शनिवार, 24 अक्टूबर 2015

मेरी मजबूरी समझो....कारड को तार

उस दिन मैं डाकिया डाक लाया वाला गाना सुन रहा था तो उस के लिरिक्स में यह भी आता है ...मेरी मजबूरी समझो..कारड को तार...(कार्ड को कारड कहने का देशी अंदाज़)...

जाने पहचाने लगे ये शब्द जिन्हें अकसर लोग अपने ख़तों में लिख दिया करते थे।

चाहे तार (टेलीग्राम) को यह देश शायद पिछले साल २६ जनवरी वाले दिन विदा कर चुका है...तारीख मुझे अच्छे से याद नहीं है...लेिकन कभी कभी तार पाने और भिजवाने के दिन यूं ही याद आ जाया करते हैं।

मेरी सब से पहली धुंधली सी याद मेरी दादी जी की बीमारी की टेलीग्राम थी...हम लोग तुंरत उन के पास चले गये...कुछ दिन ठहरे मेरे ताऊ जी के यहां...उन की हालत संभली तो हम लोग वापिस आ गये...लेिकन लगभग एक महीने बाद फिर उन के स्वर्गवास होने की ही तार आई ....मन बहुत दुःखी हुआ.

फिर कुछ महीनों में जनवरी १९७५ की २७ जनवरी की सुबह की मनहूस सुबह...मेरे २८ वर्षीय मामा चल बसे....मामूली खांसी जुकाम कुछ दिन हुआ..बिगड़ गया...छाती में जम गया...मोहल्ले के एक डाक्टर ने आकर टीका दिया बलगम सुखाने के लिए...टीका रिएक्शन कर गया...बस, सब कुछ खत्म हो गया। अभी शादी हुए दो तीन साल हुए थे और एक साल की छोटी प्यारी सी बच्ची थी प्रीति। मैं तब १२-१३ साल का रहा होऊंगा।

इस वाली टेलीग्राम की बात याद आई तो मुझे इस के साथ जुड़ी एक बात और याद आ गई....जिसे मैं कभी भी शेयर नहीं करूंगा...लेकिन उस घटना ने भी मेरे बाल मन को बहुत उद्वेलित किया था ...इसीलिए मैं अकसर सोचता हूं कि जिन लेखकों को हम लोग पढ़ते हैं और जो बिंदास हो कर अपनी सभी बातें खुले दिल से साझा कर लेते हैं....वे सब कलमकार मेरे हीरो हैं......सच्चे हीरो.....बड़ा मुश्किल काम होता है यह सब लिखना...आज कल मैं पंजाबी साहित्यकारों की आप बीतीयां नाम से एक किताब पढ़ रहा हूं....उन का लिखा पढ़ कर मैं दंग रह जाता हूं।

बहरहाल, वह दौर था दोस्तो ...जब खुशी, गमी आदि की सूचना पाने और भिजवाने का सब से सुलभ साधन ही तार हुआ करती थी....

लेकिन जैसे ही किसी के दरवाजे पर कोई डाकिया-नुमा बंदा अपनी साईकिल खड़ी कर के टेलीग्राम...टेलीग्राम की आवाज़ देता...तो सच में एक बार तो दिल बैठ ही जाया करता कि अब पता नहीं कौन सा पहाड़ टूट पड़ा है।
डाकिये को पता तो रहता था कि इस के अंदर कैसी खबर है....अगर खबर बुरी होती तो वह हस्ताक्षर करवाते ही अपनी साईकिल पर पैर रख कर निकल जाता ..लेकिन अगर खुशी की कोई खबर होती ...तो उसे दो पांच रूपये ले कर जाने की चाह होती और उसे यह ईनाम दिया भी जाता।

जैसे जैसे मैं बड़ा हुआ मैं यह  सोचने लगा कि याह यह दो तीन रूपये में बुक होने वाली तार के लिए डाक विभाग इतना काम करता है....टेक्नीकल काम यानि तार भिजवाने के साथ साथ, एक मुलाजिम तार किसी के घर पहुंचाने के लिए बुक कर दिया जाता है.......मुझे लगता है कि आज की पीढ़ी अगर यह सब पढ़ेगी तो उसे बहुत हैरानगी होगी....लेिकन केन्द्र सरकार के विभिन्न विभागों के बहुत से काम सामाजिक उत्तरदायित्व के दायरे में भी आते हैं...रेल  के द्वितीय श्रेणी के भाड़ों को ही देख लीजिए।

बहरहाल, यह तो हो गई तार को पाने की यादें......तार भिजवाने की भी बहुत सी यादें हैं....हां, एक बात तो मैं कहना भूल ही गया कि पहले बहुत बार ऐसा होता था कि हम लोग अगर घर से बाहर िकसी दूसरे शहर में जा रहे हैं तो वहां पहुंच कर एक तार अपने सकुशल पहुंचने की भी कर दिया करते थे। मैं तो अकसर ऐसा अवश्य कर दिया करता था क्योंिक मेरे पिता जी अकसर चिंता करने लगते थे..और अपनी छुट्टी को आगे बढ़वाने के लिए भी तार का ही सहारा लिया जाता था और ऐसा सुनते हैं कि फौजी भाई इस काम में सब से आगे थे!

हां, एक और याद...आप टेलीग्राम के दफ्तर में पहुंच गये... वहां पर आप को एक फार्म दे दिया जाता था...जिसे आप को भरना होता था....काउंटर पर बैठा बाबू फिर उस के शब्द अपने अनूठे अंदाज़ में गिन कर जब डिक्लेयर किया करता था कि तीन रूपये पचास पैसे....या पांच रूपये तो एक तरह की इत्मीनान हो जाया करता था....इस से पहले तार के फार्म पर टेक्स्ट लिखते समय भी दसवीं कक्षा में पढ़े संक्षिप्त लेखन (precise writing) की एक तरह से रिवीजन हो जाया करती थी।

कोशिश यही रहती थी कि जितने कम शब्दों में पाने वाले का पता लिखा जा सके और जितने कम शब्दों में संदेश भेजा जा सके.....वैसे इस काम की आसानी के लिए तार विभाग ने कुछ संदेश सेट कर रखे थे ...जैसे बधाई वाले, शादी वाले या जन्मदिवस, सालगिरह के समय भेजने वाले संदेश......वही भिजवाने में पैसे कम लगा करते थे। इस की एक लिस्ट इन्होंने टांग रखी होती थी।

एक बात और भी तो थी कि तार बुक करते समय तार बाबू यह ज़रूर पूछा करता था कि आर्डनरी या एक्सप्रेस....और मेरे जैसा बंदा यह भी हर बार ज़रूर पूछा करता था कि आर्डनरी कब पहुंचेगी और एक्सप्रेस कब....और फिर उन पर होने वाले खर्च की जानकारी हासिल कर लिया करते थे और फिर जैसा भी उस समय ध्यान बनता कर लिया करते।

लेकिन फिर १९७० के दशक के अंत में ही शायद कुछ ऐसा हो गया कि शाम को पांच बजे के बाद से सुबह सात-आठ बजे तक (समय अच्छे से ध्यान में नहीं है) ...बुक होने वाली तारें एक्सप्रेस ही बुक की जाने लगीं....यानि के डबल रेट पर....कईं बार लोगों को बहस करते देखा...लेिकन बाबू क्या करे, जो नियम होते हैं सब के लिए एक ही से होते हैं।

उस के बाद बाबू अपने सामने रखी मशीन में वह तार वाला फार्म डाल देता ....और उस में से गड़-गड़ की आवाज के साथ कुछ प्रिंट होता और वह फार्म बाहर निकलता और पतली सी एक रसीद हमें थमा दी जाती।

छोटे शहरों में कईं बार इस के बाद भी जुगाड़ लगाने से लोग बाज़ नहीं आते......अंदर जिस बाबू के पास तारों के ढेरों फार्म पड़े रहते, उस ने जान पहचान निकालते कि बाबू जी, मेरी तार पहले भिजवा दीजिए। लेिकन वे भी बड़े समझदार तरह के सुलझे लोग हुआ करते ....मृत्यु की खबर को सब से ज़्यादा तरजीह दिया करते......बाकी तारें उस के बाद।

तार से जुड़ी एक बात और यह है कि अकसर सरकारी कर्मचारी और विशेषकर फौजी भाई अपने परिवारीजनों  से किसी एमरजैंसी की तार भिजवाने की बात कह दिया करते ...इससे छुट्टी मिलने में आसानी हो जाया करती थी।
तार की बात लिखते लिखते भी जब उस टेलीग्राम की आवाज़ का ध्यान आता है तो उस का खौफ़ रात में दो बजे लेंडलाइन की घंटी बजने से भी कहीं ज़्यादा हुआ करता था....ठीक है अगर खुशी की बात होती....वह तो बाद में पता चलता लेकिन आधी जान तो उस का टेलीग्राम वाला शब्द पहले ही निकाल चुका होता...शायद खुशी भी थोड़ी फीकी पड़ जाती तब तक जब तक सांस में सांस वापिस न आ जाती.....और बहुत बार तो वे जो चंद सैकेंड होते थे ...तार रिसीव करते वक्त ...उस मुलाजिम के कागज़ पर हस्ताक्षर करने वाले वे चंद लम्हे....इतने में घर के दो तीन मैंबर और दो तीन अड़ोस पड़ोस वाले भी साथ ही खड़े हुए मिलते...सुख दुख के सच्चे साथी हुआ करते थे एक तरह से।

और आज की व्यवस्था चाहे आप हर पल सात समुंदर पार वाट्सएप पर सारा दिन तारें भेजते रहिए....तारे पाते रहिए...कितने बजे तार पहुंची कितने बजे किसी ने पढ़ी ...सब कुछ तुरंत जानते जाईए...लेिकन सोचने वाली बात यह है कि इस के अपने फायदे भी हैं, नुकसान भी हैं......आप कहेंगे कि वह तो आधुनिक तकनीक में हर जगह होता ही है.....जी हां, होता है, लेिकन इतना कुछ बेवजह बहुत बार लिखने से....लिखते भी हम कहां हैं अकसर, जो पीछे से आता है आगे ठेल देते हैं, ऐसा ही करते हैं ना, ऐसे में हमारी बातों का वजन कम होता जा रहा है निरंतर......ऐसा मैं समझता हूं....यह हमें निर्णय करना होता है कि क्या शेयर करना है क्या नहीं.....और एक बात उस तार में तो पांच सात शब्द हुआ करते थे ......यहां तो ये भी मजे हैं कि व्हाटसएप रूपी तार में कोई शब्द सीमा तो क्या, पन्नों तक की भी सीमा नहीं है, चाहे तो ऑडियो भिजवा दें या फिर लंबे लंबे वीडियो....बस, सामने वाले के जैसे सब्र का हम लोग इम्तिहान लेने लगते हैं....आप का क्या ख्याल है?