शनिवार, 25 दिसंबर 2021

आज बड़ा दिन तो है....ठीक है!

अभी अभी उठा हूं...आज बड़ा दिन है ...हैपी क्रिसमिस है ...लेकिन इतनी शांत और ठहरी ठहरी सी सुबह...चलिए, सुबह की इस सुंदर बेला का जश्न मनाने के लिए एक खूबसूरत गीत सुनते हैं पहले...बातों का क्या है, वे तो होती ही रहेंगी...


मुझे आज अचानक ख्याल आ रहा है कि आज से ४०-५० साल पहले कोई भी तीज-त्यौहार का दिन हो या कहीं भी जागरण हो, रामलीला हो, होली-दीवाली हो या पड़ोस में किसी के घर में महिलाओं की कीर्तन मंडली ने दोपहर में कीर्तन ही करना होता या कहीं पर सुंदर-पाठ का आयोजन होता, सत्यनारायण की पूजा होनी होती, सरकारी पब्लिसिटी महकमे की ओर से कोई फिल्म ही दिखाई जानी होती तो उस से कईं घंटे पहले हमें ऊंची ऊंची आवाज़ में बड़े बड़े लाउड-स्पीकरों पर बज रहे अपने मनपसंद फिल्मी गीतों के ज़रिए उस की सूचना मिल जाती ..

लाउड स्पीकर ही क्यों...राखी, भैया दूज आदि के दिन तो सुबह सुबह सभी घरों में ऊंची ऊंची आवाज़ में राखी से जुड़े सुपर-डुपर गीत बजने लगते ...हमें भी यूं लगता कि हां, यार, आज जश्न का दिन है ..

इन फिल्मी गीतों की अहमियत हमारे लिए इतनी थी कि वे उम्र भर के लिए हमारे साथ ही हो लिए...होली के दिन जब तक वे गीत नहीं बजते ..होली जैसा लगता ही नहीं कुछ ...😂😂प्रूफ के लिए इस लिंक पर क्लिक करिए और यह गीत सुनिए....आज न छोडेंगे...खेलेंगे हम होली...

मेरी तो बचपन-जवानी की सारी यादें अमृतसर शहर की हैं...लेकिन अकसर यह सभी शहरों की ही दास्तां होगी ... गली,मोहल्ले और अड़ोस-पड़ोस में किसी के घर किसी शादी का आयोजन होता तो सुबह ही छत पर बड़े बड़े स्पीकर से हमें अपने मनपसंद फिल्मी गीत सुनने लगते ....बहुत मज़ा आता था ...बार बार सुन कर भी हम कहां बोर होते थे ...यह कमबख्त बोर लफ़्ज़ ही से हम वाकिफ़ न थे, हमें तो वैसे भी हर पल उत्सव जैसा लगता था..हर वक्त अपनी ही सुनहरे ख़्वाबों में खोए-खोए से अपने आप में मस्त रहना ...ज़िंदगी को एक वक्त में एक ही दिन के लिए ही जीना ही हमें जीना लगता था...

१९७५ की बात है ...शोले फिल्म जब आई तो हमें बडे़ बड़े लाउड स्पीकरों पर दिलकश फिल्मी गीतों के साथ साथ फिल्मों के ़डायलॉग भी हमें सुनने को मिलने लगे ...गब्बर, कालिया, जय-वीरू की बातें और बसंती की चुलबुली बातें जैसे हमें रट गईं ....अपने सिलेबस से भी कहीं ज़्यादा अच्छे से...लोगों में सहनशक्ति थी ...किसी के दुःख सुख का ख्याल रखते थे ...थोड़ी बहुत असुविधा भी होती थी तो चुपचाप सह लेते थे ...पंजाबी च कहंदे ने जर लैंदे सी...लेकिन हमें तो यह सब बहुत अच्छा लगता था...
हम भी उस वक्त किताब-कापी लेकर मेज़ पर पढ़ने का नाटक करने बैठ तो जाते थे लेकिन कमबख्त सारा ध्यान उस लाउड-स्पीकर से बज रहे गीतों पर ही हुआ करता था ...

किसी के यहां रात में जागरण होना होता तो शाम ही से माता की भेंटे बजने लगती ...कहने का मतलब की पूरा माहौल तैयार हो जाता था रात होते होते ...अभी लिखते लिखते ख्याल आ रहा कि अमृतसर के इस्लामाबाद एरिया में एक पीर की जगह थी ..जहां पर लोग वीरवार के दिन सरसों का तेल कटोरी में ले जाकर चढ़ाया करते थे ...कहते थे इस से मन्नत पूरी हो जाती है ...लेकिन मेरी तो न हुई ...बेवकूफी की हद यह कि नवीं-दसवीं कक्षा में जब स्वपन-दोष (वेट-ड्रीम्स) की शुरूआत हुई तो मैं तो भई परेशान रहने लगा, पढ़ाई में मन ही न लगता...यही लगने लगा कि यह कौन सी बीमारी लग गई....मन ही मन मैंने देखा कि पीर बाबा के बारे में बताते हैं कि वह जगह बड़ी पहुंची हुई है ...

मैंने भी वहां पर वीरवार के दिन सरसों का तेल लेकर पहुंच जाना और वहां पर जल रहे दीयों में उसे डाल कर आना और दिल की गहराईयों से यही अरदास करता कि बाबा, मुझे इस बीमारी से छुटकारा दिला दो ....लेकिन कईं साल बाद पता चला कि यह स्वपन-दोष कोई दोष तो है ही नहीं, यह तो सामान्य सी बात है और सभी को इस अवस्था से गुज़रना ही पड़ता है ...उसमें पीर क्या उखाड़ लेता ...हम लोग भी ऐसे बुद्दू थे...थे से मतलब?😂😎सच में हमें दीन-दुनिया की कुछ समझ न थी, न ही हम लोग लोग किसी बड़े बुज़ुर्ग के साथ, यहां तक कि बड़े भाई के साथ ही ऐसी कोई बात करते थे कि उन से ही पूछ लें कि ऐसा क्यों हो रहा है....लेकिन पूछते कैसे, हमें तो लगता कि इसमें भी हमारा ही कोई दोष है ....😎😎

चलिए, पुरानी बातों पर मिट्टी डालें ...हां, तो पीर बाबे की जगह पर तो फिल्मी कव्वालियां तो लाउड-स्पीकर पर चल ही रही होतीं ...कुछ लोगों के घरों में जिन की मन्नत पूरी हो चुकी होती ....(खुदा जाने उन की क्या मन्नत पूरी हो चुकी होती, मैंने तो अपनी बेवकूफ मन्नत की पोल-पट्टी खुद ही खोल दी है...😎😂)...तो उन के घर मे एक देग में शाम के वक्त गुड़ वाले मीठे चावल पकाए जाते और उस देग को एक साईकिल रिक्शा पर रख कर उस पीर की मजार पर लेकर जाया जाता और वहां आने वाले भक्तों में उसे बांटा जाता ....और उस घर में शाम से ही वहीं फिल्मी सूफी-कव्वालियां बड़े बड़े लाउड-स्पीकरों पर हमें सुनाई देने लगतीं...


और जहां तक धुंधला सा ख्याल आ रहा है कि किसी के यहां शोक में अगर कोई आयोजन होना होता - भोग, श्रद्धांजलि आदि--वहां पर वही माईं डिप्रेसिंग से गीत की माईं तू संसार में लेकर क्या आया है, लेकर क्या जाएगा, ये चौरासी का फेर है, ये सब डराने वाली बातें ..नरक में जाएगा, स्वर्ग में सीट बुक करवा ले .....सच में हमें उस उम्र में ये सब बेकार की बातें ...मन को उदास करने वाली बातें बहुत बुरी लगतीं, हां, आज भी लगती हैं....सच में उस वक्त सारे ऐसे गीत बजते जैसे अगले दो घंटे में सारी दुनिया तबाह होने वाली है ...

और क्या होता था....त्योहारों पर ...मिठाईयां खाई जातीं, केक खाए जाते (तब काटने का चलन न था...बस हमें केक-खाने का ही पता था....)और बहुत से लोग नए-नए कपड़े इन त्योहारों पर पहनने के लिए खरीदते ... देखा जाए तो उस नज़रिए से तो अब दिन जश्न का दिन होना चाहिए ...लेकिन ऐसा है नहीं ...क्यों नहीं है, यह हमें ख़ुद से पूछना होगा...आराम से, इत्मीनान से, सुकून से खुद के साथ बैठ कर ...मुझे लगता है हम इतने समझदार हो गए हैं कि अब हमने जश्न के लम्हों की बजाए सुख-वैभव की चीज़ों में खुशियां ढूंढना शुरू कर दिया है .....

बस करूं, मैं भी बड़े दिन के क्या लिखने बैठ गया..रात में मैं ईज़ी-चियर पर पडे़-पड़े वह गीत याद करता रहा ...हमारे दौर का बहुत ही पापुलर गीत .....


क्रिसमिस की बहुत बहुत बधाईयां ....और भी बहुत सी यादें हैं, इस त्यौहार की ..फिर कभी आप से कहेंगे...😂....अभी यू-टयूब पर बचपन वाले पीर-बाबे को सर्च करना चाहा तो बीसियों रिज़ल्ट आ गए...मैंने चुपचाप उसे बंद कर दिया ...कि कहीं फिर से तेल चढ़ाने के चक्कर में न फंस जाऊं...बहुत मुश्किल से तो पहले ही उस फिसलन से बाहर निकला हूं....आराम से यही गीत वीत ही  सुनते हैं...और बड़े दिन के जश्न में शामिल हो जाते हैं....