सातवीं-आठवीं कक्षा के दौरान एक दिन बैठा मैं समाचार-पत्र पर निबंध लिख रहा था ..मेरे पिता जी साथ ही बैठे हुए थे...पहले पेरेन्ट्स के पास बच्चों के लिए समय भी होता था...उन्होंने कहा कि शुरू में यह भी लिखो ...
निकालो न कमानों को, न तलवार निकालो,
जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो..
अगले दिन हिंदी के हमारे उस्ताद कृष्ण लाल तलवाड़ जी बहुत खुश हुए वह निबंध को देख कर...
उस निबंध में यह भी लिखा था कि किस तरह से हर तरह की ख़बर के लिए अखबार में जगह सुरक्षित होती है ...विकास कार्य, शिक्षा संबंधी, सेहत, वैवाहिक विज्ञापन, अन्य विज्ञापन, खेल-कूद, राजनीतिक खबरें, बवाल, ज़ुर्म आदि। जी हां, होती हैं अभी भी ये सब ख़बरें लेकिन पता नहीं क्यों लगता है कि हर पन्ना खून और नफ़रत से लथपथ है ..
हमेशा की तरह अभी मैंने अखबार उठाया तो मुझे हर रोज़ की तरह यही लगा कि आज कल की अखबारें हैं या क्राइम-रिपोर्टर ...हर पन्ना खून, खौफ, ज़ुर्म से रंगा हुआ...
ऐसी ऐसी खबरें देखने-सुनने को मिल रही हैं जिन की कल्पना करना भी दुश्वार होता है - ज़ुर्म के नये नये तौर तरीके!
अखबारों का इस में .कोई दोष नहीं है...मीडिया तो अपने समय का आईना होता है, वह वही दिखाता है जो समाज में उस समय घट रहा होता है..
मुझे याद है बचपन में हम लोग अखबार में कोई ज़ुर्म की खबर पढ़ लेते थे तो एक तरह से सहम जाया करते थे...लेकिन अब तो कुछ असर ही नहीं होता ..आए दिन कोई न कोई बुज़ुर्ग आदमी या औरत, या दोनों या कोई भी अकेली महिला , यहां तक की पुरूष ..ज़ुर्म की चपेट में आ ही जाता है...
बु़ुज़ुर्ग लोगों की भी आफ़त है आज के दौर में ...घर वालों से बचे तो बाहर वालों की जद में आ जाते हैं, और उन से भी बच गए तो कमबख्त मधुमक्खियों ने ही सफाया कर दिया ...
घपलेबाजी की ख़बरें अब नीरस लगती हैं!
औरतों की सोने की चेन झपट ली जाती है ..हम दोष देते हैं कि उन्हें पहन कर निकलना ही नहीं चाहिए था..लेकिन अगर कोई महिला अपने ही घर-आंगन में रात पौने आठ बजे तुलसी पर दिया जला कर मुड़े और उसे वहीं पर चार लोग आ कर धर-दबोचें तो इसे आप क्या कहेंगे! लूटपाट हुई ...और उस के ७४ साल के पति को जब गोली मारने लगे तो वह गिड़गिड़ाई कि सब कुछ लूट ले जाओ, लेकिन इन्हें मत मारो....बदमाशों ने वह बात मान ली ..जाते समय महिला से माफ़ी भी मांग कर गये कि लूटपाट हम मजबूरी में कर रहे हैं...
कल नेट पर कहीं पढ़ रहा था कि एक बुज़ुर्ग महिला का शव कईं महीनों तक घर में छिपाए रखा ताकि उस को मिलने वाली पेंशन चलती रहे...अब बैंकों वाले जीवन-प्रमाण पत्र मांगते हैं तो लोगों को उस से भी शिकायत है ..
अभी तो हम लोग यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि इस तरह के डाटा लीक मामलों का हम पर असर क्या पड़ेगा, अभी तो हम लोग पहले हिंदु-मुस्लिम मामलों को सुलटा लें, जाति-पाति की नोंक-झोंक से फ़ारिग हो जाएं, फिर इन सब मामलों को समझने की कोशिश करेंगे...अभी हिंदु-मुस्लिम के मसलों में उलझते रहने का समय है!!
हम लोग वाट्सएप पर देखते हैं कि लोग बड़ा मज़ाक उड़ाते हैं लोगों का कि अब वे घर के बाहर तखती टांग देते हैं कि कुत्तों से सावधान....लेकिन सोचने वाली बात यह है कि ऐसा न करें तो आखिर वे करें क्या, अब तो दिन-दिहाड़े लोग बेखौफ़ लूटपाट करने लगे हैं.. हम बड़े खतरनाक समय में जी रहे हैं...कोई भी कहीं भी सुरक्षित नहीं है ...
यह सिर्फ़ लखनऊ का ही हाल नहीं है ...मुझे लगता है कि देश के किसी भी शहर का अखबार अगर हम देखेंगे तो उस में यही कुछ बिखरा पाएंगे ....इन जुर्म करने वालों को इस बात से क्या लेना कि किस की सरकार है या कानूनी व्यवस्था कैसी है .
पेशेवर बदमाश तो बदमाश, हम लोगों के अपने भी तेवर चढ़े हुए रहते हैं ..छोटी छोटी बातों पर हम देखते हैं कि हम लोग तनाव, अवसाद, क्रोध के चलते दूसरों की जान लेने पर उतारू हो जाते हैं ..अगर नहीं ले पाते तो अपनी जान लेने से भी नहीं कतराते।
इतनी बड़ी बड़ी घटनाएं हो रही हैं, ऐसे में टप्पेबाजी कितना टु्च्चा काम लगता है!
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यह मुद्दा बडा़ संजीदा है, हमें मिल जुल कर इस का हल ढूंढना ही होगा..
पच्चीस साल पहले जिस सत्संग में जाता था वहां पर हमें अखबार पढ़ने के लिए मना किया करते थे कि क्या तुम लोग सुबह सुबह अपने दिमाग में सारा कचड़ा भर लेते हो...कुछ समय के लिए अखबार पढ़ना छोड़ भी दिया था ..लेकिन फिर मन में विचार आया कि यह तो कोई हल न हुआ ...और हम जैसे लोग जो कंटेंट-एनेलेसिस करते हैं, वे अखबार पढ़ेंगे तो ही दीन-दुनिया का पता चलेगा वरना तो दो दिन अगर अखबार नहीं देखते तो कूप-मंडूक जैसी हालत होने लगती है .. लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि सुबह उठते ही अखबार पढ़ने का वक्त गल्त है ...वह समय अपने आप के लिए रखना चाहिए..कोशिश करूंगा इस आदत से छुटकारा पाने की..
हर तरफ गुस्सा, विरोध, ताकत का इस्तेमाल, लूट-पाट, चोरी-डाका, आगज़नी, जालसाज़ी, हत्याएं, हंगामे....सुबह उठते ही यह सब अपने अंदर ठूंस लेने से शरीर की बेचारी हारमोन प्रणाली का क्या होता होगा! -इतना सब कुछ ग्रहण करने के बाद, इन सब की ओव्हर-डोज़ के बाद यह कैसे सही रह सकती है ...आप को क्या लगता है?
कुछ साल पहले अमेरिकी स्कूलों में ही यह सब होता था!
मुझे तो वह संपादक वाला और उस के साथ वाला पन्ना ही भाता है ..लेकिन वही मेरे से अकसर छूट जाता था!
इस तरह की जुर्म की जुल्मी ख़बरें देखने के बाद अखबार के आखिर पन्ने पर यह ख़बर भी दिख गई...जैसे वह समाज को कोई सबक सिखा रही हो कि अभी भी वक्त है, सुधर जाओ...
वैसे ये सारी खबरें आज की अखबार की ही हैं...और अगर किसी खबर को तवसील से पढ़ने का मन कर ही जाए, तो उस तस्वीर पर क्लिक कर के उसे आप पढ़ सकते हैं...