सोमवार, 17 दिसंबर 2007

धार्मिक आयोजनों पर यह व्ही.आई.पी ट्रीटमैंट क्यों ?

इस बात से मुझे हमेशा से बड़ी तकलीफ़ होती है कि अधिकतर धार्मिक संस्थानों में अथवा इन के द्वारा किए गए विभिन्न आयोजनों में जैसे सत्संगों इत्यादि में कुछ लोगों को व्हीआईपी ट्रीटमैंट दी जाती है। मुझे यह बहुत ओछा लगता है। यार, सारी जिंदगी़ तो हम झूठ में ही निकाल देते हैं---बस एक इन सत्संगों में ही तो एकदम सच्चाई से अपने अंदर झांकने का मौका मिलता है जो भी इस हरकत से छीन ही लिया जाता है। वैसे तो यह बात इतनी बड़ी नहीं लगती- लेकिन आप इस के दूसरे भी परिणाम देखिए तो -- सत्संग में बैठे दूसरे लोगों के मन मैं कैसा लगता होगा, वहां पर बैठे सब लोग एक ही हैं न तो फिर उन में कौऩ ऊंचा कौन नीचा। कई बार तो अच्छे कपड़े पहने हुए सज्जनों को पीछे जा कर- जहां पर भी उस समय जगह उपलब्ध हो-बैठना बहुत अखरता है। मेरा तो दृढ़ विश्वास यही है कि अगर सत्संग में जाकर भी हमारे मन से यह भावना नहीं गई तो फिर सत्संग में जाकर करना क्या .......
आयोजकों को भी इस तरफ ध्यान देना जरूरी है। वैसे अगर व्ही आई पी ही थोड़ी विनम्रता से इस तरह की ट्रीटमैंट से इंकार कर दिया करें तो क्या अच्छा नहीं होगा............................आप का क्या ख्याल है?

बेटी बचाओ..................

साथियों, कुछ महीने पहले की बात है कि मैंने किसी जगह एक कैलेंडर टंगा हुया देखा जिस पर नीचे लिखी पंक्तियां लिखीं हुईं थीं जो मेरे मन को छू गईं, उन्हें मैं आप के सांझा करना चाहता हूं......

बोये जाते हैं बेटे,
और उग जाती हैं बेटियां,
खाद-पानी बेटों में,
और लहलहाती हैं बेटियां,
एवरेस्ट की ऊंचाइयों तक ठेले जाते हैं बेटे,
और चढ़ जाती हैं बेटियां,
रूलाते हैं बेटे
और रोती हैं बेटियां,
कई तरह गिरते हैं बेटे,
संभाल लेती हैं बेटियां,
सुख के स्वप्न दिखाते बेटे,
जीवन का यथार्थ बेटियां,
जीवन तो बेटों का है-
और मारी जाती हैं बेटियां
.............बेटी बचाओ
(Save the girl Child)

सेहत की बातें....बिल्कुल हल्की फुल्की ..

साथियों, पिछले लगभग 25 वर्षों से चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ा हुया हूं। मीडिया एवं मैडीकल लेखन में भी विशेश रूचि रखता हूं। बस, ऐसे ही मन में बहुत दिनों से विचार उठ रहा था कि ब्लागिंग के माध्यम से आप के साथ अपने पेशे की खुल कर बात करूं। कुछ सेहत की बातें करूं--और पूरी इमानदारी से करूं जैसे कि हम लोग घर में बैठ कर करते हैं। अकसर हम
अपने बड़े -बुजुर्गों से यह तो सुनते ही रहते हैं कि जितने डाक्टर ज्यादा हो गए हैं उतनी ही बीमारियां भी बढ़ गई हैं,,, इस के बारे में आप क्या सोचते हैं। बहुत अच्छा , आप चाह रहे हैं कि पहले मैं बताऊं कि मेरे इस के बारे में क्या विचार हैं। लेकिन , साथियो, जैसे जैसे मेरी इस बेबाक डायरी के पन्ने आप के सामने खुलेंगे, मैं अपने विचार आप से ज्यादा समय के लिए कहां छिपा पाऊंगा।
बस, आज सुबह की एक बात याद आ रही है, एक बहुत ही बुजुर्ग माता ने मेरे से कंधे एवं पीठ पर दर्द के लिए दवाई मांगी....और उसी समय मुझे बेहद भोलेपन से निर्देष भी दे डाला कि खाने वाली ही देन,लगाने वाली मत देना। कारण पूछने पर कहने लगीं कि उस मलहम को मुझे लगाने वाला कोई नहीं.....पोते-पोतियां तो स्कूल में, फिर टयूशन में सारा दिन व्यस्त रहते हैं, किस को कहूं कि मुझे दवाई लगाए ।।। बस,इस के इतना कहने पर ही उस की सारी कही-अनकही बात मेरी समझ में आ गई । समझ तो आप को भी आ ही गई होगी.........बस यही सोच रहा हूं कि आखिर हम जा किधर रहे हैं ?