सफ़र के दौरान हर तरफ़ पानी की खाली प्लास्टिक की बोतलें देखना बड़ा कष्ट देता है ...कभी कभी अचानक हमें पुराना सुनहरा दौर याद आ जाता है ...दो दिन पहले मुझे कहीं वह एक लंबी सी ईगल की लंबी सी थर्मस दिख गई जिसमें हम लोग फ्रिज में जमाई हुई बर्फ लेकर चलने लगे थे ...लेकिन शुरुआत हमारी यहां से नहीं हुई थी...
चलिए...चलें ज़रा 1960 के दशक के आखिरी दौर में ....मुझे याद है जब भी कोई ट्रेन में यात्रा करनी होती तो हर परिवार साथ में एक स्टील का या पीतल का गिलास लेकर चलता था ...क्योंकि पानी वानी का कोई इतना झंझट नहीं होता था, सभी लोग स्टेशन पर लगे नलकों से ही अपनी प्यास बुझाते थे ....
अगर सफ़र पांच छः घंटे का होता या इस से थोड़ा ज़्यादा भी होता और दिन का सफ़र होता तो बस एक खाली गिलास साथ रख लिया जाता। जैसे हम लोग अमृतसर से गाड़ी में बैठते तो स्टेशन से पूरी-छोले की ज़रुरी डोज़ लेने के बाद, पानी को गले तक फुल कर लिया जाता...टंकी फुल कर के ही सीट पर बैठते थे ....
लेकिन पंजाब की गर्मी के लू-के थपेड़े के दिनों में वह टंकी जालंधर तक ही खाली हो जाती ...फिर प्यास से परेशान...इतने में स्टेशन आ जाता और सब की बस इसी बात का ख्याल रहता कि डिब्बा पानी के नलके के सामने रुका है या दूर ....अगर तो सामने ही होता तो मांएं हिम्मत कर के बच्चों को गिलास थमा देतीं कि जाओ पानी पी लो और एक गिलास ले आओ....भेज तो देतीं लेकिन सांसे उन की टंगी रहती जब तक बच्चा वापिस डिब्बे में चढ़ न जाता ....
मेरी मां जैसी साहसी औरते भी होती थीं कुछ ....मुझे याद है मैं बहुत छोटा था ....लेकिन याद पक्की है मुझे....डिब्बे में से कोई भी बंदा बाहर पानी पीने जा रहा होता तो मां, अकसर उसे कहती.....भरा जी, जरा ऐन्नूं वी पानी पिया के लै आओ...।(भाई साहब, ज़रा इस को भी पानी पिला लाओ).....और वह बंदा मेरा हाथ थाम कर नीचे ले जाता और मैं उन दिनों इतना छोटा था कि मेरा मुंह पानी के नल तक ही न पहुंच पाता ....और वह बंदा अपनी दोनों हथेलियां मिला कर उस में पानी भर कर मुझे पानी पिला देता ...और मुझे वापिस गाड़ी में ले आता ....इस तरह के साहसी काम ज़्यादातर लुधियाना स्टेशन पर ही होते थे जहां पर गाड़ी 10-15 मिनट रुकती थी ....और वही पानी पी कर लोगों का पकौड़ों, भटूरे-चने और पूरी-छोले के खोमचों पर टूट पड़ना....
अच्छा, एक बात और दर्ज करनी बहुत ज़रुरी है कि पानी स्टेशन पर मिलता तो था लेकिन अलग अलग किस्म का ...लुधियाना, जालंधर जैसे स्टेशन पर पानी ठीक ठाक मिल ही जाता था ....लेकिन कईं बार कुछ लोग पानी की सेवा करने वाले डिब्बे डिब्बे में पहुंच कर ठंडा पानी पिलाते थे ....
मैं बस लिखना यही चाहता हूं कि उन दिनों ये प्लास्टिक की बोतलें नहीं थी चाहे, लेकिन प्यास बुझाने में कोई दिक्कत न आती थी ....पानी मिल ही जाता था ....प्लेटफार्म पर या किसी न किसी स्वयं-सेवी संस्था द्वारा सेवा के रूप में ही ....भीषण गर्मी के दिनों में लोग अगले स्टेशन का इंतज़ार करते थे कि वहां पर तो ठंडा पानी मिल ही जाएगा...सब लोग तसल्ली से पीते थे और जिस किसी के पास कोई कैनी (छोटा-मोटा कैन) होती वह उसे थोड़ी बहुत भरवा भी लेता....
प्लेटफार्म पर हैंड-पंप भी बहुत काम के होते थे ......गाड़ी से यात्रा करने का जितना मेरा अल्प-ज्ञान है, उस के आधार पर मैं जब याद करता हूं तो यह जो दिल्ली से फिरोज़पुर लाईन पर बहुत से स्टेशन ऐसे थे जहां पर पानी की मुफ्त सेवा करने लोग पहुंचे होते थे और दूसरी बात यह की बहुत से स्टेशनों पर हैंड-पंप का ठंडा पानी भी उपलब्ध रहता था ....गाड़ी के रुकते ही वहां भीड़ जमा हो जाती थी ...कौन उस नल को गेड़ रहा है कौन पी रहा है, कोई हिसाब किताब नहीं...बस, गाड़ी जब तक खड़ी रहती, उस हैंड-पंप से ठंडा-मीठा पानी निकलता रहता......जब पानी पी पी के बंदों के पेट ऑफर से जाते .....मतलब और कोई गुंजाइश न होती ...तब लोग उस ठंडे जल से मुंह धोने लगते .....और अपने परने (अंगोछे) गीले करने लगते ....चूंकि अकसर ये हैंड-पंप किसी बहुत पुराने बरगद, शीशम के पेड़ के नीचे होता तो यह नज़ारा भी देखने लायक होता था .....उस पेड़ और उस हैंडपंप के लिए एक कृतज्ञता का भाव स्वतः पैदा हो जाता था ....
लिखते लिखते एक बात याद आ रही है कि कुछ स्टेशन वहां के खारे नमकीन पानी के लिए भी जाने जाते थे क्योंकि वहां पर पानी तो लोग जैसे तैसे मजबूरी में पी लेते थे लेकिन चाय वाय वहां की पसंद न की जाती थी- नमकीन पानी वाली चाय कोई कैसे पिए......
अच्छा, एक बात है जब लोग रात में सफर करते या लंबा सफ़र करते तो साथ में एक मश्क में पानी भर ले कर चलते...मेरी सब से पुरानी याद है 1967-68 के आस पास की ..हम लोगों ने अमृतसर से फ्रंटियर ट्रेन पकड़ी है, फर्स्ट क्लास के एक डिब्बे में हम सब एक साथ हैं...मेरे पिता जी एक बहुत बढ़िया एल्यूमिनियम की फ्लॉस्क लाए थे ...जिस का ढक्कन भी एल्यूमिनियम का होता था . एक चेन से बंधा हुआ ...बाहर एक मोटा सा फेल्ट जैसा कपड़ा लगता होता था ...एक तो उस में पीने का पानी था और दूसरी हमारे पास एक पानी की मश्क थी .. जिस में यही 1-2 लिटर पानी आता होती ...जिसे मेरे पिता जी रस्सी से उस डिब्बे की खिड़की के साथ बांध रहे हैं, ताकि हवा लगने से पानी ठंडा हो जाए.....यह नज़ारा मेरी यादों की स्क्रीन पर यूं का यूं मानो फ्रीज़ हुआ पड़ा है ....
अच्छा, 1970 के दशक के थोड़ा इधर उधर की बात याद करें तो लंबे सफर में पानी की सुराही लेकर चलने का रिवाज चल निकला था ....नहीं, मैंने यह क्या लिख दिया ...रिवाज.....
रिवाज वाज कुछ नहीं, उन दिनों सब कुछ ज़रूरत से तय होता था ....
हां, तो सुराही लेेकर सफर में चलना तो है लेकिन घर से जब रिक्शे या तांगे पर स्टेशन आते थे तो उस वक्त वैसे ही इतना भारी भरकम सामान - बड़े बड़े लोहे के 1-2 ट्रंक और एक बड़ा सा बिस्तरबंद और अगर हमारी दादी भी साथ होती तो एक दो पीपे भी साथ होते थे ...(पीपे तो आप समझते ही होंगे, वहीं बड़े बड़े टीन के घी के खाली डिब्बे जिन पर ढक्कन और कुंडा लगवा लिया जाता था ....वैसे लगवाने की ज़रूरत न पड़ती थी, ऐसे डिब्बे बाज़ार में मिलते थे और उस दौर के बुज़ुर्गों के ये हॉट-फेवरेट होते थे क्योंकि इन में छोटा सा ताला (नाम के लिए बस...) लग जाता था और अगर ताला न भी मिलता तो सिर की सूईं मरोड़ कर उस से ताले का काम ले लिया जाता ....) ...
तो फिर सुराही तो स्टेशन ही से खरीद ली जाती थी ....अकसर स्टेशन पर मिल जाती। नहीं तो अमृतसर स्टेशन के बाहर दुकान से ये सुराही 8-10 रूपए में मिल जाती थी ....और पानी डाल कर उस की लीकेज भी चेक करवा के आना पड़ता था ...लेकिन वक्त की कोई टेंशन नही होती थी ....वक्त खुल्लम खुल्ला रहता था....गाड़ी छूटने से लगभग पौन-एक घंटा पहले आ जाएगा कोई परिवार स्टेशन पर तो सब के पास अपने आप काम करने के लिए टाइम ही टाइम होता था ....मैं अपना 2 रुपए वाला स्कूटर लेकर खुश हो जाता, बड़ी बहन अपनी कोई मैगज़ीन खरीद लेती, बड़ा भाई पूरी छोले खाने में बिज़ी हो जाता ....मां ट्रंक पर बैठी रहती, पिता जी सिगरेट के छल्ले उडाते हुए प्लेटफार्म पर घूमते रहते ....रिजर्वेशन का जुगाड़ करने में लगे दिखते....जी हां, उन दिनों सब काम जुगाड़ ही से चलते थे ....गाड़ी के अंदर बैठने तक पता नहीं होता था कि रिज़र्वेशन कंफर्म है भी या नहीं.....
और मेरा काम था प्लेटफार्म के नल से सुराही को भर के लाना और उसे एहतियात से रखना .....कहीं टूट-फूट गई तो पंगा ...पंगा वंगा वैसे कुछ नहीं, हमारे यहां किसी को, कभी भी, कुछ भी हो जाए डांट-वांट लगाने का कुछ चलन नहीं था, लेकिन सब लोग वैसे ही विचारशील थे ...छोटे, बड़े सभी। यही हमारी सब से सुखद यादें है। हां, भरी हुई सुराही पानी की होती थी तो सफ़र आराम से कट जाता था ... ज़रूरत न होने पर भी बार बार पानी पीने की इच्छा जाग जाती थी ...मानो उस में पानी न, शरबत भरा हो ....
पहली बार प्लास्टिक की बोतल देखी 1977 में....
मई 1977 के दिन, बम्बई सेंट्रल स्टेशन ....मेरा भाई हमें स्टेशन पर छोड़ने आया था...हमने डी-लक्स ट्रेन से अमृतसर जाना था ...जब पानी की बात चली तो वह जाकर एक प्लास्टिक की पानी की बोतल ले कर आया ....यह एक ब़़ड़ी सी डेढ़-दो लिटर क्षमता की पानी की खाली बोतल थी.....बिल्कुल पतले से प्लास्टिक से तैयरा, ऊपर ढक्कन लगा हुई था और पकड़ने के लिए या कंधे पर लटकाने के लिए एक पतला सा स्ट्रैप था .....हम उस बोतल को देख कर बहुत खुश हुए.....लेकिन सफर के दौरान उस में रखा पानी इतना गर्म हो गया कि उसे पीना दुश्वार था ...फिर कभी हम लोग उस पानी का प्लास्टिक वाली बोतल को लेकर सफर में नहीं गए....लेकिन हिंदोस्तानी घरों में कोई भी चीज़ को आसानी से फैंका नहीं जाता....मुझे याद आ रहा है माता श्री ने उस में कच्चे चावल स्टोर करने शुरू कर दिए......
मैं अपने ब्लॉग में अकसर लोगों को कहता हूं कि कुछ न कुछ लिखते रहा करें....कम से कम डॉयरी ही लिखा करें....इस का सब से बड़ा फायदा यही होता है कि पता नहीं कहां पर दबी पड़ी यादें उभरने लगती हैं....जैसे कि मैं एक बात भूल ही गया था कि एक दौर वह भी आया था जब 1-2 लिटर की सफेद रंग की कैनीयां (जैसे हरिद्वार में गंगा जल लाने के लिए मिलती हैं) मिलने लगी थीं, सफर में पानी साथ लेकर चलने के लिए। बाद में तो बड़ी बड़ी पानी के कैन लेकर लोग देिख जाते थे .....अगर आप की उम्र भी पक चुकी है तो आप भी ये सब देखते देखते ही पके होंगे....
लेकिन हां, अगले कुछ ही सालों में वो एक,डेढ, दो लीटर वाली ईगल और सैल्लो की मजबूत सी बोतलें बिकने लगी थीं ....जिन्हें सफर में लेकर जाया जाता ....पानी अकसर ठीक ठाक ठंडा भी रह जाता.....हमने भी ऐसी ही एक ढ़ाई लीटर वाली बोतल भी खरीद ली, बाद में एक बढ़िया सी ईगल की पांच लिटर वाली बोतल भी खरीद ली.....जाते थे कभी कभी इन को सफर में साथ लेकर ....ठंडे पानी से भर कर। गाड़ी में एक दूसरे को पानी की ज़रूरत होती तो लोग आगे बढ़ कर उसे पानी दे देते.....किसी का बच्चा पानी की प्यास की वजह से अगर रो रहा होता, या गर्मी की वजह से किसी बुज़ुर्ग बीबी का दिल घटने लगता ....इन सब के लिए इस तरह की पानी की बोतलें बडे़ काम आती थीं....
एक बात और बहुत बार 1980 के आस पास की बातें हैं...एक ईगल की लंबी से फ्लास्क में हम लोग घर में फ्रिज में जमी बर्फ डाल कर उस में ले जाते थे ...पानी को अच्छे से ठंडा कर के पीने के लिए....।
बस, सब कुछ सही सलामत चल रहा था कि अचानक ये 15-20 रुपए वाली पानी की बोतलें हमारी ज़िंदगी में आ गई ....हर तरफ़ प्लास्टिक के अंंबार लगे हुए हैं.....हर तरफ़ पहा़ड़ बन रहे हैं प्लास्टिक के ....जो फिर धीरे धीरे हमारी ज़िंदगी में ज़हर घोल रहे हैं...हवा, पानी के ज़रिए.......लेकिन हम हैं कि हमें किसी की कोई नसीहत असर नहीं करती, हमें माईक्रोप्लास्टिक वाली बात किताबी लगती है....
पोस्ट बंद करने का वक्त है...पानी की बातें हुईं तो बारिश याद आ गई ...और बारिश की याद आते ही बहुत से गीत याद आने लगते हैं....यह गीत भी मेरे दिल के बहुत करीब है ....जिस तरह की हूक से मेघ को बुलाया जा रहा है, उस का दिल तो पसीजना ही था.....
PS....यह जो मैंने ऊपर सुराही की फोटो चसपा की है, वह गूगल से ली है.....एक से एक बढ़ कर फैंसी सुराहीयां दिखीं मुझे गूगल सर्च के बाद ...लेकिन यह सुराही मुझे उस सुराही से मेल खाती दिखी जिसे हम लोग सफर पर चलने से पहले अमृतसर स्टेशन के बाहर की किसी दुकान से खरीदा करते थे ....सुनहरी, मीठी यादें....😎😂...आप भी इस टापिक से बावस्ता अपनी यादें नीचे कमेंट में लिखिएगा....अच्छा लगेगा...
गुज़रे दौर के लोग और बच्चे इतने सीधे थे कि जा कर ट्रेन के वॉशरूम से ही पानी पी लेते थे, मांं बाप बाद में उन को मना करने लगे कि वह पीने वाला पानी नहीं है।