कल छुट्टी तो ली थी किसी और काम के लिए ..कहीं जाना था, जा नहीं पाए और सारा दिन नीना गुप्ता की ३०० पन्नों की आत्मकथा पढ़ने में लग गया....परसों देर रात पढ़ना शुरू किया था...अभी अभी ही उस पाठ का समापन हुआ है ...
मुझे पढ़ रहा था और मुझे कहा गया कि मैं तो ऐसे पढ़ रहा हूं जैसे कॉलेज के कोर्स की कोई किताब हो...लेकिन मुझे तो पढ़ते पढ़ते लग रहा था कि इतनी लगन से मैंने अपने स्कूल-कॉलेज के दौर में किसी किताब को नहीं पढ़ा....ऐसा क्या था इस में। इतना ही कहना चाहूंगा कि बहुत ईमानदारी से लिखी हुई आत्मकथा है यह ...वरना, मैं तो एक किताब के थोड़े पन्ने उलट-पलट कर, थोड़ा बहुत उसे पढ़ कर दूसरी किताब या मैगज़ीन उठा लेता हूं ...मैं इंगलिश, हिंदी और पंजाबी और उर्दू में लिखा पढ़ता हूं ...उर्दू में बहुत कम क्योंकि अभी उसे पढ़ने में वह रवानी नहीं है, जो किसी भी ज़बान को पढ़ने के लिए ज़रूरी होती है ...
आज सुबह हमारे डाइनिंग पर बिखरी कुछ किताबें-रसाले |
नीना गुप्ता की आत्मकथा को पढ़ते पढ़ते मैं यह सोच कर मन ही मन हंस भी रहा था कि जिन किताबों को हमने पूरा पढ़ा उन के नाम मुझे याद हैं...मेरे से नहीं पढ़ी जाती कोई भी किताब पूरी ...स्कूल-कॉलेज के दिनों में भी बीच बीच में, पुराने सालों के प्रश्न-पत्र देख कर अनुमान लगा लिया करता था ..गलत या सही जो भी होता...उतना ही पढ़ कर जाता। लेकिन हां, मुझे बचपन में किराए पर लाए हुए नंदन, चंदामामा और राजन-इकबाल के जासूसी नावल पढ़ना बहुत पंसद थे ...मां को अपने पाठ की किताब को और रामायण को पूरा पढ़ते देखता था ...देर रात तक कईं बार पढ़ती रहती ...सब की मंगल-कामना करतीं।
दो चार बरस पहले मैं एक आत्मकथा और पढ़ी थी ....सुरेंद्रमोहन पाठक ...जिन्होंने ४०० से ज़्यादा नावल लिखे हैं....उन का नावल तो नहीं पढ़ा कोई लेकिन आत्मकथा इतनी रोचक थी - दो भागों में थी....कि दो तीन दिन लगा कर पढ़ लिया था....और एक बार जब किसी साहित्यिक उत्सव में मिले तो उन को यह बताया भी था..
३०० पन्नों में नीना गुप्ता ने क्या लिखा है, मेरे लिए बताना कठिन है, क्योंकि उन्होंने दिल से लिखी है किताब....मैं पढ़ रहा था तो किसी ने कहा कि पता नहीं खुद लिखते हैं या लिखवाते हैं...खैर, यह माने ही नहीं रखता, पढ़ते हुए पाठक को समझ आ जाता है कि कितनी ईमानदारी से लिखा गया है ...हम खामखां जज बन बैठते हैं...जिस की ज़िंदगी है उसने जो लिखा उस के बारे में आराम से उसे पढ़ो, समझो ...और जो भी तुम सोचना चाहो सोचो ....कौन रोक रहा है...
किताबें बहुत सी देखता हूं ..कुछ छूता हूं, कुछ के पन्ने उलट-पलट लेता हूं और बहुत कम को ही पढ़ने का सब्र रखता हूं लेकिन किताबों के बारे में बहुत सी कहावतें याद हैं ..किसी की लिखी किताब को पढ़ना उसे मिलने जैसा है ..पुरानी किताबों को पढ़ना गुज़रे दौर के महान लोगों को मिलने के बराबर है. मैं इसे बिल्कुल सही मानता हूं...
और किसी भी लेखक को , किसी शायर को एक जज की नज़र से देखना बड़ा आसान है......लखनऊ में एक बार किसी प्रोग्राम में था, वहां पर जावेद अख्तर के सामने उन के मामा मजाज लखनवी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में किसी ने कोई टिप्पणी की। उस का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि देखिए, हर इंसान या हर कलाकार एक पैकेज होता है, उस में बहुत सी चीज़ें शामिल होती हैं.....वह पैकेज ही तभी तैयार हो पाता है क्योंकि उसमें बहुत कुछ ऐसा होता है जिसे समाज सही ठहराता है, कुछ चीज़े समाज को ठीक नहीं लगतीं....लेकिन जब आप उस शख्स का काम देखते हैं तो उसमें वह अपनी छाप छोड़ जाता है और आने वाली पीढ़ियां उस को पढ़ती हैं, और उस को समझने की कोशिश करती हैं और सीख लेती हैं....
नीना गुप्ता की आत्मकथा को पढ़ते हुए भी मुझे ऐसा लग रहा था कि इतना संघर्ष किया इस फ़नकार ने, सारी ज़िंदगी ही जद्दोजहद से भरी पड़ी, इतने तरह के अलग अलग अनुभव हुए....अलग अलग लोग मिले अलग अलग जगहों पर ..और सब से कुछ न कुछ सीखा....कोई भी हो जो इतना तप जाएगा, ज़िंदगी के इतने सार सबक समेट लेगा तो फिर उन का करेगा क्या.........सब कुछ हमें अपने फ़न के या अपनी कलम के ज़रिए लौटा देगा.....ताकि बहुत से लोग उन से सीख ले सकें, प्रेरित हो सकें.......लेकिन एक बात तो है कि लोग दूसरों के तजुर्बों से कम ही सीखते हैं....
बहरहाल, नीना गुप्ता की आत्मकथा ..सच कहूं तो ....मुझे बहुत पसंद आई ....उत्ति उतम ..... बधाई हो ...