बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

रोशनाई का काम तो है ही रोशनी फैलाना...

रोशनाई का मतलब ?.... वही स्याही जो अब जगह जगह लोगों के चेहरों पर फैंकी जा रही है...

यह पागलपन ही है एक तरह से ... कुछ और न कर सके तो किसी के चेहरे पर स्याही ही फैंक दी...हिम्मत है तो इसी स्याही को पेन में उंडेल कर कुछ कमाल कीजिए...

रोशनाई का काम तो रोशनी फैलाना है बस...कम से कम सिरफिरे लोगों को इसे तो बख्श देना चाहिए...

आज भी देखी एक तस्वीर किसी नेता जी की ... स्याही गिरने की वजह से बौखलाए हुए दिख रहे थे...

यह पता नहीं स्याही का आइडिया इन खुराफ़ातियों को कहां से आ गया है ...पहले तो हालात और भी खराब थे...जिसे देखो स्टेज पर जूता फैंक दिया करता था..

दरअसल भारत जैसे प्रजातंत्र में इन चीज़ों की कोई जगह ही नहीं है...इस तरह की पागलपंथी करने वालों की अच्छी मुरम्मत होनी चाहिए...

मुझे यह लग रहा है कि कहीं इन स्याही फैंकने वालों के चक्कर में स्याही पर ही प्रतिबंध न लग जाए....जैसे और भी कईं चीज़ों पर लगा हुआ है ...अपना नाम, अता-पता लिखवाओ..आधार कार्ड की कापी लाओ..तो मिलेगी स्याही ...वरना नहीं!

आज स्याही से पुते हुए एक नेता की फोटो देखी तो अचानक से मेरे मन में बचपन में पहली कक्षा से लेकर अभी तक इस स्याही से अपने रिश्ते की बातें एक चलचित्र की भांति चलने लगीं...पांच पैसे की दवात, पांच पैसे की रोशनाई से लेकर अब चार हज़ार की कलम से चार सौ रूपये की स्याही से लिखने की ५० साल की यात्रा....मुझे लगता है कि मैं इस यात्रा के बारे में बहुत से लेख कभी लिखूंगा...बच्चे भी बडा़ मज़ाक करते हैं कि ये बापू के हथियार हैं....मुझे लगता था कि ये जो हज़ारों रूपये के पेन हैं, ये बेकार हैं....नौटंकीयां हैं बेकार की... लेकिन नहीं....एक बार इस्तेमाल करने के बाद इन की लत लग जाती है....
इसे देख कर ४० साल पुराने दिन तो याद आ ही गये होंगे आप को भी ...
यह अकसर होता ही है ..कुछ साल पहले मैं एक जूता खरीद रहा था...एक युवक एक विदेशी ब्रांड की ही डिमांड कर रहा था...शायद वह उन के पास था नहीं...मैंने ऐसे ही कह दिया कि वह नहीं तो यह भी तो ठीक ही है...लेकिन उस युवक ने मुझे इतना कहा कि सर, adidas का जूता पहनने के बाद अब मेरे से कोई जूता पहना ही नहीं जाता...अब जब मैं भी इस तरह के दूसरे ब्रांड्स के शूज़ खरीदने की हिम्मत करने लगा हूं...बच्चों के द्वारा बार बार फटकारे जाने के बाद ...अब मैं सोचता हूं कि जूते ही यही हैं। किस तरह से हमारे ओपिनियन, शायद हमारे नखरे भी ... और हमारा नज़रिया भी चीज़ों के बारे में निरंतर बदलता रहता है ......As my son often says... "Money is damn important. It buys experiences!" मुझे भी अब कुछ कुछ ऐसा ही लगने लगा है 😀 😘

चार सौ रूपये का यह शॉक जो अब मैं झेल लेता हूं खुशी खुशी ..😀
दो चार दिन पहले मेरा बेटे ने किसी जगह अपने दस्तख़त करने थे...टेबल पर मेरा पैन पड़ा था...साईन करने के बाद कहने लगा कि बापू, कमाल का पैन है ....मजा आ गया है ...साईन करते मुझे लग रहा था जैसे मैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हूं...

यह बात सच है कि जब तक हम लोग किसी चीज़ का इस्तेमाल नहीं करते ...हमें अंगूर खट्टे ही लगते हैं शायद...लेकिन एक बार इन्हें इस्तेमाल करने के बाद तो फिर बस....

जब मैंने इस तरह के कीमती पेन खरीदने शुरु किए तो भी साथ में पार्कर की इंक खरीदनी भी थोड़ी महंगी ही लगती थी...छोटी सी शीशी ५० रूपये की ....बंबई में था कुछ साल पहले तो इंक देख रहा था ...कोई आठ सौ की, कोई छः सौ की ...मैंने भी हिम्मत के चार सौ रूपये की एक शीशी ले ही ली...मैं इस तरह की फिज़ूलखर्ची करते समय आज के युवाओं के बारे में सोच लेता हूं ...वे परवाह नहीं करते पैसे की तो ...हम ही क्यों करें!

लेकिन यकीन मानिए, उस चार सौ रूपये की इंक की बोतल से मुझे पता चला कि इंक इसे कहते हैं....उस का फ्लो, उस की चमक, उस की चकाचौंध.......फिर तो मुझे उस इंक की ही लत लग गई...मैं जब भी उसे खरीदता हूं सोचता हूं कि दो पिज़्जा खरीद रहा हूं... तो चार सौ रूपये की स्याही खरीदते हुए शॉक नहीं लगता...

बस, मेरे ख्याल में स्याही के बारे में इतना ही काफ़ी है अभी के लिए...बस वही विचार है कि रोशनाई से रोशनी फैलाने का ही काम कीजिए....इस के इस्तेमाल से लोगों के जीवन से अंधकार मिटाने का प्रयास कीजिए.....इस तरह की स्याही फैंकने वाला शोहदापन हमें कष्ट देता है ...

महंगे पेन और स्याही की बातों को अब बंद कर रहा हूं ...यह तस्वीर लगा कर ... डॉयरी का यह पन्ना मैंने वही बचपन वाली कलम से उसी स्याही से ही लिखा था (लखनऊ में इस कलम को सेठा कहते हैं...) ..और यह वाला पन्ना मुझे बहुत प्रिय है ....


इंक्म टैक्स वालों के पास अगर यह पोस्ट पहुंच जाए तो पहली raid वह मेरे यहां ही मार देंगें.......लेकिन उन्हें किताबों कापियों, ़डॉयरियों, और लेखन हथियारों के अलावा कुछ भी नहीं हाथ लगने वाला....हम खुद अब अपने घर को कबाड़खाना और कभी कभी म्यूज़ियम कहने लगे हैं... और सच में यह ऐसा ही है !!