सोमवार, 4 मई 2015

मैं तो चला जिधर चले रस्ता ...


सच में जब मैं सुबह बाहर निकलता हूं तो मुझे भी मेरे मंज़िल का पता नहीं होता..बस, मुझे नये रास्तों की, नई जगहों की हमेशा तलाश रहती है। आज भी जब मैं इस रास्ते पर चल रहा था तो मुझे इन्हें इंतज़ार करते हुए देख कर बहुत बुरा लगा। इंतज़ार आप को पता ही है किस का हो रहा है, मैं क्या कहूं!

कल फेसबुक पर एक बिल्डींग की तस्वीर देखी ..उस की छत के बीच से एक वृक्ष की टहनी निकल रही थी...बड़ी तारीफ़ हो रही थी...वे फुसबुकिया बातें हैं..ठीक हैं...लेकिन इस देश के मिडिल क्लास लोग किसी तारीफ़ के लिए ये सब नहीं करते जो कुछ आप इस तस्वीर में देख रहे हैं। यह बहुत बड़ा पीपल का पेड़ है...और इस के इतने बड़े तने के कारण इस दुकान का दरवाज़ा भी ठीक से नहीं खुल पाता.....लेकिन ये लोग मस्त हैं....यह है पर्यावरण प्रेम.......न ही ये किसी अखबार के पेज थ्री पर छपते हैं और न ही इन्हें कोई अवार्ड के लिए चुनता है। लेकिन मजे की बात यह है कि ये लोग किसी प्रभोलन की वजह से थोड़े ही न कर रहे हैं, यह इन की सुंदर सोच की अभिव्यक्ति है। थैंक गॉड, अभी भी बहुत सी महत्वपूर्ण चीज़ें सरकारीकरण के दायरे में सीमित नहीं हैं।

मैंने कुछ दिन पहले सुबह सुबह देखा कि एक बहुत बड़ा पेड़ इस तरह के ट्री-गार्डस के अंदर लगा हुआ था। मुझे यकायक लगा कि यार, अब इस इतने पल्लवित-पुष्पित पेड़ को इस की सुरक्षा की क्या ज़रूरत है! उस दिन का सवाल बस मेरे मन में ही रह गया। लेकिन आज सुबह जब पेड़ों के इस झुरमुट को देखा तो यही लगा कि ये ट्री-गार्डस तो हमेशा ही चाहिए...कम से कम पेड़ का तना तो मानस की लालच एवं हवस रूपी कुल्हाड़ी से बचा रह पाएगा।


अरे यह क्या, यह देखिए विश्व का सब से बड़ा क्रिकेट मुकाबला होने की तैयारी हो रही है....दादा पोते के बीच...कितनी सहनशीलता मांगता है यार बच्चों के साथ इस तरह से खेलना। इन दोनों को देख कर एक बार तो ऐसा लगा जैसे यह बच्चा ता-उम्र इस के साथ रहने वाली यादों को बटोर लेने की जल्दी में है। ऐसे परिवेश में पले-बढ़े बच्चे आगे चल कर परिवार, समाज और देश को सजाने का काम करते हैं, ऐसा मैं सोचता हूं। आने वाले समय में यही यादें इस बच्चे की बेशकीमती धरोहर बन जाएंगी।

कितनी बार वही घिसी पिटी बात कहता रहता हूं कि मेरे लिए दुनिया में दो ही तरह के प्राणी हैं ...जो प्रकृति प्रेमी हैं और जो नहीं हैं। प्रकृति प्रेमियों के घरों की दहलीज़ ही उन की शख्शियत के बारे में बहुत कुछ वर्णन कर देती है अकसर...आने जाने वालों को इतनी ठंडक का अहसास।
फोटो लेते हुए तो मुझे लगा कि यह अकेला बाबा चलता हुआ इस वीरान सड़क के सन्नाटे को और भी रहस्यमयी कर रहा है..लेकिन अब ध्यान आ रहा है कि मैं अपनी सोच आखिर क्यों थोपना चाहता हूं.....मुझे क्या पता उसे सुबह सुबह यह सब करने में कितना आनंद आ रहा हो और वह मेरे बारे में सोच रहा है कि यह बंदा सुबह सुबह वीरान रास्तों पे क्या किए जा रहा है। Some questions are best left unanswered! .....आज कल तो वैसे भी निगेटवि मार्किंग होने लगी है।
एक फ्लाई-ओवर चढ़ने लगा तो यह बहुत ही बड़ा पेड़ दिख गया जिस के नीचे बीसियों लोग पनाह लिए हुए थे.....अब अगर पेड़ दिख जाए और वह अपने कैमरे से बच जाए, ऐसा कैसे हो सकता है। वैसे जब से मेरे नेक्सेस फोन का कैमरा खराब हुआ है, मेरी तस्वीरें खींचने की इच्छा नहीं होती, बारिश में भीग कर उस का एक बटन खराब हो गया है, उसे भी दिखवाना होगा....यह तस्वीरें ब्लैकबेरी से खींची गई हैं।
पैदल चलने वालों पर कब किस का ध्यान जाता है! ये अकसर हर जगह किसी न किसी अवहेलना का शिकार होते हैं। उदाहरण आप के सामने है। यह फ्लाई-ओवर सीतापुर रोड पर है...आप देखिए जहां से यह शुरू होता है वहां से लेकर ऊपर तक जो पैदल वालों के लिए चलने का रास्ता बना हुआ है, वह पूरी तरह से कुड़े-कर्कट से भरा पड़ा है, शायद इस की सुध लेने की किसी को फुर्सत नहीं है....या किसी ने यह ज़रूरत ही नहीं समझी।

लेकिन इस तरह की बदइंतज़ामी को दुरूस्त करने के लिए केवल एक सूचना के अधिकार के अंतर्गत आवेदन करने की ज़रूरत है ....अगले चंद दिनों में यह एक दम साफ हो सकता है अगर कोई आवेदक प्रशासन से यही पूछ ले कि इस रास्ता का रखरखाव जिस अधिकारी के जिम्मे है उस का नाम एवं पदनाम बताएं.....और दूसरा प्रश्न यह कि यह जो पैदल वालों के लिए रास्ता है इसे ठीक ठाक करने और खोलने में कितने दिन लगेंगे......बस, यह चाहिए.....और कुछ ही दिनों में यह सब आप को साफ़ दिखने लगेगा। रास्ते तो और भी हैं, लेकिन मुझे लग रहा है मैं विषय से हट रहा हूं।
यारां नाल बहारां..
मैं बहुत बार बुज़ुर्ग लोगों को डंडी पकड़ कर जब टहलते हुए देखता हूं तो यही सोचता हूं जैसे ये महान् लोग जवानों को संदेश दे रहे हों कि उठ जाओ....सुबह सवेरे उठने की आदत डाल लो....और घर से बाहर निकल आया करो.....इस से पहले की देर हो जाए! ... एक बार पटड़ी से उतरी रेल तो क्रेन लाइन पर ले आती है, लेकिन तंदरूस्त रहने के लिए प्रातःकाल के भ्रमण से बढ़िया कोई व्यायाम नहीं है। 
आप भी देख लें....लखनऊ की वी आई पी रोड़
अभी सात बजने वाले थे और सूर्य देवता अपनी तपिश देने लगे तो मैं भी वापिस लौट आया....यह तस्वीर वी-आई-पी रोड की है....आज की सामाजिक व्यवस्था में रहते हुए मुझे ये सब शब्द बड़े टुच्चे लगते हैं......वी-आई-पी ...कौन वी आई पी ....कौन नॉन-वी आई पी.....दुनिया की नज़र में सब से तुच्छ एवं तिरस्कृत इंसान ही मेरी नज़रों में वी आई पी नहीं.....वी वी आई पी है...पग पग पर शोषण का शिकार......

सड़कों को इस तरह के नामों से पुकारा जाना मुझे फिरंगियों की कड़वी याद दिला जाता है।

जाते जाते यह गीत तो बजा ही दूं....मैं तो चला जिधर चले रस्ता ...