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शनिवार, 8 मार्च 2008

वैसे आप के यहां यह ब्राड-बैंड रखा किस कौने में है ?


“ अंकल, आप जाइए, यह आप के काम की चीज़ नहीं है।”—दो-चार दिन पहले जब मैं जयपुर के एक इंटरनेट कैफे पर बैठा अपना कुछ काम कर रहा था तो मेरे सामने वाले एन्क्लोज़र में बैठे दो 13-14 साल के लड़कों के मुंह से निकली इस बात को सुन कर मैं दंग रह गया। हुया हूं कि उस इंटरनैट कैफे का सुपरवाईज़र-सा दिखने वाला वर्कर जब उन के सामने बस थोड़ा अभी खड़ा ही हुया था कि उन दोनों लड़कों ने उसे वहां से यह कह कर हटने के लिये कह दिया कि जो काम वे कर रहे हैं वह उस के काम की चीज़ नहीं है।

लेकिन ये इंटरनैट वाले भी सब कुछ समझते हैं....उन का रोज़ का काम है और पता नहीं कितने ऐसे बच्चों से उन का रोज़ाना पाला पड़ता होगा। शायद वह सुपरवाईज़र उन दोनों बच्चों को जानता था, सो पहले तो उस ने उन दोनों को बहुत गुस्से से बोला कि चलो, तुम लोग चलो यहा से......मैं कहता हूं निकलो यहां से......। लेकिन जब उन बच्चों के कान पर जूं तक न रेंगी तो उस ने झट से अपने जेब से मोबाइल फोन निकाला और उन बच्चों से पूछने लगा कि फोन करूं ?......शायद वह सुपरवाईज़र उन बच्चों के मां-बाप को फोन करने की बात कर रहा था। बस, मुझे यहां तक ही पता है, उस के बाद मेरा ध्यान अपने काम की तरफ़ चला गया......और मुझे नहीं पता कि आगे उन का क्या हुया !

लेकिन उस दिन मैं यही सोचता रहा कि हमारे आज के बच्चे भी कितने आगे निकल चुके हैं.....एक इंटरनैट कैफे के एक कर्मचारी को इस तरह से ब्लंट्ली कह देना कि यह तुम्हारे काम की चीज़ नहीं है ....। और वह भी जब इस तरह की बात 13-14 साल के बच्चों के मुंह से निकल रही हो। यह तो कोई बात ना हुई कि यह आप के काम की चीज़ नहीं है......अब उन बच्चों को यह भी तो समझने की ज़रूरत है कि यह कोई वीडियो गेम पार्लर नहीं है !!

मुझे वैसे यह भी लगा कि इंटरनैट के ऊपर जो अपने लोगों के मन में तरह-तरह के एडवैंचर करने की धुन है ना, यह भी कुछ समय की ही बात है। बहुत जल्द सब कुछ सामान्य सा हो जायेगा। मुझे ध्यान आ रहा है कि ये जो इंटरनैट पर यूज़र्स को कुछ ज़्यादा ही प्राइवेसी उपलब्ध करवाई जाती है, इस का भी थोड़ा दोष ही है...............ठीक है, हरेक को कंप्यूटर पर थोड़ी प्राईवेसी तो चाहिये ही, लेकिन क्यूबिकल्स के आगे परदे टांग देने या शीशे की पार्टिशन्ज़ लगवा देना मुझे ठीक नहीं लगता। वैसे तो इन सब को भी हमें कुछ दिन का मेहमान ही समझना चाहिये...जैसे जैसे इंटरनैट का यूज़ देश में बढ़ेगा इस तरह के मिस-एडवेंचर्ज़ कम होते जायेंगे.........हां, हां, जब किसी चीज़ पर भी ज्यादा अंकुश लगा होता है तो उसे जानबूझ कर ट्राई करने में एक अलग तरह के आनंद की अनुभूति सी होती है.....वो ठीक ही कहते हैं ना “Stolen kisses are always sweeter!!”.....शायद यही आज हमारे यहां इंटरनैट पर हो रहा है।

मुझे ध्यान आ रहा था कि हमारे दिनों में कुछ रैस्टराओं में नवविवाहित युगलों अथवा प्रेमी युगलों के लिये एक दो कक्ष अलग से हुया करते थे.....और उन के बाहर एक परदा( अकसर बहुत गंदा सा) टंगा हुया करता था। अच्छा, आप को भी यह सब याद आने लगा है, अच्छा है। लेकिन आज कल ये परदे टंगे कहां दिखते हैं !.....एक बात और भी है ना कि उस ज़माने में जब हम लड़के लोग कोई सिनेमा देखने जाते थे.........और जब कभी बालकनी की टिकट लेने की हैसियत हुया करती थी तो कोशिश रहती थी कि सब से पिछले वाली पंक्ति में ही बैठा जाये....केवल बस इसलिये कि बॉक्स में बैठने वालों युगलों की एक्टिविटिज़ (सिर्फ़ कानाफूसी का !) का थोड़ा बहुत पता चलता रहे और हम दोस्तों का फिल्म के साथ साथ हंसी-ठट्ठा भी चलता रहे। शायद उस समय तो आंखे केवल दो ही और वह भी मुंह के आगे वाले हिस्से में लगाने के रब के इस मनमाने से लगने वाले फैसले पर गुस्सा भी आता था कि काश दो आंखे पीछे भी लगी होती। वो भी क्या दिन थे......बस हर तरफ मस्ती ही मस्ती, यकीन मानिये, हाल में घुसते हुये इन बाक्सों की तरफ कुछ इतनी हसरत से देखा जाता था कि क्या यहां बैठना हमें भी नसीब होगा.................लेकिन क्या कभी वहां बैठना नसीब हुया कि नहीं........sorry, friends, that I can’t share with you right now….that will be going too far !!... लेकिन आज बॉक्स तो क्या , शहरों में थियेटर ही नहीं दिखते हैं.................हां, तो मैं यही कह रहा था कि यह सब नया नया अच्छा लगता है, रोमांच देता है।

लेकिन इतना मुझे ज़रूर लगता है कि अगर हम अपने घर में इंटरनैट के कनैक्शन को किसी कॉमन जगह...जैसे कि लॉबी वगैरह में रखें तो कुछ तो समस्यायें कम हो ही सकती हैं।क्या है ना, कॉमन एरिया में घर के किसी न किसी सदस्य का आना जाना लगा रहता है जिस की वजह से बच्चों की इंटरनैट एक्टिविटि पर थोड़ा नज़र भी रखी जा सकती है और वे भी कुछ हैंकी –पैंकी देखने या करने से थोडा झिझकते /डरते हैं। वैसे मैं यह भी समझता हूं कि यह कोई फूल-प्रूफ तरीका नहीं है, लेकिन वही बात है ना कि ..something is better than nothing!!.....और हां, अगर यह ब्राड-बैंड कनैक्शन घर की किसी भी कामन जगह पर रखा हुया है तो बच्चे तो क्या, बड़े भी अपने काम से ही काम रखते हैं................हिंदी ब्लोगिंग, ब्लोवाणी, चिट्ठाजगत और ज्यादा से ज्यादा किसी पोस्ट पर टिपियाने के इलावा इस इंटरनैट से कोई सरोकार ही नहीं । कभी भूल से भी कोई एडवेंचर (मिस-एडवेंचर!) करने की कोई चाह ही नहीं होती !!

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2008

ताकि आप के बच्चे की बॉयोलॉजिक क्लाक(biologic clock) ठीक से काम करे....

आप को अकसर यह सोच कर हैरानगी नहीं होती कि जब कभी रोत को सोने से पहले हम यह निश्चय कर लेते हैं कि कल तो सुबह पांच बजे उठना ही है, नहीं तो छःबजे वाली अपनी गाड़ी तो भई छूट जायेगी। और अगले दिन सुबह अकसर आप क्या उठ पाते हैं.....अगर आप वैसे रोज़ाना सात बजे भी उठते हैं तो उस दिन आप यह देख कर बहुत ही हैरान हो जाते हैं कि बिना किसी अलार्म के ही आप पौने-पांच बजे उठ कर बैठ जाते हैं। यह सब कुछ बायोलाजिक क्लाक ही चमत्कार है जो हम सब के अंदर फिक्स है।

तो फिर हम सब के बच्चे सुबह सुबह इतना नाटक क्योंकरते हैं ,क्योंकि हमारे लाड-प्यार की वजह से उन की यह बायोलाजिक क्लाक ठीक से चल ही नहीं रही है। और इस के लिए हम ही दोषी हैं , और कोई नहीं।

आज कल के अधिकांश बच्चों को पता है कि उस की मम्मी या पापा ही उस को सुबह समय पर जगायेंगे। इसलिए वह बेपरवाह हो कर सोया रहता है। इस लिए ही लगभग सभी घरों में रोज सुबह सवेरे नाटक होते हैं क्योंकि बच्चा जागा हुया होते भी उठना नहीं चाहता। वह मस्ती से पड़ा रहता है और स्कूल की बस आने से 15-20 मिनट पहले उठता है ...वह भी लाडले का मां-बाप द्वारा तीन-चार बार झकझोरने के बाद ही....और उस के बाद का सीन देखने वाला होता है....भाग भाग के टॉयलेट....पेट साफ़ हो या नहीं , कोई फर्क नहीं पड़ता, बस 10सैकिंड में ब्रुश और अगले एक मिनट में नहाना -धोना निपट जाता है । कोई पता नहीं बूट पालिश हैं या नहीं.....क्या फर्क पड़ता है....उधर से बैग से कल वाला टिफिन निकालने की आवाज़े आनी शुरू हो जाती हैं. इतने में बच्चे का सिर घूम रहा है कि यार, अब टॉई किस से बंधवाये....ओहो, अभी तो स्कूल के कैलेंड़र पर साइन भी करवाने हैं. पता नहीं कल शाम को जो ड्राइंग -शीट्स मंगवाईं थीं, इस काम करने वाली ने कहां रख छोड़ी हैं......ओहो, रूमाल नहीं मिल रहा......यह क्या, केबल से किसी बढ़िया से गाने की आवाज़ आ रही है......बस ऐसे और भी कईं चीज़े उन 15 मिनटों में एक साथ हो रही होती हैं और यह सब इतनी तेज़ी से हो रहा होता है कि चार्ली चैप्लिन की फिल्म की याद ताज़ा हो आती है। अरे अभी तो उस दूध के गिलास को भी गटकना है....इस समय सारे जागे हुये हैं इसलिए सिंक में भी नहीं फैंक सकता । अरे यह क्या, कंघी ठीक से नहीं हो रही.....तुम अब इस कंघी का पीछा छोड़ो, आज तो तुम्हारी बस समझ ले कि छूट ही जायेगी। और होता भी अकसर ऐसा ही है .....जैसा कि आज मेरे छोटे बेटे के साथ हुया...बस छूटने के कारण सारा दिन घर में ही बैठा रहा।

लेकिन इस में दोष किस का है...मैं तो मानता हूं कि इस में सब से ज़्यादा दोष हम मां-बाप का ही है, एक तो हम अपने बच्चों की दिनचर्या ठीक तरह से डिवेल्प नहीं कर पाते और ऊपर से सुबह उन को यह उठाने की जि़म्मेदारी अपने ऊपर ले लेते हैं। सारी समस्या की जड़ यही है।

तो क्या बच्चों की छुट्टी करवा दें.....हां, हां ,ज़रूर करवा दें....क्योंकि अगर उसे आपने प्रैक्टीकल पाठ पढ़ाना है तो उसे यह छुट्टी करवानी ही होगी। अच्छा आप यही डर रहे हैं ना कि ऐसे तो पता नहीं उस की कितनी छुट्टियां हो जायेंगी...तो होने दीजिए...यकीन मानिए एक-दो दिन के बाद वह रोज़ाना सुबह पांच बजे उठ कर बैठ जाया करेगा...चाहे उसे उस के लिए उसे रात को साढ़े नौ बजे ही सोना पड़े। बच्चे भी कहां घर में रहना चाहते हैं....।
लेकिन अगर आप द्वारा उस को प्रैक्टीकल लैसन देने के बावजूद भी वह सुबह आप के उठाने के बाद ही उठता है तो आप को आप को उस की स्कूल काऊंस्लर से बात करनी होगी...और अगर उस को कोई शारीरिक समस्या है तो आप को किसी पैडीट्रिशियन को दिखाना ही होगा।

इस को आप कभी भी इगनोर न करें...और बच्चों में अपने आप उठने की आदत डालें। आप अपना समय याद करें...क्या आप में से किसी को आप के बाबूजी या मां स्कूल जाने के लिए उठाते थे....नहीं ना, मुझे भी कभी किसी ने नहीं जगाया...स्कूल जाने का चाव ही इतना ज़्यादा हुया करता था कि सुबह सवेरे उठ कर बैठ जाया करते थे। इसलिए मैंने अपने बच्चों को भी कभी सुबह नहीं जगाया......लेकिन मेरी बीवी यह काम
बेहद निष्ठा से करती हैं।मुझे ऐसे सारे अभिभावकों से ( मेरी बीवी सहित) बेहद शिकायत है कि बच्चों को अपने पैरों पर खुद खड़ा होने का मौका तो दें।

अलार्म की मदद-----मैं तो भई इस का भी घोर-विरोधी हूं....क्या है कि उस से सब की नींद खराब हो जाती है। उस का प्रयोग भी कभी कभार या परीक्षाओं के दिनों में ही मुझे तो ठीक लगता है..............वैसे आप का क्या ख्याल है...और हां, अकसर देखा यह भी गया है कि बड़े उत्साह से अलार्म लगाने वाला तो लिहाफ में मज़े से खर्राटे भर रहा है( जिसे देख देख कर गुस्सा आता है) और निर्दोष बंदा रात को साढ़े तीन बजे उठ कर बैठ गया है और सुबह होने का इंतज़ार कर रहा है।

गुरुवार, 13 दिसंबर 2007

जो बच्चे मोटर साइकिल-मोटर कारें चलाते हैं...

मुझे जो बच्चे मोटर साईकिल एवं कारें चलाते हैं...शायद मुझे उन के ऊपर जितना गुस्सा आता है, उस से भी कहीं ज्यादा गुस्सा उन के मां बाप के ऊपर आता है जिन की वजह से यह बच्चा बेलगाम हो गया है. लेखक हूं ..अखबारों के लिए भी लेख लिखता रहता हूं लेकिन पता नहीं यह बलाग लिखते हुए मैं बेहद आजादी सी अनुभव कर रहा हूं ..शायद इसीलिए अपने मन की बात आप से सांझी करने की तीव्र इच्छा सी हो रही है। वह यह है कि जब भी मैं इन छोटे-छोटे बच्चों को इस तरह के वाहन उड़ा कर डरावने से हार्न बजा कर जाते देखता हूं तो मेरी इतनी ज्यादा इच्छा होती है कि मैं पहले तो इसे रोक कर एक करारा सा तमाचा जड़ूं और फिर उन के मां-बाप से बात करूं..
दोस्तो, कृपया यह मत सोचिए कि यह मैं यह इस लिए करने की चाह रखता हूं कि मैं अपने किशोर बेटे के लिए ऐसी गाड़ी की व्यवस्था करने के काबिल नहीं हूं या मैंने सारी पढ़ाई एक साईकिल पर चढ़ कर ही पूरी की है, इसलिए मैं कहीं फ्रस्टरेटिड हूं ..बिल्कुल नहीं मेरी इस नफरत के पीछे केवल एक ही कारण है कि ये बच्चे सड़क पर सीधे-सादे लोगों को आतंकित कर के रखते हैं। दोस्तो, आप जानते हैं कि इस देश में तो वैसे ही फुटपाथ गधे के सींग की तरह गायब हैं, जिस की वजह से बुजर्ग लोगों , पैदल जाने वाले छोटे स्कूली बच्चों को एवं बीमार लोगों को सड़क के बीच चलने का जोखिम तो उठाना ही पड़ता है, इस सब से ऊपर इन बच्चों का आतंक सहने की ज़हमत भी इन्हें उठानी पड़े ,यह मेरे से देखा नहीं जाता।
वैसे भी जब इन बच्चों के मां-बाप इन को मोटर-साइकिल एवं कारें थमाते हैं, उन्हें यह तो समझ लेना चाहिए कि वे अपने बच्चे की जान तो खुशी खुशी जोखिम में डाल सकते हैं, लेकिन एक आम बंदे की जिंदगी से खिलवाड़ करने का लाइसैंस आखिर उन के लाडले को किस ने दे दिया है। बात सोचने की है,,,,,,अगर हम इन की लगाम अपने हाथ में नहीं रखेंगे तो फिर गुड़गांव स्कूल जैसे किस्से ही हमें नियमति देखने सुनने को मिला करेंगे।
बस दीनता से यह कह देना कि बच्चे मानते नहीं हैं , यह बिल्कुल गलत है। मेरा किशोर बेटा मुझे हज़ारों बार मोटर-साइकिल दिलाने को कह चुका है और मैं भी उसे 18 साल न खरीदने के लिए हज़ारों बार ही मना कर चुका हूं।