बुधवार, 21 जून 2017

जिह्वा के ज़ख्म को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते ...

यह तस्वीर एक ५५-५८ साल के एक बंदे की है ..इस तस्वीर में आप इस की जुबान की दाईं तरफ़ एक ज़ख्म देख सकते हैं...
एक महीना पहले यह मरीज़ अस्पताल में दाखिल है...और फिज़िशियन ने इसी जुबान के अल्सर की वजह से मुझे रेफर किया था...


मुझे देखते ही यह ज़ख्म कुछ अलग सा लगा था.. वैसा नहीं लगा जैसा किसी दांत आदि के चुभने से हो जाता है ...लेकिन इस बंदे की हिस्ट्री थोड़ा अलग सी थी..बता रहा था कि कभी हो जाता है, फिर कभी ठीक भी हो जाता है ...इसे विश्वास था कि यह कुछ दिनों में ठीक हो जायेगा..

मैंने जब पूछा कि कोई दांत तो नहीं इस जगह पर गढ़ता...तो इन्होंने मना किया...

मैंने भी किसी डेंटल कॉलेज के किसी विशेषज्ञ से राय लेना मुनासिब समझा...

वह जाने को राजी नहीं था...बड़ी मुश्किल से समझाया कि चेक-अप बहुत ज़रूरी है .. अगर कोई छोटा मोटा नुक्स है तो जल्दी इलाज हो जायेगा...

अगले दिन मैंने फोन किया कि दिखा कर आए...लेकिन बंदा नाराज़ था कि वहां तो पचास सीखने वाले डाक्टरों ने उसे घेर लिया...और मुझे कहने लगा कि मैं वहां नहीं जाऊंगा..

इस का हठ देख कर मैंने भी कहा कि अच्छा, एक काम करो, आप इसे मुझे पंद्रह दिन के बाद फिर एक बार दिखा कर जाइए...तब तक मैंने इन्हें एक माउथवॉश इस्तेमाल करने के लिए और एक जेल इस ज़ख्म पर लगाने के लिए दे दी ...
कुछ दिन मैं नहीं था ...बाहर था ...

आज सुबह ध्यान आया कि बंदे का पता किया जाए...फोन पर बड़ी खुशी से बताने लगे कि वह ज़ख्म बिल्कुल ठीक है ...मुझे भी खुशी हुई... मैंने कहा कि मुझे दिखा कर जाइए...


कुछ ही समय बाद वह मुझे दिखाने आ गए....आप इस तस्वीर में देख सकते हैं कि ज़ख्म पूरी तरह से ठीक हो चुका है ...
मैं थोड़ा हैरान था कि इस तरह का अल्सर जुबान पर हुआ और अपने आप ठीक भी हो गया..

फिर इस बंदे ने मुझे बताया कि डाक्टर साहब आप के मिलने के बाद मुझे लगा कि मेरा एक पीछे वाला हिलता हुआ दांत कभी कभी जुबान के इस हिस्से में गढ़ता था...आप तो बाहर गये हुए थे ...बताने लगा कि मैंने एक दिन दो पैग मार के उस दांत को हिला हिला के उखाड़ दिया ... और हंसने लगा ...

मैंने समझाया कि ऐसा करना कईं बार महंगा भी पड़ जाता है ...खतरनाक काम है!

बहरहाल, उसने बताया कि उस के तीन चार दिन के बाद ही यह ज़ख्म ठीक हो गया....दवाई मैं लगाता भी रहा और कुल्ले भी करता रहा ..

मैंने कहा कि यह तो चलो बहुत बढ़िया है लेकिन फिर भी तंबाकू का बिल्कुल भी इस्तेमाल मत करें....यह जो मुंह के किनारे इस तरह से होंठ फटे हुए हैं...एक तरह से यह भी एक खतरे की घंटी है आने वाले समय के लिए..विशेषकर अगर तंबाकू का इस्तेमाल बंद नहीं किया गया तो ..

डाक्टर के पास जाने के भी आदाब हुआ करते हैं...

मुझे निदा फ़ाज़ली साहब के ये अल्फ़ाज़ अकसर याद आते हैं...

बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए...
(आदाब- शिष्टाचार) 

इसी तरह से जब हम लोग किसी डाक्टर के पास जाते हैं तो वहां पर भी जाने के आदाब हुआ करते हैं...कम से कम इतना शिष्टाचार तो होना ही चाहिए कि अपने मोबाइल फोन को पैंट की जेब में या महिलाएं अपने हैंड-बैग में डाल लें...यह बहुत ज़रूरी है ...

मैं सब जानता हूं कि बिना मोबाइल हाथ में लिेए भी किसी भी बातें ...कुछ भी रिकार्ड करने की तकनीक है...सब कुछ चल रहा है..लेकिन कुछ जगहों पर हमें विशेष एहतियात बरतनी चाहिए। और डाक्टर का क्लिनिक एक ऐसी जगह है जहां पर आप को अपने मोबाइल को पतलून की जेब में ही ठूंसे रखना चाहिए..

एक बात मैंने अनुभव की है कि जब हम लोग किसी प्राईव्हेट डाक्टर के पास जाते हैं ..हमारी जान निकली होती है ...कुछ तो ताम-झाम ही कईं बार ऐसा मिलता है और कुछ डराने वाली चुप्पी हर तरफ़ ऐसी पसरी होती है कि आप हिम्मत ही नहीं कर पाते कि अपने मोबाइल पर लगे रहें...आप उसे अकसर हाथ में भी नहीं रखते इन जगहों पर ...यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव हो सकता है...समय बदल रहा है, आप का क्या अनुभव है, आप जानें।

फिर आते हैं..सरकारी डाक्टर ...मैंने ऐसा सुना है कि जो सरकारी डाक्टर अपनी नौकरी के साथ साथ प्राईव्हेट प्रैक्टिस भी करते हैं...उन का भी मरीज़ों की नज़रों में बड़ा दबदबा होता है ...सच में उन से बात करने में भी डरते हैं...होता है...ज़रूर होता है...

लेकिन देखने में आया है कि जो सरकारी डाक्टर थोड़ा ढंग से बात कर लेते हैं तो मरीज़ और उस के अभिभावक भी तरह तरह की लिबर्टी लेना शुरू कर देते हैं...बहुत सी बातों का कोई असर नहीं पड़ता ...घिसते घिसते बहुत सी बातों को नज़रअंदाज़ करना हम सीख लेते हैं..लेकिन कमबख्त एक बात जो सब से ज़्यादा अखरती है कि हमारे चेंबर में मरीज़ हम से बात करते करते अपने मोबाईल पर किसी से बात करने लगे ....फिर किसी और का फोन आए ... फिर उस से गुफ्तगू चलने लगे ...यकीन मानिए किसी भी डाक्टर के लिए यह बड़ा ईरीटेटिंग बात है ....बहुत गुस्सा आता है... बातचीत का लिंक टूट जाता है ...

लेकिन इस से भी इरीटेटिंग बात यह है कि मरीज़ का तो काम चल रहा है और उस के साथ आया उस का फैमिली मैंबर उधऱ पास ही निरंतर फोन पर लगा हुआ है ...वह भी सहना पड़ता है ... विशेषकर सरकारी सेट-अप में ... और मुझे विश्वास है कि प्राईव्हेट प्रैक्टिस में मरीज़ ऐसा नहीं करते ...लेकिन सब से ज़्यादा गुस्सा तब आता है जब उन के साथ आया हुआ उस मरीज़ का बेटा या बेटी अपने फ़ोन पर तो निरंतर लगा ही हुआ है ... और अचानक मरीज़ का कुछ प्रोसिज़र करते हुए जब आप पीछे मुड़ के देखते हैं तो पाते हैं कि उसने तो फोन फोटो खींचने या वीडियो बनाने के लहज़े में पकड़ा हुआ है ...

तब भी अकसर हम से कुछ कहते नहीं बनता......लेकिन मेरी इतनी बात पर यकीं करिए कि बहुत बार इस तरह की इरीटेटिंग बातों से मरीज़ की ट्रीटमैंट प्लानिंग में थोड़ा बदलाव ज़रूर आ जाता है ...यकीनन.... नहीं, नहीं, मरीज़ का कुछ नुकसान तो नहीं होता ... बस, कहीं न कहीं कुछ कमी तो रह ही जाती है जब किसी डाक्टर को लगे कि कोई आप के पीछे बैठा आप का वीडियो बना रहा है ...

बच्चे छोटे हों या बड़ें....आज कल इन को मेनेज करना भी टेढ़ी खीर है ....लेकिन जहां तक हो सके हम बच्चों को कुछ जगहों पर जैसे किसी डाक्टर के पास जाने के क्या एटीकेट्स हैं, सिखा ही दें तो बेहतर होगा .. एक बात और भी है कि मोबाइल के अलावा भी बातचीत में भी ठहराव होना चाहिए....वह तो हर जगह ही ज़रूरी है ...The other day i was just contemplating that the difference between confidence, over-confidence and arrogance is very subtle, but this Life teaches us everything.

एक छोटा सा संकेत दे रहा हूं जाते जाते कि डाक्टर के पास जब आप बैठे हों या आप का कोई सगा-संबंधी बैठा हो तो यही समझिए कि आप किसी कोर्ट में किसी जज के सामने बैठे हैं...आप की बहुत सी बातें नोटिस की जा रही हैं....समझदार को इशारा ही काफ़ी होता है ...

सब समझते हैं कि हर जगह हर क्षेत्र में बाज़ारवाद है ....कोई अनाड़ी नहीं है .....लेकिन फिर भी डाक्टर, वकील, उस्ताद...को अपनी ऊल-जलूल हरकतों से इरीटेट मत करिए.....इसी में ही मरीज़, मुवक्किल एवं चेले-चपाटे की बेहतरी होती है।