गुरुवार, 17 फ़रवरी 2022

डाक्टर की पहचान ..

अनुशासन से ही बात बनती है ..!

अच्छा, चलिए, आप भी हिंदी फिल्में बहुत देखते हैं...ज़रा डाक्टर की पहचान तो बताईए..सफेद कोट और गले में लटकती टूटीयां...(जिसे आला भी कहते हैं..)...यही न ...किसी भी बड़े प्राईव्हेट अस्पताल में चले जाइए- आप को वहां सभी डाक्टर साफ़-सुथरे सफेद एप्रेम में दिखेंगे...साथ में एक बढ़िया सी नेम-प्लेट भी लगी दिखती है ...

लेकिन अकसर हम लोग देखते हैं कि सरकारी अस्पतालों में इस तरफ़ कोई खास ध्यान नहीं देता ...मैं भी एक सरकारी अस्पताल में डाक्टर हूं...लेकिन देखता हूं बहुत से लोग हैं जिनकी एप्रेन पहनने में ज़्यादा रुचि दिखती नहीं...जब कि जब हमें मेडीकल कॉलेज के पहले साल में यह पहनना नसीब होता है तो हम जैसे आसमां पर उड़ने लगते हैं...मेडीकल कॉलेज के सामने वाले चाय के खोखे पर चाय भी पीनी है तो उसे हाथ में टांग कर निकल जाते थे...वरना साईकिल के हैंडल पर टिका लेते थे यहां वहां जाते हुए..कितना मज़ा आता था..मैं और मेरा एक साथी ..बीडीएस के पहले वर्ष के दौरान 1980 में एक दिन साईकिल पर घर लौट रहे थे कि बरसात शुरु हो गई, हम दोनों ने अपने एप्रेन से अपने सिरों को ढक लिया ....वह अब लुधियाना का एक नामचीन डाक्टर बन चुका है, उस का भाई यूनिवर्सिटी का वाइस-चांसलर है, और कुछ दिन पहले उन्हें हिंदी लेखक के लिए पदम-श्री सम्मान की घोषणा हुई है ...आज भी जब हम उन दिनों को याद करते हैं तो इतना हंसते हैं कि क्या कहें ....बस पेट में बल पड़ने की कसर रह जाती है...

अकसर एमबीबीएस- बीडीएस के सारे कोर्स के दौरान एप्रेन पहनना ही होता है, क्लीनिक ड्यूटी लगती है...अगर अनुशासन में नहीं रहेंगे तो कालेज में रह जाएंगे दस बरस तक..यही डर होता है न हमें और एक बात यह भी कि जब हमने स्टूडेंट लाइफ में वह कोट पहना होता और कोई हमें डाक्टर साब कह कर बुलाता तो हमारी तो बांछें ही खिल जाती...हम उस की बात का इतने अच्छे से जवाब देते कि उसे भी लगता कि यह कैसा डाक्टर हुआ, अजीब सा ही है, इतना वेहला कि सारा रास्ता ही समझाने लग गया...हमारी बांछें तो खिल ही उठतीं, साथ में शायद एक छटांक खून में भी इज़ाफा हो जाता क्योंकि एनॉटमी हाल में गालियां खा खा के वैसे ही हालत खस्ताहाल हुए होते थे ..ऐसे में बाहर आते ही रास्ते पर जाता कोई हमें डाक्टर साहब के नाम से बुलाए तो उस का हाथ चूम लेने का मन किस का न करे .....यही लगे कि पूछ यार, तू कुछ भी पूछ...इतनी मेहनत करने के बाद भी ये एनाटमी वाले तो अपनी क़द्र डाल नहीं रहे, हीरे की पहचान तो तेरे को ही है....

लिखते लिखते एक बात और याद आ गई कि हमारी पीढ़ी को यह हिंदी फिल्मों को फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने का भी बड़ा सड़ाका था.. (मुझे नहीं पता यह सड़ाका किसे कहते हैं...बस, पंजाब में सुनते रहे हैं, इसलिए मैं भी वैसे का वैसे लिख दिया..) ...हम वहां जाते तो जम कर ब्लैक हो रही होती ..उतने पैसे कहां होते हैं मुफलिसी के दिनों में ....हम लोग खिड़की पर अपना स्टूडेंट कार्ड दिखाते ...अब वह टिकट बेचने वाला बाबू क्या जाने कौन पढ़ने वाला डाक्टर और कौन पढ़ चुका ...बस, अकसर हमारा काम हो जाता ...टिकट मिल ही जाती ...इतनी इज़्ज़त थी ...मेरे पास येज़्दी मोटरसाईकिल था हाउस-जाब में, मेरे बड़े भाई ने मुझे भिजवाया था....लेकिन पैसे जेब में सिर्फ पेट्रोल के ही होते थे ... किसी चालान वान के लिए कुछ नहीं होता था...फिर वही डाक्टरी का कार्ड ही काम आता था...आज भी कहीं ट्रैफिक की गलती हो जाती है तो कह देते हैं कि हम तो डाक्टर हैं यहां....हवलदार अकसर भले लोग होते हैं छोड देते हैं ...लेकिन मैं अकसर घर में बच्चों के साथ यह सोच कर बहुत हंसता हूं कि अगर कभी हवलदार पटल कर कि....होगा, भाई तू डाक्टर ...लेकिन इस से क्या तेरे को रेड लाइट जंप करने का परमिट मिल जाता है, नो-पार्किंग में लगाने का हक मिल जाता है क्या डाकटर साहब आप को ...!

खैर, यह हो गई हल्की फुल्की बातें ..लेकिन दोस्तो यह मुद्दा इतना हल्का है नहीं ...जिस अस्पताल में मैं काम करता हूं वहां पर अस्पताल में काम कर रहे सभी चिकित्सा अधिकारियों एवं कर्मचारियों को यह हिदायत दी जा रही है कि जब तक ड्यूटी पर हैं, अपनी डै्स में रहें और अपना आई-कार्ड भी गले में टांगा होना चाहिए...वैसे तो इस तरह के निर्देश दिए जाने की नौबत आनी ही नहीं चाहिए क्योंकि यह तो हर कर्मचारी का अपना फ़र्ज़ है .

कईं बातें हो जाती हैं ..आजकल बड़े अस्पतालों में जब कोई अप्रिय घटना घट जाती है तो कोई किसी की शिनाख्त करे तो करे कैसे...अस्पताल में काम करने वाले ही एक दूसरे को नहीं पहचानते ...जानना तो बहुत दूर की बात है ...मैं ही जिस अस्पताल में काम कर रहा हूं बहुत कम लोगों को जानता हूं ..और मुझे वहां काम करते हुए आठ महीने होने वाले हैं...इसलिए मैं अपने डिपार्टमेंट में काम करने वाले डाक्टरों को अकसर कहता हूं कि इतना बडा़ अस्पताल है ...जब भी वक्त मिले 10-15 मिनट के लिए कभी कभार अस्पताल के अलग अलग एरिया में जा कर वहां की सुविधाएं देखो करो..वहां पर काम करने वालों से मिलो करो...अब हर कोई यही सोच ले कि मुझे ही कोई मिलने आएगा तो फिर काम नहीं चलेगा...आजकल हम जिस जगह पर काम रहे हैं वहां के विभिन्न विभागों की, डाक्टरों की, सुविधाओं की इतनी तो जानकारी होनी चाहिए कि दूर गांव से आए किसी मरीज़ के छोटे से सवाल का जवाब तो दे सकें...इसलिए अपने लिए न सही, ऐसे दूर-दराज से आने वाले जो बडे़ बड़े टीचिंग अस्पतालों में बहुत बार भटक से जाते हैं ...उन के लिए तो अपने अस्पताल की पूरी जानकारी रखनी चाहिए...

एक तो आजकल मोबाइल की वजह से हर कोई खाली वक्त में उसी गैजेट में गुम-सुम रहता है, हम सब को ज़रूरत है उससे बाहर निकल पर रियल वर्ल्ड ेमें विचरने की ...किसी से बात करेंगे तो ही बात बनेगी...

हां, तो बात चल रही थी कि सफेद कोट पहन कर आया करें , नेम-प्लेट लगी होनी चाहिए...कपड़े फार्मल पहने होने चाहिए...चलिए, एक उदाहरण देखते हैं...हम अगर किसी अस्पताल में जाते हैं तो एक हाल में पांच छः डाक्टर हैं, कोई जीन-टीशर्ट में है, गले में सोने की मोटी चेन, हाथों में अगूठियां, दूसरे ने भी जीन पहनी है, शर्ट बाहर निकली हुई है, एक डाक्टर ने कहने को तो सफेद कोट (एप्रेन) पहना हुआ है ..लेेकिन वह पानपराग चबा रहा है, और देखते ही देखते उस ने डस्टबिन में थूक भी दिया है.., और एक जूनियर डाक्टर है, जिसने सलीके से कपडे़ पहन रखे हैं ...साफ सुथरे ..ब्रांडेड-नॉन-ब्रांडेड का कुछ भी फर्क नहीं पड़ता, बस, साफ सुथरे सलीके से पहनी हुई पैंट-कमीज़, टाई भी लगाई हुई है....अब आप खुद सोचिए कि आप उस कमरे में जिंदगी में पहली बार दाखिल हो रहे हैं तो आप किस डाक्टर के पास जाना चाहेंगे ...जी हां, वही जूनियर डाक्टर ...क्योंकि वही ठीक ठाक डाक्टर लग रहा है....वही बात है कि जिस मरीज़ से हम पहली बार मिल रहे हैं उसे कुछ पता नहीं सीनियर क्या होता है, जूनियर क्या होता है ...उसे तो बस डाक्टर एक डाक्टर जैसा दिख जाए तो उस की लाटरी लग जाती है जैसे...

हम सब की कपड़ों की अपनी अपनी पसंद हैं...मुझे भी जीन के साथ चाईनीज़ कॉलर की बढ़िया सी लिनिन शर्ट (बाहर निकाली हुई), स्कैचर्ज़ शूज़ के साथ पहनना पसंद है ...अगर जीन नहीं तो लिनिन की पतलून भी .....कभी कभी मैं पहन तो लेता हूं ड्यूटी पर लेकिन मुझे अपने आप में एक अजीब सी शर्म महसूस होती रहती है कि यार, मैं डाक्टर हूं अस्पताल में आया हूं या मेहबूब स्टूडियो में किसी करेक्टर रोल के लिए स्ट्रगल कर रहा हूं यहां आ कर ...इसलिए अब मैं भी फार्मल ड्रेस और एप्रेन पहनने की ही कोशिश करता  हूं ...क्योंकि यही एक डाक्टर की असल पहचान है ..वैसे तो कोशिश लफ़्ज़ मुझे लिखना ही नहीं चाहिए था...ड्रेस पहन कर हम किसी के ऊपर एहसान नहीं कर रहे हैं --सरकारी अस्पताल में हैं, सरकार की तनख्वाह पर पल रहे हैं ..तो हर आने वाले मरीज़ को हक है यह जानने का कि वह जिस से बात कर रहा है, वह है कौन ....उसे पूछने की ज़रूरत पड़नी ही नहीं चाहिए...और वैसे हमने देखा यह भी तो है कि कितने लोग डाक्टर से उस का नाम पूछ पाते हैं ...शायद हज़ारों नहीं तो सैंकड़ों में एक..लेकिन जिज्ञासा हरेक के मन में रहती है कि जिस से वह एक बार मिल कर जा रहा है, अगर अगली बार भी वही मिल जाए तो बेहतर होगा ...या अगर किसी डाक्टर का रवैया किसी को थोड़ा भी दोस्ताना सा, हंसमुख सा लगता है तो वह अगली बार अपने आप को उसी के हवाले करने चाहे तो कैसे ढूंढेगा उसे फिर से ...इस मशीनों, उपकरणों के जंगल में ...

अच्छा, एक मज़ेदार बात और भी है ...60 साल के होने पर बंदे के पास और कुछ हो न हो, तजुर्बे बहुत होते हैं ...और कमबख्त यह ललक भी लग जाती है कि कोई हमारे तजुर्बों से फायदा भी ले ..क्यों ले यार कोई तुम्हारे तजुर्बों से फायदा, तुमने अपने वक्त में किसी की सुनी थी ...किसी ज़माने में तुम उड़े फिरते थे ..पांव नहीं लगते थे न ज़मीन पर ...आज नई पीढ़ी के दिन हैं...हां, तुम ज़्यादा से ज़्यादा अपने तजुर्बे बांट दिया करो....थोपने की तो सोचो ही मत ...फैसला पढ़ने वालों पर छोड़ दिया करो।

हां, तो तजुर्बा यह है कि हम ने भी पिछले 35 सालों में हर तरह की ड्रेस, एप्रेन पहन कर और न पहन कर, शेव किए बगैर डयूटी जाने से लेकर ..कडाडे की ठंडी में बिना नहाए, ड्राई क्लीन करने वाले सारे कूल एक्सपैरीमेंट कर रखे हैं ..उसी के बलबूते मैं यह बात आज ढंके की चोट पर कह रहा हूं कि जैसे वकील, पुलिस इंस्पेक्टर, फौजी, बस कंडक्टर अपनी ड्रेस पहनते हैं, उसमें फख्र महसूस भी करते हैं ..वैसे ही मुझे भी रोज़ अच्छे से शेव कर के, नहाने के बाद , बढ़िया तरीके से तैयार हो कर, साफ सुथरे कपड़े पहन कर, अच्छे से फार्मल शूज़ (पालिश किए हुए) पहन कर अस्पताल में ड्यूटी जाना ही अच्छा लगता है ...इन में से एक भी चीज़ न हो, शेव न की हो, शूज पालिश न हों, पेंट-कमीज़ अगर मुचडे़ हुए से हों (मुचड़ा पंजाबी का लफ़्ज़ है,  जिस का अर्थ है, सिलवटें 😎) ... तो अपने आप में ही कुछ तो कमी लगती है ...अपना ही आत्मविश्वास वैसा नहीं होता जैसा होना चाहिए...मरीज़ तक भी वह हमारी कमी पहुंच ही जाती है .. ने तो परफ्यूम भी ठूंस रखे हैं मेरे अलमारी में ..कहते हैं अपनी जेब में भी रखो करो, बापू, लेकिन बापू, इतनी आलसी है कि कभी लगाता ही नहीं, याद ही नहीं रहता ...हां, जब बापू के दिन थे तो परफ्यूज़ के चाहे शीशी एक ही होती थी लेकिन उसे खत्म नहीं होने देता था, खत्म होने से पहले ही नईं खरीद लेता था...

एक तर्क यह भी है कि कुछ लोगों का कि डाक्टरों की पोशाक कौन देखता है...उन के पास तो गुण ही इतने होते हैं..बेशक होते हैं. लेकिन उस स्तर तक पहुंचने भी अनुशासन की गली से होकर ही जाता है ...और फिर वे डाक्टर लोग कोई सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, उन्हें शायद किसी किस्म की बंदिशें नहीं बांध पाती ...वे सूफी लगने लगते हैं ...सच में, मैंने कुछ ऐसे महान डाक्टरों को देखा है ....मेरी दुआ है कि हर डाक्टर सिद्धियां प्राप्त करे लेकिन जब तक यह काम नहीं हो पाता, चलिए ...आज से हम सब यह प्रण लें कि हम ड्यूटी पर साफ सुथरे फार्मल कपड़ों में दिखा करेंगे, फार्मल शूज़ पहने हुए...अगर दाढ़ी बढा़ई हुई तो अलग बात है, वरना रोज़ शेव करना ..बालों को अच्छे से संवार के रखना भी ज़रूरी है ...मरीज़ सब कुछ देख रहा होता है ....हम उसे अनाड़ी समझते हैं, वह हमारी ड्रेस, हमारी बोलचाल, हमारे सफेद कोट की साफ-सफाई, उस का साईज़, सब कुछ ताड़ रहा होता है , क्या करे बेचारा, हम भी जब कभी मरीज़ के रोल में आए हैं तो हम ने भी तो यही किया है..है कि नहीं? ...

बात तो छोटी सी है ...गुज़ारिश है ...हम लोग डाक्टर हैं, डाक्टर दिखने भी चाहिएं..मरीज़ को सपना नहीं आता कि कौन डाक्टर है कोन क्या है, और दूसरा नेमप्लेट लगी होगी तो वह हमारा नाम भी जान जाएगा और आप के नाम की तूती देश के कोने कोने में बोलने लगेगी.......एक बार अजमा कर तो देखिए..ये सब बातें मैं अपने आप से भी कह रहा हूं कि मैं भी आज के बाद पूरी कोशिश करूंगा कि आप को फार्मल कपडो़ं में ही, एप्रेन में, नेम-प्लेट के साथ ही दिखूं .......वरना मुझे भी अपने साथियों की नज़रों मे गिरने का ज़ोखिम उठाना पडे़गा...

अगर हम डा्कटर लोग अच्छे से ड्रेस अप हैं तो मरीज़ों का भरोसा बहुत बढ़ जाता है, उन्हें लगता है कि मैं सुरक्षित हाथों में हूं ..डाक्टर अपने काम के प्रति, अपने पेशे के प्रति संजीदा है ...मुन्ना भाई एमबीबीएस वाली बातें फिल्मों मेंं ही अच्छी लगती हैं ..मन बहलाने के लिए ख्याल अच्छा है गालिब ..। जैसे हैं, जो पेशा है, जो काम करते हैं, उस के मुताबिक नज़र आना भी तो ज़रूरी है ..😂..गलती से भी कोई इसे नसीहत की घुट्टी मत समझिए..कल से मैं भी इन सब चीज़ों का खास ख्याल रखूंगा ... और कल से सुबह जल्दी जल्दी में पहनने वाले कपडे़ के इंतखाब की उस प्रैक्टिस पर भी लगाम लगाऊंगा जिस के तहत जैसे ही कपड़ों से ठूंसी अलमारी खोलता हूं, जो कमीज़ खोलते ही नीचे गिर जाती है, वही पहन लेता हूं ..फार्मल, कैजुएल के खाने ही अलग करने की कोशिश करूंगा ..और हां, ड्यूटी से आते ही जैसे ही मैं अपने फार्मल कपडे उतार कर वापिस जीन-टीशर्ट पहनता हूं, इतनी आज़ादी महसूस करता हूं कि क्या बताऊं...इसे पढ़ कर मेरे साथी मुझ से यही कहने लगेंगे कि यार, तुझे आज़ादी इतनी ही प्यारी है तो तो चुपचाप वीआरएस लेकर मन का रांझा राज़ी ऱख ...तू इन चक्करों में पड़ता ही क्यों है भाई.....वैसे, उस की भी योजना चल रही है, किसी को बताइएगा मत ...घर वाले सारे पीछे पड़े हुए हैं कि क्या पड़े हुए हो इस चक्कर में ....मैं कहता हूं कि मैं घर में बैठा बोर हो जाऊंगा .....तो सारे एक ही आवाज़ में कह उठते हैं......बापू, आप और बोरियत, आप बोर नहीं होंगे, उस की गारंटी हमारी! चलिए, सोचते हैं ...

मुझे लगा कि इतनी भारी भरकम पोस्ट के बाद कम से कम गाना तो कोई ढंग का हो ...तभी मुझे मेरे एक बहुत ही फेवरेट गाने का ख्याल आ गया.....बहुत ही अच्छा लगता है मुझे यह गीत...अपना हर दिन ऐसे जिए ..जैसे कि आखरी हो...मुझे इस गीत के बोल बेहद पसंद है ..a song full of life! - Has an important message too for all of us! - Live in the moment!! 

धीरे धीरे सुबह हुई ....जाग उठी ज़िंदगी ...

धीरे धीरे सुबह हुई...जाग उठी ज़िंदगी ...
पंछी चले अंबर को ...माजी चले सागर को ... 

सुबह सुबह उठ कर कुछ भी करने का मन नहीं है तो सोचा कि चलिए इस डॉयरी में ही कुछ लिख देते हैं....फिर दूसरों को भी पढ़वाएंगे...एक साथ बैठे लोग कुछ नहीं कहते चाहे...लेकिन दिन में जो भी एक दो लोग यह डॉयरी पढ़ कर मुझे कुछ कहते हैं बस वही मुझे अगली पोस्ट लिखने के लिए उकसाता रहता है ...और कहने वालों की इमानदारी मैं उन के अल्फ़ाज़ से कहीं ज़्यादा उन की आंखों में पढ़ लेता हूं...

मैं कईं कईं हफ्तों तक, शायद कभी कभी महीनों तक भी ..सुबह उठ कर टहलने टालता रहता हूं... बहाने सुनिएगा?..अगर तो मैं जल्दी जाग जाता हूं तो लगता है कि अभी तो इतनी जल्दी है, रास्ते में कुत्ते ही न पड़ जाएं (एक बार ऐसा हो चुका है..बाल बाल बचा था...) , अगर थोड़ा देर हो जाए तो सोचता हूं कि अब कौन जाए, तैयार हो कर ड्यूटी पर चलते हैं, क्यों बेकार की किट-किट...60 साल की उम्र होने पर अकसर कोई टोकता नहीं है, लेकिन फिर भी अपने आप ही लेटलतीफी की वजह से नज़रों में थोड़ा बहुत तो गिर ही जाता है ...कहां से गिर जाता है?- कहीं से नहीं अपनी नज़रों से यार, और कहां से गिरना है...😂 

अच्छा, एक बात और भी है कि यहां बंबई में सुबह होती भी बहुत देर से है ..यह भी एक बहाना ही तो हुआ..क्या मेरे एक बंदे के लिए सूरज अपना टाईम-टेबल बदल दे ... साईकिल चलाना हो तो मुझे यही आलस रहता है कि कोई उसे अब पार्किंग से जाकर उठाए, इतने महीनों से तो चलाया नही, पता नहीं हवा है भी कि नहीं...

बस, ऐसे ही बहाने करता रहता हूं अपने आप से ..और मुझे प्रातःकाल ही भ्रमण अच्छा लगता है, देर शाम या रात में टहलना तो मुझे कार्बनमोनोआक्साईड फांकने जैसा लगता है ...और उस वक्त जो लोग जॉगिंग कर रहे होते हैं, रुक कर उन्हें बिन मांगी नसीहत देने की इच्छा भी होती है कि यार, क्या आप को इतने ट्रैफिक में जॉगिंग करने के ख़तरे पता हैं ..लेकिन फिर अपने आप को यहां मुंबई में तो रोक ही देता हूं ...बिन मांगी नसीहत देने के लिए...लखनऊ में तो मैंने दो तीन युवकों को एक बार ऐसी नसीहत की घुट्टी पिला भी दी थी .. हा हा हा हा ...

अच्छा, एक बात और है...जिस दिन सुबह जल्दी उठ जाऊं तो फिर शाम तक थकावट सी होने लगती है...इस का समाधान तो मेरी श्रीमति जी ने कर दिया कुछ अरसा पहले...उन्होंने मुझे यह ज्ञान दिया कि देखिए, अगर सुबह जल्दी उठ ही जाते हैं तो कोई बात नहीं, लेटे रहिए बिस्तर पर, लेकिन मोबाइल को मत छुए...कुछ ही वक्त में फिर से नींद आ जाएगी....अब मैं इसी ज्ञान का इस्तेमाल कर के एक-दो घंटे की नींद और ले लेता हूं...

अच्छा, एक उलझन और भी है मुझे ...जिन लोगों से मेरा ऑफिशियल नाता है उन के साथ मैं बस ड्यूटी तक ही नाता रखना चाहता हूं ..और ऐसा करता भी हूं ...इस के पीछे भी कुछ किस्से हैं, कभी मूड में रहूंगा तो वह भी सुना दूंगा...मैं बिल्कुल स्विच आन-ऑफ की फिलासफी में विश्वास करता हूं ...इस का हिसाब आप इस तरह से लगा सकते हैं कि मैं अपनी ड्यूटी ऑफ होते ही सब से पहले तो अपनी शर्ट जो मैंने पेंट के अंदर टक-अन की होती है, उसे बाहर निकाल कर आज़ादी महसूस करता हूं ..और शाम के वक्त भी जिस भी कॉलोनी में रहता हूं वहां पर सैर वैर नहीं करता ..क्योंकि वही चेहरे बार बार कौन देखे...घोर बोरियत होती है ...और अगर दिख जाएँ तो वही डर्टी-पॉलिटिक्स (मुझे नफ़रत है इस तरह की गॉसिपिंग से) ...क्या लेना देना यार, अपनी अपनी बंसी बजाओ..मस्त रहो...। इसीलिए भी मैं सुबह सवेरे किसी अलग जगह पर जाने की फिराक में रहता हूं ....

कल भी मैं जब सुबह 6.30 बजे उठा तो बाहर अंधेरा ही था...सोचा कि ऐसे तो नहीं होगा...यह अंधेरा तो ऐसे ही रहेगा...भाई तू अपने मन में उजियारा कर ..मैं तुरंत बांद्रा में बैंड-स्टैंड वाली रोड पर चला गया...यह सेंट एंड्रयूज़ चर्च से शुरू होती है ..और आगे बांद्रा फोर्ट पर जा कर खत्म होती है ...

जैसे ही मैं पोमरेड पर चढ़ा मैंने देखा कुछ लोग इस मंज़र की तस्वीर खींच रहे थे ..मेरा पहला रिएक्शन यही था कि सूरज चढ़ भी गया क्या, लेकिन फिर लगा कि सूरज पश्चिम में तो डूबता है, यह तो चंद्रमा जी ही होंगे ...फिर दूसरा विचार आया कि सुबह 6.45 पर भी चंद्रमा जी दिख रहे हैं...पता नहीं, इसी पशोपेश में पास ही जा रहे एक उम्रदराज शख्स से यह पूछने में मुझे कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं हुई कि यह तो मून ही होगा...उसने ने जैसे ही मुंडी हिलाई ...मैं तो वहां से सरपट आगे निकल गया...फ़िजिक्स मेरी बहुत कमज़ोर ही थी ...मुझे सच में ये सब सबजेक्ट बेहद नीरस लगते थे ...लेकिन अब नौकरी के लिए कुछ तो पढ़ना ही था ..

जब हम घर में चादर ताने सो रहे होते हैं तो लगता है कि सारी दुनिया घरों ही में दुबकी पड़ी है ..लेकिन बाहर निकलते ही पता चलता है कि लोग बाहर निकल चुके हैं ..अपनी सेहत का ख्याल रखते हैं ..मेरे जैसे नहीं है, सब कूछ जानते हुए भी आलस की लोई ओड़े रखते हैं....दिन में खूब चल लेता हूं ...चलता ही हूं जब तक घुटने दुखने नहीं लगते, फिर वापिस लौट आता हूं ...लेकिन सुबह के कुदरते नज़ारों का लुत्फ़ उठाने की तो बात ही कुछ और है...



15 मिनट चलते चलते मैं यहां तक पहुंच गया ..बांद्रा फोर्ट के गेट के अंदर ...अंदर जाने पर यह खंडहर भी दिखते हैं यह सी-रॉक होटल के खंडहर हैं ...7 मई 1975 में . आज से 47 साल पहले मैं मेरे चाचा की बेटी की शादी में यहीं पर था, और इसी दीवार से बार बार इस समंदर की लहरों को देख कर खुश हो रहा था ...उस शादी में राजकपूर, उन की बीवी और राजेन्द्र कुमार भी आए थे...मेरे चाचा की अच्छी दोस्ती थी फिल्मी हस्तियों से ...राजकपूर, यश चोपड़ा इन सब से ...हां, तो उस दिन राजकपूर शादी में हाथ लगाने नहीं आए थे ...दो घंटे वहीं बैठे रहे ...हम उन्हें दूर से देख कर खुश हो रहे थे ...और हम बच्चे पूरे होटल में ऐसे घूमने निकले जैसे हम ने उसे खरीद ही लिया हो...हाटेल की ग्राउँड फ्लोर पर एक कमरे को खोला तो वह टेबल-टैनिस वाला कमरा था..वहां पर ऋषि कपूर सफेद निक्कर और टी-शर्ट पहने खेल रहे थे ..अभी हम उन्हें निहार ही रहे थे कि किसी ने हमें उस कमरे से बाहर कर दिया... हा हा हा हा ..

वैसे तो सारा दिन हम लोगों के चेहरे पर बारह बजे रहते हैं ...मुझे नहीं पता कि हम किस लिए ऐसा करते हैं...अपने इन्हीं चेहरों की वजह से दूसरों का भी दिन खराब कर देते हैं ...लेकिन सुबह कुदरत की गोद में हम लोगों के चेहरे कैसे खिल उठते हैं...यह शेल्फी लेने पर ही पता चलता हूैं...

बंदा अपने आप से यह पूछने पर मजबूर हो जाता है कि यार, तू वही बोरिंग सा बंदा ही है ...इस में तो तू बडा़ ज़िंदादिल किस्म का लग रहा है ... 

और हां, एक बात और ....सी-रॉक जहां पहले था ...उस के सामने बैंड-स्टैंड पर टाटा-लैंडएंड पांच सितारा होटल है ..मैं कौन सा कभी अंदर गया हूं ...बाहर से ही देखा है ...लेकिन उस बांद्रा फोर्ट में ज़रूर कईं बार जा चुका हूं ..और आप सब को भी वहां ज़रूर जाने की सलाह देता हूं ..आप को वहां बड़ा मज़ा आएगा..वहां से सी-लिंक दिखता है, वह एक अलग बात है ..लेकिन पिछले उस किले का इतिहास जानने के लिए आप को इस किले की तरफ़ ज़रूर जाना चाहिए..यह सुबह 6 से शाम 6 बजे खुला रहता है, कोई टिकट नहीं है, और गाडी़ पार्किंग ढूंढने की भी कोई सिरदर्दी नहीं, इस के बाहर पर्याप्त जगह है .. आप को वहां जाकर अच्छा लगेगा ...बार बार जाने को मन मचलेगा.. 

मुझे यह बांद्रा फोर्ट बहुत रहस्यमयी लगता है ...इतने राज़ अपने आप में समेटे हुए...कल तो मैं अंदर नहीं गया..लेकिन बहुत बार जा चुका हूं...सुबह सुबह इस एरिया की एम्बिएैंस ही अनूठी होती है ...लोग वहां पर सुबह सुबह स्पैशल फोटो शूट या कुछ डांस कालेज के युवक-युवतियां प्रोफैशन स्तर के शूट करवाने आते हैं ..

क्या यह मंज़र देख कर भी आप की वहां आने की तमन्ना नहीं हो रही? 

बांद्रा फोर्ट के पास पार्किंग की कोई कमी नहीं है ...

बांद्रा फोर्ट के गेट के बाहर ही है यह टाटा-लैंड्स एंड फाइव-स्टार होटल ...

बांद्रा फोर्ट का गेट ...फिर से याद दिलवा रहा हूं सुबह 6 से शाम 6 बजे तक 

महानगरों में पौधों का रख-रखाव भी इतना आसां नहीं है जितना हम समझते हैं, इसलिए पेड़-पौधों से मोहब्बत करिए..

मेरा तो 7.30 के करीब लौटने का वक्त हो गया...सोचा कि मन्नत पर ही एक नज़र मार लें ...(यह लोहे के गेट वाला) ..उधर शाहरूख तो नहीं दिखा ..लेकिन ज़िंदगी की एक सीख लिखी हुई दिख गई ...

उस सीख को आप भी पढ़िए....क्या पता आप पर भी कुछ असर हो जाए...सब को इस सबक को निरंतर याद रखना बहुत ज़रूरी है ..
Don't save your loving speeches
For your friends till they are old
Donटt write them on their tombstone
Speak them rather now instead....


दूसरी भी एक बढि़या सी सीख दूसरी तरफ़ लिखी मिल गई ...

जो लोग नेक काम कर जाते हैं ..वे हमेशा लोगों को याद रहते हैं ...

मैंने आप को भी यह रिमाइंड करवाया ...




काश! मैं ऑर्ट ऐप्रिशिएशन की कुछ तो तहज़ीब सीख पाता ..इतने इतने महान शिल्पकार हुए हैं और हमें इन के बारे में पता ही नहीं कुछ ... 

आते वक्त जिस जगह से मैंने चंदामामा फोटो खींची थी, वहीं से पूर्व दिशा से सूरज महाराज जी प्रकट होते दिख गए..चलिए, दिल की सुकूं तो मिला कि सुबह वाले चंदा मामा ही थे, सूरज कभी पछम से थोड़े न उगता है, मुहावरों के सिवाए...धत् तेरे की ..तेरे अनाड़ीपन की 

दो साल पहले अमेरिका में यह मंज़र देखा कि कारों के पीछे साईकिल टांगे हुए थे ..अब यहां भी यह मंज़र दिख जाते हैं...ये लोग कहीं जाकर साईकिल चलाएंगे या चला कर आए होंगे...चलिए, कुछ भी है, घर से निकले तो हैं सुबह सुबह ...यही बात सब से अच्छी है ...

कहते हैं न सुबह की सैर करो तो दिन अच्छा बीतता है ...मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ..कल की विशेष बात यह रही कि एक वयोवृद्ध दंपति जो अपने दांतों की मुरम्मत मेरे से ही करवाते हैं...बहुत ज़्यादा बुज़ुर्ग हैं...पता नहीं बात करते हैं तो आंखें उन की हमेशा भरी सी क्यों लगती हैं मुझे ...कल मेरे लिए एक पेन लेकर आए...मेरे लिए सब से बेहतरीन तोहफा है ...मैं किसी से भी कुछ भी तोहफे वोहफे लेने के सख्त खिलाफ हूं ..मिठाई तक नहीं लेता...वही बहाने ...कि हम लोग खाते ही नहीं है, (खाते तो ऐसे हैं कि आप हैरान रह जाएँ अगर देख लें तो😂😂) आप का बहुत बहुत शुक्रिया...बच्चों को खिलाइए.। मैं ऐसे लोगों को हमेशा यही कहता हूं कि इस से मेरी आदतें बिगड़ जाएंगी ....मैं कहीं न कहीं मन में दूसरे लोगों से भी इन सब चीज़ों की अपेक्षा करने लगूंगा ...फिर तो मैं बेकार हो जाऊंगा...इसलिए मैं नहीं लेता कुछ भी किसी सी ....और एक बात, यह बात कि हम खुद नहीं खाते, आगे खिला देते हैं...यह भी बेकार की बात है ...आगे खिलाएं या पीछे खिलाएं ...इस से मैसेज गलत जाता है ...जिस का नमक आप एक बार खा लेते हैं कहीं न कहीं उस के लिए सॉफ्ट-कार्नर बन ही जाता है ..वह भी कुछ तो अपना हक समझने लगेगा..चाहे लाइन-तोड़ कर आप के पास पहुंचना ही इस हक में शामिल हो........मुझे इन सब टुच्ची हरकतों से हमेशा से घोर नफरत है...हर वह काम जिस की वजह से आप को हमें किसी की नज़र मेंं नज़र मिलाने से थोडी़ सी भी हिचकिचाहट हो, बेकार है वह काम....

प्यार अनमोल है ... अगली बार उन का नुस्खा इसी कलम से लिखूंगा...

लेकिन, हां, इस बुजुर्ग दंपति की बात ही कुछ और है...उन का प्यार उन की आंखों में झलकता है ...क्या करें, आदमी के सारे कायदे घुटने टेक देते हैं प्यार के आगे ...वैसे तो मेरे पास एक से बढ़ कर एक कम से एक हज़ार फाउंटेन पैनों की एक बहुत अच्छी कलेक्शन है, मुझे शौक है कईं सालों से ....लेेकिन उन का यह पैन मेरे लिए बेशकीमती है ...मैं थोडा़ सा झिझका लेते हुए...लेकिन उन के हाव-भाव देख कर मेरे उसूलों ने वहीं पर अपने घुटने टेक दिए....यह रहा वह बेशकीमती तोहफ़ा....