मंगलवार, 8 नवंबर 2016

रीडिंग कैंप @ Delhi

सुबह के पांच बज चुके हैं...और मैं २००७ नवंबर से जो काम इस समय नियमित करता आ रहा हूं...लैपटाप लेकर बैठ गया हूं..मन की बातें अपने ब्लॉग पर लिख लेता हूं..किसी के लिए कोई नसीहत नहीं, किसी को सुधारने का कोई एजेंडा नहीं (पहले अपने आप को तो सुधार लिया जाए !) ....ब्लॉगिंग मैंने नवबंर २००७ में शुरू की थी ..

मैं अकसर राजनीतिक या धार्मिक विषयों पर कुछ कहता हूं नहीं...ये मेरे विषय हैं नहीं...क्योंकि इन में बहसबाजी करनी पड़ सकती है बहुत बार...उस काम में मैं शुरू से ही बहुत कमज़ोर हूं...बेहद कमज़ोर ...इतना कमज़ोर कि मैं बहस तो क्या करनी है, मैं ऐसे लोगों से ही दूर भागने लग जाता हूं..


कल मैं सुबह उठा...अखबार उठाया तो देखा कि एचपीवी टीकाकरण का दिल्ली सरकार का विज्ञापन छपा हुआ था उसमें ...उस इश्तिहार में भी लिखा हुआ था और मुझे भी पता है ...यह भारत में पहली बार है और दिल्ली सरकार की अग्रणी पहल है...इस टीकाकरण के बारे में मैंने आठ नौ साल पहले अपने कुछ विचार लिखे थे, अगर आप इस के बारे में डिटेल से पढ़ना चाहें तो इन लिंक्स को देखिए...




हां, तो मैं मन ही मन दिल्ली सरकार की इस बेहतरीन पहल के बारे में सोचता रहा कईं घंटों तक ....

दोपहर में लेटा हुआ था ...तभी दिल्ली सरकार के रीडिंग कैंप के बारे में रेडियो से पता चला...

सरकारों को अभी तक खुद ही अपनी अपनी पीठें थपथपाते हुए यह तो कहते सुना था कि हम ने शिक्षा के क्षेत्र में भी इतनी कीर्तिमान हासिल कर लिए...हम नहीं कह रहे आंकड़े बोल रहे हैं...सरकारी स्कूलों की हालत इतनी सुधर गई है ...लेकिन देश के स्कूल की पोल तो तब खुली जब हम लोगों को यह पता चला कि अधिकांश स्कूलों में तो टॉयलेट हैं ही नहीं...और बच्चियां अधिकतर स्कूल में अपना नाम भी इसी कारण नहीं लिखवातीं ..

लेकिन एक सरकारी विज्ञापन में अगर कोई सरकार यह कहे कि एक सर्वे में यह पाया गया है कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों में छठी कक्षा में पढ़ने वाले ७४ प्रतिशत बच्चे ठीक से अपनी किताब ही नहीं पढ़ पाते ...इसलिए अब सरकार जगह जगह पर रीडिंग कैंप लगा रही है ...ताकि सभी बच्चे १४ नवंबर तक अपनी किताबें पढ़ सकें...

यह रेडियो विज्ञापन बार बार चल रहा था...कभी शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया का संदेश, कभी किसी स्कूली बच्चे का और कभी किसी अध्यापक का संदेश आ रहा था कि आप भी अगर किसी ऐसे बच्चे को जानते हैं जो अपने पाठ को ठीक से पढ़ नहीं पाता तो उसे इस कैंप में भेजिए और हां, आप भी इस कैंप में बच्चों को पढ़ाने के लिए अपना योगदान दे सकते हैं...

निःसंदेह इस तरह के activist-turned-politicians ही इस तरह की सुंदर पहल कर सकते हैं ..वरना शिक्षा मंत्री जैसे लोग कौन इन झमेले में पड़ते हैं...इन सब मुद्दों से कहां वे अपना सरोकार दिखा पाते हैं, ऐसा मैं सोचता हूं...


आज से चालीस पैंतालीस साल पहले के दिनों की बातें याद आ रही हैं...हमारे घर के पास ही एक सरकारी स्कूल था, जिसे अमृतसर की ठेठ भाषा में खोती-हाता कहा जाता था....वैसे पूरा शब्द होता है खोती-अहाता (जहां पर खोतियों को रखा जाता है...अब खोती किसे कहते हैं...मुझे नहीं पता गधे का स्त्रीलिंग क्या है हिंदी में ..लेकिन पंजाबी में उसे खोती कहते हैं! )....यह मैं १९६८ -७०-७२ के आस पास की बातें सुना रहा हूं... ठीक बारह बजे दूध की कांच की बोतलें उन बच्चों के लिए लेकर एक ट्रक आ जाता था...सब बच्चे उसे पीते थे ...और उस के बाद फिर से अपने पहाड़े रटने में लग जाते थे...पहाडे़ (जो आजकल टेबल  हो गये हैं) रटने का एक अच्छा म्यूजिकल सिस्टम था...बारी बारी से बच्चों को टीचर के पास खड़े होकर एक सुर में कविता जैसी शैली में किसी एक पहाड़े को बोलना होता था, उसके पीछे पीछे फिर सारी कक्षा उस पहाड़े को रिपीट करती थी... मुझे अभी भी वह लिरिक्स याद है ....शायद मुझे भी अधिकतर पहाड़े अपने स्कूल की बजाए इन बच्चों के रटने की आवाज़ों की वजह से ही याद हो गये! 

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें...किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए..

 पाठ्य पुस्तकों को पढ़ने-रटने के लिए भी यह मेहनत तो सब को करनी ही पड़ती थी ... मास्टर जी हमारे स्कूल में भी किसी एक छात्र को खड़ा करके एक पन्ना पढ़ने को कह देते थे...और हमें अपनी अपनी किताब साथ में खोल लेनी पड़ती थी..मुझे अभी तक इस का औचित्य कभी समझ में नहीं आया लेकिन कल मैंने मनीष सिसौदिया को सुना तो मुझे भी यह अहसास हुआ कि अगर बच्चे अपने पाठ पढ़ पायेंगे तो ही उसे समझ पाएंगे ...और तभी उन की बुद्धि का विकास भी हो पायेगा....मुझे यह बात सुनते सुनते तारे ज़मीं पर फिल्म का ध्यान आ रहा था ...मेरे विचार में मनीष स्वयं भी एक अध्यापक ही रहे हैं ...इसलिए वे इन तरह के शिक्षा से जुड़े अहम् मुद्दों की तरफ़ इतना ध्यान दे पा रहे हैं.....जिस के लिए ये सब बधाई के पात्र हैं। 


वरना सरकारी स्कूल के बच्चों की शिक्षा के स्तर के बारे में सोचने की किसे पड़ी है ... अधिकतर टीचर नौकरी सरकारी स्कूल में हथियाना चाहते हैं लेकिन वहां जाते हुए अपने बच्चों को किसी प्राईवेट नामी-गिरामी स्कूल में ड्राप करते हुए जाते हैं...सरकारी मैडीकल कालेज सब मैडीकल शिक्षा पाने वालों की पहली पसंद होते हैं अकसर लेकिन वहां इलाज के लिए अधिकतर वही लोग जाते हैं जो साधन-संपन्न नहीं होते ... चलिए, यह तो अपने आप में एक मुद्दा है ही, इस के बारे में आए दिन पढ़ते रहते हैं!

कल मैं यह विज्ञापन रीडिंग कैंप वाला सुनते हुए यही सोच रहा था कि एक तो सभी बच्चों को लगभग लिखने में रुचि कम हो रही है ..लिखते भी कम हैं और ऊपर से यह जो समस्या कल पता चली कि अधिकांश बच्चे अपनी किताब को ठीक से पढ़ भी नहीं पा रहे ....चिंता का विषय तो है ही यह ..इसलिए अकसर यह भी कहा जाता है कि बच्चे स्कूल के दिनों में जो भी कॉमिक्स आदि पढ़ना चाहते हों, उन्हें पढ़ने से रोका नहीं जााए....इस से उन की रीडिंग कैपेसिटी बढ़ती है, कल्पनाशीलता और बुद्धि का विकास भी होता है!

 बच्चों की ही बातें चल रही हैं ...तो तारे ज़मीं की फिल्म का ज़िक्र मैंने किया और साथ ही मुझे कल शाम एक मलयालम् फिल्म ओट्टल नाम की चल रही थी...टाटास्काई मिनिप्लेक्स चैनल पर आजकल मुंबई फिल्म फैस्टीवल चल रहा है, उस के अंतर्गत ही यह फिल्म दिखाई जा रही थी...फिल्म मलयालम भाषा में थी, सबटाईटल्स इंगलिश में थे, इसलिए आराम से समझ में आ गई...

साउथ इंडियन फिल्मों के बारे में मेरा कुछ ज़्यादा ज्ञान वैसे तो है नहीं, लेकिन आजकल टीवी में बहुत सी दिखने लगी हैं हिंदी डब्बिंग वाली ...वे सब की सब मुझे हिंदी डब्बिंग की वजह से डिब्बा ही लगती हैं...मैं पांच मिनट से ज्यादा उन्हें नहीं देख पाता .. लेकिन कुछ कुछ वहां की फिल्में ..जैसा कि मैं इस मलयालम फिल्म ओट्टल के बारे में बता रहा था, वे अपनी एक अमिट छाप छोड़ जाती हैं... यह एक दादा और उस के पोते की कहानी है ...उन दोनों का संसार बस इतना ही है...इतनी बेहतरीन एक्टिंग की है दोनों ने कि मैं उस का वर्णन ही नही ंकर सकता, हालात कुछ इस तरह से पलटी मारते हैं कि उस आठ-दस साल का बच्चा पटाखे बनाने वाली एक फैक्टरी के मालिक के चुंगल में फंस जाता है ....very touching story....आप का मनोरंजन भी करेगी, केरल के लोगों के रहन सहन के बारे में बताएगी....और कुछ प्रश्न भी आप के लिए छोड़ जायेगी...Food for thought! मेरे विचार में यह फिल्म हम सब को देखनी चाहिेए...मुझे अभी यू-ट्यूब पर इस का एक ट्रेलर मिल गया ...इसे पूरा कैसे देखना है, यह आप सोचिए...

सोमवार, 7 नवंबर 2016

मौन का महत्व

हिंदुस्तान अखबार के संपादकीय पन्ने पर हर रोज़ बहुत सी काम की बातें होती हैं...किसी विषय पर संपादकीय लेख तो होता ही है (आज का विषय था...बिना दवा के राहत), साथ में एक व्यंग्य-कटाक्ष (यह भी बहुत ज़रूरी है लोगों में प्राण फूंकने के लिए), किसी सामाजिक मुद्दे पर किसी विशेषज्ञ की राय, कोई अध्यात्मिक बात ..बहुत कुछ होता है...लेकिन अपने ही बनाए कारणों की वजह से मैं हमेशा इस पन्ने का भी कुछ अंश ही पढ़ पाता हूं...सोचता हूं शाम में या रात में देखूंगा..लेकिन वो शाम कभी नहीं आती!

एक कॉलम है इस संपादकीय पन्ने पर मनसा वाचा कर्मणा...जिस में अमृत साधना नाम से किसी का एक लेख हफ्ते में एक बार ज़रूर छपता है ...इसे मैं ज़रूर पढ़ता हूं...मुझे विश्वास है कि अमृत साधना जी ओशो जी की अनुयायी हैं...याद है बहुत बार ओशोटाइम्स में इन के संपादकीय पढ़ते रहते थे...जीवन की सच्चाई होती है इन की लेखनी में ...

ओशो साहित्य तो वैसे ही अनुपम है ...मुझे याद है कुछ बरस पहले मैंने ओशो जी का एक लेख पढ़ा था ...जिस का शीर्षक ही था ...Comparison is a disease! यानि तुलना करना एक बीमारी जैसा है ...वह लेख मेरे मन में घर कर गया था...लेकिन फिर भी हम कब सुधरते हैं..लेख अच्छा लगा तो लगा, लेकिन हम तुलना करने से कभी बाज आए ही नहीं शायद.....नहीं, कोई शायद नहीं, यकीनन लिख कर अपना मन हल्का किए लेता हूं...जो है सो है।

हां तो मैं अमृत साधना जी के साप्ताहिक लेख की बात कर रहा था ...जो लेख आज उन का छपा है उस का शीर्षक है ...मौन का महत्व...सुबह सुबह मुझे और भी बहुत से काम तो थे ही, लेकिन मुझे लगा कि बजाए इस लेख की एक फोटो खींच के वाटसएप ग्रुपों पर देखे-अनदेखे, जाने-अनजाने, अपने-बेगाने लोगों के साथ शेयर करने के इसे अपने ब्लॉग पर संभाल के रख लेता हूं...

बहुत से मन को छू लेने वाले पाठ हम लोग स्कूल के दिनों में किताब से नकल कर कलम से अपनी नोटबुक में भी तो लिख लिया करते थे, यही काम अभी कर रहा हूं...

"हाल ही में विख्यात गायक पंडित राजन मिश्र ओशो रिजॉर्ट आए हुए थे। बातचीत में उन्होंने कहा, आजकल गायक बड़ी तैयारी के साथ गाते हैं, संगीत के नए-नए प्रयोग हो रहे हैं, लेकिन उनके संगीत में मौन नहीं होता। यह दिल में नहीं उतरता, क्योंकि वह उनके दिमाग से निकलता है। यह बात गौर करने लायक है।  
वाकई आज की जिंदगी में हर तरफ़ मौन का महत्व खो गया है। कोई भी मिलता है , तो हम फौरन मौसम की चर्चा शुरू कर देते हैं, कुछ भी बात शुरू कर देते हैं। वह सिर्फ बहाना होता है। असल में, चुप रहना इतना कठिन है कि हम किसी भी बहाने से बोलना शुरू कर देते हैं। दो लोग मिलें और चुप बैठे हों, यह अजीब लगता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि लोग एक-दूसरे से मिलें, हाथ मिलाएं, मुस्कराएं और सिर्फ साथ बैठें? क्या हम दूसरों के साथ सिर्फ शब्दों से जु़ड़े हैं? आज कल लोग चुप रहने की कला भूल गए हैं। फ्रायड ने अपने जीवन भर के अनुभवों के बाद लिखा है कि पहले तो मैं सोचता था कि हम बात करते हैं कुछ कहने के लिए, लेकिन मेरा अनुभव यह है कि हम बात करते हैं कुछ छिपाने के लिए।  
ओशो का सुझाव है , एक आदमी के पास कुछ देर मौन होकर बैठ जाएं, तो इस आदमी को जितना आप जान पाएंगे, उतना वर्ष भर उससे बात करने से भी न जान सकेंगे। बातचीत में आप उसकी आंखों को नहीं देख पाएंगे, उसके शब्दों में ही अटक जाएंगे। उसकी भाव-भंगिमा, उसके हृदय की वास्तविकता को महसूस न कर पाएंगे। आदमी शब्दों के परे बहुत कुछ होता है। शब्दों का लेन-देन तो व्यक्तित्व का सिर्फ दो प्रतिशत हिस्सा होता है, बाकी पूरा वार्तालाप तो निःशब्द तरंगों से, भावों से होता है। यही वास्तविक मिलना है। आजकल समाज में जो मिलना है, वह मिलने की औपचारिकता है। इसीलिए भीड़ में भी आदमी अकेला महसूस करता है।" 

अमृत साधना 
(साभार..हिन्दुस्तान.. ०७ नवंबर, २०१६) 



 हां, तो अमृत साधना जी की बात तो हम सब ने पढ़ ली, लेकिन हम उस पर गौर कब करते हैं..बस सुनी, अच्छी लगी , बात आई गई हो गई ...लेकिन कुछ बातें हमेशा अपने ध्यान में रखने लायक होती हैं...और एक बात यह भी कि अकसर जब बोलने की ज़रूरत न होने पर भी हम बोलते हैं तो बकवास ही करते हैं, निंदा करते हैं, केजरीवाल, रागा, नमो ...किसी को भी विषय बना लेते हैं, बस अपनी फूहड़ता जगजाहिर करते रहते हैं....और वैसे भी एक सुंदर सी बात मैंने कही पढ़ी थी ....किसी व्यक्ति की मूर्खता पर तब तक ही संदेह किया जा सकता है जब तक वह मुंह नहीं खोलता....पता नहीं औरों के लिए यह बात कितनी सच है, लेकिन मुझे लगता है कि यह मेरे लिए ही लिखी गई है..

मैं सोच रहा था कि हम लोग मिलने पर ही नहीं, सोशल मीडिया पर भी तो बिल्कुल ऐसा ही कर रहे हैं आजकल, बिना वजह भी हर समय बक-बक करते रहते हैं...मैं भी यही सब करता हूं लेकिन पिछले कुछ दिनों से इस पर लगाम लगाने की कोशिश कर रहा हूं...एक स्टेट्स आप बीसवीं बार पढ़ रहे हैं लेकिन क्योंकि किसी ऐसे बंदे ने उसे इक्कीसवीं बार शेयर किया है...जिसे आपने खुश करना है...मन से उसे कोस रहे हैं (कम से कम!!) लेकिन प्रशंसा करते हुए खिलखिला कर हंसने वाली स्माईली लगाने का ढोंग रच रहे हैं....यकीनन, सोशल मीडिया पर हम से बहुत से लोग ईर्ष्या करते हैं और हमारी छाती की जलन का भी यही कारण है ...जितनी सोशल-इंजीनियरिंग आप सोशल मीडिया से सीख सकते हैं, उतनी तो आप किसी विश्वविद्यालय में भी नहीं पढ़ सकते ...बिल्कुल सच कह रहा हूं....इस के बारे में लिखेंगे तो बात लंबी हो जायेगी...फिर कभी ....

अभी तो बस मेरी पसंद का लगे रहो मुन्नाभाई का एक सुपर-डुपर डॉयलॉग सुन कर आज दिन सोमवार की सुस्ताई हुई सुबह में जोश भर लीजिए... मेरे तो आज सुबह करने वाले बहुत से काम इस पोस्ट को लिखने के चक्कर में एक बार फिर से टल गये..लगे रहो मुन्नाभाई का यह डॉयलाग मेरे दिल के बहुत करीब है ....मैं भी ऐसी ही नौकरी करना चाहता था जिस में मैं सुबह सुबह लोगों से मज़ेदार बातें करूं....चलिए, मैं न सही ....ईश्वरीय अनुकंपा से अब बेटा यह सब काम करता है, खुशी होती है कि वह वही काम करता है जिस में उसे खुशी मिलती है ...आज के दौर का नया कंटैंट है, नईं बातें हैं....कहता है कि वह किसी थके-मांदे उदास चेहरे पर खुशी लाने का कारण बनना पसंद करता है.... God bless him always!

शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

रियल लाइफ वाले उस्तादों के उस्ताद

पिछले आठ दस दिन से कुछ लिखने का मन नहीं हुआ...पहले तो चार पांच दिन के लिए मैं बाहर गया हुआ था..लैपटाप लेकर नहीं गया था...अब यह एक अच्छी आदत डालने की कोशिश कर रहा हूं कि जितने भी दिनों के लिए बाहर जाना हो, लैपटाप नहीं उठाता...इसी बहाने थोड़ा सा ही सही सिरदर्दी से राहत तो मिलती है !

मोबाइल पर मैं थोड़ा बहुत दो चार लाइनें तो लिख लेता हूं लेकिन इस से ज्यादा मैं कभी भी नहीं पाता ..मुझे बहुत ही भारी लगता है ..अब तो मोबाइल पर पढ़ना भी बहुत कम कर दिया है ...अभी तक इतने वर्षों में मैंने एक पोस्ट भी अपने ब्लॉग पर मोबाइल पर लिखकर नहीं डाली...होता ही नहीं है!


मैंने पिछले शनिवार के दिन २९ अक्टूबर की टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार देखी तो मुझे एक खबर देख कर बड़ी ही हैरानी हुई...सब से पहले तो मुझे ए वैडनेसडे हिंदी फिल्म के उस १८-२० साल के हैकर युवक की याद आ गई ...लेकिन वह तो फिल्मी बात थी ...फिल्में में तो बहुत से फॉड दिखाते ही रहते हैं...लेकिन यह जो खबर थी एक सच्ची घटना थी ..एक युवक ने अपने काल सेंटर खोल कर तरह तरह के स्टाफ को नौकरी पर रख कर अमेरिका में लोगों को करोड़ों रूपयों का चूना लगा दिया...

कई ंतरह का तो उसने स्टॉफ रखा हुआ था...पूरी सुनियोजित ढंग से सब काम चलाता रहा ...खूब पैसा कमाया...यहां तक की विरोट कोहली की ऑडी कार को अढ़ाई करोड़ में खरीद कर अपनी गर्ल-फ्रेन्ड को देने ही वाला था...खरीद तो ली थी लेकिन अभी दे नहीं पाया था कि सारी जालसाजी़ पकड़ में आ गई...

मैं कईं बार सोचता हूं कि इन युवाओं की बुद्धि भी कितनी कुशाग्र होती होगी....

पिछले दिनों किसी अखबार में पढ़ रहा था कि ऑनलाइन फ्राड करने के लिए बाकायदा ट्रेनिंग सेंटर खुले हुए हैं देश के कुछ हिस्सों में ... कभी डैटा चोरी, कभी एटीएम कार्ड के पिन चोरी ..कभी क्लोनिंग कभी कुछ ...कभी कुछ ..अब हैरानगी नहीं होती ..
बस इन युवाओं के साथ सहानुभूति होती है ...सहानुभूति?..जी हां, मुझे इन लोगों के साथ एक तरह से सिंपेथी ही होती है ..इतने ज़हीन युवा, इतनेे जटिल काम कर लेते हैं ...हैकिंग के माहिर, और यह जो कालसेंटर चलाने वाले युवक की बात है इसने तो कोई जालसाजी छोड़ी ही नहीं ...बस, रास्ता गलत पकड़ लिया...देर-सवेर जालसाज़ पकड़े तो जाते ही हैं ...मेरी सहानुभूति इन युवाओं के प्रति मेरे तक ही सीमित है ..कानून तो अपना काम करेगा ही ...दूध का दूध पानी का पानी ......यह भी अच्छा है मैंने वकालत नहीं पढ़ ली ...वरना वहां भी अनर्थ हो जाता ..मुझे हर आरोपी पर तरस ही आने लगता ...जज साहिब, इसे इस बार क्षमा कर दीजिए, अगली बार से ऐसा नहीं करेगा......लेकिन कानून व्यवस्था ऐसे भी तो नहीं चल सकते...

हम सब जानते हैं कि देश में कितनी बेरोज़गारी है, और इस के कारण भी हम सब जानते हैं ..और इतने ज़हीन युवा शायद कुछ हद तक इसलिए भी इन चक्करों में पड़ जाते होंगे ...इतने अकलमंद की जुर्म की यूनिवर्सिटीयों के वरिष्ठ प्रोफैसर बन के काबिल .. जेबकतरों की ट्रेनिंग होती है हम जानते हैं, उचक्कों की, टप्पामारों की ....सब की ट्रेनिंग होती है ...लेकिन आज क ल तो इतने इतने आधुनिक फ्रॉड सामने आ रहे हैं कि इन की कंप्लेक्सिटी सोच कर ही सिर घूम जाता है ..

इस खबर को आप यहां भी पढ़ सकते हैं ..  Call centre scam 'kingpin' bought Audi for Rs. 2.5 Cr


हां, आज शाम बिजली पासी ग्राउंड में घूमते हुए पता चला है कि लखनऊ महोत्सव की तैयारियां शुरू हो गई हैं...वहां पर स्टाल आदि तैयार करने का सामान आना शुरू हो गया है ...२५ नवंबर से शुरू होगा और १० दिसंबर तक चलता है ...