कल अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन की एक चेतावनी पढ़ने का मौका मिला--- चेतावनी थी कि चमड़ी सुन्न करने वाली क्रीम, जैल एवं ओंएटमैंट से क्यों बच कर रहा जाये। अभी मैंने पूरी रिपोर्ट पढ़नी शुरू ही नहीं की थी तो मेरा माथा ठनका कि क्या सैक्स-मैराथन के लिये वहां भी लोग इस का इस्तेमाल कर रहे हैं , लेकिन मैं गलत साबित हुआ।
मैं सोच रहा था कि उस में बात उस स्प्रे के इस्तेमाल की भी होगी जिस को कईं लोग विज्ञापनों के चक्कर में पड़ कर सैक्स-मैराथन में भाग लेने से पहले इस्तेमाल करते हैं। इस तरह के गुमराह करने वाले विज्ञापन अकसल कईं जगह दिख जाते हैं --- जो एक तरह से पाठकों को एक बार इसे इस्तेमाल करने का निमंत्रण दे रहे होते हैं। और बहुत से काल्पनिक शीघ्र पतन की शिकायत से जूझ रहे अपने ही भाई-बंधु इन के चक्कर में पड़ जाते हैं----शायद उन्हें भी लगता है कि चलो यही ठीक है किसी डाक्टर से अपना दुःखड़ा रोने की ज़हमत ही नहीं उठानी पड़ेगी। स्प्रे मार लेने से ही काम चल जायेगा।
अपने देश में रोना इस बात का भी है कि इस तरह के विज्ञापन अच्छी खासी जगहों पर नज़र आते रहते हैं ---- कुछ तो कईं मैगज़ीनों में और कुछ हिंदी की अखबारों में भी देख चुका हूं। कुछ साल पहले मैं इस तरह के बेबुनियाद विज्ञापनों के विरूद्ध एक शीर्ष संस्था को बहुत लिखा करता था लेकिन कुछ भी जब मुझे होता दिखा नहीं तो मैंने चुप होने में ही बेहतरी समझी। वहां पर इस तरह की शिकायत करने की इतनी औपचारिकतायें हैं कि कुछ महीनों में ही मेरा खौलता हुया खून ठंडा पड़ गया। और फिर धीरे धीरे समझ आ गई कि अगर इस तरह की गल्त भ्रांतियों का गला काटना है तो कलम से ज़्यादा ताकतवर कोई तलवार नहीं है ----बाकी सब धकौंसले बाजियां हैं, दिखावे हैं ---- असलियत कुछ नहीं । बस कलम चलाओ और आम आदमी के साथ सीधे जुड़ जायो-----यही काम पिछले आठ सालों से कर रहा हूं, और कुछ कर पाने के लिये कोई बैकिंग भी तो नहीं है। बस, सब के लिये खूब प्रार्थना ज़रूर कर लिया करता हूं कि सभी लोगों की किसी न किसी तरह से , किसी न किसी रूप में, किसी न किसी के द्वारा रक्षा होती रहे । इस समय आशीष महर्षि के ब्लाग पर लिखी कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं ----
मेरे सीने में ना सही, तेरे सीने में ही सही,
आग जहां भी हो, जलनी चाहिये।
एक आम इंसान की त्रासदी देखिये कि उसे जब यह विज्ञापन दिखा, साथ में एक कामुक सा विज्ञापन दिखा --- उस बेचारे को क्या पता वह क्या खरीद रहा है, वह झट से एक शीशी खरीद लेता है --- उस लाचार को तो बस इतनी आस है, इतनी उम्मीद है कि इस से वह थोड़ा लंबा खिंच जायेगा --- अगर ऐसा वह सोचता है तो उस में उस का कोई दोष नहीं है ----दोष है उन सब का जो इस तरह के विज्ञापन देते हैं एवं उन से भी बड़ा दोष उन का है जो इन विज्ञापनों को देख कर भी देखा-अनदेखा कर देते हैं। अच्छा आम आदमी की बेचारे की मानसिकता यही है कि चलो, क्या फर्क पड़ता है –स्प्रे ही तो मारना है, हम कौन सा कोई गोली, कैप्सूल खा रहे हैं। लेकिन उस की त्रासदी देखिये कि उसे इस तरह के स्प्रे से जब कोई भी नुकसान हो जाता है तो अव्वल तो उसे पता ही नहीं चलता कि यह स्प्रे की वजह से है और अगर पता लग भी जाये तो वह कंपनी का क्या उखाड़ लेगा ---- चुप्पी साधे रखता है, किसी डाक्टर के पास जाने से भी कतराता है क्योंकि इस तरह के स्प्रे वगैरह कोई क्वालीफाइड डाक्टर लोग तो लिखते नहीं हैं और अगर इसे लेने की सलाह किसी नीम-हकीम ने दी थी तो वे ठहरे मंजे हुये खिलाड़ी ---स्प्रे की जगह कोई लोशन थमा देंगे ---- उन के पास किस चीज़ की कमी थोड़े है !!
यह मैराथन वाली बात भी ऐसी ध्यान में आई कि मैं तो भाई अपनी मूल बात से ही भटक गया कि अमेरिका की एफडीए ने चेतावनी दी है कि अगर चमड़ी को सुन्न करने वाली वस्तुओं का गल्त इस्तेमाल किया जाये तो इस से दिल की धड़कन में गड़बड़ हो सकती है, दौरे पड़ सकते हैं , सांस लेने में तकलीफ़ हो सकती है, आदमी कोमा में जा सकता है और मौत भी हो सकती है।
These skin-numbing products in cremes, ointments or gels contain anesthetic drugs such as lidocaine, tetracaine, benzocaine, and prilocaine that are used to desensitize nerve endings near the skin's surface. If used improperly, the FDA said in an agency news release, the drugs can be absorbed into the bloodstream and cause reactions such as irregular heartbeat, seizures, breathing difficulties, coma or even death.
बार बार फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने इस के गल्त इस्तेमाल से सचेत रहने की बात की है और मैं उस चेतावनी में यही ढूंढ रहा था कि ज़रूर कहीं ना कहीं इस तरह के स्प्रे की इस तरह के गलत (मैराथन के लिये !)इस्तेमाल की भी बात की गई होगी , लेकिन शायद वहां पर लोग इतने जागरूक हैं कि यह सब इस काम के लिये इस्तेमाल नहीं करते होंगे। लेकिन सहवास से पहले इस स्प्रे का इस्तेमाल किया जाना शायद इस के गलत इस्तेमाल की सब से बड़ी उदाहरण है।
वैसे अमेरिका में तो उन्हें इस तरह की कुछ शिकायतें प्राप्त हुईँ कि जब महिलाओं ने अपनी मैमोग्राफी करवाने से पहले इसे अपने वक्ष-स्थल पर लगाया तो इस से कुछ कुप्रभाव उन में हुये और वहां पर महिलाओं ने जब लेज़र से अपने बाल उतरवाने से पहले भी इस तरह की चमड़ी सुन्न करने वाली क्रीमों आदि को इस्तेमाल किया तो भी कुछ बुरे प्रभाव देखने में आये जिस की वजह से वहां पर यह चेतावनी दी गई कि अपने फ़िज़िशियन की सलाह के बिना आप को किसी भी ऐसे प्रोडक्ट को इस्तेमाल करने के लिये मना किया जाता है।
इन क्रीमों, जैलों, ओएंटमैंटों में जिन चमड़ी सुन्न करने वाली दवाईयों की बात का उल्लेख था वे हैं --- लिडोकेन, टैट्राकेन, प्राइलोकेन, और बेनज़ोकेन – ( lidocaine, tetracaine,prilocaine and benzocaine) .
ये सब दवाईयां इस्तेमाल शरीर के किसी हिस्से को सुन्न करने के लिये इस्तेमाल की जाती हैं --- इन की अपनी अपनी अलग इंडीकेशन्ज़ हैं, ये विभिन्न ताकत में मिलती हैं( different strengths 2%, 3% आदि)--- जो दवा आंख में डाली जाती है उस की स्ट्रैंथ अलग है, मुंह में लगाई जाने वाली सुन्न करने वाली दवाई की स्ट्रैंथ अलग है । इस लिये इन के गल्त इस्तेमाल से बहुत बड़ा पंगा हो सकता है ।
मैं पिछले पच्चीस सालों से मुंह में कोई भी सर्जरी करने के लिये लिडोकेन 2% के इंजैक्शन का ही इस्तेमाल कर रहा हूं ---- ऊपर लिखी सब दवाईयां हैं तो सुन्न करने के लिये ही ना, लेकिन कभी भी लक्षमण-रेखा क्रॉस कर के किसी दूसरे साल्ट को इस्तेमाल करने का विचार भी नहीं आया ----लेकिन जो ले-मैन इन के स्प्रे के इस्तेमाल के चक्कर में पड़ जाता है उस बेचारे को ना तो किसी साल्ट की परवाह ही होती है और ना ही इस की स्ट्रैंथ की ---- कैमिस्ट चुपचाप मांगी गई वस्तु थमाने के अलावा ज़्यादा मगज़मारी करते नहीं हैं !!
अकसर मैं मुंह में इंजैक्शन लगाने से पहले एक स्प्रे का इस्तेमाल करता हूं जिस में इस सुन्न करने वाली दवा की स्ट्रैंथ 15 फीसदी ( 15% lidocaine) तक रहती है --- इस का फायदा यह होता है कि मरीज़ को जब उस के बाद हम इंजैक्शन लगाते हैं तो उसे सुईं की चुभन तक का बिल्कुल पता नहीं चलता और अपना काम आसान हो जाता है । और कईं बार बच्चों के हिलते-डुलते दांतों को एक ऐसी ही दवा वाली जैल ( लगा कर ही निकाल दिया जाता है। कहने का भाव है कि जिस का काम उसी को साजे----- डाक्टर लोग अपनी सारी सारी उम्र इन दवाईयों के साथ बिता देते हैं ---- इसलिये कोई भी काम उन की सलाह से ही किया जाये तो ठीक है, वरना आप ने तो देख ही लिया कि जब इस तरह के स्प्रे का लोग गल्त इस्तेमाल करते हैं तो आफ़त ही मोल लेते हैं। मैराथन तो गई भाड़ में, जान बची सो लाखों पाये।
मुझे ध्यान आ रहा है बंबई में एक मरीज़ था जो दो-तीन बार आया --- इलाज करवाने के बाद कहने लगता था कि इस तरह का स्प्रे हमें भी दिला दो --- मैंने पूछा क्यों, कहने तो लगा कि बस यूं ही मुंह में जब छाले वाले हों तो काम आ सकता है। अब पता नहीं उसे किस काम के लिये यह चाहिये था ---खुदा ही जाने, लेकिन मैंने उसे इतना ज़रूर समझा दिया था कि यह एक बहुत ही स्ट्रांग सी दवा है जिसे केवल डाक्टर की देख रेख में ही इस्तेमाल किया जा सकता है ।
जाते जाते बस एक छोटा सा नारा मारने की इच्छा सी हो रही है --- इस कमबख्त स्प्रे की ऐसी की तैसी !!--- बस, इतना कह कर ही लगता है काम चला लूं ---क्योंकि जो इस तरह के स्प्रे बेचने वालों के लिये मन में विचार, श्लोक आ रहे हैं वे तो लिखने के बिल्कुल भी काबिल नहीं हैं ---- जब कभी चिट्ठाजगत समारोह वगैरह में मिलेंगे तो वह भी चाय-नाश्ते के समय साझे कर ही दूंगा लेकिन यहां ---- बिल्कुल नहीं !!!
इतनी सीरियस सी पोस्ट के बाद चलिये फिक्र-नॉट की टेबलेट के रूप में एक गाना सुनते हैं।
रविवार, 18 जनवरी 2009
डाक्टर-मरीज के बीच बढ़ती दूरी से चांदी कूट रहा है कौन ?
पहले हकीम, वैध जी भी कितने ग्रेट हुआ करते थे --नाड़ी देखी, जुबान देखी और बीमारी ढूंढ ली और मरीज भी जगह जगह जा कर टैस्ट करवाने के झंझट से बचा रहता था ---डाक्टर हूं, फिर भी कह रहा हूं कि आज कल तो किसी को कोई तकलीफ़ हो जाती है तो उस की आफत ही हो जाती है ---हर विशेषज्ञ अपने अपने टैस्ट तो कहता ही है , लेकिन किसी बीमारी के विभिन्न विशेषज्ञों को भी अकसर सभी टैस्ट दोबारा ही चाहिये। मरीज़ की हालत देखने लायक होती है --- मुझे ऐसे लगता है कि वह या उस के परिवार वाले शायद बीमारी से ज़्यादा इस पर खर्च होने वाले पैसे की जुगाड़ में लगे रहते होंगे।
अकसर आप सब भी सुनते ही हैं कि जैसे जैसे ये खर्चीले टैस्ट बाज़ार मे आ गये हैं , लाखों-करोड़ों की मशीनें बड़े बड़े कारपोरेट हास्पीटलों में सज गई हैं तो अब इन पर धूल तो जमने से रही --- ये मरीज़ों के टैस्ट करेंगी तो ही इन का हास्पीटल को फायदा है, वरना ये किस काम की !! वो बात अलग है कि इन मशीनों की वजह से बहुत सी बीमारियां जो पहले पकड़ में ही नहीं आती थीं उन का पता चल जाता है और कुछ बीमारियों का तो बहुत जल्द पता भी चल जाता है --- लेकिन फिर भी यह कौन देख रहा है या यह कौन कंट्रोल कर रहा है कि कहीं इन महंगे टैस्टों का प्रयोग कईं जगह पर बिना वजह भी तो नहीं हो रहा। मैं ही नहीं कहता, आम पब्लिक में भी दिलो-दिमाग में यह बात घर कर चुकी है।
आज की जनता यह भी सोच रही है कि जितने जितने ये बड़े बड़े महंगे टैस्ट आ गये हैं ----डाक्टरों और मरीज़ों के बीच की बढ़ती दूरी का एक कारण यह भी है । अब डाक्टर लोग झट से ये टैस्ट करवाने के लिये लिख देते हैं---एक बात और भी है कि एक सामान्य डाक्टर जिसे किसी बीमारी विशेष का इलाज करने के लिेये कोई अनुभव नहीं है , वह भी ये टैस्ट करवाने के लिये लिख तो देते हैं, लेकिन रिपोर्ट आने पर जब किसी स्पैशिलस्ट के पास भेजते हैं तो वह डाक्टर अकसर उन्हीं टैस्टों को दोबारा करवाने की सलाह दे देते हैं -----------मरीज़ की आफ़त हो गई कि नहीं ?
एक तो यह जब से कंज़्यूमर प्रोटैक्शन बिल आया है इस से भी मुझे तो लगता है कि मरीज़ों की परेशानियां बढ़ी ही हैं ---- हर डाक्टर अपने आप को सुरक्षित रखना चाहता है --ऐसे में महंगे टैस्ट करवाने से पहले शायद कईं बार इतना सोचा भी नहीं जाता । यहां ही क्यों, बहुत से विकसित देशों में भी तो करोड़ों अरबों रूपये इसी बात पर बर्बाद हो रहे हैं कि डाक्टर मुकद्दमेबाजी के चक्कर से बचने के लिये अनाप-शनाप टैस्ट लिखे जा रहे हैं -----इस के बारे में एक विस्तृत्त रिपोर्ट मैं दो दिन पहले ही पढ़ रहा था।
कल मैं 17-18 साल के एक लड़के के मुंह का निरीक्षण कर रहा था --- मेरी नज़र उस की जुबान पर गई तो मुझे अपनी मैडीकल की किताब में दी गई तस्वीर का ध्यान आ गया। जब मैं एमडीएस कर रहा था तो एक बहुत बड़ी किताब पढ़ी थी ----Tongue : In health and disease जुबान - सेहत में और बीमारी में !! उस लड़के के जुबान उस की परफैक्ट सेहत ब्यां कर रही थी ---मैंने पास ही खड़े आपने अटैंडैंट को कहा कि किशन, यह देखो एक स्वस्थ जुबान इस तरह की होती है !
ऐसा क्या था उस की जुबान में --- उस का रंग बिल्कुल नार्मल था , और उस का खुरदरापन उस की सेहत को ब्यां कर रहा था ---यह खुरदरापन जुबान की सतह पर मौज़ूद पैपीली (filiform papillae) की वजह से होता है और यह जुबान की अच्छी सेहत की निशानी हैं ----कुछ बीमारियां है जैसे कि कुछ तरह के अनीमिया ( खून की कमी ) जिन में यह पैपीली खत्म हो जाते हैं और जुबान बिल्कुल सपाट सी दिखने लगती है ।
यह तो एक बात हुई ---- जुबान पर जमी काई( tongue coating), जुबान का रंग, मुंह से आने वाली गंध, मुंह के अंदरूनी हिस्सों का रंग, मसूड़ों का रंग, उन की बनावट, मुंह के अंदर वाली चमड़ी कैसी दिखती है -----ये सब उन बीसियों तरह की चीज़ें हैं जिन को देखने पर मरीज़ की सेहत के बारे में काफ़ी कुछ पता चलता है । कुछ समय से यह चर्चा बहुत गर्म है कि मसूड़ों के रोग ( पायरिया ) आदि से हृदय के रोग होने की संभावना बहुत बढ़ जाती है , और यह भी तो देखा है कि जिस किसी मरीज़ को बहुत ज़्यादा पायरिया है, दांत हिल रहे हैं तो कईं बार जब उस के रक्त की जांच की जाती है तो पहली बार उसे भी तभी पता चलता है कि उसे मधुमेह है।
धीरे धीरे समझ आने लगती है कि पुराने हकीम लोग, धुरंधर वैध अपने मरीज़ों में झांक कर क्या टटोला करते थे ---- वे जो टटोला करते थे उन्हें मिल भी जाता था --वे मिनट दो नहीं लगाते थे और मरीज़ की सेहत का सारा चिट्ठा खोल कर सामने रख देते थे लेकिन शायद आज कल की तेज़-तर्रार ज़िंदगी में इतना सब कुछ करने की फुर्सत ही किसे है------ अपने आप पता लग जायेगा जो भी है टैस्टों में , क्यों पड़े इन झंझटों में ---- कहीं कहीं ऐसी सोच भी बनती जा रही है।
जो काम आप बार बार करते है उस में हमें महारत भी हासिल होनी शुरू हो जाती है ---- किसी असामान्य मुंह से सामान्य मुंह का भेद करना हम जानना शुरू कर देते हैं ----ध्यान आ रहा अपने एक बहुत ही प्रिय प्रोफैसर का --- डा कपिला साहब----- क्या गजब पढ़ाते थे , बार बार कहा करते थे कि खूब पढ़ा करो --- अपना ज्ञान बढ़ाओ क्योंकि जब आप किसी मरीज़ का चैक अप कर रहे हो तो आप वहीं चीज़े देख पाते हो जिन के बारे में आप को ज्ञान है ----- You see what you know, you dont see what you dont know !! कितनी सही बात है ....वे बार बार यह बात दोहराते थे।
जब हम मुंह की ही बात करें तो हमें मुंह के अंदर झांकने मात्र से ही बहुत प्रकार की बीमारियों का पता चल जाता है और दूसरी बात यह भी है कि बहुत सी मुंह की तकलीफ़ें ऐसी भी हैं जो हमारे सामान्य स्वास्थ्य को भी काफी हद तक प्रभावित करती हैं।
यह जो फिल्मी गीत है ना मुझे बहुत अच्छा लगता था ----लगता था क्या , आज भी लगता है, इस के बोल बहुत कुछ बता रहे हैं --दो दिन पहले टीवी पर भी आ रहा था, इसलिये सोचा कि आप के साथ बैठ कर सुनता हूं -- और भी अच्छा लगेगा।
अकसर आप सब भी सुनते ही हैं कि जैसे जैसे ये खर्चीले टैस्ट बाज़ार मे आ गये हैं , लाखों-करोड़ों की मशीनें बड़े बड़े कारपोरेट हास्पीटलों में सज गई हैं तो अब इन पर धूल तो जमने से रही --- ये मरीज़ों के टैस्ट करेंगी तो ही इन का हास्पीटल को फायदा है, वरना ये किस काम की !! वो बात अलग है कि इन मशीनों की वजह से बहुत सी बीमारियां जो पहले पकड़ में ही नहीं आती थीं उन का पता चल जाता है और कुछ बीमारियों का तो बहुत जल्द पता भी चल जाता है --- लेकिन फिर भी यह कौन देख रहा है या यह कौन कंट्रोल कर रहा है कि कहीं इन महंगे टैस्टों का प्रयोग कईं जगह पर बिना वजह भी तो नहीं हो रहा। मैं ही नहीं कहता, आम पब्लिक में भी दिलो-दिमाग में यह बात घर कर चुकी है।
आज की जनता यह भी सोच रही है कि जितने जितने ये बड़े बड़े महंगे टैस्ट आ गये हैं ----डाक्टरों और मरीज़ों के बीच की बढ़ती दूरी का एक कारण यह भी है । अब डाक्टर लोग झट से ये टैस्ट करवाने के लिये लिख देते हैं---एक बात और भी है कि एक सामान्य डाक्टर जिसे किसी बीमारी विशेष का इलाज करने के लिेये कोई अनुभव नहीं है , वह भी ये टैस्ट करवाने के लिये लिख तो देते हैं, लेकिन रिपोर्ट आने पर जब किसी स्पैशिलस्ट के पास भेजते हैं तो वह डाक्टर अकसर उन्हीं टैस्टों को दोबारा करवाने की सलाह दे देते हैं -----------मरीज़ की आफ़त हो गई कि नहीं ?
एक तो यह जब से कंज़्यूमर प्रोटैक्शन बिल आया है इस से भी मुझे तो लगता है कि मरीज़ों की परेशानियां बढ़ी ही हैं ---- हर डाक्टर अपने आप को सुरक्षित रखना चाहता है --ऐसे में महंगे टैस्ट करवाने से पहले शायद कईं बार इतना सोचा भी नहीं जाता । यहां ही क्यों, बहुत से विकसित देशों में भी तो करोड़ों अरबों रूपये इसी बात पर बर्बाद हो रहे हैं कि डाक्टर मुकद्दमेबाजी के चक्कर से बचने के लिये अनाप-शनाप टैस्ट लिखे जा रहे हैं -----इस के बारे में एक विस्तृत्त रिपोर्ट मैं दो दिन पहले ही पढ़ रहा था।
कल मैं 17-18 साल के एक लड़के के मुंह का निरीक्षण कर रहा था --- मेरी नज़र उस की जुबान पर गई तो मुझे अपनी मैडीकल की किताब में दी गई तस्वीर का ध्यान आ गया। जब मैं एमडीएस कर रहा था तो एक बहुत बड़ी किताब पढ़ी थी ----Tongue : In health and disease जुबान - सेहत में और बीमारी में !! उस लड़के के जुबान उस की परफैक्ट सेहत ब्यां कर रही थी ---मैंने पास ही खड़े आपने अटैंडैंट को कहा कि किशन, यह देखो एक स्वस्थ जुबान इस तरह की होती है !
ऐसा क्या था उस की जुबान में --- उस का रंग बिल्कुल नार्मल था , और उस का खुरदरापन उस की सेहत को ब्यां कर रहा था ---यह खुरदरापन जुबान की सतह पर मौज़ूद पैपीली (filiform papillae) की वजह से होता है और यह जुबान की अच्छी सेहत की निशानी हैं ----कुछ बीमारियां है जैसे कि कुछ तरह के अनीमिया ( खून की कमी ) जिन में यह पैपीली खत्म हो जाते हैं और जुबान बिल्कुल सपाट सी दिखने लगती है ।
यह तो एक बात हुई ---- जुबान पर जमी काई( tongue coating), जुबान का रंग, मुंह से आने वाली गंध, मुंह के अंदरूनी हिस्सों का रंग, मसूड़ों का रंग, उन की बनावट, मुंह के अंदर वाली चमड़ी कैसी दिखती है -----ये सब उन बीसियों तरह की चीज़ें हैं जिन को देखने पर मरीज़ की सेहत के बारे में काफ़ी कुछ पता चलता है । कुछ समय से यह चर्चा बहुत गर्म है कि मसूड़ों के रोग ( पायरिया ) आदि से हृदय के रोग होने की संभावना बहुत बढ़ जाती है , और यह भी तो देखा है कि जिस किसी मरीज़ को बहुत ज़्यादा पायरिया है, दांत हिल रहे हैं तो कईं बार जब उस के रक्त की जांच की जाती है तो पहली बार उसे भी तभी पता चलता है कि उसे मधुमेह है।
धीरे धीरे समझ आने लगती है कि पुराने हकीम लोग, धुरंधर वैध अपने मरीज़ों में झांक कर क्या टटोला करते थे ---- वे जो टटोला करते थे उन्हें मिल भी जाता था --वे मिनट दो नहीं लगाते थे और मरीज़ की सेहत का सारा चिट्ठा खोल कर सामने रख देते थे लेकिन शायद आज कल की तेज़-तर्रार ज़िंदगी में इतना सब कुछ करने की फुर्सत ही किसे है------ अपने आप पता लग जायेगा जो भी है टैस्टों में , क्यों पड़े इन झंझटों में ---- कहीं कहीं ऐसी सोच भी बनती जा रही है।
जो काम आप बार बार करते है उस में हमें महारत भी हासिल होनी शुरू हो जाती है ---- किसी असामान्य मुंह से सामान्य मुंह का भेद करना हम जानना शुरू कर देते हैं ----ध्यान आ रहा अपने एक बहुत ही प्रिय प्रोफैसर का --- डा कपिला साहब----- क्या गजब पढ़ाते थे , बार बार कहा करते थे कि खूब पढ़ा करो --- अपना ज्ञान बढ़ाओ क्योंकि जब आप किसी मरीज़ का चैक अप कर रहे हो तो आप वहीं चीज़े देख पाते हो जिन के बारे में आप को ज्ञान है ----- You see what you know, you dont see what you dont know !! कितनी सही बात है ....वे बार बार यह बात दोहराते थे।
जब हम मुंह की ही बात करें तो हमें मुंह के अंदर झांकने मात्र से ही बहुत प्रकार की बीमारियों का पता चल जाता है और दूसरी बात यह भी है कि बहुत सी मुंह की तकलीफ़ें ऐसी भी हैं जो हमारे सामान्य स्वास्थ्य को भी काफी हद तक प्रभावित करती हैं।
यह जो फिल्मी गीत है ना मुझे बहुत अच्छा लगता था ----लगता था क्या , आज भी लगता है, इस के बोल बहुत कुछ बता रहे हैं --दो दिन पहले टीवी पर भी आ रहा था, इसलिये सोचा कि आप के साथ बैठ कर सुनता हूं -- और भी अच्छा लगेगा।
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