दोस्तो, व्हाट्सएप भी वैसे है अद्भुत...आज सुबह किसी ग्रुप ने यह फोटो शेयर की ...एक दम से मुझे सत्तर का दशक याद आ गया जब रब जैसी इन बीबीयों के पास अपना लगभग रोज़ जाना हुआ करता था।
मुझे नहीं पता कि पंजाब के अलावा इस तरह का काम करने वालों को किस नाम से मुखातिब किया जाता है..लेकिन पंजाब में तो हम इन्हें भट्ठी वाली माई कहा करते थे।
रोज़ाना बाद दोपहर चार पांच बजे के करीब बच्चों की यह ड्यूटी लगा करती थी कि दाने भुनवा के आओ। दाने भुनवाने का मतलब... मक्का, चना या चावल जा कर भुनवा कर ले आओ।
अधिकतर तो मक्का ही हुआ करता था... मक्का तो अब हम कहने लगे हैं, पंजाब में मक्की बोलते हैं... कल की ही बात लगती है कपड़े के थैले में मक्की लेकर जाना ...और उस भट्ठी वाली माई ने उन्हें भून कर फुल्ले (पॉप-कार्न) तैयार कर देने...और पता है इस का क्या लिया करती थी...मात्र पांच पैसे ...या कभी कभी दस पैसे....अच्छे से याद है मुझे।
और उन फुल्लों को खाने का ..भट्ठी पर ताजे भुने हुए...क्या लुत्फ होता है, यह ब्यां करना भी आसान नहीं है।
कभी कभी हम लोग काले चने भी लेकर जाया करते ...भुनवाने के लिए। और हां, जब कभी थोड़ा बहुत जुकाम होता तो याद है फिर तो काले चने भुनवा कर लाने बिल्कुल लाजमी हुआ करते थे...एक रूमाल में गर्मागर्म चने डाल कर नाक के ऊपर रख लिया करते ...साथ साथ गुड़ के साथ खाते भी जाते.. खांसी-जुकाम के लिए पता ही नहीं था कोई दवाईयां भी होती हैं, बस इस तरह के जुगाड़ और मुलैठी चूसने से ही काम चल जाया करता था।
वैसे मक्की के फुल्ले भी गुड़ के साथ ही खाया करते थे...और याद है जब कभी घर में काले चने न हुआ करते या थोड़ा स्वाद बदलने का ध्यान आता तो कभी कभी चावल ही लेकर चले जाते और भुनवा लाते।
बढ़िया दिन थे....कुछ ज़्यादा जंक-फंक चला नहीं था, यही हम लोगों की खाने की चीज़ें हुआ करती थीं।
आज सुबह यह तस्वीर देखी तो बस वह भट्ठी वाली की याद आ गई।
ऐसा नहीं कि दाने तुरंत ही भून दिये जाते थे....यार, वहां भी इंतज़ार करना पड़ता था, तीन चार लोग होते थे .. लेकिन इंतज़ार बस पांच दस मिनट ही करना पड़ता था...घर से भट्ठी की दूरी पैदल पांच सात मिनट की थी...फिर साईकिल चलाना सीखा तो साईकिल पर चले जाना।
और वहां पर कोई बैंच स्टूल थोड़े ही ना पड़े रहते थे...वहां भट्ठी के इर्द-गिर्द किसी ईंट या पत्थर-वत्थर पर जा कर बैठ जाना...और बड़े ही कोतहूल से उस को अपना काम करते देखते रहना। अच्छा लगता था वहां बैठना भी...कईं बार तो लगता था कि बारी जल्दी ही आ गई...अभी तो और बैठने का मन कर रहा होता...
दोस्तो, आप को पढ़ कर यही लगता होगा कि हमारे ज़माने में भी हम ने वेलापंती के अपने जुगाड़ कर रखे थे।
एक बात और...मैंने आप को बताया ना कि वह दाने भुनने के लिए पांच या दस पैसे लेती थी...दोस्तो, वह ज़माना भी अद्भुत था..कुछ लोग पांच दस पैसे भी नहीं लेकर जाते थे ... उन से वह मक्के का ही भाड़ा ले लिया करती थी, मतलब यह कि उन के दाने भुनने से पहले वह कच्चे दाने निकाल कर अपनी वसूली कर लिया करती थी। इसे भाड़ा लेना कहा जाता था।
अपने अतीत में झांकना और फिर सब कुछ ईमानदारी से शेयर करना ...अब आसान लगने लगा है....क्या अच्छा था, क्या बुरा ...किस बात को लिखने से असहज महसूस होता है ....जब इन बातों का ध्यान नहीं रहता ना, तो सच में लिखने से बड़ा सुकून मिलता है। सच में.......हल्कापन बहुत अच्छा लगता है। लेकिन जैसे ही कोई बात दबाने की कोशिश की ..तो उस पर कोई झूठ वूठ का लेप लगाने की कोशिश करते हैं तो फिर मत पूछो यार कि सिर कैसे भारी होता है। जैसे हैं ..जैसे थे...वैसा ही ब्यां करने में मज़ा है।
आज तो मुझे मेरे मोहल्ले की भट्ठी वाली याद आ गई थी... कुछ अरसा पहले मुझे सांझा चूल्हा याद आ गया था....सच में दोस्तो उस दिन भी वे यादें शेयर करने में भी बहुत ही मज़ा आया था... अगर आप पढ़ना चाहें तो इस लिंक पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं.......शुक्र है रब्बा सांझा चुल्हा बलेया....
अच्छा अभी बातें चल रही थीं भट्ठी की, तंदूर की .....तो अंगारें ज़हन में होंगे और अगर ऐसा हो तो मुझे मेरा ऑल-टाइम फेवरेट हिना फिल्म का वह गीत कैसे न ध्यान में आए.......पल्ले विच अग्ग दे अंगारे नहीं लुकदे...इश्क ते मुश्क छुपाए नहीं छुपते......(पल्ला पंजाबी का शब्द है, मतलब ..दामन ..और मुश्क का मतलब है महक, खुशबू)..
आप भी चंद लम्हों के लिए इस गीत के सुंदर बोलों, बेहतरीन संगीत, कश्मीर की हसीं वादियों और ज़ेबा बख्तियार के किरदार में खो जाइए...
मुझे नहीं पता कि पंजाब के अलावा इस तरह का काम करने वालों को किस नाम से मुखातिब किया जाता है..लेकिन पंजाब में तो हम इन्हें भट्ठी वाली माई कहा करते थे।
रोज़ाना बाद दोपहर चार पांच बजे के करीब बच्चों की यह ड्यूटी लगा करती थी कि दाने भुनवा के आओ। दाने भुनवाने का मतलब... मक्का, चना या चावल जा कर भुनवा कर ले आओ।
अधिकतर तो मक्का ही हुआ करता था... मक्का तो अब हम कहने लगे हैं, पंजाब में मक्की बोलते हैं... कल की ही बात लगती है कपड़े के थैले में मक्की लेकर जाना ...और उस भट्ठी वाली माई ने उन्हें भून कर फुल्ले (पॉप-कार्न) तैयार कर देने...और पता है इस का क्या लिया करती थी...मात्र पांच पैसे ...या कभी कभी दस पैसे....अच्छे से याद है मुझे।
और उन फुल्लों को खाने का ..भट्ठी पर ताजे भुने हुए...क्या लुत्फ होता है, यह ब्यां करना भी आसान नहीं है।
कभी कभी हम लोग काले चने भी लेकर जाया करते ...भुनवाने के लिए। और हां, जब कभी थोड़ा बहुत जुकाम होता तो याद है फिर तो काले चने भुनवा कर लाने बिल्कुल लाजमी हुआ करते थे...एक रूमाल में गर्मागर्म चने डाल कर नाक के ऊपर रख लिया करते ...साथ साथ गुड़ के साथ खाते भी जाते.. खांसी-जुकाम के लिए पता ही नहीं था कोई दवाईयां भी होती हैं, बस इस तरह के जुगाड़ और मुलैठी चूसने से ही काम चल जाया करता था।
वैसे मक्की के फुल्ले भी गुड़ के साथ ही खाया करते थे...और याद है जब कभी घर में काले चने न हुआ करते या थोड़ा स्वाद बदलने का ध्यान आता तो कभी कभी चावल ही लेकर चले जाते और भुनवा लाते।
बढ़िया दिन थे....कुछ ज़्यादा जंक-फंक चला नहीं था, यही हम लोगों की खाने की चीज़ें हुआ करती थीं।
आज सुबह यह तस्वीर देखी तो बस वह भट्ठी वाली की याद आ गई।
ऐसा नहीं कि दाने तुरंत ही भून दिये जाते थे....यार, वहां भी इंतज़ार करना पड़ता था, तीन चार लोग होते थे .. लेकिन इंतज़ार बस पांच दस मिनट ही करना पड़ता था...घर से भट्ठी की दूरी पैदल पांच सात मिनट की थी...फिर साईकिल चलाना सीखा तो साईकिल पर चले जाना।
और वहां पर कोई बैंच स्टूल थोड़े ही ना पड़े रहते थे...वहां भट्ठी के इर्द-गिर्द किसी ईंट या पत्थर-वत्थर पर जा कर बैठ जाना...और बड़े ही कोतहूल से उस को अपना काम करते देखते रहना। अच्छा लगता था वहां बैठना भी...कईं बार तो लगता था कि बारी जल्दी ही आ गई...अभी तो और बैठने का मन कर रहा होता...
दोस्तो, आप को पढ़ कर यही लगता होगा कि हमारे ज़माने में भी हम ने वेलापंती के अपने जुगाड़ कर रखे थे।
एक बात और...मैंने आप को बताया ना कि वह दाने भुनने के लिए पांच या दस पैसे लेती थी...दोस्तो, वह ज़माना भी अद्भुत था..कुछ लोग पांच दस पैसे भी नहीं लेकर जाते थे ... उन से वह मक्के का ही भाड़ा ले लिया करती थी, मतलब यह कि उन के दाने भुनने से पहले वह कच्चे दाने निकाल कर अपनी वसूली कर लिया करती थी। इसे भाड़ा लेना कहा जाता था।
अपने अतीत में झांकना और फिर सब कुछ ईमानदारी से शेयर करना ...अब आसान लगने लगा है....क्या अच्छा था, क्या बुरा ...किस बात को लिखने से असहज महसूस होता है ....जब इन बातों का ध्यान नहीं रहता ना, तो सच में लिखने से बड़ा सुकून मिलता है। सच में.......हल्कापन बहुत अच्छा लगता है। लेकिन जैसे ही कोई बात दबाने की कोशिश की ..तो उस पर कोई झूठ वूठ का लेप लगाने की कोशिश करते हैं तो फिर मत पूछो यार कि सिर कैसे भारी होता है। जैसे हैं ..जैसे थे...वैसा ही ब्यां करने में मज़ा है।
आज तो मुझे मेरे मोहल्ले की भट्ठी वाली याद आ गई थी... कुछ अरसा पहले मुझे सांझा चूल्हा याद आ गया था....सच में दोस्तो उस दिन भी वे यादें शेयर करने में भी बहुत ही मज़ा आया था... अगर आप पढ़ना चाहें तो इस लिंक पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं.......शुक्र है रब्बा सांझा चुल्हा बलेया....
अच्छा अभी बातें चल रही थीं भट्ठी की, तंदूर की .....तो अंगारें ज़हन में होंगे और अगर ऐसा हो तो मुझे मेरा ऑल-टाइम फेवरेट हिना फिल्म का वह गीत कैसे न ध्यान में आए.......पल्ले विच अग्ग दे अंगारे नहीं लुकदे...इश्क ते मुश्क छुपाए नहीं छुपते......(पल्ला पंजाबी का शब्द है, मतलब ..दामन ..और मुश्क का मतलब है महक, खुशबू)..
आप भी चंद लम्हों के लिए इस गीत के सुंदर बोलों, बेहतरीन संगीत, कश्मीर की हसीं वादियों और ज़ेबा बख्तियार के किरदार में खो जाइए...