दुआ करते हैं कि सभी श्रमिक सही सलामत अपने अपने ठिकाने पर पहुंच जाएं और इन्हें अपने गांव, खेत-खलिहान से ही इतना कुछ मिल जाया करे कि इन्हें अपना घर-बार छोड़ कर दर-बदर भटकना ही न पडे़ कभी ..........आमीन......आज ईद है, काश! यह दुआ भी कुबूल हो जाए!

बचपन के दौर का सब से पहला गीत जो मुझे अकसर याद आता है ...(रेडियो पर खूब बजता था यह) 

मंगलवार, 19 मई 2020

वाट्सएप पर कुछ भी फारवर्ड करने से पहले ...

वाट्सएप पर हम जिन लोगों से जुड़े होते हैं ... अकसर उन का मिज़ाज भी अच्छे से समझने लगते हैं ....कुछ का तो जैसे काम ही सनसनी फैलाना होता है ...और ख़्याल आता है उन की पोस्टें देख कर कि ख़बरिया चैनलों से भी ज़्यादा तेज़ी से तो ये सनसनी फैला रहे हैं ...कईं बार आपने देखा होगा कि चैनल वाले तो फिर भी कुछ तस्वीरें नहीं दिखाते और साथ में कह देते हैं कि ये तस्वीरें आप को विचलित कर सकती हैं ..लेकिन वाट्स पर तो बाप-रे-बाप -इतना ज्ञान, इतनी खौफ़नाक तस्वीरें ...बच्चे, बुज़ुर्ग सभी देखते हैं ..सहम जाते हैं ...आप और मैं जितना मर्ज़ी सोच लीजिए इस का कुछ नहीं कर सकते ...ये आत्म-संयम का मामला है ...और हर किसी की मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा हुआ मुद्दा है ...

हां, तो हुआ यूं कि इसी महीने की शुरुआत के दिनों की ही बात होगी ...एक डाक्टर ने किसी ग्रुप में एक पोस्ट शेयर की जिसमें लिखा था  कि अब जितना भी सामान आप के पास है, उसी से ही काम चलाएं ...बाहर न निकलें ..अगले एक हफ्ते का वक्त बड़ा निर्णायक हैै ...क्योंकि कोरोना का वॉयरस हर तरफ़ हवा में फैल चुका है ..। 

एक बडे़ सीनियर डाक्टर की यह पोस्ट देख कर मुझे ऐसा लगा कि शायद इसे पहले भी मार्च के आखिरी दिनों में कहीं देखा होगा ..लेकिन फिर लगा कि मुझे ऐसे ही लग रहा होगा...वाट्सएप माल के ढ़ेरों पार्सल तो रोज़ाना पहुंचते हैं ...लेकिन उस पोस्ट को पढ़ कर मुझे बड़ी फ़िक्र हुई .....जिस वक्त मैंने यह पोस्ट पढ़ी उस वक्त यही कोई रात के साढ़े नौ बजे थे ...लेकिन यकीं मानिए उसे पढ़ कर मेरा मन बहुत उदास हो गया .......और मैंने चादर तानी और लमलेट हो गया..। मैं इस पोस्ट पर इतना यकीं कर बैठा क्योंकि यह एक सीनियर डाक्टर ने भेजी थी...

सुबह उठते ही जैसा हम सब लोग मोबाइल देवता के दर्शन करते हैं ...मैंने जैसे ही वाट्सएप खोला तो मुझे उस पोस्ट के जवाब में एक पोस्ट दिखी किसी दूसरे डाक्टर की जिसने उस पोस्ट के जवाब में लिखा हुआ था कि यह तो पोस्ट 26 मार्च की थी ...मैंने पहले ही आप को बताया कि शक तो मुझे भी था .. 😅....बहरहाल, उस डाक्टर का जवाब पढ़ कर मेरी तो भई जान में जान आई ..क्योंकि हर तरफ़ हवा में वॉयरस होने का मतलब बड़ा खौफ़नाक होता है .. ज़ाहिर है यह एक फ़र्ज़ी क़िस्म की पोस्ट थी। हो जाता है, हम से किसी से भी कभी भी ऐसे अचानक शेयर अथवा फारवर्ड हो ही जाता है, कोई बड़ी बात नहीं है।

मैं आज इतने दिनों बाद यह सब क्यों लिखने बैठ गया ....अच्छा तो हुआ यूं कि आज संयोगवश हमने एक पोस्ट देखी ... यही वाट्सएप पर ही थी ...बंबई में कोई सीनियर डाक्टर ने हम लोगों को यह ताक़ीद की थी कि वाट्सएप पर कुछ भी ठेलने से पहले अच्छे से उसके बारे में सोच समझ लिया करें - अभी मैं उस आर्टीकल यहां ही चस्पा किए दे रहा हूं ..इंगलिश में है, आप अगर पूरा पढ़ना चाहें ...उन्होंने लिखा कि पिछले दिनों सायन हास्पीटल मुंबई में कोरोना की वजह से जिन लोगों की तकलीफ़ें वाट्सएप पर दिखाई गईं ....उन को देखने पर उन्हें कुछ 54 साल पुरानी बातें अपने बचपन की याद आ गईं ...वह 13-14 बरस के थे ...1967 की बात है ..उन का गला दुखने लगा ...घर में सब ने कहा कि कोई बात नहीं, सब ठीक है ...लेकिन उन की मां को लगा कि नहीं कुछ तो गढ़बढ़ है ...वे बालक को लेकर डाक्टर के पास गईं ..लेकिन यह कोई आम रोग नहीं था ...जिस की दवाई देकर मरीज़ को घर भेज दिया जाता ...यह तो डिप्थीरिया (गल घोंटू) रोग था ...जो एक बेहद संक्रामक (संचारी) रोग था ...इस के ग्रस्त होने वालों की मौत बड़ी पीड़ा दायक होती थी ... उन दिनों इस का टीका अभी नहीं आया था...

वह डा्क्टर अपने ब्लॉग में लिखता है कि उसे फ़ौरन एक आइसोलेशन वार्ड में भर्ती कर दिया गया....किसी को अंदर आने की इजाज़त नहीं थी ...मां भी बाहर ही से देखने को तरस जाती कि मैं ठीक तो हूं ...डाक्टर लिखता है कि मेरी उम्र तेरह बरस होेने की वजह से मुझे बडे़ लोगों के वार्ड में ही रखा गया ...जहां मैंने बड़ा दुःख देखा ...एक दिन मेरे साथ वाले बिस्तर वाला मरीज़ चल बसा ...मुझे यह पता चला कि किस तरह से मृत-मरीज़ के शरीर को उन के परिजनों को सौंपने से पहले कितने और मुद्दे होते है ं...फिर वह डाक्टर लिखता है कि मैं दो दिन कोमा में रहा ..दो दिन बाद जब मैं सुबह उठ पाया तो मैंने ईश्वर का शुक्र किया कि मैं उठ तो पाया ... ऐसे ही फिर उस आइसोलेशन वार्ड में जब तक उस के बाहर आने का दिन नहीं आया वह डाक्टरों और नर्सों की मदद करने लगाा ...किसी मरीज़ को दवाई और किसी को खाना देने लगा ...लंबी बात को छोटी करूं तो यह है कि उस के मन में डाक्टर बनने के लिए एक इच्छा पैदा हो गई ...

जब वह बिल्कलु ठीक हो गया और जिस दिन घर आया तो मां ने उस की पसंद का खाना उसे ठूंस ठूंस कर खिलाया ...उसने मां से कहा कि मैं भी डाक्टर बनूंगा... हां, फिर वह डाक्टर कहता है कि ज़िंदगी में यह ऐसा मोड़ था जिस की वजह से वह डाक्टर बन गया और वह निरंतर रोगियों की सेवा में लगा हुआ है ...डिटेल्स आप उस लेख में पढ़ लीजिए....

I am a Doctor in Mumbai ..please forward and receive whatsapp with care! (Click on this to read)

हिंदी में तो मेरे से जैसा लिखा गया, मैंने लिख दिया ......बाकी आप इस लिंक पर जा कर पढ़ लीजिए......वह लिखता है कि उसे यह भी मालूम हुआ बचपन में उस बीमारी के दौरान ही कि क्यों कर  लोग आइसोलेशन-वार्ड आदि के नाम से भागते हैं ...लेकिन अगर वह आप के और दूसरों के हित में हो तो करना ही पड़ता है ......उस का पैग़ाम यही है कि जब किसी अस्पताल में शवों की तस्वीरें दिखाई जाती हैं आज के सोशल-मीडिया पर तो यह बात भी याद रखने की है कि ये अस्पताल इंसानियत के वो मंदिर-मस्जिद हैं (पता नहीं यह लिखा है कि नहीं उसने ....चलिए, अगर मैं जोड़ भी रहा हूं तो अच्छी बात ही है..) ...जहां से बहुत से लोग दूसरी ज़िंदगी का तोहफ़ा लेकर फिर से अपने आशियाने में अपनों के बीच भी लौटते हैं ..जैसा कि वह ख़ुद लौटा ...जीवन दान पाते हैं ...उन दयालु-कृपालु डाक्टरों की कृपा  से ...

मुझे डाक्टर की बात सुंदर लगी इस लिए सोचा हिंदी में लिख कर शेयर करते हैं ....

हां, वाट्सएप पर शेयर बहुत कुछ हो रहा है ...अब सोच रहा हूं इतने ज़्यादा कंटैंट आने लगा ...किस को पढ़ें, किस को छोड़ें ....दो चार दिन पहले एक आदमी ने घर ही में अपनी हजामत करते हुए की एक वीडियो डाल दी ....उसे कईं ग्रुप्स में देखा ....हमें तो देख कर ही सहम गये ...हम तो ये सब कहां ट्राई करेंगे ......लेकिन देखने में ही लगे कि अगर कोई ऐसी चीज़ें ट्राई करने लगे और वह अपने आप को कोई गंभीर चोट लगवा बैठे तो आप किसे दोष देंगे ..


यह वक़्त इस तरह के ख़तरों के खेल खेलने का तो नहीं है, अगर कुछ भी ऊंच-नीच हो जाए तो क्या करेंगे....चिकित्सा सेवाओं पर वैसे ही तरह तरह की पाबंदीयां हैं ...

वाट्सएप भी अजीब चीज़ है....मेरा तो मन भर चुका है इस से भी ...न्यूज़-चैनल हो या टीवी ...अब देखने की इच्छा ही नहीं होती ...कितना लंबा अरसा हो गया है ...पिछले 60 दिनों में मुझे नहीं लगता कि मैंने कभी किसी खबरिया चैनल को देखा हो ....हां, दो चार बार एनडीटीवी इंडिया लगा देखा तो पांच दस मिनट ज़रूर देखने लगा ...लेकिन वाट्सएप पर अब सामान बहुत आने लगा है ,..दरअसल कोई पता ही नहीं कौन किसे कैसी नसीहत दे रहा है, क्यों दे रहा है....कल मुझे बड़ी हंसी आई -एक ग्रुप में एक मेडीकल ज्ञान से जुड़ा एक लेख सा था ...अच्छा लगा ...मैंने देखा तो वह हमारे अस्पताल का ही एक अटैंडेंट हमें ज्ञान बांट कर चला गया....मुझे वह सोच कर बड़ी हंसी आई। वैसे तो ज्ञान कहीं से आए उस का स्वागत होना चाहिए...लेकिन फिर भी ....आप समझते ही हैं कि अगर किसी विषय़ के बारे में हमारी कोई शैक्षित योग्यता इत्यादि ही नहीं है तो इस शेयरिंग-वेयरिंग के चक्कर में पड़ा ही क्यों जाए..

बड़ी जल्दी होती है हम लोगों को आगे से आगे बातें शेयर करने की .......लेकिन कोशिश करिए कि थोड़ा देख-जांच के ...कोई रेस नहीं लगी हुई ...ग्रुप में जब कोई किसी को मुबारक बाद देने लगे तो बड़ी सिरदर्दी लगती है ..क्योंकि अगले 100 मैसेज --पहले 50 उस को मुबारक बाद देने वालों को और फिर उस के अगले 50 उन का शु्क्रिया अदा करने वाले मैसेज ...सजा लगती है ऐसे 100 मैसेज पढ़ना ...आप फोन उठाइए, उसे मुबारकबाद दीजिए...उस से पार्टी लेने की तारीख़ तय कीजिए...कुछ भी करिए.

सारा दिन कोरोना ..कोरोना ..कोरोना ...आंकड़े ...आंकडे़ ....आंकड़े ---अब यह दर इतनी फ़ीसदी हुई और अब इतनी फ़ीसदी हुई ...यह दर घट गई और यह बढ़ गई...सच दिमाग का दही बन जाता है ...अब तो मैं बहुत से ग्रुप्स में जाता ही नहीं हूं रोज़ ---कभी फ़ुर्सत हुई तो देख लिया...

हां, एक बात ...पहले यह भी चलन था कि लोग अपनी बगिया के फूलों की तस्वीरें शेयर करते थे वाट्सएप पर ....सुबह सुबह ...अच्छा लगता था...कोई सुबह के नैसर्गिक नज़ारे की तस्वीर भेजता था ....मुझे हमेशा ऐसे लगता है कि जो भी भेजिए...मौलिक भेजिए -- चाहे दो अल्फ़ाज़ ही लिखिए ..लेकिन ख़ुद लिखिए...उन्हें पढ़ने में ही मज़ा आता है ....  वैसे देखा जाए तो इस वाट्सएप में ऐसा पोटैंशियल है कि यह हमें एक तरह से ख़तो-किताबत की सुविधा मुहैया करवा रहा है ...और उस से भी बढ़ कर उस में हम फोटो भी चिपका दें, वीडियो भी नत्थी कर दें, वीडियो कॉल करें, ऑडियो नोट भेजें ...कुछ भी ... सोचने वाली बात यह है कि क्या हम वाट्सएप का पुरा इस्तेमाल कर भी पा रहे हैं? 

मुझे तो कुछ बात अगर नहीं सूझती तो मैं तो साठ-सत्तर के दशक को कोई गाना या कोई नया सा, बढ़िया सा GIF ही चिपका कर भाग लेता हूं ... 



बुधवार, 6 मई 2020

कोरोना को धोते धोते कहीं ...

कल बाद दोपहर मैं फल खरीदने के लिए सड़क किनारे लगी एक रेहड़ी के पास रूका. वहां पर पहले से एक दंपति फल ख़रीद रहे थे ..मैं थोड़ा दूर खड़ा हो गया...मैंने देखा कि उन्होंने तो मॉस्क के नाम पर कुछ पहना तो हुआ है ...लेकिन उस फल वाले ने अपना मुंह नहीं ढका है ..मैंने उसे कहा कि मुंह ढके रखो...उसने झट से अपने पास ही पड़े गमछे को उठाया और यह कहते हुए कि अभी तो लगाया हुआ था ...उसने वह मैला-कुचैला कपड़ा अपने मुंह पर टिका लिया ...।

पिछले कुछ दिनों में कईं बार देखा है गुटखा, पान आदि चबाते लोग अपने मुंह पर लगी काली पट्टी नुमा लगे मास्क के इलास्टिक को थोड़ा इधर-उधर करते हैं, पीक थूकते हैं और वापिस उस मास्क को मुंह पर सेट कर के मुतमईंन हो लेते हैं...मेरा एक मित्र हंसते हंसते लोटपोट हो रहा था जब वह अपने दफ़्तर का किस्सा सुना रहा था कि वहां पर अंदर जाते वक्त किसी तरह की सोशल-डिस्टेंसिंग का पालन नहीं हो रहा था ..एक बात ...दूसरी बात जो उसे बड़ी अजीब लगी कि हर आने वाले शख़्स का दूर से तापमान देखने वाला कर्मचारी बीच बीच में मोबाइल पर बतियाए जा रहा था ....मुंह में पता नहीं सुपारी जैसा कुछ चबाए भी जा रहा था, दूसरे हाथ से एक मंजे हुए वैज्ञानिक की तरह लोगों को तापमान मापे भी जा रहा था...और खास बात यह कि अपना मॉस्क भी ऊपर-नीचे किए जा रहा था ..और मित्र ने बताया कि अपनी और दूसरों की सुरक्षा का इतना ढुल-मुल रवैया रखते  हुए भी कोरोना-वारियर वाला चोगा उसने पूरा चढ़ाया हुआ था।

दफ़्तर के अंदर जाने वाले किसी शख़्स से वह मुलाज़िम उलझ गया कि मुझे क्या पता कि तुम पैरासिटामोल खा कर आए हो ....अब वॉटसएप ने हरेक को इतना पढ़ा लिखा तो बना ही दिया है कि सामने से वह आदमी बोला कि ये जिन लोगों को अंदर घुसने दे रहे हो, तुम्हें क्या पता कि इनमें से कितने लोग घर से पैरासिटामोल खा कर आए हैं...।दोस्त कहने लगा कि यह जो हम लोग डिस्क्रिशन पॉवर का बडा हो-हल्ला मचाए रहते हैं न - यह भी फ़क़त बड़े साब लोगों की ही नहीं होती, ये हर इंसान के पास होती है ...अब यही इंसान की सुनिए, अगर फोन पर बात करते वक्त हो गई कुछ गर्मा-गर्मी तो सारा कानून, खुन्नस अगले इंसान पर कि तुम्हें मास्क लगाना भी नहीं आता और अगर मूड है खुशनुमा तो कोई बात ही नहीं, बीच बीच में "जान पहचान वाले"  एक दो लोग अकड़ कर सीधे घुसे जाते भी दिख जाते हैं...

और उस मित्र ने बताया कि दफ़्तर के अंदर जाने से पहले पैर से आप्रेट होने वाली हाथ धोने की और टूटी जिस के साथ ली गई बीसियों शेल्फ़ीयां वॉयरल हो गईं थीं, आज उस का पैर से दबाने वाला हिस्सा चालू ही नहीं हो रहा था ...हंसते हंसते कहने लगा कि चलो यार उस का भी कोई ग़म नहीं क्योंकि उस पानी की ज़रूरत तो तभी पड़ती जब हाथ धोने वाला लिक्विड-सोप हाथ पर लगाया होता ....लेकिन उसे तसल्ली इस बात की हुई कि लिक्विड-सोप ख़त्म हो चुका है, अलबत्ता उस का डिलीवरी सिस्टम बिल्कुल काम कर रहा था ...चलिए, हाथ-धुले, नहीं धुले उस टेम्परेचर चैक करने वाले मुलाज़िम वाले नाके से भी पास हो गये ...तभी एक दूसरा मुलाज़िम दफ़्तर के अंदर घुसने वाले हर शख़्स की हथेली पर चंद बूंदे सेनेटाईज़र की रख रहा है ...

जी हां, यह आज कल दफ़्तर में या किसी अस्पताल के बाहर भी ऐसा नज़ारा देखने को मिले तो चौंकिए नहीं -- कुछ बातें दुरुस्त करने की ज़रूरत है हम जानते हैं लेेकिन बहुत सी बातें इन दफ़्तरों के बस की हैं भी नहीं और शायद हो भी नहीं सकती ...कह देना बहुत आसान है कि हर आने जाने वाले को फेस-मास्क दिया जाएगा ...सेनेटाईज़र से उस के हाथ सेनेटाईज़ किए जाएंगे ...ये सब बातें पढ़ने-सुनने और देखने में आदर्श तो लगती हैं लेकिन जब तक हर शख़्स अपनी सुरक्षा का जिम्मा ख़ुद नहीं लेगा, बहुत मुश्किल है कुछ भी कर पाना। चलिए, यह एमरजैंसी है, शायद आम आदमी को नसीहत की मुग़ली-घुट्टी पिलाने का मौका भी नहीं है, इसलिए जैसी व्यवस्था चल रही है, जो मुहैया करवाया जा रहा है उसे स्वीकार करिए और अपनी भी ज़िम्मेदारी समझिए...

बहुत से बुज़ुर्ग लोगों को भी देखता हूं - घर में तैयार हुए कपड़े के मॉस्क अच्छे से मुंह पर लगाए निकलते हैं...मंद रफ्तार से सोशल डिस्टेंसिंग का पूरा ख़्याल रखते हुए अपनी खरीदारी करते हैं और आराम से अपने आशियाने के लिए पैदल या साईकिल पर इन्हें लौटते देखता हूं ...अच्छा लगता है कि ये अपना ख़्याल रखते हैं ...बाकी रही बात बाहर इन के साथ गुफ़्तगू करने वाले लोग -- हम जितने मर्जी़ जहां भर के आडंबर कर लें लेकिन कटु सत्य यह है कि हमारी आबादी का यह हिस्सा अकेला था और अकेला ही है ...ख़ैर, जो है सो है....अभी तो कोरोना को धोने की बात हो रही है, यह कहां मैं बागबान की तरफ़ निकल गया...

आगे चलते हैं ...चलते क्या हैं, पहले तो यह बता दूं कि मैंं आज मैं इत्ती सवेरे कैसे उठा बैठा हूं ....इस समय सवा चार बजे हैं, मैं तीन बजे से उठा हुआ हूं ...क्योंकि रात होते ही मच्छरों के आतंक की वजह से मैं सोने के नाम से खौफ़ खाने लग गया हूं ...लखनऊ की शायद सब से साफ़ सुथरी कालोनी में रहते हैं ...एक पत्ता भी नीचे गिरा नज़र नहीं आता ...लेकिन फिर भी मच्छर इतने हैं ...मच्छरदानी, ऑल-आउट, ऑडोमास और वह जो इंस्टैंट-मच्छर मार टिकिया आने लगी है ....ये सब एक साथ इस्तेमाल होते हैं लेकिन फिर भी हालत ऐसी है कि मैं कल बेटे को कह रहा था कि ऐसा कुछ नहीं हो सकता है कि हम लोग रात में काम करें और सुबह सोते रहें ......वह कहने लगा कि यही तो मैं कहता हूं, लेकिन जब मैं कहता हूं तो आप को ठीक नहीं लगता ...मैंने कहा कि तुम तो भाई नेट-फ्लिक्स के चक्कर में कहते हो ...

हां, मच्छर गुणगान यह इसलिए चल पडा़ कि गुज़रे दौर में यह भी किसी के रूतबे का एक इंडिकेटर हुआ करता था कि उस की कॉलोनी में कीटनाशक दवाई का छिड़काव या फॉोगिंग कितने अंतराल के बाद होती है ..पंजाबी में एक बड़ी मशहूर कहावत है कि किसी का मत्था ढमना --- इस का मतलब यह है कि किसी के लिए दिखावटी उपाय कर देना ...इसी तर्ज़ पर बरस में एक बार इस तरह का छिड़काव भी हो जाता रहा है यहां वहां ...जहां पर यह करना ज़रूरी होता है ..ज़रूरी का मतलब आप ख़ुद समझ लीजिए...यह तो थी मच्छर की बातें .....बातें तो अब करनी हैं कोरोना की .....कल मैंने अपने फ्लैट की बालकनी से देखा कालोनी में एक पानी के टैंकर जैसी गाड़ी घुसी और उस पर कुछ स्प्रे करने वाला कुछ यंत्र लगा हुआ था ...और यह सड़कों पर और कॉलोनी के पेड़ों और बेलों पर छिड़काव किए जा रहा था ...एक बार तो मुझे लगा कि.. दो महीने में एक बार इस तरह के छिड़काव से भला क्या होगा....लेकिन और कुछ होगा कि नहीं होगा ...किसी की छवि तो चमकेगी क्योंकि रात होते होते कॉलोनी वाले वाटसएप ग्रुप पर कॉलोनी के उस शख़्स का शुक्रिया अदा करने वाले का तांता लग जाता अगर कॉलोनी के सैक्रेटरी ने उस ग्रुप को वन-वे ट्रैफिक न किया होता ....क्योंकि उसमें केवल हम उस के भेजे मैसेज पढ सकते हैं ....

गुड मार्निंग, लखनऊ ....

हां, तो यह जो संभावित सोडियम-हाइपोक्लोराइट के छिड़काव की बात है ....बात अच्छी है या बुरी, मैं यह भी नहीं जानता, क्योंकि विभिन्न सार्वजनिक जगहों पर तो जब लोगों के ऊपर इस तरह का छिड़काव कुछ दिन पहले किया गया तो मीडिया में इसकी बहुत आलोचना हुई कि यह आप लोग क्या कर रहे हैं, इस तो आम लोगों को नुकसान हो रहा है ....और कॉलोनी जैसे बडे़ इलाके में इस तरह का छिड़काव ख़ुश करने का फ़क़त एक ज़रिया बेशक हो सकता है ...और कुछ नहीं ...क्या हमें लगता है कि अमेरिका के पास धन-वैभव की कमी है .....और अगर इन सब चीज़ों से कुछ ज़्यादा लाभ होने वाला होता तो क्या वह कम करता ...इसलिए अब हम लोग भी ख़ुश करने वाली मानसिकता से, या चुप करवाने वाली या मुंह बंद रखवाने वाली गुलामों वाली मानसिकता से बाहर निकलें जितनी हो सके उस से भी जल्दी तो बेहतर होगा .....हर बात का औचित्य ख़ुद ढूंढें ...यह कोई बताने नहीं आएगा ...क्योंकि अभी भी मार्कीट शक्तियां बड़ी हावी हैं ...हैरानगी तो इस बात की है कि इस कोरोना के दौर में भी ... इसलिए सच ख़ुद तलाशना होगा और जब कहीं मिल जाए तो उसे कम से कम उन लोगों के साथ तो ज़रूर बांटिए जिन के पास वाट्सएप नहीं है, और जो आसानी से आप की बात पर यकीं भी कर लेंगे क्योंकि सोशल-मीडिया से जुड़े लोगों को सचेत करने के लिए तो दुनिया भर के संदेशे हैं...वे देर-सवेर अपना सच ख़ुद ही ढूंढ लेंगे ..उन की रिसर्च अलग तरह की है ..

हम लोग अस्पताल से ड्यूटी कर के आते हैं तो यकीं मानिए ऐसे लगने लग गया है जैसे पता नहीं कहां से हो आए हैं...सीधा बाथ-रूम का रुख करते हैं ...हाथ अच्छे से धोते हैं ....मुंह धोते हैं ...फिर कपड़े बदलते हैं, उतारे हुए कपड़े बाहर बालकनी की तार पर ही छोड़ देते हैं ताकि अगर कोरोना के कीटाणु उन पर चिपके हैं तो वे मर जाएं ... फिर अपने जूते को भी बालकनी में ही छोड़ देते हैं ताकि उसे धूप-हवा लगे ...अपने मॉस्क को उतार कर एक पन्नी में रखते हैं क्योंकि चार-पांच दिन  बाद उस का नंबर आएगा ....फिर मोबाइल को सेनेटाइज़ करते हैं ....इतना सब कुछ करते करते थक जाते हैं ...प्यास लग जाती है ...झल्लाहट होती है कि कमबख़्त यह सब कब ख़त्म होगा, हम लोग कब चैन की सांस लेंगे ..और हां, फिर हाथ में जो भी कागज़, चाभी या कोई सामान जो बाहर से लेकर घर में अंदर घुसे थे...फिर शक की सूई उस पर जा टिकती है ....लेकिन जब तक दिमाग़ का दही बन चुका होता है ...और चुपचाप सोफे पर पसर जाते हैं ...

लेकिन यह क्या , जैसे ही सैनेटाईज़्ड मोबाइल को हाथ में लिया ....और वाट्रसएप देवता के दर्शन किए ...उसी वक्त ख़्याल आया कि यह सेनेटाईज़र से एक तरह की ओबसैशन के चलते अभी भी हम लोग अपनी सोच को तो सेनेटाईज़ कर ही नहीं पाए ...  वही ज़हनियत ...बस, फ़र्क़ इतना कि अब जिम खुल नहीं रहे, बाहर टहलने में भी रोका टोकी है, ऐसे में सोशल-मीडिया पर ही कोई धार्मिक पोस्ट उछाल कर वहीं पर थोडी़ दिमाग़ी कसरत ही क्यों न कर ली जाए.......कल भी यही हुआ ......अच्छे पढ़े -लिखों के ग्रुप में किसी ने एक वीडियो डाल दी ..जिसमें किसी प्राईव्हेट अस्पताल के किसी कर्मचारी ने किसी मरीज़ से पूछ लिया कि उस का मज़हब क्या है......ज़ाहिर सी बात है वह शख़्स भड़क गया ...बात वहां के प्रशासन तक पहुंची तो वीडियो में दिखाया गया कि वे कहने लगे कि ऐसी बात नहीं है कि यहां पर किसी एक धर्म के लोगों का ही इलाज होता है ....यह तो पागल है ...वह बंदा कहने लगा कि अगर पागल है तो अस्पताल में क्या कर रहा है, इसे पाग़लख़ाने में भर्ती करवाओ......

जैसे ही किसी ने यह वीडियो शेयर की .....क्या पता फेक है, असली है ....आजकल हर दूसरी वीडियो तो अगले दिन फेक साबिर हो रही है --ऐसे में किस पर यकीं करें किस पर न, यह भी एक सिरर्दी तो है, लेकिन हमारी ख़ुद की मोल ली हुई क्योंकि हम ही तो हर वक़्त सोशल मीडिया की कालिख वाली कोठरी में घुसे रहते हैं ...जहां पर अधिकतर एजैंडे पर काम चल रहा होता है .. कोई अपनी छवि चमकाने की फ़िराक में है तो कईंयों ने केवल नफ़रत फैलाने का काम अपने जिम्मे लिया होता है ...कोई सनसनी फैला रहा है तो कोई कुछ और । हां, उस अस्पताल वाली वीडियो के शेयर होते ही उस ग्रुप पर दो धडे़ बन गए ...एक बार तो मन किया कि देशप्रेमी फिल्म का अमिताभ पर फिल्माया गये उस गीत के यू-टयूब लिंक ही छोड़ दूं --नफ़रत की लाठी तोड़ो ....मेरे देश-प्रेेमियो ...

दस साल पुरानी अपनी यह फोटो देख कर सोचता हूं कि दस साल में बंदा कितना बुड्ढा दिखने लगता है 😂😂
अच्छा, दोस्तो, अब सुबह हो गई है ...आप को अपनी बालकनी से इस के दीदार करवाते हैं ......बात मेरी अभी अधूरी है- कोरोना को धोेने की बातें तो अधूरी ही रह गई हैं ...बेशक जो लोग संभावित कोविड-19 के मरीज़ों के सामने कोरोनो की आंख में आंख डाल कर डटे हुए हैं, उन सब को सफ़ाईकर्मी से लेकर सुपर-स्पैशलिस्ट तक सभी को ...मेरा दंडवत नमन ...और बाकी के लोग जो बाहर सड़कों पर प्रशासन के बार बार आगाह किए जाने के बावजूद बिना मास्क पहने या सोशल-डिस्टेंसिंग से बेपरवाह आंख-मिचौनी खेल रहे हैं ....और महंगे सेनेटाइज़र को ही संजीवनी बूटी समझने की हिमाकत कर रहे हैं, उन के लिए यही संदेश है कि इस वक्त कोरोना के इस दौर में ऐसे ही मज़हब के खेल मत खेलिए......सामने वाले हर शख़्स को कोरोना का संभावित मरीज़ शायद न भी सही , कम से कम इस ख़तरनाक वॉयरस का वाहक तो समझ ही सकते हैें ......लेकिन, इस चक्कर में किसी के भी साथ कोई भेदभाव के चक्कर में मत पड़िए, इस का मज़हब से कोई लेना देना नहीं.....बस, कुछ छोटी छोटी बातों का ख़्याल रखिए.....जिसे मेडीकल भाषा में कहते हैं यूनिवर्सल प्रिकाशंज़ (हरेक द्वारा बरतने योग्य सावधानीयां) ..

और जहां तक बात है कोरोना को धोने-धुलवाने की .......उस बात पर फिर अमिताभ की वह 40 साल पुरानी बार बार देखी फिल्म लावारिस का वह गीत याद आ गया जिस में एक जगह वह फिल्म की नायिका से पूछता है कि पैसे से तुम भला क्या क्या खरीदोगे ........लेकिन मैं अपने आप से पूछ रहा हूं कि कोरोना के चक्कर में दिन भर में क्या क्या, कब तक, किस किस चीज़ से, कितनी कितनी बार धुलते रहेंगे .......आप भी सोच तो यही रहे होंगे .....लेकिन अब सोचना बंद करिए और यह गीत सुनिए ...कालेज के उन दिनों में इस तरह के गीत हमारे दिलो-दिमाग पर छाए रहते थे .....अभी तो हैं वैसे तो .....अमिताभ ने ही अपने फ़न से दुनिया की बड़ी ख़िदमत की है ....आप गीत सुनिए .....(काश, इस वक्त मैं आप को दिखा पाता कि मेरे शरीर मच्छरों के काटने के कितने निशान हैं .....मैं अकसर घर में कहता हूं कि अगर इस तरह की कालोनी में मच्छरों की यह मार है तो बाहर क्या हाल होगा ......लेकिन बात वही है, हम लोग आइसोलेटेड नहीं रह सकते, तस्वीर में आपने कॉलोनी की सफ़ाई तो देख ली है ..लेकिन इस की बांउड्री के बाहर वही खुले नाले हैं , वहीं थोड़ी दूर गंदगी के अंबार है ......इसलिए, जब सभी को साफ़-सफ़ाई वाला माहौल मयस्सर होगा तभी हम सब मच्छरों के आंतक की चिंता किए बग़ैर चैन की नींद सो पाएंगे ....वरना यूं ही चलता रहेगा ...!!.... ठीक उसी तरह कोरोना से बचने का भी बिल्कुल सीधा सा मंत्र है कि सभी सुरक्षित रहेंगे तो हम भी सुरक्षित रहेंगे ....बिल्कुल पंजाबी की उस बेमिसाल कहावत जैसे ...कर भला, हो भला......तेरे भाने सरबत दा भला!

अच्छा जी, अपना बहुत सारा ख़्याल रखिए...कोरोना की धुलाई की बाकी बातें अगली पोस्ट में करेंगे...