बुधवार, 21 अगस्त 2024

देखते देखते पोस्टकार्ड भी एंटीक हो गए....

हमारे देखते देखते पोस्टकार्ड भी एंटीक स्टफ बन कर रह गए….मुझे याद है सात आठ बरस पहले की बात है लखनऊ की एक दुकान पर अन्य एंटीक चीज़ों के साथ साथ पुराने पोस्टकार्ड भी बिका करते थे …एक पोस्टकार्ड की कीमत 50 रुपये…..उन की खासियत यही होती थी कि वे आज़ादी से भी पहले के लिखे हुए …डिप पेन से या तो फाउंटेन पेन से …सुंदर लिखाई….


एक बात सोचने वाली यह भी है कि आखिर पुराने ख़त बाज़ार तक पहुंचे कैसे ….लिखने वाले को या जिसे वे लिखे गए होंगे, उन्हें अगर इस बात की भनक भी लग जाती कि उन के आंखें मूंदने के बाद उन के ख़तूत का यह हश्र होने वाला है तो सच में वे यमराज से चंद मिनट मांग कर अपने ख़तों को अपने हाथों से ठिकाने लगा कर के कूच करते …


कितनी बातें हम लोग ऊल जलूल लिख देते थे …कितनी बातें हम तक ऊल जलूल लिखी पहुंच जाती थीं…लेकिन वे सब अपने तक ही रहती थीं अमूमन…


मैं शायद पहले भी कईं बार यह लिख चुका हूं कि पहले घरों में ख़तों को एक लोहे की तार में पिरो कर रखने का चलन था…मेरी नानी के यहां भी था, और छुट्टियों में हम जब वहां जाते तो उस रेडियो के दौर में अकसर नानी का रेडियो खराब ही रहता था ….ऐसे में वे ख़त ही हमारे मनोरंजन का साधन हुआ करते थे …एक तरह से छोटे मोटे कॉमिक्स…यह लिखते हुए ऐसे लग रहा है जैसे हम लोग अभी अभी तार में से सभी ख़त निकाल कर, ज़मीन पर नीचे बिछा कर, उन का गहन अध्ययन कर रहे हैं….एक बात और भी मज़ेदार थी न, कि कोई रोकता-टोकता भी न था…वैसे वो रोक-टोक करें भी तो क्यों, इसी बहाने खुराफाती बच्चों की टोली आरे तो लगी हुई दिखती …(काम पर लगी हुई तो दिखती)....


एक बात मज़ेदार यह भी होती थी वैसे तो लोग पड़ोसियों के बच्चों से ख़त लिखवा भी लेते थे, बाहर से आए ख़त उन से पढ़वा भी लेते थे ……लेकिन जो कुछ पढ़े-लिखे लोग थे उन का पोस्टकार्ड अगर डाकिया गलती से या अपनी सुविधा के लिए पड़ोस में दे जाता था और जब शाम को या अगले दिन वह उन के पास पड़ोसी पहुंचाने आता था, तो बहुत ही ज़्यादा अजीब लगता था ….यह तो मेरे अनुभव की बात है …क्योंकि पोस्टकार्ड में तो सब कुछ खुला ही रहता था …और जब कोई पड़ोसी वह हमें देने आता तो यही लगता कि यार, अब तो इसमें रहा ही क्या, तू ही रख लेता इसे अब अपने पास…। यहां तक कि इस तरह से कोई अंतर्देशीय पत्र या वह पीला लिफाफा भी कोई दे जाता और उस की गोंद इत्यादि थोड़ी ढीली दिखती तो यही लगता कि यह भी लगता है किसी के हत्थे चढ़ कर और किसी की निगाहों से हो कर ही हमारे तक पहुंचा है ….

शायद कोई यकीन न करे कि हमारी नौकरी लग चुकी थी और हमें बहुत बार माता पिता जी के पोस्टकार्ड आते थे …जब हम उन से मिलते थे तो कहा करते थे कि पापा जी, पोस्टकार्ड न भेजा करो, लिफाफा नहीं तो कम से कम अंतर्देशीय ख़त ही लिख दिया करो….मुझे नहीं लगता कि इस तरह की रिक्वेस्ट का कोई असर हुआ …क्योंकि पिता जी की आखिरी पोस्टकार्ड भी अभी मैंने संभाल कर रखा हुआ है …


और हां, मज़ेदार बात एक और ….पहले लोगों में विश्वास बहुत था …छोटे बच्चे खुद ही स्कूल जा रहे हैं पैदल ……कोई चिंता नहीं, शाम को वापिस लौट आते थे …कोई ढूंढने नहीं जाता था …उसी तरह डाक विभाग पर भी पूरा पक्का भरोसा तो था ही ….कि चिट्ठी अगर बक्से में पहुंच गई तो समझ लीजिए देर-सवेर अपने ठिकाने पर भी पहुंच ही जाएगी….और एक बात यह कि अगर किसी पड़ोसी की चिट्ठी अगर डाकिया दे गया है और पड़ोसी अब दूसरे किसी शहर में रहते हैं तो पिता जी उस खत पर लिखा हुआ पता काट कर या उस के ऊपर एक छोटा कागज़ चिपका कर उस पर नया पता लिख देते और ऊपर बडे़ बड़े अक्षरों में लिख देते …..Redirected.और हमें हमेशा यह बात बड़ी रोमांचक लगती कि पापा जी कि इतनी ज़्यादा चलती है और डाक विभाग वाले उन की इतनी मानते हैं कि वह गलत पते पर पहुंची चिट्ठी को कहीं से कहीं पहुंचाने की काबिलियत भी रखते हैं…मुझे याद है मैं जब होस्टल में था दो साल के लिए मेरी कोई नौकरी की चिट्ठी या कोई इंटरव्यू की चिट्ठी मेरे पिता जी इस रि-डॉयरेक्टेड नामक जादू से मुझे भिजवा दिया करते थे और वह मुझे पहुंच भी जाती थी …


कुछ बरस पहले कभी कभी दुकानों पर जो पुरानी चिट्ठियों के बंडल सूतली से बांध कर दिख जाते थे…अब सोच कर इतनी हंसी आती है कि क्या बताएं…यार, ख़त भी कोई बेचने वाली वस्तु हैं….अपने मन के उद्गार हैं जो किसी ने लिख कर आप तक पहुंचाए और आपने आव देखा न ताव, उन को इक्ट्ठा कर के रद्दी में आगे सरका दिया….मुझे 

ऐसा लगता है कि यह काम अगली पीढ़ी या उससे भी अगली पीढ़ी करती होगी …..आम के पेढ़ के बारे में कहते हैं दादा बोए, पोता खाए…..ख़त के बारे में यह है कि दादा उन को अपने ट्रंक में सजोए, पोता घर की सफाई के बहाने उन्हें कबाड़ी को थमाए …..यही होता है अकसर ….और हो रहा है…


वैसे अभी तो फिर भी एंटीक ही सही,दिख तो जाते हैं ...पुरानी पीढ़ी देख तक सकती है कि कभी यह भी राब्ता कायम रखने का ज़रिया हुआ करते थे ..लेकिन आने वाले दौर में तो पोस्टकार्ड गूगल सर्च कर के नेट पर ही दिखा करेंगे...