जिस तरह से नईं दवाईयों को अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा थोड़ी जल्दबाजी में मान्यता ( अपरूवल) रूपी हरी झंडी कभी कभार दिखा दी जाती है और उस के तुरंत बाद संबंधित कंपनियों के द्वारा जितने अत्यंत आधुनिक तरीकों के द्वारा इन दवाईयों की मार्केटिंग की तूफ़ानी मुहिम चलाई जाती है उसे देखते हुये यह आवाज़ भी उठनी शुरू हो गई है कि इस से काफ़ी मरीज़ों को उनके खतरनाक दुष्परिणाम झेलने पड़ सकते हैं। बेहतर होगा कि इन्हीं अत्य-आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल मरीजों को इन दुष्परिणामों से बचाने के लिये भी किया जाए।
यूनिवर्सिटी ऑफ कॉलोरेडो- हैल्थ साईंसिस सेंटर के डा डेविड काओ के अनुसार अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन के नये तौर-तरीकों ( procedures) की वजह से कुछ दवाईयों को हरी झंडी दिखाने में जल्दबाजी दिखाई गई है।
एक उदाहरण के तौर पर बताया गया कि किस तरह से सूजन के इलाज के लिये इस्तेमाल की जाने वाली एक कंपनी की दवाई रोफीकाक्सिब ( anti-inflammatory drug Rofecoxib) को दी गई मंज़ूरी को 2004 में दो करोड़ मरीज़ों पर टैस्ट करने के उपरांत वापिस इस लिये लेना पड़ा क्योंकि उस दवाई के हार्ट पर बुरे असर देखने को मिलने लगे।
ब्रिटिश मैडीकल जर्नल में डा काओ ने लिखा है कि जब से 1992 प्रेसक्रिपशन ड्रग यूजर फीस एक्ट के अंतर्गत कंपनियों द्वारा फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन को अपरूवल में जल्दी करने को कहा जाता है ---तब से ही किसी नई दवाई का रिव्यू करने हेतु ( time needed to review a new drug) एफडीआई द्वारा जो समय लिया जाता था उस में अच्छी खासी कमी आई है --- 1979-86 तक यह अवधि 33.6महीने हुआ करती थी लेकिन 1992-2002 के दौरान यह घट कर 16 महीने रह गई है।
सोचने की बात यही है कि अगर ऐसा हो रहा है तो आखिर यह किस के हित में है ?
एक बात विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि दवा कंपनियों से जो इस तरह की फीस वसूली जाती है इस से जितनी रकम जमा होती है यह एफडीआई के ड्रग टैस्टिंग बजट का लगभग आधा हिस्सा ( 43%) इसी रकम से ही जमा हो पाता है। और ब्रिटेन में तो इस तरह का काम कर रही सरकारी एजेंसी के 75%फंड इसी तरह की फीस से जमा होते हैं।
क्या आप को लगता है कि यह दवाईयों की सेफ्टी के हक में है ?
होता अकसर यह है कि नईं दवाईयों को कुछ हज़ार लोगों पर टैस्ट किया जाता है ओर इन्हें अप्रूवल की हरी झंडी मिल जाती है, लेकिन इन दवाईयों के ऐसे साइड-इफैक्ट्स जो इतने आम तौर पर दिखते नहीं हैं, इसलिये इन के बारे में पता तभी चलता है जब इन्हें बहुत से मरीज़ों पर इस्तेमाल किया जाता है – इसे पोस्ट-अप्रूवल सरवेलेंस( post-approval surveillance) कहा जाता है --- कहने का मतलब यही कि किसी दवा को हरी झंडी तो मिल गई लेकिन जब उसे हज़ारों-लाखों लोग इस्तेमाल कर रहे हैं तो उन का उस के साथ कैसा अनुभव रहता है इन सब की निगरानी को ही post-approval surveillance कहा जाता है। अब देखने में यह आता है कि यही सरवेलेंस बडी कमज़ोर पड़ी हुई है।
डायबिटिज़ में इस्तेमाल होने वाली एक दवा सिटैगलिप्टिन को उस की खोज होने के बाद एफडीआई का अप्रूवल लेने में लगभग चार वर्ष( 3.8 वर्ष) लगे , उसी प्रकार सूजन के लिये नईं दवा राफीकोक्सिब ढूंढने के बाद उसे फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन का अप्रूवल लेने में पांच साल लगे जब कि 1990-99 के दौरान इस तरह की अप्रूवल लेने के लिये औसतन चौदह साल ( 14.2 वर्ष) से भी ज़्यादा का समय लग जाया करता था।
रिपोर्ट के अनुसार जैसे ही दवा सिटैगलिप्टिन को अप्रूवल मिला उस की जबरदस्त मार्केटिंग तुरंत ही शुरू हो गई – अप्रूवल मिलने के 90 मिनट के अंदर इस दवा की वेबसाइट शुरू हो गई और अगले आठ दिनों में जितने डाक्टरों को इस से अवगत करवाया जाना था उन में से 70 प्रतिशत डाक्टरों को कवर भी कर लिया गया और फार्मेसियों को इस की पहली डिलीवरी भी कर दी गई। डा. काओ का कहना है कि इस का यह मतलब नहीं है कि इस दवाई से मरीज़ों को खतरा है ---लेकिन यह तो एक जबरदस्त तूफ़ानी मार्केटिंग की एक उदाहरण है और विशेष बात यही है कि पोस्ट-अप्रूवल सरवेलेंस के लिये भी इन आधुनिक मार्केटिंग तकनीकों को इस्तेमाल किया जाना चाहिये।
शिक्षा ----- तो इस कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है , देखते हैं !!
जब हम लोग मैडीकल कॉलेज में पढ़ा करते थे तो अपने बहुत सीनियर डाक्टरों के पर्चे देख कर बहुत हैरान हुआ करते थे ---अधिकांश तौर पर बस हम लोग यही सोचा करते थे कि जितना पुराना डाक्टर उतना ही पुराना उस का नुस्खा। कईं बार शायद हम लोगों के मन में यह भी विचार आ जाया करता था कि फलां फलां सीनियर डाक्टर को तो बस पुरानी दवाईयों के ही नाम याद हैं। और हमारा ज़माना जब आया हाउस-जाब का तो अकसर जिस कंपनी का मैडीकल –रैप कुछ पैड-पैन या कोई कैलेंडर या कोई बढ़िया सा छल्ला दे जाता था, दो चार नईं नईं दवा के सैंपल टेबल पर रख जाया करता था , हम अकसर उन दिनों उन नईं दवाईयों से बहुत इंप्रैस हो जाया करते थे। और शायद अगले दो-चार दिनों तक उस की दवाई की कुछ पर्चियां भी लिख देते थे। कईं बार तो अगर कोई मरीज़ थोड़ा बहुत नखरा करता था ( यह नखरा शब्द भी बीस साल पहले ही हम लोग इस्तेमाल कभी कभी कर लिया करते थे -----अभी हम लोग भी कच्चे डाक्टर हुआ करते थे ) तो हम लोग उसे 18-20 रूपये वाली टेबलेट लिख दिया करते थे।
लेकिन फिर धीरे धीरे जब हम पकना शुरू होते हैं तो हमें हमारा अनुभव ही सब कुछ सिखाने लगता है ---जैसे कि मैं पिछले 25 सालों से दांत के एबसैस के लिये केवल और केवल शायद 99 प्रतिशत केसों में कैप्सूल अमोक्सीसिलिन और साथ में सूजन और दर्द के लिये आइबूब्रूफन और पैरासिटामोल ही लिखता हूं और मेरे 95 प्रतिशत मरीज़ों की पस इसी से सूखती है और मैं आगे उन का इलाज कर पाता हूं ----अब इन पच्चीस सालों में इतने हायर ऐंटीबायोटिक्स आये, इतने नये नये दर्द निवारक टेबलेट और सूजन को कम करने वाले साल्ट आये लेकिन मैंने कभी इन को आज़माने का ज़रूरत इसलिये नहीं समझी क्योंकि मैं अपनी दोनों दवाईयों से बेहद संतुष्ट हूं ---मरीज ठीक होते हैं और साइड-इफैक्ट्स भी बेहद कम !!
हां, तो इस लेख से मिलने वाली शिक्षा की बात हो रही थी ----वह यही है कि कभी भी यह मत सोचा करें कि नईं दवाईयां हैं तो वे पुरानी तकलीफ़ों के लिये वरदान हैं-----हो सकता है कि ऐसा न हो, कंपनियों ने तो अपना राग अलापना ही है लेकिन जैसा कि हमने ऊपर लेख में देखा कि कुछ नईं दवाईयां अभी केवल हज़ारों या लाखों लोगों ने ही इस्तेमाल की होती हैं , इसलिये इन की सेफ्टी प्रोफाइल इतनी क्लियर नहीं हो पाती। इसलिये ज़रा बच कर चलने में ही बचाव है।
अगर आप का ब्लड-प्रैशर किसी ऐसी टेबलेट से कंट्रोल में है जो कि आप बीस साल से ले रहे हैं या आप की शूगर किसी बहुत पुरानी दवा से कंट्रोल में है तो ठीक है , तो नईं नईं दवाईयों के चक्कर में क्या पडना। हां, कईं बार कुछ मैडीकल कारण हो सकते हैं आप की पुरानी दवा को चेंज करके या उस के साथ साथ कोई नया साल्ट शुरू करने के---लेकिन अच्छे मरीज़ की तरह कृपया आप कभी भी अपने चिकित्सक को किसी नईं दवा का नाम लेकर यह मत कहें कि क्या वह मेरे लिये ठीक रहेगी -----इस से डाक्टरों को बड़ी चिड़ मचती है ---- तो, जब अपने आप को चिकित्सक को सौंप ही दिया तो वह वही करेगा जो हमारे हित में होगा।