शुक्रवार, 29 फ़रवरी 2008

हिंदी बलोगरी के मंजे हुये खिलाडीयों के नाम एक खुला पत्र.....

इस खुले पत्र के माध्यम से मैं हिंदी ब्लोगगिरी के सभी मंजे हुये खिलाडीयों का ध्यान एक बहुत ही विषम सी समस्या की तरफ दिलाना चाह रहा हूं.......नहीं, नहीं , यह भड़ास वाला मामला तो बिल्कुल है ही नहीं।
मेरा तो शिकायत बस यही है कि हिंदी बलोगर्ज़ अकसर किसी के प्रश्नों का जवाब नहीं देते। किसी की ब्लोग पर ,किसी की इ-मेल पर कोई टैक्नीकल बात अच्छी लगे और अगर किसी से किसी प्राइमरी स्कूल के बच्चे जैसी विनम्रता से भी पूछ लो तो भी दूसरी तरफ वाला शायद यही सोचता है कि .....चल हट, खुद ढूंढ ले। अब मुझे लगता है कि इस के बारे में आप मेरे से सहमत नहीं होंगे ...आप शायद कहेंगे कि नहीं, नहीं ,यहां तो सब बहुत ही हैल्पिंग हैं, तुम कुछ भी पूछ कर तो देखो, देखो कितने लोग जवाब देने को तैयार खड़े हैं। ........लेकिन मेरा अनुभव इस मामले में कुछ ठीक तरह का नहीं है। ठीक है, हम सब अच्छे पढ़े लिखे लोग हैं.............इंटरनैट पर बैठे हैं तो यह तो कह ही सकता हूं....कोई बात ढूंढनी होगी तो ढूंढ ही लेंगे...इंटरनैट भरा पड़ा है...सभी विषयों पर ताज़ा तरीन जानकारी से....लेकिन फिर हिंदी बलोगरी में कुछ ऐसी बात है कि आदमी किसी तरह के उम्र के भेदभाव के बिना भी अपने से छोटों को भी कईं बातें पूछ बैठता है, लेकिन अकसर मैं देखता हूं कि जिन से भी यह प्रश्न पूछे जाते हैं उनका वही कंधे झटकाने वाला एटीट्यूड नज़र आता है.......आई डोंट केयर। हैल विद यू । हां, अगर आप को लगता है कि यह हैल्पिग आप के अपने नेटवर्क ( टिप्पणीकारों का म्यूचूयल एडमाईरेशन क्लब)में ही हो रही है तो भी ठीक बात नहीं है, सारे संसार को पता लगने दो , भाई, कि हम लोग एक दूसरे से क्या सीख रहे हैं। इस में आखिर दिक्कत है क्या !
अच्छा एक बात और यह भी कहनी है कि मेरी दूसरी पोस्ट मेरी स्लेट ( http://chopraparveendr.blogspot.com) पर मैंने पिछले दिनों कुछ प्रश्न पूछे थे (देख लेंगे तो बेहतर होगा) कि क्या हम हिंदी बलोगिंग में कुछ याहू, आंसर्ज़ जैसा कुछ शुरू नहीं कर सकते। कोई रिस्पांस नहीं आई। मेरी शिकायत यही है कि कुछ इस तरह के प्लेटफार्म बनाये जायें जिस से कि कोई नया हिंदी बलोगर जो भी इस बलोगरी में कदम रखे , वो अपने आप को खोया हुया सा महसूस न करे। और तो और, अगर हम ऐसा कुछ नहीं भी कर सकते ......तो कम से कम मिल जुल कर एक ऐसा ग्रुप ब्लाग ही शुरू करें जिस में विभिन्न बलोगर्ज़ ( जो भिन्न भिन्न विषयों के अच्छे जानकार हों) हों, और वे उन से पूछे सभी प्रश्नों के जवाब देने की कोशिश करें। लेकिन उस में शर्त यह होनी चाहिए कि किसी भी तरह के उत्पादों को प्रमोट नहीं किया जाये। बिल्कुल सटीक जानकारी प्रश्न पूछने वाले को उपलब्ध करवा दी जाये, बस। या, अगर नहीं भी पता उस के प्रश्न के बारे में कुछ तो कम से कम उसे थोड़ा मार्ग-दर्शन तो दे ही दिया जाये। क्या है ना जब कोई किसी से प्रश्न पूछता है तो बहुत उम्मीद से पूछता है, यह शायद एक डाक्टर से ज्यादा कोई नहीं समझ सकता।
इस यज्ञ में मेरी आहूति.........मेरी यही आहूति है कि किसी तरह के भी स्वास्थय एवं चिकित्सा विज्ञान से संबंधित विषयों के प्रश्नों के जवाब मैं हिंदी में देने की शत-प्रतिशत कोशिश करूंगा......अगर मुझे उस विषय के बारे में नहीं भी पता तो मैं कहीं से भी ढूढ कर , किसी विशेषज्ञ का साक्षात्कार करने के बाद , बिल्कुल सटीक जानकारी उस तकलीफ के बारे में आप तक पहुंचाऊंगा। यह मेरा प्रोमिस है और मैं यह प्रतिज्ञा करता हूं कि अगर आप कोई ऐसी पहल करेंगे तो मैं जब तक भी इस हिंदी बलोगिंग से जुड़ा रहूंगा.............आप में से किसी को भी डिच नहीं करूंगा। हैल्थ-साइंसज़ के हिंदी में प्रचार-प्रसार की सारी जिम्मेदारी आप मेरे ऊपर बिना झिझक डाल सकते हैं।
देखना ,दोस्तो, अगर कुछ इस के बारे में कर सकें तो ........................Please dont feel offended if you find some words a bit harsh......लेकिन मेरी यही बुरी आदत है कि लिखते हुये फिर मैं न तो आव देखता हूं न ही ताव। इसलिए हाथ-जो़ड़ कर पहले से ही क्षमा-याचना कर लेता हूं...........इसी में ही बचाव है।

वैसे गिफ्ट का यह आइडिया कैसा है ?

मैं दो साल पहले उस रिक्शे ( हां, वही जिस पर आदमी को एक आदमी ढोता है) से आ रहा था....उस रिक्शे ने मुझे अपनी ओर आकर्षित किया ...क्योंकि उस के चालक ने उसे बहुत सजाया हुया था...और इस के साथ ही उस में से बहुत बढ़िया बढ़िया फिल्मी गीतों की आवाज़ आ रही थी और उस रिक्शा चालक ने एक नेम प्लेट भी लगाई हुई थी....गंगाधर और साथ में लिखा हुया था, अपना पता......दयानंद हास्पीटल। मैं और मेरी पत्नी नये नये फिरोज़पुर(पंजाब) से तबदील हो कर इधर यमुनानगर आये थे ( हमारी पोस्टिंग आल इंडिया स्तर पर होती है) ...मुझे याद है कि मैं उस के रिक्शे पर बैठते ही उस से बतियाने लगा था. यह तो मेरी बचपन से ही आदत रही है कि मैं रिक्शे वालों से बैठते ही दोस्ती कर लेता हूं....क्या है ना कि इस से दोनों का टाइम अच्छा पास हो जाता है। और, इस से भी ज़रूरी यह है कि मैंने देखा है कि इस से रिक्शेवाला को अच्छा लगता है। सो, उस दिन भी अपनी वार्तालाप चली ...मैंने पूछा कि गंगाधर, यह क्या है जो बज रहा है, यार आवाज़ भी बहुत बढ़िया आ रही है, उस ने सब बताया कि यह तो मैंने 125 रूपये में फलां फलां दुकान से खरीदा था......मेरे यह पूछने पर कि क्या इस को बैटरी से चलाते हो , उस ने बताया कि बैटरी तो इस के अंदर ही है, जिसे रात में चार्ज कर लेता हूं और सुबह 8-10 घंटे मज़े से इस के साथ ऐश करता हूं। और उस ने यह भी बता दिया कि बाबू, यह बैटरी छ-महीने तक चलती है और केवल 30-40 रूपये की ही आती है। यानि उस 15-20 मिनट में उस ने मुझे इस डिब्बे से अच्छी तरह से वाकिफ करवा दिया । और हम कहते हैं कि हम अपने साथ वाले ब्लोगियों से ही सीख सकते हैं........यकीन मेरा भी बड़ा पक्का है कि बहुत कम लोग ही हैं कि जो अपना हुनर किसे के साथ साझे करने में हर्ष महसूस करते हैं। पता नहीं , हम यह ज्ञान कहां बाँध कर ले जायेंगे। लेकिन मेरे चीखने से क्या होगा ?

हां, मैं बेहद इमानदारी से कह रहा हूं कि इस एफएम रेडियो के डिब्बे के बारे में मुझे इस से पहले कुछ भी पता न था. मैं सोचता था पता नहीं कितना ज्यादा कम्पलिकेटेड मामला है इस को मेनटेन करना । सो, अगले दिन ही मैं भी उठा लाया एक वैसा ही एफएम रेडियो.......चार पांच तो शुरू शुरू में बांट भी डाले....घर में जो भी आता , उस को सारा उस गंगाधर की बातें दोहरा देता और साथ में वह डिब्बा थमा देता। हमारे यहां काम करने वाली को भी वह बहुत अच्छा लगता था----एक दो बार उस ने श्रीमति से इतना पूछा कि यह कितने का आता है , तो दूसरे दिन उस को भी ला कर दे दिया। जब मेरी मासी को मैंने वह गंगाधर से प्रेरणा लेने वाली बात बताई तो उऩ्होंने ठहाके लगात हुये कह दियाय........प्रवीण, तू तो देखना कभी भी नहीं बदलेगा....मैंने कहा था ...कि आखिर ज़रूरत ही क्या है।
मैं यह ही नहीं कहता कि मैं तो एफएम रेडियो का शैल्फ-स्टाइलड ब्रैंड अम्बैसेडर हूं क्योंकि जब लोग किसी डाक्टर के यहां---घर में और हस्पताल में --एफ एम वाला डिब्बा बजता देखते हैं ना तो वे भी इसे सुनने के लिये प्रेरित होते हैं...........और वैसा देखा जाये तो कितना सस्ता, सुंदर और टिकाऊ साधन है यह मनोरंजन का .................तो , सोचता हूं कि ऐसा नहीं हो सकता कि आने वाले समय में लोग विवाह शादियों में भाग लेने के बाद आये रिश्तेदारों को बर्फी के डिब्बे की बजाए .........एक एक एफएम का डिब्बा थमा दिया करेंगे....बर्फी से तो मोटापा ही बढ़ेगा और यह एफएम पर आने वाले रोज़ाना डाक्टरों के प्रवचन सुन कर कुछ तो असर होगा ही । और एक बात भी तो है कि अगर मेरा यह सपना (गिफ्ट में यह डिब्बा देने वाला) पूरा हो गया तो भई अपने ब्लागर-बंधुओं ...यूनुस जी , कमल शर्मा जी (मैं समझता हूं कि वे भी रेडियो की दुनिया के साथ जुड़े हुये हैं) की रेटिंग तो आसमान छूने लगेगी।
और हम सब को बहुत अच्छा लगेगा।

यह क्या हो रहा है ?—कहां गई इन की न्यूज़-सैंस...


एक तरफ़ हो ...संजय दत्त –मान्यता द्वारा अपनी शादी की अर्ज़ी वापिस लेने की खबर और दूसरी तरफ़ यह खबर हो कि मध्य-प्रदेश और झारखंड से आ रहे 16मज़दूर ट्रैक पर चलते हुये पीछे से आती हुई ट्रेन की चपेट में आने से कुचले गये(जिसे 9वें पन्ने पर छापा गया है)......तो, किसी दूसरी कक्षा में पढ़ रहे बच्चे से पूछते हैं कि कौन सी खबर बड़ी है या कौन सी खबर अखबार के पहले पन्ने पर छपनी चाहिए थी। ...........हां, हां, मैं भी यही सोच रहा हूं कि ये मज़दूरों के कुचले जाने वाली खबर पहले पेज पर न सिर्फ़ छपनी ही चाहिए थी , वह तो उस पन्ने पर सब से ऊपर भी छपनी चाहिए थी। लेकिन पता नहीं जो अंग्रेज़ी अखबार मैं पढ़ रहा हूं इस में न्यूज़-सेलेक्शन करने वालों को क्या हो रहा है......क्या हो रहा है इन की न्यूज़-सैंस को जो इन की न्यूज़-वैल्यू को सही ढंग से देख नहीं पा रहे हैं या यह सब कुछ जान-बूझ कर होता है...........जिस के कारण हम सब अच्छी तरह से जानते हैं, लेकिन फिर भी यह सब कुछ हो रहा है। पेज थ्री जर्नलिज्म खूब ज़ोरों से पनप रहा है और आने वाले समय में तो और भी पल्लवित-पुष्पित होगा।

वो 16मज़दूरों वाली खबर तो आप सब ने देख सुन ही ली होगी......अगर उस को फ्रंट पेज पर लिया जाता तो क्या यह पेपर मैला हो जाता.....पता नहीं , लेकिन......। इस खबर से शायद दूसरों को बहुत कुछ सीखने को मिलता । इस खबर को पढ़ कर दुःख बहुत ही हुया ..इन 16 लोगों में से तीन महिलायें और दो बच्चे भी थे। इन लोगों की त्रासदी देखिए कि मर कर भी ये लोग हैड-लाइन नहीं बन पाते....। और वो जो संजय दत्त की शादी वाली बात है , उस की ब्रीफ –न्यूज़ जो पहले पन्ने पर थी, उस के नीचे यह भी लिखा गया था पेज 15 पर इस खबर को विस्तार से पढ़ा जा सकता है।

हां, जिस जगह मज़दूरों वाली खबर छपी थी ,उस के साथ एक खबर यह भी छपी थी कि एक महिला ने चलती रेल-गाड़ी के टॉयलेट में एक प्री-मैच्योर बेबी को जन्म दिया जो उस टायलेट के रास्ते से नीचे पटड़ी पर गिर गई.....जब महिला को होश आया, तो स्टेशन मास्टर को सूचित किया गया और फिर......फाइनल बात यही कि उस मां को अपनी बच्ची मिल गई और दोनों ठीक हैं......इसे पढ़ कर बहुत खुशी हुई। एक बार ऐसी खबर पढ़ लेने के बाद सारी उम्र बंदा उस कहावत को कैसे भूल सकता है.......जाको राखे साईंयां, मार सके न कोय....बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी होय। हम कह तो देते हैं कि इस देश को वह ऊपर बैठा खुदा ही चला रहा है, लेकिन क्या ऐसी खबरें पढ़ने के बाद इस में कोई शक की गुंजाइश रहती है। अपना मन टटोल कर बतलाइए कि क्या आप को इस मां-बच्ची वाली खबर को पहले पेज़ पर लेने वाली कोई बात नहीं लगती.......................क्या करें, लगती है,भई लगती है , बहुत लगती है...और भी बहुत कुछ लगता है, लेकिन क्या करें भई दाल-रोटी का चक्कर है, बच्चे भी तो पालने हैं............................वैसे,आप भी अपनी जगह पर ठीक हैं, लेकिन यहां ब्लोगिंग में तो कोई ऐसा दाल-रोटी का रोना नहीं है, इस में तो दिल खोल लिया कीजिए।

इस बच्चे पालने वाली बात से याद आया है कि बेटा आवाज़े लगा रहा है कि चल, बापू , अब उठ भी जा, बस स्टैंड पर छोड़ कर आ जा, आज भी बस मिस हो गई तो फिर ब्लोग में अपनी शिकायत डाल देगा। सो, अब तो उठना ही पड़ेगा।

यह खबर यहां कर क्या रही है ?


तीन दिन पहले एक इंगलिश के पेपर में एक बहुत बड़ी खबर लगी जिसे देख कर मुझे बहुत अचंभा हुया कि आखिर इस की न्यूज़-वैल्यू है क्या जो इसे इतना स्पेस दिया गया है.....मुझे अचंभा होना इसलिए भी लाज़मी था क्योंकि इस पेपर की बैलेंसड रिपोर्टिंग के लिए मेरे मन में इस के लिए बहुत सम्मान है।
खबर क्या थी .....खबर थी......Surgeons urged to take precaution to prevent rupture of aneurysm……हिंदी में लिखता हूं.....शल्य-चिकित्सकों को ऐन्यूरिज़्म को फटने से बचाने के लिए एहतियात बरतने को कहा गया...... अब एक औसत पाठक को ऐसी खबर से क्या लेना देना। इस खबर को इतना ज़्यादा बोल्ड शीर्षक में दिखना अजीब सा लगा कि इस में इस ऐन्यूरिज़्म के बारे में तो इतना ही लिखा हुया था कि यह किसी रक्त-नाड़ी( ब्लड-वैसल) का एक गुब्बारे-नुमा उभार होता है। और साथ में यह भी लिखा गया था कि न्यूरोसर्जन्स को यह चेतावनी दी गई थी कि .... इन को इंसीज़न (सर्जीकल ब्लेड से जो कट लगाते हैं) निचले कोण से लगाने को कहा गया है। अब यह बात आम पब्लिक को तो क्या ज़्यादातर डाक्टरों के भी ऊपर से ही निकल गई होगी।
उस खबर में इस बीमारी के कारणों, इस के रोग-लक्षणों , इस की डॉयग्नोसिस आदि के बारे में कुछ नहीं बताया गया था......लेकिन इस बात को खूब अच्छी तरह से कवर किया गया था कि उस जापान से आने वाली शख्शियत ने किस वीआईपी का इलाज किया था....अब वो क्या कर रहा है, उस को सम्मानित किये जाने की बहुत बड़ी सी फोटो भी खबर के साथ पड़ी हुई थी। सोच रहा हूं ...ऐसी प्रोफैशनल एडवाईज़ तो सामान्यतः प्रोफैशनल जर्नल में ही दिखती है। और फिर सोच रहा हूं कि शायद खबर में कोई खराबी नहीं थी, उस के शीर्षक में ही गड़बड़ थी....ऐसा लग रहा है कि अगर इसी खबर का शीर्षक कुछ इस तरह का होता कि .....विख्यात न्यूरोसर्जन सम्मानित.........।
कहीं यह अखबार वाले यह समझने की भूल तो नहीं कर बैठे कि इस देश के हर शहर की नुक्कड़ो पर न्यूरोसर्जन नहीं , नीम-हकीम झोला-छाप छाये हुये हैं........उन को सुधारने के लिये भी ,उन का माइंड-सैट चेंज करने के लिए भी कुछ मसाला डाला करो..................न्यूरोसर्जन तो ऐसी खबरें इंटरनैट पर या अपने प्रोफैश्नल जर्नलों में देख ही लेते हैं। नहीं तो, कम से कम खबर के शीर्षक की तरफ़ ही देख लेना चाहिए।

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2008

यह रही मेरी तीस साल पुरानी कालेज की नोटबुक...




अचानक मुझे ध्यान आया है कि आज मैं अपने कालेज के दिनों की नोटबुक अपनी पोस्ट पर डालूं….यह नोटबुक 1978 की है जैसा कि आप इस में लिखी तारीख से जान ही गये होंगे। तब मैं डीएवी कालेज अमृतसर में प्री-यूनिवर्सिटी (मैडीकल) का विद्यार्थी था। बस कालेज के दिनों की एक अदद यही याद बची हुई है। लेकिन ऐसी नोटबुक मैं हर विषय की बनाया करता था…..हर विषय(फिजिक्स , कैमिस्ट्री, बायोलाजी, इंगलिश) की बनाया करता था। हर विषय की कईं कईं नोटबुक्स तैयार हो जाया करती थी।

आज सोच रहा हूं कि हम दिल से पढ़ते थे…जिस का परिणाम इस कालेज के मैगजीन की इस फोटो में आप देख रहे हैं.।कालेज से आते ही बस यही जल्दबाजी होती थी कि आज के नोट्स आज ही बनाने हैं…सो, बस खाना खाने के बाद रेडियो लगा कर लग जाता था काम करने…ताकि शाम के समय खेलने का समय भी मिल सके। बड़े अच्छे दिन थे…..पर पता नहीं इतने जल्दी बीत गये हैं।

हर विषय के नोट्स बनाने का फायदा यह होता था कि रोज़ का काम एक तो रोज़ ही रीवाइज़ हो जाता था और ऊपर से लिखने की प्रैक्टिस हो जाया करती थी। इन नोट्स को बनाने में मैं अपने कालेज के प्रोफैसरर्ज़ के क्लास नोट्स और किसी एक-दो किताबों की मदद भी ले लिया करता था। बस, यह नोट्स फाइनल ही हुया करते थे….पेपर के दिनों में इधर उधर कहीं भी माथा-पच्ची करने की कोई ज़रूरत ही नहीं होती थी। बस इन्हें अच्छी तरह से रिवाइज़ करना ही काफी होता था।

लेकिन आज कल के बच्चों का रूझान कभी भी नोट्स बनाने की तरफ दिखा नहीं ….ऐसा है ना टाइम तो फिक्स ही है, या तो बीसियों चैनलों की सर्फिंग कर लें, दो-तीन ट्यूशनों से जब तक हो कर आते हैं थक कर टूट चुके होते हैं। यह मेरा बहुत ही पक्का विश्वास है कि इन टयूशनों ने तो हमारी शिक्षा-प्रणाली का बेड़ा ही गर्क कर लिया है। लिखने की तो इन को प्रैक्टिस रही नहीं है।

अच्छा , मुझे पता एक-दो दिन से ये नये ऩये आइडियाज़ कहां से आ रहे हैं…मुझे लगता है यह मैडीटेशन का करिश्मा है जिसे मैंने पुनः नियमति तौर पर रोज़ाना करना शुरू कर दिया है। अब मन की स्लेट रोजाना साफ होगी तो ही मैं अपनी इस स्लेट पर कुछ नया लिखने में कामयाब होऊंगा……आशीर्वाद दें कि यह सिलसिला इस तरह ही चलता रहे।

कृपया नोट करें कि मैं अभी ये फोटो-वोटो अप-लोड करने में अनाडी हूं...फोटो तो और भी बहुत डालने वाली हैं ,कुछ ज़रूरी टिप्स बतलायेंगे तो मैं आभारी हूंगा।

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008

अब आप होम-वर्क की भी परवाह नहीं करते !


मैं बहुत अफसोस से यह कह रहा हूं कि मैंने इसी बलोग की पिछली पोस्ट पर रविवार के दिन आप को एक होम-वर्क दिया था, लेकिन केवल उन्मुक्त जी ने ही उसे सीरियसली लिया है और अपना होम-वर्क कर के दिखाया है। आप क्यों नहीं कर रहे ? ---नहीं , नहीं ,कोई बहानेबाजी यहां नहीं चलेगी। आप अभी इस से पिछली पोस्ट देखिए और एक-दो दिन के अंदर जैसा कहा गया है वैसा करिये।

मैं इस बारे में बहुत ही गंभीर हूं कि हम ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को कंप्यूटर और इंटरनेट के साथ जोड़ने के लिए क्यों ना कुछ हिंदी में याहूआंसर्ज़ या उस से भी बढ़िया कुछ शुरू करें। जिस में तरह तरह के जिज्ञासु हमारी अपनी भाषा के साथ जुड़ेगें। कुछ इस तरह के ही प्रश्न मैंने होम वर्क में दिये हैं , तो क्या आप को यह होम-वर्क मुशिकल जान पड़ रहा है। अगर नहीं, तो दौड़ा डालिए अपनी उंगली को अपनी की-बोर्ड पर......

NOTE……………Please take it seriously ….otherwise matter will be reported to worthy Principal .

ऐसी फुकरापंथी से क्या हासिल ?

मैं अभी अभी यही सोच रहा हूं कि मैं तो आप सब से देश के विभिन्न आंचलों में प्रचलित हिंदी भाषा के बहुत बढ़िया शब्द सीख रहा हूं....तो क्या मेरा फर्ज़ नहीं बनता कि मैं पंजाबी में प्रचलित – बहुत ज्यादा पापुलर- शब्दों से भी आप का तारूफ़ करवाऊं। तो आज का शब्द है ....फुकरा। जी हां, हमारे यहां जिस शोहदे टाइप बंदे पर बहुत ज़्यादा गुस्सा सा आता है उसे हम खुल्ले दिल से फुकरा कह देते हैं। लेकिन अफसोस है कि आज मैं इस शब्द को किसी बहुत ही दर्दनाक घटना से जोड़ कर आप के सामने रख रहा हूं।

तो , आज सुबह सुबह जब टाइम्स ऑफ इंडिया में यह पढ़ा कि मोदीनगर(गाजियाबाद) में किसी विवाह के दौरान ऐसे ही मस्ती में एक देशी पिस्टल से चली गोली से किसी के 14 साल के लाडले ने जान ले ली। खबर में तो यह भी बतलाया गया कि वहां पर मौजूद मेहमानों ने गोली चलाने वाले की इतनी पिटाई की कि उसे हस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा। मैं यही सोच रहा हूं कि एक बंदे की फुकरापंथी से किसी के तो गुलशन में ही वीराना हो गया ना.....अब केस तो उस पर भी चलेगा....।

..( मेरा दिमाग तो मुझे अपने मुंह पर उंगली रखने को कह रहा है और कह रहा है कि तू ज़्यादा मत बोला कर, लेकिन मन मान नहीं रहा.....इसीलिए दोस्तो मैं तो भई अपने आप को सफल बलोगर तभी मानूंगा जब मैं लिखते समय शत-प्रतिशत अपने मन की ही बात मानूंगा..................लेकिन इमानदारी से कह रहा हूं कि मैं कोशिश तो पूरी करता हूं ....लेकिन शत-प्रतिशत मैं अपने मन की नहीं सुन रहा हूं......मेरा तो उद्देश्य यही है कि कुछ भी हो अपने मन की 100% माना करूं....लेकिन क्या करूं ..हूं तो बुझदिल ही ना.......हालांकि यह मुझे भी अच्छी तरह से पता है कि यहां पर 99 और 100 प्रतिशत में भी ज़मीन आसमान का अंतर है। क्योंकि यह जो एक परसेंट है न यही हमें जीने नहीं देता.....कचोटता रहता है कि यार, तू बंदा है , तू अगर लिखने जैसी चीज़ में भी अपने दिल की बात नहीं मान रहा तो आखिर कर क्या रहा है। सो, मुझे तो केवल आशीर्वाद दीजिए कि मैं इस मिशन में सफल हो पाऊं...और मैं आज 26फरवरी 2008 तो आप से यह वायदा करता हूं कि मेरा मिशन ही लेखन में इस स्तर तक पहुंचना है, नहीं तो क्या है, ऐसे ही क्या लिखने का फ्राड करना.....बहुत से बड़े से बड़े विचारक एवं लेखक इस महान देश में पड़े हैं , लेकिन रोना वही है ना कि उन को इस इंटरनैट पर पहुंचने में पता नहीं कितने ज़माने लग जायेंगे......फिर सोचता हूं कि बाबा बुल्लेशाह , भगत कबीर , बाबा फरीद या उस महान मुंशी प्रेमचंद के पास क्या ये सब कुछ सुविधाएं थीं.....नहीं ना, तो फिर क्यों उन सब का नाम दुनिया में हीरे-ज्वाहरातों से लिखा हुया है और हमेशा लिखा रहेगा।

ओ हो , एक तो मैं बाल की खाल बहुत खींचने लगता हूं...शुरू कहां से हुया था और कहां पहुंच गया हूं। हां, तो बात हो रही थी किसी फुकरे की जिस ने एक 14साल के किसी मां के दुलार, किसी बाप के संसार , किसी बहन के नाज़ को गोली का निशाना बना दिया। उस केस का आगे चल कर क्या होगा, इस में क्या पड़ें.....लेकिन इस से क्या वह बेचारा विवाह में हंसी खुशी खेल रहा बच्चा वापिस आ जायेगा। इसलिए मुझे इस तरह की फुकरापंथी करने वालों से बेहद शिकायत है , क्योंकि तुम ने तो भई दिखा लिया अपना शोहदापन , लेकिन किसी परिवार का तो संसार ही लुट गया।

यह तो था कि किसी की जान ही चली गई, लेकिन मैं आप को ब्रीफ में एक ऐसी सच्ची बात बताता हूं जिस में एक छोटी सी लड़की की पूरी दाईं बाजू ही उड़ गई थी। जी हां, यह लड़की अमृतसर में हमारे पड़ोस में ही रहती थी......हम इक्ट्ठे ही खेलते थे...बहुत नेक-दिल लड़की थी, अच्छी दोस्त थी। उस के दाईं बाजू केवल कंधे तक ही थी.....हमें बताया गया था कि वह जब गोद में ही थी तो अपने किसी मामा की शादी में अंबाला गई हुई थी, ...उस के रिश्तेदार ने उसे गोद में उठाया हुया था , इतने में ही बारात में किसी ने हवा में गोली दाग दी...जो गलती से उस की बाजू में लगी ...और उस का खौफनाक रिजल्ट हमारे सामने था। बहुत गुस्सा आता था जब भी कभी उस के बारे में घर में बात चलती थी...खून खौलने लगता था।

और एक रोना यह भी है ना कि अकसर विवाह शादियों में सब रिश्ते की तारों के साथ जुड़े होते हैं , तो किसी के ऊपर कानूनी कार्रवाई करने की बात सोचना ही मूर्खता होगी.....अगर शुरू शुरू की गर्मी में कुछ थोड़ा बहुत कहा-सुना भी जाता है तो उस को हमारे भारतीय समाज के बोझिल रिश्तों का ताना-बाना ऐसा दबा देता है कि यह मात्र एक दबी चीख ही बन कर रह जाती है। हमारे पड़ोस में रहने वाली मेरी मित्र से भी कुछ यही हुया था। लेकिन अभी सोच रहा हूं कि यार , हम लोग कुछ बचपन से ही बहुत सेंसेटिव से, कुछ ज्यादा ही अंडरस्टेंडिंग रहे होंगे ...मुझे नहीं याद, खुदा कसम, कि कभी भी हम में से किसी भी बच्चे ने उस का सपने में भी मज़ाक बनाया हो या चिढ़ाया हो.....। हम उस को इतना अपनी सारी गतिविधियों में इन्वाल्व कर के रखते थे और वह भी बहुत हिम्मत वाली थी....आत्मविश्वास तो उस में कूटकूट कर भरा हुया था.....आज कल वह दिल्ली के एक सरकारी कार्य में सर्विस कर रही है......अपने परिवार में खुश है...अभी दो-तीन साल पहले मिले थे.......।

बस , यार , अब विराम लेता हूं...जब से सुबह वाली खबर पढ़ी है ना मूड खराब है। धिक्कार है ऐसी फुकरापंथी पर। पता नहीं हमें कब इन बातों की अकल आयेगी। आज के ज़माने पर में भी इस तरह के शौक पालने.........मुझे शिकायत है, बहुत शिकायत है,....बहुत ज़्यादा शिकायत है.......................चलिए अकेला ही बकता जाता हूं, कभी तो किसी के मन को लगेगी।
जो भी हो, मुझे वह ऊपर वाला आशीर्वाद( जो मैंने आप से मांगा है) देना न भूलियेगा।

सोमवार, 25 फ़रवरी 2008

चलिए आज छुट्टी का दिन है-- आप सभी हिंदी बलोगर्स को एक होम-वर्क दें.....

वो कहते हैं न कि एक आइडिया लाइफ बदल देता है, मैं भी यही क्लेम(सही या गलत , कह नहीं सकता) कर रहा हूं कि पांच मिनट पहले मुझे भी एक ऐसा ही आइडिया आया है। ऐसा है कि हम सब हिंदी बलोगर्स चाहते हैं ना कि इंटरनैट पर हिंदी का प्रयोग बढ़े, लोग इस के साथ जुड़े, लोग हिंदी की वेब-साइट्स पढ़ें, तो क्या हम सब के दिन रात बलाग्स लिखने से यह संभव हो पायेगा। लगता तो है, लेकिन इस में शायद टाईम लगेगा। खूब टाईम लगेगा......। अब हम लोग अपने अपने विषय में इतनी मेहनत से लिख तो रहे हैं, लोग पढ़ भी रहे हैं.....लेकिन हम लोग ज्यादातर आपस में ही एक दूसरे की पीठ खुजाते नज़र आ रहे हैं.......देख तूने मुझे दाद दी थी , मैं भी देख दाद दे रहा हूं। यह भी अपने आप में ठीक है, इस से हम नये-नये लिक्खाड़ों का हौंसला बढ़ता है। लेकिन अगर हम दिल से चाहते हैं कि इंटरनैट पर हिंदी का इस्तेमाल तेज़ी से बढ़े तो हमें आम आदमी ( जो भी इंटरनैट यूज़ कर रहा है) की उंगली भी पकड़नी होगी।

अब  मुझे ही देखिए ...मैं हमेशा तम्बाकू –गुटखे के पीछे ही पड़ा रहता हूं या अपनी स्लेट बलोग पर बस कुछ भी लिख कर टाइम को धक्के दे रहा हूं, कोई मक्की की रोटियों की विधि बता रहा है, कोई भड़ास निकालने के लिए हल्ला-शेरी दे रहा है, कोई हल्ला बोलने की हिम्मत जुटवा रहा है, कोई निठल्ला चिंतन कर रहा है, किसी की मानसिक हलचल ने धूम मचाई हुई है, कोई टिप्पणीकार सभी टिप्पणी पर नज़र रख रहा है, कोई स्वामी जी इ-जगत के बारे में बताते हैं, किसी की कतरनें हमारा दिल बहला रही हैं, कोई तरकश में बहुत कुछ लिये नज़र आ रहा है, कोई अपनी ही धुन में हिंदो विश्वकोष बनाने में व्यस्त हैं, कोई संता-बंता के चुटकुले सुना रहा है.......दोस्तो, ये सब बहुत ही महान काम हैं....इसमें रत्ती भर भी शक नहीं है, जो बंदा अपनी भाषा से प्रेम के वशीभूत यह सब किया जा रहा है, वह तो एक बहुत सेवा का काम कर रहा है।( कृपया इस पैराग्राफ के भाव को समझते हुए अन्यथा न लें, नोट करें सब से पहले मैंने अपना ही नाम लिया है.......कृपया इसे खेल-भाव से लें...धन्यवाद)

लेकिन एक हिंदोस्तानी के मन में भी शायद कुछ ऐसा प्रश्न हिलोरे खा रहे हैं जिन का जवाब उसे कहीं से ठीक से मिल नहीं रहा, नेट पर सामग्री तो है लेकिन वह अंग्रेज़ी में इतना प्राफीशियेंट नहीं है कि इसे अच्छी तरह से समझ सके। इसलिए जो आम हिंदोस्तानी नेट पर आ रहा है उसे हिंदी की साइट्स तक खींच लाने का मेरे पास एक सुझाव है......मैं सोच रहा हूं कि जैसे याहू. आंसर्ज़ ( Yahoo! Answers) की सर्विस है , हम सब मिल कर इस के बारे में सोचें और कुछ इस तरह का हिंदी में भी एक प्लेटफार्म तैयार करें जिस में लोग अपना प्रश्न लिखें....फिर जो भी चाहे उस का जवाब दे...लिखने वाले को यह सुविधा हो कि वह चाहे हिंदी में प्रश्न पूछे या अंग्रेज़ी में ,लेकिन हिंदी लेखकों की तरफ से यही कोशिश हो कि वे जवाब हिंदी में ही लिखें......इस से लोगों को कंप्यूटर पर हिंदी लिखने के लिए भी प्रेरणा मिलेगी....और खेल खेल में यह सब सीख जायेंगे। और तो और क्या इंटरनैट पर हिंदी की चैटिंग....( बलाग्स पर नहीं , जस्ट खुले में .....किसी दूसरे प्लेटफार्म पर जैसे याहू में होती है) नहीं हो सकती ।
मुझे तो इस के बारे में कुछ खास पता नहीं है लेकिन अगर याहू आंसर्ज की तरह कुछ हिंदी में हो जाये तो मज़ा आ जाये। इस से लगता है कि इंटरनैट पर हिंदी की तस्वीर ही बदल जायेगी। हिंदी भाषा के लेखकों को एक दिशा मिलेगी।......और हां,साथ ही साथ हम सब हिंदी बलोगिंग तो करते ही रहेंगे।

तो , आप सब धुरंधर लिक्खाड़ो के लिए ( जैसा कि वह चिट्ठों का चांदनी चौंक कहता है) यह होम-वर्क है कि इस के बारे में सोचें.....आप में से बहुत से तो टैक्नीकल एक्सपर्ट हैं, बहुत से बहुत पुराने लिक्खाड़ हैं....इस लिए इस के बारे में ज़रूर कुछ करें....जब तक आप इस के बारे में कुछ नहीं करेंगे...मैं आप सब के पीछे पड़ा ही रहूंगा...यानि इस तरह की पोस्टें प्रकाशित कर कर के आप को बोर करता रहूंगा।

चाहे मुझे इस में इन्वाल्व टैक्नीकैलिटिज़ की ज़रा भी समझ नहीं है, लेकिन मुझे इतनी आशा ज़रूर है कि आप सब के सहयोग से हिंदी में याहू, आंसर्ज जैसे कुछ तो क्या ,और भी बहुत कुछ संभव है। तो, चलो, सब मिल कर हम भी कुछ सबक इंटरनैट पश्चिमी देशों को सिखायें.....बहुत हो गया पीछे पीछे चलना, अब घिन्न आने लगी है। तो चलिए कुछ नया सोचॆं , कुछ नया करें और हिंदी की मशाल सारे संसार में प्रज्जवलित करें।

और हां, अगर ऐसा कुछ हिंदी भाषा में पहले से ही कुछ ऐसा हो रहा है तो इस के बारे में मझे भी प्लीज़ बतलाइयेगा....और इस मामले में मेरे अनाड़ीपन को हिंदी बलोगिंग में एक फ्रैशर समझ कर माफ कर दीजिएगा......अब आप सीनियर होने के नाते इतना भी नहीं करेंगे क्या ?

शनिवार, 23 फ़रवरी 2008

कैज़ुएल सैक्स भी एक एट्म बम ही है....

आज के समाचार-पत्र में एक एड्स कंट्रोल सोसायिटी द्वारा कॉन्डोम के इस्तेमाल को प्रमोट करने के लिए जारी किया गया एक विज्ञापन दिखा। विज्ञापन कुछ क्रियएटिव किस्म का लगा, इसलिए आप के सामने उस को रख रहा हूं........इस में एक कॉन्डोम पाठकों से यह कहता दिखाया गया है.....
श्रीमान, एक मिनट ज़रा मेरी बात सुनिए.....

(अगर आप शादीशुदा नहीं हैं)

तो शादी से पहले संभोग से दूर रहें


(अगर आप शादीशुदा हैं, तो)

अपने जीवन साथी के प्रति सदैव वफादार रहें।

(यदि आप अकसर संभोग करते रहते हैं, तो)

मुझे हमेशा अपने साथ रखिए

मेरा नाम कॉन्डोम है

कॉन्डोम (निरोध) का प्रयोग करने में बिल्कुल भी शर्म न करें

क्योंकि....

कॉन्डोम आपको एस.टी.डी/एच.आई.वी / एड्स से बचाता है।

इस समय , मैं केवल आपको
एस.टी.डी/एच.आई.वी / एड्स
से बचा सकता हूं।

मैं अनचाहे गर्भ से भी रक्षा करता हूं

इसमें कोई संदेह नहीं है कि , कॉन्डोम का प्रयोग करने से आपकी सुरक्षा के साथ-साथ आपकी खुशी में भी इजाफा होगा।

एक मात्र अनुरोध

यह मत भूलिए कि ज्यादातर असुरक्षित यौन संबंधों के कारणों से ही एच-आई-व्ही / एड्स फैलता है। एक से ज्यादा व्यक्तियों के साथ संयुक्त संभोग न करें क्योंकि एच.आई.वी संक्रमण 15से 49वर्ष तक की आयु समूह में बड़ी तेज़ी से फैलता है। ................


तो यह तो था आज विज्ञापन जो मुझे सुबह दिखा । अच्छा खासा क्रियएटिव इश्तिहार है, शायद आप को भी कुछ ऐसा ही लगा होगा।
लेकिन मेरे मन में एड्स से संबंधित कुछ मुद्दे कौंध रहे हैं। अब इस विज्ञापन की पहली पंक्ति की तरफ ध्यान करते हैं कि अगर आप शादीशुदा नहीं हैं तो शादी से पहले संभोग से दूर रहें। अकसर सोचता हूं कि क्या मात्र ऐसा नुस्खा थमा देने से ही यह संभव हो जायेगा कि लोग शादी से पहले संभोग से दूर रहने लग जायेंगे। मुझे पता नहीं आप का इस के बारे में क्या ख्याल है ! ….वैसे सब कुछ कहने में कितना आसान सा लगता है....वो कहते हैं न कि जुबान में हड्डी थोड़े ही होती है। लेकिन मीडिया में आये दिन हो रहे बलात्कार, डेट-रेप, छोटी छोटी उम्र की बच्चियों के साथ दुष्कर्म तो कुछ और ही कह रहा है। ठीक है , ऐसे विज्ञापन लोगों में इस तरह के विवाह-पूर्व संबंधों के प्रति भय पैदा करते हैं और यह खौफ़ पैदा किया भी जाना चाहिए। लेकिन क्या यह काफी है?—मुझे तो नहीं लगता ।

मैं तो ऐसा सोचता हूं कि युवाओं की परवरिश ही कुछ इस तरह से की जानी चाहिए कि उन्हें अपनी ऊर्जा उपयोग करने के सकारात्मक विकल्पों की तरफ प्रेरित किया जाना चाहिए। ज़िंदगी में हर चीज़ का एक समय है....हमारे तो सारे शास्त्र ब्रह्मचर्य के पालन की बातों से भरे पड़े हैं.....हां, वो बात अलग है कि एक तो आजकल इस की कोई परवाह कर नहीं रहा......35-40 साल तक लोग शादी न करवाने में अपनी शान समझने लगे हैं.......लेकिन...... ; एक बात और भी है ना कि सभी तरह के मीडिया में इतनी हद तक अश्लीलता परोसी जा रही है कि युवाओं का बिना बहुत ही उत्तम पारिवारिक संस्कारों की नींव के इस से बच कर रहना बेहद कठिन होता जा रहा है....चाहे वे इसे एक्सपैरीमेंटल कहें , या जस्ट स्टाइल कहें.........कुछ भी कहें , यह स्वीकार्य नहीं है। एक तो सब से बड़ा अजगर एचआईव्ही संक्रमण सारे विश्व के सामने मुंह फाड़े खड़ा है और वैसे भी भावनात्मक स्तर पर भी देखा जाये तो किसी की फीलींग के साथ खिलवाड़ कर के बंदा कभी भी मानसिक तौर पर सही नहीं रह पाता। सो, युवाओं को अपना ध्यान योग में लगाना होगा, खान-पान सादा रखना होगा और लेट-नाइट पार्टियों एवं डेट-वेट के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए.....ये सारे लफड़े बस इन्हीं बातों से ही शुरू होते हैं जो शुरू शुरू में मामूली दिखती हैं, लेकिन अभिभावक शायद अपनी कुछ ज़्यादा ही मसरूफीयात की वजह से देखा-अनदेखा कर जाते हैं। सीधी सी बात है कि शादी से पहले सैक्स संबंधों का कोई स्थान नहीं है। शायद इस ब्लोग में या मेरी हैल्थ टिप्स वाली ब्लोग (http://drchopraparveen.blogspot.com) पर मैंने कुछ समय पहले शादी से पूर्व एचआईव्ही टैस्टिंग की बात शुरू की थी, अगर कभी समय हो तो देख लीजिएगा।

चलिए , वापिस उस विज्ञापन की तरफ आते हैं.....उस में एक बात यह लिखी है कि यदि आप अकसर संभोग करते रहते हैं, तो मुझे हमेशा अपने साथ रखिए --- मेरा नाम कॉन्डोम है।

यह पंक्ति पढ़ कर कुछ इस तरह नहीं लगता कि अकसर संभोग करने को गली के नुक्कड़ में खड़े चाट-पापड़ी वाले से चाट खाने के बराबर खड़ा कर दिया गया है। जब इस तरह की बात होती है तो मुझे यह बेहद आपत्तिजनक लगता है ......क्योंकि मैं यह सोचता हूं कि इस तरह की स्टेटमैंट फेयर सैक्स के साथ सर्वथा फेयर नहीं है......This is not some commodity which anybody can choose to relish anywhere provided he has a condom in his pocket……यह कोई वस्तु थोड़े ही है जिसे जब चाहा भोग लिया बस आपकी जेब में एक कॉन्डोम होना ज़रूरी है। ऐसा कह कर क्या हम नारी को अपरोक्ष रूप में अपमानित नहीं कर रहे......आखिर क्यों हम इसे केवल मैकेनिकल क्रिया के रूप में देख रहे हैं......इस के भावनात्मक पहलूओं को हमेशा नज़र-अंदाज़ कर दिया जाता है , यह मेरी समझ में कभी नहीं आया। आप से अनुरोध है कि मेरी इसी ब्लोग पर या हैल्थ टिप्स वाली ब्लोग पर वह वाली पोस्ट भी ज़रूर पढ़े.....नहीं , मैं किसी ऐसी वैसी जगह पर नहीं जाता।

इस में कोई संदेह नहीं है कि कॉन्डोम का सही इस्तेमाल स्त्री एवं पुरूष दोनों को एचआईव्ही संक्रमण से बचाता है। लेकिन हम क्यों नहीं समझते कि क्या जब कोई व्यक्ति किसी तरह के कैज़ुएल सैक्स में , वन-नाइट स्टैंड(रात गई,बात गई) जैसी जगहों में खोया पाता है तो क्या केवल हमारे द्वारा उस के हाथ में एक कॉन्डोम थमाने से ही सब कुछ ठीक ठाक हो जायेगा। ऐसा मैं इस लिए कह रहा हूं कि शरीर की अन्य फ्लूएड्स( body fluids) में भी कईं तरह के विषाणु, हैपेटाइटिस बी वायरस इत्यादि अथवा अन्य बीमारियों ( जिनके बारे में अभी तक पता ही नहीं है) के जीवाणु मौज़ूद रहते हैं..........तो कहने का भाव यही है कि संक्रमित व्यक्ति द्वारा मुख से मुख चुंबन के दौरान जो कुछ हो रहा है, वह भी इतना सुरक्षित नहीं है जितना लोग समझने लग गये हैं।

सीधी सी बात है कि हम अपनी संस्कृति की तरफ देखें तो इस में इन विकृतियों के लिए कोई जगह ही नहीं है। ऐसे खेल पल भर के लिए रोमांचक तो हो सकते हैं लेकिन जान-लेवा भी सिद्ध हो सकते हैं। मेरी तरफ आप को भी ध्यान आ रहा होगा कि अगर हमारे पुरातन लोग इन विकृतियों से इतने ही अनछुये से थे, तो ये जो प्राचीन इमारतों पर आकृतियां पत्थरों में खुदी हुई हैं, क्या वे मात्र किसी कलाकार की कल्पना ही हैं। इस के बारे में तो मेरा ज्ञान सीमित है ...मैं तो केवल इतना ही कह सकता हूं कि शायद तब एड्स और एस.टी.डी जैसे रोग थे नहीं या किसी को इन के बारे में पता नहीं था....शायद जब कोई इस तरह के रोगों से मरता होगा तो तब भी यही कह दिया जाता होगा कि बस लिखवा कर ही इतनी लाया था।

लेकिन कुछ भी हो आज के दौर में यह यौन-विकृतियों ने कुछ इतना भयानक रूप ले लिया है कि इस के बारे में हमें कुछ करना ही होगा...अगर ऐसा नहीं होता तो इस एड्स कंट्रोल सोसायिटी को अपने विज्ञापन में यह लिखवाने की ज़रूरत भी न पड़ती......एक से ज्यादा व्यक्तियों के साथ संयुक्त संभोग न करें क्योंकि ......।

बात पते की केवल इतनी है कि हमारी लाइफ में कैज़ुएल सैक्स का कोई भी स्थान नहीं है। हर प्रकार का संयम बरतने में ही समझदारी है। एक कॉन्डोम लगा कर कोई अपने आप को तीसमार खां न समझे कि अब तो बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी होय। यह भी भम्र है.....कभी ऐसी गलती हो जायेगी कि सारी उम्र पछताना पड़ सकता है...तिल तिल मरना पड़ सकता है........क्योंकि यह कॉन्डोम का इस्तेमाल अगर किसी को कैज़ुएल सैक्स के लिए करना पड़ रहा है तो इस का सीधा सादा मतलब है कि उस का सैक्सुयल बिहेवियर हाई-रिस्क है। मुझे उम्मीद है कि पाठक इस कॉन्डोम वाली बात को इस के ट्रयू परस्पैक्टिव में लेगें.....नोट करें कि मैं कॉन्डोम का विऱोध सर्वथा नहीं कर रहा हूं.......जी हां, यह तो सुरक्षा-कवच है ही .......लेकिन मैं तो कैज़ुएल सैक्स का , पैसे देकर खरीदे गये सैक्स का घोर विरोध कर रहा हूं।

आप मेरे विचारों से सहमत हैं कि नहीं , लिखियेगा।

PS….मुझे आभास है कि पोस्ट लंबी हो चुकी है, लेकिन मुझे मेरी इस आदत के लिए क्षमा करें कि जब तक मैं एक बार अपनी बात पूरी तरह से खत्म न कर लूं, मेरे को चैन नहीं पड़ता। सिर-दुखने लग जाता है( हां, आप ठीक सोच रहे हैं कि चाहे पाठकों का दुख जाये) । अच्छा तो आप आशीर्वाद दें कि अपनी बात को कम शब्दों में कहना सीख लूं।
Good evening….have a lots of fun…...and enjoy your weekend !!

क्या हम सब ऐसा कुछ नहीं कर सकते ?


आज कल अकसर घर में टीवी पर जब डांस डायरेक्टर सरोज खान का एऩडीटीवी इमेजिन पर वह कार्यक्रम आ रहा होता है जिस में वह सारे देश को डांस करना सिखा रही हैं तो बहुत अच्छा लगता है। उस में सब से बढ़िया बात जो मन को बहुत ही ज़्यादा छू जाती है वह यही है कि वह बहुत ही शिद्दत से यह डांस सिखाने का काम करती हैं। मैं नहीं समझता कि उस से बेहतर ढंग से भी कोई डांस सिखा सकता है......सोचता हूं कि ऐसा करना बहुत ही मुशिकल है, अपने सारे गुर, अपने ट्रेड-सीक्रेट्स दिल खोल कर सारी दुनिया के सामने रख देना बहुत ही हिम्मत की और दिलदारी की बात है। यह हर किसी के बस की बात नहीं है.....हम तो यूं ही संकीर्णताओं में जकड़े रहते हैं कि अगर मैंने अपना हुनर ही किसी को सीखा दिया तो मेरे पास क्या बचेगा। चिंता नहीं करे...ऐसा करने से आप का हुनर कई गुणा बढ़ेगा। वैसे भी जो भी प्रक़ृति के वरदान हमें मुफ्त में प्राप्त हो रहे हैं, अगर प्रकृति भी यह सोचने लग जाये तो फिर क्या होगा। सूरज सारे संसार का अंधेरा दूर कर रहा है, सारे झरने, नदियां हमें पानी उपलब्ध करवा कर निहाल कर रही हैं तो सैंकड़ों तरह के रंग-बिरंगे फूल हमें हर पल गुदगुदाते रहते हैं।
हां, तो बात हो रही थी ,सरोज खान की......वह तो ऐसे एक एक स्टेप सिखाती हैं ,इतने अपनेपन से कि इतनी गर्मजोशी से ,इतनी चाहत से , इतने दिल से तो मां-बाप या एक समर्पित गुरू ही सिखा सकता है। मैं सरोज खान जैसे लोगों को कोटि कोटि नमन करता हूं क्योंकि ये लोग अपना ज्ञान दिल खोल कर बांट रहे हैं।
और हां, मेरे को ध्यान आ रहा है कि अगर हम सब अपने अपने ज्ञान को दिल खोल कर बांटना शुरू कर दें तो स्वर्ग तो ज़मीन पर ही उतर आयेगा। लेकिन एक तो हम लोग अपनी ताकत पहचान नहीं पाते, दूसरा यही सोचते हैं कि हमे तो कुछ नहीं पता....हमें तो सिर्फ सीखना ही है.....यही हमारा ब्लाक है....ठीक है, हम 99 बातें सीखना चाह रहे हैं लेकिन जो एक बात हम जानते हैं उसे तो दुनिया के साथ बांटे। सोचिए, उस ज्ञान को दुनिया में कितने लोग हाथों-हाथ लेने को इतनी आतुरता से हमारी तरफ़ देख रहे हैं। और यह सब कुछ हम अपने छोटे से ढंग से शुरू कर सकते हैं। बलोग हैं, अखबारे हैं , किसी बच्चे को कुछ सिखा के, जिस विषय के आप माहिर हैं , उस के बारे में कम पैसे लेकर ( या अगर आप चाहें तो फ्री भी) टयूशन दे कर.....लिस्ट इतनी लंबी है ....पर आप तो यह सब जानते हैं , आप को क्या बताना।

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2008

तारे ज़मीं पर तो क्या, यहां तो स्वर्ग भी ज़मी पर उतर आया है.....

मैंने आज तक जितने भी फूल देखे हैं, उन में से सब से सुंदर फूल मुझे कल दिखा......जिसे मैं आप को भी इस तस्वीर के द्वारा दिखा रहा हूं....आप जानना चाहेंगे कि यह फूल कहां दिखा ? –यह फूल हमें कल बाबा रामदेव जी के पतंजलि योगपीठ में दिखा जो हरिद्वार में स्थित है। मैं अब अगली कुछ पोस्टें इस स्लेट पर अपनी पतंजलि योगपीठ यात्रा पर ही लिखूंगा.....खूब सारी तस्वीरें भी खींचीं हैं, जो इन पोस्टों के साथ आप के साझा करता रहूंगा।


परसों हम सब का घर में प्रोग्राम बन गया कि चलो, बाबा रामदेव द्वारा स्थापित पतंजलि योगपीठ की यात्रा कर के आया जाये। कल हमें हास्पीटल से गुरू रविजयंती के उपलक्ष्य में अवकाश था। यह तो मैं आप को बता ही चुका हूं कि हम यमुनानगर में रहते हैं।

यमुनानगर की दूरी अंबाला से 50 किलोमीटर है....एक्सप्रैस गाड़ी में लगभग 45मिनट लगते हैं और बस में एक घंटा लगता है। लेकिन पतंजलि योगपीठ जाने के लिए यमुनानगर से अंबाला जाने की ज़रूरत नहीं होती। यह तो वैसे ही मैंने दूर-दराज रहने वाले हिंदी चिट्ठाकारों की जानकारी के लिए ही लिखा है।

यमुनानगर के रेलवे स्टेशन का नाम जगाधरी है....हम एक्सप्रेस गाड़ी के द्वारा डेढ़-घंटे से भी कम समय में रूड़की पहुंच गये। जगाधरी और रूड़की के बीच एक स्टेशन आता है ...सहारनपुर । रूड़की पहुंचने के बाद वहां से बस के द्वारा हम पतंजलि योगपीठ के लिए रवाना हुये। हम दोपहर साढ़े बारह बजे जगाधरी से चल कर अढ़ाई-पौने तीन बजे पतंजलि पहुंच चुके थे। वैसे मैं तो अकेला भी तीन-चार महीने पहले ही वहां हो कर आ चुका था, लेकिन परिवार सहित यह पहली यात्रा थी।

पाठकों की सूचना के लिए बताना चाहूंगा कि यह पतंजलि योगपीठ रूड़की- हरिद्वार सड़कमार्ग पर बिल्कुल मेन रोड पर ही है। रूड़की से लगभग 20मिनट के करीब का सफर है और हरिद्वार रेलवे स्टेशन से भी लगभग आधा घंटे का समय ही लगता है। रूड़की और हरिद्वार तो आप सब जानते ही हैं कि देश के सब भागों से रेल एवं बस-सेवा के द्वारा जुड़ा ही हुया है।

वहां पहुंच कर यही लगता है कि यार अगर आमिर खान ज़मीं पर तारे लाया है तो बाबा ने तो स्वर्ग ही ज़मीं पर उतार दिया है। निःसंदेह वहां का वातावरण बेहद नैसर्गिक है और अंदर जाते ही इतनी शांति का अनुभव होता है कि ब्यां नहीं कर सकता।

जब भी मैं पतंजलि योगपीठ में विभिन्न सुविधाओं की फोटो खींच रहा था और वहां पर लगे बड़े-बड़े बोर्डो की फोटो खींच रहा था तो अनायास ही मेरा ध्यान पंकज अवधिया जी और ज्ञान चंद पांडे और एक दो और बलागर बंधुओं की तरफ जा रहा था जिन की इन पुरातन चिकित्सा विधियों में इतनी गहरी ऋद्धा से मैं बहुत प्रभावित हूं......सो , वहां पर कईं फोटो तो मैंने इन के इंटरेस्ट को ध्यान में ही रखते हुए खींचे जो कि मैं अब अपनी इस पतंजलि योगपीठ से संबंधित पोस्टों के साथ आप के साथ शेयर करता रहूंगा। और ये हमें गहराई से इन के बारे में बतलायेंगे।

वहां पहुंचने के बाद , वहां ठहरना भी कोई समस्या नहीं है, डॉरमैट्री आवास मात्र 50 रूपये प्रतिदिन के हिसाब से , साधारण रूम 300, 400, 550 (क्रमशः सिंगल, डबल और ट्रिपल) और इस से दोगुने रेट में ए.सी कमरे भी उपलब्ध हैं......वैसे हम तो वहां ठहरे नहीं , शाम को वापिस आ गये थे।

वहां पर उपलब्ध सुविधाओं के बारे में विस्तार से चर्चा करता रहूंगा लेकिन संक्षेप मे तो अभी यही सुझाव दूंगा कि हम लोग दूर-दूर जाते हैं हमेशा अपने परिवार को लेकर छुट्टियां मनाने, उस में यह डैस्टीनेशन आप यह भी जोड़ लें...........यकीन मानिए , देखने वाली जगह है। इतनी सफाई, इतनी शांति ,इतना अनुशासन, इतना ठहराव..............................अगर आप ने प्रकृति के साथ कुछ समय बिताने का फैसला कर लिया है तो इस जगह का कोई जवाब नहीं है।

और हां, यह बताना तो भूल ही गया कि हरिद्वार स्टेशन के बाहर ही से शेयरिंग में आटो-रिक्शा भी मिलते हैं जो प्रति सवारी 20रूपये किराया लेते हैं। बस , अब यही विराम लेता नहीं , अगर पहली ही पोस्ट इतनी लंबी कर दूंगा और अगर आप फिर इस ब्लोग पर आये ही नहीं तो मेरा क्या होगा कालिया........क्या करूं, सब सोचना पड़ता है।

ताकि आप के बच्चे की बॉयोलॉजिक क्लाक(biologic clock) ठीक से काम करे....

आप को अकसर यह सोच कर हैरानगी नहीं होती कि जब कभी रोत को सोने से पहले हम यह निश्चय कर लेते हैं कि कल तो सुबह पांच बजे उठना ही है, नहीं तो छःबजे वाली अपनी गाड़ी तो भई छूट जायेगी। और अगले दिन सुबह अकसर आप क्या उठ पाते हैं.....अगर आप वैसे रोज़ाना सात बजे भी उठते हैं तो उस दिन आप यह देख कर बहुत ही हैरान हो जाते हैं कि बिना किसी अलार्म के ही आप पौने-पांच बजे उठ कर बैठ जाते हैं। यह सब कुछ बायोलाजिक क्लाक ही चमत्कार है जो हम सब के अंदर फिक्स है।

तो फिर हम सब के बच्चे सुबह सुबह इतना नाटक क्योंकरते हैं ,क्योंकि हमारे लाड-प्यार की वजह से उन की यह बायोलाजिक क्लाक ठीक से चल ही नहीं रही है। और इस के लिए हम ही दोषी हैं , और कोई नहीं।

आज कल के अधिकांश बच्चों को पता है कि उस की मम्मी या पापा ही उस को सुबह समय पर जगायेंगे। इसलिए वह बेपरवाह हो कर सोया रहता है। इस लिए ही लगभग सभी घरों में रोज सुबह सवेरे नाटक होते हैं क्योंकि बच्चा जागा हुया होते भी उठना नहीं चाहता। वह मस्ती से पड़ा रहता है और स्कूल की बस आने से 15-20 मिनट पहले उठता है ...वह भी लाडले का मां-बाप द्वारा तीन-चार बार झकझोरने के बाद ही....और उस के बाद का सीन देखने वाला होता है....भाग भाग के टॉयलेट....पेट साफ़ हो या नहीं , कोई फर्क नहीं पड़ता, बस 10सैकिंड में ब्रुश और अगले एक मिनट में नहाना -धोना निपट जाता है । कोई पता नहीं बूट पालिश हैं या नहीं.....क्या फर्क पड़ता है....उधर से बैग से कल वाला टिफिन निकालने की आवाज़े आनी शुरू हो जाती हैं. इतने में बच्चे का सिर घूम रहा है कि यार, अब टॉई किस से बंधवाये....ओहो, अभी तो स्कूल के कैलेंड़र पर साइन भी करवाने हैं. पता नहीं कल शाम को जो ड्राइंग -शीट्स मंगवाईं थीं, इस काम करने वाली ने कहां रख छोड़ी हैं......ओहो, रूमाल नहीं मिल रहा......यह क्या, केबल से किसी बढ़िया से गाने की आवाज़ आ रही है......बस ऐसे और भी कईं चीज़े उन 15 मिनटों में एक साथ हो रही होती हैं और यह सब इतनी तेज़ी से हो रहा होता है कि चार्ली चैप्लिन की फिल्म की याद ताज़ा हो आती है। अरे अभी तो उस दूध के गिलास को भी गटकना है....इस समय सारे जागे हुये हैं इसलिए सिंक में भी नहीं फैंक सकता । अरे यह क्या, कंघी ठीक से नहीं हो रही.....तुम अब इस कंघी का पीछा छोड़ो, आज तो तुम्हारी बस समझ ले कि छूट ही जायेगी। और होता भी अकसर ऐसा ही है .....जैसा कि आज मेरे छोटे बेटे के साथ हुया...बस छूटने के कारण सारा दिन घर में ही बैठा रहा।

लेकिन इस में दोष किस का है...मैं तो मानता हूं कि इस में सब से ज़्यादा दोष हम मां-बाप का ही है, एक तो हम अपने बच्चों की दिनचर्या ठीक तरह से डिवेल्प नहीं कर पाते और ऊपर से सुबह उन को यह उठाने की जि़म्मेदारी अपने ऊपर ले लेते हैं। सारी समस्या की जड़ यही है।

तो क्या बच्चों की छुट्टी करवा दें.....हां, हां ,ज़रूर करवा दें....क्योंकि अगर उसे आपने प्रैक्टीकल पाठ पढ़ाना है तो उसे यह छुट्टी करवानी ही होगी। अच्छा आप यही डर रहे हैं ना कि ऐसे तो पता नहीं उस की कितनी छुट्टियां हो जायेंगी...तो होने दीजिए...यकीन मानिए एक-दो दिन के बाद वह रोज़ाना सुबह पांच बजे उठ कर बैठ जाया करेगा...चाहे उसे उस के लिए उसे रात को साढ़े नौ बजे ही सोना पड़े। बच्चे भी कहां घर में रहना चाहते हैं....।
लेकिन अगर आप द्वारा उस को प्रैक्टीकल लैसन देने के बावजूद भी वह सुबह आप के उठाने के बाद ही उठता है तो आप को आप को उस की स्कूल काऊंस्लर से बात करनी होगी...और अगर उस को कोई शारीरिक समस्या है तो आप को किसी पैडीट्रिशियन को दिखाना ही होगा।

इस को आप कभी भी इगनोर न करें...और बच्चों में अपने आप उठने की आदत डालें। आप अपना समय याद करें...क्या आप में से किसी को आप के बाबूजी या मां स्कूल जाने के लिए उठाते थे....नहीं ना, मुझे भी कभी किसी ने नहीं जगाया...स्कूल जाने का चाव ही इतना ज़्यादा हुया करता था कि सुबह सवेरे उठ कर बैठ जाया करते थे। इसलिए मैंने अपने बच्चों को भी कभी सुबह नहीं जगाया......लेकिन मेरी बीवी यह काम
बेहद निष्ठा से करती हैं।मुझे ऐसे सारे अभिभावकों से ( मेरी बीवी सहित) बेहद शिकायत है कि बच्चों को अपने पैरों पर खुद खड़ा होने का मौका तो दें।

अलार्म की मदद-----मैं तो भई इस का भी घोर-विरोधी हूं....क्या है कि उस से सब की नींद खराब हो जाती है। उस का प्रयोग भी कभी कभार या परीक्षाओं के दिनों में ही मुझे तो ठीक लगता है..............वैसे आप का क्या ख्याल है...और हां, अकसर देखा यह भी गया है कि बड़े उत्साह से अलार्म लगाने वाला तो लिहाफ में मज़े से खर्राटे भर रहा है( जिसे देख देख कर गुस्सा आता है) और निर्दोष बंदा रात को साढ़े तीन बजे उठ कर बैठ गया है और सुबह होने का इंतज़ार कर रहा है।

बुधवार, 20 फ़रवरी 2008

पता नहीं अब हमारे सादे पान-मसाले पर क्यों डाक्टर अपनी डाक्टरी झाड़ रहे हैं !

अभी मैं अपना लैप-टाप खोल कर स्टडी-रूममें बैठ कर सोच ही रहा था कि आज किस विषय पर पोस्ट लिखूं कि अचानक बेटे ने मेरी टेबल के सामने लगे बोर्ड पर लगे एक विज्ञापन की कटिंग को देखते हुए कहा कि पापा, यह विज्ञापन मैंने भी देखा था, बड़ा अजीब लगा था।


क्योंकि इस पान मसाले में है.....अव्वल दर्जे का कत्था(रू800प्रतिकिलो) , पवित्र चंदन(रू60000-66000प्रतिकिलो),रूह केवड़ा(रू3लाख प्रतिकिलो), ज़ायकेदार इलायची(रू450प्रतिकिलो), प्रोसैस्ड सुपारी(रू200-225प्रतिकिलो), 0%तम्बाकू(तम्बाकू के रूप में नहीं)................यह विज्ञापन किसी हिंदी के समाचार-पत्र में छपा था। अब कोई भी बंदा इतना लुभावना विज्ञापन देखने के बाद भला क्यों करेगा गुरेज़ मुंह में दो-तीन पानमसाले के पाउच उंडेलने से। और ऊपर से यह 0% तम्बाकू वाली बात ....भई यह सब कुछ लिखा हो तो पानमसाले की धूम आखिर क्यों न मचे। वैसे वो 0% तम्बाकू- तम्बाकू के रूप में नहीं वाली बात तो मेरी समझ में भी नहीं आई...........।


लेकिन यह पानमसाला खाना भी हमारी सेहत के लिए बहुत नुकसानदायक है। आप ही सोचिए कि अगर ऐसा न हो तो क्यों विज्ञापन के एक कोने में यह चेतावनी भी लिखी हो....पानमसाला चबाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। वैसे वो बात दूसरी है कि उसे लिखा कुछ इस तरह से होता है कि उसे पहले तो कोई ढूंढ ही न पाये और अगर गलती से ढूंढ ले भी तो बंदा पढ़ ही न पाये।


जी हां, पानमसाला चबाना भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इस में मौजूद सुपारी को मुंह के कैंसर की एक पूर्व-अवस्था सब-मयूक्स फाईब्रोसिस( submucous fibrosis) के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है और यह वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध भी हो चुका है.....


छोटे छोटे कॉलजियेट लड़कों को दो-पहिया वाहनों पर चढ़े-चढ़े नुक्कड़ वाले पनवाड़ी की दुकान के ठीक सामने वाले फुटपाथ पर पानमसाले के दो तीन पाउच इक्ट्ठे ही मुंह में उंडेलते हुए बेहद दुःख होता है....यह शौक शुरू शुरू में तो रोमांचित करता होगा लेकिन बाद में जब इस की लत पक्की हो जाती है तो फिर शायद इसे छोड़ना सब के बश की बात भी नहीं होती।


ओरल-सबम्यूक्स फाईब्रोसिस की बात चली थी तो कुछ इस के बारे में बात भी की जाये...इस अवस्था में मुहं की नर्म,लचकीली चमडी़अपनी लचक खो कर, बिलकुल सख्त, चमड़े जैसी और झुर्रीदार हो जाती है, धीरे धीरे मुंह खुलना बंद हो जाता है, मुंह में घाव और छाले हो जाते हैं और मरीज़ को कुछ भी खाने में बहुत जलन होती है। यह कैंसर की पूर्वावस्था होती है और यह अवस्था किस मरीज़ में आगे चल कर मुंह के कैंसर का रूप धारण कर ले., यह कुछ नहीं कहा जा सकता । इसलिए इस अवस्था का तुरंत इलाज करवाना बहुत लाजमी है.....क्योंकि इस अवस्था में तो कईं बार मरीज का मुंह इतना कम खुलने लगता है कि वह रोटी का एक निवाला तक मुंह के अंदर नहीं रख सकता जिस के कारण उसे फिर तरल-पदार्थों पर ही ज़िंदा रहना पड़ता है या फिर सर्जरी के द्वारा मुंह खुलवाना पड़ता है और सब से...सब से ...सब से जरूरी यह कि उसे पानमसाले की लत को हमेशा के लिए लत मारनी पड़ती है।


लेकिन इस लत को लात मारने के लिए आखिर तब तक इंतजार आखिर किया ही क्यों जाये.....यह शुभ काम हमआज ही कर दें तो कितना बढ़िया होगा....आज से ही क्यों अभी से ही अपने मुंह में रखे पान-मसाले को अभी थूक दें तो क्या कहने......शाबाश.....यह हुई न बात......मोगैंबों खुश हुया।

पता नहीं अब हमारे सादे पान-मसाले पर क्यों डाक्टर अपनी डाक्टरी झाड़ रहे हैं !


अभी मैं अपना लैप-टाप खोल कर स्टडी-रूममें बैठ कर सोच ही रहा था कि आज किस विषय पर पोस्ट लिखूं कि अचानक बेटे ने मेरी टेबल के सामने लगे बोर्ड पर लगे एक विज्ञापन की कटिंग को देखते हुए कहा कि पापा, यह विज्ञापन मैंने भी देखा था, बड़ा अजीब लगा था।


क्योंकि इस पान मसाले में है.....अव्वल दर्जे का कत्था(रू800प्रतिकिलो) , पवित्र चंदन(रू60000-66000प्रतिकिलो),रूह केवड़ा(रू3लाख प्रतिकिलो), ज़ायकेदार इलायची(रू450प्रतिकिलो), प्रोसैस्ड सुपारी(रू200-225प्रतिकिलो), 0%तम्बाकू(तम्बाकू के रूप में नहीं)................यह विज्ञापन किसी हिंदी के समाचार-पत्र में छपा था। अब कोई भी बंदा इतना लुभावना विज्ञापन देखने के बाद भला क्यों करेगा गुरेज़ मुंह में दो-तीन पानमसाले के पाउच उंडेलने से। और ऊपर से यह 0% तम्बाकू वाली बात ....भई यह सब कुछ लिखा हो तो पानमसाले की धूम आखिर क्यों न मचे। वैसे वो 0% तम्बाकू- तम्बाकू के रूप में नहीं वाली बात तो मेरी समझ में भी नहीं आई...........।


लेकिन यह पानमसाला खाना भी हमारी सेहत के लिए बहुत नुकसानदायक है। आप ही सोचिए कि अगर ऐसा न हो तो क्यों विज्ञापन के एक कोने में यह चेतावनी भी लिखी हो....पानमसाला चबाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। वैसे वो बात दूसरी है कि उसे लिखा कुछ इस तरह से होता है कि उसे पहले तो कोई ढूंढ ही न पाये और अगर गलती से ढूंढ ले भी तो बंदा पढ़ ही न पाये।


जी हां, पानमसाला चबाना भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इस में मौजूद सुपारी को मुंह के कैंसर की एक पूर्व-अवस्था सब-मयूक्स फाईब्रोसिस( submucous fibrosis) के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है और यह वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध भी हो चुका है.....


छोटे छोटे कॉलजियेट लड़कों को दो-पहिया वाहनों पर चढ़े-चढ़े नुक्कड़ वाले पनवाड़ी की दुकान के ठीक सामने वाले फुटपाथ पर पानमसाले के दो तीन पाउच इक्ट्ठे ही मुंह में उंडेलते हुए बेहद दुःख होता है....यह शौक शुरू शुरू में तो रोमांचित करता होगा लेकिन बाद में जब इस की लत पक्की हो जाती है तो फिर शायद इसे छोड़ना सब के बश की बात भी नहीं होती।


ओरल-सबम्यूक्स फाईब्रोसिस की बात चली थी तो कुछ इस के बारे में बात भी की जाये...इस अवस्था में मुहं की नर्म,लचकीली चमडी़अपनी लचक खो कर, बिलकुल सख्त, चमड़े जैसी और झुर्रीदार हो जाती है, धीरे धीरे मुंह खुलना बंद हो जाता है, मुंह में घाव और छाले हो जाते हैं और मरीज़ को कुछ भी खाने में बहुत जलन होती है। यह कैंसर की पूर्वावस्था होती है और यह अवस्था किस मरीज़ में आगे चल कर मुंह के कैंसर का रूप धारण कर ले., यह कुछ नहीं कहा जा सकता । इसलिए इस अवस्था का तुरंत इलाज करवाना बहुत लाजमी है.....क्योंकि इस अवस्था में तो कईं बार मरीज का मुंह इतना कम खुलने लगता है कि वह रोटी का एक निवाला तक मुंह के अंदर नहीं रख सकता जिस के कारण उसे फिर तरल-पदार्थों पर ही ज़िंदा रहना पड़ता है या फिर सर्जरी के द्वारा मुंह खुलवाना पड़ता है और सब से...सब से ...सब से जरूरी यह कि उसे पानमसाले की लत को हमेशा के लिए लत मारनी पड़ती है।


लेकिन इस लत को लात मारने के लिए आखिर तब तक इंतजार आखिर किया ही क्यों जाये.....यह शुभ काम हमआज ही कर दें तो कितना बढ़िया होगा....आज से ही क्यों अभी से ही अपने मुंह में रखे पान-मसाले को अभी थूक दें तो क्या कहने......शाबाश.....यह हुई न बात......मोगैंबों खुश हुया।

3 comments:

राज भाटिय़ा said...

ड्रा चोपडा जी,आप ने हमेशा ही बहुत उपयोगी जानकारी दी हे, ओर आप के आज के लेख मे **वैसे वो बात दूसरी है कि उसे लिखा कुछ इस तरह से होता है कि उसे पहले तो कोई ढूंढ ही न पाये और अगर गलती से ढूंढ ले भी तो बंदा पढ़ ही न पाये।*
तो इस के लिखने का कया फ़ायदा,अगर बडे शव्दो मे लिखा हो ओर खरीदते वक्त दिखे तब तो ठीक हे, हमारे यहां सिगरेट के पाकेट पर मोटे ओर साफ़ शव्दो मे चारो ओर चेतावनी लिखी होती हे, १६ साल से छोटे बच्चे कॊ ऎसी चीजे बेचने पर दुकानदार को भारी जुर्माना चुकाना पडता हे,जब की भारत मे बच्चे से ही यह सब मगबाते मा बाप.

पंकज अवधिया Pankaj Oudhia said...

मै तो इससे दूर ही हूँ पर मुझे लगता है कि जिन्हे तलब लग चुकी है वो इसे आसानी से छोडने से रहे। क्या हम इसका कोई विकल्प खोज सकते है जो नुकसान रहित हो? मैने हर्बल सिगरेट पर काम किया है पर इसे इतना अधिक अच्छा नही बना पाया कि असली सिगरेट वाले सब छोडकर इसे पीने लगे। कोशिश जारी है।

Gyandutt Pandey said...

केन्सर अस्पताल में बड़े भीषण केस देखे हैं मुंह के केन्सर के। पर उसी अस्पताल में मरीज की सेवा में तैनात परिवार जनों को गुटका खाते भी पाया!

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2008

बस हमारे यहां भी ऑक्सीजन बार खुलने ही वाले हैं.....

“ऑक्सीजन बार में आक्सीजन सूंघने आये ग्राहकों को आक्सीजन बहुत अच्छी मात्रा (95प्रतिशत तक) उपलब्ध होती है जो कि सामान्य वातावरण से उपलब्ध होने वाली मात्रा (21प्रतिशत) से बहुत ज्यादा होती है और यह मात्रा प्रदूषित वातावरण में तो और भी घट जाती है।”--------यह पंक्तियां मैंने आज के अंग्रेजी पेपर हिंदु की एक रिपोर्ट से ली हैं, जिस का शीर्षक और यही पंक्तियां नीचे लिख रहा हूं......
Oxygen bars catch on…..……”Oxygen bars offer sniffers an increased percentage (upto 95percent) of oxygen compared to the normal atmospheric content of 21percent – lower in the case of severe pollution.”

यह वाली खबर पढ़ कर मुझे कोई ज़्यादा हैरानी नहीं हुई क्योंकि कुछ इस से मिलती जुलती खबर मैंने एक-दो साल पहले भी कहीं पढ़ी थी। इस में यह भी बताया गया है कि कैनेडा से कैलीफोर्निया और ब्रिटेन से जापान...तक फैलते हुये ये ऑक्सीजन बॉर अब फ्रांस में भी कईं जगहों पर खुल गये हैं...इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए इस तरह का पहला बॉर कल पैरिस के बहुत ही फैशुनेबल इलाके में खुला है, जिस से ही संबंधित यह खबर लगी थी।

इस देश में तो जब किसी को ऑक्सीजन लगती है ना तो सारे सगे-संबंधी अपना खाना-पीना भूल जाते हैं। लेकिन यह फैशन देखिए कि लोग रिलैक्स होने के लिए, तनाव-मुक्त होने के लिए इन ऑक्सीजन बॉर में जा रहे हैं....जो कि नाइट-क्लबों में, हैल्थ-क्लबों में, हवाई-अड्डों पर, और यहां तक कि ट्रेड-फेयरों में एक अच्छा-खासा बिजनैस बन रहा है। इस दौरान इन्हें कम से कम दस मिनट तक ऑक्सीजन सूंघाई जाती है।

हां, एक बात याद आई.....कि मैं जिस किसी न्यूज़-रिपोर्ट को पहले से पढ़ने की बात कर रहा था, इस के संबंध में मुझे कुछ कुछ याद आ रहा है कि शायद उस में मैंने पढ़ा था कि ऐसा ऑक्सीजन बार अहमदाबाद में भी खुल गया है।

वैसे एक तरह से देखा जाये तो जिस तरह की प्रकृति के साथ दूसरी सब तरह की पंगेबाजी हो रही है, यह ऑक्सीजन बार वाली बात तो कोई इतनी बड़ी नहीं कि इसे इतना तूल दिया जाये। लेकिन , नहीं , हमारे देश में इसे तूल दिया जाये दिया ही जाना चाहिए......क्यों कि इस तरह की ऊल-जलूल प्रणालियों की हमें कोई ज़रूरत ही नहीं है।

हमारे पास तो भई इस से भी कईं गुणा (हज़ारों गुणा !) बेहतर विकल्प है .....हज़ारों साल पुराना हमारे ऋषियों-मुनियों द्वारा सिद्ध किया हुया प्राणायाम्। यह जो प्राणायाम् है न यह पूरी तरह से वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित है क्योंकि जब हम प्राणायाम् करते हैं तो हमारे शरीर में इस प्राण-ऊर्जा की सप्लाई कईं गुणा तक बढ़ जाती है जिस की वजह से हम सारा दिन बहुत चुस्ती-स्फूर्ति अनुभव करते रहते हैं। अगर हम नियमित प्राणायाम करते हैं तो हमें अनगिनत लाभ प्राप्त होते हैं।
लेकिन मैं यह समझता हूं कि प्राणायाम की विधि हमें कहीं से व्यक्तिगत रूप से सीखनी चाहिए क्योंकि यह एक बहुत ही सटल(subtle science)वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिस को अगर पूरी निगरानी से न सीखा जाये तो इस का वांछित प्रभाव तो दूर किसी उल्ट प्रभाव का भी अंदेशा लगा रहता है।

मैंने यह सब कुछ बंबई में रहते हुए एक पंद्रह दिन के कार्यक्रम के दौरान सीखा था। यह सिद्ध समाधि योग कार्यक्रम है, जो कि ऋषि संस्कृति विद्या केन्द्र नामक संस्था करवाती है जो कि अडवर्टाइजिंग में विश्वास नहीं करती है....इस के संस्थापक हैं ब्रह्मर्षि ऋषि प्रभाकर जी, जो कि स्वयं एक ऐरोनॉटिक्ल इंजीनियर हैं और जिन की कईं सालों की तपस्या का फल है यह प्रोग्राम...सिद्ध समाधि योग प्रोग्राम ( Siddha Samadhi yoga programmes run by Rishi Samskruti Vidya Kendra with its headquarters at Bangalore.. www.ssy.org) इन के सेंटर विभिन्न शहरों में हैं।
वास्तव में यह प्रोग्राम कर लेने के बाद से तो मेरी जिंदगी में बहुत बदलाव आये थे। कुछ साल तक तो मैं नियमित सब कुछ प्रैक्टिस करता रहा ...लेकिन काफी लंबे अरसे से बस हर किसी को ज़्यादा उपदेश देता रहता हूं लेकिन खुद नहीं करता हूं जब कि मुझे इतना भी पता है कि इस का नियमित अभ्यास करने से ज़्यादा कोई और चीज़ मेरे लिए इतनी ज़रूरी नहीं है। लेकिन अब जब से इस ऑक्सीजन बार वाली खबर पर नज़र पड़ी है ना , तो बस मन ही मन ठान लिया है कि अब फिर से इस का अभ्यास दोबारा शुरू करूंगा। पता नहीं हम डाक्टर लोग खुद के लिए क्यों इतने लापरवाह होते हैं। शायद हम अपनी सलाह खुद नहीं मानना चाहते ...अपने आप से पूछ रहा हूं कि कहीं वही वाली बात तो नहीं है....हलवाई अपनी मिठाई खुद नहीं खाता। लेकिन जो भी यह सब कुछ ---प्राणायाम् इत्यादि ---तो जल्द से जल्द शुरू करना ही होगा....वज़न बढ़ रहा है, और कुछ खास शारिरिक श्रम करता नहीं हूं।

और हां, वह अपनी ऑक्सीजन बार तो कहीं बीच में ही रह गई। उस हिंदु अखबार की रिपोर्ट में यह भी लिखा था कि चूंकि इस तरह की ऑक्सीजन का प्रयोग सामान्यतः अस्पताल में तो एक दवाई की तरह होता है ( विशेषकर सांस लेने में कठिनाई के मामलों में), इसलिए इस तरह के ऑक्सीजन बारों को भी कंट्रोल करने की बात छिड़ी हुई है।
तो चलो, बीयर बॉर के मुद्दे से पूरी तरह फारिग हुये बिना अपनी बलोग्स में इस ऑक्सीजन बार के बारे में हमें आने वाले दिनों में खूब लिखने को मिलेगा.......वैसे तो मेरी प्रार्थना यही है कि ये आक्सीजन बार हमारे यहां तो न ही आयें तो बेहतर होगा......इस मामले में हम वैस्टर्न के लोगों से जितना पीछे ही रहें उतना ही बेहतर होगा। लेकिन मेरे सोचने से क्या हो जायेगा.....अगर आने वाले समय में इन ऑक्सीजन बारों की भरमार होनी है तो इन्हें लोगों को शुद्ध ऑक्सीजन का लुत्फ़ उठाने के लिए उकसाने से भला कौन रोक सकता है ?

रविवार, 17 फ़रवरी 2008

वैधानिक चेतावनी का ढोंग.......!

“ यह तम्बाकू चबाने में खुशज़ायका है और बेजरर है। दांतों को पायरिया से बचाता है। मुंह में खुशबू पैदा करता है।” एक पाउच पर यह लिखा हुया है तो कोई दूसरा पाउच चीख-चीख कर यह कह रहा है…… “फिल्टर तम्बाकू पाउच अपने होंठ के बीच में रखें और चैन से मज़ा लें( चबायें नहीं)”। ये तो कुछ उदाहरण मात्र हैं कि किस तरह से इन विनाशकारी उत्पादों की मशहूरी की जाती है। काश, उस के साथ यह भी लिखा होता कि होंठ के बीच में रखें और फिर होंठ के भयानक कैंसर से बच कर दिखायें।

मैंने लगभग 65 -70 पान-मसालों, गुटखों एवं तम्बाकू के पाउचों का अध्ययन किया है...जिन में से केवल चार-पांच तंबाकू के पाउचों पर वैधानिक चेतावनी हिंदी में लिखी पाई। कितने अफसोस की बात है कि इस विशाल देश में जहां बहुत ही कम लोग अंग्रेज़ी जानते हैं , वहां इतनी बड़ी जानकारी जिन का उनकी सेहत से सीधा संबंध है अंग्रेज़ी में ही उपलब्ध करवाई जा रही है। क्या इस तरफ़ किसी एऩजीओ का ध्यान नहीं गया ?....शायद आप मेरी बात से सहमत होंगे कि इस तरह की चेतावनी इस देश में केवल अंग्रेज़ी में ही लगा देने से कुछ होने वाला नहीं है।

चलिए, एक बात यह भी मान लें कि क्या ग्राहक को वैसे नहीं पता कि इस तरह के सभी उत्पाद उस की सेहत के साथ उत्पात ही मचाते हैं। लेकिन जब वैधानिक चेतावनी का प्रावधान है तो फिर ये कंपनियां आखिर क्यों इस की धज्जियां उड़ाने पर उतारू हैं। क्यों नहीं लिखतीं यही बात ये हिंदी में ...जब कि कईं पाउचों पर तो इन का ट्रेड-नेम तो आठ-दस भारतीय भाषाओं में भी लिखा होता है। अंदर की बात तो यही है कि ये नहीं चाहतीं कि ग्राहक यह सब पढ़ सके, समझ सके........क्या पता कभी उस पर लिखी चेतावनी अगर उस की भाषा( कम से कम राष्ट्रीय भाषा में )में ही हो तो वह इसे पढ़ कर इसे छोड़ने के लिए ही मन बना ले या किसी अनपढ़ बंदे को उस का प्राइमरी कक्षा में पढ़ रहा बच्चा जब इस चेतावनी के बारे में हिंदी में पढ़ कर सुनाए तो.......। लेकिन इन सब से इन कंपनियों को क्या लेना देना.....भाड़ में जाये लोगों की सेहत, इन का पाउच एक रूपये में बिक गया तो बस इन का मिशन पूरा हो गया।

एक तंबाकू के उत्पाद के ऊपर तो यह भी लिखा था कि इसे गोल्ड-मैडल मिला हुया है....अब यह पता नहीं किस सिरफिरे ने इस तरह के उत्पाद को गोल्ड-मैडल देने की हिमाकत की होगी जो कि हर साल करोड़ों कीमती जानें लील लेता है।

इस तरह के कईं प्रोडक्ट्स पर एक स्क्वेयर के अंदर एक हरा सा बिंदु देख कर दुःख भी हुया और हंसी भी आई। कंपनी यह चिल्ला रही है कि यह शाकाहारी है...लेकिन ज़हर शाकाहारी हो या मांसाहारी इस से आखिर फर्क क्या पड़ता है।
इतने सारे प्रोड्क्ट्स पर इस चेतावनी को देखने पर यही पाया है कि इस में भी बहुत से लूप-होल्स हैं..... इस चेतावनी को पैकिंग पर बहुत ही छोटे से साइज़ में लिखा होता है और वह भी अंग्रेज़ी में, सब के सब पान-मसाले गुटखे के पैकेटों पर इन्ग्रिडिऐन्ट्स को ही हमेशा मैंने छोटे-छोटे फोंट में अंग्रेज़ी में ही लिखे पाया। बस, सीधी सी बात यह है कि इनके ये उत्पादक यह चाहते हैं कि किसी तरह से ग्राहक कुछ पढ़ ही न पाये ।

और यह एक उत्पादक ने तो यह लिखवाया हुया है कि 100% शुद्ध देशी गुटखा....अब इस को कौन समझाये कि तू काहे इतना शुद्धता के लिए परेशान हो रहा है। इस से क्या ज़हर का असर कम हो जायेगा। और एक मजेदार बात और भी है कि बहुत से पाउचों पर उन के मालिकों की सूट-टाई गाड़े हुए फोटो देख कर बहुत अजीब लगता है कि अमां, तुम काम कौन सा कर रहे हो और फिर भी लाइम-लाइट में रहने के इतने लालायित क्यों हो भई।
लाइम-लाइट में तो वैसे भी यह रह ही लेते हैं...किसी बड़े समारोह को स्पोंसर कर के, या किसी धार्मिक समारोह में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेकर ये बेगुनाहों को अंधी गली में धकेलने से कमाये हुये पाप की गठड़ी थोड़ी हल्की करने की कोशिश कर के मन को क्षणिक तसल्ली दे लेते हैं।

लेकिन मैं यह सब चीख चीख कर क्यों परेशान हो रहा हूं......क्यों कि चीखना मेरा कर्म है......क्या पता किसी एक के भी मन को मेरी बात लग जाये और क्या पता इस केस में भी स्नो-बॉल इफैक्ट हो जाये। इँशा-अल्लाह.........आप भी लगे हाथों कह ही दें......आमीन !!!!

शनिवार, 16 फ़रवरी 2008

टिप्पणीयों पर टिप्पणी...

बहुत अच्छा, ठीक है, बहुत बढ़िया,..........हिंदी ब्लोगर्स पार्क में घूमते घूमते पिछले कुछ हफ्तों से कुछ ब्लोग्स देखें हैं और बहुत सी टिप्पणीयां देखी हैं। इन सब को देखने के बाद मेरे मन में कुछ विचार आ रहे है। पता नहीं ये विचार कितने सिल्ली हों, लेकिन मैंने तो अपनी स्लेट पर इन्हें लिखने का फैसला कर लिया है। जो कुछ भी इन टिप्पणीयों के बारे में मेरे मन में है, वह इस तरह से है......
मार्ग-दर्शक टिप्पणीयां....मुझे याद है जब मैंने हिंदी ब्लोगरी में नया नया पांव रखा था, तो मुझे शास्त्री जी की कुछ इस तरह की ही टिप्पणीयां मिलीं......जिन्होंने मेरा मार्ग-दर्शन किया—जैसे कि उन्होंने मुझे फोंट और टेंप्लेट के बारे में बताया। और मैंने उन्हें माना भी, इसलिए मैं चाहे कभी भी कितना भी इस हिंदी ब्लोगरी में पुराना हो जाऊं, मैं हमेशा इन्हें याद रखूंगा कि जब मैं इस पार्क में चलना सीख रहा था तो किसी ने मेरी उंगली पकड़ी थी।
उत्साह-वर्धक टिप्पणीयां.....इस प्रकार की टिप्पणीयां मुझे बहुत से लोगों से मिलीं...विशेषकर ज्ञानचंद पांडेय जी, रेडियोवाणी के यूनुस जी की टिप्पणीयां शुरू शुरू में ब्लोगर्स का हौंसला बहुत बुलंद करती हैं।


.........................................मैं तो फिर एक बार लिखना शुरू करता हूं तो फिर यह भी ध्यान में नहीं रखता कि पढ़ने वालों पर भी थोड़ा रहम करना चाहिए। सो, अब इस तरह की श्रेणीयां लिखना लिखना बंद कर रहा हूं और सीधा अपनी बात पर आता हूं।
भई, मै तो टिप्पणी उस को ही समझता हूं कि जिसे लिखे बिना आप भई बस रह ही न सको । जिस लिखने में हमें कभी आलस्य न आए, .....न इस तरह का बोझ महसूस हो कि यार अब कौन इस टिप्पणी को लिखने के लिए उस फार्म पर अपना यूज़र नेम भरे, कौन यूआरएल भरे.......बस, जब इस तरह का आलस्य मन में आये तो समझना चाहिए कि हम दिल से उस ब्लोगर को कुछ कहना चाह ही नहीं रहे हैं। हम तो बस यही बताना चाह रहे हैं कि भई हमने तो तुम्हारी पोस्ट पढ़ ली है, तुम भी हमारी पढ़ा करो और टिप्पणी दिया करो। वैसे ऐसा करना अपने आप को किसी बंधन में कैद करने जैसा लगता है। मुझे कुछ कुछ याद आ रहा है कि कुछ दिन पहले ही श्री सुरेश चिपलूणकर जी के ब्लोग पर एक बहुत ही बढ़िया पोस्ट थी जिस पर कुछ बातें कहीं गईं थीं कि अपनी ब्लोग को कैसे पापुलर बनाया जाये...उस में कुछ इस तरह की भी बहुत सुंदर सी बात कही गई थी कि आप चाहे किसी की पोस्ट पढ़ो या नहीं, सीधा पेज खुलने पर टिप्पणी पर क्लिक मारो, और दिन में ऐसी कईं टिप्पणीयां दे मारो । वैसे कईं एक-दो या कुछ शब्दों की टिप्पणीयों से कईं बार कुछ ऐसा ही लगता है।
वैसे मैं तो सोचता हूं कि टिप्पणी वह हो , जो या तो बलोगर की किसी ताकत को निकाल कर बाहर लाये, उसे बताए कि तुम्हारी ब्लोग की या पोस्ट में मुझे ये ये बातें बहुत पसंद हैं, ये ये बातें हमारे मन को छू जाती हैं। या टिप्पणी वह भी है जो कि ब्लोगर को गाइड करें कि वह अपनी कमियों को किस तरह से दूर करे या उस के मन में कुछ शंकाएं हैं तो टिप्पणीकार उन का निवारण ही कर डाले।
मुझे शुरू शुरू में इस कमैंट्स माडरेशन के बारे में कुछ शंकाएं थीं, एक दो पोस्टें भी लिखीं...लेकिन एक बार तरूण जी( निठल्ला चिंतन बलोग ) ने ऐसी एक टिप्पणी भेज कर ऐसी तसल्ली करवा दी कि दोबारा फिर कभी ऐसी शंका उत्पन्न ही नहीं हुई । लेकिन मुझे वह अपराध-बोध हमेशा सताता रहेगा कि जब मेरी तो तसल्ली हो गई, लेकिन मैंने तुरंत उस पोस्ट को और टिप्पणी को डिलीट कर दिया.....यह गिल्टी-कांशिय्सनैस तब और भी बढ़ गई जब मेरा पांचवी कक्षा में पढ़ रहे बेटे ने अगले दिन मुझे यह कहा कि पापा , आप को ऐसा तो नहीं करना चाहिए था। ( हां, वह अपना हमराज़ ही है, नैट पर कुछ भी करते हुए सारा समय साथ ही बंध कर जो बैठा रहता है) मेरे पास उस की बात का कोई जवाब नहीं था, लेकिन मैंने उसे इतना एश्यूर कर दिया कि बेटा, सॉरी, अब कभी आगे से ऐसा नहीं करूंगा।
पिछले कुछ दिनों पहले संजय तिवारी की विस्फोट ब्लोग पर उन की (तरूण )एक और टिप्पणी देख कर मन बहुत खुश हुया जिस में उन्होंने लिखा था कि आप लोग अपनी बलोग को एक डॉयरी की तरह ही क्यों नहीं लिखते हो, वैसे तो ब्लोग का सही मतलब भी तो यह है।
तो, मेरा इतना ही अनुग्रह है कि जब किसी को भी टिप्पणी हम दें तो शब्दों को दिल खोल कर इस्तेमाल करें....न टाइम की परवाह करें, और ना ही किसी और चीज़ की.....बस उस समय तो केवल अपनी बात उस बलोगर तक पहुंचाने की ही हमें फिक्र हो। पता नहीं हमारी उस टिप्पणी ने क्या काम करना होता है। यह तो भई एक वार्तालाप है ,अगर हम दिल से नहीं करेंगे, तो कैसे कुछ असर होगा। नहीं होगा ना, तो फिर आज से टिप्पणी भी पूरे दिल से दिया करेंगे। अच्छा पता सब को बहुत ही जल्दी लग जाता है कि यह टिप्पणी सुपरफिशियल है या मन से निकली आवाज़ है......देखो, भई, कोई भी मांइड तो करे नहीं , लेकिन बहुत ही ब्रीफ सी टिप्पणी पढ़ कर मज़ा नहीं आता। अगर किसी बात की तारीफ करनी है तो खोल कर करें ,ताकि ब्लोगर को अच्छा लगे, और अगर उस को किसी कमियों , खामियों से अवगत करवाना है तो भी पूरे विस्तार से करें ताकि उस को यह आभास भी न हो कि बिना जगह टांग ही खींची जा रही है,......उस को कुछ यूज़फुल टिप्स बताये जायें। मैंने जो कुछ हफ्तों में देखा है वह यही है कि हिंदी बलोग्री में ज्ञान का भरपूर भंडार है....एक से एक विद्वान हैं...इसलिए हमें एक दूसरे से बहुत कुछ सीखना है.......यह कोई अंग्रेजी भाषा की तरह कोई ठंडा सा माध्यम नहीं है, यहां पर सब लोग बहुत गर्मजोशी से मिलते हैं, बाते करते हैं और टिप्पणीयां देते हैं।
लेकिन मुझे समझ नहीं आता कि हम लोग एक दूसरे को कोई संबोधन करते हुए क्यों झिझकते हैं, डरते हैं या ऐसे ही अंग्रेज़ी बलोगरी की परंपराओं का पालन करना ही अपना धर्म समझ बैठे हैं।यह बात सोचने की है। मैं भी शुरू शुरू में बहुत इस्तेमाल किया करता था...दोस्तो, ..लेकिन अब मैंने भी अपने आप पर कंट्रोल कर लिया है कि मैं ही क्यों यह दोस्तो , दोस्तो पुकारता रहता हूं... मैं इस के द्वारा हिंदी ब्लोगरी की तैयार हो रही नींवों को सारे विश्व में कमज़ोर तो नहीं कर रहा, सो मैंने अब यह दोस्तो, वोस्तो लिखना बंद कर दिया है। वैसे मैं तो भई आप की तरह ही ...वसुधैव कुटुंबकम् ..का ही पक्षधर हूं।
तो चलिए हिंदी बलोगरी की नींवों को बिना किसी तरह की कन्वैंशन्ज़ को फॉलो करते हुए अपने नये ढंग से रखें।

बुधवार, 13 फ़रवरी 2008

यह फूला हुया गुब्बारा पेट में क्या कर रहा है ?

आप्रेशन के दौरान गलती से पेट में कोई सर्जीकल औजार, छोटा-मोटा तौलिया या कोई गाज़-पीस(पट्टी) की खबरें कभी कभी मीडिया में देखने-सुनने के बाद आप का इस पेट में पड़े हुए गुब्बारे के बारे में इतना उतावलापन भी मुनासिब जान पड़ता है।
                                                


लेकिन यहां पर जिस गुब्बारे की बात की जायेगी वह फूला हुया गुब्बारा तो जान बूझ कर किसी बंदे की भलाई के लिए ही उस के पेट में छोड़ा जाता है......जी हां, बिल्कुल उस के फायदा के लिए ही इसे पेट में पहुंचाया जाता है ताकि उस बंदे का वज़न कम हो सके। अब तो मोटापे को कम करने के लिए गोलियां चल पड़ीं हैं, शरीर के कुछ हिस्सों से वसा को सर्जरी के द्वारा निकाल दिया जाता है (liposuction), और यहां तक कि पेट का आप्रेशन कर के उसे छोटा कर दिया जाता है । शायद अब पेट में बस गुब्बारे छोड़ने की ही कसर बाकी थी।(कहीं वह पेट में चूहे दौड़ने वाली कहावत बदल कर आने वाले समय में बदल कर पेट में गुब्बारे फूट रहे हैं ...ही न हो जाये)... चलिए इस के बारे में थोड़ी जानकारी हासिल करते हैं।
सिलीकॉन के इस पिचके हुए गुब्बारे को मरीज के शरीर में दूरबीन के द्वारा( endoscope) उस के पेट में डाला जाता है, उस के तुरंत बाद इस खाली गुब्बारे में एक कैथीटर( एक तरह की ट्यूब) की मदद से लगभग आधा लिटर नार्मल सेलाइन (जिस में थोड़ी कलर्ड-डाई मैथिलिन ब्लयू मिला दी जाती है) भर दिया जाता है। जब गुब्बारे में वह तरल पदार्थ भर जाता है तो डाक्टर द्वारा उस कैथीटर को बहुत ही आराम से बाहर निकाल लिया जाता है। इस गुब्बारे में एक इस तरह का वॉल्व होता है जो कि स्वयं ही बंद हो जाता है, और यह गुब्बारा पेट में फ्लोट करना शुरू कर देता है। इस सारे काम को करने में 15-20 मिनट का समय लगता है और एक रिपोर्ट के अनुसार ऐसे चालीस केस बंबई में किए जा चुके हैं जिस पर लगभग सत्तर से नब्बे हज़ार रूपये का खर्च आने की बात कही गई है।
अब प्रश्न जो उठता है वह यही है कि यह पेट में घूम रहा पानी से भरा गुब्बारा आखिर कैसे करेगा बंदे का वज़न कम। दरअसल जब यह गुब्बारा पेट में होता है तो पेट के तीन-चौथाई हिस्से में तो यही चहल-कदमी करता रहता है, ऐसे में मरीज़ पहले से एक-चौथाई खाना खा लेने पर ही संतुष्टि अनुभव कर लेता है। सीधा सा मतलब यही हुया कि यह मरीज को कम खाने में मदद करता है जिस से छःमहीने में उस का वज़न 10-15किलो घट सकता है।
इस गुब्बारे को छःमहीने बाद पेट से दूरबीन की मदद से निकाल दिया जाता है। पेट के अंदर मौजूद एसिड्स इस सिलिकॉन के गुब्बारे को कमज़ोर कर देते हैं जिस के कारण वह कभी भी अंदर लीक हो सकता है। वैसे तो कंपनी की वेब-साइट पर तो यह लिखा है कि ऐसा होने पर यह टायलैट के रास्ते बाहर निकल जाता है लेकिन कईं कईं केस में इस कंडीशन में इस पिचके हुए गुब्बारे को आंतड़ियों से बाहर निकालने के लिए आप्रेशन भी करना पड़ा है।
वैसे तो सामान्य हालात में इस को जब छःमहीने बाद पेट से निकाला जाता है तो दूरबीन की मदद से ही आसानी से निकाल दिया जाता है और इस को बाहर निकालने से पहले इस को पंचर कर दिया जाता है जिस से यह पिचक जाता है और एंडोस्कोप की मदद से आसानी से मुंह के रास्ते बाहर निकाल लिया जाता है।
वैसे तो जब इस गुब्बारे को पेट में छोड़ा जाता है तो मरीज़ को यह अच्छी तरह से समझा दिया जाता है कि अगर आप के पेशाब का रंग कभी भी नीला लगे तो डाक्टर को तुरंत सूचित करें....इस का मतलब यही होता है कि यह गुब्बारा लीक हो गया है और फिर इसे किसी भी समय दूरबीन से निकाल दिया जाता है।
जब इस गुब्बारे को पेट में छोड़ा जाता है तो शुरू शुरू में मरीज़ को एडजस्ट होने में दो-तीन दिन लगते हैं......मरीज़ को शुरू शुरू में थोड़ा उल्टी जैसा लगता है जो कुछ दिन में ठीक हो जाता है। इस के साथ साथ जब तक मरीज़ के पेट में यह गुब्बारा रहता है तब तक पेट में एसिड की मात्रा को कंट्रोल करने के लिए दवाईयां भी लेने पड़ती हैं। और आहार में भी संतुलित के साथ साथ कुछ संयम बरतने को कहा जाता है।
इस विधि द्वारा वज़न कम करने की भी अपनी सीमायें हैं। क्योंकि अगर गुब्बारा पेट से निकालने के बाद अगर खाने-पीने एवं शारीरिक श्रम जैसी महत्त्वपूर्ण बातों की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता है तो बंदे का वज़न वापिस बढ़ जाता है। दूसरा यह है कि इस वज़न कम करने वाली विधि का उपयोग कईं बार उन मरीज़ों में किया जाता है जो इतने ही ज्यादा स्थूल हैं कि वे अपनी दिन-चर्या करने में ही असमर्थ हैं और कईं बार तो बहुत ही ज़्यादा वज़न वाले व्यक्तियों को किसी आप्रेशन के लिए तैयार करने से पहले भी इस विधि के द्वारा उनका वज़न कम किया जाता है ताकि उन की सर्जरी सेफ एंड साउंड तरीके से की जा सके---कम से कम उस सर्जरी से संबंधित रिस्क तो कम किये जा सकते हैं।
अब यह तकनीक तो हमारे देश में भी आ ही गई है, लेकिन मैं यही सोचता हूं कि इस गुब्बारे को पेट डलवाने की भी कहीं होड़ सी न लग जाये.....पूरी तरह अच्छी तरह सोच समझ कर , सैकेंड ओपिनियन लेकर ही इस तरह का फैसला लेने में ही समझदारी है। वैसे भी संतुलित आहार, रैगुलर रूटीन एवं नियमित व्यायाम का तो अभी तक कोई विकल्प मिला ही नहीं है।

रविवार, 10 फ़रवरी 2008

हिंदी अखबारों में छपने वाले इस तरह के भ्रामक विज्ञापन...


हार्ट अटैक से बचाव के लिए पेट गैस और एसिडिटि की रोकथाम जरूरी होती है....यह तो है शीर्षक हिंदी के जाने-माने अखबार में छपे आज एक विज्ञापन का। उस के साथ ही किसी डाक्टर का मोबाइल नंबर दिया गया है जो यह सब कुछ कह रहा है। आगे लिखा है कि अम्लपित्त या Acidity के कारणों में शराब, तम्बाकू, पान मसाला, हार्मोन, स्टीरॉयड व दर्द नाशक गोलियों को डा.......गिनते हैं जो कि ......सीरप के पीने से नियंत्रण में रहते हैं। डा..........जड़ी-बूटियों से बनी ......सीरप के प्रयोग की सिफारिश करते हैं उन लोगों को भी जो जंकफूड, स्नैक्स, गोलगप्पे, पिज्जा, बर्गर, चाउमीन खाने के बाद सिरदर्द, आन्तड़ियों व गुर्दों की तकलीफों पेट की जलन गैस से परेशान होते हैं...........................
मीडिया डाक्टर की टिप्पणी --- मैंने इस विज्ञापन की आधी से भी ज़्यादा डिटेल्स नहीं लिखी हैं क्योंकि ऐसे विज्ञापन पढ़ कर मेरा सिर फटने लगता है। मैं समझता हूं कि ऐसे विज्ञापन केवल गुमराह करते हैं। डाक्टर होने के साथ-साथ पत्रकारिता से भी जुड़े होने के नाते मैं यह भी अच्छी तरह से समझता हूं कि मेरी ब्लोग की पहुंच तो केवल अच्छे-खासे पढ़े-लिखे सौ-पचास लोगों तक ही होगी, जो कि शायद मेरे द्वारा कही गई ज़्यादातर बातें पहले ही से जानते होंगे, लेकिन ऐसे भ्रामक विज्ञापनों की पहुंच बहुत दूर दूर तक है। विशेषकर मुझे चिंता है उस वर्ग की जो सड़क के किनारे बने एक चाय के खोखे में ये अखबारें पढ़ते हैं। आप ने भी तो देखा ही होगा कि किस तरह बहुत से मज़दूर, रिक्शा चालक अथवा छोटी-मोटी रेहड़ी लगाने वाले सारी अखबार का एक एक पन्ना आपस में बांट कर किस तरह एक अखबार का गर्मा-गर्म चाय के साथ मज़ा लूट रहे होते हैं। यही वर्ग सब से ज्यादा ऐसे लुभावने विज्ञापनों की चपेट में आ जाता है।
मैं पिछले चार-पांच वर्षों से इस तरह के विज्ञापनों के पीछे ही पड़ा हूं....लेकिन अभी तक कुछ कर नहीं पाया हूं...पता नहीं आगे चल कर भी कुछ कर पायूंगा या ....। सबसे पहले तो मैंने अखबारवालों को खूब लिखा कि आप ऐसे विज्ञापन क्यों छापते हैं.....लेकिन कुछ नहीं हुया। फिर मैंने नोटिस किया कि वो तो बड़ी चालाकी से एक चेतावनी सी छपवा कर पल्ला झाड़ लेते हैं। खूब फैक्स किए, खूब पत्र लिखे, खूब ई-मेल भेजीं.......लेकिन कुछ भी टस से मस न हुया। इन से संबंधित कुछ लेख भी भेजे, लेकिन वो भी शायद रद्दी की टोकरी के सुपुर्द ही हो गये होंगे......यह तो होना ही था । विज्ञापनों के स्तर को कायम रखने वाली एक संस्था को भी बहुत बार लिखा....उन को जब ई-मेल भेजता, तो कहते थे कि चिट्ठीयों में सब कुछ प्रूफ के साथ भेजें ...सब कुछ किया.....इन के भेजने में काफी पैसा और समय भी नष्ट किया........लेकिन रिज़ल्ट ज़ीरो.....ज़ीरो ...सिर्फ ज़ीरो। उस संस्था की कार्य-प्रणाली इतनी पेचीदा लगी कि मैंने वह सब लिखना भी बंद कर दिया क्योंकि मुझे कुछ महीनों में ही यह आभास हो गया कि कुछ भी नहीं होने वाला ...सब कुछ ऐसे ही चलने वाला है.......बस, अपना ही माथा फोड़ने वाली बात है।
इन सब से परेशान हो के बैठा ही था कि बेटा ने आवाज़ लगा दी कि बापू, अब तू हिंदी में ई-मेल भी भेज पायेगा, चिट्ठी भी लिख पायेगा.........बस, उसी दिन से इस ब्लोगिंग के चक्कर में पड़ गया हूं.....क्योंकि यह तो मुझे भी बहुत अच्छी तरह से पता है कि अकेला चना भाड़ कभी नहीं फोड़ सकता , लेकिन अब जो कुछ भी मन को कचोट रहा है उस को इस ब्लोग के ज़रिये प्रकाशित करने की छूट तो है। अब तो बस उसी चीनी कहावत की याद कर लेता हूं.....A journey of three thousand miles starts with a single step !!.....चीनी ही क्यों, यहां भी तो अकसर लोग कुछ इस तरह की बातें कर के आपस में एक-दूसरे का मनोबल बढ़ाते रहते हैं......
कौन कहता है कि आसमां में सुराख हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।
इन परिंदों को भी मिलेगी मंज़िल एक दिन,
यह हवा में खुले इस के पंख बोलते हैं।
माना कि परिंदों के पर हुया करते हैं,
ख्वाबों में उड़ना कोई गुनाह तो नहीं।
अभी कल-परसों ही पत्रकार संजय तिवारी की जी एक ब्लोग पोस्ट से पता चला कि वे कुछ इस दिशा में करने की इच्छा करते हैं कि मीडिया में आने वाली खबरों की खबर कैसे ली जाए....किस तरह से, किस के पास अपना दुःखड़ा रोया जाये...आप भी उन की वह पोस्ट ज़रूर देखिएगा। मुझे उन का यह आइडिया बहुत पसंद आया।
जाते जाते मैं यह भी बता दूं कि मैंने इस तरह के विज्ञापनों से निपटने का अपना ढंग इजाद कर लिया है.....एक पैन लेकर पहले उस के ऊपर ही अपना दिल खोल कर......., फिर उस को कूड़े के डिब्बे में फैंक देता हूं।

शनिवार, 9 फ़रवरी 2008

हेयर-डाई से होने वाली एलर्जी के बढ़ते केस...


इस सप्ताह के ब्रिटिश मैडीकल जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अब कम उम्र के लोगों में भी हेयर-डाई का इस्तेमाल बढ़ने से इस से होने वाले एलर्जिक रिएक्शन के केस भी बढ़ रहे हैं।

इस से चेहरे की चमड़ी पर सूजन (dermatitis)आ सकती है और कभी कभी तो चेहरा सूज भी सकता है।

रिपोर्ट में यह कहा गया है कि दो-तिहाई हेयर-डाईयों में पैराफिनाइलीनडॉयामीन( para-phenylenediamine…PPD) और उस से ही संबंधित पदार्थ होते हैं। बीसवीं सदी में इस पीपीडी (PPD) से होने वाली एलर्जी एक ऐसा गंभीर समस्या बन गई कि हेयर-डाई में इस के इस्तेमाल पर जर्मनी, फ्रांस एवं स्वीडन नें प्रतिबंध लगा दिया गया।

आजकल प्रचलित यूरोपीय कानून के अंतर्गत हेयर-डाई में पीपीडी की मात्रा 6प्रतिशत तक रखने की अनुमति है। चिंता की बात यह भी है कि इन बालों को स्थायी तौर पर रंग करने के लिए इस पीपीडी का कोई ढंग का विकल्प मिल नहीं रहा है।

चमड़ी रोग विशेषज्ञों के अनुसार पीपीडी युक्त हेयर-डाई के द्वारा पैच-टैस्ट करने पर पाज़िटिव टैस्ट के केसों में लगातार वृद्धि हो रही है। लंदन में किए गये एक सर्वे के अनुसार पिछले छःसालों में इस प्रकार के चर्म-रोग( contact dermatitis) की फ्रिक्वैंसी दोगुनी हो कर 7.1प्रतिशत तक पहुंच गई है। दूसरे देशों में भी इसी ट्रेंड को देखा गया है।

मार्कीट रिसर्च से यह भी पता चला है कि ज़्यादा लोग अब बालों को रंग करने लगे हैं और वह भी कम उम्र में ही। 1992 में जापान में किए गए एक सर्वे से पता चला था कि 13प्रतिशत हाई-स्कूल की छात्राओं , 6प्रतिशत बीस से तीस साल की उम्र की महिलाओं तथा इसी उम्र के 2 प्रतिशत पुरूषों ने हेयर-कलर के इस्तेमाल की बात स्वीकारी थी , लेकिन 2001 तक पहुंचते पहुंचते इन तीनों ग्रुपों का अनुपात 41%, 85% तथा 33% तक पहुंच चुका है।

यहां तक कि हाल ही में बच्चों में हेयर-डाई से होने वाले गंभीर रिएक्शनों की भी रिपोर्टें प्राप्त हुई हैं।

इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अब समय आ गया है जब इन हेयर-डाई की सेफ्टी एवं इन की कंपोज़िशन पर चर्चाएं होनी चाहिएं। चिंता की बात यह भी बताई गई है कि मरीज़ों को इन के दुष्परिणामों का पता होते हुए भी वे इनको इस्तेमाल करने से बाज नहीं आते।

मीडिया डाक्टर की टिप्पणी---- आप ने यह तो देख लिया कि पश्चिमी देशों में इस हेयर-कलर के इस्तेमाल ने कितनी चिंताजनक स्थिति उत्पन्न कर दी है। तो, क्या अपने यहां सब कुछ ठीक ठाक है....बिल्कुल नहीं। हमें तो यह भी नहीं पता कि जिस मेंहदी को इस देश में इतने चाव से बालों की रंगाई के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, उस में कौन कौन से कैमीकल इस्तेमाल किए जा रहे हैं और कितनी मात्रा में। ब्रिटेन में लोगों को पता तो है कि इस हेयर-कलर में इतनी प्रतिशत पीपीडी है, लेकिन हमें तो कुछ पता भी नहीं......लेकिन ये सब बालों को रंग करने के लिए बिकने वाली मेहंदीयां ( उदाहरणतः काली मेहन्दी के पैकेट) खूब धड़ल्ले से बिक रही हैं। इन में ज़रूर ही कोई कैमीकल मिले होते हैं , अन्यथा मेहंदी कभी (हिंदी फिल्मी गीतों के इलावा) इतना रंग छोड़ती है क्या ....और काली मेहंदी, यह कौन सी बला है , मुझे तो बिलकुल नहीं पता कि यह कहां उगती है, मैं तो यही समझता हूं कि इसे इसी तरह के कैमीकल वगैरह डाल कर ही काला किया होता है। अगर देश में कहीं काली मेंहदी की पैदावार होती है तो मुझे प्लीज़ इस की सूचना दीजिएगा। देश की अधिकांश जनता इन सस्ते उत्पादों से ही काम चला रही है...बस वे इन से होने वाले नुकसानों से अनभिज्ञ हैं या कहूं कि किसी हद तक मजबूर भी हैं।

लेकिन देश में बिकने वाले महंगे हेयर-कलर्ज़ की भी हालत कुछ इतनी अच्छी नहीं है। मैंने एक ऐसा ही बहुत बड़ी कंपनी का पैक देखा है...खूब महंगा भी है। लेकिन डिब्बे पर , पैम्फलेट पर कहीं भी नहीं लिखा कि इस हेयर-डाई में कौन से कैमीकल्स मौज़ूद हैं। केवल ट्यूब के ऊपर बहुत ही चालाकी से अंग्रेज़ी में लिखा हुया है कि इस में पैराफिनाइलीनडायामीन है और साथ में उस की मात्रा बताई गई है। बड़ी इंटरएस्टिंग बात यह है कि पैम्फलेट को तो अंग्रेज़ी के इलावा हिंदी , गुजराती और दक्षिण भारतीय भाषाओं में भी छपवाया गया है, लेकिन यह जो टयूब के ऊपर लिखा है ...पीपीडी वाली बात....यह केवल अंग्रेज़ी में ही लिखी है ( हां, हां, बिल्कुल उस मशहूर सी मच्छर भगाने वाली दवा की पैकिंग की तरह जिस में सारी जानकारी शायद भारत की अधिकांश क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध करवाई जाती है) ...मैं तो इस तरह के पैम्फलेट जब भी देखता हूं तो यही सोचता हूं कि जब इन कंपनियों को अपने ग्राहकों की इतनी फिक्र है( या कहूं कि सेल्स की फिक्र है) तो पता नहीं इन पान मसालों एवं गुटखा बेचने वालों को क्यों वैधानिक चेतावनी ढंग से देते समय क्यों सांप सूंघ जाता है( चलिए , किसी दूसरी पोस्ट में यह पर्दा-फाश भी करूंगा कि किस तरह ये गुटखे-पान मसाले वाले वैधानिक चेतावनी की धज्जियां उड़ा रहे हैं।)

हां, तो बात उस महंगी वाली हेयर-कलर की पैकिंग की हो रही थी , एक मज़ेदार बात यह भी है कि उस की पैकिंग के बाहर ही छोटे छोटे अक्षरों में वैसे यह चेतावनी भी दी गई है कि इस के इस्तेमाल के 48 घंटे पहले आप स्किन एलर्जी टैस्ट ज़रूर कर लें। लेकिन प्रैक्टीकल रूप में देखें तो कितने लोग घर में यह टैस्ट करते होंगे या कितने हेयर-ड्रैसर इस बात को मान कर ग्राहक का टैस्ट कर के उसे 48 घंटे बाद आने की सलाह देते हैं। नहीं हो रहा ना यह सब कुछ, यह तो आप भी मानते हैं । एक चेतावनी और दिखती है कि इन कलर्ज़ को आंखों में न लगने दें, रंग आंखों में लग जाये तो तुरंत गुनगुने पानी से धोयें , इससे अपनी बरौनियों, भौहों को न रंगे क्योंकि इसके ऐसे इस्तेमाल से अंधापन हो सकता है।

चिंता की बात यह भी तो है कि टैलीविज़न में देख-देख कर छोटे छोटे बच्ची –बच्चियां भी अब इन तरह तरह के रंगों के हेयर-कलर्ज़ का इस्तेमाल करने लगे हैं।

तो, अब यह सब कुछ लिखने के पश्चात मेरा सुझाव यही है कि ज्ञान दत्त पांडे जी अपनी बुधवारीय पंकज अवधिया जी की अतिथि पोस्ट में इस हेयर-कलर की कुछ देशी (जड़ी-बूटी पर आधारित) विधियों पर प्रकाश डालें.....हम सब को इस का इंतज़ार रहेगा। आप भी ज्ञान दत्त जी से तथा पंकज अवधिया जी से ऐसा आग्रह कीजिए।

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008

वो टैटू तो जब आयेगा, तब देखेंगे....लेकिन अभी तो....


वो टैटू तो जब आयेगा,तब देखेंगे लेकिन हमें आज ज़रूरत है मौज़ूदा टैटू बनवाने की मशीनों से बचने की।

आज समाचार-पत्रों में यह खबर दिखी है कि टैटू गुदवाने का जो चलन फैशन और स्टाइल के नाम पर ही शुरू हुआ था, अब यह जल्दी ही बीमारियों से बचाव का जरिया भी बन जाएगा। जर्मनी के शोधकर्त्ताओं ने इस बात का पता लगाया है कि टैटू गुदवाने की प्रक्रिया शरीर में दवा के प्रवेश की सबसे असरदार विधा है। खासकर डीएनए वाले टीकों के मामले में यह विधा इंट्रा मस्कुलर इंजेक्शन से कहीं बेहतर है। रिपोर्ट के अनुसार फ्लू से लेकर कैंसर जैसी बीमारियों के इलाज में भी टैटू के जरिए बेहतर टीकाकरण हो सकता है।

विशेष टिप्पणी----- मैडीकल साईंस भी बहुत जल्द आगे बढ़ रही है...दिन प्रतिदिन नये नये अनुसंधान हो रहे हैं। अभी मैं दो दिन पहले ही एक रिपोर्ट पढ़ रहा था कि अब इंजैक्शन बिना सूईं के लगाने की तैयारी हो रही है। तो आज यह पढ़ लिया कि अब टैटू के जरिये भी दवाई शरीर में पहुंचाई जाएगी। यह तो आप समझ ही गये होंगे कि यहां पर उन टैटुओं की बात नहीं हो रही जो बच्चे एवं बड़े आज कल शौंक के तौर पर अपने शरीर के विभिन्न हिस्सों में चिपका लेते हैं और जो बाद में नहाने-धोने से साफ भी हो जाते हैं। लेकिन यहां बात हो रही है उस विधि की जिस का एक बिल्कुल देशी तरीका आप ने भी मेरी तरह किसी गांव के मेले में देखा होगा।

एक ज़मीन पर बैठा हुया टैटूवाला किस तरह एक बैटरी से चल रही मशीन द्वारा बीसियों लोगों के टैटू बनाता जाता है...साथ में कोई स्याही भी इस्तेमाल करता है......किसी तरह की कोई साफ़-सफाई का कोई ध्यान नहीं....न ही ऐसे हालात में यह संभव ही हो सकता है, अब कैसे वह डिस्पोज़ेबल मशीन इस्तेमाल करे अथवा कहां जा कर उस मशीन को एक बार इस्तेमाल करने के बाद किटाणु-रहित ( स्टैरीलाइज़) करे...यह संभव ही नहीं है। ऐसे टैटू हमारे परिवार में किसी बड़े-बुज़ुर्ग के हाथ पर अथवा बाजू पर दिख ही जाते हैं। लेकिन यह टैटू गुदवाना बेहद खतरनाक है......मुझे नहीं पता कि पहले यह सब कैसे चलता था......था क्या, आज भी यह सब धड़ल्ले से चल रहा है और हैपेटाइटिस बी एवं एचआईव्ही इंफैक्शन्स को फैलाने में खूब योगदान कर रहा होगा। लोग अज्ञानतावश बहुत खुशी खुशी अपनी मन पसंद आकृतियां अपने शरीर पर इस टैटू के द्वारा गुदवाते रहते हैं। लेकिन इस प्रकार के टैटू गुदवाने से हमेशा परहेज़ करना निहायत ज़रूरी है।

यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि कि जिस टैटू की इस रिपोर्ट में बात कही गई है, उस की क्या प्रक्रिया होती है। लेकिन मेरी हमेशा यही चिंता रहती है कि जहां कहां भी यह सूईंयां –वूईंयां इस्तेमाल होती हों वहां पर पूरी एहतियात बरती जा पायेगी या नहीं.....यह बहुत बड़ा मुद्दा है, बड़े सेंटरों एवं हस्पतालों की तो मैं बात नहीं कर रहा, लेकिन गांवों में भोले-भाले लोगों को नीम-हकीम किस तरह एक ही सूईं से टीके लगा लगा कर बीमार करते रहते हैं ..यह सब आप से भी कहां छिपा है। पंजाब में भटिंडा के पास एक गांव में एक झोला-छाप डाक्टर पकड़ा गया था जो सारे गांव को एक ही नीडल से इंजैक्शन लगाया करता था ....इस का खतरनाक परिणाम यह निकला सारे का सारा गांव ही हैपेटाइटिस बी की चपेट में आ गया।

बात कहां से शुरू हुई थी, कहां पहुंच गई। लेकिन कोई कुछ भी कहे...जब भी इंजैक्शन लगवाएं यह तो शत-प्रतिशत सुनिश्चित करें कि नईं डिस्पोज़ेबल सूंईं ही इस्तेमाल की जा रही है। मैं तो मरीज़ों को इतना भी कहता हूं कि कहीं लैब में अपना ब्लड-सैंपल भी देने जाते हो तो यह सुनिश्चित किया करो कि डिस्पोज़ेबल सूईं को आप के सामने ही खोला गया है.......क्या है न, कईं जगह थोड़ा एक्स्ट्रा-काशियश ही होना अच्छा है, ऐसे ही बाद में व्यर्थ की चिंता करने से तो अच्छा ही है न कि पहले ही थोड़ी एहतियात बरत लें। सो, हमेशा इन बातों का ध्यान रखिएगा।

आधा लिटर चकुंदर का जूस पीने के लिए कितने चकुंदर चाहिए होंगे ?



आज सुबह से मुझे यह प्रश्न परेशान कर रहा है, क्योंकि आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में उस चकुंदर वाली खबर में यह जानकारी नहीं थी। एक न्यूज़ रिपोर्ट आज की टाइम्स में दिखीं कि प्रतिदिन सिर्फ़ 500 मिली.चकुंदर का जूस पीने से उच्च रक्तचाप घट सकता है ( Researchers from………have discovered that drinking just 500ml of beetroot juice a day can significantly reduce BP)…..अंग्रेज़ी में इसलिए लिख दिया है ताकि आप कहीं यह मत समझ लें कि 500मिली.से पहले मैंने सिर्फ़ अपने आप लिखा है। चौदह वलंटियरों पर यह अध्ययन विलियम हार्वे रिसर्च इंस्टीच्यूट एवं लंदन स्कूल ऑफ मैडीसन में किया गया। अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक के अनुसार बीट-रूट जूस में मौजूद डायटिरि नाइट्रेट की वजह से रक्त का बहाव खुल जाता है...( it’s the ingestion of dietary nitrate contained within beetroot juice that dilates blood flow).
इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि अपोलो हास्पीटल के एक कार्डियोलॉजिस्ट ने इस संबंध में टिप्पणी देते हुए कहा है कि एक टेबलेट ले लेना बीट-रूट(चकुंदर) के जूस निकालने एवं उसे पीने से आसान है। उस ने आगे यह भी कहा है कि इस जूस के पीने से बीपी कुछ समय के लिए कम हो जाता होगा, लेकिन क्या यह मरीज़ की क्लीनिक कंडीशन में सुधार ला सकता है ?...साथ में उन्होंने यह भी कहा है कि एक बीपी कम करने वाली टेबलेट सस्ती भी पड़ेगी।
इस बात का जवाब अध्ययन करने वाली वैज्ञानिक ने कुछ इस तरह से दिया है कि हम यह नहीं कह रहे हैं कि सभी बीपी के मरीज़ों के लिए बीट-रूट(चकुंदर) एक राम-बाण( panacea) है। उन्होंने यह भी कहा है कि उन का अध्ययन आगे भी यह देखने के लिए जारी है कि अगर नाइट्रेस को टेबलेट फार्म में लिया जाए तो क्या फिर भी वे बीपी को कम करने का काम कर सकते हैं। उस अध्ययनकर्त्ता ने यह कहा है कि हम तो कह रहे हैं कि ताजा चकुंदर का जूस भी लाभदायक सिद्ध हो सकता है...थोड़ा-बहुत अगर आप अपनी डाइट में इसे शामिल करेंगे तो इस से आप को बीपी कम करने में मदद मिलेगी।
टिप्पणी...............अच्छी बात है कि लोगों को प्राकृतिक खाने की इस रिपोर्ट से प्रेरणा मिलेगी। वैसे भी तो चकुंदर के बहुत से गुण हैं जिन का हमें लाभ पहुंच सकता है। लेकिन यह आधा लिटर चकुंदर जूस वाली बात कुछ मुश्किल जान पड़ती है...अब रिपोर्ट में यह कहीं नहीं लिखा कि इस अभियान में शामिल होने के लिए कितने चकुंदर चाहिए होंगे.....वैसे तो चकुंदर बाज़ार में कम ही दिखते हैं....ये चकुंदर जो आप इस तस्वीर में देख रहे हैं , ये भी पिछले दिनों Reliance Fresh से खरीदे गये थे......बस ये तो वहां पर ही कभी कभी दिखते हैं।
जो भी हो, लेकिन हम इन चकुंदरों का कम से कम थोड़ा बहुत प्रयोग करना तो शुरू कर ही सकते हैं। अगर आप ने अभी तक कभी इस्तेमाल नहीं किया तो स्लाद के रूप में ही इस का इस्तेमाल शुरू तो करिए.....बहुत फायदेमंद है।
मुझे लोगों से यह आपत्ति है कि एक बार किसी बात को सुन लेते हैं न तो फिर हाथ धो कर उस के पीछे पड़ जाते है....कईं बार कईं शुगर के मरीज़ जामुनों का एवं जामुन के बीजों को भी इस तरह से ही इस्तेमाल करते हैं.....कुछ लोग सब दवाईयां, सब परहेज़ छोड़-छाड़ कर शुगर कंट्रोल करने के लिए बस करेलों का जूस पीने ही में लगे हैं । ठीक है, इन खाद्य पदार्थों का बहुत महत्त्व बताया गया है ....लेकिन यह भी तो नहीं कि बस केवल वही चीज़े खाने से या उन का जूस पी लेने से ही रोग कट जायेगा...आप ऐसा कुछ भी करें तो भी अपने चिकित्सक(किसी भी चिकित्सा पद्धति से संबंधित) के नोटिस में यह बात ज़रूर लाया करें....यह तो बिल्कुल नहीं कि अब मैंने करेले का जूस पीना शुरू कर दिया है , इसलिए अब मुझे शुगर की किसी तरह की दवाईयां खाने की ज़रूरत नहीं है.....ऐसा सोचना भी आत्मघाती है....क्योंकि एक क्वालीफाइड चिकित्सक केवल आप के शुगर अथवा बीपी के स्तर को ही नहीं देखता---उन की निगाह आप के शरीर के विभिन्न अंगों की कार्य-प्रणाली पर भी बनी रहती है कि क्या सारी मशीनरी ठीक ढंग से चल रही है या नहीं। इसलिए इन सब खाने-पीने वाली चीज़ों को एक support के रूप में इस्तेमाल करें , लेकिन फिर भी अपने क्वालीफाइड चिकित्सक को तो नियमित आप को मिलते रहना ही चाहिए।
बात इतनी लंबी हो गई है कि पता नहीं मेरा प्रश्न ही कहां गुम हो गया है कि .......आधा लिटर चकुंदर का जूस पीने के लिए कितने चकुंदरों को जूसर में पिसना होगा.......अगर आप में से कोई इस एक्सपैरीमैंट को करे तो मेरे को ज़रूर बतलाइएगा ताकि किसी मरीज़ के पूछने पर मैं फिर उसे पूरी जानकारी दे सकूं। लेकिन, हां, यहां सब इतना आसान थोड़े ही है ...चकुंदर का जूस तैयार भी हो गया तो भी कईं तरह के वहम-भुलेखे...कुछ कहेंगे कि यह गर्म है , कुछ कहेंगे यह ठंडा है., कुछ कहेंगे ठंडी में नहीं लेना, कुछ कहेंगे यह......कुछ कहेंगे....वह......, लेकिन काम की बात यही है कि है यह चकुंदर बहुत काम की चीज़, जितना इसका इस्तेमाल कर सकते हो कर लिया करें।