बुधवार, 29 दिसंबर 2021

शहर की इस दौड़ में दौड के करना क्या है...!



यही कोई १५ साल तो हो गये होंगे, इस फिल्म को आए हुए...फिल्म तो बढ़िया थी ही, बेशक...लेकिन इस फिल्म का यह बेहद हसीन डॉयलॉग मेरे तो जैसे दिलो-दिमाग पर छा गया...मुझे याद नहीं मैंने कितनी बार अपने ब्लॉग में इस का ज़िक्र किया...डॉयलॉग क्या है भाई यह तो जैसे हम लोगों के लिए एक आईने का काम कर रहा है ...लेकिन आईना देखने की भी फ़ुर्सत है कहां, हम पहले अंधी रेस तो दौड़ लें..

कुछ दिन पहले मैंने कहीं पढ़ा कि सत्यजीत रे जब ६ साल का बालक था तो उस की मां उसे रबिन्द्रनाथ टैगोर के पास ले कर गई ...और उन्हें उस की कापी पर कुछ लिखने को कहा ...उन्होंने उस की कापी पर यह लिखा ...

Many miles I have roamed, over many a day....
from this land to that, ready for the price to pay..
Mountain ranges and oceans lay in my way..
yet two steps from my door, with wide open eyes..
I did not see the dewdrops on a  single sheaf of rice....

इसे लिखने के बाद टैगोर ने उस की मां को कहा कि यह कागज़ इस बालक के पास ही रहने देना, जब यह बड़ा होगा तो इस में लिखी बातें समझ जाएगा। जी हां, हुआ भी वही ...उस बालक ने भी इतनी अहम् बात को ऐसा समझा कि जो फिल्में उसने अपने आस पास के परिवेश में, आस पास के लोगों के बारे में बनाईं, उन की धूम किसी सूबे या देश ही में ही नहीं, सारी दुनिया में वे मास्टरपीस मानी गईं...


कोई भी ज्ञान कहीं से भी मिल जाए...किसी भी उम्र में ले लेना चाहिए...६ साल की उम्र में और मेरी ६० साल की उम्र में फ़र्क है ही कितना ..मुझे भी यह बात इतनी बढ़िया लगी कि मैंने इसे लिख कर एक एंटीक फ्रेम में अपनी स्टड़ी टेबल पर रिमाँइडर के तौर पर टिका दिया है ...अकसर निगाह पड़ जाती है और मन ज़्यादा इधर-उधर भटकने से बचा रहता है ...वरना, हर वक्त यही बात ..यार, मैंने स्विज़रलैंड नहीं देखा, कश्मीर नहीं देखा, नार्थ-इस्ट नहीं देखा...महाबलेश्वर नहीं देखा....और लंबी-चौड़ी लिस्ट ....यहां नहीं गए, वहां नहीं गए....अजंता -एलौरा नहीं गए तो क्या हुए...तस्वीरें तो देख लीं...अब यही लगने लगा है कि सहजता से, आसानी से जहां जाया जा सके ठीक है ...वरना क्यों इतनी मगजमारी की हर वक्त बंदा देश-विदेश के दौरों की प्लॉनिंग ही करता फिरे ...

हम सारी उम्र घूमते ही रहें...फिर भी कुछ न कुछ ही नहीं, बहुत कुछ रह जाएगा...एक किताब पढ़ रहा हूं ...वंडर्ज़ ऑफ दा वर्ल्ड ...यह सात अजूबों की नहीं, दुनिया के बहुत से अजूबों के बारे में बताती है ...पढ़ते हुए यही अहसास होता है कि इतनी बढ़िया दुनिया, इतने बड़े बड़े अजूबे, पहले अगर पढ़ता तो यही लगता कि इन में से ताजमहल के अलावा कुछ भी नहीं देखा, लेकिन अब मन ठहर सा गया है...समझ आने लगी है ..कि नहीं देखा तो भी कोई बात नहीं, जब देखेंगे देख लेंगे ..अगर मुमकिन हुआ तो अच्छा, अगर नामुमकिन हुआ तो भी  बढ़िया ...

हम लोगों की परेशानी यही है कि हम दूर दूर की जगहों पर जाते हैं, दूर बैठे लोगों से पेन-फ्रेंडशिप करते हैं....लेकिन अपने पास ही के लोगों से ढंग से तो क्या, बेढंग से भी बोलते-बतियाते नही, आसपास की जगहों में रूचि नहीं लेते ..जहां हम रहते हैं वहां से पांच-दस किलोमीटर के घेरे में आने वाले ऐसे कईं स्थान हैं जिन्हें हम ने कभी देखा ही नहीं ...लेकिन देखें भी तो कैसे, उस के लिए पैदल चलना होगा, किसी टू-व्हीलर पर उन सड़कों को नापना होगा...हम मोटर-गाड़ियों में दूर दूर से जगहों को देखते हैं....और मन ही मन सोचते हैं कि हां, इधर भी कभी आना है ..लेकिन वह कभी कब आता है .....इस का कुछ पता नहीं ...अकसर तो आता ही नहीं...जैसे कल मेरी एक कॉलेज की साथी ने यह बहुत ही हंसाने वाली वीडियो भेजी वाट्सएप पर ...देखते ही मज़ा आ गया....उस में साथ में यही लिखा था कि जब आप रिटायर होने के बाद फैरॉरी लेते हैं तो आप का भी यही हश्र होता है ... 😄😄😄ओ माई गॉड, यह तो मुझे खुद की बीस साल बाद की तस्वीर दिखी...लेकिन ज़िंंदगी जीने की भी इतनी जल्दी क्या है, पहले बैंक-बेलेंस को तो मोटा कर लें...वह कही ज़्यादा ज़रूरी है ...😂😉



वीडियो की तो बात क्या करें, अपनी हालत पर ही हंसी आती रही कि कभी पलंग के नीचे से कुछ निकालना हो तो नानी याद आ जाती है, बाथरूम में किसी चौकी पर बैठ कर उठना ऐसा मुश्किल लगने लगा है कि अब वहां पर खूब ऊंचे स्टूल पर बैठ कर ही खुद को नहलाया जाता है, कपड़े की अलमारी की नीचे की शेल्फों को देख कर गुस्सा आता है कि कौन इतना झुके और कैसे झुके ...इसलिए वहां पर भी कुछ देखने के लिए ऊंचे स्टूल पर बैठना पड़ता है ....यह है हमारी फिटनैस का लेवल...





हम बड़ी बड़ी प्लॉनिंग ही करते रह जाते हैं ...और कब ३० से ६० के हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता लेकिन तभी घुटने चीखना चिल्लाना शुरू कर देते हैं ....😄😎😂

पिछले कुछ दिनों से मैं खार-बांद्रा की एक सड़क की तरफ़ से ऑटो पर जब निकलता तो वहां पर राजेश खन्ना पार्क का बोर्ड लगा देखता....कल सुबह सुबह यह धुन सवार हो गई कि वहां हो कर आते हैं..चला गया जी ..वाह, इतना खूबसूरत पार्क ...खुब हरा-भरा ...मज़ा आया वहां जाकर ...दस मिनट टहले, फिर डयूटी जाने का ख्याल आया तो लौट आए....वहां पर राजेश खन्ना की सुपर-डुपर फिल्मों के पोस्टर भी लगे थे जिन्हें देख कर तो और भी अच्छा लगा...मैंने किसी से पूछा कि इस का नाम राजेश खन्ना पार्क है, क्या यह उसने बनाया था...एक टहल रहा बंदा रूक गया और बताने लगा कि हां, बनाया तो उसने था, लेकिन बाद में बीएमसी ने इस का रखरखाव अपने पास ले लिया...

चलिए, रखरखाव कोई भी करे, हमारे लिए अच्छी बात यह है कि पार्क बहुत सुंदर है, बहुत से लोग वहां पर अपने दिलो-दिमाग की चार्जिंग अपने अपने अंदाज़ में बड़े जोशो-खरोश से कर रहे थे, देख कर बहुत ही अच्छा लगा....हमने भी यह निश्चय किया कि किसी दिन आते हैं यहां पर फुर्सत में दो एक घंटे बैठ कर मज़ा लेंगे ...देखते हैं, वे फुर्सत के पल कब आते हैं...






ज़्यादा दूर न भी जाएं या जा पाएं तो घर ही के आसपास गलियों की खाक छानते ही हमें ऐसी ऐसी चीज़ें, कलाकारों के ऐसे काम दिख जाएंगे कि एक बात तो दांतों तले अंगुली दबाते दबाते रह जाएं...


 दो-तीन साल पहले की बात है ...मैं अपनी बहन के पास जयपुर गया तो हमने एक पार्क में जाने का प्रोग्राम बनाया...इतना बड़ा पार्क ...हम लोग वहां दो घंटे घूमते रहे ...हमें वापिस निकलने का रास्ता ढूंढने में दिक्कत हुई ....बहन ४० साल से जयपुर में है, वहां पर पहली बार मेरे साथ गई थी...यही हाल हम सब का है, हम अपने शहरों को अमूमन इतना ही देख पाते हैं, जानने की बात न ही करें...

सस्ती दवाई पाना भी कहां इतना आसां है!

डयूटी से आने पर आज दो तीन घंटे सोया रहा ...सिर दर्द से परेशान था...रात साढ़े आठ नौ बजे उठा तो ख्याल आया कि एक दवाई खरीदनी है ..नानावटी अस्पताल का नुस्खा था...पाली हिल के एरिया में तीन-चार दुकानें छान लीं...नहीं मिली दवाई .. दिन-रात चलने वाली वेलनैस कैमिस्ट की एक दुकान है ...उन के यहां भी न मिली ..कहने लगे कल शाम को मिलेगी...लेकिन इतना वक्त किस के पास होता है आजकल कि चक्कर मारते फिरो एक दवाई के लिए...

मैंने वेलनैस वाले कैमिस्ट से ही पूछा कि यह मिलेगी कहां ...कहने लगा कि किसी अस्पताल की फार्मेसी से ही मिल पाएगी...मैंने पूछा होली-फैमिली से मिलेगी? - उसने कहा कि हां, वहां ज़रूर मिल जाएगी। मैं होली-फैमिली की तरफ़ चल दिया...रास्ते में मुझे यही ख्याल आ रहा था कि दवाई तो यह बहुत सस्ती होगी, इसलिए ही नहीं मिल रही। वरना, महंगे टॉनिक, सप्लीमैंट जैसी दवाईयां तो आज कल छोटे से छोटे कैमिस्ट ऱखने लगे हैं...

होली फैमिली वाले सिक्योरिटी गार्ड ने अंदर जाने से पहले नुस्खा चैक किया...मैंने फार्मेसी के काउंटर पर बैठी महिला को पर्चा दिया तो उसे देखते ही वह अपनी साथी फार्मासिस्ट से बुदबुदाई...नानावटी अस्पताल की प्रिस्क्रिप्शन है। खैर, वह दो मिनट तक कंप्यूटर में तांका-झांका करने के बाद कहने लगी कि हम तो अपने अस्पताल के डाक्टर की प्रिस्क्रिप्शन पर ही दवाई देते हैं। खैर, बंबई में किसी से भी बहस फिज़ूल है ..यह ज्ञान बहुत ज़रूरी है। उसने कहा कि अस्पताल के बाहर जो कैमिस्ट है, उस से पता कर लीजिेए।

बाहर आते वक्त मैंने उस सिक्योरिटी गार्ड से पूछा कि तुमने मेरा पर्चा चैक तो किया लेकिन उसमें देखा क्या...अगर मुझे यहां से दवाई नहीं मिलनी थी, तो मुझे यहीं से लौटा देते, क्योंकि ये तो बाहर के नुस्खे पर दवाई देते ही नहीं। सिक्योरिटी वाला कहता है कि अगर हम अंदर नहीं जाने देते तो लोग हम से उलझते हैं, हम क्या करें...और उसने बताया कि ऐसा नहीं है कि बाहर के नुस्खे पर दवाई नहीं मिलती, किसी को मिल जाती है, किसी को नहीं देते ....मैंने वहीं पर उस बात पर मिट्टी डाली और उस महिला के द्वारा बताए गये कैमिस्ट के पास चला गया लेकिन वहां भी नहीं मिली...कहने लगा कि इस की खपत कम है, इसलिए रखते नहीं। हां, उसने यह कहा  कि लीलावती अस्पताल से पता कर लीजिए, वहां ज़रूर मिल जाएगी। 

मैं लीलावती अस्पताल पहुंच गया...वहां पर भी उसने कंप्यूटर में देख कर यही बताया कि यह दवाई इस स्ट्रैंथ की नहीं है, इस से ज़्यादा की है ...आप इधर ही लैफ्ट में चले जाइए...नोबल कैमिस्ट है, वहां से पता कर लीजिए। मुझे तो आते वक्त कोई न कोई नोबल, न कोई क्रयूएल कैमिस्ट दिखा...लेकिन लगभग एक डेढ़ किलोमीटर के बाद हिल रोड पर मेहबूब स्टूडियो के सामने एक दवाई की दुकान पर नज़र गई तो नोबल लिखा था...उस के अंदर जा कर पूछा तो वहां से दवाई मिल गई ...कुल चालीस रूपये की दवाई थी ....और एक-डेढ़ घंटे की स्कीम हो गई। 

मुझे यही लगता है ..पता नहीं अब ठीक लगता है या नहीं, कि ऐसी सस्ती दवाईयां रख कर वे लोग अपनी इंवेंट्री क्यो बढ़ाने लगें...इन में कमाई ही क्या है...अभी मैं दवाई ले रहा था कि एक जेंटलमेन आया कि खांसी की दवाई लेनी है। मुझे अपना बचपन याद आ गया कि हम लोग या हमारे मां-बाप भी तो ऐसे ही अमृतसर इस्लामाबाद चौक पर सरदार कैमिस्ट के पास जा कर खड़े हो जाते थे कि हमें यह तकलीफ है, वह एक दो सवाल पूछता और हमें दो-तीन खुराक दे देता ...यही कोई १५-२० रुपये में (४५-५० साल पुरानी बातें ...) ...मेरे माता पिता की नज़रों में वह अमृतसर का सब से सयाना कैमिस्ट था ...जब भी मेरा गला खराब होता, थूक निगलने में भी दिक्कत होने लगती तो मेरे पापा दफ्तर से लौटते वक्त वहां से दो-चार टैरामाइसिन की खुराकें ले आते ...और हम एक-दो कैप्सूल और पापा से हल्की सी डांट खाने के बाद टनाटन हो जाते ...और पापा की डांट यही होती कि यार, खट्टे चूरन मत खाया कर, उसमें टाटरी पड़ी होती है, तू समझता क्यों नहीं ...

आज इस ४० रूपये की दवाई खरीदने के चक्कर में मुझे जब इतनी भाग-दौड़ करनी पड़ी तो मुझे यही ख्याल आ रहा था कि एक तो यह हालत है और दूसरी तरफ़ सरकारी अस्पतालों में दवाईयों के अंबार लगे हुए हैं...फिर भी !!!!!😷चुप रह यार, चुप भी रहना सीख ले...वरना किसी दिन बुरा फंसोगे तुम ....खुद को समझाने की कोशिश कर रहा हूं...