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गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

मुलैठी खाने से पैदा होते हैं बुद्धु बच्चे ?


एक रिसर्च ने निष्कर्ष निकाला है कि जो महिलायें मुलैठी खाने की दीवानी हैं उन के बच्चे बुद्धु पैदा होते हैं। ऐसा बताया गया है कि गर्भावस्था के दौरान मुलैठी में मौजूद ग्लाईराईज़िन प्लेसैंटा को क्षति पहुंचाता है जिस से मां के स्ट्रैस-हारमोनज़ बच्चे के दिमाग तक पहुंच जाते हैं----रिजल्ट ? बच्चे जल्दी पैदा हो जाते हैं और आगे चल कर कुशाग्र बुद्धि के मालिक नहीं हो पाते।

मुझे तो आज ही पता चला कि पश्चिमी देशों मे भी लोग मुलैठी ( जेठीमधु, मधुयष्टिका) के इतने दीवाने हैं ---चेतावनी यह है कि गर्भवस्था के दौरान अगर एक सप्ताह में 100ग्राम शुद्ध मुलैठी खा लेती हैं तो बच्चों की बुद्धि पर एवं उन के व्यवहार पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

मेरा मुलैठी ज्ञान आज तक बहुत सीमित था --- अधिकतर व्यक्तिगत अनुभवों पर ही आधारित था। बचपन से अब तक गला खराब होने पर ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां लेने में मुझे कभी भी विश्वास ही नहीं रहा। बस, दो-चार मुलैठी चूस लेने से गला एकदम फिट लगने लगता है, इसलिये मेरी इस पर अटूट श्रद्धा कायम है और मै अपने मरीज़ों को भी कहता हूं कि गले तकी छोटी मोटी मौसमी तकलीफ़ों के लिये ये सब देसी जुगाड़ ही असली इलाज हैं (शायद कोई तो मान लेता होगा !!!)

और कईं बार घर में मुलैठी का पावडर डाल कर चाय भी बनती है----वही खराब गले को लाइन पर लाने के लिये। मुझे इतना पता था कि आयुर्वैदिक दवाईयों में भी मुलैठी इस्तेमाल होती है।

मुलैठी कैंडी

लेकिन मुझे इस बात का बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि पश्चिमी देशों में इस के बनी कैंडी आदि भी इतनी पापुलर हैं -- और यह मुलैठी खाने से बुद्धु बच्चे पैदा होने की बात सुन कर ही यह सब जानने की इच्छा हुई।

मुझे लगता है कि यह समस्या दूर-देशों की अपनी ही अनूठी समस्या है जहां पर कैंडी इत्यादि के मुलैठी का इ्स्तेमाल किया जाता है और इन कैंडियों का इतनी ज़्यादा मात्रा में इस्तेमाल होता है । सोच रहा हूं कि इतनी ज़्यादा कैंड़ी खाने से मुलैठी की मात्रा का तो टोटल हो गया, लेकिन जितनी शक्कर आदि शरीर में गई उस का क्या ?

जिस एरिये की महिलायों पर यह स्टडी हुई है मेरे विचार में वहां पर तो गर्भावस्था में इस तरह की इतनी ज़्यादा मुलैठी कैंडी से बच के ही रहा जाए।

लेकिन आप बिल्कुल पहले जैसे मुलैठी चबाते रहिये ----आप बिल्कुल लाइन पर चल रहे हैं-------हमारी समस्या है कि नईं पीढ़ी का इन सब बातों पर विश्वास नहीं है---चलिये, यह स्वयं भुगतेगी।

मुझे पता है कि इस न्यूज़-स्टोरी में आप के साथ कुछ साझा करने जैसा नहीं था, लेकिन इस के बहाने अगर हम लोगों ने मुलैठी जैसे प्रकृति के तोहफ़े को थोड़ा याद कर लिया है, उस के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की है ----क्या यह कम है ? वैसे बाज़ार में बिकने वाले खुले मुलैठी पावडर के बारे में आप का क्या विचार है ------ जहां लोग धनिया पावडर में अनाप-शनाप मिलावट करने से गुरेज नहीं करते वहां पर कैसे मिले शुद्ध मुलैठी पावडर !!

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

मैडीकल रिसर्च किस दिशा में जा रही है ?

योग सेहत के लिये अच्छा है, स्तनपान करवाना मां के स्वास्थ्य के लिये भी उत्तम है, गर्भावस्था के दौरान हल्का-फुल्का परिश्रम करना गर्भवती महिला के लिये अच्छा है, धूप में बाहर निकलने से पहले फलां-फलां सन-स्क्रीन लगा लें, .......और भी ऐसी बहुत सी रिसर्चेज़ हो रही हैं जिन्हें मैं रोज़ाना देखता रहता हूं।

एक प्रश्न यह उठता है कि क्या यह बातें हम पहले से नहीं जानते हैं ......यह सब बातें तो हज़ारों साल पहले हमारे शास्त्रों ने हमें सिखा दिया था। लेकिन हमारी समस्या यही है कि हम तब तक किसी बात को मानने से हिचकिचाते रहते हैं जब तक कि उस पर फॉरन की मोहर नहीं लग जाती। योग के साथ भी तो यही हुआ ---योग जब योगा बन कर आया तो लोगों की उस में रूचि जागी।

बहुत सी अखबारें , उन के ऑन-लाइन एडिशन देखने पर यही पाता हूं कि ज़्यादा जगहों पर बस तड़का लगाने पर ज़ोर दिया जा रहा है। किसी हैल्थ अथवा मैडीकल रिसर्च की आम आदमी के लिये प्रासांगिकता क्या है , इस का अकसर ध्यान नहीं रखा जाता।

इतना ज़्यादा ज़ोर उन स्टडीज़ को ही दिया जाता है जो कि अभी चूहों पर हो रही है, फिर खरगोशों पर होंगी ......या कुछ ऐसी रिसर्च जो कि बहुत ही कम लोगों पर हुई है उसे भी बहुत महत्व दिया जाता है। इस तरह के वातावरण में एक आम पाठक का गुमराह होना लगभग तय ही है। अब हर कोई तो हरेक फील्ड की जानकारी हासिल करने से रहा ऐसे में अच्छे पढ़े लिखे लोग भी इस तरह के लेखन के शिकार हुये बिना नहीं रह सकते।

मैंने कुछ प्रकाशनों को लिखा भी है कि आप लोगों विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी सामग्री जुटाने से पहले किसी विशेषज्ञ से बात कर लिया करें -----वही छापें, उसे ही ज़्यादा महत्व दें जो कि एक आम आदमी बिना किसी खास हिलडुल के साथ अपने जीवन में तुरंत उतार लें।

सोचता यह भी हूं कि मैडीकल रिसर्च में तरक्की तो बहुत ही हुई है लेकिन इस का उतना फ़र्क क्या लोगों की ज़िंदगी पर भी पड़ा है, मुझे तो लगता है नहीं। लोगों की तकलीफ़ें तो लगता है वहीं की वहीं है।

किसी बीमारी को जल्द ही पकड़ने के क्षेत्र में तो बहुत उन्नति हुई है और कुछ बीमारियों के इलाज में भी बहुत सुधार हुया है लेकिन मुझे नहीं लगता कि इन का लाभ किसी भी तरह से आम आदमी को पहुंचा है .....शायद इस सब का फायदा उन चंद लोगों को ही पहुंचा है जिन की पहुंचे बड़े शहरों के बड़े कारपोरेट अस्पतालों तक है। वरना आम आदमी तो पहली ही कीतरह धनाधन टीबी से मर रहे हैं, दारू की आदत के शिकार हो रहे हैं, तंबाकू लाखों-करोड़ों लोगों को अपना ग्रास बनाये जा रहा है।

अगर मैडीकर फील्ड में इतनी ही तरक्की हो रही है तो इन सब की तरफ़ क्यों इतना ध्यान नहीं दिया जा रहा है। तंबाखू से होने वाले फेफड़े के कैंसर को प्रारंभिक अवस्था में पकड़ने पर इतना ज़ोर दिया जा रहा है लेकिन इस कमबख्त तंबाकू को ही जड़ से ही खत्म क्यों नहीं कर दिया जाता।

मैं अकसर यह भी सोचता हूं कि हम लोगों ने बहुत से रोग स्वयं ही बुलाये होते हैं ----खाने पीने में बदपरहेज़ी, दारू, तंबाकू, शारीरिक परिश्रम करना नहीं, और ऊपर से तरह तरह के भ्रामक विज्ञापनों के चक्कर में आकर अपनी सेहत को खराब करना ................बस यही कुछ हो रहा है।

इसलिये मैडीकल रिसर्च को जानना ज़रूरी तो है लेकिन उस के प्रभाव मे बह ही जाना ठीक नहीं है, कुछ रिसर्च ऐसी है जो कि कुछ कंपनियों द्वारा ही प्रायोजित की गई होती है। इसलिये आंखें और कान खुले रखने बहुत ही ज़रूरी हैं।

बस, एक बात का ध्यान रखिये ----प्रश्न पूछने मत छोड़िये ---------यह आप की सेहत का मामला है।

रविवार, 7 दिसंबर 2008

धूप सेंकते हो तो बचे रहोगे हार्ट-अटैक से !!

मुझे यह जान कर बेहद हैरत हुई कि अमेरिका जैसे देश की भी लगभग आधी व्यस्क जनसंख्या और लगभग 30 प्रतिशत बच्चे एवं किशोर विटामिन-डी की कमी से ग्रस्त है। बहुत अरसे से देख रहा हूं कि विटामिन-डी के स्वास्थ्य पर होने वाले अच्छे प्रभावों के बारे में बहुत काम हो रहा है।

लेकिन यूं भी लगने लगा है कि हम ने अपनी सेहत की शायद ज़रूरत से ज़्यादा ही कंपार्टमैंटलाइज़ेशन कर डाली है। आज दोपहर बाज़ार से आ रहा था तो एक गाजर जूस वाले ने बड़ा सा बोर्ड लगा रखा था --- आंखों के लिये लाभदायक !!--- समझने की यह बात है कि यह गाजर का जूस केवल आंखों के लिये ही लाभदायक है --- इस तरह के मैसेज जब लोगों को मिलते हैं तो वे तरह तरह की बेबुनियाद अपेक्षायें करने लग जाते हैं ---जैसे कि इसे पीने से मेरी बेटी का चश्मा उतर जायेगा, शायद मेरा मोतिया बिंद अपने आप ही बिना आप्रेशन के ही ठीक हो जायेगा, .....और भी तरह तरह की अपेक्षायें।

तो क्या यह मान लें कि यह सब कुछ गाजर का जूस पीने से नहीं होगा ---- मेरे ख्याल में तो नहीं ----हां , अगर विटामिन ए की कमी की वजह से आंखों में कुछ तकलीफ़ है तो उस में ज़रूर राहत मिल सकती है लेकिन उस के लिये भी केवल जूस कुछ नहीं करेगा --- साथ में दवाईयां तो लेनी ही होंगी। बिल्कुल ठीक उसी तरह जिस तरह खून की कमी (अनीमिया) में केवल महंगा अनार का जूस पी लेने से कुछ नहीं होगा ---इलाज के लिये ऑयरन की गोलियां तो लेनी ही होंगी।

तो क्या गाजर जूस पीयें ही नहीं ? --- नहीं, नहीं , आप अवश्य पीयें और जितना चाहें पियें ----क्यों कि तरह तरह के जूस तो हमारे शरीर के लिये अमृत का काम करते हैं ---- सब से हैरतअंगेज़ बात यह है कि इन जूसों में कुछ इस तरह के विचित्र तत्व भी मौजूद होते हैं जिन का तो अभी तक वैज्ञानिक भी विश्लेषण नहीं कर पाये हैं।

बस, बात केवल इतनी सी है कि जहां तक हो सके होलिस्टिक ( holistic) अप्रोच अपनायें ----सारा दिन यह हिसाब रखना कि यह आँख के लिये बढ़िया है ,यह गुर्दे के लिये, यह हार्ट के लिये -----अच्छा खासा मुश्किल काम है ---- केवल और केवल इतना ध्यान रखना होगा कि हमारा खाना संतुलित हो और सादा हो ---इस संतुलित खाने के द्वारा हमें सब कुछ ही प्राप्त हो जाता है ।

वापिस अमेरिकी लोगों में विटामिन-डी की कमी की तरफ़ लौटते हैं --- मेरा विचार यह है कि वहां पर लोग विभिन्न कारणों की वजह से सूर्य की रोशनी से वंचित रह जाते हैं -----मैंने सुना है कि कईं कईं जगह तो कितने कितने दिन धूप ही नहीं निकलती – और जहां धूप होती भी है कि सफेद स्किन वाले अमेरिकी तरह तरह के सन-स्क्रीन लोशन लगा कर के बाहर निकलते हैं ---- शायद वहां तो धूप का इस्तेमाल टैनिंग ( सफेद स्किन को धूप में लेट कर थोड़ा ब्राउन सा करना) के लिये ही इस्तेमाल होता है। और यह भी कारण होगा कि गगनचुंबी इमारतों में सारा दिन बिताने वाले लोगों तक कहां सूर्य की इतनी रोशनी पहुंच पाती होगी।

नईं रिसर्च से पता चला है कि विटामिन-डी की कमी से हार्ट अटैक एवं स्ट्रोक ( दिमाग की नस फटना) का खतरा बढ़ जाता है। वैसे तो पहले भी बहुत से अध्ययनों से इस बात का पता चल चुका है कि विटामिन-डी की कमी का हार्ट अटैक, ब्लड-प्रैशर, डायबिटीज़ और रक्त की नाड़ियों के सख्त होने से संबंध है।

जिस रिपोर्ट को मैंने आज पढ़ा है उस में लिखा गया है कि जिस व्यक्ति में विटामिन – डी का स्तर रक्त के एक मिलीलिटर में 15 नैनोग्राम से कम है उन लोगों में अगले दो वर्षों में हार्ट अटैक, स्ट्रोक और दिल की किसी बीमारी से जूझने का रिस्क उन लोगों की तुलना में दोगुना है जिन में यह स्तर 20 नैनोग्राम है।

लेकिन मेरी एक बात ज़रूर मानिये ----कृपया इस लेख को पढ़ कर अपने आप ही विटामिन-डी का स्तर चैक करवाने का मूड मत बना लीजिये ---कहीं ऐसा न हो कि मैं ही इस सेहत की कंपार्टमैंटाइज़ेशन को प्रमोट करता दिखूं। बस, विटामिन डी की उचित खुराक लेने के लिये क्या करना है , यह ध्यान रखिये ---इस के बारे में हम अभी चर्चा करते हैं।

विटामिन डी को सनशाइन विटामिन भी कहा जाता है अर्थात् सूर्य की रोशनी वाला विटामिन ----- क्योंकि हमारी चमड़ी सूर्य की रोशनी के प्रभाव में ही इस विटामिन डी को तैयार करती है। विशेषज्ञों का कहना है कि सुबह 10 से तीन बजे बजे के बीच केवल 10 मिनट की सूर्य की रोशनी सफेद चमड़ी वाले लोगों के लिये काफी है जब कि डार्क कलर की चमड़ी वाले लोगों को इस सूर्य की रोशनी की कुछ ज़्यादा मात्रा चाहिये होती है। सन-स्क्रीन लोशन से भी विटामिन डी पैदा करने में रूकावट पैदा होती है।

रिपोर्ट के अनुसार लोगों को सूर्य की रोशनी के लाभ एवं हानियों को बैलेंस कर लेना चाहिये--- इस में आगे कहा गया है कि बस थोड़ी बहुत सूर्य की रोशनी अच्छी है लेकिन अगर आप को 15 से तीस मिनट तक रोज़ाना सूर्य की रोशनी में रहना होता है तो चमड़ी के कैंसर से बचाव के लिये सनस्क्रीन का इस्तेमाल करना महत्वपूर्ण है ।

कुछ खाद्य पदार्थ जैसे कि सालमान( salmon) और गहरे पानी वाली मछली ---( मैंने भी बस इस salmon का नाम ही सुन रखा है – डिक्शनरी में देख लेना कि यह है क्या ---मुझे लगता है कि कोई नॉन-वैज चीज़ ही होगी ----और मैं ठहरा शुद्ध शाकाहरी !!!) और दूध जिस को विटामिन डी से सप्लीमैंट किया गया हो ।

यह स्टडी बाहर देश की है ना इसलिये हमारी जटिल परेशानियों से शायद ये लोग वाकिफ़ नहीं हैं ----- यहां तो भई दूध की विटामिन डी सप्लीमैंटेशन की क्या बात करें ----हमें तो यह ही नहीं पता कि हम लोग पी क्या रहे हैं ----क्या वह सही में दूध ही है या सिंथैटिक दूध है ? और साथ में रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि हमें रोज़ाना जितना विटामिन डी चाहिये होता है अगर हम उसे केवल दूध से ही प्राप्त करना चाहें तो हमें दस से बीस गिलास दूध के पीने होंगे । और दोस्तो, ध्यान रहे ये 10-20 गिलास तो शुद्ध दूध की बात बाहर के देशों वालों ने कर दी और अगर हम सब कुछ मिलावटी खाने के लिये मजबूर हैं तो शायद हमें 40-50 गिलास तो दूध के पीने ही होंगे ----- क्या यह प्रैक्टीकल है ? लगता है कि दूध पीने के अलावा सब काम काज ही छोड़ देना होगा।

वैसे हमारी विटामिन डी की दैनिक आवश्यकता है ---पचास वर्ष की उम्र तक 200 इंटरनैशनल यूनिट्स, पचास से सत्तर वर्ष तक 400यूनिट्स तथा 70 वर्ष के ऊपर 600यूनिट्स । और रिपोर्ट में कहा गया है कि इस स्तर तक पहुंचने का एक रास्ता है कि विटामिन-डी का सप्लीमैंट ही ले लिया जाये। और इस के बेहद पुख्ता प्रमाण हैं कि विटामिन डी से हमारा स्वास्थ्य उत्तम होता है।

अब ज़रा हम लोग अपने यहां पर नज़र दौड़ायें ----मैं सोचता हूं कि जो लोग बड़े शहरों एवं महानगरों में रहते हैं और सूर्य की रोशनी का उन की लाइफ में कोई स्थान नहीं है, या यूं कह लें कि सनसाइन को वे अपनी लाइफ में फटकने तक नहीं देते ----तो कुछ तो उन्हें भी इस के बारे में सोचना होगा। अगर बिल्कुल ही यह सूर्य की रोशनी लाइफ में आ ही नहीं रही तो प्लीज़ अपने फ़िजिशियन से विटामिन-डी सप्लीमैंटेशन के बारे में बात करें ----बेहतर होगा।

सूर्य की रोशनी हमारे लिये कितनी लाभदायक है ---इस का एक उदाहरण देखिये। शायद आपने नोटिस किया हो कि कुछ लोग अपनी फुल बाजू की शर्ट हमेशा नीचे कर के रखते हैं ----मैंने कईं बार नोटिस किया है कि जब किसी कारण वश उन्हें अपनी शर्ट ऊपर करने को कहा जाता है तो उन की बाजू में सेहत नहीं झलकती ---बाजू बिलकुल पीली सी दिखती है लेकिन जिस व्यक्ति की बाजू नियमित धूप के प्रभाव में आती है उस की बाजू का थोडा भूरा रंग, उस की चमक ही अलग होगी । अन्य चीज़ों के साथ साथ यह सब विटामिन डी का ही कमाल है।

ठीक है अमीर मुल्कों ने इतने वैज्ञानिक टैस्ट करने के बाद यह अब बताना शुरू किया है कि विटामिन डी हमारी सेहत के लिये नितांत आवश्यक है लेकिन अपने यहां तो हज़ारों सालों से ही सूर्य नमस्कार करने की अद्भुत परंपरा रही है। और उस समय सूर्योदय के समय वाली सूर्य की किरणें हमारे शरीर के लिये बहुत उपयोगी होती हैं।

वैसे भी इस देश में लोग बहुत धूप सेंक लेते हैं ----- छोटे बच्चों के बिना कपड़े के धूप में लिटा कर उस की मालिश करने की बहुत अच्छी प्रथा है, मुझे ध्यान आ रहा है कि कभी कभी ज़्यादा ठंडी में हमारी क्लासें स्कूल की छत पर लगा करती थीं----बहुत अच्छा लगता है लेकिन पता नहीं हमारे मास्टर जी क्यों इतना डरे हुये हुआ करते थे, मज़ूदर और किसान धूप में ही काम करते रहते हैं -- - इन के लिये गर्मी क्या और सर्दी क्या--- इसलिये कुछ लोगों को तो अधिक धूप से बचने की ज़रूरत है क्योंकि वैसे भी प्रदूषण की वजह से जो ओज़ोन लेयर का सुरक्षा कवच पहले मौज़ूद था अब वह क्षीण हो चुका है और प्रतिदिन बदतर होता जा रहा है।

ध्यान कीजिये --- सुबह की रोशनी गर्मी के मौसम में हमारे लिये काफी है –सुबह से मतलब है सूर्य उदय होने के बाद जो ठंडी ठंड़ी रोशनी होती है ----और उस रोशनी को जहां तक संभव हो सके शरीर के ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सों पर सीधा पड़ने दें ----देखिये आप को कितना अच्छा महसूस होगा ----- कुछ समय पहले मैं गर्मी के दिनों में प्राणायाम् सूर्योदय के समय उसी दिशा की तरफ़ आसन लगा कर किया करता था ---आज सोच रहा हूं कि गर्मी के अगले मौसम में इसे फिर से शुरू करूंगा। गर्मी के मौसम में बाकी दिन तो हमें सूर्य की रोशनी से अपना बचाव करनी ही है ----टोपी से, छतड़ी से , गीले रूमाल से ...कैसे भी !!

मैं सोच रहा हूं कि जो आज कल की ठंडी में धूप का मज़ा लेते हैं उन्हें कुछ भी सलाह देने की क्या कोई ज़रूरत है -----है तो , और वह यही है कि ठीक है, आप लोग खूब कपड़े पहन कर धूप में लेटे तो रहते हो लेकिन थोड़ा यह भी ध्यान रखिये कि सूर्य की रोशनी में विटामिन डी को पैदा करने के लिये सूर्य की रोशनी हमारी चमड़ी पर 10-15 मिनट रोज़ाना पड़नी ही चाहिये ----सर्दी है तो भी आप मौसम के अनुसार अपनी दोनों कमीज की दोनों बाजू ऊपर चढ़ा लें, अगर संभव हो सके तो टांगों पर भी 10-15 मिनट तक सीधी धूप पड़ने दें। वैसे तो पहले लोग हर सप्ताह सर्दीयों में तेल मालिश करने के बाद धूप में 15-20 मिनट थोड़े कपड़े में बैठ जाया करते थे -----यह विटामिन डी वाली स्टडी पढ़ने के बाद आप का उन सब पुरानी बातों को शुरू करने के बारे में क्या ख्याल है, सोचियेगा।

सूर्य की रोशनी का हमारी लाइफ में इतना रोल है कि दो-चार दिन ही जब सूर्य देवता दर्शन नहीं देते हम कैसे डिप्रैस से फील करना शुरू कर देते हैं ---और जैसे ही सूर्य दिखता है हम सब के चेहरे खिल उठते हैं ---- यही कारण है कि विटामिन डी को सनशाइन विटामिन भी कह दिया जाता है।

प्लीज़ इस लेख में लिखी बातों की तरफ़ ध्यान दीजिये---विटामिन डी हमारे लिये बेहद लाज़मी है और ऐसा अकसर होता नहीं है कि हम केवल अपने खाने से ही इसे प्राप्त कर लें ----इसलिये सूर्य की रोशनी की तो अनमोल भूमिका है ही ---लेकिन अगर किसी कारण वश सूर्य की रोशनी आप के नसीब में है ही नहीं तो प्लीज़ अपने फिजिशियन से इस के रैगुलर सप्लीमैंटेशन के बारे में बात ज़रूर कर लें। वैसे मैं भी कल अपने फिज़िशियन से इस के बारे में बात करने वाला हूं।

बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

आखिर कितनी ज़रूरी है यह ऐंजियोप्लास्टी ?

अमेरिका में जिन लोगों की बिना किसी एमरजैंसी के ( अर्थात् इलैक्टिव आप्रेशन की तरह से ) ऐंजियोप्लास्टी- Angioplasty - की गई , उन में से आधे से भी ज़्यादा मरीज ऐसे हैं जिन में रूकावट से ग्रस्त हार्ट की रक्त-नाड़ी ( artery) को खोलने के लिये जो आप्रेशन किया गया उस से पहले आप्रेशन का निर्णय लेने के लिये रिक्मैंडेड स्ट्रैस टैस्ट (Cardiac stress test) किया ही नहीं गया।

इस का खुलासा मेडिकेयर के रिकार्ड से पता चला है और इस बारे में एक रिपोर्ट जर्नल ऑफ अमेरिकन मैडीकल एसोसिएशन के अक्टूबर अंक में छपी है। जिस स्ट्रैस टैस्ट की यहां बात की जा रही है उस टैस्ट से पता चलता है कि किन मरीज़ों की हालत में ऐंजियोप्लास्टी अथवा स्टैंटिंग ( stenting) से सुधार होगा और किन में इस से लाभ नहीं होगा।

कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी की मैडीसन विभाग की प्रोफैसर एवं उन की टीम ने 24000 ऐसे मरीज़ों के रिकार्ड की जांच की जिन में जिन में इलैक्टिव परकूटेनियस कॉरोनरी इंटरवैंशन ( Elective Percutaneous Coronary Intervention ---PCI) की गई। इलैक्टिव शब्द का अर्थ यहां पर यह है कि इन मरीज़ों में PCI किसी तरह की एमरजैंसी से निपटने के लिये नहीं किया गया था। यहां यह बताना ज़रूरी है कि इसी PCI को ही आम भाषा में ऐंजियोप्लास्टी कह दिया जाता है।

सामान्यतः निर्दश कहते हैं कि ऐंजियोप्लास्टी का निर्णय लेने से पहले इन नान-एमरजैंसी केसों में ट्रैडमिल के ऊपर चलवा कर एक Stress-test किया जाए लेकिन रिपोर्ट में कहा गया है कि केवल 44.5 फीसदी लोगों का ही यह टैस्टऐंजियोप्लास्टीसे पहले किया गया।

मैडीकल स्टडी करने वाले चिकित्सकों ने माना है कि ऐंजियोप्लास्टी से पहले Cardiac Stress test करने के लिये उपलब्ध दिशा-निर्देश उतने स्पष्ट हैं नहीं जितने कि ये होने चाहिये। अमेरिकन कालेज ऑफ कार्डियोलॉजी के द्वारा शीघ्र ही क्राईटीरिया जारी किया जायेगा कि किन केसों में ऐंजियोप्लास्टी करना मुनासिब है।

रिपोर्ट में 1994 में हुई एक स्टडी का भी उल्लेख है जिस ने यह निष्कर्ष निकाला था कि कार्डियक स्ट्रैस टैस्ट को पूरी तरह से यूटिलाइज़ नहीं किया जा रहा है।

इस तरह की काफी रिपोर्ट हैं जिन में यह निष्कर्ष सामने आया है कि जिन मरीज़ो में कारोनरी आर्टरी डिसीज़ ( coronary artery disease) – हार्ट ट्रबल- स्टेबल है, उन में इलाज के कुछ अहम् नतीजों ( मृत्यु एवं भविष्य में होने वाले हार्ट अटैक का खतरा) की तुलना करने पर यह पाया गया है कि जिन मरीज़ों का इलाज ऐंजियोग्राफी के साथ साथ उचित दवाईयों से किया गया और जिन मरीज़ों का इलाज केवल दवाईयों से किया गया ----दोनों ही श्रेणियों में उपरलिखित अहम् नतीजों में कोई अंतर नहीं पाया गया।

बहुत से प्रौफैशनल संगठनों ने एक जुट हो कर कहा है कि अगर stable coronary artery disease के केसों में ऐंजियोग्राफी करने से पहेल हार्ट में खून की सप्लाई की कमी ( ischemia) का डाक्यूमैंटरी प्रमाण मिल जाता है तो परिणाम बेहतर निकलते हैं। और इस का प्रमाण स्ट्रैस-टैस्ट से ही मिलता है।

ऐंजियोप्लास्टी के लिये गाइड-लाईन्ज़ पूरी तरह से स्पष्ट होनी चाहिये ----लेकिन जैसे कि मार्क ट्वेन ने कहा है --- To a man with a hammer, everything looks like a nail ---जिस आदमी के हाथ में हथौड़ी होती है उसे हर जगह कील ही दिखाई देते हैं, कार्डियोलॉजिस्ट को भी आत्म-नियंत्रण रखने की ज़रूरत है। With due respect to all colleagues, ये शब्द मैंने इस विषय़ से ही संबंधित किसी दूसरी रिपोर्ट में पड़े देखे हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि स्ट्रैस-टैस्ट को नियमित रूप से किया जाना चाहिये कि केवल तब जब कि ऐंजियोप्लास्टी करने या करने के बारे में निर्णय लेने की घड़ी ही जाए। ऐसा करने से मरीज़ का लंबे समय तक उचित मूल्यांकन किया जा सकेगा। यहां तक कि इस स्ट्रैस-टैस्ट को एक साल में एक बार किया जा सकता है...ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सब कुछ ठीक ठाक है। लेकिन अफसोस यही है कि इसी बात को अकसर इगनोर किया जाता है।

The report says that there is no financial incentive to reduce the number of unnecessary angioplasties. To reward doctors and hospitals who stick to guidelines would improve safety and delivery of health care while decreasing medicare expenditure.

रिपोर्ट तो मैंने पहले भी कुछ देखी थीं जो बता रही थीं कि ऐंजियोप्लास्टी ज़रूरत से ज़्यादा हो रही हैं। मैं तो यही सोच रहा हूं कि अगर अमेरिका जैसे विकसित देश में यह सब कुछ हो रहा है तो हमारे लोगों का ……..!!! यहां तो लोग डाक्टर से प्रश्न पूछते हुये भी डरते हैं, एवीडैंस-बेसड मैडीकल प्रैक्टिस ( evidence-based medicine) के मायने तक वो जानते नहीं, और ऊपर से इस तरह के बड़े आप्रेशन के लिये भारी ब्याज दर पर उधार लेते हैं, इधर-उधर से पैसा पकड़ते हैं ....और उस के बावजूद भी अगर बाद में किसी से पता चले कि आप्रेशन की तो अभी ज़रूरत ही नहीं थी....अभी तो दवाईयों से ही काम चल सकता था-----ऊपर रिपोर्ट में आपने सब कुछ पढ़ ही लिया है।

अच्छा, अगली एक-दो पोस्टों में इस स्ट्रैस-टैस्ट के बारे में और ऐँजियोग्राफी के बारे में कुछ बातें करेंगे।

डिस्क्लेमर ---- मैडीकल राइटर होने के नाते मीडिया डाक्टर का प्रयास है कि पाठकों को चिकित्सा क्षेत्र की ताज़ा-तरीन सरगर्मियों से वाकिफ़ करवाया जा सके ----केवल मैडीकल फील्ड की सही तसवीर जो मुझे दिख रही है , उसी को आप तक पहुंचाना ही मेरा काम है और ये सभी लेख आप की जागरूकता बढ़ाने के लिये ही हैं। लेकिन अपनी सेहत के बारे में कोई भी निर्णय केवल इन लेखों के आधार पर न लें, बल्कि अपने फिजिशियन से परामर्श कर के ही कोई भी निर्णय लें। हां, यह हो सकता है कि अगर आप की जानकारी अपटुडेट है तो आप अगली बार अपने फिजिशियन से दो-तीन बहुत ही रैलेवेंट से प्रश्न पूछ सकते हैं जिन से आपकी ट्रीटमैंट-प्रणाली प्रभावित होती हो।

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

चिकन का लैग पीस या रैड-वाइन का एक अदद पैग !

चिकन की टांग को लैग पीस ही कहते हैं न, तो जापान में हुई एक रिसर्च का रिजल्ट निकला है कि लैग-पीस से ब्लड-प्रैशर कंट्रोल होता है – चूहों पर हुई रिसर्च से पता चला है। यह स्टडी किसी मीट-पैकर्स संगठन द्वारा की गई थी।

अमेरिका में हुई एक और स्टडी बता रही है कि जो लोग रैड वाइन पीते हैं उन में फेफड़े के कैंसर होने का खतरा कम हो जाता है। और साथ में यह भी बताया गया है कि यह फेफड़े कम होने का रिस्क उन लोगों में भी कम होता है जो स्मोकिंग कर रहे हैं और उन में भी जो पहले स्मोकिंग किया करते थे।

तो क्या अब समय आने वाला है कि डाक्टर लोग मरीजों को ब्लड-प्रैशर को काबू करने के लिये लैग-पीस के साथ साथ फेफड़ों के कैंसर के लिये रैड-वाइन पीने की हिदायत देने लगेंगे।

मुझे अफसोस है कि मुझे इस वाइन के बारे में कुछ भी पता वता नहीं है, यह रैड क्या है और व्हाइट वाइन क्या है, मुझे इस का बिल्कुल भी पता नहीं है।

लेकिन इन दोनों न्यूज़ को आप के साथ शेयर करने का केवल एक ही कारण था कि हम लोग इस बात का आभास कर सकें कि मैडीकल-राइटर का काम भी कितना चुनौतीपूर्ण है। अब इस तरह के चिकन के लैग-पीस या रैड-वाइन जैसी रिसर्चेज़ के रिजल्ट रोज़ाना एक मैडीकल-राइटर को दिखते रहते हैं। लेकिन किस तरह की रिसर्च के बारे में लिखा जाये और किस के बारे में चुप्पी साधी जाये, यह किसी मैडीकल-राइटर के सामने कोई बड़ा काम नहीं होता --- पहली बात तो यह है कि स्टडी किस स्टेज पर है , इस का ध्यान रखना भी ज़रूरी है। अब अगर चिकन के लैग-पीस ने चूहों का ब्लड-प्रैशर कम कर भी दिया है तो क्या हुआ। जब ह्यूमन-ट्रायल्स होंगे तो देखा जायेगा.....वैसे भी ब्लड-प्रैशर जैसी लाइफ-स्टाइल बीमारी के लिये केवल यह लैग-पीस वाली बात गले से नीचे नहीं उतरती ।

अब फेफड़े के कैंसर से बचने के लिये कैसे लोग रैड-वाइन रोजाना पीनी शुरू कर दें......और वह भी बीड़ी-सिगरटे छोड़े बिना -----हमारा मसला तो है कि हम लोग इस देश में कैसे तंबाकू से अपना पीछा छुड़ा सकें।

इन उदाहरणों से यह तो हमने देख ही लिया कि इंटरनैशनल मीडिया में मैडीकल रिसर्च का क्या रूख है ----हमारे अपने देश में हमारे लोगों की स्वास्थ्य समस्यायें अलग हैं, हमारी परिस्थितियां, हमारा परिवेश तो बिल्कुल अलग है.....हमारी ही क्यों, सभी देशों की अपनी समस्यायें हैं, संसाधन सीमित हैं, सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियां बेहद जटिल हैं जिन्हें दो जमा दो चार के साधारण जोड़ के जैसे सुलटाया नहीं जा सकता।

कुछ इस तरह की मैडीकल रिसर्च हमारे सामने आती है जिस से किसी स्पोंसरशिप अथवा किसी घिनौने संकीण स्वार्थ की सड़ी बास आती है। तो मैडीकल राइटर को इस से भी बच कर रहना होता है।

विश्वसनीयता --- credibility – एक बहुत बड़ी बात है, इसलिये मैडीकल राइटर को इस के बारे में बेहद अलर्ट रहना होता है क्योंकि बहुत से लोग आप के लिखे अनुसार चलना भी शुरू कर देते हैं।

देश में हिंदी में मैडीकल-राइटिंग करने के लिये ज्यादा से ज़्यादा डाक्टरों को आगे आना चाहिये ताकि हम लोगों तक उन की ही भाषा में ही बिल्कुल सादे, सटीक ढंग से जानकारी उपलब्ध करवा सकें। और लिखते समय हमें बस इतना ध्यान रखना होगा कि कैसे हम लोग कुछ इस तरह के जमीन से जुड़े विषयों पर लिखें जिसे पढ़ कर लोगों में प्रचलित भ्रांतियों का भांडा फूटे, लोग बस थोड़ा सा अपनी जीवन-शैली के बारे में सोचने लगें, कुछ भी खाने से पहले उस के बारे में सोच लें, व्यसनों से होने वाले खतरनाक परिणामों से लोगों को कुछ इस तरह से रू-ब-रू करवायें कि हमारे लोग तरह तरह के व्यसनों से डरने लगें।

बस और क्या है, इस लिये इस देश में मैडीकल-राइटर्ज़ का अपना एक एजैंडा है जैसा कि बच्चों के बारे में लिखें तो उन की आम तकलीफों के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा लिखें-----औरतों की आम शारीरिक समस्याओं के बारे में लिखे, कैंसर से रोकथाम की बातें करें.....लेकिन बातें सीधी-सीधी करें......ताकि लोग आसानी से हमारी कही हुई बात को अपने जीवन में उतारने का प्रयास तो कर सकें। लोगों की आम समस्याओं के बारे में लिखने को इतना कुछ है कि लगने लगा है कि यह काम तो पहाड़ जैसा है और हिंदी में मैडीकल-राइटिंग तो अभी शुरू ही नहीं हुई है। शायद उस चीनी कहावत का ध्यान कर ही मन को सांत्वना देनी होगी----तीन हज़ार किलोमीटर के सफर के शुरूआत पहले कदम से ही होती है।

मंगलवार, 17 जून 2008

अब हो पायेगी डायबिटीज़ की और भी कारगर स्क्रीनिंग एवं डायग्नोसिस..


हम ने अपने बचपन के दौरान यह सुना कि मोहल्ले की तारा मौसी को शूगर हो गई है.....लेकिन इस का पता कैसे चला ?......हुया यूं कि जिस जगह भी तारा मौसी पेशाब करती थी, कुछ समय बाद उस जगह पर मकौड़े आ जाते थे। बस, काफी लोगों की शूगर की डॉयग्नोसिस कुछ इसी ढंग से ही हुआ करती थी.....यह पेशाब पर मकौड़ा टैस्ट तो एक किस्म का कन्फर्मेटरी टैस्ट ही माना जाता था।

लेकिन इस टैस्ट पर निर्भर करने की भी कितनी खतरनाक हानियां होती होंगी ....यह तो आप के सामने ही है। जब तक शूगर के रोगी को ढूंढने के लिये यह देसी टैस्ट अपना काम करता था, तब तक अकसर शूगर रोग के मरीज़ में यह बड़ी हुई शूगर की वजह से शरीर के कईं अंग( गुर्दे, हृदय, आंखें इत्यादि) क्षतिग्रस्त हो जाया करते थे। लेकिन जो भी हो कभी कभार अगर किसी सज्जन-मित्र के पेशाब पर मकौड़ा दिख जाता था तो उस की हालत पतली हो जाती थी।

एक बात और यहां होनी ज़रूरी है कि आज के समय में भी हम लोगों के पास ऐसे कईं मरीज आते हैं जिन से जब शूगर रोग की हिस्ट्री पूछी जाती है तो वे अकसर कह देते हैं कि शूगर है तो, लेकिन बिलकुल थोड़ी ही है और वह भी केवल रक्त में ही है.......इसलिये, वह आगे कहते हैं, कि मैंने कभी दवाई नहीं ली...बस परहेज ही कर रहे हैं। ऐसी सोच बेहद हानिकारक है....कि शूगर का स्तर अगर ब्लड ही में है तो कोई बात नहीं। यह समझ लेना कि जब तक शूगर पेशाब में नहीं आ जाती ...तब तक किसी डाक्टर के पास जाने की जरूरत ही नहीं है.......यह बिलकुल गलत धारणा है। अब प्रश्न पैदा होता है कि पेशाब में शूगर कब आने लगती है.....इस के लिये यह जानना ज़रूरी है कि शूगर के पेशाब में आने के लिये उस को Renal threshold (रीनल थ्रैशहोल्ड) को पार करना होता है...और यह लक्ष्मण-रेखा है 180मि.ग्राम परसेंट ....कहने का मतलब यह कि जब रक्त में शूगर का स्तर यहां तक पहुंच जाता है( 100ml में 180mg.शूगर) तो इस के ऊपर हमारे गुर्दे इस को नहीं झेल पाते हैं और शक्कर पेशाब के साथ शरीर से बाहर आने लगती है।

ऐसा तो आप जानते ही हैं कि उस जमाने में शूगर की स्क्रीनिंग वाली बात इतनी आम नहीं थी ( अब कौन सा यह सब कुछ इतना आम हो गया है!!)। अकसर मकौड़े दिखने पर ही लोग पेशाब में शक्कर की लैबोरेटरी जांच करवाया करते थे। फिर धीरे धीरे लोग शुगर की स्क्रीनिंग के लिये रक्त की जांच करवाने लगे....खाली पेट और फिर खाना खाने के बाद। अब मैडीकल कम्यूनिटी ने यह सिफारिश की है कि शूगर रोग की स्क्रीनिंग के लिये भी ग्लाइकोसेटेज हीमोग्लोबिन( glycosated haemoglobin...Haemoglobin A1c….HbA1c) टैस्ट करवाया जाए।

जर्नल ऑफ क्लीनिकल ऐंडोक्राईनॉलाजी एवं मैटाबॉलिज़म में छपने वाले एक लेख अनुसार चोटि के डाक्टरों के एक एक्सपर्ट पैनल ने यह रिक्मैंड किया है कि मरीज के रक्त से किया जाने वाला ग्लाईकोसेटेज हीमोग्लोबिन टैस्ट जिसे शूगर के मरीजों में इस लिये किया जाता है कि पिछले तीन महीने के दौरान उन के रक्त में शूगर के कंट्रोल का पूरा नक्शा इलाज करने वाले डाक्टर के पास उपलब्ध हो जाए, अब इसी टैस्ट को शूगर के मरीजों की स्क्रीनिंग एवं डॉयग्नोसिस के लिये भी इस्तेमाल किया जाना चाहिये।

शूगर की मौजूदा स्क्रीनिंग के द्वारा डाक्टरों को कईं बार शूगर की डायग्नोसिस में दिक्कत आती है और इस की टैस्टिंग के लिये मरीज़ों को खाली पेट भी रहना पड़ता है। मौजूदा हालात में कुछ हद तक तो डायग्नोसिस में दिक्कत आने की वजह से ही कईं मरीज़ों का बहुत कीमती समय नष्ट हो जाता है और उन के शरीर में शूगर से संबंधित जटिलताएं उत्पन्न हो जाती हैं।

आप को जान कर बहुत हैरानी होगी कि जॉन हॉपकिंज़ इंस्टीच्यूट ऑफ मैडीसन के मैडीकल विशेषज्ञों के अनुमान अनुसार अभी भी अमेरिका में शूगर के 30प्रतिशत मरीज ( 62लाख लोग) ऐसे हैं जिन में शूगर रोग का डायग्नोसिस ही नहीं हो पाया है। मैं भी यह पढ़ कर इस लिये चौंक गया था कि अगर अमेरिका जैसे देश का यह हाल है तो अपने यहां की बात ही क्या करें !!

मैडीकल एक्सपर्ज़ के अनुसार इस टैस्ट ...ग्लाइकोसेटेड हिमोग्लोबिन...HbA1c...को शूगर रोग की स्क्रीनिंग के लिये इस्तेमाल किये जाने के फायदे ये हैं कि एक तो मरीज को टैस्ट करवाने के लिये खाली पेट रहने की ज़हमत नहीं उठानी पड़ती और दूसरा यह कि यह टैस्ट पूरी तरह स्टैंडर्डाइज़ हो चुका है। इसलिये डाक्टरों के इस ग्रुप ने सलाह दी है कि जब कोई व्यक्ति यह टैस्ट करवाये और अगर इस का स्तर रिपोर्ट में 6.5 प्रतिशत या उस से ज़्यादा आये तो फिर भी शूगर रोग की डायग्नोसिस को कंफर्म करने के लिये ब्लड-शूगर की जांच करवानी भी ज़रूरी है।

जाते जाते यह ध्यान आ रहा है कि कहां से चले थे....बाथ-रूम में किसी बंदे के यूरिन पर चलने वाले मकौड़े से और अब हम लोग पहुंच गये हैं ऐसे टैस्ट पर...glycosated haemoglobin…. जो शूगर रोग के डायग्नोसिस के साथ साथ इस बात का भी खुलासा कर देता है कि पिछले तीन महीनों के दौरान किसी शूगर के मरीज में ब्लड-शूगर का कंट्रोल कैसा रहा है। इसलिये भी चिकित्सक की सलाह अनुसार किसी भी शूगर के मरीज को इस टैस्ट ....Glycosated haemoglobin….HbA1c …को भी नियमित तौर पर करवा कर के अपने ब्लड-शूगर के कंट्रोल पर नज़र रखनी बहुत ज़रूरी है।

वैसे यह टैस्ट कोई खास महंगा भी नहीं है....मेरे ख्याल में दो-तीन सौ रूपये में हो जाता है और इस के लिये मरीज के रक्त का सैंपल चाहिये होता है।

शनिवार, 9 फ़रवरी 2008

हेयर-डाई से होने वाली एलर्जी के बढ़ते केस...


इस सप्ताह के ब्रिटिश मैडीकल जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अब कम उम्र के लोगों में भी हेयर-डाई का इस्तेमाल बढ़ने से इस से होने वाले एलर्जिक रिएक्शन के केस भी बढ़ रहे हैं।

इस से चेहरे की चमड़ी पर सूजन (dermatitis)आ सकती है और कभी कभी तो चेहरा सूज भी सकता है।

रिपोर्ट में यह कहा गया है कि दो-तिहाई हेयर-डाईयों में पैराफिनाइलीनडॉयामीन( para-phenylenediamine…PPD) और उस से ही संबंधित पदार्थ होते हैं। बीसवीं सदी में इस पीपीडी (PPD) से होने वाली एलर्जी एक ऐसा गंभीर समस्या बन गई कि हेयर-डाई में इस के इस्तेमाल पर जर्मनी, फ्रांस एवं स्वीडन नें प्रतिबंध लगा दिया गया।

आजकल प्रचलित यूरोपीय कानून के अंतर्गत हेयर-डाई में पीपीडी की मात्रा 6प्रतिशत तक रखने की अनुमति है। चिंता की बात यह भी है कि इन बालों को स्थायी तौर पर रंग करने के लिए इस पीपीडी का कोई ढंग का विकल्प मिल नहीं रहा है।

चमड़ी रोग विशेषज्ञों के अनुसार पीपीडी युक्त हेयर-डाई के द्वारा पैच-टैस्ट करने पर पाज़िटिव टैस्ट के केसों में लगातार वृद्धि हो रही है। लंदन में किए गये एक सर्वे के अनुसार पिछले छःसालों में इस प्रकार के चर्म-रोग( contact dermatitis) की फ्रिक्वैंसी दोगुनी हो कर 7.1प्रतिशत तक पहुंच गई है। दूसरे देशों में भी इसी ट्रेंड को देखा गया है।

मार्कीट रिसर्च से यह भी पता चला है कि ज़्यादा लोग अब बालों को रंग करने लगे हैं और वह भी कम उम्र में ही। 1992 में जापान में किए गए एक सर्वे से पता चला था कि 13प्रतिशत हाई-स्कूल की छात्राओं , 6प्रतिशत बीस से तीस साल की उम्र की महिलाओं तथा इसी उम्र के 2 प्रतिशत पुरूषों ने हेयर-कलर के इस्तेमाल की बात स्वीकारी थी , लेकिन 2001 तक पहुंचते पहुंचते इन तीनों ग्रुपों का अनुपात 41%, 85% तथा 33% तक पहुंच चुका है।

यहां तक कि हाल ही में बच्चों में हेयर-डाई से होने वाले गंभीर रिएक्शनों की भी रिपोर्टें प्राप्त हुई हैं।

इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अब समय आ गया है जब इन हेयर-डाई की सेफ्टी एवं इन की कंपोज़िशन पर चर्चाएं होनी चाहिएं। चिंता की बात यह भी बताई गई है कि मरीज़ों को इन के दुष्परिणामों का पता होते हुए भी वे इनको इस्तेमाल करने से बाज नहीं आते।

मीडिया डाक्टर की टिप्पणी---- आप ने यह तो देख लिया कि पश्चिमी देशों में इस हेयर-कलर के इस्तेमाल ने कितनी चिंताजनक स्थिति उत्पन्न कर दी है। तो, क्या अपने यहां सब कुछ ठीक ठाक है....बिल्कुल नहीं। हमें तो यह भी नहीं पता कि जिस मेंहदी को इस देश में इतने चाव से बालों की रंगाई के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, उस में कौन कौन से कैमीकल इस्तेमाल किए जा रहे हैं और कितनी मात्रा में। ब्रिटेन में लोगों को पता तो है कि इस हेयर-कलर में इतनी प्रतिशत पीपीडी है, लेकिन हमें तो कुछ पता भी नहीं......लेकिन ये सब बालों को रंग करने के लिए बिकने वाली मेहंदीयां ( उदाहरणतः काली मेहन्दी के पैकेट) खूब धड़ल्ले से बिक रही हैं। इन में ज़रूर ही कोई कैमीकल मिले होते हैं , अन्यथा मेहंदी कभी (हिंदी फिल्मी गीतों के इलावा) इतना रंग छोड़ती है क्या ....और काली मेहंदी, यह कौन सी बला है , मुझे तो बिलकुल नहीं पता कि यह कहां उगती है, मैं तो यही समझता हूं कि इसे इसी तरह के कैमीकल वगैरह डाल कर ही काला किया होता है। अगर देश में कहीं काली मेंहदी की पैदावार होती है तो मुझे प्लीज़ इस की सूचना दीजिएगा। देश की अधिकांश जनता इन सस्ते उत्पादों से ही काम चला रही है...बस वे इन से होने वाले नुकसानों से अनभिज्ञ हैं या कहूं कि किसी हद तक मजबूर भी हैं।

लेकिन देश में बिकने वाले महंगे हेयर-कलर्ज़ की भी हालत कुछ इतनी अच्छी नहीं है। मैंने एक ऐसा ही बहुत बड़ी कंपनी का पैक देखा है...खूब महंगा भी है। लेकिन डिब्बे पर , पैम्फलेट पर कहीं भी नहीं लिखा कि इस हेयर-डाई में कौन से कैमीकल्स मौज़ूद हैं। केवल ट्यूब के ऊपर बहुत ही चालाकी से अंग्रेज़ी में लिखा हुया है कि इस में पैराफिनाइलीनडायामीन है और साथ में उस की मात्रा बताई गई है। बड़ी इंटरएस्टिंग बात यह है कि पैम्फलेट को तो अंग्रेज़ी के इलावा हिंदी , गुजराती और दक्षिण भारतीय भाषाओं में भी छपवाया गया है, लेकिन यह जो टयूब के ऊपर लिखा है ...पीपीडी वाली बात....यह केवल अंग्रेज़ी में ही लिखी है ( हां, हां, बिल्कुल उस मशहूर सी मच्छर भगाने वाली दवा की पैकिंग की तरह जिस में सारी जानकारी शायद भारत की अधिकांश क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध करवाई जाती है) ...मैं तो इस तरह के पैम्फलेट जब भी देखता हूं तो यही सोचता हूं कि जब इन कंपनियों को अपने ग्राहकों की इतनी फिक्र है( या कहूं कि सेल्स की फिक्र है) तो पता नहीं इन पान मसालों एवं गुटखा बेचने वालों को क्यों वैधानिक चेतावनी ढंग से देते समय क्यों सांप सूंघ जाता है( चलिए , किसी दूसरी पोस्ट में यह पर्दा-फाश भी करूंगा कि किस तरह ये गुटखे-पान मसाले वाले वैधानिक चेतावनी की धज्जियां उड़ा रहे हैं।)

हां, तो बात उस महंगी वाली हेयर-कलर की पैकिंग की हो रही थी , एक मज़ेदार बात यह भी है कि उस की पैकिंग के बाहर ही छोटे छोटे अक्षरों में वैसे यह चेतावनी भी दी गई है कि इस के इस्तेमाल के 48 घंटे पहले आप स्किन एलर्जी टैस्ट ज़रूर कर लें। लेकिन प्रैक्टीकल रूप में देखें तो कितने लोग घर में यह टैस्ट करते होंगे या कितने हेयर-ड्रैसर इस बात को मान कर ग्राहक का टैस्ट कर के उसे 48 घंटे बाद आने की सलाह देते हैं। नहीं हो रहा ना यह सब कुछ, यह तो आप भी मानते हैं । एक चेतावनी और दिखती है कि इन कलर्ज़ को आंखों में न लगने दें, रंग आंखों में लग जाये तो तुरंत गुनगुने पानी से धोयें , इससे अपनी बरौनियों, भौहों को न रंगे क्योंकि इसके ऐसे इस्तेमाल से अंधापन हो सकता है।

चिंता की बात यह भी तो है कि टैलीविज़न में देख-देख कर छोटे छोटे बच्ची –बच्चियां भी अब इन तरह तरह के रंगों के हेयर-कलर्ज़ का इस्तेमाल करने लगे हैं।

तो, अब यह सब कुछ लिखने के पश्चात मेरा सुझाव यही है कि ज्ञान दत्त पांडे जी अपनी बुधवारीय पंकज अवधिया जी की अतिथि पोस्ट में इस हेयर-कलर की कुछ देशी (जड़ी-बूटी पर आधारित) विधियों पर प्रकाश डालें.....हम सब को इस का इंतज़ार रहेगा। आप भी ज्ञान दत्त जी से तथा पंकज अवधिया जी से ऐसा आग्रह कीजिए।