बुधवार, 27 अक्तूबर 2021

झटका, झटकई, झटका महाप्रसाद ....

लंबे अरसे से अख़बार पढ़ना भी बंद ही था...लेकिन फिर लगता है कि हमारे दौर के लोग अगर अख़बार भी पढ़ना छोड़ देंगे तो फिर करेंगे क्या! तीन अखबारों का मैं फैन रहा हूं...बचपन से लेकर लगभग बीस साल की उम्र तक दा-ट्रिब्यून जो चंडीगढ़ से छपता है, उस के बाद दिल्ली से छपने वाला हिंदुस्तान टाइम्स बहुत अच्छा लगता था, कुछ साल दिल्ली और एनसीआर में रहते हुए ज़्यादातर उसे ही पढ़ता था .....लेेकिन लगभग पिछले 30 साल से जहां भी रहा कोशिश यही रही कि टाइम्स ऑफ इंडिया ज़रूर देख लिया करू...

ये सब वे पेपर हैं जिन से बहुत कुछ सीखने को मिलता है ...दीन दुनिया का पता चलता है ...और भी बहुत कुछ ...हां, कुछ ख़बरें पढ कर मन खऱाब भी होता है ..लेकिन अख़बार वाले भी क्या करें, उन्होंने वही तो दिखाना था जो समाज में घट रहा है ...वैसे भी टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे पेपर की रिपोर्टिंग बहुत बेलेंस्ड होती है, मैं क्या, सब लोग जानते हैं ....यह किसी की भी तरफ़ कभी झुका हुआ नहीं लगता....मुझे तो यही समझ आया है ...बाकी, बड़े बड़े धुरंधऱ लोग हैं जो 'बिटविन दा लाइन्स' अच्छे से पढ़ना जानते हैं , ज़ाहिर है उन्हें ज़्यादा पता होगा...

अब आप को लग रहा होगा कि तुम बातें इधर उधर की हांक रहे हो और पोस्ट पर यह झटका, झटकई का शीर्षक टिका रखा है...इस का कारण यह है कि मुझे आज अचानक 1970 के दशक के ये अल्फ़ाज़ ज़ेहन में आ रहे हैं....अमृतसर के दिनों की बातें...घर, बाहर हम ये शब्द सुनते ही थे..उन दिनों हम मीट-मुर्गा (ज़्यादातर मीट ही...जहां तक ध्यान है, मुर्गा मीट से कुछ महंगा होता था..) खाते थे,  जब बाज़ार में किसी काम के लिए जाते तो घर के किसी सदस्य की यह बात सुनाई भी दे जाती...

" अच्छा, ऐसा करना ...आती बार पुतलीघर वाले झटकई से आधा किलो मीट, कलेजी या कीमा लेते आना। कीमा उसे हाथ ही से बनाने के लिेए कहना "
" पुतलीघर वाला झटकई ठीक मीट देता है, झटका ही बेचता है ..."

अब आप भी पशोपेश में पड़ गये होंगे कि यह बातें कैसी कर रहा है आज...झटका, झटकई ...लेकिन मुझे भी इन अल्फ़ाज़ के मानी कुछ साल पहले ही पता चले...हमें बचपन और जवानी के उस दौर में यह सब सोचने की कहां फुर्सत कि झटका, झटकई ...और ....(नहीं, नहीं, इतना ही काफ़ी है) ...क्या हैं, हमें तो इतना पता था कि मीट बेचने वाले को हम कसाई नहीं, झटकई कहते हैं और उसने अपनी मीट की दुकान के कांच पर बड़े बड़े अक्षरों में ...."यहां झटका बकरे का मीट मिलता है".., लिखवा रखा होता था। हम उन दिनों अपनी मस्ती में ही इतने मस्त होते हैं कि इन फ़िज़ूल की बातों का हमें कभी ध्यान ही न आया, न ही हम ने कभी बेफ़िज़ूल बातों में ख़ुद को उलझाया करते थे...

लेकिन बहुत बरसों बाद यह पता चल गया कि बकरे का झटका जाने का मतलब होता है उसे एक ही झटके से, एक ही वार से मारा  जाता है....जब यह बात पता चली तो मन बहुत दुःखी भी हुआ था..शायद तब तक हम लोग मीट वीट खाना बंद भी कर चुके थे ...28 साल से मीट-मछली-चिकन कभी खाया नहीं, कभी खाने की इच्छा भी नहीं हुई ...क्योंकि कुछ बातें हमारी समझ में आ गई थीं...

बाद में जब हम लोगों ने घाट घाट का पानी पीना शुरू किया ...पंजाब के अलावा दूसरे सूबों के कुछ शहरों में भी रहने लगे तो वहां पर मीट की बहुत सी दुकानों पर हलाल लिखा रहता था...एक मुस्लिम दोस्त ने बता दिया कि इस का मतलब है कि इस बकरे को एक तयशुया तरीके से काटा गया है...और मैं तो ख़ुद ही यह समझने लगा था कि हलाल और झटका मीट एक ही होता होगा...

लेकिन सारी बातें तो नेट पर धरी पड़ी हैं, हमें वाट्सएप से फ़ुर्सत हो तो हम कहीं और देखें...अभी गूगल पर यही कुछ सर्च कर रहा था, तो इस न्यूज़ स्टोरी पर नज़र पड गई...आप भी देखिए...



हमारे मुल्क में एक तो इस तरह के मुद्दे पर बातें बड़ा सोच समझ कर करनी पड़ती हैं....कौन जाने कब कौन सी बात को मज़हबी रंग दे दिया जाए...नेट से वैसे भी सब कुछ पता चल ही जाता है ...बस, खबरों को छानते वक्त छाननी अच्छी होनी चाहिए हाथ में ... आज मुझे यह पता चल गया कि हलाल और झटका एक ही बात नहीं है....वैसे तो एक ही है यार, जानवर तो बेचारा मर ही गया न ...चाहे विधि कोई भी अपना लो, भाई....वह तो गया बेचारा....बाकी, तो सब लड़ाई-झगड़े के मुद्दे हैं, अगर वैसे ही इस देश में कम हों तो इसे भी उस में शामिल कर लीजिए...

झगड़े की बात पर आज के पेपर में यह बात दिख गई कि केरल में एक महिला दुकानदार ने अपनी मीट की दुकान पर यह बोर्ड लगा दिया कि उस के यहां नॉन-हलाल मीट बिकता है ...बस, टूट पड़े लोग उस पर ...आप देखिए ख़बर को ...

Times of India, Mumbai - Oct.27, 2021

जब तक मैंने वह ऊपर वाला बीबीसी का लिंक नहीं खोला था, मुझे यही लग रहा था कि नॉन-हलाल का मतलब वही पंजाब में बिकने वाला झटका मीट होगा.....नहीं, मैं गलत था...नॉन-हलाल से मतलब कुछ और ही था...


लड़ाई, झगड़े, फ़साद करने का बहाना चाहिए...आप ने इस ख़बर में पढ़ लिया होगा ...इतने धर्म हैं यहां, इतना मुख़्तलिफ़ खाना पीना है, इस में पड़ कर जब चाहे जितना चाहे लड़ लें, लड़ते लड़ते मर जाएं, कोई छुड़ाने न आएगा....मरने वालों की चिताओं पर पॉलिटिकल नॉन लगाने लोग उमड़ पडेंगे ...बेहतर होगा, हम सब शांति से जिएं और दूसरों को भी जीने दें..

वैसे भी हम लोगों का कुछ भी बर्दाश्त करने का मादा बिल्कुल ख़त्म हो चुका है...आज की अख़बार में यह भी ख़बर दिखी कि परसों यहां मुंबई में एक 15-16 साल के छात्र को उसके दो साथियों ने एक बार ऐसे ही मज़ाक में सिर पर थोड़ा हाथ मार दिया....उसे इतना बुरा लगा कि अगले दिन उसने उनमें से एक को चाकू से गोद कर मार डाला ...

काश, हम सब थोड़ा सा सहनशील बन जाएं....यह नहीं वे बन जाएं, वो बन जाएं, ये बन जाएं....हमाम मे ं हम सब नंगे हैं, इसलिए चुपचाप हमें थोड़ा सा सहना सीखना ही होगा, थोड़ा सा किसी की बात को झेलना ही होगा....हर बात पर तुनकमिज़ाजी बहुत नुकसान कर देती अकसर ...इस गीत से ही चलिए कुछ सीख लेते हैं....और नफ़रत की लाठी को तोड़ कर, जला ही डालते हैं ताकि फिर से उस के जुड़ने की गुंजाईश ही न रहे ....


लेकिन पोस्ट का लिफाफा बंद करते करते यह ख़्याल आ गया - झटका हो गया, ङटकई भी हो गया लेकिन यह झटका महाप्रसाद क्या हुआ...कुछ खास नहीं, इसे आप आज से 50 साल पहले के ज़माने की स्लैंग कह सकते हैं....अकसर घर में जब बात चलती, ख़ास कर किसी मेहमान के आने पर कि खाने में क्या बनाया जाए तो कहीं से यह आवाज़ आ जाती....झटका महाप्रसाद ही बनेगा, और क्या 😄....यानि कि मीट ही बनाया जाए...😎