शनिवार, 13 मई 2017

कहानी ....कलेजे का टुकड़ा

छोटा सा शहर .. वापी ...वहां पर पटेल के घर में आज पार्टी चल रही है ..उस की बीवी विमला बेन का जन्मदिन है आज ..कौन सा?...शायद ५२ वां या ५३ वां...डी जे की मस्ती में सब डूबे हुए हैं.. विमला बेन भी धीरे धीरे झूम रही हैं ..बेटी अनंता और बेटे राहुल का हाथ थामे हुए...

लेकिन आज से कुछ महीने पहले इस घर में वातावरण ऐसा खुशगवार नहीं था..क्योंकि पिछले लगभग सात-आठ सालों से विमला की तबीयत ढीली सी रहती थी..भूख न लगना, कुछ भी न पचना, हर समय थकावट, चक्कर आते रहना, पेट में दर्द रहना ...हर समय लेटे रहना..चलने फिरने में दिक्कत ...

जैसा अकसर होता है ... आस पास के नीम हकीम, डाक्टर और देशी नुस्खे वाले जब फेल होते दिखे तो झाड़-फूंक वालों की शऱण में जाना पड़ा...लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता दिखा...विमला बेन की हालत बहुत खराब हो चली थी...

तभी शहर के सरकारी अस्पताल में डा मोदी नाम का कोई सामान्य चिकित्सक आया ..जब विमला बेन को उसने देखा तो कुछ टैस्ट करवाने के लिए कहा ...पेट का अल्ट्रासाउंड भी करवाने को कहा ..

सारी रिपोर्टें लेकर डा पटेल के पास गये दोनों मियां-बीवी ..

"इन के लिवर में कुछ गड़बड़ है, इसीलिए यह इतना बीमार रहती हैं.."

"लिवर में गड़बडड मतलब?"

"इन के लिवर में सिरोसिस नाम की बीमारी हो चुकी है .."

"यह क्या होता है, डाक्साब.."

"इस बीमारी में लिवर में गांठे बन जाती हैं...लिवर के काम में रुकावट आने लगती है ...बिना किसी लक्षणों के भी यह बीमारी कईं बार अंदर ही अंदर बढ़ती रहती है ...और फिर लिवर की हालत इतनी खराब हो जाती है कि वह काम ही करना बंद कर देता है..वह बड़ी चिंताजनक स्थिति होती है .."

"डाक्टर साहब, मेरी बीवी का लिवर कैसी हालत में है?"....एक दिन अकेले में पटेल ने अकेले जा कर डाक्टर से पूछ ही लिया..
"देखो, पटेल, लिवर की हालत तो ठीक नहीं है, लेकिन आज कल इस के इलाज मे बहुत अच्छा काम हो रहा है, बंबई के एक अस्पताल में कुछ विशेषज्ञ आजकल लिवर प्रत्यारोपण द्वारा मरीज़ों को जीवनदान देने के लिए सुर्खियों में हैं..."

"यह क्या होता है , इस में कितना खर्च आ जाता है ...क्या यह विमला के केस में हो सकेगा?"

"देखो, पटेल, इस आप्रेशन में होता यह है कि कोई नज़दीकी रिश्तेदार अपने जिगर का एक टुकड़ा दान देता है ..जिसे मरीज़ के शरीर में लगा दिया जाता है ..इसे ही प्रत्यारोपण कहते हैं...ट्रांसप्लांटेशन। बाकी की जानकारी कि क्या यह आप की पत्नी के केस में हो पायेगा या नहीं या कितना खर्च लगेगा...यह सब तो आपको मुंबई जाने पर ही पता चलेगा.."
पटेल ने घर आकर सलाह की .. रिश्तेदारों से भी बात चीत हुई .. बच्चों से भी ...तीसरे दिन वे लोग मुंबई के लिए रवाना हो गये... वहां अस्पताल में विशेषज्ञों से मिले ...पता चला कि दान कौन दे सकता है ..और इस सारे इलाज पर पंद्रह बीस लाख का खर्च तो आ ही जाएगा...

पैसे की पटेल को कोई परवाह नहीं थी...खानदानी ज़मीन जायदाद थी, उसने मन बना लिया कि पैसे का क्या है, बीवी ठीक होना चाहिए...अभी बीवी की उम्र पचास के थोड़ा ही ऊपर हुई थी...

डोनर की बात आई ....डाक्टरों के साथ सारी चर्चा करने के बाद ...डाक्टरों ने यही बताया कि पटेल के बेटे के लिवर के टुकड़े को उस की मां में ट्रांसप्लांट किया जा सकता है.. 

यह सुन कर तो जैसे सारे परिवार के पैरों तलों से ज़मीन ही निकल गई ....अभी चंद रोज़ पहले ही तो वह अट्ठराह वर्ष का हुआ है और अब इतना जोखिम वाला आप्रेशन करने की बात हो रही है ...डाक्टरों ने बड़ा अच्छे से उन्हें समझा तो दिया कि केवल राहुल के लिवर का एक बिल्कुल छोटा सा हिस्सा ही निकाला जाएगा ..और उस की अच्छी सेहत और उम्र को देखते हुए कुछ ही महीनों में उस का लिवर लगभग पहले जैसा ही बन जायेगा ..कोई दिक्कत नहीं होगी उसे..

फिर भी बात लिवर दान देने वाले पर आकर थम सी गई ... मां तो तैयार ही नहीं थी ..वह बार बार कहतीं कि मेरी जान के लिए यह अपनी जान क्यों जोखिम में डालेगा..

अनंता ने भी भाई को समझाना चाहा..अनंता भाई से १० साल बडी है, शादी शुदा है ...लेकिन भाई ने एक बात कह कर ही बहन को चुप करा दिया...दीदी, तुम जानती हो ना कि मां के ना रहने का क्या मतलब होगा! 

राहुल की और उस की मां की सभी जांचे हुईं....बहुत दिनों तक तो जांचें ही चलती रहीं.. इन दिनों सारे परिवार को यही देख कर डर लगता कि कईं मरीज़ों के लिए घर के लिए छः डोनर तक अनफिट करार दिये जाते ....सब को यही चिंता थी कि अगर राहुल को भी अपनी मां को अंगदान देने के लिए उपयुक्त न पाया गया तो क्या होगा...क्योंकि पिछले कुछ दिनो ंसे बिमला की तबीयत बहुत ही ज़्यादा बिगड़ चुकी थी...एक तरह से डाक्टरों ने जवाब ही दे दिया था ...अगर कोई डोनर मिल जाए तो उम्मीद है ...वरना तो ईश्वर ने जितनी सांसे दी हैं, बस..

और एक दिन विशेषज्ञों ने घोषणा कर दी कि राहुल अपनी मां को अंगदान कर सकता है ...घर के सारे परिवार में मिश्रित सा ही माहौल था .. विमला के भली चंगी हो जाने की उम्मीद की खुशी और राहुल को किसी संभावित खतरे की आशंका...सारे परिवार की जान कुछ दिनों तक अटकी रही ...आप्रेशन वाले दिन भी परिवारीजनों की हालत वैसी ही थी ...डाक्टर लोग सब भांप लेते हैं..

"आप चिंता मत करिए, हमें राहुल के केस में एक प्रतिशत का भी कोई रिस्क लगेगा तो हम यह प्रक्रिया वहीं रोक देंगे" -- डाक्टर टिक्कू ने जब यह कहा तो मां, बहन और पिता की जान में जान आई। 

आप्रेशन सफल हो गया ..दोनों का ... बाद में भी कोई दिक्कत नहीं हुई ...राहुल की तो ७ दिन के बाद अस्पताल से छुट्टी हो गई ..लेकिन मां को २५ दिन तक वहां रुकना पड़ा.. बाद में एक महीने बाद वे सब लोग खुशी खुशी घर आ गए... 

कुछ दिनो ंबाद राहुल अपनी पढ़ाई में जुट गया ...मां की ऐसी सेहत के चलते उस का एक साल पहले ही खराब हो चुका था ...अब वह और भी मन लगा कर अपनी मैडीकल प्रवेश परीक्षा में जुट गया .. अभी चंद रोज़ पहले ही उस का रिजल्ट आया है ..उस का दाखिला अहमदाबाद के एक मैडीकल कालेज में हो गया है ...उसने भी एक ट्रांसप्लांट सर्जन बनने की ठान ली है ... जब से उसने देखा है कि किस तरह से बिल्कुल हताश-निराश मरीज़ को जीवनदान दे देते हैं ये डाक्टर लोग ..जैसे ईश्वर के स्पैशल दूत हों... अभी कुछ ही दिनों में वह अहमदाबाद जाने वाला है ... वहां होस्टल में रहेगा...

बिमला को बाज़ार से कुछ भी खाना मना है ..राहुल को भी बाहर का खाने से मना किया गया .. ताकि इंफैक्शन से बचा जा सके .. विमला को दवाईयां सारी उम्र तक लेनी होंगी...राहुल को भी कोई दिक्कत नहीं है ..मस्त है ..खुश है कि मां को नईं ज़िंदगी मिल गई ... उस की भी जांचें बीच बीच में होती हैं...सब कुछ नार्मल है...

एक बात ध्यान देने योग्य है कि इस तरह की बीमारी लिवर सिरोसिस आम तौर पर मदिरा सेवन करने वालों में होती है और हेपेटाईटिस बी और सी संक्रमण वाले मरीज़ों में भी इस बीमारी होने का रिस्क बढ़ जाता है .. अब विमला में तो ऐसा कुछ भी नहीं था...डाक्टरों को यह पता नहीं चला कि आखिर विमला को यह तकलीफ़ हुई कैसे! जो भी हो, इस का प्रभाव यह हुआ कि पटेल ने भी दारू पीना बिल्कुल छोड़ दिया ..वरना उस के दोस्तों की दारू की महफिलें अकसर लगती रहती थीं...। 

विमला की जांचें तीन महीने बाद होती हैं जिन्हें राहुल ईमेल से डाक्टरों को भिजवा देता है और वे ईमेल से ही मार्गदर्शन कर देते हैं.. डाक्टरों के काम काज और बर्ताव से सारा परिवार खुश है .. अगर उन को फोन करते हैं, मिस काल हो जाती है तो बाद में डाक्टर खुद फोन करते हैं...परिवार को इसी से बड़ा इत्मीनान है .. 
.....
जब केट काटने के बाद राहुल अपनी मां को केट खिला रहा था तो विमला की आंखों से खुशी के आंसू छलक गये ... 
लोग हर बात का अपना मतलब लगा लेते हैं....

विमला की सहेली ने रश्मि ने चुटकी ली...अरी विमला, तुम्हारे कलेजे का टुकड़ा पढ़ाई के लिए ही तो जा रहा है...और अहमदाबाद कौन सा दूर है वापी से!

यह सुन कर विमला खिलखिला कर हंस दी ....मन ही मन यह सोच रही थी कि कलेजे का एक टुकडा़ तो जा रहा है, उसी के एक टुकड़े की वजह से ही तो उस की सांसें चल रही हैं! 

एक बार फिर से डीजे के शोरगुल में सभी मस्त हो गये.... गीत भी तो डीजे वाले बाबू कैसे कैसे लगा देते हैं.. वह कौन सा रिमिक्स बज रहा था ... मैंने होठों से लगाई तो हंगामा हो गया... 



PS...यह कहानी नहीं है, किसी की आपबीती है ...


पानी- गर्म, ठंडा या गुनगुना?

पानी भी ऐसी चीज़ है जिस के ऊपर किसी न किसी का उपदेश आए दिन कानों में पड़ ही जाता है ...कभी कभी बुज़ुर्ग मरीज़ भी नसीहत की घुट्टी पिला जाते हैं कि सुबह इतने गिलास पानी पिएं ...फिर देखिए कमाल ..खाने के इतने समय बाद पानी पिया करें...पानी हमेशा गुनगुना कर के पीजिए..पानी तांबे के गिलास में रात में रख दीजिए, सुबह सब से पहले इसे पीजिए....यह लिस्ट बहुत लंबी हो सकती है ...ये सब अच्छी बातें है निःसंदेह ..लेकिन मेरी चिंता यही है कि हम लोग किसी की बात सुनते ही कहां हैं...कभी कोई बात किसी की जो दिल में उतर जाती है वह मान लेते हैं...बाकी एक कान से अंदर जाती हैं, दूसरे से बाहर! ऐसी ही होता है ना?

आज सुबह ईमेल खोली तो एक योगगुरू की मेल आई हुई थी...(पर्सनल नहीं, मेलिंग लिस्ट वाली) ..उसमें यही लिखा था कि किस तरह से हम लोग बर्फ़ वाला या वैसे फ्रिज में रखा हुआ ठंडा पानी पी पीकर अपनी सेहत को बेकार में खराब कर रहे हैं...जितनी भी बातें लिखी थीं, मेरा मन उन को मान रहा था... लेकिन फिर मैं यही सोच रहा था कि इस के फ़ायदा क्या, क्या मैं इस पर अमल करूंगा? बस, पढ़ लिया और छुट्टी! 

पिछले दिनों वाट्सएप पर भी शायद किसी आयुर्वेदिक विशेषज्ञ की भी एक पोस्ट खूब चल रही थी कि किस तरह से भोजन के साथ पिया पानी हमारे पाचन प्रक्रिया को किस कद्र बिगाड़ देता है ...

हम लोग कितनी ही जगहों से और कितने ही एक्सपर्ट्स से ये सुन चुके हैं कि पानी का तापमान बेहद महत्वपूर्ण है ..हम अमेरिका को ही ताकते हैं ना हर अच्छी सलाह के लिए...उन का यह हाल है, गुरू ने लिखा था कि वे लोग एक गिलास का तीन चौथाई हिस्सा बर्फ से भर कर ही पानी पीते हैं.. 

कुछ बातें मानने में हमें हीला-हवाली नहीं करनी चाहिए.....जैसे आज कल बच्चन किसी भी विज्ञापन में कितनी बेपरवाही से कहता दिखता है ..बस, ऐसा करिए...फटाक... इधर उधर जाने की क्या ज़रूरत ......हमें भी अपना दिमाग न लगाते हुए जो अच्छी बातें सुनने को मिलें, उसे जीवन में अपना लेने से क्या हो जाएगा...

आज तो पता नहीं मेरे जैसे चिकने घड़े पर भी क्या असर हो गया कि मैंने भी शायद महीनों बाद मटके का पानी पिया ...अच्छा लगा .. सीखने की और किसी की बात मानने का कोई भी समय बुरा नहीं होता ...जब हम जाग जाते हैं तभी सवेरा हुआ समझ लीजिए, क्या फ़र्क पड़ता है .. कोशिश करूंगा कि आज से फ्रिज में रखा हुआ या बर्फ़ वाला पानी नहीं पिऊंगा ....देखता हूं इस पर कितना चल पाता हूं!

वैसे भी मुझे लगता है ...पता नहीं क्यों, कि ये जो पानी को गर्म करने का फिर पीने का ...ये सब चोंचले ज़्यादा चल नहीं पाते ..कितने दिन कोई इन सब को चला पाएगा... (अगर कोई कर पाता है, तो अच्छी बात है ...please keep it up!) ..जो मुझे ठीक लगता है कि ज़्यादा सोच विचार के बिना बस मटके के पानी पर ही वापिस लौट आया जाए....बड़ी उड़ाने भर लीं हम लोगों ने भी ...इस से पहले की सेहत की टांय-टांय फिस ही हो जाए बिल्कुल, आज ही से मटका ज़िंदाबाद ...हम लोग आईसबॉक्स के दिनों के और शिकंजवी, सत्तू, रूहअफज़ा, या बंटे वाली बोतल को पीने के लिए बाज़ार  से पच्चीस पैसे की बर्फ़ खरीद कर हाथ में (साईकिल में कैरियर नहीं था, और हम लोग थैला लेकर जाने में अपनी बेइज्जती समझते थे..) लेकर आने वाले दौर के गवाह हैं!! (पालीथीन थी नहीं, और दुकानदार जिस छोटे से अखबार मे टुकडे़ में बर्फ लपेट देता था, वह दो मिनट में गल जाता है ...बस फिर घर आने तक जैसे तपस्या ही होती थी!) ..

बहुत से काम पहले तो बंदिश में ही करने पड़ते हैं...फिर धीरे धीरे आदत ही बन जाती है...यही होता है ना हम सब के साथ! आज सुबह मैं साईकिल चलाते हुए यही सोच रहा था कि जिन लोगों को साईकिल चलाने की सब से ज़्यादा ज़रूरत है वे इसे एक बोझ के समान समझते हैं...शायद मेरा भी यही हाल है ...कईं बार काफ़ी दूर निकल जाता हूं ...वापिस लौटने में भी तो उतना ही समय लगेगा, आज इसी चक्कर में लगभग डेढ़ घंटा साईकिल ही चलाता रहा.. 

बंदिश मैंने इसलिए कहा कि मेरे जैसे लोगों को साईकिल चलाते हुए ऐसे लगता है जैसे कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं...ऐसा नहीं होना चाहिए...विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस बात पर विशेष बल दिया है कि दैनिक परिश्रम कुछ ऐसा करते जो आप की सामान्य दिनचर्या का ही एक हिस्सा सा बनता दिखे...आप दूध, सब्जी लेने जा रहे हैं, पैदल जाइए, अपने कार्यस्थल पर पैदल या साईकिल पर जाइए (जैसा भी संभव हो...हरेक की अलग परिस्थिति है)...बात पते की है बिल्कुल, अगर यह परिश्रम या वैसे भी हिलना-ढुलना जीवनशैली का एक सहज हिस्सा ही बनता दिखेगा तो स्वतः ही होता रहेगा यह सब कुछ ...इन अच्छी आदतों का बोझ नहीं ढोना पड़ेगा..खामखां.

चीन के बारे में दो चार दिन पहले किसी अखबार में पढ़ रहा था कि वहां पर ३८ करोड़ के करीब साईकिल हैं...(आंकड़े याद रखने के बारे में मैं बड़ा कमज़ोर हूं) .. और वहां पर लोग साईकिलों पर ही निकलने लगे हैं.. हां, वे किसी भी साईकिल को कहीं पर भी छोड़ सकते है ंऔर किसी भी जगह से पड़ी हुई साईकिल को अपने इस्तेमाल के लिए उठा सकते हैं...मुझे बड़ी हैरानी हुई यह पढ़ कर ... साईकिल का लॉक भी QR code स्कैन करने से खुल जाता है ...और भी बहुत सी बातें लिखी हुई थीं उस लेख में .. कतरन भी रखी है, लेकिन हर बार की तरह वह गुम है! 

बहुत से विकसित देशों के बारे में भी पढ़ता रहता हूं ..आंकड़े भी दिख जाते हैं कि वहां पर कितने ज़्यादा लोग साईकिल चलाने लगे हैं.. और मैं जब किसी मरीज़ से पूछता हूं कि साईकिल चलाते हैं आप?.."कहां डाक्टर साहब, बच्चे नहीं चलाने देते, उन्हें नहीं अच्छा लगता"- अकसर यही जवाब मिलता है। 

आओ स्कूल चलें हम...
पढ़ेगा इंडिया, तभी तो बढ़ेगा इंडिया 
वैसे कुछ साईकिल चलाने वालों के लिए यहां पर दिक्कते भी हैं...जैसे हर पैदल के लिए फुटपाथ होना चाहिए, साईकिल पर चलने वालों के लिए भी  साईकिल ट्रैक होंगे तो ही लोग बच्चों को साईकिलों पर स्कूल जाने देंगे या खुद भी तभी निकलेंगे ..वरना जिस तरह का बेतरतीब यातायात है यहां ....पैदल, साईकिल और दो पहिया वाहन चालकों का तो रब ही राखा है ..सब का ही रब राखा, लेकिन इन का कुछ ज़्यादा ही है, तभी ये शाम को सकुशल अपने आशियानों पर लौट आते हैं...

साईकिल ट्रैक बन जाते हैं तो उन को क्लियर रखना भी सुनिश्चित होना चाहिए.. यह देखिए इन नीचे दी गई तस्वीरों में कैसे सुबह के सुबह यहां लखनऊ में इन वाहनों में कब्जा कर रखा होता है ..और फिर कुछ समय बाद लोग इन में अपने दोपहिया वाहन खड़े कर देंगे.. और जो ट्रैक बाज़ारों में से निकलते है ं उन में दुकानदार अपना कबाड़-सामान सजा देते हैं ....उद्देश्य बस इतना ही कि कोई इन साईकिल ट्रैक्स को इस्तेमाल न कर पाए...वरना पब्लिक को एक बार अच्छी आदत की लत लग गई तो दिक्कत हो जायेगी...



पता नहीं इस दिशा में कितना काम हो पायेगा या नहीं हो पायेगा ..विशेषकर जब एक राजनीतिक पार्टी का चुनाव निशान ही एक साईकिल हो ...लेकिन अब यह पार्टी सत्ता में नहीं है!  Let's rise above politics!! यही समय की मांग है ..


हां, पानी से याद आया...आज एक गमले वाले के पास रूका तो मुझे पता चला कि यह गमला नहीं है...इसे नोंद कहते हैं...(यही तो कहा था उसने ..अपने सहायक से पूछूंगा ..मेरे लिए यू.पी का एन्साईक्लोपीडिया वही है...और मार्गदर्शक भी!) ... यह छः सौ रूपये का है...लोग इस में पानी भर कर घर के बाहर जानवरों के लिए रखते हैं ...बहुत अच्छा लगा ...यह देख कर ...

मैं तो फ्लैट में रहता हूं ...सोसाईटी पर गेट है...क्या कहते हैं को-ट्रैप भी लगा हुआ है गेट पर ..आवारा जानवर भी नहीं है कालोनी में, बंदरों तक को इजाजत नहीं ..दो लंगूरों को सुबह से शाम तक नौकर रखा हुआ है ..  आते जाते किसी भटके हुए जानवर का इस तरह के पानी के बड़े भगौनों तक पहुंचने का प्रश्न ही नहीं है .....हां, परिंदे ज़रूर आते हैं नियमित ...उन के लिए ज़रूर कुछ जुगाड़ कर रखा है ..


जाते जाते आप के लिए मेरा आज का शुभसंदेश .. आप और आपके सभी अपने इस सूर्यमुखी की तरह खिलते रहिए..और ऊपर लिखी भारी भरकम बातों पर ज़्यादा ध्यान मत दीजिेए...बस मस्त रहिए और अगर हो सके तो ठंडा पानी बात बस पर ध्यान करिएगा...जैसे मैंने आज ही किया!