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रविवार, 31 जुलाई 2011

गुमराह करने वाली हैल्थ किताबों पर रोक लगाने से होगा क्या !

अभी अभी एक खबर दिख गई कि चीन ने सेहत से संबंधित 104 ऐसी किताबों पर प्रतिबंध लगा दिया है जिन में बेबुनियाद, झूठे दायवे किये गये हैं, गलत एवं गुमराह करने वाली जानकारी लोगों को मुहैया करवाई जा रही है। वैसे काम तो चीन ने अच्छा किया है।

लेकिन यह खबर का पहला पैरा पढ़ते ही मुझे एक बात का ध्यान आ गया ---कहीं पढ़ी थी... दुनिया में कांटों से बचना चाहते हैं? –तो फिर आप सारी दुनिया की ज़मीन पर कॉलीन बिछा दें ......लेकिन इस से कहीं बेहतर है कि आप स्वयं ही जूते पहन लें।

बात कितनी सही है!!

व्यक्तिगत तौर पर मुझे लग रहा है कि इस तरह के प्रतिबंध लगाने से शायद सरकारी आंकड़ों का पेट तो भर जाता हो ...उन का पेट भी तो भरा रहना ज़रूरी है ताकि सब को समय पर पदोन्नति मिलती रहे, कुछ तो प्रोजैक्ट करने के लिये चाहिए।

कुछ कुछ किताबों के बारे में सोच रहा हूं जिन पर प्रतिबंध लगाया गया ... लेकिन मुझे लगता है कि इस तरह से तो शायद इन को ज़्यादा पब्लिसिटि मिलती होगी... आज के दौर में किताबों की कापियां खरीदना कौन सा मुश्किल काम है। फिर भी, जो भी हो, चीन को इस बात की बधाई कि उस ने इस के बारे में सोच कर पहल तो की।

दूसरी बात यह भी है कि इंटरनेट के दौर में इस तरह के कदम कितने समुचित हैं, पता नहीं। सब कुछ नेट पर बिखरा-सिमटा पड़ा है, बस एक क्लिक की दूरी पऱ। ठीक है, आम आदमी इस से अभी दूर ही है लेकिन उसे भ्रमों में उलझाए रखने के और भी बहुत से साधन हैं।

भारत की ही बात करें तो टीवी पर तरह तरह के बाबाओं का जमावड़ा लगा रहता है जिनमें से बहुत से इतनी अंधश्रद्धा को बढ़ावा दिये जा रहे हैं कि क्या कहें ....अभी चंद मिनट पहले ही देख रहा था कि एक बाबा अपने सिंहासन पर बैठा बैठा अजीबोगरीब समाधान बताए जा रहा था ...और आज ध्यान से देखा कि पब्लिक में उस के बाउंसर भी खड़े हुये थे।

आज के ही हिंदी अखबार से एक हैंड-बिल निकला है .......जिस का शीर्षक है ...दवा से मुक्ति..इस में एक डाक्टर का नाम बताया गया है कि उस ने एक ऐसी चिकित्सा पद्धति का आविष्कार किया है जिसमें दवा खाने या लगाने की आवश्यकता बिल्कुल ही नहीं होती है। अच्छा, इस में लिखी बातें हु-ब-हू यहां लिख रहा हूं ...

इस पद्धति के माध्यम से किसी भी प्रकार के असाध्य एवं साध्य कहे जाने वाले रोग जैसे सांस की बीमारी, हृदय रोग, मूत्र रोग, लकवा, गुर्दे फेल, मानसिक रोग, गुप्त रोग, कैंसर, गठिया, वात्, एड्स, मिरगी, चर्म रोग, डायबिटिज, उच्च रक्तचाप, बांझपन, हार्मोन संबंधित विकारों का निदान सफलता पूर्वक किया जा रहा है। इस पद्धति में मरीज़ के शरीर से एक बाल लिया जाता है, और रोगी के बाल के माध्यम से दवा का प्रसारण किया जाता है।.....

बस, यार, अब और नहीं मेरे से इस के बारे में लिखा जायेगा।

हां, तो बात चल रही थी बेबुनियाद दावों की, झूठी उम्मीद दिलाने की .... कुछ ऐसे रोग हैं जिन के उपचार से संबंधित कुछ चिकित्सकों ने अपनी साइट बनाई हुई है ... बस, फलां फलां असाध्य रोग का इलाज तो बस उन के ही पास है, बहुत बहुत आकर्षक वेबसाइटें ....और एक मित्र बता रहा था कि एक एक विज़िट के लिये इन के यहां डेढ़ हज़ार के करीब खर्च आ जाता है।

एक वैज्ञानिक सोच यह कहती है कि आज की तारीख में अगर हम सोचें कि कुछ असाध्य बीमारियों का उपचार केवल गिने चुने चंद हकीमों-चिकित्सकों के पास ही है, तो हम बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं। हर तरफ़ भोली भाली जनता को - - या बनाने की होड़ सी लगी दिखती है। बेचारा किसी न किसी कांटे में तो फंस ही जाता है, कोफ़त होती है ऐसे लोगों से जो चंद सिक्कों के लिये बीमारी से पहले ही से परेशान पब्लिक को सब्ज-बाग दिखाते हैं....पैसे ऐंठते हैं... विदेशी गाड़ियों में घूमते हैं, विदेश यात्राएं करते हैं... there is just one word to describe them ….Dubious souls!

अगर किसी बीमारी के लिये कोई इलाज आता है तो विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं उस की जांच करती हैं.....बहुत बड़ी व्यवस्था है यह सब.....इसलिये किसी को यूं ही - - या बनाने से ये हाई-फाई ड्रामेबाज गुरेज ही करें तो ठीक होगा ... वरना अगर कल मैं भी यह घोषणा कर दूं कि मैंने दांतों की सड़न से बचने के लिए एक चोपड़ा मंजन तैयार कर लिया है, जब ऐसी कोई बात है ही नहीं, अगर कुछ किया होता तो मेरे कुछ कहने से पहले पूरा विश्व इस के बारे में कहने लगेगा ....लेकिन सब तरह के परीक्षण होने के बाद, ऐसे दायवों की पूरी सुरक्षा जांच होने के बाद ................फिलहाल, वैसे मेरा कोई ऐसा अभिलाषा है भी नहीं... न ही इतनी समझ है, न ही टाइम है, बहुत सा समय तो आप के साथ बातें करने में ही निकल जाता है, मंजन कब तैयार करूंगा, रिटायर होने के बाद जब कहीं खोखा-वोखा खोलूंगा तो देखूंगा .......

बहरहाल, बात को यही कह कर विराम दे रहा हूं कि कितने भी झूठे क्लेम आने लगें, कितनी भी भ्रामक सामग्री प्रिंट होने लगे, कितने भी लोग मीडिया में लोगों को - - या बनाने में लगे रहें, बस अगर हम एक आम आदमी को थोड़ा सा सचेत कर सकें उस की सेहत के बारे में ...उस के सरोकारों के बारे में ....तो बस हो गया अपना काम.................इतना ही काफ़ी है, बाकी सब तो ईश्वर कर ही रहा है।

रोबोटिक सर्जरी से आप्रेशन किए जाना कितना फायदेमंद है?

एक वेबसाइट है .. www.healthnewsreview.org ...यहां पर प्रिंट,इलैक्ट्रोनिक एवं न्यू मीडिया पर अंग्रेज़ी में छपी मैडीकल न्यूज़-रिपोर्ट की खबर ली जाती है....इनके कुछ बढ़िया से मापदंड हैं जिन के द्वारा यह तय करते हैं कि जो मैडीकल न्यूज़ छपी है ...यह कहीं गुमराह करने वाली तो नहीं है....हां, ये मैडीकल विषय पर छपी ख़बरों को उन की श्रेष्ठता के अनुसार स्टार दिये जाते हैं ..जिस स्टोरी की कवरेज बिल्कुल संतुलित एवं इमानदारी से की गई होती है उसे पांच स्टार दिये जाते हैं ..इस वेबसाइट पर अभी तक की सभी पांच सितारा स्टोरियों के लिंक भी पड़े हुये हैं।

अभी देख रहा था कि इन्होंने एक बहुत अनुभवी सर्जन के ब्लॉग के ऊपर टिप्पणी की थी ... ब्लॉग में उस सर्जन ने रोबोटिक सर्जरी के बारे में अपना दिल खोला था ... उस ने लिखा है कि यह किसी भी तरह से पारंपरिक लैपरोस्कोपिक सर्जरी से उत्तम विकल्प नहीं है.... ब्लॉग का नाम ही बहुत बढ़िया लगा ... Skeptical scalpel.

यह जानकारी बहुत ज्ञानवर्धक है ... इसे आप को भी देखना चाहिए ....पहले तो आप हैल्थ-न्यूज़ रिव्यू के प्रकाशक का लेख देखें और फिर उस में दिये एक लिंक पर जा कर उस सर्जन के तथ्यों पर आधारित अनुभव पढ़िए --- केवल यह जानने के लिये कि ज़रूरी नहीं कि कोई तकनीक अति आधुनिक है तो उस के उतने फायदे भी होंगे।

आज वैसे भी चिकित्सा अनुसंधान मार्कीट शक्तियों के हाथों की कठपुतली सा बनता जा रहा है ..ऐसे में किसी की सच्ची एवं इमानदार बातें इस तपिश में हवा के ठंडे झोंके सा काम करती हैं।

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

अस्पताल जाने से ज़्यादा सुरक्षित है हवाई यात्रा—ऐसा क्या?

दो-तीन दिन पहले जब मैंने भी ऐसी बात पढ़ी तो मैं भी सकता में आ गया कि अब यह क्या नया लफड़ा है लेकिन जब पूरी बात पता चला तो समझ में आ गया कि कुछ लोग हवाई-यात्रा का यूं ही डर पाले बैठे हैं, अस्पताल में इलाज करवाने से आगे तो यह रिस्क कुछ भी नहीं!

वैसे यह ऊपर दिया गया व्यक्तव्य मेरा नहीं है, यह विश्व स्वास्थ्य संगठन के सौजन्य से मैडलाइन में पढ़ने को मिला है कि विश्व भर में लाखों लोग चिकित्सा से संबंधी गल्तियों एवं हेल्थ-केयर व अस्पताल से ग्रहण किये गये संक्रमणों (infections) का शिकार हो जाते हैं।
"If you were admitted to hospital tomorrow in any country... your chances of being subjected to an error in your care would be something like 1 in 10. Your chances of dying due to an error in health care would be 1 in 300," Liam Donaldson, the WHO's newly appointed envoy for patient safety, told a news briefing.
This compared with a risk of dying in an air crash of about 1 in 10 million passengers, according to Donaldson, formerly England's chief medical officer.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े हैं कि अमेरिका में हर वर्ष इस तरह के अस्पताल से मिलने वाले संक्रमणों के 17 लाख केस होते हैं जिन में से एक लाख अल्ला को प्यारे हो जाते हैं। और यूरोप में यह वार्षिक आंकड़े 45 लाख बताये जा रहे हैं जिन में से 37 हज़ार लोग इस अस्पताल संक्रमण का शिकार हो जाते हैं।

यह पढ़ते पढ़ते आप को भी शायद ध्यान आ रहा होगा कि यार, हमें तो भारत के आंकड़े बताओ। अफ़सोस ऐसे आंकड़े मैंने तो कहीं देखे नहीं ... और शायद यह कभी दिखेंगे भी नहीं। मुझे ध्यान है इस संबंध में कुछ आंकड़े आज से बीस साल पहले टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ हैल्थ साईंसस में हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन पढ़ते हुये कुछ हमें बताया करते थे कि अस्पताल से होने वाले संक्रमणों की तादात 35-40 प्रतिशत है ... लेकिन मैंने कभी अपने यहां के आंकड़ें देखे ही नहीं.... भरोसेमंद या गैर-भरोसेमंद आंकड़ों की बहस तो तब शुरू हो अगर ये कहीं दिखे...तभी तो।

तो हमारे देश की समस्या इन अस्पताल संक्रमणों के संदर्भ में तो और भी गंभीर है। कारण? –हर जगह लीपा-पोती वाली अप्रोच ...कैसे भी जुगाड़बाजी कर के अस्पताल की बात बाहर न निकलने पाए ..वरना मार्केट में जो दूसरे अस्पताल हैं, उन को बात उछालने का मौका मिल जाएगा।

और यह जो मैडीकल ऑडिट की बात है, यह भी अपने देश में तो बस जुबानी जमा-खर्ची तक ही सीमित है ...मैडीकल ऑडिट का मतलब है ऐसी व्यवस्था जिस के अंतर्गत मैडीकल जगत को अपनी गलतियों से सीखने का अवसर मिलता है ....अच्छे अच्छे अस्पतालों में जब कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है तो छोटे मोटे अस्पतालों की तो बात ही क्या करें।

जब मैं एक आलेख पढ़ रहा था जिसमें लिखा था कि मरीज़ों को प्रश्न पूछने की आदत डालनी चाहिए और अपने इलाज के लिये जाने वाले निर्णय में उन की भागीदारी होनी चाहिए ....यह पढ़ कर मुझे यही लगा कि कहने को तो गालिब यह ख्याल अच्छा है ....बस, अगली पंक्ति नहीं पाती।

इसी रिपोर्ट में मैं एक जगह पढ़ रहा ता कि आज कल चिकित्सा व्यवस्था बड़ी आधुनिक हो गई है ..उदाहरण दी जा रही थी कि हृदय-रोग के लिये आप्रेशन के लिये लगभग 60 लोगों की टीम काम करती है और इतनी ही टीम एक जंबो-जैट को चलाने के लिये चाहिए होती है। कहने का भाव, आज हर चिकित्सा कर्मी तनाव में काम कर रहा है, और ऊपर से यह चिकित्सा ढांचा की अपना-बचाव-कर-लो वाली प्रवृत्ति भी इस तनाव को बढ़ाने का काम कर रही है। लेकिन कहीं न कहीं ऐसा करने में उन की भी अपनी मजबूरी है।

कुछ बातें जो नोट की जा सकती हैं... अगर सभी चिकित्सक मरीज़ों का इलाज करने से पहले अच्छी तरह से साबुन से अपने हाथ धोने लगें तो यह समस्या पचास फ़ीसदी तक कम हो सकती है और इस के साथ साथ अगर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा बनाई सर्जरी चैक-लिस्ट की तरफ़ पूरा ध्यान दिया जाए तो मैडीकल गल्तियां काफ़ी हद तक टल सकती हैं।

जितना ज़्यादा किसी मरीज़ को आईसीयू (गहन चिकित्सा केंद्रों) में रखा जाता है.. उस में अस्पताल से ग्रहण करने वाले संक्रमणों का खतरा उतना ही बढ़ जाता है, यही हाल है...कैथीटर डले हुये मरीज़ों का जितना लंबे समय तक कैथीटर (पेशाब की थैली) किसी को लगा रहता है उतना ही रिस्क तरह तरह के इंफैक्शन का बढ़ जाता है। उसी तरह से नवजात शिशुओं को जब गहन चिकित्सा के लिये रखा जाता है..... तो उन का भी स्टे ज़्यादा होने पर अस्पताल संक्रमण जैसी समस्या उत्पन्न हो सकती है।

लिखने को हम कितना भी लिख लें ....लेकिन यह तो मानना पड़ेगा कि यह बिल्कुल ग्रे-एरिया है... न तो कोई मरीज़ और न ही उस के अभिभावक ऐसे निर्णय ले पाने में सक्षम होते हैं .... और एक बात, ये जो झोलाछाप हैं, गांवों कसबों में जो नीम-हकीम बैठे हैं, बंदे बंदे को ग्लुकोज़ की बोतलें चढ़ा देते हैं, दूषित सिरिंजों एवं सूईंयों से इंजैक्शन लगाते रहते हैं, सर्जीकल औज़ार –जिन से पट्टी वट्टी करते हैं उन्हें जीवाणुरहित करते नहीं ...........सब कुछ अनाप-शनाप चलाते जा रहे हैं, ऐसे में तो ये अमेरिका और यूरोप के अस्पताल इंफैक्शन के आँकड़े पढ़ के आप को कहीं डर तो नहीं लग रहा कि अच्छा है, हमें अपने यहां के आंकड़ें पता नहीं हैं.....................लेकिन क्या कबूतर की आंखें बंद कर लेने से बिल्ली उस पर झपटने से गुरेज कर लेगी? …. नहीं ना !!

संबंधित लेख ..
अस्पताल में होने वाली इंफैक्शन की व्यापकता
Idea -- Going into hospital far riskier than flying

शनिवार, 23 जुलाई 2011

एम्स ने खरीदा 28 करोड़ का चाकू

इस चाकू का नाम का ...गामा चाकू (Gamma Knife)… कहने को तो चाकू है लेकिन न ही तो इस में कोई ब्लेड है और न ही इस से कुछ कट लगाया जाता है। एम्स में यह चाकू 14 वर्षों के बाद आया है और इस की कीमत 28 करोड़ रूपये है ..वहां पर पहले एक गामा नाईफ़ 1997 में खरीदा गया था। आखिर इस चाकू से होता क्या है....इस चाकू का इस्तेमाल मस्तिष्क के आपरेशन करने के लिये किया जाता है लेकिन कोई कट नहीं, कोई चीरा नहीं ...फिर कैसे हो पाता है फिर यह आप्रेशन।

दरअसल इस गामा नाईफ से एक ही बार में, हाई-डोज़ विकिरणें (high-dose radiation) मस्तिष्क के बीमार भाग पर डाली जाती हैं ताकि उस का सफाया किया जा सके---यह बिल्कुल एक आटोमैटिक प्रक्रिया होती है और बस एक बटन दबाने से ही सारा काम हो जाता है। समय की बचत तो होती ही है और इस से बहुत से मरीज़ों का इलाज किया जा सकता है।

सर्जरी से संबंधित सभी कंप्लीकेशन से तो मरीज़ बच ही जाता है, साथ ही जल्द ही अस्पताल से उसे छुट्टी भी मिल जाती है और शीघ्र ही अपने काम पर भी लौट जाता है। एक मरीज़ के लिये एम्स में इस का खर्च 75000 हज़ार रूपये आता है .. यह उस खर्च का एक तिहाई है जो किसी मरीज़ को इस इलाज के लिये प्राइव्हेट अस्पताल में खर्च करना पड़ता है।
Source : Quick surgeries at AIIMS

बिना टीके, बिना चीरे, बिना टांके के भी हो रही है सुन्नत

दो-अढ़ाई वर्ष पहले सुन्नत/ख़तना (Male circumcision) करवाने के बारे में एक लेख लिखा था जिस में इस के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई थी ...सुन्नत/ख़तना के बारे में क्या आप यह सब जानते हैं? सुन्नत करवाने से संबंधित विभिन्न पहलू अच्छे से उस लेख में कवर किये गये थे।

मुझे ध्यान आ रहा है ..एक बार एक बिल्लू बारबर से मैं कटिंग करवा रहा था ..वहां बात चल रही थी उस की किसी के साथ कि वह पिछले 25-30 वर्षों में सैंकड़ों बच्चों का ख़तना कर चुका है। यही तो सारी समस्या है ...विभिन्न कारणों की वजह लोग अपने बच्चे का खतना नाईयों आदि से करवा तो लेते हैं लेकिन यह बेहद रिस्की काम है .... न ही तो औज़ारों को स्टेरेलाइज़ (जीवाणुमुक्त) करने का कोई विधान इन के यहां होता है, और न ही ये इस तरह का काम करने के लिए क्वालीफाई ही होते हैं.....बस वही बात है नीम हकीम खतराए जान....चलिये जान तो खतरे में शायद ही पड़े लेकिन इन से इस तरह के सर्जीकल काम करवाने से भयंकर रोग ज़रूर मिल सकते हैं।

तो चलिए, लगता है आने वाले समय में यह लफड़ा ही दूर हो जाए... बिना आप्रेशन, बिना चीरा, बिना टीका, बिना टांके के सुन्नत करवाने की खबर आज सुबह देखी ... सोच रहा था कि यह कैसी खबर हुई, यह कैसे संभव है लेकिन खबर बीबीसी की साइट पर थी तो विस्तार से इसे जानने की इच्छा हुई...New Device Makes Circumcision safer and cheaper.

तो, आप भी यहां इस ऊपर दिये गये लिंक पर जाकर इसे देख सकते हैं कि किस तरह से बिना किसी चीरे के कितनी निपुणता से युवाओं की सुन्नत की जा रही है। कंसैप्ट यही है कि एक रिंग की मदद से शिश्न (penis) के अगली लूज़ चमड़ी (prepuce) की ब्लड-सप्लाई में अवरोध पैदा कर के उस के स्वयं ही झड़ने का इंतजाम किया जाता है इस नई टैक्नीक में...... लेकिन यह काम क्वालीफाई चिकित्सक द्वारा ही किया जाता है।

अगर यह टैक्नीक विकासशील देशों में भी आ जाए तो इस तरह का आप्रेशन करवाने वाले लोगों को बहुत सुविधा हो जाएगी। लेकिन इस समाचार से ऐसा लगता है कि यह टैक्नीक किशोरावस्था या युवावस्था के लिये तो उपर्युक्त है लेकिन शिशुओं के लिये यह उपयोगी नहीं है।

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

चिकित्सक हिंदी में इन विषयों पर लिखें...


पिछले कईं सालों से देख रहा हूं कि विकसित देशों में कोई छोटी मोटी स्टडी चूहे पर भी हो रही होती है तो उसे हमारेयहां के हिंदी एवं अंग्रेज़ी क अखबार बड़े चाव से छापते हैं। ठीक हैं, छापिये ....लेकिन सब से पहले आप को आमआदमी की आम शारीरिक समस्यायों एवं उन से जुड़े मुद्दों पर लिखना होगा।

मैं सोच रहा हूं कि मैं अगले कम से कम छः महीने तक कुछ ऐसे ही विषयों पर लिखूंगा। इतने ज़्यादा मरीज़थॉयरायड ग्रंथि की तरह तरह की बीमारियों के दिखने लगे हैं---ठीक है, आयोडीन युक्त नमक खाया जाये लेकिनइस के बारे में बाकी बातें भी तो आम आदमी तक पहुंचनी बहुत ही लाज़मी हैं ।

लगभग सारा हिंदोस्तान आड़ा-टेढ़ा हो कर चलता है , यह समस्या महिलायों में तो बहुत ही ज़्यादा है , इस कीरोकथाम के बारे में खूब चर्चा की जाये। इस के इलाज के बारे में , इस से संबंधित तरह तरह के टैस्टों के बारे मेंलिखा जाये और यह भी लिखा जाये की कौन सा इलाज किस के लिये कितना उपर्युक्त है।

इतनी ज़्यादा औरतों के कूल्हे की हड्डी टूट जाती है और वे सारी उम्र के लिये अपाहिज हो जाती हैं। इस के बारे मेंज़्यादा से ज़्यादा बातें करें और ज़्यादा बातें रोकथाम की भी की जायें----ज़्यादा महंगे महंगे इलाज गिना कर आमआदमी की परेशानियां और न बढ़ाई जायें।

पानी के बारे में जितना लिखा जाये उतना ही कम है। लोगों में इस के बारे में बहुत ही ज़्यादा अज्ञानता है। इस के शुद्धिकरण की बातें खोली जायें।

मैं पिछले लगभग एक-दो महीने से देख रहा हूं कि कुछ हिंदी समाचार पत्रों की वेबसाइटें भी मसालेदार खबरों में ज़्यादा रूचि ले रही हैं, होगी भई उन की अपनी मज़बूरी होगी किसी भी बहाने सैक्स संबंधी तरह तरह की सामग्री परोसना। इतना सब कुछ अजीब सा लिखा जा रहा है कि उन साइटों पर वापिस जाने की इच्छा ही नहीं होती।

हिंदोस्तान में कितने ज़्यादा लोग हैं जो कईं कईं वर्षों से घुटने के दर्द से कराह रहे हैं, टांगों में दर्द है, आंखों की रोशनीकम होने से रोज़ाना ठोकरें खाते फिरते हैं, नियमित शारीरिक जांच करवा नहीं पाते। इन के बारे में कौन लिखेगा मुझे यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि हिंदी के पाठकों तक जितनी अच्छी जानकारी पहुंचनी चाहिये वह पहुंच नहीं रही है।

इस के अलावा इन विषयों पर लिखा जाये ---नियमित शारीरिक जांच, बच्चों में विटामिन ए की कमी, महिलायोंमें रक्त की एवं कैल्शीयम की कमी।

मुझे यह लगता है कि जनमानस को किसी भी तरह से भ्रमित करने की कोशिश न की जाये। उन्हें महंगे महंगेइलाजों के फायदे गिनाते रहने की बजाये ( जो कि बहुत से लोग अफोर्ड कर ही नहीं पाते) ..कुछ इस तरह की बातेंबतायें जिन से उन के मन में विश्वास पैदा हो कि जरूरी नहीं कि हर महंगी वस्तु उत्तम ही हो। विशेषकर खाने पीने की आदतों की उदाहरण लेकर ये बातें जनमानस के सामने रखी जा सकती हैं। घर में आसानी से उपलब्ध तरहतरह के अनाज एवं दालों से भी एक उत्कृष्ठ आहार तैयार किया जा सकता है।

ऐसी और भी बहुत ही छोटी छोटी बातें हैं जो कि चिकित्सकों को तो छोटी लगती हैं लेकिन जनमानस के लिये बहुतबड़ी बातें होती हैं। अगर वे इन को अपने जीवन में उतार लेते हैं तो जीवन में बहार आ सकती है।

तो मैं अगले कुछ महीनों पर इस ब्लॉग पर कुछ इस तरह की ही सामग्री जुटाया करूंगा। देखते हैं यह सफ़र कैसा रहता है।

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

क्यों छापते हो यार ऐसी खबरें ? ---आखिर मैडीकल जर्नलिस्ट किस मर्ज़ की दवा हैं ?

अभी अभी हिंदी का एक प्रतिष्ठित अखबार देख रहा था ---जिस के पिछले पन्ने पर एक बहुत बड़ी न्यूज़-आइटम दिखी ---- डायबिटीज के इलाज में कारगर है तंबाकू !! इसी न्यूज़-आइटम से ही कुछ पंक्तियां ले कर यहां लिख रहा हूं ----
- ----मगर शोधकर्त्ताओं के एक अंतरराष्ट्रीय दल ने तंबाकू में तमाम फायदे खोज निकाले हैं।
- ---तंबाकू के पौधे में जैनेटिक बदलाव कर कुछ दवाएं तैयार की हैं।
- ----सक्रियता जांचने के लिए पौधों को प्रतिरोधी क्षमता की कमी से जूझ रहे चूहों को खाने के लिए दिया गया।
- -----महत्वपूर्ण बात यह है कि तंबाकू के ट्रांसजैनिक पौधों की पत्तियों को खाया जा सकता है। इसमें मौजूद तत्व बीमारी वाले हिस्से में स्वतः काम करने लगते हैं। इससे पत्तियों से दवा बनाने के झंझट से मुक्ति मिलती है।
- शोधकर्ता दल ने पाया कि इसकी सीमित मात्रा और कुछ एंटीजन की नियमित खुराक से टाइप वन डायबिटिज़ की रोकथाम में मदद मिलती है।

अच्छी खासी लंबी-चौड़ी खबर थी ---तीन कॉलम की ।

अब सोचने की बात यह है कि अगर एसी खबार छपी भी है कि तो इस में आपत्तिजनक है ही क्या !! इस में सब कुछ आपत्तिजनक ही आपत्तिजनक है ---- कारण ? --- यह सारा शोध अभी चूहों पर हो रहा है। पूरा शोध तो हो लेने दो ---आखिर इतनी भी क्या हफड़ा-धफड़ी यह छापने की ऐसी खबर छापने की कि जिस की एक कतरन भीखू पनवाड़ी अपने इलैक्ट्रिक-लाइटर के साथ ही चिपका कर अपनी बीड़ी-सिगरेट की सेल को चार चांद लगा डाले। ऐसी खबरें बेहद एतराज़ –जनक इसलिये भी हैं क्योंकि जब इस तंबाकू के चक्कर में पड़ा कोई व्यक्ति ऐसी खबर देखता है ना तो उसे अपनी आदत को जारी रखने का एक परमिट सा मिल सकता है। वह भला फिर क्यों सुनेगा अपने डाक्टर की ----अकसर लोग अखबार में छपी बातों को ज़्यादा गंभीरता से लेते हैं।

अगर उस तंबाकू का सेवन करने वाले व्यक्ति का कोई सहकर्मी उसे सिगरेट बंद करने को कहेगा तो वह उस की बात को यह कह झटक देगा कि लगता है तू अखबार नहीं पड़ता ---रोज़ाना पढ़ा कर। तंबाकू सेवन करने वाले को ट्रांसजैनिक शब्द से इतना सरोकार नहीं है –उसे तो केवल आज छपी इस न्यूज़-आइटम से ही मतलब है कि डायबिटिज़ के इलाज के लिये कारगर है तंबाकू।

ध्यान यह भी आ रहा है कि अगर ऐसी खबर पढ़ कर डायबिटीज़ से जूझ रहे लोग तंबाकू को थोड़ा आजमाना ही शुरू कर दें तो उन के लिये यह आत्महत्या का जुगाड़ करने वाली ही बात हो गई। सब जानते हैं कि हम सब के लिये और विशेषकर शूगर के मरीज़ों के हृदय , मस्तिष्क एवं रक्त की नाड़ियों के लिये तंबाकू कितना खतरनाक ज़हर है। और भगवान न करे , अगर किसी ने इस पंक्ति को पढ़ कर जीवन में उतार लिया कि इस की नियमित खुराक से डायबिटीज़ की रोकथाम में मदद मिलती है।

ऐसे में क्यों छापते हैं अखबार इस तरह कि खबरें -----जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूं कि लोगों को इन प्रयोगों की अवस्था से कुछ ज़्यादा सरोकार होता नहीं ----एक ले-मैन को हैल्थ संबंधी विषयों का इतना गूढ़ ज्ञान कहां होता है ---वह तो शीर्षक पकड़ता है और उस न्यूज़-रिपोर्ट में लिखी दो-चार पंक्तियां जो उस को सुकून देती हैं, वह तो उन्हीं को हाइ-लाइट कर के अपने पर्स में टिका लेता है ----और शायद अपने फैमिली डाक्टर को कोसने लगता है कि लगता है कि अब उसे भी छोड़ कर कोई और डाक्टर देखना पड़ेगा ----देखिये, साईंस ने कितनी तरक्की कर ली है ---डायबिटीज़ में तंबाकू के फायदे की बात अखबार में हो रही है और वह है कि हर दफ़ा डायबिटीज़ के कारण मेरे शरीर में उत्पन्न जटिलतायों के लिये मेरी सिगरेट को ही कोसता रहता है।

तीन दिन पहले इसी हिंदी के अखबार में एक दूसरी खबर छपी थी जिस का शीर्षक था ---- मोटापे को दूर रखेगी एक गोली – वजन बढ़ने की चिंता छोड़ कर डटकर खा सकेंगे लोग ------- चूहों पर हो रहे ऐसे शोध को इतना महत्व कैसे दे दिया गया , मेरी समझ से बाहर की बात है । यह खबर भी अखबार के अंतिम पृष्ठ पर छपी थी।

दो दिन पहले खबर छपी कि ----पहले ही मिलेगा हार्ट अटैक का संकेत –विध्युतीय सिग्नलों में परिवर्तन होते ही सचेत करेगा एंजिलमेड गार्जियन । इस खबर से कुछ पंक्तियां लेकर यहां लिख रहा हूं ----शोधकर्ताओं का मानना है कि छाती में कॉलर बोन के नीचे लगने वाला एंजिलमेड गार्जियन हार्ट अटैक के कुछ पहले ही संकेत दे देगा, इससे मरीज को अस्पताल तक पहुंचने और उपयुक्त इलाज पाने में आसानी होगी। दिल की सामान्य गति में बदलाव होने पर माचिस की डिब्बी के आकार के इस यंत्र में मोबाइल की तरह कंपन शुरू हो जाएगा। हृदय रोगी के पास मौजूद एक विशेष पेजर में सावधानी बरतने संबंधी संदेश भी पहुंचेगा । ----मालूम हो कि प्रारंभिक दौर में एंजिलमेड गार्जियन का परीक्षण अमेरिका में चल रहा है। ................

इस तरह के समाचारों से आपत्ति यही लगती है कि इस तरह के प्रयोग अभी तो हो ही रहे हैं ----जब ये सभी परीक्षण सफलता पूर्वक पास कर लेंगे तो होनी चाहिये इन की इतनी लंबी चौड़ी चर्चा । पत्रकारिता में एक बात कही जाती है कि खबर वही जो रोमांच पैदा करे -----कुत्ते ने आदमी को काट दिया, यह तो भई कोई खबर नहीं हुई ---इस की न्यूज़-वैल्यू ना के समान है -------------खबर तो वही हुई जब कोई आदमी कुत्ते को काट ले। तो ,अगर मैडीकल खबरों में भी हम रोमांच का तड़का लगाना ही चाहते हैं तो उन्हें मैडीकल खबरों जैसे कॉलम के अंतर्गत केवल दो-चार पंक्तियों में ही डाल देना चाहिये---------ऐसी वैसी खबरों को इतना तूल देने की क्या पड़ी है ?

अकसर अखबारों में इस तरह की खबरों के आसपास ही कुछ इस तरह के विज्ञापन भी बिछे पड़े होते हैं -----
---जब से फलां फलां तेल का इस्तेमाल शुरू किया तो बीवी इज्जत करने लगी।
-----महिलाओं एवं पुरूषों दोनों के लिये डबल धमाका डबल मज़ा --- फलां फलां कैप्सूल के साथ तेल फ्री।
----चूकिं फौजी बनने के लिये ऊंचा कद चाहिये होता है जो कि फलां कैप्सूल से बढ़ जाता है।
-----एक अन्य विज्ञापन में एक 10-11 साल का छोरा कह रहा है कि उसे तो हाइट बढ़ाने की जल्दी है ---इसलिये एक कैप्सूल के इश्तिहार पर उस की फोटो चिपकी हुई है।
----एक अन्य विज्ञापन कह रहा है कि शर्मिंदा होने से पहले इस्तेमाल करें यह वाला तेल ---- पूरे फायदे के लिये शीशी पर इस का नाम खुदा हुआ देख कर ही खरीदें । पुरूषों की ताकत के लिए लोकप्रिय व असरकारक ----शौकीन लोग भी इस्तेमाल करके असर देखें।
----- एक अन्य विज्ञापन कह रहा है कि अभद्र भाषा में ऐरे-गैरे बाज़ारू किसी भी तेल-तिल्ले से जिन्हें सतुष्टि मिल जाती हो वे इस विज्ञापन को नज़रअंदाज़ कर दें क्योंकि यह विज्ञापन भारत से यूरोप को निर्यात होने वाले फलां फलां का है जो सर्वगुण सम्पन्न असली तिल्ला है। पुरूष जननांग का पूर्ण पोषण करने तथा उस में रक्त-प्रवाह की वृद्दि करके उसकी कमज़ोर नसों को सुदृढ़ करने के लिए गुणकारी तेल(तिल्ला)

अब विज्ञापनों के बारे में तो क्या इतनी चर्चा करें -----ये पब्लिक के विवेक पर निर्भर करता है कि वह किसे आजमाना चाहती है और किसे नहीं। ये बहुत ही पेचीदा मसला है। लेकिन जहां पर मैडीकल न्यूज़ का मसला है उस के बारे में तो ज़रूर जल्द से जल्द कुछ होना चाहिये ---- क्या है ना कि मैडीकल एंड हैल्थ रिपोर्टिंग को एक तो वैसे ही हमारे अखबारों में कम जगह मिलती है ---इसलिये मैडीकल न्यूज़ का चुनाव करते समय कुछ बातों का ध्यान रखा जाना बहुत ही ज़रूरी है ----------ये बातें कौन सी हैं, इस की चर्चा शाम को करेंगे ।

वैसे पोस्ट को बंद करते करते यही ध्यान आ रहा है कि हिंदी के अखबारों में पुरूष जननांग के पोषण के लिये इतने सारे विज्ञापन रोज़ाना दिखने के बाद किसी को यह संदेह भी हो सकता है कि क्या सारा हिंदोस्तान ही इतनी दुर्बलता का शिकार है -------------वैसे ऐसा लगता तो नहीं, क्योंकि हमारी दिन प्रतिदिन बढ़ती जनसंख्या के आंकड़ों को जिस तरह से चार चांद लग रहे हैं वह तो कोई और ही दास्तां ब्यां कर रही है। ( कहीं इस के पोषण को कम करने की ज़रूरत तो नहीं, दोस्तो। )

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

चाय में फ्लोराइड का मुद्दा भी कोई मुद्दा है !!

How much fluoride do U.S. water supplies contain ?
The majority of U.S. municipalities add fluoride ( which is toxic at high levels) to their drinking water, at rates between 0.7 and 1.2 ppm. The U.S. Centres for disease control states that this is a safe level. But what if you drink a lot of tea, which is very high in fluoride ? Do you want a double dose of fluoride ?
Food for thought.
आज का एक इंगलिश न्यूज़-पेपर अपने हैल्थ-कैप्सूल के माध्यम से अपने पाठकों को कुछ सोचने के लिये कह रहा है।
कैप्सूल का प्रश्न है – अमेरिका में सप्लाई किये जाने वाले पानी में फ्लोराइड की कितनी मात्रा रहती है ?
अमेरिका में अधिकांश म्यूनिसिपैलेटीज़ पीने वाले पानी में 0.7 से 1.2 ppm ( पार्ट्स पर मिलियन) की मात्रा में फ्लोराइड मिलाते हैं। अमेरिकी सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल के अनुसार पानी में इतने फ्लोराइड की मात्रा एक सुरक्षित स्तर है। चूंकि फ्लोराइड का स्तर चाय में बहुत ज़्यादा होता है और अगर आप बहुत ज़्यादा चाय पीते हैं तो .......? क्या आप फ्लोराइड की डबल-डोज़ चाहते हैं?

यह तो थी इंगलिश अखबार में छपे हैल्थ-कैप्सूल की। अब हम अपनी सीधी सादी देहाती बात करते हैं। वो, क्या है कि लावारिस फिल्म का वह गाना तो आपने मेरी तरह सैंकड़ों बार सुन ही रखा होगा कि जिस का कोई नहीं उस का तो खुदा है यारो, मैं नहीं कहता किताबों में लिखा है यारो !! तो, इस फ्लोराइड के मामले में भी उस नीली छतड़ी वाले ने लगता है हम पर रहम ही किया है। क्योंकि देश के अधिकांश भागों में हमारे यहां पानी में फ्लोराइड की यह मात्रा प्राकृतिक तौर पर ही मौजूद है। लेकिन कुछ कुछ इलाकों में यह फ्लोराइड की मात्रा बहुत ज़्यादा है जिस की वजह से वहां पर डैंटल फ्लोरोसिस एवं हड्डियों से संबंधित कुछ जटिलतायें उत्पन्न हो जाती हैं। रहमो-करम की बात मैं इसलिये कह रहा हूं कि कुदरत ने अपने आप ही हमारी हैल्प कर दी है क्योंकि पानी में फ्लोराइड को संयंत्रों के माध्यम से डालना एक बहुत ही महंगा काम है। यह तो भई अमीर देशों के वश की बात है........क्या कहा आपने, हम किसी से कम हैं क्या ?- ठीक है , अगर किसी रेलवे-स्टेशन अथवा बस-अड्डे पर जिस तादाद में 10रूपये वाली पानी की बोतलें लोगों को थामते देखते हैं केवल उसी समय ध्यान आने लगता है कि यार, हम तो अमीर देश वाले हैं !!
आज कल तो नहीं, लेकिन आज से बीस साल पहले देश में ऐंटी-फ्लोराइड लॉबी बड़ी स्ट्रांग थी। इसलिये टुथपेस्ट में फ्लोराइड के मुद्दे को भी बहुत उछाला जा रहा था। लेकिन अब वह सब बीते समय की बातें लगती हैं। और जहां तक टुथपेस्ट में फ्लोराइड मिलाये जाने की बात है.....यह तो अब सारे विश्व भर में यह सिद्ध हो चुका है कि दांतों की सड़न से बचने का एक बहुत ही कारगर उपाय है ---फ्लोराइडयुक्त टुथपेस्ट । मुझे याद है कि 1989 में मैं पीजीआई चंडीगढ़ में दांतों की बीमारियों की रोकथाम से संबंधित एक ट्रेनिंग प्रोग्राम अटैंड कर रहा था जिस दौरान हमें पता चला कि देश में उपलब्ध कॉलगेट का ही एक ऐसा ब्रांड है ( शायद उस का नाम था ..कालगेट कैल्सीगार्ड) जिस में फ्लोराइड मिला हुआ है। अब तो हमारे यहां टुथपेस्ट के अधिकांश ब्रांड ही ऐसे हैं जिन में फ्लोराईड मिला हुआ है।
लेकिन हमारी समस्या है कि जिन इलाकों में पानी की फ्लोराइड की मात्रा बहुत ज़्यादा है, उन क्षेत्रों में भी हम पानी में फ्लोराइड की मात्रा कम करने के लिये कुछ ज़्यादा कर नहीं पा रहे हैं।
लेकिन एक बात नोट करने वाली है कि देश के सभी इलाकों के लिये फ्लोराइड-युक्त टुथपेस्ट तो चाहिये ही- क्योंकि जिन इलाकों में फ्लोराइड की मात्रा पानी में अधिक होती है, वहां के लोगों के दांतों की संरचना ही कुछ इस तरह की होती है कि उन के दांतों में सड़न पैदा होने की ज़्यादा संभावना रहती है.....इसलिये उन के लिये भी फ्लोराइड-युक्त टुथपेस्ट का नियमित प्रयोग बहुत ज़रूरी है ताकि दांत सड़न से बचे रह सकें।
अब थोड़ी बात करते हैं कि अमेरिका वाले पानी में आखिर फ्लोराइड डालते क्यों हैं....उस का कारण यह है कि फ्लोराइड एक ऐसा trace element है जो हमारे स्वास्थ्य के लिये ज़रूरी होता है। विशेषकर जब दांत जबड़े के अंदर बन रहे होते हैं तो उन की मजबूत संरचना के लिये पानी में फ्लोराइड की उपर्युक्त मात्रा होनी बहुत आवश्यक होती है। इसी प्रकार हड़्डियों के स्वास्थ्य के लिये भी फ्लोराइड का उचित मात्रा में पीने वाले पानी में मौज़ूद रहना ज़रूरी होता है।
वैसे पानी के इलावा फ्लोराइड अलग अलग लैवल में हमारे खाने में भी मौजूद रहता है...जैसे कि मछली एवं चाय। और जहां तक चाय की बात है कि चाय में फ्लोराइड की मात्रा काफी होती है, मुझे नहीं लगता कि इसे कभी भी हमारे यहां एक इश्यू के रूप में देखा जाता है और वास्तव में यह कोई इतना बड़ा इश्यू है भी नहीं जितना कि इस इंगलिश अखबार के कैप्सूल ने बताया है।
हमारे यहां तो चाय इश्यू है मेनली चीनी के लिये-----क्योंकि हम लोग जितनी मीठी चाय पीते है, उस रास्ते से हम लोग कितनी चीनी अपने शरीर में धकेल देते हैं, असल इश्यू तो यही है ।

गुरुवार, 1 मई 2008

वैसे आप एक वर्ष में पिस्ते की कितनी गिरीयां खा लेते हैं ?....(मैडीकल व्यंग्य)

इस से पहले कि आप मेरा यह बेहूदा सा प्रश्न पढ़ कर आक्वर्ड महसूस करें और यह सोच कर मुझ से खफ़ा होने लगें कि क्या अब और कुछ लिखने को बचा नहीं जो......, इस प्रशन का जवाब सब से पहले मैं ही अपने आप से पूछता हूं। तो,सुनिये, मैं भी पूरे वर्ष में पिस्ते की आठ-दस गिरीयां खा ही लेता हूं। मेरा यह कोटा तो लगभग फिक्स ही है......दो-तीन गिरीयां मैं जब अपने ससुराल जाता हूं तब खाता हूं, दो-तीन फिर मुझे अपने दीदी के यहां जाकर भी खानी होती हैं......और वैसे मैं कोई इतना ज़्यादा सोशल-प्राणी हूं नहीं, ज्यादा कहीं आता जाता नहीं.....अब जैसा भी हूं, आप के सामने हूं.....अब अपने द्वारा खाई गई पिस्ते की गीरियों का स्कोर बढ़ाने के लिये तो इधर-उधर जाने से रहा.............लेकिन मेरे तक आप के मन का प्रश्न पहुंच गया है कि यार, तू अब हमें बातों में मत उलझा, पहले तो अपनी आठ-दस गिरीयों का ब्रेक-अप पूरा कर.....सो, चार गिरियां तो मैं गिना ही चुका हूं.....बाकी की खाता हूं दिवाली के दिनों में.....जब कोई भूला-भटका हमारा चाहने वाला ड्राई-फ्रूट के एक डिब्बे का उपहार हमें दे जाता है..( खुद खरीद कर तो पिछले बीस वर्षों में घर में एक-दो बार ही 50-100 ग्राम पिस्ते के दर्शन हुये हैं !!).. तो फिर उस के बाद आने वाले दस-बीस शुभचिंतकों के बीच जब उन पिस्ते की गीरियों को घुमा कर अपनी साधन-संपन्नता का परिचय दिया जाता है तो ऐसे ही कईं बार फार्मैलिटी के राउंड पे राउंड चल पड़ते हैं जब मेजबान कहता है कि लीजिये ना, यह पिस्ता तो आप छू तक नहीं रहे हैं, प्लीज़ लीजिये....फिर मेहमान का वही रटा-रटाया हुया फिकरा कसना.......डाक्टर साहब, सुबह से कईं जगह हो कर आये हैं.....पेट में बिल्कुल भी जगह नहीं है.....लेकिन इतने पर भी मेजबान कैसे हार मान ले....वह फिर अपने संभ्रांत होने का परिचय देने पर मजबूर हो जाता है......क्या यार, इंद्रजीत, इस ड्राई-फ्रूट के लिये भी क्या पेट में खाली जगह होने की ज़रूरत होनी जरूरी है ??( वो बात अलग है कि जब गेस्ट के जाने के बाद बच्चे इन गिरियों की मुट्ठियां भरना चाहते हैं तो हम ही उन के कान खींच कर कहते हैं कि अब तू इन से पेट भरेगा क्या ?.. दाल-रोटी को तो तू मुंह लगा के राज़ी नहीं).........बस, उस एक अदद ट्रे की घुमाई-फिराई के चक्कर में समझ लो पांच-छः गिरीयां विवशता वश खानी ही पड़ जाती हैं.....हां तो हो गया ना मेरा एक साल का कोटा पूरा....आठ-दस गिरीयां, अब तो आप खुश हैं ना .....वैसे एक बात यहां बता दूं कि यह गिरीयां खाने की विवशता मैंने इसलिये लिखी है क्योंकि मेरा इन को इतनी कम मात्रा में खाने से कुछ नहीं होता....वो कहते हैं ना ज़ुबान भी गीली नहीं होती........मैं तो अकसर व्यंग्य का एक बाण यह छोड़ा करता हूं कि अव्वल तो किसी को ट्रे इत्यादि में ड्राई-फ्रूट परोसो नहीं.......अगर किसी भी कारणवश हमारी ड्राई-फ्रूट परोसने की औकात हो ही जाये तो सीधे-सादे ठेठ पेंडू तरीके से कटोरियों में डाल कर सभी मेहमानों के हाथों में एक एक कटोरी थमा दो..................यकीन मानिये, मेरे ये कटोरी में ड्राई-फ्रूट परोसने वाले विचार मेरे बेटों को बहुत भाते हैं.....उन की तो बांछे ही खिल जाती हैं....लेकिन आप अभी तक यह समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर मैं कहना क्या चाह रहा हूं !!

कहने को ऐसा कुछ खास भी नहीं है....बस परसों की इंगलिश की अखबार में एक हैल्थ-कैप्सूल देख लिया जिसे नीचे दे रहा हूं.....

चलिये ज़रा अपनी टूटी-फूटी हिंदी में इस का अनुवाद भी किये देता हूं.....
प्रश्न है.....क्या गिरीयां खाने से मेरा ब्लड-प्रैशर कम हो जायेगा ?
जवाब दिया गया है कि हां, पिस्टाशिओ की गिरीयां तुम्हारा यह काम कर सकती हैं। मुट्ठी भर पिस्टाशिओ की गिरीयां...डेढ़ आउंस के लगभग रोज़ाना खाने से ब्लड-प्रैशर कम हो जाता है।
मुझे गिरी और अंग्रेज़ी नाम से शक सा तो हो गया कि शायद यह कैप्सूल रोज़ाना चालीस-पचास ग्राम पिस्ता खाने की ही बात कर रहा है मैंने यह हैल्थ-कैप्सूल पढ़ कर अपने पास बैठी श्रीमति जी से पिस्टाशिओ का मतलब पूछा। लेकिन जब उन्होंने भी इस संबंध में अपनी अनभिज्ञता ज़ाहिर की तो फिर मुझे फ़ादर कामिल बुल्के के अंगरेजी हिन्दी कोश का रूख करना ही पड़ा....जहां से यह तो तय हो गया कि यह पिस्टाशिओ नाम की बला कोई और नहीं अपना पिस्ता ही है। अब पता नहीं अंग्रेज़ों ने इस का इतना नटखट नाम क्यों रख दिया .....या मुझे तो यह भी नहीं पता कि यह हिंदी नाम ही पिस्टाशिओ से ही चुराया गया है....वैसे संभावना मुझे इस की ज़्यादा लग रही है।
लेकिन क्या आप को लगता है कि मैं अपने किसी मरीज़ को यह सलाह देने की ज़ुर्रत कर सकता हूं कि देख, तूने अगर अपना ब्लड-प्रेशर कम करना है ना तो मेरी बात मान जो कि मैंने कल इंगलिश के अखबार में पढ़ी है ....तू रोज़ाना 40-50 ग्राम पिस्ते की गिरीयां तो खा ही डाला कर...........पता है मैं इस तरह की सलाह क्यों नहीं देना चाहता, क्योंकि मुझे पता है कि मुझे शायद उसी समय उस के मुंह से नहीं भी तो उस की आंखों से यह जवाब मिल ही जायेगा......डाक्टर, तू तो अच्छा भला होता था, तू तो पहले हमेशा से सस्ते, सुंदर और टिकाऊ देसी पौष्टिक खाने की बातें किया करता था, आज तेरे को क्या हो गया है...तू ठीक तो है ना......तेरे को पता है कि पिस्ता 500 रूपये किलो और ऐसे में घर में एक-दो सदस्य 50 रूपये का पिस्ता ही खाने लगेंगे तो बच्चों को या तो पास के किसी गुरूद्वारे में भेजना पड़ेगा या कटोरा पकड़वा कर नुक्कड़ पर खड़ा करना होगा......डाक्टर तू जानता है जिस मुट्ठीभर पिस्ते की गीरियों की तू बात कर रहा है.......यह तो हमारे लिये किसी सपने के बराबर है.......डाक्टर, तू तो जानता है कि अब तो हालत इतनी पतली है कि आसमान को छूते इस साली दाल के दामों की वजह से यह दाल भी इस मुट्ठी से सरकी जा रही है, तू इन में पिस्ता भरने की बातें कर रहा है...मेरे किसी भी बच्चे ने पिस्ते की शकल तक नहीं देखी...यहां तक कि सब्जी लेने बाज़ार में जाना ही बंद कर दिया है...न रेट पूछो..ना ही किसी तरह की हीन भावना का अहसास ही हो.....बच्चे भी बेचारे सारा दिन वह बढ़िया बढिया सीरियल देख कर खुश हो लेते हैं जिस में औरतें ने कईं किलो मेक-अप चढ़ाया होता है, जिस में सब लोग बढिया बढिया कपड़े पहन कर, पूरी तरह सज कर , बढ़िया खाना खाने के लिये कुछ इस तरह से बैठते हैं मानो कि हमें चिढ़ा रहे हों .....ऐसे हालातों में सच बता, डाक्टर तू हम लोगों से इस तरह का बेहूदा मज़ाक भला करता ही क्यों है ?....अब इस का है कोई मेरे जैसे डाक्टर के पास जवाब ??....नहीं, यार, अब क्या जवाब दूं मैं इस का।

ऐसे मौकों पर मुझे मेरे पेरेन्ट्स द्वारा बचपन में कईं बार सुनाया गया वह बाहर के किसी अमीर देश का किस्सा ज़रूर याद आ जाता है ....उस देश में जब अकाल पड़ा तो वहां की जनता बेहाल होकर जब रानी साहिबा के पास पहुंची तो उस ने उन्हें यह लापरवाही से कह डाला.......कोई बात नहीं अनाज नहीं है तो क्या, आप बिस्कुट खा लिया करें। कहते हैं कि उस की इस स्टेटमैंट्स से उस देश में एक गदर हो गया। सोच रहा हूं कि ये काजू-पिस्ते-चिल्गोज़े जैसी खाने वाली चीज़ों के इस्तेमाल के ज़्यादा मशवरे अपने मरीज़ों को ना ही देने में ही मेरी भलाई है.....और मेरे मरीज़ों की भी !!!

सोमवार, 14 अप्रैल 2008

क्या इस फ्लेवर्ड कॉन्डोम को बाज़ार में उतारना कोई नैशनल एमरजैंसी थी !


पिछले पांच-छः वर्षों में मेरे पढ़ने की आदतों में बहुत बदलाव आया है। कुछ साल पहले जब मैं समझता था कि मैं सारे प्रिंट मीडिया में हैल्थ-कवरेज को बदल के रख दूंगा तब मैं लगभग 10 अखबारें रोज़ाना पढ़ता था। 3-4 अंग्रेज़ी की, 3-4हिंदी की और दो-एक पंजाबी की। फिर धीरे धीरे मुझे इन से कईं कारणों से इरीटेशन सी होने लगी। मैं यह महसूस किया कि इन में से अधिकांश ने समाज-वाज सुधारने का ठेका नहीं ले रखा....सुधार तो दूर, ये तो ढंग से किसी को समझाते तक नहीं। तो, मैंने धीरे धीरे अखबारें पढ़नी कम कर दीं। अब रोज़ाना तीन अखबारें ही पढ़ता हूं...दो अंग्रेज़ी की और एक हिंदी की।
अब मेरी च्वाइस व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित है....अंग्रेज़ी का एक पेपर तो ऐसा है जिस से मैं कुछ सीखने के लिये पढ़ता हूं, दूसरे को सूचना एवं एंटरटेनमैंट के लिये पढ़ता हूं और हिंदी की अखबार को इसलिये पढ़ता हूं कि कुछ नये शब्द सीखने को मिलते हैं और साथ में यह भी जान पाता हूं कि आम आदमी को क्या क्या परोसा जा रहा है !
जिन जिन हिंदी की अखबारों को मैंने इतने वर्षों तक पढ़ा है उन से मेरा गिला यही है कि वे आम इंसान की जुबान नहीं बन पाये हैं। मुझे दूसरे इलाकों का तो पता नहीं लेकिन पंजाब हरियाणा के बारे में तो मेरी आब्जर्वेशन यही है कि जिसे अंग्रेज़ी नहीं आती वो हिंदी अखबार पढ़ते हैं ....ऐसे में हिंदी वे इस से किसी मोहपाश की वजह से नहीं पढ़ते....इसे पढ़ना उन की मजबूरी है और सच्चाई तो यही है कि हिंदी पेपर पढ़ने वालों की मात्रा अंग्रेज़ी पढ़ने वालों की तुलना में बहुत बहुत ज़्यादा है। तो, फिर इसे प्रिंट मीडिया आखिर क्यों नहीं भुनायेगा.......लोगों की जागरूकता, लोगों के सरोकार, लोगों की प्राथमिकतायें गईं तेल लेने......उसका तो अपना उल्लू सीधा होना चाहिये।
मुझे नहीं पता पंजाब-हरियाणा के बाहर क्या हो रहा है.....लेकिन यहां तो ऐसे ऐसे हिंदी के अखबार आते हैं जिन के पेज तरह तरह के इश्तिहारों से ठसाठस भरे पड़े होते हैं। मुझे पता है कि कुछ पत्रकार लोग इस पर यह टिप्पणी भी देंगे कि अखबार ने अपनी आर्थिक हालत भी तो ठीक करनी है...........ये सब बातें मेरे से छुपी नहीं हैं क्योंकि मैं भी जर्नलिज़्म एवं मॉस कम्यूनिकेशन पढ़ चुका हूं। आर्थिक हालात तो इन अखबारों के अच्छे खासे अच्छे हैं ही .....लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों ये लेखकों को एक फूटी कौड़ी भी देकर राज़ी नहीं हैं।
मैं भी पांच वर्षों तक इन अखबारों को बिना किसी पैसे के खूब लेख भेजता रहा .....लेकिन कुछ समय बाद अपने अपने से ही यही पूछने लगा कि यार, ये लोग तो कमाई करें लेकिन हम क्यों लिखें........दूसरी बात यह भी तो है कि मैं तो प्रोफैशनल हूं, चलो दाल-रोटी की खास चिंता है नहीं , इसलिये कलम से साथ धडल्ले से खेल लेता हूं लेकिन मुझे मेरे उन लेखक/पत्रकार भाइयों से बेहद सहानुभूति है जिन्होंने इस लेखन के ज़रिये ही अपना भरन-पोषण करना है। समझ में नहीं आती कि इस देश में लेखन ही इतना सस्ता क्यों है..........और ऊपर से जले पर नमक छिड़कने के लिये इसी लेखक को अब क्रीमी-लेयर की पदवी से नवाज़ा गया है। कितने गर्व की बात है.....आखिर यह तो माना गया कि लेखन भी एक मलाईदार कला है।
हां, तो मैं जिन हिंदी अखबारों की बात कर रहा था , उन में से तो कुछ एक में इस इस तरह की फोटो छपती हैं कि मैं इन को इधर लिख भी नहीं पा रहा हूं। अगर इन के बारे में लिखने लग गया तो ऐसा लगने लगेगा कि यह पेज मीडिया डाक्टर का ना होकर, छोटी मोटी पोर्नो-साइट ही है।
तरह तरह के अश्लील इश्तिहार.....नामर्द को मर्द बनाने का दावा करने वाले, किसी चमत्कारी तेल से विवाह को तोड़ने से बचाने वाले, कद को लंबा करने वाले, पतले बंदे को मोटा करने वाले, बिस्तर पर ही लेटे लेटे सैर करवाने वाले, औरतें के वक्ष-स्थल उन्नत करने वाले और टेढ़ेपन( खुदा जाने ये यह प्राबल्म कहां से ढूंढ लाये हैं !) को सीधा करने वाले विज्ञापन ....और रहती हुई कसर उस एमरजैंसी गर्भ-निरोधक गोली के रोज़ाना दिखने वाले विज्ञापन ने पूरी कर दी है......आने वाले समय में इस गोली को भी लोग इतना मिस-यूज़ करने लगेंगे कि सोच कर डरता हूं । हां, एक कसर तो अभी बाकी थी ही कि................अकसर अखबारों में फ्लेवरर्ज कंडोम्स के भी विज्ञापन पहले पन्ने पर आने लगे हैं....आज का ही विज्ञापन सारे हिंदोस्तान से पूछ रहा है कि बब्बलगम फलेवर ट्राई किया क्या .....इस तरह के विज्ञापनों को देख कर जो भाव मन में उठते हैं, वे यहां लिख पाने में असमर्थ हूं.................अब इन की मैं क्या व्याख्या करूं, आप को सब कुछ अपने आप समझना होगा, ऐसी बातें हिंदी में लिखना भी कितना बेकार लगता है।
ये जो दो खबरें भी आप इस फोटो में देख रहे हैं ...ये आइसक्रीम वाली खबर भी कोई खबर है.....चिढ़ होती है , इस तरह की खबरें देख के......पढ़ कर तो हाल और भी खराब हो जाती है। दूसरी खबर किसी स्वास्थ्य-वर्धक आटे की बात कह रही है.........अब इस के बारे में क्या लिखूं, क्या न लिखूं.....बहुत कुछ पिछली पोस्टों में लिख ही चुका हूं।
पोस्ट पूरी लिख दी है लेकिन यही समझ में नहीं आ रहा है कि इसे लिखने का मकसद क्या है.......तो, आप प्लीज़ यही समझ लीजियेगा कि आपने मेरी डायरी का एक पन्ना ही पढ़ लिया है, और कुछ खास नहीं !!

बुधवार, 9 अप्रैल 2008

कितने हिस्सों में बंटेगी हमारी सेहत ?



मुझे शुरू से ही सेहत के विषय को छिन्न-छिन्न कर के देखने से बड़ी आपत्ति रही है। एक मजाक सा भी तो आपने सुना ही होगा कि एक आंख के लिये एक चिकित्सक और दूसरी के लिये दूसरा।
बात शुरू करते हैं इस हैल्थ-कैप्सूल में जिस में छपा है कि कोलेस्ट्रोल के स्तर को दवाईयों से कम करने की बजाय बहुत से प्राकृतिक विकल्प हैं –इन में से एक बहुत ही उत्तम है नायॉसिन। साथ में यह भी लिखा है कि यह नायॉसिन हानिकारक कोलेस्ट्रोल को घटाता है और फायदेमंद कोलेस्ट्रोल को बढ़ाता है।
यह पढ़ कर मेरे मन में यही विचार आया कि यह नायॉसिन किस बला का नाम है यह इस अंग्रेज़ी अखबार के कितने पाठक जानते होंगे। यह सोच कर कि अकसर स्वास्थ्य से संबंधित इतनी अहम् जानकारी पढ़ कर कोई भी इंसान डिक्शनरी की तरफ़ लपकेगा.....मैंने भी अपनी टेबल पर पड़ी Longman Dictionary of Contemporary English को खोल कर इस का अर्थ आप के लिये ढूंढना चाहा (क्योंकि मुझे तो मालूम था ही !)..an important chemical ( a type of Vitamin B) found in foods like milk and eggs)……तो शब्दकोष में इसके बारे में यह लिखा हुया है कि यह एक महत्त्वपूर्ण रसायन है जो कि विटामिन बी की एक किस्म है जो दूध एवं अंड़ों जैसे खाद्य पदार्थों में पाया जाता है।
अब किसी पाठक का यह सोच कर थोड़ा दुविधा में पड़ जाना कि यार, मेरे डाक्टर ने तो मुझे मेरे बड़े हुये कोलेस्ट्रोल के कारण अंडे के सेवन से मना किया हुया है लेकिन यहां तो बात ही कुछ और है। तो, इस आधा-अधूरी जानकारी से पाठक को सिर दुःखना स्वाभाविक है कि नहीं !!
तो, क्या स्वास्थ्य की तरफ़ इस तरह की फ्रैग्मैंटिड अप्रोच के लिये क्या हम सारा दोष मीडिया के ऊपर ही मढ़ कर बेपरवाही की चादर ओढ़ लें......अफसोस ऐसा संभव न होगा। क्योंकि स्वास्थ्य को ज़्यादा ही छिन्न-छिन्न कर देखने की प्रवृत्ति मैडीकल प्रोफैशल की भी बनती जा रही है....इस के कारणों के पीछे न ही जायें तो बेहतर होगा। कल मिसिज़ भी कह रही थीं कि इस स्पैशलाइज़ेशन, सुपर स्पैशलाइज़ेशन ने बहुत कुछ आसान कर दिया है लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि हर विशेषज्ञ ने अपना ध्यान अपने ही एरिया में इतना ज़्यादा केंद्रित कर दिया है कि इन हालात में कुछ बीमारियों के कई बार मिस हो जाने के किस्से नोटिस में आते रहते हैं। तो, ऐसे में मेरा केवल एक प्रश्न है कि हम किसी भी मरीज़ को टोटैलिटी में---होलिस्टिक अप्रोच से— देखना कब शुरू करेंगे !! ..लेकिन यह ब्यूटी हमें अपनी पुरातन चिकित्सा पद्धतियों में खूब देखने को मिलती है.....अकसर सोच कर अचंभित होता हूं कि वे पुराने वैद्य भी इस शरीर विज्ञान के कितने मंजे खिलाड़ी रहे होंगे जिन का काम ही केवल नाड़ी टटोल कर और मुंह के अंदर झांक कर बीमारी का निदान करना होता था !!
अब तो इतने इतने महंगे महंगे टैस्ट करवा लेने के बाद भी कईं बार किसी निष्कर्ष पर पहुंचना दुर्गम सा हो जाता है। और अकसर ये टैस्ट आम आदमी की पहुंच से दूर ही नहीं – बहुत दूर होते हैं। ऐसे में यह विचार आना स्वाभाविक ही है कि पुरानी चिकित्सा प्रणाली ज्यादा विकसित थी ( या है?????.....अब इस पर भी मार्केट शक्तियां हावी होती दिख रही हैं!!)…..या हमारी यह आधुनिक चिकित्सा प्रणाली। लेकिन लगता है कि यह बहस तो लंबी चल पड़ेगी, इसलिये फिर कभी !!
अकसर मीडिया में ही देखने, पढ़ने और सुनने को मिलता है कि बालों की सेहत के लिये यह सप्लीमेंट्स लें, प्रोस्ट्रेट के कैंसर से बचने के लिये यह खाया करें, स्वस्थ बच्चे को जन्म देने के लिये गर्भवती महिलायें ये खायें...वो खायें, दिल के दौरे से बचने के लिये यह लिया करें..वो ना लिया करें....इस समय तो मेरे ध्यान में ही नहीं आ रहे ये सब.....लेकिन उन की भाषा कुछ इस तरह की रहती है कि गर्भाशय के कैंसर से बचने के लिये फलां फलां वस्तु का प्रयोग करें और एक अध्ययन में पाया गया कि इस का सेवन इतने वर्षों तक करने से इस कैंसर के रोगियों की संख्या में इतने फीसदी की कमी हो गई।
मुझे तो भई यह किसी मज़ाक से ज़्यादा नहीं लगता....कारण ??......विशेषकर इस देश में जहां अधिकांश लोगों की खाने पीने की असलियत केवल उस मिट्टी के चूल्हे पर पक रही खिचड़ी तक ही सीमित है .....और कुछ नहीं....ऐसे में उसे तरह तरह के संप्लीमैंट्स की सलाह देना भी क्या किसी मजाक से कम है। वैसे तो जिसे खिचड़ी/ दाल-भात भी नसीब हो रहा है वह खुशकिस्मत है.....उसे इस तरह की फ्रैग्मैंटिड अप्रोच के क्या लेना देना.......पता नहीं हम लोग कब होलिस्टिक हैल्थ के बारे में सोचेंगे.....खुद नहीं सोच सकते तो बाबा रामदेव जी की बातों का अनुसरण करने में ही आखिर दिक्कत क्या है ?....समझ में नहीं आता।
हमें लोगों को एक संतुलित आहार लेने के लिये( सस्ते ढंग से) प्रेरित करना ही होगा.......यह देखना होगा कि कैसे कोई परिवार खिचड़ी के साथ थोड़ी साग-सब्जी-फल का सेवन कर सकता है.................ना कि उसे बीसियों तरह के सप्लीमेंट्स गिना गिना कर परेशान करने के साथ साथ हीन-भावना का शिकार करते रहें।
सीधी सी बात है जब हम लोग मौसम के अनुसार संतुलित आहार लेते हैं तो हमें वह सब कुछ मिल जाता है जिस की हमारे शरीर को ज़रूरत होती है.......चाहे हमें उन तत्त्वों के भारी-भरकम अंग्रेज़ी नाम पता हों या नहीं, इन से कोई फर्क नहीं पड़ेगा !!!..............और हां, साथ ही साथ एक बहुत ही ज़रूरी शर्त है कि हमें हर तरह के व्यसनों के दूर तो रहना ही होगा....इस के इलावा कोई चारा है ही नहीं !!!.....No excuses, please!!

मंगलवार, 8 अप्रैल 2008

पंजाब में कैंसर से ज़्यादा औरतें मरती हैं.....और सुईं अटक गई !!



एक अंग्रेज़ी अखबार में दो-अढ़ाई सौ कॉलम सैंटीमी.को घेरे हुये किसी स्पैशल कारसपोंडैंट की यह रिपोर्ट केवल इतना कह रही है कि पंजाब में कैंसर से ज़्यादा महिलायें मरती हैं। बस इतना कह कर ही सुईं अटक गई लगती है। कईं बार कुछ इस तरह की रिपोर्टज़ देख कर ही पत्रकारों के होम-वर्क की तरफ़ जाता है ....जिसे अगर नहीं किया या ढंग से नहीं किया तो वह ऐसी रिपोर्टों के रूप में सामने आता है, ऐसा मेरा व्यक्तिगत विचार है।
इस रिपोर्ट को देख कर रह रह कर मन में बहुत से प्रश्न उठ रहे हैं जैसे कि
- पंजाब के तीस गांवों से जो सैंपल इस अध्ययन के लिये लिया गया,क्या वह ट्रयूली रिप्रसैंटेटिव सैंपल रहा होगा और क्या इस से होने वाले परिणाम स्टैटीक्ली सिग्नीफिकेंट भी हैं क्या ?
- इतनी लंबी रिपोर्ट पढ़ कर यह कुछ पता नहीं चलता कि आखिर ऐसे कौन से कैंसर हैं जो कि पंजाबी महिलाओं में ही ज़्यादा होते हैं.....क्या ये उन के फीमेल बॉडी पार्ट्स से संबंधित कैंसर हैं या अन्य अंगों से संबंधित......इस महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया जाना भी लाज़मी था।
- Age profile की बात नहीं की गई है.....जिन महिलाओं के ऊपर यह अध्ययन किया गया वह किस उम्र से संबंध रखती थीं......इस के बारे में भी यह रिपोर्ट चुप है।
- इस संबंध में अगर किसी मैडीकल कालेज के प्रोफैसर इत्यादि से कोई बातचीत भी इस में साथ दी गई होती तो बेहतर होता।
- देश में कैंसर रजिस्टरी नाम की एक संस्था है....वह क्या कहती है पंजाब के बारे में ....इस का भी अगर उल्लेख होता तो पाठक की सोच को एक दिशा मिलती ।
मैं तो बस इतना ही कहूंगा कि मुझे यह रिपोर्ट पढ़ कर कुछ ज़्यादा जानकारी हासिल नहीं हुई। कारण आप के सामने हैं...अगर इन बातों का भी ध्यान रखा जाता है तो शायद इस रिपोर्ट से हम कुछ महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाल लेते। लेकिन जो भी हो, इतना आज एक बार फिर से समझ में आ गया कि होम-वर्क लगन के साथ करना स्कूली बच्चों के लिये ही नहीं, पत्रकारों के लिये भी बेहद लाज़मी है। आप का इस न्यूज़-रिपोर्ट के बारे में क्या ख्याल है ?

रविवार, 6 अप्रैल 2008

अब मछली-भात को भी लगी नज़र !



आप की तरह मैं भी यह नहीं सोचता कि यह खबर पढ़ने के बाद रातों-रात उन सब लोगों के खाने की आदतें बदल जायेंगी जो युगों-युगों से इस का सेवन करते आ रहे हैं। लेकिन मैं इस समय वैसे भी बात इस खबर की प्रामाणिकता की कर रहा हूं....कितनी बढ़िया तरह से सब कुछ कवर किया है। सोचता हूं कि जिस न्यूज़-रिपोर्ट से प्रामाणिकता की महक आती है वो तो अपने काम में सफल ही है। लोग चाहे दाल-भात आज से खाना बंद नहीं कर देंगे.....लेकिन एक पत्रकार ने एक मंजे हुये शोधकर्त्ता के अनुभव पब्लिक के समक्ष रख कर एक बीज रोप दिया .....जो धीरे धीरे पनपता रहेगा.....और जब भी वह बंदा दाल-भात खा रहा होगा, दिल के किसी ना किसी कौने में कहीं तो इस खबर की याद बनी रहेगी।

शनिवार, 5 अप्रैल 2008

अंग्रेज़ी अखबार के इस कैप्सूल ने मुझे तो ठीक ना किया !!



संयोग की बात देखिये की जिस समय मेरी इस कैप्सूल पर निगाह पड़ी तो मुझे बहुत छींके आ रही थीं –सो, परेशान तो मैं था ही, आव देखा न ताव, उस कैप्सूल में बताये गये फार्मूले को टैस्ट करने की सोच ली। मैं तुरंत शुरू हो गया और दोपहर होते होते विटामिन-सी की दस-बारह गोलियां खा लेने के बावजूद भी जब जुकाम में कुछ भी राहत महसूस न हुई तो मैं परेशान हो गया।(लेकिन इतना विटामिन सी खा लेने के बाद भी मुझे तो दस्त नहीं लगे....देखिये ऊपर वह कैप्सूल कुछ कह रहा है !)…. फिजिशियन श्रीमति जी ने एक जुकाम की टेबलेट जबरदस्ती खिला ही दी....और मां ने अदरक वाली चाय नमक डाल कर दो-तीन बार पिला दी और साथ में मुलैठी के टुकड़े चूसने को दे दिये---जी हां, बचपन से ही मेरा अजमाया हुया जुकाम से छुटकारा पाने का सुपरहिट- फार्मूला।
इस जुकाम की तकलीफ़ से जूझते जूझते इस विटामिन सी खाने के फरमान के बारे में यही ध्यान आया कि अगर नैचुरल तरीके से ( संतरा, कीनू, नींबू और आंवला इत्यादि)...ही इस विटामिन सी को रोज़ प्राप्त कर लिया जाये तो बंदे की इम्यूनिटी (रोग-प्रतिरोधक क्षमता) वैसे ही इतनी बढ़िया हो जाये कि वह इस मौसमी खांसी-जुकाम के चक्कर से वैसे ही बचा रहे।
एक ध्यान और भी आ रहा है कि मैंने तो यह विटामिन सी की गोलियां धड़ाधड़ खाने का प्रयोग केवल एक प्रयोग के खातिर कर ही लिया.....लेकिन सोच रहा हूं कि अगर कोई मरीज़ किसी डाक्टर के पास जाकर अपना यही दुःखड़ा रोये कि उस ने विटामिन-सी की दस-पंद्रह गोलियां खा ली हैं लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा तो शायद हम लोग ही उसे कुछ इस तरह का जवाब देंगे......देखो, विटामिन सी किसी अच्छी कंपनी का था कि नहीं, कंपनी ठीक ठाक थी –जब यह पता चल जायेगा तो हम कहेंगे कि भाई, तुम ने ज़रूर इस विटामिन सी को देर से ही लेना शुरू किया होगा। और शायद इतना कहने में भी नहीं गुरेज़ नहीं करेंगे कि तुम्हारी इम्यूनिटी में ही कुछ गड़बड़ लगती है....शायद कुछ भी कह देते जैसे कि तुम्हारी तो प्राबल्म ही कुछ और है !!......शायद यह सब इसलिये की उस अंग्रेजी अखबार में छपा कैप्सूल कैसे गलत हो सकता है, कहीं हम लोग यह तो नहीं सोच लेते कि उस कैप्सूल में जो भी लिखा है वह तो पत्थर पर लकीर है !!............बात सोचने की है या नहीं ?

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2008

प्री-मैरिज काउंसिलिंग......खोदा पहाड़, निकला चूहा !



आज सुबह सुबह यह प्री-मैरिज काउंसिलिंग वाली न्यूज़-रिपोर्ट पढ़ कर तो कुछ ऐसी ही फीलिंग हुई कि खोदा पहाड़-निकला चूहा। मैं तो बस संक्षेप में इतना ही कहना चाह रहा हूं कि जितनी परमिसिवनैस हम लोग आज अपने समाज में भी देख रहे हैं.....ऐसे वातावरण में तो यह अपने आप में एक सुलगता मुद्दा है ही !!....आज आप स्कूली बच्चों को यौन-शिक्षा देने की बात करें तो झट से कईं फ्रंट बन जायेंगे। ऐसे में अब हमें शादी के कुछ दिन पहले ही यह प्री-मैरिज काउंसिलिंग करने की बातें याद आने लगी हैं। क्या इतने क्विक-फिक्स सल्यूशन चल पायेंगे.....आप को क्या लगता है...........वो मैं आप की बात से पूर्णतयः सहमत हूं ...Something is better than nothing !!

वैसे मैं तो अपने यहां के युवक-युवतियों को तभी परिपक्व मानूंगा जब वे शादी से पहले एक दूसरे से मैडीकल-रिपोर्टज़ ( विशेषकर एचआईव्ही स्टेटस) की मांग करेंगे। हम लोग बाज़ार में दो सौ रूपये का सामान लेने जाते हैं तो इतनी नुक्ता-चीनी करते हैं और जब हमारे बेटी-बेटों को ब्याहने की बारी आती है तो हम इन के स्वास्थ्य के बारे में कुछ भी बात करने में इतना झिझकते हैं मानो कि ......!! मुझे पता है कि आज की तारीख में तो इस तरह की बात उठाना भी उपहास का कारण बनने के बराबर है...........लेकिन मार्क मॉय वर्ड्स ....देर-सवेर यह झिझक हमें खुद ही दूर करनी होगी !!.....बाकी फिर कभी !!

शुक्रवार, 29 फ़रवरी 2008

यह खबर यहां कर क्या रही है ?


तीन दिन पहले एक इंगलिश के पेपर में एक बहुत बड़ी खबर लगी जिसे देख कर मुझे बहुत अचंभा हुया कि आखिर इस की न्यूज़-वैल्यू है क्या जो इसे इतना स्पेस दिया गया है.....मुझे अचंभा होना इसलिए भी लाज़मी था क्योंकि इस पेपर की बैलेंसड रिपोर्टिंग के लिए मेरे मन में इस के लिए बहुत सम्मान है।
खबर क्या थी .....खबर थी......Surgeons urged to take precaution to prevent rupture of aneurysm……हिंदी में लिखता हूं.....शल्य-चिकित्सकों को ऐन्यूरिज़्म को फटने से बचाने के लिए एहतियात बरतने को कहा गया...... अब एक औसत पाठक को ऐसी खबर से क्या लेना देना। इस खबर को इतना ज़्यादा बोल्ड शीर्षक में दिखना अजीब सा लगा कि इस में इस ऐन्यूरिज़्म के बारे में तो इतना ही लिखा हुया था कि यह किसी रक्त-नाड़ी( ब्लड-वैसल) का एक गुब्बारे-नुमा उभार होता है। और साथ में यह भी लिखा गया था कि न्यूरोसर्जन्स को यह चेतावनी दी गई थी कि .... इन को इंसीज़न (सर्जीकल ब्लेड से जो कट लगाते हैं) निचले कोण से लगाने को कहा गया है। अब यह बात आम पब्लिक को तो क्या ज़्यादातर डाक्टरों के भी ऊपर से ही निकल गई होगी।
उस खबर में इस बीमारी के कारणों, इस के रोग-लक्षणों , इस की डॉयग्नोसिस आदि के बारे में कुछ नहीं बताया गया था......लेकिन इस बात को खूब अच्छी तरह से कवर किया गया था कि उस जापान से आने वाली शख्शियत ने किस वीआईपी का इलाज किया था....अब वो क्या कर रहा है, उस को सम्मानित किये जाने की बहुत बड़ी सी फोटो भी खबर के साथ पड़ी हुई थी। सोच रहा हूं ...ऐसी प्रोफैशनल एडवाईज़ तो सामान्यतः प्रोफैशनल जर्नल में ही दिखती है। और फिर सोच रहा हूं कि शायद खबर में कोई खराबी नहीं थी, उस के शीर्षक में ही गड़बड़ थी....ऐसा लग रहा है कि अगर इसी खबर का शीर्षक कुछ इस तरह का होता कि .....विख्यात न्यूरोसर्जन सम्मानित.........।
कहीं यह अखबार वाले यह समझने की भूल तो नहीं कर बैठे कि इस देश के हर शहर की नुक्कड़ो पर न्यूरोसर्जन नहीं , नीम-हकीम झोला-छाप छाये हुये हैं........उन को सुधारने के लिये भी ,उन का माइंड-सैट चेंज करने के लिए भी कुछ मसाला डाला करो..................न्यूरोसर्जन तो ऐसी खबरें इंटरनैट पर या अपने प्रोफैश्नल जर्नलों में देख ही लेते हैं। नहीं तो, कम से कम खबर के शीर्षक की तरफ़ ही देख लेना चाहिए।

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2008

बस हमारे यहां भी ऑक्सीजन बार खुलने ही वाले हैं.....

“ऑक्सीजन बार में आक्सीजन सूंघने आये ग्राहकों को आक्सीजन बहुत अच्छी मात्रा (95प्रतिशत तक) उपलब्ध होती है जो कि सामान्य वातावरण से उपलब्ध होने वाली मात्रा (21प्रतिशत) से बहुत ज्यादा होती है और यह मात्रा प्रदूषित वातावरण में तो और भी घट जाती है।”--------यह पंक्तियां मैंने आज के अंग्रेजी पेपर हिंदु की एक रिपोर्ट से ली हैं, जिस का शीर्षक और यही पंक्तियां नीचे लिख रहा हूं......
Oxygen bars catch on…..……”Oxygen bars offer sniffers an increased percentage (upto 95percent) of oxygen compared to the normal atmospheric content of 21percent – lower in the case of severe pollution.”

यह वाली खबर पढ़ कर मुझे कोई ज़्यादा हैरानी नहीं हुई क्योंकि कुछ इस से मिलती जुलती खबर मैंने एक-दो साल पहले भी कहीं पढ़ी थी। इस में यह भी बताया गया है कि कैनेडा से कैलीफोर्निया और ब्रिटेन से जापान...तक फैलते हुये ये ऑक्सीजन बॉर अब फ्रांस में भी कईं जगहों पर खुल गये हैं...इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए इस तरह का पहला बॉर कल पैरिस के बहुत ही फैशुनेबल इलाके में खुला है, जिस से ही संबंधित यह खबर लगी थी।

इस देश में तो जब किसी को ऑक्सीजन लगती है ना तो सारे सगे-संबंधी अपना खाना-पीना भूल जाते हैं। लेकिन यह फैशन देखिए कि लोग रिलैक्स होने के लिए, तनाव-मुक्त होने के लिए इन ऑक्सीजन बॉर में जा रहे हैं....जो कि नाइट-क्लबों में, हैल्थ-क्लबों में, हवाई-अड्डों पर, और यहां तक कि ट्रेड-फेयरों में एक अच्छा-खासा बिजनैस बन रहा है। इस दौरान इन्हें कम से कम दस मिनट तक ऑक्सीजन सूंघाई जाती है।

हां, एक बात याद आई.....कि मैं जिस किसी न्यूज़-रिपोर्ट को पहले से पढ़ने की बात कर रहा था, इस के संबंध में मुझे कुछ कुछ याद आ रहा है कि शायद उस में मैंने पढ़ा था कि ऐसा ऑक्सीजन बार अहमदाबाद में भी खुल गया है।

वैसे एक तरह से देखा जाये तो जिस तरह की प्रकृति के साथ दूसरी सब तरह की पंगेबाजी हो रही है, यह ऑक्सीजन बार वाली बात तो कोई इतनी बड़ी नहीं कि इसे इतना तूल दिया जाये। लेकिन , नहीं , हमारे देश में इसे तूल दिया जाये दिया ही जाना चाहिए......क्यों कि इस तरह की ऊल-जलूल प्रणालियों की हमें कोई ज़रूरत ही नहीं है।

हमारे पास तो भई इस से भी कईं गुणा (हज़ारों गुणा !) बेहतर विकल्प है .....हज़ारों साल पुराना हमारे ऋषियों-मुनियों द्वारा सिद्ध किया हुया प्राणायाम्। यह जो प्राणायाम् है न यह पूरी तरह से वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित है क्योंकि जब हम प्राणायाम् करते हैं तो हमारे शरीर में इस प्राण-ऊर्जा की सप्लाई कईं गुणा तक बढ़ जाती है जिस की वजह से हम सारा दिन बहुत चुस्ती-स्फूर्ति अनुभव करते रहते हैं। अगर हम नियमित प्राणायाम करते हैं तो हमें अनगिनत लाभ प्राप्त होते हैं।
लेकिन मैं यह समझता हूं कि प्राणायाम की विधि हमें कहीं से व्यक्तिगत रूप से सीखनी चाहिए क्योंकि यह एक बहुत ही सटल(subtle science)वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिस को अगर पूरी निगरानी से न सीखा जाये तो इस का वांछित प्रभाव तो दूर किसी उल्ट प्रभाव का भी अंदेशा लगा रहता है।

मैंने यह सब कुछ बंबई में रहते हुए एक पंद्रह दिन के कार्यक्रम के दौरान सीखा था। यह सिद्ध समाधि योग कार्यक्रम है, जो कि ऋषि संस्कृति विद्या केन्द्र नामक संस्था करवाती है जो कि अडवर्टाइजिंग में विश्वास नहीं करती है....इस के संस्थापक हैं ब्रह्मर्षि ऋषि प्रभाकर जी, जो कि स्वयं एक ऐरोनॉटिक्ल इंजीनियर हैं और जिन की कईं सालों की तपस्या का फल है यह प्रोग्राम...सिद्ध समाधि योग प्रोग्राम ( Siddha Samadhi yoga programmes run by Rishi Samskruti Vidya Kendra with its headquarters at Bangalore.. www.ssy.org) इन के सेंटर विभिन्न शहरों में हैं।
वास्तव में यह प्रोग्राम कर लेने के बाद से तो मेरी जिंदगी में बहुत बदलाव आये थे। कुछ साल तक तो मैं नियमित सब कुछ प्रैक्टिस करता रहा ...लेकिन काफी लंबे अरसे से बस हर किसी को ज़्यादा उपदेश देता रहता हूं लेकिन खुद नहीं करता हूं जब कि मुझे इतना भी पता है कि इस का नियमित अभ्यास करने से ज़्यादा कोई और चीज़ मेरे लिए इतनी ज़रूरी नहीं है। लेकिन अब जब से इस ऑक्सीजन बार वाली खबर पर नज़र पड़ी है ना , तो बस मन ही मन ठान लिया है कि अब फिर से इस का अभ्यास दोबारा शुरू करूंगा। पता नहीं हम डाक्टर लोग खुद के लिए क्यों इतने लापरवाह होते हैं। शायद हम अपनी सलाह खुद नहीं मानना चाहते ...अपने आप से पूछ रहा हूं कि कहीं वही वाली बात तो नहीं है....हलवाई अपनी मिठाई खुद नहीं खाता। लेकिन जो भी यह सब कुछ ---प्राणायाम् इत्यादि ---तो जल्द से जल्द शुरू करना ही होगा....वज़न बढ़ रहा है, और कुछ खास शारिरिक श्रम करता नहीं हूं।

और हां, वह अपनी ऑक्सीजन बार तो कहीं बीच में ही रह गई। उस हिंदु अखबार की रिपोर्ट में यह भी लिखा था कि चूंकि इस तरह की ऑक्सीजन का प्रयोग सामान्यतः अस्पताल में तो एक दवाई की तरह होता है ( विशेषकर सांस लेने में कठिनाई के मामलों में), इसलिए इस तरह के ऑक्सीजन बारों को भी कंट्रोल करने की बात छिड़ी हुई है।
तो चलो, बीयर बॉर के मुद्दे से पूरी तरह फारिग हुये बिना अपनी बलोग्स में इस ऑक्सीजन बार के बारे में हमें आने वाले दिनों में खूब लिखने को मिलेगा.......वैसे तो मेरी प्रार्थना यही है कि ये आक्सीजन बार हमारे यहां तो न ही आयें तो बेहतर होगा......इस मामले में हम वैस्टर्न के लोगों से जितना पीछे ही रहें उतना ही बेहतर होगा। लेकिन मेरे सोचने से क्या हो जायेगा.....अगर आने वाले समय में इन ऑक्सीजन बारों की भरमार होनी है तो इन्हें लोगों को शुद्ध ऑक्सीजन का लुत्फ़ उठाने के लिए उकसाने से भला कौन रोक सकता है ?

बुधवार, 13 फ़रवरी 2008

यह फूला हुया गुब्बारा पेट में क्या कर रहा है ?

आप्रेशन के दौरान गलती से पेट में कोई सर्जीकल औजार, छोटा-मोटा तौलिया या कोई गाज़-पीस(पट्टी) की खबरें कभी कभी मीडिया में देखने-सुनने के बाद आप का इस पेट में पड़े हुए गुब्बारे के बारे में इतना उतावलापन भी मुनासिब जान पड़ता है।
                                                


लेकिन यहां पर जिस गुब्बारे की बात की जायेगी वह फूला हुया गुब्बारा तो जान बूझ कर किसी बंदे की भलाई के लिए ही उस के पेट में छोड़ा जाता है......जी हां, बिल्कुल उस के फायदा के लिए ही इसे पेट में पहुंचाया जाता है ताकि उस बंदे का वज़न कम हो सके। अब तो मोटापे को कम करने के लिए गोलियां चल पड़ीं हैं, शरीर के कुछ हिस्सों से वसा को सर्जरी के द्वारा निकाल दिया जाता है (liposuction), और यहां तक कि पेट का आप्रेशन कर के उसे छोटा कर दिया जाता है । शायद अब पेट में बस गुब्बारे छोड़ने की ही कसर बाकी थी।(कहीं वह पेट में चूहे दौड़ने वाली कहावत बदल कर आने वाले समय में बदल कर पेट में गुब्बारे फूट रहे हैं ...ही न हो जाये)... चलिए इस के बारे में थोड़ी जानकारी हासिल करते हैं।
सिलीकॉन के इस पिचके हुए गुब्बारे को मरीज के शरीर में दूरबीन के द्वारा( endoscope) उस के पेट में डाला जाता है, उस के तुरंत बाद इस खाली गुब्बारे में एक कैथीटर( एक तरह की ट्यूब) की मदद से लगभग आधा लिटर नार्मल सेलाइन (जिस में थोड़ी कलर्ड-डाई मैथिलिन ब्लयू मिला दी जाती है) भर दिया जाता है। जब गुब्बारे में वह तरल पदार्थ भर जाता है तो डाक्टर द्वारा उस कैथीटर को बहुत ही आराम से बाहर निकाल लिया जाता है। इस गुब्बारे में एक इस तरह का वॉल्व होता है जो कि स्वयं ही बंद हो जाता है, और यह गुब्बारा पेट में फ्लोट करना शुरू कर देता है। इस सारे काम को करने में 15-20 मिनट का समय लगता है और एक रिपोर्ट के अनुसार ऐसे चालीस केस बंबई में किए जा चुके हैं जिस पर लगभग सत्तर से नब्बे हज़ार रूपये का खर्च आने की बात कही गई है।
अब प्रश्न जो उठता है वह यही है कि यह पेट में घूम रहा पानी से भरा गुब्बारा आखिर कैसे करेगा बंदे का वज़न कम। दरअसल जब यह गुब्बारा पेट में होता है तो पेट के तीन-चौथाई हिस्से में तो यही चहल-कदमी करता रहता है, ऐसे में मरीज़ पहले से एक-चौथाई खाना खा लेने पर ही संतुष्टि अनुभव कर लेता है। सीधा सा मतलब यही हुया कि यह मरीज को कम खाने में मदद करता है जिस से छःमहीने में उस का वज़न 10-15किलो घट सकता है।
इस गुब्बारे को छःमहीने बाद पेट से दूरबीन की मदद से निकाल दिया जाता है। पेट के अंदर मौजूद एसिड्स इस सिलिकॉन के गुब्बारे को कमज़ोर कर देते हैं जिस के कारण वह कभी भी अंदर लीक हो सकता है। वैसे तो कंपनी की वेब-साइट पर तो यह लिखा है कि ऐसा होने पर यह टायलैट के रास्ते बाहर निकल जाता है लेकिन कईं कईं केस में इस कंडीशन में इस पिचके हुए गुब्बारे को आंतड़ियों से बाहर निकालने के लिए आप्रेशन भी करना पड़ा है।
वैसे तो सामान्य हालात में इस को जब छःमहीने बाद पेट से निकाला जाता है तो दूरबीन की मदद से ही आसानी से निकाल दिया जाता है और इस को बाहर निकालने से पहले इस को पंचर कर दिया जाता है जिस से यह पिचक जाता है और एंडोस्कोप की मदद से आसानी से मुंह के रास्ते बाहर निकाल लिया जाता है।
वैसे तो जब इस गुब्बारे को पेट में छोड़ा जाता है तो मरीज़ को यह अच्छी तरह से समझा दिया जाता है कि अगर आप के पेशाब का रंग कभी भी नीला लगे तो डाक्टर को तुरंत सूचित करें....इस का मतलब यही होता है कि यह गुब्बारा लीक हो गया है और फिर इसे किसी भी समय दूरबीन से निकाल दिया जाता है।
जब इस गुब्बारे को पेट में छोड़ा जाता है तो शुरू शुरू में मरीज़ को एडजस्ट होने में दो-तीन दिन लगते हैं......मरीज़ को शुरू शुरू में थोड़ा उल्टी जैसा लगता है जो कुछ दिन में ठीक हो जाता है। इस के साथ साथ जब तक मरीज़ के पेट में यह गुब्बारा रहता है तब तक पेट में एसिड की मात्रा को कंट्रोल करने के लिए दवाईयां भी लेने पड़ती हैं। और आहार में भी संतुलित के साथ साथ कुछ संयम बरतने को कहा जाता है।
इस विधि द्वारा वज़न कम करने की भी अपनी सीमायें हैं। क्योंकि अगर गुब्बारा पेट से निकालने के बाद अगर खाने-पीने एवं शारीरिक श्रम जैसी महत्त्वपूर्ण बातों की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता है तो बंदे का वज़न वापिस बढ़ जाता है। दूसरा यह है कि इस वज़न कम करने वाली विधि का उपयोग कईं बार उन मरीज़ों में किया जाता है जो इतने ही ज्यादा स्थूल हैं कि वे अपनी दिन-चर्या करने में ही असमर्थ हैं और कईं बार तो बहुत ही ज़्यादा वज़न वाले व्यक्तियों को किसी आप्रेशन के लिए तैयार करने से पहले भी इस विधि के द्वारा उनका वज़न कम किया जाता है ताकि उन की सर्जरी सेफ एंड साउंड तरीके से की जा सके---कम से कम उस सर्जरी से संबंधित रिस्क तो कम किये जा सकते हैं।
अब यह तकनीक तो हमारे देश में भी आ ही गई है, लेकिन मैं यही सोचता हूं कि इस गुब्बारे को पेट डलवाने की भी कहीं होड़ सी न लग जाये.....पूरी तरह अच्छी तरह सोच समझ कर , सैकेंड ओपिनियन लेकर ही इस तरह का फैसला लेने में ही समझदारी है। वैसे भी संतुलित आहार, रैगुलर रूटीन एवं नियमित व्यायाम का तो अभी तक कोई विकल्प मिला ही नहीं है।

रविवार, 10 फ़रवरी 2008

हिंदी अखबारों में छपने वाले इस तरह के भ्रामक विज्ञापन...


हार्ट अटैक से बचाव के लिए पेट गैस और एसिडिटि की रोकथाम जरूरी होती है....यह तो है शीर्षक हिंदी के जाने-माने अखबार में छपे आज एक विज्ञापन का। उस के साथ ही किसी डाक्टर का मोबाइल नंबर दिया गया है जो यह सब कुछ कह रहा है। आगे लिखा है कि अम्लपित्त या Acidity के कारणों में शराब, तम्बाकू, पान मसाला, हार्मोन, स्टीरॉयड व दर्द नाशक गोलियों को डा.......गिनते हैं जो कि ......सीरप के पीने से नियंत्रण में रहते हैं। डा..........जड़ी-बूटियों से बनी ......सीरप के प्रयोग की सिफारिश करते हैं उन लोगों को भी जो जंकफूड, स्नैक्स, गोलगप्पे, पिज्जा, बर्गर, चाउमीन खाने के बाद सिरदर्द, आन्तड़ियों व गुर्दों की तकलीफों पेट की जलन गैस से परेशान होते हैं...........................
मीडिया डाक्टर की टिप्पणी --- मैंने इस विज्ञापन की आधी से भी ज़्यादा डिटेल्स नहीं लिखी हैं क्योंकि ऐसे विज्ञापन पढ़ कर मेरा सिर फटने लगता है। मैं समझता हूं कि ऐसे विज्ञापन केवल गुमराह करते हैं। डाक्टर होने के साथ-साथ पत्रकारिता से भी जुड़े होने के नाते मैं यह भी अच्छी तरह से समझता हूं कि मेरी ब्लोग की पहुंच तो केवल अच्छे-खासे पढ़े-लिखे सौ-पचास लोगों तक ही होगी, जो कि शायद मेरे द्वारा कही गई ज़्यादातर बातें पहले ही से जानते होंगे, लेकिन ऐसे भ्रामक विज्ञापनों की पहुंच बहुत दूर दूर तक है। विशेषकर मुझे चिंता है उस वर्ग की जो सड़क के किनारे बने एक चाय के खोखे में ये अखबारें पढ़ते हैं। आप ने भी तो देखा ही होगा कि किस तरह बहुत से मज़दूर, रिक्शा चालक अथवा छोटी-मोटी रेहड़ी लगाने वाले सारी अखबार का एक एक पन्ना आपस में बांट कर किस तरह एक अखबार का गर्मा-गर्म चाय के साथ मज़ा लूट रहे होते हैं। यही वर्ग सब से ज्यादा ऐसे लुभावने विज्ञापनों की चपेट में आ जाता है।
मैं पिछले चार-पांच वर्षों से इस तरह के विज्ञापनों के पीछे ही पड़ा हूं....लेकिन अभी तक कुछ कर नहीं पाया हूं...पता नहीं आगे चल कर भी कुछ कर पायूंगा या ....। सबसे पहले तो मैंने अखबारवालों को खूब लिखा कि आप ऐसे विज्ञापन क्यों छापते हैं.....लेकिन कुछ नहीं हुया। फिर मैंने नोटिस किया कि वो तो बड़ी चालाकी से एक चेतावनी सी छपवा कर पल्ला झाड़ लेते हैं। खूब फैक्स किए, खूब पत्र लिखे, खूब ई-मेल भेजीं.......लेकिन कुछ भी टस से मस न हुया। इन से संबंधित कुछ लेख भी भेजे, लेकिन वो भी शायद रद्दी की टोकरी के सुपुर्द ही हो गये होंगे......यह तो होना ही था । विज्ञापनों के स्तर को कायम रखने वाली एक संस्था को भी बहुत बार लिखा....उन को जब ई-मेल भेजता, तो कहते थे कि चिट्ठीयों में सब कुछ प्रूफ के साथ भेजें ...सब कुछ किया.....इन के भेजने में काफी पैसा और समय भी नष्ट किया........लेकिन रिज़ल्ट ज़ीरो.....ज़ीरो ...सिर्फ ज़ीरो। उस संस्था की कार्य-प्रणाली इतनी पेचीदा लगी कि मैंने वह सब लिखना भी बंद कर दिया क्योंकि मुझे कुछ महीनों में ही यह आभास हो गया कि कुछ भी नहीं होने वाला ...सब कुछ ऐसे ही चलने वाला है.......बस, अपना ही माथा फोड़ने वाली बात है।
इन सब से परेशान हो के बैठा ही था कि बेटा ने आवाज़ लगा दी कि बापू, अब तू हिंदी में ई-मेल भी भेज पायेगा, चिट्ठी भी लिख पायेगा.........बस, उसी दिन से इस ब्लोगिंग के चक्कर में पड़ गया हूं.....क्योंकि यह तो मुझे भी बहुत अच्छी तरह से पता है कि अकेला चना भाड़ कभी नहीं फोड़ सकता , लेकिन अब जो कुछ भी मन को कचोट रहा है उस को इस ब्लोग के ज़रिये प्रकाशित करने की छूट तो है। अब तो बस उसी चीनी कहावत की याद कर लेता हूं.....A journey of three thousand miles starts with a single step !!.....चीनी ही क्यों, यहां भी तो अकसर लोग कुछ इस तरह की बातें कर के आपस में एक-दूसरे का मनोबल बढ़ाते रहते हैं......
कौन कहता है कि आसमां में सुराख हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।
इन परिंदों को भी मिलेगी मंज़िल एक दिन,
यह हवा में खुले इस के पंख बोलते हैं।
माना कि परिंदों के पर हुया करते हैं,
ख्वाबों में उड़ना कोई गुनाह तो नहीं।
अभी कल-परसों ही पत्रकार संजय तिवारी की जी एक ब्लोग पोस्ट से पता चला कि वे कुछ इस दिशा में करने की इच्छा करते हैं कि मीडिया में आने वाली खबरों की खबर कैसे ली जाए....किस तरह से, किस के पास अपना दुःखड़ा रोया जाये...आप भी उन की वह पोस्ट ज़रूर देखिएगा। मुझे उन का यह आइडिया बहुत पसंद आया।
जाते जाते मैं यह भी बता दूं कि मैंने इस तरह के विज्ञापनों से निपटने का अपना ढंग इजाद कर लिया है.....एक पैन लेकर पहले उस के ऊपर ही अपना दिल खोल कर......., फिर उस को कूड़े के डिब्बे में फैंक देता हूं।

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008

आधा लिटर चकुंदर का जूस पीने के लिए कितने चकुंदर चाहिए होंगे ?



आज सुबह से मुझे यह प्रश्न परेशान कर रहा है, क्योंकि आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में उस चकुंदर वाली खबर में यह जानकारी नहीं थी। एक न्यूज़ रिपोर्ट आज की टाइम्स में दिखीं कि प्रतिदिन सिर्फ़ 500 मिली.चकुंदर का जूस पीने से उच्च रक्तचाप घट सकता है ( Researchers from………have discovered that drinking just 500ml of beetroot juice a day can significantly reduce BP)…..अंग्रेज़ी में इसलिए लिख दिया है ताकि आप कहीं यह मत समझ लें कि 500मिली.से पहले मैंने सिर्फ़ अपने आप लिखा है। चौदह वलंटियरों पर यह अध्ययन विलियम हार्वे रिसर्च इंस्टीच्यूट एवं लंदन स्कूल ऑफ मैडीसन में किया गया। अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक के अनुसार बीट-रूट जूस में मौजूद डायटिरि नाइट्रेट की वजह से रक्त का बहाव खुल जाता है...( it’s the ingestion of dietary nitrate contained within beetroot juice that dilates blood flow).
इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि अपोलो हास्पीटल के एक कार्डियोलॉजिस्ट ने इस संबंध में टिप्पणी देते हुए कहा है कि एक टेबलेट ले लेना बीट-रूट(चकुंदर) के जूस निकालने एवं उसे पीने से आसान है। उस ने आगे यह भी कहा है कि इस जूस के पीने से बीपी कुछ समय के लिए कम हो जाता होगा, लेकिन क्या यह मरीज़ की क्लीनिक कंडीशन में सुधार ला सकता है ?...साथ में उन्होंने यह भी कहा है कि एक बीपी कम करने वाली टेबलेट सस्ती भी पड़ेगी।
इस बात का जवाब अध्ययन करने वाली वैज्ञानिक ने कुछ इस तरह से दिया है कि हम यह नहीं कह रहे हैं कि सभी बीपी के मरीज़ों के लिए बीट-रूट(चकुंदर) एक राम-बाण( panacea) है। उन्होंने यह भी कहा है कि उन का अध्ययन आगे भी यह देखने के लिए जारी है कि अगर नाइट्रेस को टेबलेट फार्म में लिया जाए तो क्या फिर भी वे बीपी को कम करने का काम कर सकते हैं। उस अध्ययनकर्त्ता ने यह कहा है कि हम तो कह रहे हैं कि ताजा चकुंदर का जूस भी लाभदायक सिद्ध हो सकता है...थोड़ा-बहुत अगर आप अपनी डाइट में इसे शामिल करेंगे तो इस से आप को बीपी कम करने में मदद मिलेगी।
टिप्पणी...............अच्छी बात है कि लोगों को प्राकृतिक खाने की इस रिपोर्ट से प्रेरणा मिलेगी। वैसे भी तो चकुंदर के बहुत से गुण हैं जिन का हमें लाभ पहुंच सकता है। लेकिन यह आधा लिटर चकुंदर जूस वाली बात कुछ मुश्किल जान पड़ती है...अब रिपोर्ट में यह कहीं नहीं लिखा कि इस अभियान में शामिल होने के लिए कितने चकुंदर चाहिए होंगे.....वैसे तो चकुंदर बाज़ार में कम ही दिखते हैं....ये चकुंदर जो आप इस तस्वीर में देख रहे हैं , ये भी पिछले दिनों Reliance Fresh से खरीदे गये थे......बस ये तो वहां पर ही कभी कभी दिखते हैं।
जो भी हो, लेकिन हम इन चकुंदरों का कम से कम थोड़ा बहुत प्रयोग करना तो शुरू कर ही सकते हैं। अगर आप ने अभी तक कभी इस्तेमाल नहीं किया तो स्लाद के रूप में ही इस का इस्तेमाल शुरू तो करिए.....बहुत फायदेमंद है।
मुझे लोगों से यह आपत्ति है कि एक बार किसी बात को सुन लेते हैं न तो फिर हाथ धो कर उस के पीछे पड़ जाते है....कईं बार कईं शुगर के मरीज़ जामुनों का एवं जामुन के बीजों को भी इस तरह से ही इस्तेमाल करते हैं.....कुछ लोग सब दवाईयां, सब परहेज़ छोड़-छाड़ कर शुगर कंट्रोल करने के लिए बस करेलों का जूस पीने ही में लगे हैं । ठीक है, इन खाद्य पदार्थों का बहुत महत्त्व बताया गया है ....लेकिन यह भी तो नहीं कि बस केवल वही चीज़े खाने से या उन का जूस पी लेने से ही रोग कट जायेगा...आप ऐसा कुछ भी करें तो भी अपने चिकित्सक(किसी भी चिकित्सा पद्धति से संबंधित) के नोटिस में यह बात ज़रूर लाया करें....यह तो बिल्कुल नहीं कि अब मैंने करेले का जूस पीना शुरू कर दिया है , इसलिए अब मुझे शुगर की किसी तरह की दवाईयां खाने की ज़रूरत नहीं है.....ऐसा सोचना भी आत्मघाती है....क्योंकि एक क्वालीफाइड चिकित्सक केवल आप के शुगर अथवा बीपी के स्तर को ही नहीं देखता---उन की निगाह आप के शरीर के विभिन्न अंगों की कार्य-प्रणाली पर भी बनी रहती है कि क्या सारी मशीनरी ठीक ढंग से चल रही है या नहीं। इसलिए इन सब खाने-पीने वाली चीज़ों को एक support के रूप में इस्तेमाल करें , लेकिन फिर भी अपने क्वालीफाइड चिकित्सक को तो नियमित आप को मिलते रहना ही चाहिए।
बात इतनी लंबी हो गई है कि पता नहीं मेरा प्रश्न ही कहां गुम हो गया है कि .......आधा लिटर चकुंदर का जूस पीने के लिए कितने चकुंदरों को जूसर में पिसना होगा.......अगर आप में से कोई इस एक्सपैरीमैंट को करे तो मेरे को ज़रूर बतलाइएगा ताकि किसी मरीज़ के पूछने पर मैं फिर उसे पूरी जानकारी दे सकूं। लेकिन, हां, यहां सब इतना आसान थोड़े ही है ...चकुंदर का जूस तैयार भी हो गया तो भी कईं तरह के वहम-भुलेखे...कुछ कहेंगे कि यह गर्म है , कुछ कहेंगे यह ठंडा है., कुछ कहेंगे ठंडी में नहीं लेना, कुछ कहेंगे यह......कुछ कहेंगे....वह......, लेकिन काम की बात यही है कि है यह चकुंदर बहुत काम की चीज़, जितना इसका इस्तेमाल कर सकते हो कर लिया करें।