50 बरस तो नहीं ...दो तीन बरस कम ही हैं...1978 में दसवीं की पढ़ाई के बाद हमारे रास्ते अलग हो गए....राकेश अपने रास्ते पर चल निकला और मैं अपने.... हायर सैकंडरी करने के बाद भारतीय नेव्ही में इंजीनियरिंग डिग्री के उस का सलेक्शन हो गया ...और नेव्ही में सर्विस के दौरान वह अलग अलग जगहों पर तैनात रहा। नेव्ही की सर्विस के बाद उसने मर्चेंट नेव्ही ज्वाईन कर ली.....
हां, तो मैं यह सोच रहा हूं कि अभी ब्लॉग पोस्ट को मैंने लिखना शुरू तो कर दिया है लेकिन इस टॉपिक पर लिखने के लिए कुछ ख़ास है ही नहीं....चलिए, देखते हैं...राकेश को मिलने के बाद पांच छः घंटे का वक्त ऐसे उड़ गया जैसे दस मिनट बीत जाते हैं...
वैसे तो दस बीस बिताने भी किसी अनजान इंसान के साथ बिताने बहुत कठिन हो जाते हैं....क्या बात करनी है, कितनी करनी है, किस बात का जवाब देना है, किस के जवाब में चुप रहना है ....बस, यही सोच विचार करने में ही वक्त बीत जाता है ..और इतने सोचने से भी कुछ हासिल होता नहीं ....हां, सिर ज़रूर भारी हो जाता है ....अपने काम से जुड़ी किसी मीटिंग में भी तो यही सब कुछ होता है ....
| अचानक हमें खयाल आया कि हमनें कोई सेल्फी तो ली नहीं....लेखक (बाएं) के साथ राकेश (दाएं) |
लेकिन इस तरह से स्कूल के साथी को जब 50 बरस बाद मिलते हैं तो बस फिर से उसे देखने की जो खुशी होती है, उसे कैसे अल्फ़ाज़ में ढाले कोई......कोई टॉपिक नहीं , कोई मु्द्दा नहीं, कोई राजनीति की चर्चा नहीं, कोई धर्म-कर्म की नहीं, कोई मौसम की बात नहीं ...फिर भी पांच छः घंटे कैसे बीत गए पता ही नहीं चलता ...और हां, किसी की भी कोई बुराई नहीं की ....बस, एक दो मास्टर जो बड़े खूंख्वार किस्म के थे, उन की याद की ...और खूब हंसे।
इन पांच छः घंटों में हम लोग इतना हंसे कि मज़ा आ गया...हर बात पर हंसी, बात शुरू करने से पहले हंसी, बात के दौरान हंसी और बात पूरी होने के बाद ठहाके.... हा हा हा हा ....यह सब इतने पुराने संगी-साथियों के साथ ही मुमकिन होता है ....इतने वक्त मिलने के बाद मुझे एक दो बार खयाल नहीं रहा और मैंने उसे तुसीं (आप) कह दिया....और फिर मैंने तुरंत स्पष्ट भी किया कि मैं तुम्हें तू की बजाए तुसीं कह गया....गलती हो गई....और हम लोग ठहाके लगाने लगे ....
न हमने किसी की कोई बुराई की ...क्योंकि स्कूल के दिनों में कोई बुरा लगता ही नहीं...और होता भी नहीं, न हमने किसी नेता-अभिनेता की बात की. न ही धर्म, जात-बिरादरी की कोई बात और न ही किसी दंगे-फसाद की बात ....सोचने वाली बात यह है अगर इन सब पर बात नहीं की तो आखिर फिर किस बात पर चर्चा की .....
चर्चा तो हुई पर कोई टॉपिक न था....
न उसके पास ...न मेरे पास......
बस बात से बात निकलती गई ...और कब उस के जाने का वक्त आ गया पता ही नहीं चला...और हां, हमारी सारी बातें अमृतसर शहर की थीं, सारी की सारी गुफ्तगू जैसे दो चार किलोमीटर के दायरे में सिमट गई हों.....उस दो चार किलोमीटर के दायरे में आने वाले बाज़ार, कूचे, स्कूल, पोलिस-स्टेशन, कुएं, सब्जी वाले, मटन वाले.....और हां, बढ़िया ढाबे (फुलके के साथ दाल फ्री वाले भी 😂) ...डाकखाने, रेलवे के फाटक, कुएं.....इन सब के ऊपर चर्चा हुई ....न कोई बात कहने और पुछने में कोई झिझक और जवाब देने में भी तो कोई झिझक का मतलब ही नहीं....
हम लोग उस वक्त बुहत हंसे जब मैंने उसे बताया कि अपने प्राईमरी स्कूल में कक्षा चार तक कैसे मैं पैदल स्कूल जाते वक्त रास्ते में पड़ने वाले पानी से भरे हुए एक भयंकर से कुएं में झांकना नहीं भूलता था ...और यह कितनी बेवकूफ़ी वाला काम था....और मैं यह काम रोज़ करता था ....यह कुआं उस के घर के पास ही था, उसने उस इलाके में दो दूसरे कुओं के बारे में भी मुझे याद दिलाने की कोशिश तो की ...लेकिन मैंने शायद उन में कभी झांका नहीं था, मुझे याद नहीं आए...
कुएं याद नहीं आए तो क्या, और सब कुछ ठहाकों के बीच इतना अच्छे से याद आ गया....हमारा वह मास्टर जो चाचा नेहरू का कोई फैन रहा होगा ...वैसे ही अचकन, पायजामी और टोपी और शेरवानी पर गुलाब का फूल भी वैसे ही ....लेकिन था वह मास्टर बड़ा सख्त ...कविताएं भी लिखता था, लेकिन बात बात पर गर्म हो जाता था ...एक बार छठी कक्षा की वार्षिक परीक्षा में उस की परीक्षा-केंद्र पर ड्यूटी थी....मुझे नकल मारने की न कोई मजबूरी थी और न ही इतनी हिम्मत .....
तो फिर हुआ क्या, क्यों पड़ा था एक ज़ोरदार तमाचा....
मेरे आगे पीछे की सुीटों पर कुछ पर्चियों का लेन देन चल रहा था और एक पर्ची मेरे बेंच के पास गिर गई ...बस, कमरे में टहलते हुए जैसे ही उन्होंने देखा, मुझे खड़े कर के मुझे ज़ोर से तमाचा जड़ दिया और मेरी उत्तर-पुस्तिका मुझ से छीन कर मुझे बाहर कर दिया, उस वक्त मेरा पेपर लगभग पूरा हो चुका था....लेकिन फिर भी डर था कि यार, कहीं फेल ही न कर दें....बैठे बिठाए पंगा हो जाएगा...
मैं बड़ा परेशान...शाम तक मुझे बुखार हो गया....पिता जी को सारी बात बताई ....अमृतसर शहर के जिस इलाके में उन का घर था, वह हमारे घर से थोडी़ दूर ही था....मेरे पिता जी मुझे साईकिल पर बिठा कर उन के घर ले गए....लेकिन मैं उन के घर पहुंच कर अपने पिता जी की हलीमी (विनम्रता) देख कर दंग रह गया....उन्होंने उन को एकदम आहिस्ता से इतना ही कहा कि मास्टर जी, इसे तो पूरा पेपर आता है, आप चाहें तो फिर से लिखवा कर देख लें, वह पर्ची तो किसी दूसरे की फैंकी हुई थी...मास्टर जी का भी जितना नर्म रवैया मैंने उस दिन देखा, पहले कभी दिखने का सवाल ही न था, कहां दिखता, स्कूल में!!😀.... पिता जी ने उसे कहा कि आपने इस का पेपर ले लिया है, यह उस से डरा सहमा हुआ है ....उसने मेरे पिता जी को आश्वासन दिया कि फ़िक्र न करें, ऐसी कोई बात नहीं है....आप इत्मीनान रखें...। और हम लोग घर लौट आए...।
हम दोनों ने क्लास के लड़कों के नाम याद किए....कुछ के नाम तो बीसियों बरसों बाद याद आए....जो पिछले बैंचों पर बैठते थे ...लेकिन एक बात और हमने ज़रूर याद की...हमें किसी के भी दूसरे नाम से कोई सरोकार नहीं होता था...हमारे लिए पहला नाम ही काम का हुआ करता था....आप देखिए मैंने इस पोस्ट में कहीं भी राकेश का दूसरा नाम (क्या कहते हैं सरनेम) नहीं लिखा ....उसी रिवायत को निभाते हुए तो है ही .........लेकिन कहीं न कहीं मेरे मन में यह भी है कि पूरा नाम लिखने से लोग गूगल करने लगते हैं ....ढूंढ़ने लगते हैं किसी बंदे को ....वह मैं बिल्कुल नहीं चाहता किसी की भी प्राईव्हेसी पर कोई आंच आए....
और हां, राकेश 70 देशों में घूम चुका है....मैंने कहा कि लिखा कर अपनी यात्राओं के बारे में ...तो हंसने लगा ....नहीं लिखेगा वह कभी, पता होता है हमें अपने स्कूल के साथियों का ....क्योंकि अब न मास्टरों की मार का डर कि होम-वर्क न किया तो अगले दिन होने वाली कुटाई की चिंता .....अब वह आज़ाद पंछी है ..समंदर में लगातार कईं कईं हफ्ते रहता है ...बिना किसी पोर्ट पर रुके...।
उस की शिप की दिनचर्या सुन कर मुझे अच्छा लगा ..एक दम अनुशासन से हर काम करना...और अपने काम के बारे में अभी भी स्टडी करते रहना।
यह पोस्ट मैंने यहां तक तो आज सुबह लिखी थी ...फिर मेरा काम पर जाने का वक्त हो गया और मैं अभी इस वक्त इस को पूरा करने के लिए बैठा हूं....मेरे आलस की इंतहा देखिए कि मैंने ऊपर जो लिखा है सुबह...मेरे को उसे पढ़ने तक में आलस आ रहा है ...यही लग रहा है ठीक है, जो दिल से निकला, लिख दिया....अब क्या उसे पढ़ना....और क्या लिखा हुआ कुछ बदलना....जो लिखा गया, ठीक है ..
हम लोगों ने इतनी बातें कर डाली उन पांच छः घंटों में कि क्या कूहूं...फिर भी बहुत कुछ अभी रहता है ....उसने हैंडराईटिंग अच्छी करने के लिए उस चाचा नेहरू जैसे दिखने वाले मास्साब की बात बताई कि वह उस की उंगलियों में पैंसिल फंसा देते थे अगर साफ नहीं लिखा होता था ....50-60 पुराने ज़माने की यह एक आम सी बात थी....मानो मास्टरों को लगता होगा कि उंगलियों की बनावट ही बदल डालें तो लिखावट अपने आप सुंदर हो जाएगी....
बात लिखावट की चली तो तखती लिखने की बात होनी ही थी ...किस तरह से कक्षा चार तक हम लोग तखती लिखते थे...मैंने उसे बताया कि मैंने 8-9 साल पहले तख्ती के ऊपर एक व्हीडियो बनाई थी जिसे बहुत देखा जा रहा है और अब तो लोग उस के क्लिप्स लेकर अपनी पोस्ट में डालते हैं....मैंने कहा कि गूगल सर्च में नंबर वन है ..अगर कोई इंगलिश में भी takhti लिख कर भी गूगल करेगा तो पहला रिज़ल्ट मेरी व्हीडियो का ही आता है ... वह बहुत खुश हुआ और उसने गूगल कर के यह कंफर्म भी किया ....
| ये टेलीफोन के खाली डिब्बे दिख गए ...कभी इन के इर्द-गिर्द हमारी दुनीया घूमा करती थी ....लेकिन अब इन की हालत यह हो चुकी है ....Change is the law of Nature!! |