सोमवार, 21 दिसंबर 2015

साफ़ हवा पाने की चाह - फेस मॉस्क, एयर-प्यूरीफॉयर और गुड़ का सच

पिछले कुछ अरसे से जब मैं बाहर निकलता था और कुछ लोगों को अपने चेहरों को फेस-मॉस्क से ढके देखता था तो मेरे मन में भी प्रश्न तो उठता ही था कि इस का कितना फायदा होता होगा! सड़कों पर घने कोहरे जैसी स्मॉग देख कर मुझे भी कईं बार इच्छा हुई कि अब तो वह समय आ गया है कि मुझे भी इस फेस-मॉस्क को लगा कर ही बाहर निकलना चाहिए। बस दुविधा बनी ही रही।

लेकिन कल शाम को कीर्ति आज़ाद की सी.डी देख कर जब चैनल सर्फिंग कर रहा था तो शाम के छः बजे से चंद मिनट ऊपर हुए थे तो अचानक दूरदर्शन के न्यूज़ चैनल पर टोटल हेल्थ प्रोग्राम पर रिमोट थम गया..यहां पर वायु प्रदूषण पर एक कार्यक्रम चल रहा था...मैं हमेशा से इस प्रोग्राम का बड़ा प्रशंसक रहा हुआ।

दूरदर्शन पर और आल इंडिया रेडियो विशेषकर विविध भारती आदि पर जो सेहत संबंधी प्रोग्राम प्रसारित होते हैं...ये बेहतरीन कार्यक्रम होते हैं...इन में भाग लेने वाले लोग बहुत वरिष्ठ और मेडीकल कालेजों के प्रोफैसर जैसे पदों पर तैनात होते हैं..जो यह बात कह देते हैं अपनी स्पेशलिटि के बारे में उस में फिर कुछ किंतु-परंतु की गुंजाइश नहीं होती... they don't have any conflict of interest!


फेस-मॉस्क का सच 

संयोग से कल मुझे भी मेरे फेस-मॉस्क वाले प्रश्न का जवाब मिल गया...एक वरिष्ठ डाक्टर ने बताया कि वायु प्रदूषण से बचाने के लिए इन फेस-मास्कों का प्रभाव शून्य है...ऐसा उन्होंने ज़ोर देकर कहा क्योंकि ये फेस-मॉस्क particulate matter को रोकने में असमर्थ होते हैं। 

साथ में उन्होंने यह भी बताया कि केवल N-95 जैसे फेस-मॉस्क हैं जो वायु प्रदूषण से बचाव कर सकते हैं...लेकिन साथ में यह भी कहा कि ये बहुत महंगे मिलते हैं और इन्हें लगाए रखा प्रैक्टीकल नहीं होता क्योंकि इन्हें लगाने वाले को हर समय दम घुटने का अहसास सा होने लगता है.

इस तरह के फेस-मॉस्क के बारे में आपने भी पिछले महीनों में स्वाईन-फ्लू संक्रमण के दिनों में सुना होगा...विशेषकर इस रोग से संक्रमित व्यक्ति का इलाज करते वक्त या वैसे भी अपने बचाव के लिए चिकित्सा कर्मियों को इन विशेष फेस-मॉस्क को चढ़ाए रखने की हिदायत दी जाती रही है। 

फिर भी चिकित्सक बता रहे थे कि साधारण फेसमास्क की इफेक्ट बस आप इतना जान लीजिए कि अगर किसी व्यक्ति को सांस की तकलीफ़ है जैसे दमा या श्वसन-तंत्र मे रूकावट आदि और वह किसी भारी ट्रैफिक या प्रदूषण वाली जगह में जा रहा है तो इस तरह का फेस-मॉस्क उस की कुछ तो रक्षा करेगा ही। ...यह तो कॉमन-सैंस की बात हुई!

एयर-प्यूरीफॉयर का सच 

एयर-प्यूरीफॉयर के बारे में भी विशेषज्ञों ने बड़ी बेबाकी से अपना एक्सपर्ट ओपिनियन दिया कि अभी तक कोई ऐसी वैज्ञानिक स्टडी नहीं आई है जिस ने यह निष्कर्ष निकाला हो कि इन एयर-प्यूरीफॉयर से सेहत पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। 

मैं भी कल तक एयर-प्यूरीफायर के बारे में कुछ विशेष नहीं जानता था..बस नाम से ही परिचित था...एक्सपर्ट्स ने बताया कि अगर कोई यह समझे कि २५-५० हज़ार रूपये खर्च करने भर से, एक फेशनेबुल डिब्बा सा अपने बड़े से हाल में रख देने से ही वायु प्रदूषण से निजात मिल जायेगी ...तो यह भ्रम ही है कि अपने गाड़ी या घर में एयर-प्यूरीफॉयर लगा देने से ही सब कुछ ठीक हो जाएगा। 

बताया गया कि एयर-प्यूरीफॉयर की भी अपनी कैपेसिटी होती है कि इतने मिनट में इतने लिटर हवा ही वे छान सकते हैं...और इस में नाइट्रस-आक्साईड और कार्बन-मोमोआक्साईड जैसी गैसों के छनने के लिए और particulate matter छनने के लिए अलग प्रणाली उपलब्ध रहती है..

विशेषज्ञों की यही राय थी कि सारा दिन तो उस एयर-प्यूरीफॉयर के सामने टिके रहना नहीं है...बाहर हवा तो वही है ...जिसे सारा दिन छकना है.

एयर-कंडीशनर का सच

एक विशेषज्ञ ने इतना ही कहा बस कि एयर-कंडीशनर से वायु-प्रदूषण से थोड़ा बचाव तो है लेकिन यह भी उपाय कारगर नहीं है, प्रैक्टीकल बिल्कुल नहीं है...इसी बात से यह चर्चा छिड़ी कि अगर किसी ने इस उपाय से अपने कमरे में थोड़ा प्रदूषण कम कर भी लिया तो क्या?....उसने इस एयर-कंडीशनिंग की वजह से जो प्रदूषण फैलाया उस का क्या!... इसी बात से बात चली कि वायु प्रदूषण को कम करने के लिए हमें केवल अपने बारे में ही नहीं बल्कि अब तो सारे संसार के बारे में ही सोचने की ज़रूरत है ...हमें अपने कार्बन प्रिंट कम करने की तरफ़ ध्यान देना होगा... गाड़ी का कम से कम उपयोग करें, जहां पैदल जा सकते हैं वहां दुपहिया वाहन न लेकर जाएं, साईकिल का इस्तेमाल शुरू करें...अपनी गाड़ियों के प्रदूषण की जांच भी करवाएं और उसे ठीक ठीक भी रखें, घर से समय से पहले निकलें ताकि चौराहों पर इत्मीनान से गाड़ी बंद कर के हरी बत्ती का इंतज़ार कर सकें। 


क्या गुड़ खाने से सब कुछ ठीक हो जाता है..

एक प्रश्न उस प्रोग्राम में यह भी उभर कर आया कि क्या गुड़ खाने से वायु प्रदूषण से होने वाली तकलीफ़ों से निजात मिल सकती है। ऐसा बहुत से लोग सोचते हैं।

उस प्रोग्राम में समझाया गया कि वायु प्रदूषण की विशेष दिक्कत यह है कि इस से थोड़ा बहुत गला खराब होना, खांसी होना जैसे लक्षण तो होते ही हैं लेिकन सब से ज़्यादा चिंता की बात यह है कि particulate matter के बिल्कुल सूक्ष्म कण हमारे फेफड़ों के अंदर जा कर जम जाते हैं...वहां जमने के बाद हमारे रक्त के माध्यम से शरीर के दूसरे अंगों में भी जा पहुंचते हैं और विभिन्न प्रकार की बीमारियां पैदा करते हैं। फेफड़ों में ही इन के जमा होने से फेफड़े के कैंसर जैसे रोगों का डर तो बना ही रहता है। 

गुड़ खाने से बस प्रदूषण के कुछ कण आप के गले के रास्ते से श्वसण प्रणाली में जाने की बजाए आप के पेट में चले जाते हैं, बस इतनी सी है गुड़ की भूमिका ...

घरेलू प्रदूषण ..

चूल्हे की बनी दाल-रोटी का अनुपम ज़ायका होता है लेकिन यह किसी सेहत की कीमत चुका कर हम तक पहुंचता रहता है सदियों से और अभी भी यह हो रहा है....बेहतर हो कि अब हम लोग इस तरह के शौक पालने बंद कर दें...घर के अंदर धूम्रपान करने से..चूल्हे आदि जलाने कर ...जगह जगह पर लकड़ियां, उपले, प्लास्टिक आदि जलाने से वायु प्रदूषण बहुत ज़्यााद बढ़ जाता है...गर्भवती महिलाओं के होने वाले बच्चों के लिए घातक, महिलाओं के स्वयं के लिए घातक, छोटे बच्चों की सेहत के लिए बहुत ही बुरा.....ये सब बातें हम लोग क्या जानते नहीं हैं, जानते हैं लेकिन ढीठ हैं, गांवों की बात करते हैं कि वहां पर लकड़ियों को और खेतों में पराली (फसल का शेष हिस्सा जो काटने के बाद खेत में बच जाता है) को जलाने से प्रदूषण होता है...लेकिन शहरी लोग भी अपनी धुन में यह काम करने में किसी से पीछे नहीं हैं...जगह जगह प्लास्टिक तक जलाया जाता है...

याद आया कुछ दिन पहले मैं लखनऊ के एक बहुत पॉश कॉलोनी की तरफ़ से गुज़र रहा था...इतनी पॉश की सारी कॉलोनी में एक तिनका भी पड़ा हुआ सड़कों पर नज़र नहीं आता ...लेकिन उस की बांउड्री के बाहर का मंज़र आप स्वयं देख लीजिए.... इस हवा से उस पॉश कालोनी में रहने वाले कैसे बच पाएंगे?

इन सब बातों का निष्कर्ष यही निकलता है कि हम आइसोलशन में नहीं जी सकते कि हम अपने हिस्से की हवा तो कैसे भी शुद्ध कर लें और इस के आगे कुछ नहीं ......नहीं, अब हम उस दौर में पहुंच चुके हैं कि हमें बस सारे पर्यावरण की बेहतरी के बारे में सोचना होगा... वरना वही बात हो जाएगी जैसा पश्चिमी देशों ने किया ...कार्बन प्रिंट इतना बढ़ा दिया आधुनिकता के नाम पर कि अब साफ़ हवा में सांस लेना भी दूभर हो चुका है!

धुंध में सैर ---कितनी लाभदायक? 

एक प्रश्न के जवाब में एक्सपर्ट्स ने बताया कि सर्दी के दिनों में वायु प्रदूषण बढ़ जाता है और अकसर धुंध में वायु प्रदूषण के कण बहुत ज़्यादा मात्रा में होते हैं...इसलिए जो लोग सुबह सुबह इस तरह के वातावरण में टहलते हैं उन की सेहत के लिए भी यह ठीक नहीं है...टहलते समय या कोई भी शारीरिक क्रिया करते समय हमारे फेफड़ों की  vital capacity काफी बढ़ जाती है ...इस का मतलब यह है कि हम अपने फेफड़ों में बहुत अधिक मात्रा में वायु खींच पाते हैं...ऐसे में अगर इस तरह की प्रदूषित हवा इतनी ज्यादा मात्रा में अंदर जाएगी तो ज़ािहर सी बात है कि उस के दुष्परिणाम ही होंगे ......इसलिए यह हिदायत दी जाती है कि दिन खुलने पर ही, कोहरा छंटने पर और थोड़ी धूप आने पर ही टहलने के लिए निकला जाए.......अब यह कितना प्रेक्टीकल है, यह आपने देखना है, ऐसा एक्सपर्ट्स भी कह रहे थे। 

लिखते लिखते मुझे भी १८ साल पुराने वे दिन याद आ गये जब मैं नियमित सुबह सूर्योदय के समय प्राणायाम् किया करता था और मेरा बेटा घर में कहीं भी होता था तो रेंगता हुआ आ कर मेरी गोद में बैठ जाया करता था......और मेरा प्राणायाम् बस इसी तरह ही हो जाया करता था!!!

जाते जाते बस इतना ही कहना चाहूंगा कि हमें बस अपना अपना हिस्सा निभाना होगा ... कि हम कैसे अपने कार्बन प्रिंट को कम कर सकते हैं, बाकी बहुत से काम सरकारें कर रही हैं, और ये निरंतर एक सतत प्रयास है ताकि हम अपने कल को आज से बेहतर बना सकें और अगली पीढ़ी के लिए कम से कम वायु तो सुरक्षित थमा सकें.....आप क्या सोच रहे हैं। 

हां, सोच रहा हूं कि डी डी न्यूज़ के एक ऐसे ही प्रोग्राम का लिंक यहां लगा दूं...just a sample..ताकि आप स्वयं देख पाएं कि इन के प्रोग्राम कितने बढ़िया होते हैं... देखिएगा......many such health related programs telecast earlier are available on its youtube channel.......just check this out! 


मैंने अभी इस चैनल को खोला तो देखा कि कल का टेलीकॉस्ट प्रोग्राम भी इस पर पड़ा हुआ है....तो फिर मेरी मेहनत का क्या हुआ?...कोई बात नहीं, मैंने कुछ लेसन रिवाइज़ ही कर लिए इसी बहाने ...चलता है... अब आप क्या सुनेंगे.... मैं तो प्रदूषण की इतनी ढेरों बातें करने के बाद इसे सुन रहा हूं....





एक बात तो शेयर करनी है अभी ..दो  दिन पहले मैं जब मैं एक बुक फेयर में इन्हें इस तरह के आराम फरमाते देखा तो मुझे बड़ा इत्मीनान यह हुआ कि किताबों के नाम से केवल मैं ही नहीं हूं जिसे नींद आ जाती है....८०प्रतिशत कुर्सियां वैसे तो खाली थीं, मुझे और मेरे बेटे को बुक फेयर की बढ़िया बात ही उस दिन यह लगी कि इसी बहाने इसे इस के हिस्से की जगह मयस्सर हो गई और उसने भी चैन से दो झपकियां ले लीं...साहित्य की यही खूबी है, सब को सुकून देता है!