रविवार, 10 फ़रवरी 2008

हिंदी अखबारों में छपने वाले इस तरह के भ्रामक विज्ञापन...


हार्ट अटैक से बचाव के लिए पेट गैस और एसिडिटि की रोकथाम जरूरी होती है....यह तो है शीर्षक हिंदी के जाने-माने अखबार में छपे आज एक विज्ञापन का। उस के साथ ही किसी डाक्टर का मोबाइल नंबर दिया गया है जो यह सब कुछ कह रहा है। आगे लिखा है कि अम्लपित्त या Acidity के कारणों में शराब, तम्बाकू, पान मसाला, हार्मोन, स्टीरॉयड व दर्द नाशक गोलियों को डा.......गिनते हैं जो कि ......सीरप के पीने से नियंत्रण में रहते हैं। डा..........जड़ी-बूटियों से बनी ......सीरप के प्रयोग की सिफारिश करते हैं उन लोगों को भी जो जंकफूड, स्नैक्स, गोलगप्पे, पिज्जा, बर्गर, चाउमीन खाने के बाद सिरदर्द, आन्तड़ियों व गुर्दों की तकलीफों पेट की जलन गैस से परेशान होते हैं...........................
मीडिया डाक्टर की टिप्पणी --- मैंने इस विज्ञापन की आधी से भी ज़्यादा डिटेल्स नहीं लिखी हैं क्योंकि ऐसे विज्ञापन पढ़ कर मेरा सिर फटने लगता है। मैं समझता हूं कि ऐसे विज्ञापन केवल गुमराह करते हैं। डाक्टर होने के साथ-साथ पत्रकारिता से भी जुड़े होने के नाते मैं यह भी अच्छी तरह से समझता हूं कि मेरी ब्लोग की पहुंच तो केवल अच्छे-खासे पढ़े-लिखे सौ-पचास लोगों तक ही होगी, जो कि शायद मेरे द्वारा कही गई ज़्यादातर बातें पहले ही से जानते होंगे, लेकिन ऐसे भ्रामक विज्ञापनों की पहुंच बहुत दूर दूर तक है। विशेषकर मुझे चिंता है उस वर्ग की जो सड़क के किनारे बने एक चाय के खोखे में ये अखबारें पढ़ते हैं। आप ने भी तो देखा ही होगा कि किस तरह बहुत से मज़दूर, रिक्शा चालक अथवा छोटी-मोटी रेहड़ी लगाने वाले सारी अखबार का एक एक पन्ना आपस में बांट कर किस तरह एक अखबार का गर्मा-गर्म चाय के साथ मज़ा लूट रहे होते हैं। यही वर्ग सब से ज्यादा ऐसे लुभावने विज्ञापनों की चपेट में आ जाता है।
मैं पिछले चार-पांच वर्षों से इस तरह के विज्ञापनों के पीछे ही पड़ा हूं....लेकिन अभी तक कुछ कर नहीं पाया हूं...पता नहीं आगे चल कर भी कुछ कर पायूंगा या ....। सबसे पहले तो मैंने अखबारवालों को खूब लिखा कि आप ऐसे विज्ञापन क्यों छापते हैं.....लेकिन कुछ नहीं हुया। फिर मैंने नोटिस किया कि वो तो बड़ी चालाकी से एक चेतावनी सी छपवा कर पल्ला झाड़ लेते हैं। खूब फैक्स किए, खूब पत्र लिखे, खूब ई-मेल भेजीं.......लेकिन कुछ भी टस से मस न हुया। इन से संबंधित कुछ लेख भी भेजे, लेकिन वो भी शायद रद्दी की टोकरी के सुपुर्द ही हो गये होंगे......यह तो होना ही था । विज्ञापनों के स्तर को कायम रखने वाली एक संस्था को भी बहुत बार लिखा....उन को जब ई-मेल भेजता, तो कहते थे कि चिट्ठीयों में सब कुछ प्रूफ के साथ भेजें ...सब कुछ किया.....इन के भेजने में काफी पैसा और समय भी नष्ट किया........लेकिन रिज़ल्ट ज़ीरो.....ज़ीरो ...सिर्फ ज़ीरो। उस संस्था की कार्य-प्रणाली इतनी पेचीदा लगी कि मैंने वह सब लिखना भी बंद कर दिया क्योंकि मुझे कुछ महीनों में ही यह आभास हो गया कि कुछ भी नहीं होने वाला ...सब कुछ ऐसे ही चलने वाला है.......बस, अपना ही माथा फोड़ने वाली बात है।
इन सब से परेशान हो के बैठा ही था कि बेटा ने आवाज़ लगा दी कि बापू, अब तू हिंदी में ई-मेल भी भेज पायेगा, चिट्ठी भी लिख पायेगा.........बस, उसी दिन से इस ब्लोगिंग के चक्कर में पड़ गया हूं.....क्योंकि यह तो मुझे भी बहुत अच्छी तरह से पता है कि अकेला चना भाड़ कभी नहीं फोड़ सकता , लेकिन अब जो कुछ भी मन को कचोट रहा है उस को इस ब्लोग के ज़रिये प्रकाशित करने की छूट तो है। अब तो बस उसी चीनी कहावत की याद कर लेता हूं.....A journey of three thousand miles starts with a single step !!.....चीनी ही क्यों, यहां भी तो अकसर लोग कुछ इस तरह की बातें कर के आपस में एक-दूसरे का मनोबल बढ़ाते रहते हैं......
कौन कहता है कि आसमां में सुराख हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।
इन परिंदों को भी मिलेगी मंज़िल एक दिन,
यह हवा में खुले इस के पंख बोलते हैं।
माना कि परिंदों के पर हुया करते हैं,
ख्वाबों में उड़ना कोई गुनाह तो नहीं।
अभी कल-परसों ही पत्रकार संजय तिवारी की जी एक ब्लोग पोस्ट से पता चला कि वे कुछ इस दिशा में करने की इच्छा करते हैं कि मीडिया में आने वाली खबरों की खबर कैसे ली जाए....किस तरह से, किस के पास अपना दुःखड़ा रोया जाये...आप भी उन की वह पोस्ट ज़रूर देखिएगा। मुझे उन का यह आइडिया बहुत पसंद आया।
जाते जाते मैं यह भी बता दूं कि मैंने इस तरह के विज्ञापनों से निपटने का अपना ढंग इजाद कर लिया है.....एक पैन लेकर पहले उस के ऊपर ही अपना दिल खोल कर......., फिर उस को कूड़े के डिब्बे में फैंक देता हूं।

1 टिप्पणी:

  1. कुछ समय पहले ऋषिकेश के किसी चिकित्सालय का विज्ञापन छपता था - अकसर पूरे पेजों में वह भी फंट पेज पर - मिरगी के इलाज का. बाद में भांडा फूटा तो पाया गया कि वो स्टीराइस देते थे..

    पाठकों को ही सुशिक्षित होना होगा क्योंकि अखबारों को चलने चलाने के लिए पैसा तो चाहिए ही...

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