बुधवार, 26 मार्च 2014

रहम आता है यार ....

कुछ महीने पहले की तो बात है ..मैं वाल्वो बस में दिल्ली से जयपुर जा रहा था...पिछली सीट पर शायद किसी सरकारी अस्पताल में सर्विस करने वाला डाक्टर बैठा हुआ था अपने किसी मित्र के साथ...मुझे उन की बातों से ऐसा प्रतीत हुआ।

उस डाक्टर की बातें जो मेरे कानों में पड़ीं..मैं वे सुन कर दंग रह गया। बता रहा था अपने मित्र को अभी दो महीने पहले ही वह तबादला हो कर राजस्थान के इस अस्पताल में आया है। अस्पताल के हालात सुना रहा था ...सुन कर मेरा मन बहुत खराब हुआ।

लेकिन एक बात सुन कर मैं भी सोचने पर मजबूर हो गया.. वह अपनी साथ वाली सीट पर बैठे बंदे से कह रहा था कि यार, जिस अस्पताल में वह सर्विस कर रहा है उस के हालात इतने खराब हैं कि अगर मरीज़ से अच्छे से बात करो, उसे ध्यान से सुनो और उस का अच्छे से इलाज कर दो.....तो भी इस का गलत मतलब निकाला जाता है।

मुझे भी यह सुन कर बड़ा अटपटा सा लगा लेकिन तुरंत उस की बात जो मेरे कान में पड़ी उस से वह अटपटापन चिंता में  तबदील हो गया। उस ने बताया कि दो-तीन दिन में एक बार हो ही जाता है कि मरीज़ उसे पचास-सौ रूपया देने के लिए अपना पर्स खोल लेता है। उस के द्वारा पैसे लेने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता... पर्स खोलने वाला थोड़ा झेंप सा जाता है जब वह उन्हें बताता है कि वह जो भी काम कर रहा है, उसे सरकार उस के लिए उसे सेलरी देती है।

यह तो हो गई उस बस में वार्तालाप की बात जो मेरी कानों तक पहुंची।

अब सुनिए मेरी बात.....मैं कहीं भी जाता हूं तो बहुत कुछ अब्जर्व करता हूं।

..किसी भी दफ्तर में जाता हूं और देखता हूं कि जहां पर कोई भी नागरिक चाहे बिल भी जमा करवाने आया है, उस के चेहरे पर मैं एक अजीब सी शिकन देखता हूं......जैसे वह सोच रहा हो कि कैसे भी मेरा बिल जमा हो जाए, बस बाबू कोई गलती न निकाल दे। इस विषय के बारे में कितना लिखूं......जो इसे पढ़ रहे हैं और जो इस तरह के अनुभवों से गुज़र चुके हैं उन के लिए मेरे यह सब लिखने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वे सब कुछ जानते हैं.......मुझे टीवी सीरियल ऑफिस ऑफिस के मुसद्दी लाल के किरदार का ध्यान आ रहा है।

एक बात जो मेरे मन को बहुत ही ज़्यादा उद्वेलित करती है कि सरकारी तंत्र के पास नियमों की किताब तो है ही....होनी भी चाहिए.....लेकिन इस के बावजूद भी चपरासी से लेकर बड़े से बड़े अफसर के पास इतनी ऐच्छिक शक्तियां (discretionary powers) हैं कि मैं उन के बारे में सोचता हूं तो मेरा सिर दुःखने लगता है। चपरासी चाहे तो किसी से मिलने दे , वरना कुछ भी कह के टरका दे। बाबू एक बार कह दे कि फाईल नहीं मिल रही ..तो क्या आप कह सकते हैं कि आप ढूंढने में मदद कर सकते हैं। कहने का यही मतलब कि आदमी सरकारी दफ्तर में काम कर रहे हर व्यक्ति के मुंह की तरफ़ ही देखता रह जाता है।

अकसर सुनते हैं कि तुम मुझे आदमी दिखाओ, मैं तुम्हें कानून बताऊंगा। जी हां, हैं इतनी व्यापक ऐच्छिक शक्तियां हैं अफ़सरों के पास......नहीं मानो तो न सही,लेकिन जो बात सच है वह तो यही है कि अगर किसी का काम करना हो तो १०० कारण बता कर उस का काम किया जा सकता है और अगर नहीं करना तो १०१ कारण बताए जा सकते हैं। यह सब कुछ देख सुन कर डर लगता है ...........तरस आता है .......बताने की ज़रूरत तो नहीं कि किस पर यह तरस आता है।

ठीक है आ गया है सूचना का अधिकार........काफ़ी कुछ पता लगाया जा सकता है, लेकिन अब उस का जवाब देने वाले भी कुछ मंजे खिलाड़ी बनते जा रहे हैं. पूरी कोशिश करते हैं कि किसी तरह से सटीक जानकारी न बाहर निकलने पाए.... और इतनी माथापच्ची अाम बंदा कर नहीं पाता।

इसलिए रहम आता है मेरे भाइयो...........सच में तरस आता है........कईं बार तो दयनीय हालात देख कर आंखें भीग जाती हैं.......कोई पालिटिकल स्पीच नहीं है यह मेरी...........बिल्कुल जो महसूस किया और जो देखा वही ब्यां कर दिया है।


गुरुवार, 20 मार्च 2014

ट्रांसपेरेंसी का दौर....

आज के दौर में अगर किसी दफ्तर में किसी कागज़ के लिए इंकार करे तो वह बड़ा बेवक़ूफ़ सा लगता है। सभी सूचना सिर्फ दस रुपया की दूरी पर ही तो है। फिर कोई सूचना के हक़ से पूछे तो इन्हें बुरा लगता है।
आज मैं पहली बार अपने फ़ोन से लिख कर इस पोस्ट को पब्लिश कर रहा हूँ। थोडा मुश्किल तो लग ही रहा है।
आज मैं अपने बेटे के साथ उस के स्कूल गया था। उस का रिजल्ट कार्ड तो दो दिन बाद मिलेगा लेकिन आज स्कूल ने बच्चों को और उनके माँ बाप को उनके पेपर देखने के लिए बुलाया था।
मुझे यह सब देख कर बहुत अच्छा लगा। कितना खुलापन....किसी को कोई मलाल नहीं कि पता नहीं पेपर ठीक से किसी ने देखे या नहीं। पता नहीं टोटल ठीक हुआ होगा या नहीं। होते थे हमारे मन में भी ऐसे सवाल उठा करते थे।
मुझे ऐसा लगता है ...यह सब सी बी एस ई की पहल से ही हुआ होगा। सभी बच्चे अपने साथ प्रश्न पत्र भी लाये हुए थे। उनके टीचर वहीँ मौजूद थे। कोई भी संदेह दूर करो। पेरेंट्स ने भी बच्चों की परफॉरमेंस को टीचर्स के साथ डिस्कस किया।
यह बहुत अच्छा सिस्टम है।।। सूचना के हक का ही विस्तार लगा मुझे तो। जब कोर्ट कचेरी ने कह दिया क़ि अब बच्चे अपने पर्चों की कॉपी आर टी ई के द्वारा भी ले सकते हैं तो लगता है बोर्ड ने सोचा सब कुछ वैसे ही खोल दो।।।।।। बहुत अच्छा।
आज जब मैं यह नज़ारा देख रहा था तो सत्तर के दशक में अपने डी ऐ वी स्कूल अमृतसर के दिन याद आ रहे थे। एक पोस्टकार्ड नुमा प्रिंटेड कार्ड हर त्रॆमसिक पर्चे के बाद घर जाता था डाक से। उसमे नंबर कोई मॉनिटर नुमा लड़का भरता था। घर से बापू से हस्ताक्षर करवाने के बाद अपने क्लास के मास्टर को वापस ला के देना होता था। इस मैं भी बच्चे कोई न कोई जुगाड़ निकाल ही लिया करते थे।।।
Thanks dear Raghav for pushing to put Nexus4 to proper use......god bless....i dedicate this first post to you.!!   (raghav is my younger and naughty son!)......god bless him always!

बुधवार, 19 मार्च 2014

कुकिंग ऑयल और टमाटर सॉस में मिलावट

जब भी कोई त्योहार आता है तो इस तरह की खबरें-वबरें बहुत आनी शुरू हो जाती हैं.....अभी दो दिन पहले ही देखा कि कुकिंग ऑयल में किस हद तक मिलावट की खबरें आ रही हैं।

मुझे याद है कि कुछ वर्ष पहले तक और वैसे तो आज भी इस देश के घरों में सरसों का तेल किसी कोल्हू से लाने का बड़ा रिवाज सा था.....मुझे अभी एक कहावत भी याद आ गई..कोल्हू का बैल...शायद मैंने कभी देखा नहीं कोल्हू में बैल को तेल निकालते हुए या फिर ४० वर्ष पहले कभी देखा होगा ऐसा कुछ अमृतसर में जिस की धुंधली सी याद अभी कायम है। या फिर पता नहीं मैं जिस बैल की बात कर रहा हूं उसे हम लोग गन्ने का रस निकालते ही देखा करते थे.....यह तो बहुत बार देखा अमृतसर में हमारे स्कूल के रास्ते में एक बैल गोल-गोल घूमा करता था और गन्ने का रस निकालने में मालिक की मदद किया करता था।

हां, तो बात चल रही थी, सरसों के तेल की...पंजाबी में एक शब्द है ..कच्ची घानी का तेल.....मतलब मुझे भी नहीं पता लेकिन अकसर जिन दुकानों पर खुला सरसों का तेल बिकता है, वे इसे अपनी यूएसपी बताते हैं कि उन के यहां कच्ची घानी का तेल बिकता है।

कुछ महीने पहले मुझे सरसों का तेल लाने के लिए कहा गया.......मैं एक मशहूर दुकान पर गया...और उस से पूछा कि किस ब्रांड का तेल उस के पास है। उस ने दो -तीन नाम गिना दिए और साथ में अपने यहां निकाले गये तेल (खुले में बिकने वाले) की तारीफ़ करने लगा.....दाम उस के यहां खुले बिकने वाले तेल का ब्रांडेड बिकने वाले तेल से ज़्यादा ही थी, इसलिए मुझे लगा कि यही सब से बढ़िया विक्लप है।

मैं उस के यहां बिकने वाले खुले तेल की बोतल ले आया। लेकिन घर आने पर मेरी श्रीमति ने बताया कि खुला तेल कभी नहीं लाना चाहिए......बात मेरी समझ में तुरंत आ गई। आजकल किस की बात का भरोसा करें किस का न करें, समझ नहीं आता। मिलावट का बाज़ार इतना गर्म है कि लोग अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।

ब्रांडेड क्वालिटी में तो इतने तरह के नियम-कायदे मानने पड़ते हैं, फिर भी उन में भी कभी कभी मिलावट की खबरें आ ही जाती हैं। ऐसे में खुले में बिकने वाली किसी चीज़ पर कैसे भरोसा किया जा सकता है। ब्रांडेड सील बंद बोतल में कम से कम कंपनी की साख तो दाव पर लगी होती है।

चार छः वर्ष पहले की बात है जब से ये देसी घी के मिलावटी होने की खबरें आम हो गई थीं तो मैं सोचता था कि कुछ मिठाईयां तो हमें रिफाईंड घी आदि की तैयार हुई ही खरीद लेनी चाहिए ...कभी कभी अगर खाने की इच्छा हो तो...लेकिन अब वह रिफाईंड की तैयार मिठाईयों, भुजिया-वुजिया से भी डर ही लगता है......पता नहीं खुले में बिकने वाली इन खाध्य पदार्थों में लोभी लोगों ने क्या क्या धकेला होता है। एक बार की बात है हरियाणा की एक मिठाई की दुकान की....हम ने बेसन के लड्डू खरीदे ..लेकिन यकीन मानिए जब उन्हें हाथ लगाया तो वे इतने पिलपिले की मैं बता नहीं सकता.....उन्हें खाना तो क्या था, छूते ही सिर दुखने लगा....पता नहीं उन में कौन सा तेल डाला गया था। कहते ये सारे एक ही बात हैं.....हम तो रिफाईन्ड के अलावा कुछ भी इस्तेमाल नहीं करते।

दो दिन पहले ही की खबर है कि ये जो सॉस---  जी हां, सॉस, एकता कपूर के नाटकों वाली सास नहीं, जगह जगह बाज़ार में बिकती है ..इन में प्रिज़र्वेटिव की मात्रा इतनी ज़्यादा होती है कि इन्हें खाना कैंसर को निमंत्रण देने के बराबर है। और ये सब पदार्थ वे इतनी ज़्यादा मात्रा में इसलिए डाल देते हैं ताकि उन का सामान बहुत दिनों तक खराब न हो।  दोनों खबरें टाइम्स ऑफ इंडिया में आई थीं........बाहर बाल्कनी में अखबार पड़ी है, मैं लिंक यहां दे देता लेकिन आज कल हमारे घर में इतने ज़्यादा मच्छर हैं कि हम लोग शाम के वक्त बाल्कनी का दरवाज़ा नहीं खोलते, बाहर से ढ़ेरों मच्छर आ जाते हैं।

इस टमाटर सॉस एवं चिल्ली सॉस वाली खबर में तो यहां तक लिखा था कि इन में से कुछ की तो टैस्टिंग की गई और टमाटर सॉस में टमाटर गायब था और चिल्ली सॉस से चिल्ली नदारद थी.......सब तरह के सस्ते सब्स्टिच्यूट उन में पाए गये थे। इस तरह के प्रमाण एक प्रसिद्ध फूड एंड टॉक्सीकॉलोजी रिसर्च इंस्टीच्यूट के द्वारा दिए गये थे। ये सॉस वो हैं जो बिना किसी ब्रांड के ऐसे ही समोसे-कचौरी, नूडल के खोमचों, चाईनीज़ फूड के आउटलैट्स पर पड़ी रहती हैं।
इतनी मिलावट....इतना लोभ, पब्लिक की सेहत से इतना खिलवाड़..........इन सब के बारे में पढ़ कर सिर तो दुःखता ही है, उलटी होने लगती है।

समाधान क्या है, यही है कि हम लोग इन चीज़ों से दूरी बनाए रखें.......सरकारी तंत्र किन किन चीज़ों की टैस्टिंग करेगा, कब कब करेगा, क्या क्या रिपोर्ट आयेगी.... कब कब किसी को सजा होगी.......इन चक्करों में ना ही पड़ें तो बेहतर होगा............ऐसी सब सस्ती किस्म की बाजार में खुले में बिकने वाली चीज़ों का बहिष्कार तो हम आज ही से कर ही सकते हैं..........यह हमारी आपकी सेहत का मामला है। 

मंगलवार, 18 मार्च 2014

कहानी कहने और दिखाने का फ़न

मुझे याद है कि कुछ वर्ष पहले की बात है कि दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल पर कईं हफ़्तों तक मुंशी प्रेम चंद की कहानियां दिखाई जाती थीं। मैंने भी उन में से बहुत सी देखी थीं।

पिछली सदी के महान लेखक मुंशी प्रेम चंद के लेखन से मैं रू-ब-रू स्कूल के दिनों से हुआ था। शायद ९ या १०वीं कक्षा में उन का एक नावेल गोदान हमारे सिलेबस में था। और वैसे भी उन की कुछ कहानियां नमक का दारोगा जैसी भी हम ने स्कूल के दिनों में ही पढ़ी थीं।

कुछ दिन पहले मैंने यू-ट्यूब खोला हुआ था.. वहां पर मैंने डी डी नैशनल का ऑफिशियल चैनल खोला तो नज़र पड़ गई ..मुंशी प्रेम चंद की तहरीर पर....उन की विभिन्न कहानियों का फिल्मांकन देखने लायक है, हो भी क्यों नहीं, इन्हें प्रस्तुत वाले भी तो गुलज़ार साब हैं।

तो उस दिन मैंने कफ़न कहानी को देखा.......और आज दोपहर ईदगाह कहानी देखी।

इन कहानियों को देखते हुए मैं यही सोच रहा था कि कहानी कहने की तहज़ीब सीखनी हो तो सदी के महान लेखक प्रेमचंद को पढ़ लिया जाए...अगर हम कहानी लिखना ना भी सीख पाए तो भी और बहुत कुछ तो सीख ही जाएंगे और यह देखने के लिए कि किसी कहानी के फिल्मांकन के दौरान कैसे इंसाफ़ किया जाता है, इस के लिए गुलज़ार साब की कृत्तियों से रू-ब-रू तो होना ही पड़ेगा।

दूरदर्शन के विभिन्न चैनल इतने अच्छे कार्यक्रम दिखाते हैं कि मेरी तो इच्छा होती है कि काश मैं केवल दूरदर्शन के कार्यक्रम ही देखा करूं (समाचारों को छोड़ कर...कारण आप जानते ही होंगे)... राज्यसभा टीवी, लोकसभी टीवी, डीडीभारती, राष्ट्रीय चैनल, डीडीन्यूज़ पर सेहत संबंधी कार्यक्रम ...इन की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। यह मेरा व्यक्तिगत विचार है।

आज जो मैंने कहानी देखी ईदगाह उस के वीडियो का लिंक यहां दे रहा हूं...आप भी देख सकते हैं और इन कलाकारों की महानता आप को भी अचंभित कर देगी....... इस लिंक पर क्लिक करिए...