गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

अमृतसर में नहीं बचा अब कोई भी पुराना सिनेमा-घर

आज स्कूल वाले ग्रुप में हम सब ने बहुत मगज़मारी की -अमृतसर के सिनेमा घरों के नाम याद करने के चक्कर में पड़े रहे...कल से मन दुःखी है, कल इरफ़ान खान चला गया...आज जब एक स्कूल के साथी ने ऋषि कपूर की रुख्सती की ख़बर बताई तो बहुत बुरा लगा ...मैंने ऐसे ही लिखा कि ऋषि कपूर की तो बहुत सी फ़िल्में हम लोगों ने इन थियेटरों में ही देखीं...मैंने कुछ थियेटरों के नाम गिनाए....अचानक मुझे एक थियेटर का नाम भूल गया जो ऊंचे पुल के नीचे हुआ करता था...बस, वहां से ऐसा सिलसिला चला - शायद डेढ़-दो घंटे --बीच बीच में ऑडियो मैसेज भी ...एक तरह की ज़ूम मीटिंग जैसा ...जितना जिस को पता था ...उसने उसी वक्त बताया ..किसी ने कुल गिनती बता दी ...किसी ने किसी टाकीज़ का रास्ता समझा दिया... और लो जी अमृतसर की 19 टाकीज़ की लिस्ट तैयार हो गई... एक आधी अधूरी लिस्ट अभी ग्रुप पर हाथ से लिख कर डाली ही थी तो बैंक मैनेजर योगेश साहब को हमारी हैंड-राइटिंग के बारे में कुछ याद आ गया तो कहने लगे कि अभी भी इतना ख़ुबसूरत लिखते हो, प्रवीण... 😀अच्छा लगा ...कमबख़्त ये सब बातें अभी भी इन्हें अच्छे से याद हैं, यह मानना पडे़गा..

अफ़सोस इस बात का हुआ कि अब इन में से एक भी टाकीज़ नहीं है अमृतसर में ...जैसा मुझे अपने स्कूल वाले गैंग से पता चला


चलिए, लिस्ट तो मैं यहां भी एक लगा ही देता हूं...क्योंकि मैं अकसर सोचता हूं कि मेरे पास फ़िल्मों, फ़िल्मी गानों, गीतकारों, रेडियो प्रोग्रामों के अलावा कुछ भी नहीं है ...ध्यान इन सब चीज़ों में भी अटका रहता था ... आते जाते रास्ते में जो भी टाकीज़ दिखती, वहां रुक कर शो के टाइम पता कर लेने ..होता चाहे उन में 15 मिनट का ही फ़र्क था, एक थियेटर से दूसरे थियेटर के शो-टाइमिंग में ...

सिटी लाइट - यह थियेटर अमृतसर के पुतलीघर एरिया में था - वहां पर हम ने बहुत सी फिल्में देखीं...आम तौर पर यह वह थियेटर था जो थोड़ा सस्ता सा समझा जाता था ... मुझे याद है मैं बहुत छोटा था, मैंने 'धर्मा' फिल्म वहां पर देखी थी...एक और बचपन की याद है ...जाडे़ के दिन थे ..मां और उन की मोहल्ले की तीन चार सहेलियां एक दिन मैटीनी शो देख कर आईं... आते आते अंधेरा पड़ चुका था... लेकिन मां बहुत खुश थी ..वे सब 'तलाश' फ़िल्म देख कर आईं थीं, मां को बहुत पसंद आई थीं यह फ़िल्म...
कुछ कुछ याद है यह थिेयेटर में तो हम लोग तभी जाने की सोचते जब जेब में पैसे होते कम और फ़िल्म देखने को मन मचल रहा होता ...जहां तक मुझे याद है वहां पर टिकट 1-2 रूपये में मिल ही जाया करती थी...ये सब 45-50 साल पहले की बातें हैं.

प्रकाश - प्रकाश टाकीज़ अमृतसर स्टेशन के बिल्कुल सामने हुआ करती थी और यहां पर तो बहुत ही फ़िल्में देखीं...'खून-पसीना', 'हेराफेरी', 'शोले', 'नटवरलाल' ....और भी पता नहीं कितनी ही लेकिन बहुत सी याद नहीं आ रही हैं...इस थियेटर में तो फ़िल्म देखना ऐसे था जैसे बाज़ार तक ही जा रहे हैं.. अब नहीं है..

एनम - यह थियेटर जहां तक मुझे याद है 1972 के आसपास तैयार हुआ था .. मेरी मौसी की नयी नयी शादी हुई थी, मौसा जी के साथ आईं, फिल्म देखने तो जाना ही था, साईकिल रिक्शा पर मैं सब से पहले सवार हो बैठा...फिल्म थी 'जुगनू'.... वाह, मज़ा आ गया ...धर्मेंद्र की फिल्म . फिर तो उस एनम में बहुत फ़िल्में देखीं...जहां तक मुझे याद है वहां टिकट खरीदना एक सिरदर्दी हुआ करती थी ..ख़ैर, अब जो बीत गया सो उसे जाने देते हैं......कुछ साल पहले मैं जब अमृतसर गया और उधर से निकला तो मैंने उस पुरानी बिल्डिंग की फोटो खींचनी चाही लेकिन मेरे फोन की बैटरी ही नहीं थी ...और एक बात, मेरी पसंदीदा फिल्म 'फ़कीरा' भी तो मैंने दीदी-जीजा जी के साथ यहीं देखी थीं, यही कोई 1976 के आस पास की बात होगी...
एक फिल्म और भी देखी थी वहां पर नवीं जमात में था ...ऋषि कपूर और रंजीता की 'लैला मजनू' --- वाह, क्या मज़ा आया था ..

आदर्श टाकीज़ - यह लारेंस रोड चौंक पर थी ...वहां पर ज़्यादा फ़िल्में देखने का मौका नहीं मिला - यही दो चार देखी होगीं...

नंदन - यह भी एक बढ़िया टाकीज़ थी ...बुहत सी फ़िल्में देखीं वहां पर भी ...लेकिन 'शान' और 'दोस्ताना' तो याद आ रही है ...'याराना' का पता नहीं कहां देखी थी..

अमृत टाकीज़ - यह कटड़ा जैमल सिहं पर थी ...आज ही इस का नाम याद दिलाया गया ..मुझे नहीं लगता कि यहां पर कोई भी फिल्म देखी हो ...पता नहीं यह बड़ी अजीब सी लगती थी टाकीज़ --इस के साथ ही मेरा टेलर मास्टर था जहां से मैं हमेशा कपड़े सिलवाया करता था...ऐसे कोई डिज़ाइनर कपडे़ नहीं होते थे...सीधी सादी पतलून कमीज़ बडे़ बड़े कॉलरों वाली उन दिनों के हीरो लोगों की नकल करने के लिए ...😀- हम भी परले दरजे के बेवकूफ़ हुआ करते थे. ..थे मतलब!!?

चित्रा टाकीज़ - यह टाकीज़ अमृतसर के हाल गेट के बाहर हुआ करती थी ...कुछ फिल्में देखीं वहां भी ..लेकिन वह भी पुराना ही थियेटर था ...एक याद है उस के साथ भी जुड़ी हुई ...एक बार मोहल्ले की छःसात औरतें और उन के बच्चे हम लोग एक साथ वहां फिल्म देखने गये थे ...'दो कलियां' ....ओ हो, दो कलियां फ़िल्म का नाम लिया और उस में नीतू सिंह (बाल कलाकार) का वह गीत याद आ गया ..बच्चे मन के सच्चे, सारे जग की आंख के तारे ....बार बार ध्यान ऋषि कपूर के परिवार की तरफ़ जा रहा है, ईश्वर उन्हें यह सदमा सहने की हिम्मत दे।यहां पर भी कभी कभी पंजाबी फिल्में लगी दिखती थीं...

अमृत टाकीज़ - इस का रास्ता समझने में मुझे आज बहुत दिक्कत हुई ...कईं साथियों के ऑडियो मैसेज आने के बाद जगह की समझ तो आ गई लेकिन यह भी लगभग यकीं हो गया कि वहां पर कोई फ़िल्म देखी ही नहीं होगी...जी हां...लेकिन नाम इस का ज़रूर सुनते थे. बाद में अपने एक साथी से पता चला कि यह तो फैमिली टाइप के लिए फिल्म-थियेटर नहीं था, मतलब तो आप समझ ही गये होंगे, आप भी कौन सा इतने अनाडी़ हैं 😉

रिजेंट - यह डीएवी कालेज के पास ही एक मशहूर सरदार लस्सी वाला हुआ करता था, उस के सामने यह रिजेंट टाकी थी ...यहां भी कम ही फ़िल्में देखीं...बहुत कम ...और कालेज से भाग कर फ़िल्में विल्में देखना हमें इस से बड़ा डर लगता था ...डर क्या, कमबख़्त पाप लगता था, सच कह रहा हूं.. इस के बारे में सोचते हुए भी डर लगता था, ऐसा नहीं था कि कोई हमारी सीआईडी कर रहा होता था, लेकिन नहीं, बस उन दिनों यही था कि कालेज आने का मतलब है अच्छे से पढ़ कर घर लौट जाना है ...😁😂

न्यू रियाल्टो - यह भी रेनोवेट हुआ था ...अच्छा हो गया हम लोगों के कालेज तक पहुंचते पहुंचते ...यह अमृतसर की हैड पोस्ट आफिस के सामने था ...और एक बात ..इस के बाहर अमृतसरी कुलचे छोले की रेहड़ी लगती थी ...वहां पर फ़िल्म देखने जाने का मतलब होता था कि पहले होगी अच्छे से पेट पूजा -फिर देख लेंगे फ़िल्म-विल्म ...वे भी क्या दिन थे, हम लोगों के पास वक़्त ही वक़्त था ...किसी किस्म की कोई जल्दी नहीं, कुलचे-छोले खाने के बाद, और उस के बाद गन्ने का रस पीने के बाद, फिर देखना कि अभी भी 30-40 मिनट हैं टिकट मिलने में ....लेकिन कोई दिक्कत नहीं, आराम से हम लोग थिेयेटर के बाहर लगी बीस तीस तस्वीरें देख देख कर ही फिल्म को पहले ही से थोडा़ बहुत समझने की फ़िराक़ में रहते ...

संगम - अमृतसर के बस अड्डे के सामने यह टाकीज़ थी ...शायद 1970-75 के आसपास नईं नईं ही बनी थी...यहां भी कुछ फिल्में देखीं...शायद 'रोटी-कपड़ा-मकान' भी यहीं देखी थी....लेकिन एक बात इस संगम टाकीज़ के बारे में यह भी बताते चलें कि यह अमृतसर के उन चंद थियेटर्ज़ में से था जहां पर पंजाबी फिल्में भी लगा करती थीं...जहां तक मुझे ध्यान है, मैंने चंद पंजाबी फिल्में ही थियेटरों में देखी होंगी...हमें उन दिनों ऐसा लगता था कि पंजाबी फ़िल्मों को तो घर में टीवी पर ही देख लेते हैं..

सूरज चंदा तारा -- यह शायद 1980 के आसपास तैयार हुआ ...हम लोग वहां जाकर बड़ी हैरानी से देखा करते थे कि एक ही इमारत में दो फिल्में एक साथ ..क्योंकि पहले तो सूरज चंदा ही था , तारा तो बाद में जुड़ा ...अच्छा लगता था वहां जाकर भी फिल्में देखना ..काफ़ी फ़िल्में देखीं वहां पर ...इस समय याद आ रहा है 1981 में अपने मामा के साथ रिक्शा में बैठ कर गया था ...कौन सी फिल्म थी ....'नसीब' ...फिल्म ऋषि कपूर की याद आ गई ...दरअसल कपूर परिवार का इतना योगदान है फिल्म इंडस्ट्री में कि इन की यादें उमड़-घुमड़ कर आती ही रहेंगी ..

पहले एक बात यह भी मज़ेदार थी कि जब रिश्तेदार आते थे तो उन्होंने एक दो फि़ल्में ज़रूर देखनी होती थीं .....और बच्चों  के मज़े हो जाते थे ...इस वक़त लिखते ही मुझे इतना मज़ा आ रहा है कि मैं ब्यां नहीं कर पा रहा हूं.. एक बात ईमानदारी से लिखूं कि यह लिखने-विखने का भी चक्कर ऐसा है कि आदमी अपनी यादों का एक अंश ही लिख पाता है ...बाकी तो उस के मन में ही बातें दबी की दबी रह जाती हैं.....लेकिन मैं ऐसा मानता हूं कि लेखक की कोशिश यही होनी चाहिए कि वह दिल खोल कर रख दे...लिखते वक्त ईमानदारी बेहद ज़रूरी है ..

 चन्दन-पैलेस(लिबर्टी), इन्द्र पैलेस, राज, निशात - ये चार टाकीज़ के नाम है जो हमारे वक्त के 1970 के आसपास (जब हम बच्चे थे) के अमृतसर के एक किनारे पर पड़ते थे ...क्या कहते थे ..गेट हकीमां के आगे....या कोई मज़ाक में कह देता कि ये थियेटर तो पाकिस्तान में हैं ....ज़्यादा लोग इधर जाते नहीं थे क्योंकि यहां पर फिल्में भी कुछ अजीब किस्म की ही लगती थीं...शायद पुरानी फ़िल्में भी हुआ करती थीं......लेेकिन अमृतसर के सिनेमा घरों में पहली फ़िल्म देखने की मेरी याद ही इन में से किसी थियेटर की है ...हम लोग वहां पर 'सास भी कभी बहू थी' का दोपहर का शो देखने गये थे ....मुझे तो वह गीत हमेशा के लिेए याद रह गया....ले लो चूड़ियां... ले लो चूडि़यां ...और दूसरा वह गीत ...ख़ाली डिब्बा ख़ाली बोतल, ख़ाली से मत नफ़रत करना ...ख़ाली सब संसार .। कालेज के दिनों में वहां पर 'डिस्को-डांसर' फ़िल्म  भी इन में से ही किसी थियेटर में ही देखना याद है ...दरअसल ये चारों टाकीज़ हैं भी बिल्कुल पास पास ही ...हैं क्या, हुआ करती थीं, अब तो वहां बने होंगे मल्टी-प्लेक्स...
लिबर्टी थियेटर के बारे में दोस्तों ने बताया कि यह चाटीविंड एरिया में था, पहले इस का नाम चंदन-पैलेस होता था, बाद में लिबर्टी थियेटर बन गया ...

गगन - यह भी 1975-76 के आस पास नया नया ही बना था ....यह अमृतसर के बटाला रोड पर था ... पहले तो जब भी दीदी जीजा जी अमृतसर आते उन के साथ फ़िल्में देखने का मुझे बड़ा शौक हुआ करता था ...उन के साथ ही 'मां', 'नूरी' जैसी फिल्में वहीं देखीं... फिर हमारा कालेज भी इस के साथ ही था, बीडीएस थर्ड ईयर में वहां पर एक बार फिल्म देखी ...पहले दिन ... 'बेताब' लगी थी उस दिन - 1982 की बात है ...

माया - जहां तक मुझे याद है यह थियेटर 1980 के आस पास तैयार हुआ था ..और यह छेहरटे में था ... थोडा़ दूर ही पड़ता था ..इसलिए बाद में शायद एक दो फ़िल्में कभी 1984-85 के बाद कभी देखी हों तो हों....याद कुछ भी नहीं है बिल्कुल ...हां, एक फ़िल्म तो देखी ही होगी ...क्या पता पोस्टर देखने ही अपने यैज़्दी पर निकल गया होऊंगा...फ़िल्म न ही देखी हो..

अशोका - जी हां, इस टॉकी का नाम नहीं याद आ रहा था, साथी मनिंदर सिंह ने बताया कि यह अशोका टाकीज़ है ...और इस की जगह के बारे में याद दिलाया ...यहां पर भी बहुत सी फ़िल्में देखीं...एक तो राज कुमार की फिल्म ही थी ..तेरे जीवन का है, कर्मों से नाता ..तू ही अपना भाग्य विधाता ... बहुत अच्छी थी फ़िल्म 'कर्मयोगी' .... यहां पर कुछ और फिल्में भी देखी थीं जैसे कि 'कस्मे-वादे' और 'गोलमाल' भी ....शायद 'विधाता' भी यहीं कहीं देखी होगी .......लेकिन उस का भी पक्का याद नहीं है..

आज के लिए इस डॉयरी को यहीं बंद कर रहा हूं ... Thanks Maninder, Vikram, Satish and Madhur for valuable inputs. Sweet remembrances of our school days.😁

ऋषि कपूर और इरफ़ान खां की रुह की शांति के लिए आइए दुआ करते हैं ....ऋषि कपूर को मैंने 7 मई 1975 को पहली बार हाटेल सन एंड सैंड मुंबई में टैनिस खेलते देखा था ..वहां पर मेरे चाचा की बेटी की शादी थी, उस शादी में राजकपूर, कृष्णा कपूर और राजेन्द्र कुमार भी शिरकत करने आए थे ....जाने कहां गये वो दिन !! राज कपूर का पैग़ाम हम सब के लिए ...देख भाई ज़रा देख के चलो ...आगे ही नहीं पीछे भी .... मां नहीं, बाप नहीं ....कुछ भी नहीं रहता है .......न तेरा है न मेरा है .........Show must go on!! अभी कल दोपहर ही मैं विविध भारती रेडियो पर ऋषि कपूर की एक पुराना इंटरव्यू सुन रहा था ...कितनी बढ़िया बातें सुना रहा था ... सुन कर बहुत अच्छा लगा था ... आज मन सच में बड़ा दुःखी है ....बंदे ने हमें 45 साल तक हंसाया, रूलाया और गुदगुदाया - हमें ही क्यों, हमारे मां-बाप को भी और हमारे बच्चों को भी!! विनम्र श्रद्धांजलि..

यारां नाल बहारां....शुक्रिया, योगेश ...इस यादों की बरात के लिए...जींदे वसदे रहो!









गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

कोरोना की बातें - 2. आख़िर यह इम्यूनिटि का चक्कर है क्या?

एक तो इस सोशल मीडिया ने लोगों का जीना दूभर कर रखा है ....सुबह सवेरे ही हरकत में आ जाते हैं वाट्सएप ज्ञानी लोग अपने अपने टोटकों के साथ कि भाई लोगों, इन चीज़ों का सेवन शुरू कर लीजिए, कोरोना आप के पास फटकेगा नहीं...कुछ तो इतने हास्यास्पद होते हैं कि क्या कहें...

चिकित्साकर्मी भी इन दिनों अपने काम में इतने मसरूफ़ हैं कि उन्हें फ़ुरसत नहीं कि सोशल मीडिया की पोस्टों का खंडन अथवा समर्थन करते फिरें ...फिर भी वक्त निकाल कर विभिन्न जन संचार माध्यमों से वे पूरी कोशिश करते रहते हैं कि जनता तक सही सटीक जानकारी पहुंचे।

किसी व्यक्ति में अगर ख़ून की कमी हो - हीमोग्लोबिन का स्तर सात-आठ ग्राम फ़ीसद हो तो मैंने बहुत बार कहते सुना है कि अनार का जूस शुरू कर दिया है परसों से ....रोज़ाना पिला रहे हैं....फिर उन्हें अच्छे से समझाना पड़ता है कि किसी भी तरह की बीमारी से बचने, टकराने का सब से बड़ा हथियार है सीधा-सादा हिंदोस्तानी खाना - और उस के साथ डाक्टर की सलाह से ली जाने वाली दवाई- अगर खाना ही उपलब्ध नहीं है या संतुलित खाना नहीं खाया जा रहा है तो फिर दिक्कतें ही दिक्कतें हैं ...एक -दो चार नहीं, अनेकों।

यह केवल खून की कमी की ही बात नहीं है ...बहुत सी तकलीफ़ों के लिए लोग अपने आप ही तरह तरह के टॉनिक लेकर इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं....दोष उन का भी नहीं है, जानकारी का अभाव है ...कईं बार जानकारी हो भी तो भी दिमाग काम करना बंद कर देता है जब हम लोग किसी अपने को तकलीफ़ में देखते हैं ...मेरी मां कैंसर की आखिरी स्टेज से जूझ रही थी ..उन दिनों अगर वह अच्छे से दिन भर में एक दो गिलास जूस के पी लेतीं ...या दो चार चम्मच खिचड़ी ही खा लेतीं तो मैं इस ख़ुशफ़हमी में मुबतिला हो जाता कि क्या पता मां की सांसें ऐसे ही चलती रहें......लेकिन अफ़सोस!!

कोई भी विपदा आन पड़े तो जैसे इंसान का दिमाग सुन्न हो जाता है .....ठीक वैसे ही कोरोना में तरह तरह के दावे कि यह ले लो, कोरोना नहीं होगा...वह ले लो कोरोना नहीं होगा...अभी याद आया कि मार्च ेेके शुरू में मैं होटल में एक कार्यक्रम में गया था ..लखनऊ की एक महान हस्ती हुई हैं...मुंशी नवल किशोर.. उन की याद में एक प्रोग्राम था ..प्रोग्राम के अंत में एक सज्जन ने छोटी छोटी शीशियां निकालीं जैसे इत्र की छोटी शीशीयां होती हैं...और उन्होंने कहा कि यह दवाई आप लोग नाक में सुबह शाम डाल लीजिए ...कोरोना पास नहीं फटक सकता। वे यूनानी चिकित्सा पद्धति से जुड़े हुए थे ...मुझे इस तरह के दावे में कोई दम नहीं दिखा ..और यह हो भी कैसे सकता है ..

मैं आज क्यों यह सब लिखने बैठ गया? - कल मैं पेट्रोल पंप पर था, पेट्रोल डालने वाला पहचानता है, पूछने लगा - डाक्टर साब, यह पैकेट पीने से क्या इस महामारी से बचा जा सकता है?, उसने जेब में से ओआरएस का पैकेट निकाल कर मुझे दिखाते हुए पूछा. कहने लगा कि आज कल खाने का तो कोई ठिकाना नहीं है, पास वाली दवाई की दुकान वाला कहता है कि रोज़ इसे पीते रहो, इस से इम्यूनिटि बढ़ जायेगी (उसने यही लफ़्ज़ बोला था) और इस महामारी से बचे रहोगे....मैंने उसे बताया कि कहीं आसपास कोई मौसमी फल या ककड़ी-खीरा-टमाटर मिल जाए तो उसे खाना बेहतर होगा ...और इस तरह की चीज़ों से कोई इम्यूनिटि-वूनिटि में इज़ाफ़ा नहीं होता..। बता रहा था कि एक पैकेट 35 रूपये का आता है, मैंने अपनी तरफ़ से तो उसे अच्छे से समझा दिया...

वैसे यह इम्यूनिटि का फंडा है क्या ..

यह इम्यूनिटि हम लोगों की जीवनशैली का टोटल है..इस में हम लोग क्या कर रहे हैं, क्या नहीं कर रहे हैं और हमारी सोच कैसी है , ये सब बाते हमारी इम्यूनिटी तय करती हैें.....इसलिए इस के बारे में अच्छे से समझने की ज़रूरत है ...

एक बात तो यह है कि अगर हम लोग कहते हैं कि इम्यूनिटि हमारी जीवन शैली का कुल जमा टोटल है और अगर पहले से किसी की ज़िंदगी बेपटड़ी भी रही है तो भी उसे मायूस होने की ज़रूरत नहीं....आज ही से शुरूआत की जा सकती है ...जब जागो तभी सवेरा...

व्यसन -

एक बहुत ज़रूरी बात यह है जितने भी व्यसन हैं वे हमारी इम्यूनिटि को गिरा देते हैं...इसलिए अगर आप इन तीस चालीस दिनों में मजबूरन ही सही, अगर किसी ऐसे ही व्यसन से दूर रह पाएं हैं तो अब इसे पास न फटकने दें....यह कोई कही-सुनी बात नहीं है ..बिल्कुल पत्थर पर लकीर जैसी पक्की बात है कि विभिन्न तरह के व्यसन हमारी इम्यूनिटि को कम कर के हमें मुख़्तलिफ़ बीमारीयों की तरफ़ धकेल देते हैं.....डाक्टरों का क्या है, उन्होंने तो इशारा ही करना होता है ...बाकी हर इंसान की ज़िंदगी अपनी है ....मैं परसों किसी को कह रहा था कि सिगरेट बंद कर दो...उसने कहा कि हां, बहुत कम पीता हूं.......अब आगे हम लोगों के पास कहने को रह ही क्या जाता है ......बच्चा बच्चा जानता है कि कोरोना का अजगर सारी कायनात पर फन उठाए खड़ा है और इस बीमारी में सब से ज़्यादा असर फ़ेफ़ड़ों पर ही होता है, ऐसे में क्यों सिगरेट, बीड़ी के चक्कर में फ़ेफ़ड़ों के लिए मुसीबत मोल ली जाए....क्योंकि आज की तारीख़ में उन का सही से काम करना भी तो ज़रूरी है .. उस के लिए हम सब को प्राणायाम ज़रूर करना चाहिए...अगर अभी तक नहीं किया तो क्या हुआ, आज ही से थोड़ा थोडा़ शुरू कीजिए...कहां से सीखें? - उस का जवाब यही है कि अगर हम चाहते हैं तो कुछ भी सीख लेते हैं...और हां, अगर प्राणायाम को किसी मज़हब के साथ जोड़ कर देखा जा रहा है तो इसे प्राणायाम् कहें ही न, इसे सांस की एक्सरसाइज़ कह लीजिए...(ब्रीदिंग एक्सरसाईज़). और जितना हो सके योगाभ्यास भी करें...

इम्यूनिटि का चक्कर उन सब चीज़ों से है जो हम करते हैं या नहीं करते हैं....हम लोग एक्सरसाईज़ करते हैं या नहीं, शरीर को हिलाते-ढुलाते हैं कि नहीं, सुबह की धूप में बैठते हैं या नहीं, घरों की खिड़कियां धूप और हवा के लिए खोलते भी हैं या नहीं, ये धार्मिक घृणा फैलाने वाली पोस्टों को देखते हैं या नहीं, अपने आप को संतुलित रखने के लिए मेडीटेशन (ध्यान) करते हैं या नहीं....अभी मुझे लिखते लिखते यही ख़्याल आ रहा है कि हमारी ज़िंदगी में आखिर ऐसी कौन सी चीज़ है जो हमारी इम्यूनिटि को प्रभावित नहीं करती ....सब कुछ करती है ...अभी ध्यान आया कि मैंने यह इम्यूनिटि लफ़्ज़ पहली बार अपने जीजा जी से सुना था --मैं आठवीं नवीं कक्षा में था, बार बार जुकाम हो जाता था ...बस में बैठते ही जी मितलाने लगता था ...एक बार उन्होंने कहा कि ये सब इम्यूनिटि कम होने की वजह से होता है .

हां तो दोस्तो बात इतनी है कि सादा खाइए...अब लॉक-डाउन में किसी को खाने के बारे में ज़्यादा उपदेश देना भी बहुत घटिया बात लगती है, ठीक है न जो भी जिसे मिल रहा है खा ही रहा है ....पड़ोस में रहने वाले कुछ लोगों की जान निकली रही पिछले दिनों की संतरे नहीं मिल पा रहे ....एक दिन कॉलोनी के बाहर संतरे देखे तो उन्हें बता दिया....एक बात और आप ने लॉक-डाउन के शुरूआती दिनों में बहुत सुनी होगी कि विटामिन सी लीजिेए...इस से इम्यूनिटि बढ़ जाती है ......ऐसा कुछ नहीं होता, डाक्टरों ने इस बात का खंडन किया है ....ठीक है, विटामिन सी लीजिए. ..अगर संतरे, आंवले जैसी चीज़ों के रूप में लेते हैं तो अच्छी बात है ...संतुलित आहार का हिस्सा है ....और संतुलित आहार तो इम्यूनिटि बढ़ाने में मददगार होता ही है ...

इम्यूनिटि भी एक ऐसा टॉपिक है कि अगर हम लोग इसके बारे में जान गए तो बात एक फ़िक़रे भर की है .....हमेशा अपने खाने पीने का ख़्याल रखें, एक्सरसाईज़ करें, व्यसनों से दूर रहें, प्राणायाम ज़रूर करिए, ध्यान ज़रूर करिए, सकारात्मक साहित्य देखिए एवं पढ़िए....नकारात्मक लोगों से कन्नी कतराते रहें .....प्रकृति के पास रहें ....अपनी हैसियत के मुताबिक़ खाना-पीना लेते रहें .....अगर हो सके तो सलाद, अंकुरित अनाज एवं दालें, और मौसमी फल भी ज़रूरी हैं..

इम्यूनिटि चाहे कुछ दिनों में नहीं बढ़ जाती लेकिन शुरूआत तो कभी भी कर ही सकते हैं ....तुलसी, शहद, अदरक, तरह तरह के काढ़े सब बढ़िया हैं ...करिए इन्हें ज़रूर इस्तेमाल करिए ....लेकिन ये ही केवल संजीवनी बूटी नहीं है कोरोना को मात देने के लिए ...ऊपर लिखी सभी बातों का ख़्याल रखिए ...

और क्या लिखें, अपना ख़्याल रखिए - मस्त रहिेए..

दिल की बात ...

जाते जाते मेरे दिल की बात -- यह जो ऊपर लिखा ये सब वैज्ञानिक बातें हैं ..एक दम मैडीकल तथ्यों पर आधारित ...जो मेरे बाएं तरफ़ के दिमाग ने लिखवा दीं.......लेकिन जैसा कि मैं अकसर बेटों से कहता हूं कि मेरे दिल और दिमाग में अकसर जंग छिड़ी होती है ...दिमाग कुछ कहता है -- और दिल कुछ और ....दिमाग की बात ऊपर लिख दी है ....लेकिन दिल यही कहता है कि हम कितना भी पढ़-लिख जाएं ....कितना भी ज्ञान बटोर लें .....लेकिन सब चीज़ों का कंट्रोलर तो कहीं और बैठा है .....बुल्ले शाह की ये बातें मेरा दाईं तरफ़ वाला दिमाग मुझे रह रह कर याद दिलाता रहता है ...



बुधवार, 22 अप्रैल 2020

बातें कोरोना की ....1

कोरोना के बारे में इतना कुछ सोशल मीडिया में आ चुका है कि अब तो डाक्टर भी सोच रहे होंगे कि हमारे कहने लायक रहा ही क्या...

हक़ीक़त है कि बहुत कुछ दिखा इस टॉपिक के ऊपर -- हर तरफ़ से ..और क़िस्म की बातें ...बहुत सी बातें गुमराह करने वाली-- दिक्कत यह है कि जो इन बातों को सोशल मीडिया पर शेयर कर रहा है उसे भी इस बात का इल्म नहीं होता कि वह क्या शेयर कर रहा है, पर उसे किसी ने वह जानकारी भेजी और उस ने आगे सरका दी...

मैं भी ज़्यादा बातें नहीं करना चाहता --- इस पोस्ट में तो दो चार बातें ही करूंगा .. क्योंकि बहुत सी बातें तो हम लोग पहले ही से जानते हैं...

यह जो सोशल-डिस्टेंसिंग वाली बात है ना, यह गंभीरता से लेने वाली बात है ...बहुत दुःख हुआ उस दिन जिस दिन घर ही में थाली बजाने को कहा गया था और दुनिया बाज़ारों में ढोल-नगाड़े लेकर पहुंच गई.. इस से लॉक-डाउन का मक़सद ख़त्म हो जाता है ..

यह बात हम सब लोग कोरोना के बारेे में अच्छे से याद रख लें कि लॉक-डाउन के दौरान हम लोग कोरोना से जंग नहीं लड़ रहे हैं, हम इस से छिप रहे हैं ...इस का मतलब यह है कि लॉक-डाउन तो ज़रूरी है ही ...लेकिन जब लॉक-डाउन खुलेगा तो वह भी हमारे सब के इम्तिहान की घड़ी होगी...सरकारें जितना कर सकती हैं कर ही रही हैं, हम लोगों की भी ज़िम्मेदारी है -

इस बात तो नोट करें कि कोरोना अभी कहीं जाने वाला नहीं -- कब तक? - जब तक इस का कोई टीका तैयार नहीं हो जाता या लोगों में एक सामूहिक इम्यूनिटी पैदा नहीं हो जाती है ...इसे इंगलिश में हर्ड-इम्यूनिटी भी कह देते हैं ...इस बीमारी का टीका कब बनेगा..कोई कह रहा है एक साल लग सकता है, कोई डेढ़ साल कह रहा है ...सभी मेडीकल विशेषज्ञ इस काम में जुटे हुए हैं ...जी हां, एक तरीका तो वह है कि जब लोगों को इस का टीका लग जाएगा तो उन में इस बीमारी से लड़ने की शक्ति पैदा हो जाती है .. बिल्कुल वैसे ही जैसे बहुत सी दूसरी बीमारियों के लिए टीके लगते हैं और लोग उन बीमारीयों से बचे रहते हैं....यह तो एक तरीका है, दूसरा तरीका है ...अगर सारी जनसंख्या का कुछ प्रतिशत (मुझे नहीं प्रतिशत कितना है ..कुछ कह रहे हैं 60 फ़ीसद, कुछ कह रहे हैं 90 फ़ीसद, लेकिन इतनी गहराई में आप भी न जाएं) इस बीमारी से संक्रमित हो जायेगा ...चाहे उन में इस बीमारी का ज़्यादा जटिल रूप देखने को नहीं भी मिलेगा (और 80-85 प्रतिशत केसों में ऐसा ही होगा) या ऐसा भी हो सकता है कि उन में से बहुत से लोगों में कुछ लक्षण ही न हों ...चाहें किसी में लक्षण हों, चाहे थोड़े-बहुत लक्षण हों अथवा बीमारी की जटिल व्याधियों के लिए उसे अस्पताल में रहना पड़ा हो ....बात सीधी सीधी इतनी सी है कि जो भी हो लेकिन इन सब लोगों में इस बीमारी से लड़ने के लिए (इम्यूनिटी) एंटीबॉडी बन चुके हैं...यह एक तरह का हथियार होता है जो किसी बीमारी से हमारी रक्षा करता है ..

अब एक बात और अच्छे से सुनिए ...बहुत सी बीमारीयां तो ऐसी ही होती हैं जैसे हैपेटाइटिस बी ...टेटनस, काली खांसी आदि कि एक बार शरीर में इन से बचाव का टीका लग गया तो यह हमें उसे बीमारी से सुरक्षा प्रदान करता है ... हां, यह होता है कि कईं बार डाक्टर के मशविरे के मुताबिक बूस्टर डोज़ लगवानी होती है ..

लेकिन मसला कोरोना में यह भी बताया जा रहा है कि कुछ केसों में यह दोबारा भी हो रहा है ....इसलिए किसी किस्म की ढिलाई की गुंजाइश नहीं है ......कोई ऐसा न समझे कि एक बार कोरोना हो गया तो फिर से नहीं होगा...इसलिए वह तो जैसे मरज़ी घूमे ...बिना मास्क लगाए और बिना सोशल-डिस्टेंसिग का ख़्याल रखे। नहीं, ऐसा मुनासिब नही है क्योंकि इस के फिर से होने के भी कुछ केस सामने आए हैं....मेडीकल वैज्ञानिकों को यह लग रहा है कि जिन लोगों में एक बार कोरोना होने के बाद दूसरी बार हुआ ...उन में यह वॉयरस के बदले हुए रूप (वॉयरस म्यूटेट होने से) की वजह से हो रहा है ....ये सब बातें अभी ज़्यादा खोज की स्टेज पर ही हैं, इसलिए बस इसे भी थोड़ा ख़्याल में रख लीजिए।


एक बात का ख्याल रखना और भी ज़रूरी है कि हो सकता है कि जिस इंसान को कोरोना इंफेक्शन तो है लेकिन लक्षण कुछ नहीं हैं....लेकिन क़ाबिले-गौर बात यह है कि यह शख्स भी वॉयरस संक्रमण आगे फैलाने में सक्षम है और संक्रमण होने से अगले 35 दिन तक ....चाहे ख़ुद इस में लक्षण नहीं हैं.....इसलिए यह जो बात है न कि हम लोग मुंह पर गमछा रख लेते हैं या महिलाएं कहती हैं कि हम फल-सब्जी लेने जाते हैं तो मुंह पर दुपट्टा रख लेते हैं ....नहीं, यह गलत है ...चेहरे पर घर पर बना हुआ फेस-मास्क तो लगाना ही होगा...हमेशा याद रखिए...

लेखक अपनी ड्यूटी पर 

बाकी की बातें कल करेंगे .... लेकिन इतना ज़रूर ख़्यार रखिए कि घर में बने फेस-मास्क ज़रूर पहन लिया करें ... यह बहुत ज़रूरी है...यह जंग लंबी चलने वाली है ........इसलिए लॉक-डाउन के दिनों के बाद भी हमें एहतियात बरतनी होंगी ...मेडिकल विशेषज्ञों का मानना है लॉक-डाउन खुलने के बाद कोरोना के केसों में बहुत इज़ाफ़ा होगा ....यह जो दो-तीन महीने का समय सरकारी सेहत विभाग को मिला है इस में बहुत सी तैयारियां की जा चुकी हैं और अभी भी की जा रही हैं ताकि अचानक बहुत से केसों के आ जाने से चिकित्सा तंत्र कैसे उन्हें संभाल पाने में सक्षम रहे..


कल सुबह मैं आप से रोग-प्रतिरोधक शक्ति बढा़ने के बारे में विस्तार से बात करूंगा ...अच्छा, आज यहीं बंद करते हैं ....मस्त रहिए, स्वस्थ रहिए....हिंदु-मुस्लिम वाले मुद्दों में न उलझिए....कुछ हाथ नहीं लगेगा...हम सब एक हैं...बेचारे सब परेशान हैं...सब के लिए दुआ करिए...बड़ी ताक़त है दुआ में ...




शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

आने वाला पल जाने वाला है ...

आने वाला पल जाने वाला है ... अभी बिग-एफ.एम पर यह गीत बज रहा था तो मुझे याद आ गया कि इसने तो मुझे एक इनाम भी दिलाया था अभी हाल ही में ... एक कांफ्रेस में गया था ...वहां पर एक गेम चल रही थी ...गाने की शुरूआती धुन वे बजाते थे और धुन बजाते ही जितनी जल्दी हो सके आप अपना हाथ खड़ा करेंगे ...बस, इस की धुन शुरू हुई और दो-तीन सैकेंड में मैंने पहचान लिया - फिर मुझे वह अपनी बेसुरी आवाज़ में उसे गाना भी था... और इनाम भी मिला...खुशी इतनी हुई जितनी पांचवी कक्षा में योग्यता छात्रवृत्ति की लिस्ट में आने पर हुई थी....

फिल्मी गाने भी क्या चीज़ हैं...मैं तो इन्हें सुनते ही इन्हें लिखने वालों के बारे में सोचने लगता हूं कि कैसे उन्होंने ये सब लिख दिया... अद्भुत ...मुझे साठ-सत्तर के अधिकतर गाने बहुत भाते हैं...इन के लिरिक्स, म्यूज़िक और परदे पर इन पर अभिनय करने वाले .. वाह ..वाह ...वाह!

सोचता हूं बहुत बार कि बचपन में जवानी में हम गीतों को उन के खिलंड़रेपन के लिए पसंद करते थे ...फिर धीरे धीरे जैसे जैसे उम्र बढ़ती है तो उन के बोल भी दिमाग में कहीं दस्तक देने लगते हैं... और 50-60 की उम्र के आसपास जब ज़िंदगी के तज़ुर्बों वाले एयर-फोन्स के साथ उन्हें सुनते हैं ...फ़ुर्सत में ---तो लिखने वालों के हाथ चूम लेने की हसरत होती है ... लेकिन वे दरवेश अब कहां ...वे तो अपना काम कर के वो गए ..वो गए....कुछ के बारे में बहुत कुछ जानने का मौका मिलता है .. फिर भी कम ही लगता है ... मसलन, कुछ अरसे से उस महान गीतकार आनंद बक्शी के बेटे राकेश बक्शी से उन के बारे में सुनता रहता हूं ....बहुत अच्छा लगता है ...और उन के गीतों की रचना के बारे में मज़ेदार बातें पता चलती हैं..।

महान गीतकार नीरज जी को भी लखनऊ में बहुत बार मिलने का मौका मिला .. उन का लिखा हुआ एक एक गीत भी मन को छू जाता है ..बेमिसाल गीत लिख दिए उन्होंने भी ..और सभी गीतकारों के बारे में पढ़ना मुझे बहुत भाता है ..

किस किस का नाम लूं ....सभी गीतकारों ने हमें ऐसे तोहफ़े दिेए हैं कि उन की तारीफ़ करने के लिए अल्फ़ाज़ भी तो चाहिए...वे कहां से लाऊं!!

अच्छा एक बात और शेयर करूं ...मैं उर्दू सीख रहा था ...ज़माने के हिसाब से मैं थोड़ा डफर तो हूं ही ...चलिए, कोई बात नहीं ...लेकिन उर्दू पढ़ने-लिखने की तमन्ना बहुत थी ...कुछ महीने बीत गए लेकिन वाक्यों की बनावट-बुनावट पल्ले ही न पड़ रही थी ...ऐसे में क्या हुआ कि लखनऊ की सड़कों की ख़ाक छानते हुए (मैंने यह काम बहुत किया है..) मुझे कहीं से मुझे उर्दू में लिखी फुटपाथ से वे 5-10 रूपये में बिकने वाली किताबें मिल गईं ...किशोर कुमार के गीत, मो.रफ़ी के गीत ... बस, फिर क्या था, वे सब मेरे पसंदीदा गीत तो थे ही ...मैंने उर्दू में लिखी इबारत को समझने-पढ़ने के लिए उन किताबों को खोल कर यू-ट्यूब पर वे गीत सुनने शुरू कर दिए ... बस, फिर क्या था, मुझे उर्दू के अल्फ़ाज़ की बनावट की पहचान होने लगी ... मैं आज सोचता हूं तो मुझे हंसी भी आती है कि कईं बार जुगाड़ भी कैसे काम कर जाते हैं..

चलिए, वह गीत तो सुन लें जिसे मैंने शायद कॉलेज में पांव रखते ही गोलमाल फिल्म में देखा था ......फिल्म भी हम लोगों ने स्कूल-कॉलेज के ज़माने में शायद ही कोई छोडी़ हो, 40 साल पुराना यह वह दौर था जब मेरी प्यारी मौसी को यह गलतफ़हमी हो गई कि उस के भांजे की शक्ल अमोल पालेकर से कितनी मिलती है और वह सब को यह बताती फिरती थीं (शुरू ही से हम ऐसे तोंदू-तोतले थोड़े न थे..) 😂

अब इच्छा नहीं होती मल्टीप्लेक्स में जाकर देखने की .....अब तो कईँ बार हो चुका है कि मैं इंटरवल से पहले ही सो जाता हूं क्योंकि वह से भाग कर बाहर आने की सर्वसम्मति नहीं बन पाती ...आजकल तो जब भी फिल्म देख कर आते हैं, अकसर एक तरह से निश्चय करते ही हाल से निकलते हैं कि बस, अब नहीं आया करेंगे !!

यकीं रखिए, यह कोरोना वाला मौजूदा पल भी जल्दी चला जाएगा ...लेकिन इस के लिए आप लोग घर में बैठे रहिए...मिनट मिनट की यह ख़बर ढूंढने के चक्कर में कि यह महामारी किस चरण में हैं, आप अपने चरणों को अपने घर ही में रोके रखिए...बड़ी मेहरबानी होगी ..

यह रहा उस गीत का यू-ट्यूब लिंक
https://youtu.be/AFRAFHtU-PE