बुधवार, 1 अक्टूबर 2014

बहुत ही आसानी से ठीक हो जाता है पायरिया

इस २०-२२ वर्ष की युवती में पायरिया रोग 
इस २०-२२ वर्ष की लड़की के दांत और मसूड़े जितने भयानक दिख रहे हैं, दरअसल स्थिति इतनी बुरी है नहीं।

ब्लॉग पर मुझे एकदम सच बात ही लिखनी होती है....यह मेरा संकल्प है। कोई भी नेट पर बड़ी उम्मीद के साथ कुछ ढूंढ-ढांढ कर पढ़ने के लिए आता है। एक एक शब्द सच लिखने की तमन्ना रहती है।

इस लड़की के दांतों में पायरिया तो है...लेकिन इस उम्र में इस तरह के पायरिया का इलाज करना बहुत ही आसान भी होता है, और अगर यह लड़की डैंटिस्ट के बताए अनुसार दिन में दो बार ब्रुश करे, रोज़ाना जुबान की सफ़ाई करे और कुछ भी खाने के बाद कुल्ला करने की आदत डाल ले तो इसे फिर से ऐसी तकलीफ़ होने की संभावना बहुत कम हो जायेगी...बहुत ही कम......हां, थोड़ा बहुत टॉरटर तो जम सकता है दांतों पर...वह तो किसी के भी दांतों पर जम सकता है, लेकिन ऐसे हालात फिर से नहीं होंगे अगर यह अब दांतों की साफ़-सफ़ाई का पूरा ध्यान रखेगी।

ऐसे पायरिया के केसों में इलाज के साथ साथ इस बात का भी बहुत ही ज़्यादा महत्व है कि मरीज़ अपने दांतों की स्वच्छता की तरफ़ पूरा ध्यान देना शुरू करे। इसलिए मैं तो हमेशा इस तरह के मरीज़ का इलाज ही तभी शुरू करता हूं जो वे पांच-सात दिन में अच्छे से ब्रुश करना शुरू कर देते हैं......पहले तो मैं उन्हें सिखाता हूं, फिर जब आश्वस्त हो जाता हूं कि अब इसे अच्छे से समझ आ गई है तभी इलाज शुरू करता हूं। वरना तो इलाज करने का कोई फायदा होता ही नहीं, क्योंकि कुछ ही महीनों में पायरिया फिर से लौट आता है।
इसी युवती के नीचे के दांतों के अंदर की तरफ़ जमा कचरा (टॉरटर) 
मरीज़ों को लगता है कि यार अब ब्रुश करना भी सीखना पड़ेगा..लेकिन इस मामले में मैं उन की नहीं सुनता, सीखना तो है ही, और उसे प्रैक्टिस भी करना है। सभी मरीज बात मान लेते हैं।

यह लड़की भी जो मेरे पास दो दिन पहले आई थी.....यह अगले पांच सात दिनों में लगभग दो बार आकर लगभग ठीक हो जाएगी, इस के मसूड़ों से रक्त बहना बंद हो जाएगा, और मुंह से बदबू भी आनी बंद हो जायेगी। लेकिन यह जो मसूड़े अजीब से दिखने लगे हैं, इन्हें पंद्रह दिन-एक महीने बाद भी देखना पड़ेगा......अकसर कुछ करने की ज़रूरत नहीं पड़ती, यह भी अपने आप नार्मल जैसे दिखने लगेंगे.........

जानते हैं मैंने यह पोस्ट क्यों लिखी, इस का कारण यह है कि अगर आप या आप के आसपास इस तरह के पायरिया रोग से ग्रस्त लोग हैं तो उन में भी यह जागरूकता फैलाएं कि इस का इलाज करवाना बिलकुल आसान है........जैसा कि मैं ऊपर लिख चुका हूं।

और हां, जितनी कम उम्र होगी, उतना ही जल्दी ठीक हो जाएगा यह पायरिया रोग। मैंने लिखा कि इस तरह के केसों में जिस की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं इसे ठीक करना बहुत सुगम है, इस का कारण यह है कि अभी यह सूजन या पायरिया मसूड़ों तक ही सीमित है, यह आगे नीचे जबड़े की हड्‍डी तक नहीं फैला है........जब यह आगे हड़्डी तक फैल जाता है तो दांत हिलने लगते हैं, मसूडे दांतों से पीछे हट जाते हैं, मसूड़ों से पस निकलने लगती है........लेिकन इलाज तो उसका भी है..........but as they say......."a stitch in time saves nice"

"An ounce of prevention is better than a pound of treatment"

अच्छा, बात समझ में तो आ ही गई होगी। कुछ पूछना चाहते हैं तो बिंदास कमैंट्स में लिखिए।

                         इस तरह के लफड़ों से भी बच कर रहें......

फूलों की जगह लेने वाले हैं फल....

इतना बढ़िया टॉपिक है यह फूलों का तो इस की शुरूआत एक फूलों की आरती से तो होनी ही चाहिए , है कि नहीं..



फूल-पत्तों से सभी को प्यार होता है , मुझे ही दीवानगी की हद तक इन से लगाव है। सुबह सैर करते हुए किसी को फूल तोड़ कर प्लास्टिक की पन्नी में धकेलते देख कर मूड खराब हो जाता है। ईश्वर सब को तौफ़ीक बख्शे कि हम कुदरत की नेहमतों को कम से कम जैसे हैं वैसे तो रहने दें, अगर इन में इज़ाफ़ा नहीं भी कर सकते।

घर में सैंकड़ों फूल खिला करते थे लेकिन कभी याद नहीं कि किसी तरह की पूजा-अर्चना के लिए इन्हें तोड़ा हो, मुझे यह ठीक नहीं लगता, जिस ने हमें फूल दिया हम उसी को चढ़ाने के लिए उसे तोड़ दें।  हां, जब बचपन था तो 31मार्च के दिन (जिस दिन मेरा रिजल्ट निकलता था) मेरी बड़ी बहन मेरे लिए तीस-चालीस गुलाब के फूल तोड़ कर एक हार अपने स्कूल के प्रिंसीपल साहब के गले में डालने के लिए ज़रूर थमा कर मुझे स्कूल के लिए विदा करती थी....मुझे अभी भी याद है उस का उस दिन सुबह सुबह उठ कर, सूईं धागे से उन फूलों को एक माला में पिरोना...। आज लगता है कि यार उस की भी क्या ज़रूरत थी, जब एक फूल ही से काम चल सकता था।

मुझे तब भी बड़ा बुरा सा लगता है जहां पर मैं सैंकड़ों-हज़ारों फूलों की बर्बादी होती देखता था.....माखन लाल चतुर्वेदी जी की रचना पुष्प की अभिलाषा याद आ जाती है....हम हिंदी के मास्टर साहब ने बड़े दिल से पढ़ाई थी। एक बात बताऊं कि मैंने कभी भी बुके (फूलों का गुलदस्ता) किसी को भेंट करने के लिए नहीं खरीदा.......मुझे यह एक घोर फिजूलखर्ची, सिरदर्दी सी लगती है दोस्तो.......हम देखते हैं कि कितने टन फूल यूं ही स्टेजों को सजाने में, एक दूसरे का सम्मान करने के चक्कर में बर्बाद कर दिये जाते हैं.....और कभी देखें कि एक घंटे के बाद वही फूल उधर ही पब्लिक के पैरों के नीचे मसले जा रहे होते हैं.....यह सब देख कर सिर भारी हो जाता है........

फूल तो हैं हर तरफ खुशी बिखरने के लिए...यह मेरी टेबल के गुलदस्ते में रूक कर क्या करेंगे, यह इन का स्वभाव नहीं है, आप याद करिए जब कभी हम लो सा फील कर रहे थे और फिर बाग मे टहलने गये, और रंग बिरंगे खुखबूदार फूलों को देख कर हम ने कितना आनंद अनुभव किया था......उसी तरह आप कल्पना करें कि दिनों से बीमार व्यक्ति को जब अस्पताल की खिड़की से बाहर फूलों का बागीचा दिखता है तो उस का शरीर तो क्या, रूह भी गद गद हो जाती है......चेहरे पर अपने आप एक मुस्कान आ जाती है....

खिलो तो फूलों की तरह, बिखरो तो खुशबू की तरह..

बहुत हो गई शायरी, अब एक सुंदर सा गीत सुनते हैं .........और आश्चर्यचकित हो कर इन फूलों के बारे में सोचते हैं.....




पांच दिन पहले २६सितंबर की हिन्दुस्तान के संपादकीय पन्ने पर एक लेख दिखा था....नज़रिया स्तंभ के अंतर्गत....इस का शीर्षक था.....फूलों की जगह फलों से हो स्वागत। शीर्षक ही इतना बढ़िया लगा था कि उसे पढ़ने की उसी समय इच्छा हो गई....इसे गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा जी ने लिखा था। लेख इतना बढ़िया लगा कि उसे ऐसे का तैसा ही लिखने लगा हूं............
 "यह विचार गुजरात से आया है, लेकिन सबके लिए उपयोगी है। गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने एक कार्यक्रम चलाया है, जिसके तहत राज्य भर में अब गण्यमान्य लोगों का स्वागत फूलों से नहीं, फलों से किया जाएगा। इस कार्यक्रम के तहत जितने भी फल एकत्रित होंगे, वे किसी आंगनबाड़ी केंद्र, विद्यालय या अनाथालय में भेजे जाएंगे।  
पूरी दुनिया की तरह ही भारत में भी लोगों का फूलों से स्वागत करने की परंपरा बहुत पुरानी है। यदि कोई व्यक्ति किसी भी महत्वपूर्ण व्यक्ति का पुष्पगुच्छ से स्वागत करता है, तो अक्सर वे पुष्पगुच्छ व्यक्ति के मान-सम्मान और व्यक्ति की आर्थिक क्षमता का प्रदर्शन करते हैं, उस व्यक्ति का नहीं, जो सम्मानित होता है।  
देश भर में एक दिन में भिन्न भिन्न स्तर के नेताओं के स्वागत में हजारों टन पुष्प खर्च किए जाते हैं। स्वागत के बाद उनका कोई सदुपयोग नहीं होता है.। फूलों की उपयोगिता समाज में जहां है, वहां उनका उपयोग होना चाहिए। लेकिन गणमान्य लोगों के सम्मान में यदि फूल की जगह फल के छोटे छोटे टोकरे का उपयोग हो, तो उसका शहर और गांव के गरीब बच्चों के लिए उपयोग हो सकता है।  
हमारे देश में आज कुपोषण की बहुत चर्चा होती है। इसका स्थानीय स्तर पर एक समाधान ऐसे भी हो सकता है। यह ठीक है कि इससे सभी कुपोषित बच्चों को सुपोषित नहीं बनाया जा सकता है। परंतु स्वागत के फूल की जगह फल का उपयोग संवेदनशीलता का प्रतीक तो है ही। गोवा में राज्यपाल पद की शपथ लेने के बाद मैंने तय किया कि मैं भी यही करूंगी। पिछले दिनों मुझे उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी और उनकी पत्नी सलमा अंसारी का एयरपोर्ट पर स्वागत करने का अफसर मिला, तो मैं इसके लिए फल लेकर ही वहां पहुंची, जिसे देखकर उपराष्ट्रपति की आंखों में आश्चर्य के भाव उभरे - ' फल ' ? मैंने जब फूल के बदले फल की बात बताई, तो वह बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा --"   मैं पिछले सात वर्षों से लोगों से कह रहा हूं कि स्वागत के लिए फूल बर्बाद मत करो, एक फूल काफी है। पर मेरे दिमाग में फूल के बदले फल की बात नहीं आई। ये फल में दिल्ली ले जाऊंगा। एक-दो खाऊंगा और बाकी ज़रूरतमंदों को भिजवाऊंगा।" 
अब यह उम्मीद सभी गण्यमान्य लोगों से है। हमारे देश में बहुत सारी ऐसी गंभीर समस्याएं हैं, जिन्हें छोटे छोटे निर्णयों व कार्यों से सुलझाया जा सकता है। जब इस निर्णय की चर्चा मैंने गोवा के किसी गण्यमान्य व्यक्ति से की, तो उन्होंने मुझे बताया कि फूलों के गुच्छे की तुलना में फल देना सस्ता रहेगा। फिर यह भी पता चला कि गोवा में फूलों की खेती बहुत ज़्यादा होती भी नहीं। वहां फूल बाहर से मंगवाए जाते हैं। जहां फूलों की खेती होती है, वहां भी फल की छोटी डाली एक बड़े गुच्छे से सस्ती ही पड़ेगी। वैसे यह महंगे और सस्ते की बात नहीं है। बात तो भावना की है और सरोकार की है, जिसे पूरे देश को अपनाना ही चाहिए। "
-- मृदुला सिन्हा, राज्यपाल, गोवा.

जाते जाते यह ध्यान आ रहा है कि चलो यह तो बहुत अच्छी शुरूआत है फूलों की जगह फलों की शुरूआत....लेकिन वही बात है कि यहां भी अगर स्पर्धा शुरू हो गई कि महंगे से महंगे फल देना, ड्राई फ्रूट देना......लेकिन अच्छा ही होगा उन बच्चों के लिए जिन में यह सब कुछ बांटा जाएगा जिन के नसीब में वैसे यह सब कुछ नहीं होता....।

जाते जाते बनावटी फूलों के बारे में भी एक बात कर लेते हैं...........बात क्या करनी है, गीत ही सुन लेते हैं.......सारी बात समझ में आ जाएगी... आप तो पहले ही से समझे हुए हैं।



अबार्शन के लिए कूरियर से मिलने वाली दवाई

मैं अकसर बहुत बार नेट पर बिकने वाली दवाईयों के बारे में सचेत करने के लिए लिखता रहता हूं, इसलिए जब कल की टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले ही पन्ने पर इस तरह की खबर का शीर्षक दिखा (लिंक इस पोस्ट के अंत में दिया है) तो यही लगा कि यह भी कुछ वैसा ही चक्कर होगा....दवाईयां इंटरनेट के द्वारा बेचने वेचने का।

लेकिन जैसे जैसे उस न्यूज़-रिपोर्ट को पढ़ता गया मेरे सारे पूर्वाग्रह गल्त सिद्ध होते रहे।

पहले तो यही लगा कि नागपुर का जो शख्स यह काम कर रहा है, इसे एक धंधे के तौर पर ही तो कर रहा होगा...कि जो महिलाएं गर्भपात करवाने की इच्छुक हैं लेकिन जिन का देश इस बात की अनुमति नहीं देता, उन्हें यह शख्स अबार्शन करने के लिए टेबलेट्स कूरियर से भेजता है... मुझे लगा कि यह भी तो एक धंधा ही हुआ...

थोड़ा अजीब सा तो लगा कि ऐसे कैसे कोई भी औरत जिस का देश उसे गर्भपात करवाने की इजाजत नहीं देता, वह इन्हें लिखे और गर्भ को गिराने के लिए गोलियां मंगवा के खा ले......बस.......मुझे ऐसे लगा कि यह तो बड़ा जोखिम भरा काम है......दवाई मंगवाने वाली महिला को क्या पता कि वह दवा खा भी सकती है या नहीं, उस की प्रेगनेन्सी की क्या अवस्था है, इतना सब कुछ एक महिला कैसे जान पाती है, यह सब कुछ कहां समझ पाती है एक औसत घरेलू महिला।

लेकिन फिर जैसे मैंने इस िरपोर्ट को आगे पढ़ा तो इस सुंदर अभियान की परतें खुलती गईं।

तो हुआ यूं कि यह जेंटलमेन जो दवा महिलाओं को भेजते हैं ....उन को एक संस्था के बारे में पता चला ... और उस से भी पहले उस महिला चिकित्सक के बारे में इन्हें पता चला जिन्होंने ऐसे देशों की महिलाओं (जिन में अबार्शन किया जाना प्रतिबंधित था).. के लिए एक समुद्री जहाज में एक गर्भपात क्लिनिक खोल दिया....जो जहाज उस देश के बाहर खड़ा रहता था ताकि महिलाएं वहां आकर अपना अबार्शन करवा पाएं......लेकिन उस काम में कोई इन्हें ज़्यादा सफलता मिली नहीं।

फिर इन्होंने एक वेबसाइट खोली ...Women on Web......इस साइट के माध्यम से ज़रूरतमंद महिलाओं इस संस्था से संपर्क करती हैं, अधिकतर ऐसी महिलाएं जिन के देशों में स्थानीय कानून अबार्शन की अनुमति नहीं देते.... जब ये महिलाओं अपना प्रेगनेंसी टेस्ट करवा लेती हैं. और अगर हो सके तो अल्ट्रासाउंड भी करवा लेती हैं तो ये महिलाएं  एक प्रश्नोत्तरी के माध्यम से इंटरनेट पर इस संस्था की किसी महिला चिकित्सक से परामर्श लेती हैं......इस संस्था की वेबसाइट भी एक बार अवश्य देखें कि किस तरह से ज़रूरतमंद औरतों का सही मार्गदर्शन किया जाता है।

जब वह महिला चिकित्सक उन की प्रार्थना को स्वीकार कर लेती हैं तो वह गर्भपात की दवाईयों का नुस्खा उस नागपुर के इस कार्यकर्त्ता को भेज दिया है जो फिर वहां से दवाई को उस के गनतव्य स्थान की तरफ़ कूरियर कर देता है।

नागपुर का यह बंदा इस काम से कोई मुनाफ़ा नहीं कमाता....केवल सेवाभाव से काम कर रहा है, हां लेकिन महिला को इस संस्था को ९० यूरो दान के रूप में देने के लिए आग्रह किया जाता है.......लेिकन जो नहीं भी दे पातीं, उन्हें ऐसे ही दवा भिजवा तो दी ही जाती है।

 इसे भी ज़रूर देखिए....
Pills-by-post op helps women abort
The abortion ship's doctor