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बुधवार, 26 मार्च 2014

रहम आता है यार ....

कुछ महीने पहले की तो बात है ..मैं वाल्वो बस में दिल्ली से जयपुर जा रहा था...पिछली सीट पर शायद किसी सरकारी अस्पताल में सर्विस करने वाला डाक्टर बैठा हुआ था अपने किसी मित्र के साथ...मुझे उन की बातों से ऐसा प्रतीत हुआ।

उस डाक्टर की बातें जो मेरे कानों में पड़ीं..मैं वे सुन कर दंग रह गया। बता रहा था अपने मित्र को अभी दो महीने पहले ही वह तबादला हो कर राजस्थान के इस अस्पताल में आया है। अस्पताल के हालात सुना रहा था ...सुन कर मेरा मन बहुत खराब हुआ।

लेकिन एक बात सुन कर मैं भी सोचने पर मजबूर हो गया.. वह अपनी साथ वाली सीट पर बैठे बंदे से कह रहा था कि यार, जिस अस्पताल में वह सर्विस कर रहा है उस के हालात इतने खराब हैं कि अगर मरीज़ से अच्छे से बात करो, उसे ध्यान से सुनो और उस का अच्छे से इलाज कर दो.....तो भी इस का गलत मतलब निकाला जाता है।

मुझे भी यह सुन कर बड़ा अटपटा सा लगा लेकिन तुरंत उस की बात जो मेरे कान में पड़ी उस से वह अटपटापन चिंता में  तबदील हो गया। उस ने बताया कि दो-तीन दिन में एक बार हो ही जाता है कि मरीज़ उसे पचास-सौ रूपया देने के लिए अपना पर्स खोल लेता है। उस के द्वारा पैसे लेने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता... पर्स खोलने वाला थोड़ा झेंप सा जाता है जब वह उन्हें बताता है कि वह जो भी काम कर रहा है, उसे सरकार उस के लिए उसे सेलरी देती है।

यह तो हो गई उस बस में वार्तालाप की बात जो मेरी कानों तक पहुंची।

अब सुनिए मेरी बात.....मैं कहीं भी जाता हूं तो बहुत कुछ अब्जर्व करता हूं।

..किसी भी दफ्तर में जाता हूं और देखता हूं कि जहां पर कोई भी नागरिक चाहे बिल भी जमा करवाने आया है, उस के चेहरे पर मैं एक अजीब सी शिकन देखता हूं......जैसे वह सोच रहा हो कि कैसे भी मेरा बिल जमा हो जाए, बस बाबू कोई गलती न निकाल दे। इस विषय के बारे में कितना लिखूं......जो इसे पढ़ रहे हैं और जो इस तरह के अनुभवों से गुज़र चुके हैं उन के लिए मेरे यह सब लिखने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वे सब कुछ जानते हैं.......मुझे टीवी सीरियल ऑफिस ऑफिस के मुसद्दी लाल के किरदार का ध्यान आ रहा है।

एक बात जो मेरे मन को बहुत ही ज़्यादा उद्वेलित करती है कि सरकारी तंत्र के पास नियमों की किताब तो है ही....होनी भी चाहिए.....लेकिन इस के बावजूद भी चपरासी से लेकर बड़े से बड़े अफसर के पास इतनी ऐच्छिक शक्तियां (discretionary powers) हैं कि मैं उन के बारे में सोचता हूं तो मेरा सिर दुःखने लगता है। चपरासी चाहे तो किसी से मिलने दे , वरना कुछ भी कह के टरका दे। बाबू एक बार कह दे कि फाईल नहीं मिल रही ..तो क्या आप कह सकते हैं कि आप ढूंढने में मदद कर सकते हैं। कहने का यही मतलब कि आदमी सरकारी दफ्तर में काम कर रहे हर व्यक्ति के मुंह की तरफ़ ही देखता रह जाता है।

अकसर सुनते हैं कि तुम मुझे आदमी दिखाओ, मैं तुम्हें कानून बताऊंगा। जी हां, हैं इतनी व्यापक ऐच्छिक शक्तियां हैं अफ़सरों के पास......नहीं मानो तो न सही,लेकिन जो बात सच है वह तो यही है कि अगर किसी का काम करना हो तो १०० कारण बता कर उस का काम किया जा सकता है और अगर नहीं करना तो १०१ कारण बताए जा सकते हैं। यह सब कुछ देख सुन कर डर लगता है ...........तरस आता है .......बताने की ज़रूरत तो नहीं कि किस पर यह तरस आता है।

ठीक है आ गया है सूचना का अधिकार........काफ़ी कुछ पता लगाया जा सकता है, लेकिन अब उस का जवाब देने वाले भी कुछ मंजे खिलाड़ी बनते जा रहे हैं. पूरी कोशिश करते हैं कि किसी तरह से सटीक जानकारी न बाहर निकलने पाए.... और इतनी माथापच्ची अाम बंदा कर नहीं पाता।

इसलिए रहम आता है मेरे भाइयो...........सच में तरस आता है........कईं बार तो दयनीय हालात देख कर आंखें भीग जाती हैं.......कोई पालिटिकल स्पीच नहीं है यह मेरी...........बिल्कुल जो महसूस किया और जो देखा वही ब्यां कर दिया है।


शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

डिप्रेशन से उभरने के लिए क्या करते हैं हिंदोस्तानी?

आज जो मैंने एक खबर देखी कि अमीर देशों में लोग डिप्रेशन के ज़्यादा शिकार होते हैं .. अमेरिका में ही कहा जा रहा है कि 30 प्रतिशत से भी ज़्यादा जनसंख्या अवसाद में डूबी हुई है लेकिन साथ ही भारत का भी नाम लिखा हुआ है कि यहां भी अवसाद के बहुत से केस हैं। मैडलाइन पर यह खबर दिखी .. Depression higher in wealthier nations.

भारत में अवसाद के अधिकतर रोगियों की समस्या यह है कि वे कभी किसी मनोरोग विशेषज्ञ के पास गये ही नहीं... अब इन के किसी विशेषज्ञ के पास न जाने के दो पहलू हैं...इसी हम सीधा यह नहीं कह सकते कि ये किसी विशेषज्ञ से परामर्श न लेकर ठीक नहीं कर रहे।

कभी कभी मीडिया में बताया जाता है कि अवसाद जैसे रोगियों की संख्या भारत में बहुत ज़्यादा हैं लेकिन अकसर लोग सोचते हैं कि इस के बारे में किसी विशेषज्ञ के पास जाने से उन की लेबलिंग कहीं यह न हो जाए कि इस का दिमाग खिसका हुआ है, चाहे है यह भ्रांति लेकिन है तो !

मैडीकल नज़रिये से नहीं कह रहा हूं और न ही कह सकता हूं ...लेकिन व्यक्तिगत विचार लिख रहा हूं कि बहुत कम लोग हैं जो डिप्रेशन के लिये अंग्रेज़ी दवाईयां लेकर ठीक होते मैंने देखा है। हां, अगर अवसाद इस तरह का है कि दैनिक दिनचर्या में ही रूकावट पैदा होने लगी है... तो समझा जा सकता है कि एमरजैंसी उपाय के रूप में थोड़ी अवधि के लिये अंग्रेज़ी दवाईयां लेना उचित सा लगता है। एक बार फिर से लिख रहा हूं कि यह मेरी अनुभूति हो सकती है ...क्योंकि मैंने अकसर देखा है कि इस तरह की दवाईयां लेने वाले सुस्त से रहते हैं ....वो चुस्ती वाली कोई बात देखी नहीं। और भी एक बात है कि लोगों के मन में यह भी डर रहता है कि कहीं इन दवाईयों की लत ही न लग जाए ....अब काफ़ी हद तक लोगों का यह सोचना ठीक भी है।

अच्छा, अवसाद के लिये श्रेष्ठ चिकित्सक है आप का फैमिली डाक्टर जो आप के सारे परिवार को, स्रारी पारिवारिक परिस्थितियों को जानता है ... अकसर मनोरोग चिकित्सक के पास आम लोग जा ही नहीं पाते ... उन के पास भी काउंसिलिंग तकनीक द्वारा मरीज को अवसाद से बाहर निकालने की क्षमता होती है लेकिन मैंने यह देखा है लोग अकसर इस चक्कर में पड़ते नहीं... बस, यूं ही कुछ भी जुगाड़ कर के अपने आप इस अवसाद की खाई से बाहर निकलते रहते हैं, फिर फिसलने लगते हैं, फिर किसी सहारे की मदद मिल जाती है।

चाहे हम कुछ भी कहें अभी भी भारत में ऐसी परिस्थितियों के लिये सोशल-बैकअप भी काफ़ी हद तक कायम ही है ....थोड़ा बहुत अवसाद घेरने लगता है तो किसी के यहां मिलने चले जाते हैं, कोई इन्हें मिलने आ जाता है, हंसी ठठ्ठा हो जाता है, बस मजाक मजाक में इन्हें अच्छा लगने लगता है।

और एक खूबसूरत बात देश में यह है ...अधिकांश लोग अपनी आस्था के अनुसार किसी मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे या किसी अन्य धर्म-स्थल में जा बैठते हैं ...कीर्तन –पूजा-पाठ , भजन, प्रवचन करते हैं, सुनते हैं और इन्हें अच्छा लगने लगता है। कहने का मतलब यही है कि यहां बैक-अप है, लोग अभी भी आपस में बात करते हैं, त्योहार एक साथ मनाते हैं, हर्षोल्लास में भाग लेते हैं ..............यही ज़िंदगी है ... बाकी तो जितना किसी मैडीकल विषय की पेचीदगीयों में पड़ेंगे, कुछ खास हासिल होने वाला नहीं है।

और ये जो बातें मैंने लिखी हैं अवसाद से निकलने के लिये ये कोई अंधश्रद्धा को बढ़ावा देने वाली नहीं हैं....मैं ऐसे अध्ययन देख चुका हूं जिनमें विकसित देशों के वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि जो लोग आध्यात्मिक बैठकों आदि से जुडे रहते हैं वे अकसर ऐसी तकलीफ़ों से दूर रहते हैं......अच्छा, आप एक बात बताईए, आप जिस भी सत्संग में जाते हैं वहां आप को कभी कोई उदास सा, बिल्कुल हारा हुआ, बिल्कुल चुपचाप, गुमसुम बंदा दिखा है....................कोई जल्दी नहीं, आराम से सोच विचार करना कि आंकड़ें चाहे जो भी कहें कि इतने ज़्यादा भारतीय अवसाद के शिकार हैं, लेकिन फिर भी ये सीमित संसाधनों के बावजूद भी, बहुत सी दैनिक समस्याओं को झेलते हुए ..बस किसी तरह खुश से दिखते हैं।

इसीलिए मुझे कोई उदास सा प्राणी दिखता है तो मैं उसे किसी मनोरोग विशेषज्ञ का रूख करने की बजाए किसी सत्संग में जाने की सलाह दिया करता हूं ... मनोरोग विशेषज्ञ चाहे कहें कि मैं ठीक नहीं करता ....लेकिन मैं तो ऐसा ही ठीक समझता हूं और ऐसा ही करता हूं।

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अवसाद के लिए टेबलेट -- हां या ना?

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

प्राइव्हेसी की जबरदस्त डिमांड तो है, आखिर क्यों ?

अकसर आज कल दिख ही रहा है कि घर के सदस्यों की संख्या से ज़्यादा मोबाईल फोन और लगभग उस से भी ज़्यादा सिमकार्ड होते हैं। लेकिन एक तो पंगा अभी भी है – अब बेवजह किस बात का पंगा? – प्राइवेसी का। एक स्कूल जाने वाले बच्चे को भी फोन पर बात करते वक्त प्राइवेसी चाहिए। प्राइवेसी से एक बात का ध्यान आ रहा है ...एक बार मैंने मीडिया एकेडेमिक्स की एक शख्सियत से यह बात सुनी थी कि जब से यह टीवी ड्राईंग-रूम से निकल कर बच्चों के बेडरूम में पहुंच गया है, अनर्थ हो गया है। क्या है न जब टीवी को सब लोग एक साथ बैठ कर देख रहे होते हैं तो अपने आप में ही एक अंकुश सा सब के ऊपर बना रहता है –किसी ऐसे वैसे सीन से पहले कोई न कोई रिमोट का कान खींच कर किसी प्रवचन की तरफ़ सब का ध्यान सरका देगा, कोई बहाना बना के दो मिनट पहले उठ जाएगा..., कोई बड़ा-बुज़र्ग यूं ही बच्चों को हल्का सा टोक देगा तुम भी यह सब क्या देखते रहते हो......कहने का मतलब कि किसी न किसी रूप में अंकुश तो रहता ही है जब सब लोग टीवी एक साथ देख रहे होते हैं। वरना आज प्रोग्राम तो ऐसे ऐसे चल निकले हैं कि क्या इन के बारे में जितना कम कहें उतना ही ठीक लगता है !

तो बात हो रही थी फोन पर बात करते वक्त प्राइवेसी की। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह बहुत अजीब सा लगता है। अब स्कूल जाने वाले बच्चे को ऐसी कौन सी प्राइवेसी चाहिए.....कुछ ज़्यादा समझ में नहीं आता। लेकिन एक बात और भी है कि बच्चे अपने घर ही से ये सारी बातें सीखते हैं और इसलिये शायद हम सब बड़ों को भी अपने आप को टटोलने की ज़रूरत है।

मुझे याद है कि कुछ समय पहले यह मोबाइल पर बात करते वक्त कोई कोना सा ढूंढ लेना थोड़ा अजीब सा लगता था। मेरा एक सीनियर था ...कुछ साल पहले की बात है ... जब भी मैं उस के पास बैठा होता और उस का मोबाइल फोन बज उठता तो वह झट से उसे लेकर टायलेट में घुस जाता। दो-तीन बार ऐसा हुआ..मुझे यह सब इतना अजीब लगा ...अजीब क्या लगा, इंसलटिंग लगा कि मैंने उस के पास जाना ही बंद कर दिया। बस अपने भी मन की मौज है। लेकिन अब देखता हूं कि लोग कुछ ज़्यादा ही सचेत हो गये हैं...किसी का मोबाईल फोन बजने पर उस के मुंह के भाव पढ़ कर यह अंदाज़ा लगा लेते हैं कि किसी बहाने उठ कर बाहर जान ठीक है या यहीं पड़े रहो।

अच्छा मोबाइल फोन आने पर यह प्राइवेसी ढूंढने का सिलसिला है बड़ा संक्रामक--- बस एक दूसरे को देखते देखते कैसे आदत पक जाती है पता ही नहीं चलता। लेकिन जो भी हो, अब मैंने निश्चय कर लिया है कि अब सब बातें सब के सामने ही किया करूंगा --- चलिये कभी कोई अकसैप्शन हो सकती है, लेकिन वह भी कभी कभी। हर बार फोन उठा कर अलग किसी कोने में घिसक जाना कुछ शिष्टाचार के नियमों के विरूद्द सा लगता है, है कि नहीं?  भला हम ने कौन सी ऐसी बातें करनी हैं किसी से जो कि हमारे परिवार के सदस्यों के सुनने लायक तो हैं नहीं, लेकिन लॉन में बात करते वक्त चाहे पड़ोसी का बंगला चपरासी सारी बातें सुन ले। बड़ी अजीब सी बात लगती है।

वैसे तो हम लोग जब कुछ लोग बैठे हों तो बच्चे हमारे कान में आकर कुछ कहना चाहे तो हम इसे भी अकसर डिस्कर्ज करते देखे जाते हैं ... कहते हैं कि बेटा, सब के सामने जो बात करनी है करो, लेकिन फिर यह मोबाइल फोन के नियम क्यों इतने अलग से हैं?

मोबाइल फोन से लौट चलते हैं उस ज़माने की तरफ जब केवल लैंडलाइन फोन का ही सहारा हुआ करता था और वह भी कभी कभी चला करता था क्योंकि हम इतने जुगाड़ू प्रवृत्ति के नहीं थे कि वे किसी लाइन-मैन को सैट कर के रखते ताकि वह फोन खराब होते ही भाग के आ जाता और तुरंत लाइन ठीक कर के चला जाता। ज़माना वह भी याद करना होगा जब लैंडलाइन फोन बजते ही घर में मौजूद दो-तीन पीढ़ियां उस फोन वाले मेज के इर्द-गिर्द यूं इक्ट्ठा हो जाया करती थीं जैसे कि कोई सैटेलाइट का परीक्षण किया जाने वाला है।

जो भी हो, दौर अच्छा था, खुलापन था, एक फोन आता था तो सभी के साथ बात होती थी ... दिखावेबाजी नहीं थी, अब तो बस दिखावेबाजी ज़्यादा है और असल बात शायद बहुत कम है। अपने आप से पूछने वाली बात यह है कि आखिर ऐसा कमबख्त है क्या जिसे हमें अपनों ही से छिपाने की ज़रूरत पड़ रही है। और तो और, उसी पुराने दौर में एक दौर यह भी हम ने देखा है जब किसी का पीपी ( PP number)  दे कर काम चला लिया जाता था और अकसर विज़िटिंग कार्डों पर यह अंकित रहता था कि  यह नंबर पीपी नंबर है। और फोन करते या सुनते वक्त कोई परवाह नहीं कि कितने पड़ोसियों ने हमारी बातें सुन ली होंगी ... इसलिये फोन करते वक्त समय का ध्यान रखना भी बेहद लाज़मी था वरना अगली बार से यह सुविधा खत्म...... चलो, छोड़ते हैं, उस दौर की भी अपनी बहुत सी मुश्किलें थीं और अगर इन्हें गिनाने लग गया तो एक छोटा मोटा उपन्यास ही बन जायेगा जो कि मैं अभी लिखने के बिल्कुल भी मूड में नहीं हूं।

हां, तो थोड़ा इस से भी पीछे चलिये....वह दौर जब ये ट्रंककाल करते लोग या तो हिंदी फिल्मी में देखे जाते थे या फिर शहर के बड़े डाकघर में। वहां पर भी कहां यह सब इतना आसान था, पहले फार्म भरो, फिर 50 रूपये का अडवांस जमा करो, फिर लग जायो लाइन में.....बार बार नंबरों की ट्राई.....ट्राई पर ट्राई.... बाबू के साथ चिक चिक कि बई, बात तो हुई नहीं और तुम कह रहे हो इतने मिनट के पैसे दो....अब बाबू की बला से, बात हुई या नहीं हुई, उस के सामने रखी स्टाप-वॉच की गिनती के आगे किसी की न चलती थी, बड़ी सिरदर्दी थी, मुझे नहीं याद कि मैं कभी उस दौर में इन बड़े डाकघरों में यह सो-कॉल्ड ट्रंककाल के लिया गया होऊं और सफल हो कर लौटा हूं ...हमेशा हारे जुआरी की तरह साइकिल उठा कर घर की तरफ़ चल पड़ता है।

लेकिन ऐसे खुशकिस्मत लोगों को देख कर मन में बड़ी तमन्ना होती थी जिन का झट से ट्रंककाल लग जाता था और वह अंदर केबिन में बंद होते हुये भी इतने ज़ोर से बातें करते थे कि मुझे याद है कि मेरे जैसी दुःखी आत्मायें उस अमृतसर के रियाल्टो टाकी के सामने बड़े डाकखाने पर यह कह कर मन थोड़ा हल्का ज़रूर कर लिया करते थे कि ....यार, इस को ट्रंककाल करने की आखिर ज़रूरत है, इस की तो आवाज़ ही इतनी दबंग और कड़क है कि अगर यह बाहर आकर थोड़ा और बुलंद आवाज़ में  बोल दे तो दिल्ली तक तो आवाज़ वैसे ही पहुंच जाए। यह बात माननी पड़ेगी कि अमृतसर के लोग हैं बड़ी मज़ाकिया – सब से बड़ी खूबी वे किसी पर हंसने की बजाए अपने पर भी हंसने से भी गुरेज़ नहीं करते। और हर स्थिति में खुशी ढूंढ लेने की कला रखते हैं..... जिउंदे वसदे रहो, मित्तरो......

बस, अब इस कॉल को बंद करने का वक्त आ गया है, लेकिन इस से मैंने तो एक सीख अपने आप के लिये ली है कि कोशिश करूंगा कि इस प्राइवेसी को खत्म करने के लिये पहल मैं ही करूं ---मैं फिर कह रहा हूं कि कुछ परिस्थितियां हो सकती हैं जिन में शायद हमें कभी कभार कुछ प्राइवेसी चाहिये हो, लेकिन हर कॉल को ही प्राइवेट कॉल बना लिया जाए तो बहुत बार यह मोबाईल सिरदर्द लगने लगता है।

वैसे एक बात और भी है न, टैक्नोलॉजी इतनी आगे बढ़ गई ....लेकिन क्या इस से इंसानों के रिश्तों में गर्मजोशी आई? ….मुझे तो ऐसा कभी भी नहीं लगा, फेसबुक आ गई, मॉय-स्पेस आ गया लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि विभिन्न कारणों की वजह से हर तरह ठंडक ही बढ़ती दिख रही है। गर्मजोशी को वैसे आज की नई पीढ़ी शायद ही समझ सके जिसे मां-बहन-बीवी का कईं कईं दिनों की दिन रात की तपस्या से तैयार किया स्वैटर चुभता है, मां की तैयार की गई टोपी आक्वर्ड लगती है लेकिन विदेशों में तैयार दो हज़ार की ब्रैंडड स्वैटर-टोपियां ही सारी गर्माहट देती हैं, ऐसे में कोई क्या कहे। फोनों की खूब बातें हो गईं वैसे असली गर्मी तो पुराने खतों में हुआ करती थीं ---इतनी गर्माइश की अगला खत आने तक मेरे पिता जी मेरी दादी की हिंदी में लिखी चिट्ठी लगभग रोज़ाना सुना करते थे ....एक दिन कोई सुना देता, दूसरे दिन कोई दूसरा काबू आ जाता .... और अगली चिट्ठी आने तक यह सिलसिला चलता रहता था।

चलिये, अब बंद भी करूं ....लेकिन एक निर्णय लेता हूं कि आज से पूरी कोशिश रहेगी कि मोबाइल फोन पर बात सब के सामने ही हो, ऐसी भी क्या बात है, ऐसी भी क्या प्राइवेसी है, ऐसा कुछ है ही नहीं, अगर थोड़ा गहराई में सोचेंगे तो पाएंगे कि ऐसा अलग सी जगह में दुबक कर बात करने जैसी कोई बात भी तो नहीं होती --- एक आम आदमी ने कौन सा अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के मर्जर की बातें करनी हैं, कौन से ट्रेड-सीक्रेट आपस में बांटने हैं...........ऐसा कुछ नहीं है तो चलिये लाते हैं आज से अपनी बातचीत में एक नये खुलापन ........ताकि हमारा आने वाला कल आज से बेहतर हो सके, और ये जो हम ने अपने ब्लड-प्रैशर को पक्के तौर पर बढाये रखने के पुख्ता इंतज़ाम कर रखे हैं, इन से छुटकारा पाएं.....

गुरुवार, 3 जून 2010

अवसाद (डिप्रेशन) के लिये ली जाने वाली टैबलेट क्या संजीवनी है ?

अकसर मैं सोचता हूं कि यह कैसे संभव है कि डिप्रेशन के लिये ली जाने वाली गोली संजीवनी बूटी जैसा काम कर देगी और मूड को लिफ्ट करा देगी। वैसे तो मैं कहने को एलोपैथी से ही संबंधित हूं लेकिन पता नहीं क्यों कुछ तकलीफ़ों के लिये मुझे सीधा दवाईयों का रूख करना कभी भी मुनासिब नहीं लगता।
जिस तरह से मैंने एक बार प्रश्न उठाया था कि यह कैसे हो सकता है कि केवल ब्लड-प्रैशर की टेबलेट लेने मात्र से ही सब दुरूस्त हो जाए ----यार सीधी सी बात है कि अगर दवाईयों से ही सेहत मिलती होती तो बात ही क्या थी !!
कोई मनोरोग विज्ञानी इस लेख को पढ़ेगा तो इस से कोई दूसरा मतलब भी निकाल सकता है। लेकिन मुझे डिप्रेशन जैसे रोग के लिये लंबे लंबे समय तक दवाईयां लेने पर बहुत एतराज़ है। डिप्रेशन तो आप सब समझते ही हैं ---बस उदासी सी छाई रहना, कुछ भी काम में मन न लगना, हर समय सुस्ती सी, हर समय कुछ अनिष्ट होने के ख्याल....बस और भी इस तरह की बहुत से भाव। हर समय़ थका थका सा रहना और जीने की तमन्ना का ही खत्म सा हो जाना।
एक बात का ध्यान आ रहा है कि क्या आपने कभी सुना है कि आप के घर में जो बाई काम कर रही है, उसे डिप्रेशन हो गई है या कपड़े प्रैस करने वाला चार डिप्रेशन में आ गया है या कुछ मज़दूरों को अवसाद हो गया है। नहीं सुना ना ----शायद इन में भी होता तो होगा ही, लेकिन ये सब प्राणी अपनी दाल-रोटी के जुगाड़ में इतने घुसे रहते हैं कि इन की बला से यह अवसाद, वाद............शायद ये झट से हर परिस्थिति के साथ समझौता करने में कुछ ज़्यादा सक्षम होते हैं ---शायद मुझे ही कुछ ऐसा लगता हो।
लेकिन यह डिप्रेशन रोग तो लगता है पढ़े लिखे संभ्रांत लोगों के हिस्से में ही आया है। आदमी आदमी से दूर होता जा रहा है, किसी को बिना मतलब किसी से बात करने तक की फुर्सत है नहीं, ऊपर से उपभोक्तावाद का दबाव, पारिवारिेक मसले, कामकाज के दबाव, बच्चे के साथ जैनरेशन गैप का मुद्दा..............खाने पीने में बदपरहेजी, मिलावटी सामान, लेट-नाइट पार्टीयां......इन सब के प्रभाव से जब कोई डिप्रेशन में चला जाता है तो क्यों हम लोग समझ लेते हैं कि बस रोज़ाना एक टेबलेट लेने से ही सब कुछ फिट हो जायेगा।
मुझे याद है जब हम बंबई में था तो बेकार बेकार बातों की कुछ ज़्यादा ही फिक्र किया करता था ---और इसी चक्कर में मैंने दो-तीन दिन के लिये चिंता कम करने वाली दवाई ली थी -----भगवान जानता है कि उन दिनों मेरे साथ क्या बीती। और मैंने तौबा कर ली थी इन दवाईयों के चक्कर में नहीं पड़ना।
वैसे आज बैठे बैठे मुझे इस डिप्रेशन का ध्यान कैसे आया ? ---आदत से मजबूर जब मैडीकल खबरों की खबर ले रहा था तो इस खबर पर नज़र अटक गई ---Americans prefer drugs for depression : survey. इस में लिखा है कि अमेरिका में जिन लोगों को डिप्रेशन है उन में से अस्सी फीसदी तो इस के लिये कोई न कोई दवाई लेते हैं और वे इस के लिये किसी मनोवैज्ञानिक अथवा सोशल-वर्कर से बात करने से भी ज़्यादा कारगर इस टेबलेट को ही मानते हैं।वे लोग इस के लिये नईं नईं दवाईयों को आजमाना नहीं चाहते क्योंकि उन से साइड-इफैक्ट ज़्यादा होने की संभावना होती है। इस सर्वेक्षण में पाया गया है कि इन दवाईयों के साइड-इफैक्ट्स तो हैं ही लेकिन फिर भी इन्हें --विशेषकर इस तरह की दवाईयां लेने वालों में यौन-इच्छा एवं क्षमता का कम होना--- पिछले सर्वेक्षणों की तुलना में कम ही पाया गया है।
आप को भी शायद लगता होगा कि आज कल लोगों का support system खत्म सा हो गया है---- लोगों को ऐसा कोई कंधा नहीं दिखता जिस पर वे अपना सिर रख कर मन की बात खोल कर हल्का महसूस कर लें। और जितना जितना हम लोग दुनियावी बुलंदियों को छूने लगते हैं यह कमी और भी ज़्यादा खलने लगती है।
अच्छा, बहुत हो गई बातें ----आप मेरे से यही प्रश्न पूछना चाहते हैं ना कि अगर डिप्रेशन में मनोवैज्ञानिक या मनोरोग चिकित्सक के पास भी न जाएं तो फिर करें क्या ---इस में क्या है, सारा जग जिन बातों को जानता है उन पर पहले चलने की कोशिस करें ----लिस्ट दे दें ?
  1. सुबह सवेरे जल्दी उठने की आदत डालें---रोज़ाना टहलने का अभ्यास करें--थोड़ी बहुत शारीरिक कसरत, थोड़ा बहुत प्राणायाम् और योगाभ्यास करना सीखें। साईकिल चलाना क्यों छोड़ रखा है ? ....हौंसला बढ़ाने के लिये देखिये मैंने हरेक क्रिया के साथ थोड़ा जोड़ दिया है लेकिन जैसे ही मन टिकने लगे इन की अवधि बढ़ा दें --- और किसी योगाचार्य से अगर समाधि ध्यान (meditation) सीख कर उस का नियमित अभ्यास करें तो क्या कहने !!
  2. ऐसी वस्तुओं से हमेशा दूरी बना के रखें जिन की नैगेटिव प्राणिक ऊर्जा है जैसे कि सभी तरह के नशे---तंबाकू, शराब, बार बार चाय की आदत।
  3. अपने खाने में कच्चा खाना जैसे कि सलाद, अंकुरित दालें एवं अनाज की मात्रा बढ़ाते चले जाएं --- ये तो पॉवर-डायनैमो हैं, एक बार आजमा कर तो देख लें।
  4. रात के समय बिल्कुल कम खाना खाएं-- अगर तीन चपाती लेते हैं और आज से एक कर दें ---खूब सारा सलाद लें और फिर देखिये नींद कितनी सुखद होती है और सुबह आप कितना फ्रैश उठते हैं।
  5. वैसे तो यह देश हज़ारों सालों से जानता है कि जब लोग सत्संग आदि में जुड़ते हैं तो वे मस्त रहते हैं, खुशी खुशी बातें एक दूसरे के साथ साझी करते हैं, और क्या चाहिए ? ---क्या कहा मोक्ष --भई, वह तो मुझे पता नहीं, और न ही वह मेरा विषय है। मैं तो बात कर रहा था बाहर के देशों में होने वाली रिसर्च की जिन्होंने इस बात की प्रामाणिक तौर पर पुष्टि की है कि जो महिलायें सत्संग जैसे आयोजनों के साथ नियमित तौर पर जुड़ी रहती हैं वे अवसाद का बहुत ही कम शिकार होती हैं। और जहां तक मोक्ष की बात है, वह तो परलोक की बात है, चलिये पहले यह लोक तो सुहेला करें.......इस लिस्ट को देखते समय यह मन में मत रखिये कि जो ज्यादा महत्वपूर्ण बातें हैं वे ऊपर रखी हैं और कम महत्व की बातें नीचे हैं---------इसलिये इस सत्संग वाली बात को आप पहले नंबर से भी ऊपर जानिये।
  6. क्या लग रहा है कि यह डाक्टर भी अब इन सत्संगों की बातें करने लगा है? लगता है कि इस पर भी चैनलों का जादू चल गया है। ऐसा नहीं है, मैं बिल्कुल वैज्ञानिक सच्चाई ही ब्यां कर रहा हूं.। और किस सत्संग में जाएं ? ---जहां जाकर आप के मन को खुशी मिले,,आप कुछ हंसे, अपने दुःख-सुख बांटे, अपने हम उम्र लोगों का संग करें ------ बस यही सत्संग है जहां से कुछ भी ऐसा ग्रहण करने को मिले ----बाकी मोक्ष के पीछे अभी मत भागिये ---वह लक्ष्य तो अभी इंतज़ार भी कर सकता है।
(इस लिस्ट में आप सब लोग भी कुछ जोड़ने का सुझाव देंगे तो बहुत अच्छा लगेगा.....सोचिये और लिखें टिप्पणी में)

अब आते हैं, एक अहम् बात पर कि अगर लिस्ट के मुताबिक ही जीवन चल रहा है लेकिन फिर भी अवसाद है, डिप्रेशन है तो भाई आप किसी मनोवैज्ञानिक अथवा मनोरोग विशेषज्ञ से ज़रूर मिलें जो फिर बातचीत (काउंसलिंग) के ज़रिये आप को समझा बुझा कर ...नहीं तो दवाईयां देकर आप के उदास मन को लिफ्ट करवाने की कोशिश करेगा।

दरअसल हमारी समस्या यही है कि हम लोग इस लिस्ट को तो देखते नहीं, सीधा पहुंच जाते हैं डाक्टर के पास जो पर्चे पर डिप्रेशन लिख कर दवा लिख कर छुट्टी करता है, लैब अनेकों टैस्ट करवा के छुटट्टी कर लेती है, कैमिस्ट दवा बेच के छुट्टी करता है, मरीज़ दवा खा के छुट्टी कर लेता है.........सब की छुट्टी हो जाती है सिवाय अवसाद के-----वह कमबख्त ढीठ बन कर वहीं का वहीं खड़ा रहता है।
लगता है मैं भी अपने दिमाग को विराम दूं ----कहीं यह भी अवसाद में सरक गया तो ......!!

मंगलवार, 23 सितंबर 2008

रेल-गाड़ी के शौचालय के बारे में सोचा तो ......

रेल-गाड़ी की विभिन्न श्रेणीयों के शौचालय के बारे में जब हम सोचते हैं तो हमें वैल्यू-एडड सर्विस ( value added service) का फंडा एकदम क्लियर हो जाता है। चलिये, शुरू करते हैं....ए.सी फर्स्ट क्लास के डिब्बे से .....कुछ ऐसे कोच हैं जिन में डिब्बे के यात्री को अपने ए.सी कैबिन में बैठे बैठे एक हरी या लाल बत्ती से यह पता चल जाता है कि कौन सा शौचालय( कौन सी साइड का –इंडियन अथवा वैस्टर्न ) खाली है अथवा आक्यूपाईड़ है। शायद यह इसलिये कि सुबह सुबह पानी वानी पी कर अगर आदमी किसी भी शौचालय का रूख करे तो उसे किसी किस्म की निराशा न हो.....निराशा तो उस स्केल पर सब से नीचे टिकी पड़ी है, जिस के सब से ऊपर है......आप समझ ही गये हैं, अब हर बात लिखनी थोड़े ही ठीक लगती है।

यहां तक कि अगर आप ने अपने कैबिन में नोटिस नहीं भी किया तो शौचालय के दरवाजे के बाहर चिटकनी पर भी इस तरह का इंडीकेटर सा आ जाता है कि बाथ-रूम खाली है या यूज़ में है। अंदर गये हुये बंदे को भी कितना सुकून है कि वह इतमीनान से अपना टाइम ले सकता है---नहीं तो कईं बार हम लोग बिना वजह उस चिटकनी को यूं ही इधर उधर कर के अपनी एमरजैंसी का संदेश अंदर बैठे महांपुरूष तक पहुंचाना चाहते हैं......कि शायद इस से उस की आंतड़ियों की सफाई की चाल में कुछ फर्क पड़ जाये।

तो ठीक है, बंदा एसी फर्स्ट क्लास के शौचालय में पहुंच गया है ....लेकिन पहली बार अंदर जाने वाला अंदर का वातावरण ऐसा फील करता है कि यार, यह बाथरूम ही तो है ना.....उस में तरह तरह के स्विच, तरह तरह के नलके, डिब्बे पड़े होते हैं और इतनी तरह की हिदायतें दी गई होती हैं कि आदमी सोचता है कि इन्हें समझने के चक्कर में क्या पड़ना। बस अपने काम से फारिग हो कर बाहर निकलें। एसी फर्स्ट के बाथरूम की जो मैं बातें कर रहा हूं,ये सब खासकर राजधानी गाड़ियों पर ज़्यादा लागू होती हैं।

यात्रियों की सुविधा का इतना ख्याल कि बाथरूम के ऊपर एक छोटी सी खिड़की भी होती है ताकि ताज़ी हवा का आनंद लूटने की ख्वाहिशमंद आत्मायें इस का भी भरपूर आनंद ले सकें।

हां, हां,साबुन-पानी की तो कोई दिक्कत ही नहीं.......टिश्यू पेपर भी पड़ा है, लिक्विड-सोप भी है और एक सोप की टिकिया जो यात्रा शुरू करने से पहले अकसर आप को दी जाती है, वह भी है----यानि पूरा इंतजाम।

चलिये, बहुत हो गया.....चाहे एसी फर्स्ट का ही बाथ-रूम है, लेकिन टाइम कुछ ज़्यादा ही लगा दिया है। अब आते हैं, सैकेंड एसी के बाथरूम की ओर। बस उस कोच में मैंने बहुत अरसा पहले एक इंडीकेटर देखा था गेट के पास कि शौचालय खाली है या कोई उस में गया हुया है। वैसे सैकेंड एसी में भी पानी वानी की तो कोई खास दिक्कत होती नहीं.....हां, साबुन का जुगाड़ आप को पहले से कर के रखना होगा। लेकिन राजधानी गाड़ीयों में सैकेंड एसी में भी साबुन वगैरह की व्यवस्था रहती ही है।

अच्छा, अब आगे समझने वाली बातें शुरू हो रही हैं.....वैल्यू-एडड सर्विस की बातें समझनी शुरू करें ?---हां, तो कुछ सैकेंड एसी के शौचालयों में लिक्विड सोप का कंटेनर लगा होता है , कुछ में नहीं और कुछ में खाली या .......!! यानि कि सैकंड एसी में सफर करने वाले अपनी साबुनदानी घर पर न ही भूलें तो बेहतर है वरना उस कागज़ी-साबुन (पेपर-सोप) से ही हाथ धोने की रस्म निभानी होगी।

अब आते हैं थर्ड-एसी के डिब्बे के शौचालय में....सीटें काफी बढ़ गई हैं ...इसलिये सुबह सुबह शौचालय के बाहर वेटिंग-लिस्ट में खड़े लोग दिख जाते हैं। कुछ कोशिश करते हैं कि बगल वाले सैकंड एसी के शौचालय में जाकर ही फारिग हो आया जाये। हां, हां, पानी की कोई दिक्कत नहीं.....बस साबुन का जुगाड़ पहले से रखो, भाई।

अब चलते हैं उस स्लीपर कोच की तरफ़ जिस में सब लोग रिजर्वेशन करवा कर ही चलते हैं.....उस में भी अधिकतर कोई प्राबलम होती नहीं। पानी वानी अकसर मिल ही जाता है.......हां, थोड़ा खिड़की-विड़की के कांच को जरूर चैक कर लेना होता है कि यह कहीं टूटा वूटा तो नहीं है या कहीं पारदर्शी कांच ही तो नहीं लगा हुया है। चिटकनी की तरफ़ भी पहले से थोड़ा ध्यान दे ही लें तो बेहतर होगा। और अंदर घुसने से पहले दोनों कानों में थोड़ी रूईं ठूंसनी होगी ताकि बाहर खड़ी जनता की किच-किच आप की दैनिक दिनचर्या को किसी तरह से बाधित न कर पाये। इस स्लीपर में दिक्कत आती है तब जब लोग बिना रिजर्वेशन वाले भी इस में जबरदस्ती घुस जाते हैं और फिर सुबह तो हर तरफ़ सामान भरा होता है और ट्रंकों के ऊपर ट्रंक पड़े रहते हैं जिस से दूसरे यात्रियों को काफ़ी परेशानी होती है.....लेकिन मैं चाहता हूं कि आप भी मेरे साथ रेलों में सफर कर रहे एक आम भारतवाशी के इत्मीनान को याद करते हुये एक सलाम ठोंके। उस बाथरूम के बाहर खड़े सब की एमरजैंसी एक सी है, लेकिन फिर भी वे एक-दूसरे की बात सुन लेते हैं और जो केस बिल्कुल होप-लैस लगते हैं उसे परायरटी बेस पर तुरंत अंदर भिजवा दिया जाता है।

इन स्पीलर क्लासेस के पश्चिमी शौचालयों का तो और भी बुरा हाल लोगों नें उस के ऊपर चप्पलों समेत बैठ बैठ कर किया होता है। इसलिये वही लोग उस तरफ का मुंह करते हैं जो नीचे नहीं बैठ सकते।

रेल गाड़ी से संबंधित तो नहीं , लेकिन अपने ज्ञानदत्त् जी पांडे की ब्लाग मानसिक हलचल पर मैंने लगभग एक साल पहले एक बहुत ही बढ़िया पोस्ट पढ़ी थी जिस में उन्होंने हिंदोस्तानी बाथ-रूम के बारे में बहुत बढ़िया कुछ लिखा था।

अच्छा तो अब हम चलते हैं बिना रिजर्वेशन वाले डिब्बे की तरफ़ जिस में लोग बोरों की तरह से ठसे हुये हैं और उस में मेरी नानी/दादी, मेरी मां, मेरी बीवी , मेरी बहन और हमारी बेटियां की उम्र की औरतें भी ठसाठस भरी होती हैं..........मैं जब इन डिब्बों को इतना ठसाठस भरे हुये देखता हूं तो सोचता हूं कि यार, जब इन में से किसी को बाथ-रूम जाना होना होता होगा तो क्या हाल होता होगा...........इन लोगों को विशेषकर हर उम्र की महिलाओं को क्या तकलीफ़ें पेश आती होंगी, शायद इस की तो हम लोग ठीक से कल्पना भी नहीं कर पायें..........आप स्वयं सोचिये ठसा ठस भरे डिब्बे में से चल कर किसी महिला के लिये बाथरूम जाना कैसा अनुभव होता होगा। और यह भी हो सकता है कि उस डिब्बे में दो-चार लोग ऐसे हों जो डायबिटीज़ से परेशान हों। अकसर इन डिब्बों के शौचालयों की हालत भी कुछ इस तरह की हालत होती है कि चिटकनी का पूरा ध्यान रखना होगा और पानी तो पहले से ही देख लिया जाये कि चल रहा है कि नहीं ...................वरना बाद में तो ...अब पछताये होत क्या.....!!!

ये जो थोड़ी दूरी की पैसेंजर गाड़ियां होती हैं इन के शौचालयों को तो लोगों ने इतना मिसयूज़ कर रखा होता है कि क्या कहें---कईं बार इन के बल्ब तक उतरे होते हैं....अंदर सब तरफ गंदगी बिखरी पड़ी होता है, ऐसे में इस बात की तो बिल्कुल हैरानगी करें नहीं कि गोलू की अम्मा गई तो गोलू को गोद में उठा कर उसे साफ करने लेकिन यह क्या उसे तो वहां गंदगी की हवाड़ से शुरू हो गई मतली और गोलू बेचारा रह गया वैसा का वैसा ही .....लेकिन वह फिर भी मस्त है और दूसरे यात्रियों को देख कर किलकारियां मारता जा रहा है । और सामने वाले बाथरूम में से शहर जा कर आधा-दूध आधा-पानी बेचने वाले अपनी कैनीयों में बाथरूम से पानी भर भर उंडेलने में व्यस्त हैं क्योंकि शीघ्र ही उन का स्टेशन आने वाला है।

दो-चार महीने पहले एक बार रात को मैं और मेरा बेटा अंबाला स्टेशन पर बैठे हुये थे तो हमारे बैंच के सामने एक सैकेंड क्लास का ऐसा डिब्बा रुका जिस के शौचालय की खिड़की न थी ....लेकिन उस में भीड़ इतनी थी कि लोग इस बात की परवाह किये बिना उस का इस्तेमाल किये जा रहे थे। मेरे बेटे ने थोड़े मजाकिया अंदाज़ में मुझे कुछ कहा, तो मैंने उसे प्यार से समझा दिया कि यार, तू एक बार अपने आप को इन लोगों की जगह पर रख कर के देख......बात केवल इतनी ही कही कि यार, इन लोगों की इस अवस्था के बारे में एक फीकी सी मुस्कान भी चेहरे पर लाना घोर जुल्म है। और हम लोग वहां से उठ खड़े हुये।

लेकिन इतना लिखते लिखते लगता है कि वैल्यू-एडड सर्विस का कंसैप्ट मैं समझा पाया हूं........key words are …..इंडीकेटर्स, लिक्विड सोप, चिटकनियां, टूटी खिड़कियां, टूटे बल्ब ।

मैं इन सब श्रेणियों में सफर करने का फर्स्ट-हैंड तजुर्बा रखता हूं।

और जितना अब तक सीखा है वह यही है कि हमारी रेलें हमें बहुत कुछ सिखाती हैं....आपस में एक दूसरे की ज़रूरत का ध्यान रखना और सब से बड़ी बात जो मैंने बहुत शिद्दत से ऑब्जर्व की है और जिस बात में मेरा विश्वास पत्थर पर खुदे नाम जैसा है ....वह यह है कि जैसे जैसे ट्रेन की श्रेणी बढ़ती है........सुविधा तो बेशक बढ़ती ही है ....लेकिन हमारी टोलरैंस, हमारी सब्र, हमारा ठहराव, हमारी इत्मीनान......यह सब कुछ पता नहीं क्यों कम होता जाता है। ये सब विशेषतायें मैंने दूसरे दर्जे के बिना रिजर्वेशन वाले डिब्बे के यात्रियों के चेहरे पर बहुत अच्छी तरह से पढ़ी हैं........किसी के पैर में घिसी चप्पल है, किसी का कुर्ता छः जगह से टांका हुया है, कोई शायद समझता है कि उसे बात करने का ढंग नहीं है, कोई अपनी बढ़ी दाढ़ी या दूसरे किसी बाबूनुमा व्यक्ति की बढ़िया कमीज़ की वजह से बिना वजह अपने आप को छोटा समझ रहा है बिना यह जाने की यह उस ने आज ही स्टेशन के बाहर फुटपाथ से सैकेंड-हैंड खरीदी है, कोई अपनी मां के हाथ की रोटियां और आचार खाने में बिना वजह झिझक महसूस कर रहा है...........लेकिन कोई परवाह नहीं,दोस्तो, इन सब छोटी छोटी बातों का कोई मतलब है ही नहीं....असली हीरो इस देश के यही लोग हैं जिन में इतनी टॉलरैंस है, इतना सब्र है कि मैं तो भई इन की आंख में आंख डाल कर बात ही नहीं कर सकता। इस के इतने सब्र के पीछे कारण यही है कि इन सब के सपने एक से हैं.....ये एक दूसरे की तकलीफ़ समझते हैं और उस की मदद करने के लिये आगे आते हैं।

शुक्रवार, 16 मई 2008

मुझे इन पार्टीयों वगैरह में जाने से चिढ़ है

क्योंकि इन में मन में कुछ चल रहा होता है, बंदा सोच रहा होता है, कह कुछ रहा होता है और उस का मतलब कुछ और ही होता है.....नकली प्लास्टिक मुस्कुराहटों से नफरत करता हूं मैं.......अभी दो मिनट पहले किसी के साथ मिला कर अगले पांच मिनटों में जैसे ही वह आंखों से ओझल होता है, आप उस बेचारे की कमजोरियां गिनाना शुरू कर देते हो...........यह सब बेहद चीप हरकतें हैं....मेरा इन में कोई इंटरस्ट नहीं है इसलिये मैं ज़्यादातर इन पार्टीयों वगैरा से दूर ही रहना चाहता हूं। मैंने बहुत नज़दीक से छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी पार्टीयों को देखा है लेकिन यही देखा है कि जिन्हें हम छोटी मोटी पार्टीयां कहते हैं वहां पर लोग जी रहे होते हैं .....बड़ी बड़ी पार्टियों और जश्नों में हम लोग केवल गोसिपिंग करते हैं , केवल चुगलखोरियां, केवल पर-छिद्रानवेषण ..............लेकिन ना भी करें तो क्यों ना करें......हमें मजा आता है....हमें इस की आदत लग चुकी है। क्या फायदा इस तरह की पार्टियों में जाने का ...इस से घर पर बैठ कर एफएम पर गाने ही सुन लो।
देखो, दोस्तो, अब हो चुके हैं छः महीने ब्लागरी में पैर धरे हुये थे.....बहुत हो गईं अच्छी अच्छी बातें......सोच रहा हूं अब तो शुरू करूं अपने मन की बात कहना । तो, दोस्तों, शुरू करूंगा आज से यह जो नया काम करने जा रहा हूं उस में शत-प्रतिशत इमानदारी ही हो, और कुछ नहीं.......।

मुझे सत्संग में जाकर अच्छा क्यों नहीं लगता !!

मैं अपने आप से कईं बार पूछ चुका हूं कि मुझे सत्संग में जाकर भी ज़्यादा अच्छा क्यों नहीं लगता......सोच रहा हूं कि शायद वह इस लिये होगा कि जो भी मैं वहां सुनता हूं उस को अपनी लाइफ में उतार तो पाता नहीं हूं.....इसीलिये मुझे ऐसी जगहों पर जाकर आलस सा ही आता रहता है.....ऐसा लगता है कि किसी थ्योरी की क्लास अटैंड करने जा रहा हूं...बड़े बोझ से जाताहूं ज़्यादातर मौकों पर......भार लगता है इन जगहों पर जाना। मैं तो बस केवल यही समझता हूं कि हमें उस परमात्मा, गाड, अल्ला , यीशू के सभी बंदों के साथ प्यार करना आ जाये तो बस समझो कि हमें मंजिल मिल ही गई। मैं कबीर जी की इस बात का बेहद कायल हूं कि .......पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया ना कोय....ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होय। बस, बात यही पते की जान पड़ती है..........पंजाबी में भी कहते हैं...मन होवे चंगा॥कठोती विच गंगा....। मुझे तो लगता नहीं कि मेरा मन किसी सत्संग में कभी ठहर पायेगा। लेकिन पता नहीं जब मुझे कुछ चाहिये होता है, मेरे पर कोई मुश्किल आन पड़ती है, मेरे को दिन में तारे नज़र आने शुरू हो जाते हैं तो मैं ज्यादा भागता हूं इन सत्संगों की तरफ....लेकिन किसी अनजान डर की वजह से, किसी अनजान खौफ की वजह से, किसी भी अनहोनी से अपनी और अपनों की रक्षा के लिये....पर पता नहीं मेरा मन क्यों नहीं लगता इन सत्संगों में......मैं यही समझता हूं कि अगरी मेरी सोच, मेरी कथनी, मेरी करनी में अंतर है तो क्या फायदा होगा मुझे इन सत्संगों में जाने का .........पता नहीं मुझे ये विचार बारबार तंग करते हैं और खास कर ऐसे सत्संगों में जहां पर यह कहते हैं कि आप लोग अज्ञानी हो, बुरे हो, अच्छे बनो, वरना मानव जीवन व्यर्थ चला जायेगा......इस तरह की बातें.....मैं तो उस समय यही सोच रहा होता हूं कि अगर व्यर्थ चला भी गया यह जीवन तो क्या ....हम ने कौन सा मोल खरीदा है.............और यह भी सोचता हूं कि यह मुक्ति वुक्ति का क्या चक्कर है....किन ने देखी कि किसे मिली मुक्ति और किसे नहीं..........बस, ये बातें मुझे बोर कर देती हैं। लेकिन एक जगह पर जाकर मैं कभी बोर नहीं होता....जहां मैं बार बार गया और मुझे कभी नहीं लगा कि आयेहुये लोगों की नुक्ताचीनी कर रहे हैं....इन के यहां कोई दिखावा भी नहीं होता। इसलिये मैं इस संस्था से जुड़ा रहना चाहता हूं लेकिन मेरी मजबूरी है कि मेरे शहर में इस की कोई ब्रांच नहीं है......तो फिर मैं क्या करूं ...वैसे मुझे तो इसी संस्था में जाकर ही जीने का थोड़ा बहुत सलीका आया है, मेरा चंचल मन ठहर सा गया है, लेकिन मैं इस के साथ लगातार जुड़े रहना चाहता हूं।

सोमवार, 28 अप्रैल 2008

मेरी अस्थियों की वसीयत...

आज मैं अपनी अस्थियों की वसीयत करने जा रहा हूं....नहीं..नहीं..बिल्कुल किसी प्रकार के भी दबाव में नहीं....बल्कि स्वयं अपनी मर्जी से होशो-हवास में यह सब कुछ कर रहा हूं.....नहीं, नहीं, मेरे सारे परिवार वाले, मेरे बीवी-बच्चों को भी इस में रती भर भी आपत्ति नहीं होगी.....इस का कारण यही है कि उन सभी के विचार मुझ से भी कहीं ज़्यादा क्रांतिकारी किस्म के हैं, प्रगतिशील हैं, रूढ़िपन से कोसों दूर हैं........किसी भी कर्म-कांड से कोसों दूर....इन ढकोंसलों को सिरे से नकारने वाले विचार रखते हैं मेरे घर के सारे बाशिंदे। वैसे पहले तो मेरा विचार था कि अपने पार्थिव शरीर को किसी मैडीकल कॉलेज को दान दे दूंगा.....ताकि कम से कम मैडीकल छात्रों के कुछ तो काम आये.....( वैसा ऐसा मेरे मरहूम नानाससुर ने दो-एक साल पहले किया था, उन के ये भाव जान कर मेरा मन बहुत उद्वेलित हुया था...).....लेकिन आज की अखबार पढ़ कर मुझे लगने लगा है कि यार, इन अस्थियों की तो अभी कुछ लोगों को विशेष ज़रूरत है.......चलिये अब मैं पूरी बात पर आता हूं।

आज हिंदी के तीन अखबारों के पहले पन्नों पर छपी तीन खबरों ने बहुत परेशान किया। एक अखबार के पहले पन्ने पर खबर दिखी कि कुछ बेटों ने किसी तांत्रिक के प्रभाव में आकर अपनी मां की ही बलि दे दी । अब इस के बारे में क्या कहूं.......खबर पूरी पढ़ ही क्या , सुन कर ही बोलती बंद हो जाती है ना !!

दूसरी अखबार के पहले पेज़ पर खबर थी कि महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी, रोहतक द्वारा आयोजित एमडी-एमएस प्रवेश परीक्षा का पेपर एक दिन पूर्व लीक हुआ था। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि चयनित स्टूडेंट्स को अलग अलग स्थानों पर प्रश्न रटवाए गये थे। अब कुछ छात्र समूह इस की एंक्वायरी की मांग कर रहे हैं..........छोटी मोटी एंक्वायरी ही क्यों, मेरे विचार में तो इस तरह के घोटाले में सीबीआई जांच होनी चाहिये। समझ नहीं आता कि किस तरह के स्पैशलिस्ट तैयार होंगे इस तरह की चयन परीक्षा के द्वारा........जो सीरियस किस्म के छात्र बेचारे कईं कईं साल तैयारी कर के इन कोर्सों में प्रवेश प्राप्त करने के सपने बुनते हैं.........वे तो बेचारे बेवकूफ़ हो गये....और जो लोग अपने कंटैक्ट एवं पैसे के ज़ोर पर इस तरह की प्रवेश-परीक्षा पर ही धावा बोल देते हैं........एक तरह से इन परीक्षाओं को सैबोटॉज कर लेते हैं.......वे अकलमंद हो गये। शायद ही आप इस बात का अंदाज़ा लगा सकें कि इस तरह की धांधली की वजह से किसी भी प्रतिभावान डाक्टर को कितनी घुटन, कुंठा, कितना आक्रोश, कितनी फ्रस्ट्रेशन, कितनी आग लगती होती......मेरे पास तो ये सब लिखने के शब्द भी नहीं हैं.....लेकिन ये बातें लिखने-पढ़ने की बात भी है नहीं.....अनुभव करने की बातें हैं।

तीसरी खबर.....यह भी एक अखबार के पहले पन्ने पर ही थी....इसे देख कर तो मेरा दिमाग 360 डिग्री ही घूम गया.....और मैंने अपने अस्थियों की वसीहत करने का फैसला कर लिया । हुया यूं कि अंबाला में गांव की किसी महिला की अस्थियां जेब में डालकर ले जाने वाले एक दिहाड़ी मज़दूर को ग्रामवासियों ने न केवल मुंह काला करने घुमाया बल्कि गांव से निकाल दिया। हां, हां, अस्थियां तो उस की जेब से निकाल ही लीं। पुलिस को भी फोन भी हो गया , तुरंत पंचायत भी बैठ गई....और उस मज़दूर को गांव-निकाला भी दे दिया और उस से यह भी कह दिया गया कि आज के बाद वह गांव में नज़र नहीं आना चाहिये। लेकिन मजदूर की बात तो सुनिये.....सुन कर आप भी पिघल जायेंगे.....उस ने कहा कि उस को किसी ने कहा था अस्थि बच्चे के गले में डाल दो तो बीमारी नहीं लगती है, इसलिये वह अस्थि ले कर जा रहा था।

तो, क्या आप को इन खबरों से आज के समाज की भयानक तसवीर की एक झलक नहीं दिखी......मुझे तो अच्छी खासी दिखी.....इसीलिये मैंने झट से अपनी अस्थियों की वसीयत कर देने में ही समझदारी समझी। वैसे भी मैं तो यह बिल्कुल नहीं समझता हूं कि इन अस्थियों के द्वारा ही मुझे मुक्ति मिलने वाली है.....नहीं, नहीं, मैं नहीं पड़ना चाहता इस तरह के मिथ्या आडंबरों में.....वैसे भी मुझे मुक्ति नहीं चाहिये.......मैं तो बस यूं ही पाखंडियों के आस-पास मंडराता रहना चाहता हूं.....मर कर भी उन की नींद हराम किये रखना चाहता हूं...........और वैसे भी इस न्यूज़-रिपोर्ट जैसे पता नहीं अभी कितने हज़ारों-लाखों लोग होंगे जिन्हें अब बच्चों के गले में डालने के लिये अस्थियां चाहिये होंगी........चलो, कुछ के तो काम आ ही जायेंगी....और इसी बहाने मुझे अपनी इस हार को मानने का एक अवसर तो मिलेगा कि ये वे महान आत्मायें हैं जिन को मैं अपनी ज़िंदगी के दौरान भ्रमजाल से मुक्त नहीं कर सका, इसलिये ये अब जो भी मेरी अस्थियों के साथ करना चाहें, इन्हें मनमानी कर लेने दो।

वैसे जब मैं ये अस्थियां चुराने वाली खबर पढ़ रहा था तो मेरा ध्यान हमेशा की तरह रोटी फिल्म के उस बेहद सुंदर गीत की तरफ एक बार फिर चला गया..........यार, हमारी बात सुनो, ऐसा इक इंसान चुनो....जिस ने पाप ना किया हो.......जो पापी न हो...........सचमुच आप पूरे मन से वह वाला गीत सुनेंगे तो आप की आंखें भर आयेंगी... दोस्तो, यह रोटी फिल्म भी कमबख्त ऐसी है कि पता नहीं लाइफ में किस घड़ी में देखी है कि ये मेरे लिये कईं अहम् फैसले लेने के लिये भी एक बैंच-मार्क का काम करती हैं......मुझे अकसर रोज़ाना कईं महत्वपूर्ण फैसले करने होते हैं.....तो अकसर मैं अपने इस बैंच-मार्क को ज़रूर कंसल्ट कर लेता हूं.......। धिक्कार है इस समाज पर, इस समाज के ठेकेदारों पर, इन धर्म के सौदागरों पर जिन्होंने एक मजलूम से इंसान को इतनी छोटी सी भूल के लिये इतनी बड़ी सज़ा देकर पता नहीं किस इलाही धर्म का पालन कर डाला। मैं मज़बूर बंदों पर इस तरह से अत्याचार करने की खुल कर, बिल्कुल खुल कर, ओपनी....घोर निंदा करता हूं।.........समाज से और कौन से अपराध नहीं हो रहे....घूसखोरी, भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार, जालसाजी, फरेब, बलात्कार, हत्यायें, आतंकवाद की घटनायें......इन का फैसला कभी इतनी तुंरत नहीं ( पता नहीं कब आता है...!!) आया जितना कि इस बेसहारा मज़दूर का आ गय़ा।

बस, अभी आप से क्षमा चाहता हूं....क्योंकि मैं ये तीनों खबरें पढ़ कर बहुत शर्मसार हूं.........मुझे सैटल होने के लिये थोड़ा एकांत चाहिये।

गुरुवार, 17 अप्रैल 2008

क्या आप को भी कभी ग्राहक राजा लगा है ?

अगर ग्राहक राजा है तो उस का यह हाल क्यों ?
वैसे तो शायद आजकल एक फैशन सा ही हो गया है या बदलते समय की मांग के कारण यहां वहां कईं संस्थाओं में कस्टमर किंग है.....अर्थात् ग्राहक राजा है....के बहुत बड़े बड़े पोस्टर लगे हुये दिख जाते हैं। मैं अकसर अपने आप से ही पूछता रहता हूं कि क्या यह एक तरह की फार्मैलिटी सी है या इस में कुछ ठोस बात भी है।
जनता का जिस तरह का हाल मैं विभिन्न जगहों पर देखता हूं ...वह देख कर मुझे तो कुछ और ही लगता हू। अगर मेरी बात पर ज़रा सा भी शक हो तो देश में कहीं भी उस पंक्ति की तरफ़ नज़र दौड़ा के देख लीजियेगा....सारी बात समझते देर न लगेगी। मैं एक ऐसी खिड़की पर जा कर बिजली का बिल जमा करता रहा हूं....( करता रहा हूं क्या, अभी भी करता हूं) जिस को खिड़की कहना ही बेवकूफ़ी होगी......वह तो सिर्फ़ आधे फुट के करीब का एक झरोखा सा है.....जो लगभग साढ़े-चार या पांच फीट की ऊंचाई पर है, उसी झरोखे के रास्ते से ही हमें अपना बिल उचित राशि के हाथ अंदर पकड़ाना होता है। यह जो सुरंगनुमा तंग सा रास्ता जिस से होकर हाथ उस सर्वेसर्वा बाबू तक पहुंचता है....यह रास्ता बहुत ही संकरा है....एक बार थमा देने पर आप आप अपने द्वारा जमा की गई राशि की काउंटिंग होती भी नहीं देख पाते। हां, कभी कभार जब बाबू कुछ पूछता है तो आप को उस झरोखे के लैवल पर झुकना पड़ता है.......अब सदियों से इतना झुकते आये हैं कि हमें तो इस तरह से बिना वजह ऐसी किसी भी ऐरी-गैरी जगह पर झुकना एकदम नागवारा है..........पता नहीं मुझे तो इस तरह से बिल जमा करवाने में बड़ी ज़िल्लत का सा अहसास होता है। पैदाइश तो चाहे आज़ाद हिंदोस्तान की है, लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों मैं इस तरह की लाइनों में लगे लोगों को देख कर गुलामी के अंधेरे दिनों की कल्पना ज़रूर कर लेता हूं।
कुछ दिन पहले बीमे की किश्त जमा करने गया......वहां पर भी एक तंग सी खिड़की....और बाकी सारी जगह पर कांच और उस के बाहर एक ग्रिल सी लगी हुई थी......सीधी सीधी बात करूं तो इन जगहों पर जाकर मेरा सिर दुःखने लगता है.........नहीं, नहीं, इसलिये तो बिलकुल नहीं कि मुझे लाइन में लगना पड़ता है। वैसे मैं तो इस सामाजिक बराबरी का इस हद तक पक्षधर हूं कि ऐसी किसी जगह पर लोग अगर मुझे पहचान कर लाइन में आने के लिये कहते हैं तो मैं ऐसा सोचना भी पाप मानता हूं.....और मैं इस नियम का अपनी ओपीडी में भी सख्ती से पालन करता हूं.......इस नियम के साथ अपने सारे कैरियर के दौरान न तो कभी समझोता किया और न ही कभी करूंगा।
इन पब्लिक जगहों पर जहां बिल वगैरह भरे जाते हैं .....क्या इन्हें डाका डलने का खौफ़ बना रहता है....लेकिन मैं तो ऐसी जगहों की भी बात कर रहा हूं जहां पर ये कलैक्शन-सैंटर किसी इमारत के अंदर होते हैं और आसपास सैक्यूरिटी गार्ड भी तैनात होते हैं।
अकसर आप ने भी पब्लिक जगहों पर देखा होगा कि जहां पब्लिक का किसी तरह का इंट्रेक्शन सा होता है वहां खिड़की के बाहर खड़े लोगों को एक खुशामदीद का अहसास नहीं हो पाता.......हां, हां, उन ग्राहक राजा है वाले नारों की बात अभी थोडा भूल ही जाइये.......बाहर, देखता हूं कि कुछ लोग विभिन्न कारणों से लाइन जंप कर ही लेते हैं। कहने को तो कईं जगह पर स्त्रियों की लाइन अलग से होती है लेकिन इन जगहों पर भी मैंने देखा है कि खिड़की अलग नहीं होती.................आप समझ गये ना, तो फिर कुछ अवसरवादी लुच्चे किस्म के शोहदों को अपने मन की थोड़ी सी मनमानी करने से इस से बेहतर मौका कहां मिलता है।
शायद एक नियम और जिस के अंतर्गत बैंक के गेट पर ज़ंजीरें सी बांधी जाती हैं....मुझे तो वह भी बेहद अजीब सा नियम लगता है .....न तो किसी की उम्र का ध्यान करो और न ही करो किसी की सेहत का ....बस कोरे नियमों की पालना करो। मैं ऐसा इसलिये भी लिख रहा हूं क्योंकि मैंने बहुत बार बुजुर्ग लोगों को इन संगलियों से उलझकर गिरते गिरते बचते देखा है....लेकिन क्या करे......उस की सुनने वाला है कौन !! आना है तो आ बैंक में, वरना घर बैठ.....तू नहीं तो और सही, आज के दौर में बैंकों में ग्राहकों की भला कोई कमी है।
चलिये, मैं तो कईं दिनों से मन में दबी बात को लिख कर हल्का सा हो गया हूं ....लेकिन फिर सोचता हूं कि इस से क्या फर्क पड़ेगा ......लेकिन उसी समय फिर उसी चीनी कहावत की तरफ़ ध्यान चला जाता है जो कहती है ......तीन हज़ार किलोमीटर के सफर की शुरूआत भी तो पहले कदम से ही होती है !!


शुक्रवार, 11 अप्रैल 2008

शोक समाचार ..


अश्लील फिल्मों की रोज़ाना खुराक में बाधा बनती दादी का पोते के हाथों खेल खत्म --
इस खबर का शीर्षक पढ़ कर आप भी मेरी तरह कहीं यह तो नहीं ना सोच रहे कि यह अमेरिका या यूरोप की किसी जगह की बात होगी। वैसे तो ऐसी खबर कहीं से भी आये...अफसोसजनक ही है, लेकिन यह बात और भी दुःखदायी इसलिये भी है क्योंकि यह सब कुछ अपने ही यहां के कोल्हापुर में घटा।
अकसर लोग कह तो देते हैं कि मीडिया आज कल बहुत ही ऐसी वैसी खबरें छापता है। लेकिन एक बात यह भी तो है कि मीडिया मनघडंत खबरें भी तो नहीं छाप रहा.....जो आज समाज में घट रहा है, उसी को हमारे सामने पेश करता है। अर्थात् मीडिया तो किसी भी समाज का आइना है।
हुया यूं कि 67वर्षीय शांताबाई पाटिल अपने बड़े बेटे ( जो डाक्टर हैं) के घर रहने के लिये आईं.....इसलिये उस के 21 वर्षीय पोते को अपने दूसरे भाई के साथ रूम शेयर करने को कहा गया। लेकिन दादी के द्वारा उस के कमरे में डेरा जमाये रखने के कारण पोते को बहुत ही ज़्यादा तकलीफ होने लगी.......कैसी तकलीफ़?....उस की तकलीफ़ यह थी कि दादी के कमरे में होने की वजह से वह अपने कमरे में रखे कंप्यूटर पर रोज़ाना अश्लील फिल्में देख नहीं पा रहा था। इसलिये उस ने दादी को खत्म करने की ही प्लानिंग कर डाली और उस के सिर पर पत्थर दे मारा जिस के कारण दादी के उसी समय प्राण पखेरू उड़ गये।
खबर तो पढ़ ली.......लेकिन सोच रहा हूं कि क्या इस वारदात के बाद आज के समाज को कहीं से चुल्लू भर पानी भी मिल पायेगा कि नहीं !!
मेरे पास एक स्क्रैप बुक है जिस में मैं मीडिया में छपी कुछ इस तरह की फोटो/खबरें पेस्ट करता रहता हूं जिन्होंने मुझे हिला दिया। अभी दो दिन पहले ही मैं सोच रहा था कि उस ठीक चार साल पुरानी बासी खबर को निकाल दूं जिस में छपा था कि ऊना(हिमाचल प्रदेश) की एक 75 साल की वृद्ध महिला का गांव के ही 30-35 साल के तीन लड़कों ने सामूहिक बलात्कार कर डाला था। बासी केवल इसलिये कह रहा हूं क्योंकि उस से भी ज़्यादा घृणित ( अपने आप से पूछ रहूं कि क्या ऐसी तुलना करना किसी भी दृष्टि से ठीक है ?...जवाब मिलता है....बिल्कुल गलत है और बेवकूफी है !) काम की खबर तीन-चार दिन पहले यह पढ़ ली कि उत्तरांचल में कहीं पर 80 वर्षीय वृद्धा का बलात्कार हो गया। अभी मैं इस खबर के सदमे से उभरा ही ना था कि आज सुबह सवेरे पोते के हाथों दादी के मारे जाने की खबर पढ़ कर हिल गया हूं।
ऐसा लगने लगा है कि इस तरह की वारदातें जब हों तब तो राष्ट्रीय शोक घोषित कर दिया जाना चाहिये.....क्योंकि इस तरह की खबर ने उस वृद्धा के कत्ल की खबर तो सुना दी लेकिन क्या यह खबर इस के साथ ही साथ यह घोषणा भी नहीं कर रही कि आज की पीढ़ी के मानवीय मूल्य पूरी तरह से तबाह हो चुके हैं। और जब शोक इतना गहरा हो तो अखबारों को इस जैसी खबर को बड़े-बड़े काले हाशिये के साथ छापना चाहिये।
लेकिन सोच रहा हूं कि उस डाक्टर की परिस्थिति देखिये....बेचारी मां तो गई ही लेकिन बेटा भी शायद कानून की गिरफ्त में ही होगा .....अब रोये तो किस को रोये.....मां को, बेटे को या सारे परिवार के दुर्भाग्य को। रह रह कर ध्यान सारथी ब्लोग में शास्त्री जी की कल की पोस्ट की तरफ ही जा रहा है कि जिस में उन्होंने भावी पीढ़ी को सही संस्कार देने की बात की है और उन के पल्लवित-पुष्पित होने की भी बहुत सुंदर बातें की हैं।
ध्यान तो इस समय पराया देश ब्लोगवाले राज भाटिया जी की तरफ़ भी जा रहा है कि वे भी कितने प्रेरणात्मक प्रसंग हम सब के साथ साझे करते रहते हैं ....अगर इन प्रसंगों को हम लोग रोज़ाना पढ़ें और इन्हें आत्मसात् करने की कोशिश करें तो फिर देखिये कैसे समाज की तस्वीर ही बदल जायेगी।
जो भी हो, मुझे इस खबर का इतना अफसोस है कि मैं ब्यां नहीं कर पा रहा हूं। परमात्मा उस महान आत्मा को स्वर्ग में स्थान दे और मुक्ति प्रदान करे। मेरी और मेरे सारे परिवार की यही श्रद्धांजलि है.....सारे ही इस खबर के बारे में पढ़ कर बहुत दुःखी हैं।

बुधवार, 9 अप्रैल 2008

एक सौ आठ हैं चैनल, पर दिल बहलते क्यों नहीं !





लिखने वाले ने भी क्या जबरदस्त लिख दिया है !...लेकिन इस बात का ध्यान मुझे बहुत समय बाद कल तब आया जब मेरी पहली कलम चिट्ठाकारी पोस्ट के बारे में एक मित्र ने कहा कि दोस्त, दुनिया तो बहुत आगे निकली जा रही है.....आज कल तो कंप्यूटर, इंटरनेट, ब्लागिंग का दौर है......तब अचानक मुझे मुन्नाभाई लगे रहो से यह मेरा बेहद पसंदीदा डायलाग याद आ गया और सोचा कि इसे कलम के द्वारा ही आप के सामने प्रस्तुत करूंगा.......प्रस्तुत तो ज़रूर कर रहा हूं...लेकिन यह सब मेरे लिये ही है, किसी और की तो मैं जानता नहीं, लेकिन अपने आप से ही इतने सारे सवाल ज़रूर पूछ रहा हूं.........इसलिये फिर से कलम उठाने पर मज़बूर हो गया।

शनिवार, 15 मार्च 2008

बच्चों पर विश्वास नहीं करेंगे तो बहुत मुश्किल हो जायेगी !


मैं सोच रहा हूं कि जिस तरह से इंटरनेट का यूज़ दिन प्रति दिन बढ़ रहा है ....यकीनन इस के बेइंतहा फायदे तो हैं ही......लेकिन इस के दुष्परिणामों से कैसे हम अपने बच्चों को कच्ची उम्र में बचा सकते हैं। मेरे को तो एक ही ...केवल एक ही उपाय सूझ रहा है कि हमें अपने बच्चों पर विश्वास करना सीखना होगा। ज़माना बहुत बदल गया है और हमें अपने बच्चों पर विश्वास कर के उन का विश्वास जीतना ही होगा।
हां, एक बात मैंने कुछ दिन पहले कही थी कि अपने घर में इंटरनैट कनैक्शन को किसी कॉमन सी जगह जैसे कि लॉबी वगैरह में रखना एक अच्छा आइडिया है।
बात एक और भी है ना कि हमें अपनी उदाहरण से लीड करना होगा.....अगर हम चाहते हैं कि जब हम नैट पर बैठे हों तो बच्चे पास तक न फटकें तो इस से बच्चे चाहे छोटे ही हों उन्हें एक गलत मैसेज जाता है। उन्हें लगता है कि यार, अगर बापू ऐसा कर सकता है, अलग बैठ सकता है ..तो मैं क्यों नहीं ? उन में भी विद्रोह करने की एक ज्वाला सी धधकने लगती है....वैसे बात है भी तो सही...कायदे-कानून सब के लिये एक जैसे ही हों तो ही बात ठीक लगती है।
आज भी जब मैं अपने बच्चों को नेट की हिस्ट्री उड़ाने के बारे में कभी कभार पूछता हूं तो मुझे बहुत अपराध बोध होता है...मैं पहले अपने आप से पूछता हूं कि क्या मैंने यह नेट-हिस्ट्री खुद कभी नहीं उड़ाई......चाहे कभी भी यह काम किया हो , लेकिन किया तो था ना तो फिर अपने इस तरह के डबल-स्टैंडर्ड्ज़ मुझे परेशान करते हैं। और आज तो बच्चों के पास इस तरह की सैटिंग्स को बार-बार बदलने के लिये अपने ही कुछ टैक्नोलॉजी से जुड़े हुये कारण भी तो होंगे ( और हैं !)..................सीधी सी बात है कि मुझे तो कभी इस तरह के प्रश्न पूछने उन से ठीक लगते नहीं हैं..........बाकी सब की अपनी अपनी राय हो सकती है। मुझे लगता है कि मैं इस तरह के पुलिसिया सवाल पूछ कर उन के मन में अविश्वास के बीज रोप रहा हूं।
लेकिन मुझे लगता है कि बच्चों को अगर ऐसा लगता है कि उन के पेरेन्ट्स उन के ऊपर इतना ज़्यादा विश्वास करते हैं तो वे कभी भी (कुछ अपवाद हो सकते हैं) उन के विश्वास को ठेस पहुंचाने के बारे में सोचेंगे भी नहीं।
मुझे याद है कि मुझे नेट से जुड़े लगभग 10 साल होने को हैं.....शुरू शुरू में मेरा बेटा मेरे साथ कभी कभी जाया करता था....उस ज़माने में मैं तो चैटिंग वैटिंग में मसरूफ रहता था और मैं बेटे को एक कंप्यूटर पर बिठा देता था ...............मुझे आज भी वो कहता है कि पापा, आप ने भी मेरा शुरू शुरू में बड़ा उल्लू बनाया, खुद तो बैठ जाते थे ...नेट पर और मुझे कंप्यूटर के सेवड़ पेजिज़ देखने में लगा देते थे। जी हां, वह 1999 का ज़माना भी तो वह था कि जब इंटरनेट पर चैटिंग को बड़ी अजीब सी बात माना जाता था। लेकिन शायद हम लोगों ने यह चैटिंग करते करते ही इंटरनेट के बेसिक्स सीखे।( और लोग समझते हैं कि इन हिंदी ब्लोगरों की सीधी एंट्री ही चिट्ठों पर ही हुई है) !!...
तब तो हमें यह भी नहीं पता होता था कि इन सर्च-वर्च इंजनों का क्या फंडा होता है.............बस चैटिंग का ही पता था। मुझे याद है कि एक बार मेरा बास अपने बच्चे की किसी बिमारी के बारे में बात कर रहा था और मैं यह पूछना चाह रहा था कि आप ने यह सब नेट पर देखा होगा...............लेकिन मेरे मुंह से ये शब्द निकले थे........सर, आप को यह नेट में चैटिंग से पता चला होगा...............उस ने मुझे कोई खास जवाब नहीं दिया था।
विश्वास के इलावा अब कोई चारा नहीं दिखता...........मैं सोच रहा हूं कि जब केबल टीवी आया तो लगभग 15 साल पहले कुछ चैनल बच्चों के लिये लॉक करने की बहुत बातें हुईं.....अब इंटरनेट पर कुछ तरह की साइट्स ब्लाक करने की बात हो रही है ....लेकिन टैक्नोलॉजी इतने ज़ोरों से बढ़ रही है कि इतना सब कुछ करना माथा-पच्ची के सिवाय कुछ नहीं लगता।
और इसी टैक्नोलॉजी के कारण ही बच्चे हमारे से बहुत आगे निकल चुके हैं....अब मुझे ही देखिये...केवल लिखने का काम मेरा है ...बाकी सब कुछ मुझे मेरे बेटे ने सिखाया ...यहां तक कि मंगल फांट के बारे में भी , इस ब्लोगवाणी को , चिट्ठाजगत को उसी ने कहीं ढूंढ निकाला......मेरे ब्लोग्स को ऐग्रिगेटर्ज़ पर डालने का आइडिया भी उसी का था जो उस ने बखूबी किया.............इन पोस्टों के फांट्स वगैरह के बारे में भी मुझे बताता रहता है और ये जो मेरी विभिन्न बलोग्स पर आप यू-टयूब से लिंक किये हुये तरह तरह के फड़कते हुये गीत सुनते हो ना ,इन सब को अपनी पोस्ट पर लगाने की विधि भी इस ने ही मेरे को बताई है। अभी सोच रहा हूं कि इस की नेट-अक्सेस पर अगर मैंने भी तरह तरह के अंकुश लगाये होते तो यह सब मेरे लिये भी कैसे संभव हो पाता। ऐसा है ना कि हम लोगों के पास टाइम नहीं होता और अपने बच्चों से कुछ भी सीखने में हमें कभी किसी तरह का कंप्लैक्स भी नहीं होता।
और हां, बात हो रही थी विश्वास करने की ..........सोच रहा हूं कि मेरे बीजी-पापा जी ने भी मुझ पर बेइंतहा विश्वास किया ....और मैंने भी कभी भी उन के इस विश्वास को ठेस नहीं पहुंचाई ( एक नावल के इलावा !) ….हुया यूं कि जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था तो कहीं से एक नावल मेरे हाथ लग गया ....सारी ज़िंदगी में केवल वह एक ही नावल पढ़ा है.......उस के कुछ पन्ने पढ़ने मुझे बहुत अच्छे लगते थे( जितना बता रहा हूं उतने से ही इत्मीनान कर लीजिये.......!!)..और मैंने उन्हें फोल्ड कर के रख छोड़ा था...........और अकसर उस नावल को छिपा कर ही रखता था ...और जैसे ही मौका मिलता तो अपनी किसी बड़ी सी किताब के अंदर छिपा कर उस के वही पन्ने बार बार पढ़ कर अच्छा लगने लगा था। और मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब घर में कोई भी नहीं होता था तो मैं उस नावल को बहुत आराम से पढ़ता था। लेकिन मैं भी किधर का किधर निकल गया.............शायद यह सब याद करना भी ज़रूरी था ....और इस के साथ यह भी कि वो पुराने दिन वो थे जब मनोहर कहानियां, मायापुरी पढ़ना छोटे बच्चों के लिये ठीक नहीं समझा जाता था। लेकिन जो मज़ा उन दिनों ये मनोहर कहानियां ( खास कर एक दो विशेष कहानियां...) और वह भी बार-बार पढ़ कर आया करता था उस के क्या कहने ।
बात कुछ ज्यादा ही लंबी हो गई है ना तो मैंने सोचा कि इस विषय के अनुरूप मेरी बेहद पसंदीदा फिल्म रोटी का एक गीत आप की तऱफ़ फैंकू...............यार हमारी बात सुनो, ऐसा इक इंसान चुनो, जिस ने पाप ना किया हो , जो पापी न हो......लेकिन उस का लिंक कापी न हो सका किसी ने उस पर पहरा लगा रखा है , सो , अगर विचार बने तो यू-ट्यूब पर जा कर सर्च में केवल तीन शब्द ....यार हमारी बात ....ही लिख दीजियेगा वह गीत प्रकट हो जायेगा। इतना ज़बरदस्त गीत है कि सब कुछ इतने इफैक्टिव तरीके से कह देता है ...........ज़रूर सुनियेगा और बतलाईएगा कि कैसा लगा।

रविवार, 9 मार्च 2008

जागो ग्राहक जागो, लेकिन फिर ?


हां, लेकिन ग्राहक जाग कर भी आखिर कर क्या लेगा ! अभी अभी बाज़ार से हो कर आ रहा हूं। कुछ दिन पहले एक दुकानदार को कोर्डलैस फोन के लिए पैनासॉनिक की ओरिजिनल बैटरी के लिये बोल कर आया था। कह रहा था कि दिल्ली से मंगवानी पड़ेगी.....सो, आज लेने गया तो उस ने एक बैटरी उस कोर्डलैस के हैंड-सैट में डाल दी और मैं उसे 125 रूपये थमा दिये।
लेकिन जब मैंने उस बैटरी की तरफ़ देखा तो मुझे लगा कि यह तो ऐसे ही कोई चालू सा ब्रांड है, ऐसे ही लोकल मेक....बस उस की पेकिंग पर केवल ग्रीन-पावर लिखा हुया था....ना कोई आईएसआई मार्क, न ही कोई अन्य डिटेल्स..........सीधी सी बात कि मैं एक बार फिर उस दुकानदार के हाथों उल्लू बन गया था।
मैंने उस से पूछा कि तुम्हें तो ओरिजिनल बैटरी के लिये कहा था , लेकिन वह कहने लगा कि ओरिजिनल अब कहां मिलती हैं....यह जो आप ने पहले से इस में डलवाई हुई है,वह तो बिल्कल ही डुप्लीकेट है जो कि 75रूपये में ही मिल जाती है और यह केवल आठ महीने चलेगी। लेकिन यह जो बैटरी अभी मैंने डाली है ...इस की कोई कंप्लेंट हमारे पास आई नहीं है और कम से कम एक साल तक चलेगी। मैं समझ गया कि अब एक बार फिर से बेवकूफ़ बन तो गया हूं ....अब ज़्यादा इस से बात करने से कुछ हासिल होने वाला तो है नहीं। इसलिए मैंने उस को यह भी बताना ठीक नहीं समझा कि यह जो बैटरी जिसे वह डुप्लीकेट कह रहा है वह तो इस कोर्डलेस के साथ खरीदते वक्त ही मिली थी और पिछले चार सालों से ठीक ठाक बिना किसी कंप्लेंट के चल रही थी....अब खत्म हुई है।
सही सोच रहा हूं कि हमारे यहां पर ग्राहक का तो बस हर तरफ़ शोषण ही शोषण है....पढ़ा-लिखा बंदा कहीं यह सोचने की हिमाकत भी न कर बैठे कि अनपढ़ या कम पढ़े लिखे लोग ही उल्लू बना करते हैं। देखिए, इस की एक जीती-जागती उदाहरण आप के सामने मौज़ूद है। क्या है ना , इन सब बातों से फ्रस्ट्रेशन होती है कि जब कोई ओरिजिनल चीज़ के लिये कहता है और मोल-भाव भी नहीं करता तो भी उसे ओरिजिनल चीज़ नहीं मिलती। अब यहां पर रोना तो इसी बात का है।
यह तो एक उदाहरण है..............ऐसे सैंकड़ों किस्से हम और आप अपने मन में दबाये हुये हैं और दबाये ही रहेंगे क्योंकि दैनिक दिनचर्या में हम लोग इतने पिसे हुये हैं कि हमारा यही एटिट्यूड हो जाता है......यार, भाड़ में जायें ये सौ-दो-सौ रूपये..................दफा करो..............कौन इतनी माथा-पच्ची करे ! बस, इतना सुकून है कि एक लेखक होने के नाते अपनी सारी फ्रस्ट्रेश्नज़ ( सारी बिल्कुल नहीं, बहुत कुछ दबा कर रखा हुया है, लेकिन आप लोगों से प्रोमिस कर चुका हूं कि एक न एक दिन सारा पिटारा आप के सामने खोल दूंगा.....फिर चाहे उस का कुछ भी हो अंजाम....परवाह नहीं करूंगा.................लेकिन वह समय कब आयेगा, मुझे भी पता नहीं) ...अपनी उंगलियों को की-बोर्ड पर पीट पीट कर निकाल लेता हूं...............what a great stress-buster, indeed!.....Isn’t it?.
लेकिन, हां, यकीन मानिये मैं किसी ग्राहक संगठन या किसी ट्रेंडी से नाम वाले उपभोक्ता संगठन में अपना दुःखड़ा रोने नहीं जाऊंगा। बस, आप तक अपनी बात पहुंचा दी है ना, चैन सा आ गया है..............जो कि दोपहर में किसी दूसरे दुकानदार के द्वारा मूर्ख बनाये जाने से पहले बहुत ज़रूरी था।
लेकिन, हां, यकीन मानिये मैं किसी ग्राहक संगठन या किसी ट्रेंडी से नाम वाले उपभोक्ता संगठन में अपना दुःखड़ा रोने नहीं जाऊंगा। बस, आप तक अपनी बात पहुंचा दी है ना, चैन सा आ गया है..............जो कि दोपहर में किसी दूसरे दुकानदार के द्वारा मूर्ख बनाये जाने से पहले बहुत ज़रूरी था।
मैंने भी आज संडे के दिन आप का मूड भी आफ कर दिया है.....सो, चलिये अब थोडा मूड फ्रैश करते हैं , चलिये आप मेरी पसंद का एक गाना सुनिये..................यह गाना भी वह गाना है जिसे मैं सुनते कभी थक नहीं सकता !!...

शनिवार, 8 मार्च 2008

दिल को देखो...चेहरा न देखो...चेहरों ने लाखों को लूटा !!

इस समय मैं अपने लैप-टाप पर सच्चा-झूठा का वह वाला गाना सुन रहा हूं..... दिल को देखो, चेहरा न देखो, दिल सच्चा और चेहरा झूठा....यह गाना मुझे इतना पसंद है कि मैं इसे एक ही स्ट्रैच में सैंकड़ों बार सुन सकता हूं। बिल्कुल रोटी फिल्म के उस गाने की तरह....यह पब्लिक है सब जानती है......अभी तक यह समझ नहीं आया कि आखिर इन हिंदी फिल्मों के गीतों में इतनी क्या कशिश है कि आदमी इन्हें सुनते ही झट से कईं साल पहले वाले ज़माने में पहुंच जाता है।
आज जब सुबह हास्पीटल में बैठा हुया था तो कहीं से रेडियो पर बज रहे रोटी कपड़ा और मकान के उस बेहतरीन फिल्म के गीत की आवाज़ सुनाई देरही थी....मैं न भूलूंगा....मैं न भूलूंगी...बस, 70 के दशक के तो फिल्मी गानों की क्या बात करूं.......मन करता है लिखता ही जाऊँ... लगभग ऐसे ही सैंकड़ों गीत होंगे जिन के साथ बचपनी की यादें जुड़ी हुई हैं और जब भी ये रेडियो पर, टीवी पर या लैपटाप पर बजते हैं तो बंदा अपने पिछले दिनों की याद में डुबकियां लगाना शुरू कर देता है। ये वो फिल्में हैं जो मैंने अपने पांचवी-छठी कक्षा के दौरान देखी हुई हैं। तो आप भी मेरी यादों के इन झरोखों में से अपना भी कहीं पीछे छूटा अतीत देखने की एक कोशिश तो कीजिये।

मंगलवार, 4 मार्च 2008

लेकिन इस परी के पंख काटने से तुझे क्या मिला ?


कल शाम के वक्त मैं रोहतक स्टेशन पर पानीपत की गाड़ी में इस के चलने की इंतज़ार कर रहा था। इतने में मेरी नज़र पड़ी सामने वाले प्लेटफार्म पर....वहां पर एक छोटी-सी बहुत प्यारी नन्ही मुन्नी परी जैसी एक लड़की (3-4साल की होगी)......खूब चहक रही थी। हां, बिल्कुल वैसे ही जैसे इस उम्र में बच्चे होते हैं...बिल्कुल बिनदास, मस्तमौला टाइप के। मुझे उसे देख कर अच्छा लग रहा था।
वह अपने पिता के इर्द-गिर्द उछल कूद मचाये जा रही थी जो कि लगातार मोबाइल फोन पर बातें करने में मशगूल था। लेकिन वह नन्हीं मुन्नी बच्ची खूब मज़े कर रही थी। कभी पापा की पैंट खींचती, कभी मम्मी के पीछे जा कर खड़ी हो जाती, कभी इधर देखती , कभी उधर देखती। लेकिन यह क्या .........किसे पता था कि उस की इस नटखट दुनिया को इतनी जल्दी नज़र लग जायेगी।
हुया यूं कि उस की मां या बाप को बार-बार उसे थोड़ा रोकना पड़ रहा था....डैडी तो ज्यादातर फोन पर बतियाने में ही मशगूल था लेकिन मम्मी से शायद अब और सहन नहीं हो रहा था...............क्या यह कह दूं कि बच्ची की खुशियां देखी नहीं जा रही थीं...................वह झट से उठी और पास ही खड़े रेलवे पुलिस के तीन चार जवानों के पास उसे ले गई। अब मैं कुछ सुन तो सकता नहीं था लेकिन मैं उस औरत के आव-भाव से अनुमान ज़रूर लगा सकता था कि वह उस परी को डराने धमकाने के लिये ही उन के पास ले गई थी। बस , अगले ही पल उस नन्ही परी ने खूब ज़ोर ज़ोर से रोना शुरू कर दिया और डर कर, सहम कर बेहद लाचारी से मैं की बगल में बैठ कर दिल्ली वाली गाड़ी का इंतज़ार करने लग गई।
उस की लाचारी ने मुझे यही सोचने पर मजबूर किया कि आखिर उस महिला को इस परी के पंख काटने से क्या हासिल हुया ...........ऐसा करने से उस ने अनजाने में ही उस बच्ची के मन में पुलिस के खौफ़ का बीज बो दिया और जब आने वाले समय में यह अपनी जड़ें पक्की कर के एक भीमकाय पेड़ की शक्ल हासिल कर लेगा तो हम लोग ही यही लकीर पीटेंगे कि पुलिस को अपनी छवि सुधारनी होगी।
खैर, जो भी हो उस परी के दुःख को देख मैं भी थोड़ा तो पिघल ही गया और लगा सोचने कि क्या हम लोग अपने बच्चों के भी आये दिन ये पंख पता नहीं कितनी बार काटते हैं और उन की कल्पना शक्ति को संकुचित किये जाते हैं।

इसे दुनिया का आठवां अजूबा न कहूं तो और क्या कहूं?

बहुत दिनों से सोच रहा हूं कि दुनिया के सातों अजूबों के बारे में तो बहुत कुछ जानते हैं .....और हां , इन हिंदी ब्लोगर महिलाओं को अब यदा-कदा प्रिंट मीडिया में जगह दी जा रही है.....देख कर, पढ़ कर अच्छा लगता है। आप को भी लग रहा होगा कि ये आठवें अजूबे में महिला ब्लोगरज़ को कहां ले आया तूं..............आप ठीक कह रहे हैं ...लेकिन मैंने आज इस देश की अरबों ऐसी महिलाओं की बात करने का निश्चय किया है, जो इस देश के तमाम पुरूषों को इस लायक बनाती हैं कि वे अपने अपने क्षेत्र में जीत के परचम फहरा कर अपनी उपलब्धियों की शेखी बघेर सकें....और जिसके बारे में शायद बड़ी ही लापरवाही से बिना सोचे-समझे यह कह दिया जाता है या ज़्यादातर वह अपने आप को कुछ इस तरह से इंट्रोड्यूस करने में ही विश्वास करती है......हमारा क्या है, सारा दिल्ला चुल्हे-चौके में ही निकल जाता है और वह इतनी भी तो नहीं जानती कि आज कल उसे हम होम-मेकर कह कर पंप देने लगे हैं......................और सब से महत्वपूर्ण बात यह भी है कि ये अरबों महिलायें वे हैं जो सब अपने हाथों से अपने सारे कुनबे का भरन-पोषण करती हैं( इस से भी मेरा मतलब यह तो बिल्कुल नहीं है कि महिला बलोगर्स स्वयं खाना नहीं बनाती होंगी !)……….और हां ,इसे खाने वाली बात की ही तो बात आज मैंने करनी है।

एक एक्सपेरीमैंट( प्रयोग) की तरफ़ मेरा ध्यान जा रहा है.......क्या है ना, कि अगर हम एक किसी दिन दाल या सब्जी की एक सी मात्रा अपने किसी नज़दीकी रिशतेदार महिला( मां, नानी-दादी, पत्नी, बहन, भाभी, मौसी.....) को दें और साथ एक जैसे मसाले एक ही मात्रा में दे दें, उसे पकाने के बर्तन भी एक जैसे ही उपलब्ध करवा दें, किस प्रकार की आंच सभी प्रतिभागियों द्वारा उस दाल-सब्जी को बनाने में इस्तेमाल होगी, लगे हाथों इस को भी स्टैंडर्डाइज़ड कर दिया जाये.........................इतना सब करने के बावजूद क्या आपको लगता है कि उन सब के द्वारा बनाये हुये खाने का ज़ायका एक सा ही होगा। नहीं ना, कभी हो ही नहीं सकता, आप भी मेरी तरह यही सोच रहे हैं ना..........बिल्कुल सही सोच रहे हैं। अपनी नानी के हाथ के पकवान आखिर क्यों हम सब उस कागज की किश्ती और बाऱिश के पानी की तरह हमेशा अपनी यादों की पिटारी में कैद कर लेते हैं..........आखिर यार कुछ तो बात होगी। क्यों हमारी माताओं द्वारा हमें बेहद प्यार से बना कर खिलाये गये पकवान अगली पीढ़ी के लिए बिल्कुल एक स्टैंडर्ड का काम करते हैं......यार, मां तो ऐसा बनाती है या बनाती थीं........इस में अगर मां के बनाये पकवान की तरह यह होता तो क्या कहने......। बस, ऐसी ही बहुत ही बातें , जो इस देश के घर-घर में नित्य-प्रतिदिन होती रहती हैं।

सोचता हूं कि यह तो थी ...रोटी, दाल, सब्जी की बात......लेकिन अगर इसी प्रयोग को चाय के ऊपर भी किया जाये तो भी इस के परिणाम हैरतअंगेज़ ही निकलेंगे.....आप एक घूंट भर कर ही बतला दोगो कि आज चाय बीवी ने बनाई है या यह मां के हाथ की है.............................सोचता हूं कि ऐसा कैसे संभव है, घर की सभी महिलायें इन में एक जैसा चीज़ें डालती हैं, .....आंच भी एक जैसा , समय भी लगभग एक ही जैसा, लेकिन आखिर यह सब संभव कैसे हो पाता है कि हम झट से ताड़ लेते हैं कि आज की दाल तो पानी जैसी पतली बनी है , सो यह करिश्मा तो सुवर्षा मौसी ही कर सकती है ...................केवल फिज़िकल अपियरैंस ही क्यों, इस की महक, इस का स्वाद सब कुछ एक दम बदल सा जाता है। मेरी लिये तो भई यह ही इस दुनिया का आठवां अजूबा है.......क्या आप को यह किसी भी तरह के अजूबे से कम लगता है। लेकिन इस का जवाब देने से पहले अपने नानी –दादी के प्यार से बनाये गये और उस से दोगुने लाड से परोसे गये पकवानों की तरफ़ ध्यान कर लेना और तब अपने दिल पर हाथ रख कर इस बात का जवाब देना।

चलते चलते ज़रा इस की तरफ़ भी तो थोड़ा झांके कि आखिर ऐसा क्यों है......ऐसा इसलिये है क्योकि चाहे एक जैसे मसाले यूज़ हो रहे हैं, एक ही प्रकार का आंच यूज़ हो रहा है( बार –बार मैं इस आंच के एक ही तरह के होने की बात जो किये जा रहा हूं ...वह केवल इसलिए ही है कि इस हिंदी ब्लोगिंग कम्यूनिटि में कुछ युवा लोग ऐसे भी तो होंगे जिन्होंने कभी चुल्हे पर पकाई गई दाल खा कर उंगलीयां न चाटी हों......etc.) …….तो आखिर फिर यह अंतर कैसे पड़ जाता है ....................मेरा विचार है यह जो एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटक है ना....इसे आप प्यार कहिए, दुलार कहिए, इसे आप भावना कहिये, इसे आप श्रद्धा कहिये.......................मेरा क्या है, मैं तो लिखता हूं जाऊंगा.........सारा अंतर इस की वजह ही से होता है............हमें वह बात तो पहले ही से पता है...जाकी रही भावना जैसी.....................। बाकी इस पर ज़्यादा प्रकाश तो निशा मधुलिका जी डाल सकती हैं जो कि अपने हिदी बलोग के माध्यम से नाना प्रकार के व्यंजनों से तारूफ करवाती रहती हैं।

और हां, एक बात और भी याद आ रही है कि पहले तो इन मसालों वगैरह के नाप-तोल के लिए ये चम्मच तक भी इसेतमाल नहीं होते थे........................मेरी नानी के के चौके में भी एक लकड़ी की नमकदानी( पंजाबी में इसे लूनकी और आज कल रैसिपि बुक के एक एक लाइन पढ़ कर खाना बनाने वाले कुछ लोग इसे masala-box भी कह देते हैं---क्या है ना कम से कम नाम तो ट्रेंडी हो.....ऐसा भी ना हो कि लूनकी कह दो और किसी की भूख ही मर जाये) .....................हुया करती थी, और मुझे अच्छी तरह से याद है कि चुस्तीलेपन से, बेपरवाह लहजे से, पूरे आत्मविश्वास के साथ बस झट से कुछ चुटकियां भर भर कर वह सब्जी बनाते समय पतीले में या कडाही में उंडेल दिया करती थीं..............और लीजिए तैयार है खाना –खजाना शो-वालों को ओपन-चैलेंज देता हुया एक डिश............ओह नो, सारी, डिश नहीं भई, तब तो सीदी सादी दाल, रोटी , सब्जी ही हुया करती थी.........जिसे खाने के बाद एकदम खूब नशा हो जाया करता था।

लेकिन इन फाइव-स्टारों के खाने में मज़ा क्यों नहीं आता......................क्योंकि मेरा दृढ़ विश्वास है कि इस खाने में टैक्नीकली सब कुछ ठीक ठाक होता है, शायद शुद्धता भी पूरी, परोसने का सलीका भी रजवाड़ो जैसे, ...........लेकिन आखिर इस में फिर कमी क्या रह जाती है...........................बस वही भावना की कमी होती है, और क्या । इस भावना से एक बात और भी याद आने लगी है कि पहले जब रसोई-घर में सब एक साथ बैठ कर खाना खाते थे तो ज़ायका अच्छा हुया करता था....या अब ड्रैसिंग-टेबुल पर सज कर जो खाया जाता है......................ओ.के......ओ.के..........मैं भी थोड़े अनकम्फर्टेबल से प्रश्न पूछने लगा हूं.....ठीक है, हमारा मन तो सच्चाई जानता है, बस इतना ही काफी है, लेकिन भई आखिर क्या करें, इस संसार में रहना भी तो है, थोड़ा दिखावा भी तो ज़रूरी है।

मेरा ख्याल है अब बस करूं........इसे चाहे तो आप मेरे द्वारा इस महान देश की हर मां, हर बहन, हर बीवी, हर भाभी , हर नानी, हर दादी ....................के मानवता की अलख जगाये रखने के लिए उस के द्वारा दिये गये अभूतपूर्व योगदानों के लिए उसे थोड़ा याद कर लेने का एक तुच्छ प्रयास ही समझें , चाहे कुछ और समझें......लेकिन मेरे लिए तो यही दुनिया का आठवां अजूबा है.........................
अफसोस, इन्हें कभी किसी समारोह में लाइफ-टाइम अचीवमैंट अवार्ड से सम्मानित नहीं किया.... वैसे पता है क्यों., क्योंकि इस देवी को किसी भी बाहरी सम्मान की न तो कभी भूख थी, न ही कभी भूख रहेगी। इस ने तो बस केवल अपने आप को इस मेहनत-मशक्तत की भट्ठी में जलाना ही सीखा है...................लेकिन वह इस में भी खुश है.................। पता नहीं, कईं बार सोचता हूं कि इस देश की नारी के ऊपर , उस के द्वारा दिये जा रहे योगदानों के ऊपर यथार्थ-पूर्ण किताबैं लिखी जानी चाहिये।

और एक तरफ हम हैं............हमारी नीचता देखिए ...कितने सहज भाव से बिना कुछ सोचे-समझे कितने बिनदास मोड में कईं बार कह देते हैं , कह चुके हैं और शायद कहते रहेंगे.....................कि यार, अपनी नानी भी थी बिल्कुल अनपढ़ लेकिन खाना बनाने में तो बस उस का कोई जवाब भी नहीं था। सोचने की बात है कि इस तरह के वाक्य बोल कर हम इन महान देवियों के योगदान को कितनी आसानी से नज़र-अंदाज़ करने का प्रयत्न कर लेते हैं। तो, फिर अब आप कब अपनी नानी-दादी की बातें हम सब को सुना रहे हैं।

पोस्ट लंबी ज़रूर है , लेकिन मुझे तो बस इतना ही लग रहा था कि मेरी स्वर्गीय नानी मेरे पास ही बैठी हुई थीं जिस से मैं बातें कर रहा था.......................अब बारी आप की है !!!!

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2008

तारे ज़मीं पर तो क्या, यहां तो स्वर्ग भी ज़मी पर उतर आया है.....

मैंने आज तक जितने भी फूल देखे हैं, उन में से सब से सुंदर फूल मुझे कल दिखा......जिसे मैं आप को भी इस तस्वीर के द्वारा दिखा रहा हूं....आप जानना चाहेंगे कि यह फूल कहां दिखा ? –यह फूल हमें कल बाबा रामदेव जी के पतंजलि योगपीठ में दिखा जो हरिद्वार में स्थित है। मैं अब अगली कुछ पोस्टें इस स्लेट पर अपनी पतंजलि योगपीठ यात्रा पर ही लिखूंगा.....खूब सारी तस्वीरें भी खींचीं हैं, जो इन पोस्टों के साथ आप के साझा करता रहूंगा।


परसों हम सब का घर में प्रोग्राम बन गया कि चलो, बाबा रामदेव द्वारा स्थापित पतंजलि योगपीठ की यात्रा कर के आया जाये। कल हमें हास्पीटल से गुरू रविजयंती के उपलक्ष्य में अवकाश था। यह तो मैं आप को बता ही चुका हूं कि हम यमुनानगर में रहते हैं।

यमुनानगर की दूरी अंबाला से 50 किलोमीटर है....एक्सप्रैस गाड़ी में लगभग 45मिनट लगते हैं और बस में एक घंटा लगता है। लेकिन पतंजलि योगपीठ जाने के लिए यमुनानगर से अंबाला जाने की ज़रूरत नहीं होती। यह तो वैसे ही मैंने दूर-दराज रहने वाले हिंदी चिट्ठाकारों की जानकारी के लिए ही लिखा है।

यमुनानगर के रेलवे स्टेशन का नाम जगाधरी है....हम एक्सप्रेस गाड़ी के द्वारा डेढ़-घंटे से भी कम समय में रूड़की पहुंच गये। जगाधरी और रूड़की के बीच एक स्टेशन आता है ...सहारनपुर । रूड़की पहुंचने के बाद वहां से बस के द्वारा हम पतंजलि योगपीठ के लिए रवाना हुये। हम दोपहर साढ़े बारह बजे जगाधरी से चल कर अढ़ाई-पौने तीन बजे पतंजलि पहुंच चुके थे। वैसे मैं तो अकेला भी तीन-चार महीने पहले ही वहां हो कर आ चुका था, लेकिन परिवार सहित यह पहली यात्रा थी।

पाठकों की सूचना के लिए बताना चाहूंगा कि यह पतंजलि योगपीठ रूड़की- हरिद्वार सड़कमार्ग पर बिल्कुल मेन रोड पर ही है। रूड़की से लगभग 20मिनट के करीब का सफर है और हरिद्वार रेलवे स्टेशन से भी लगभग आधा घंटे का समय ही लगता है। रूड़की और हरिद्वार तो आप सब जानते ही हैं कि देश के सब भागों से रेल एवं बस-सेवा के द्वारा जुड़ा ही हुया है।

वहां पहुंच कर यही लगता है कि यार अगर आमिर खान ज़मीं पर तारे लाया है तो बाबा ने तो स्वर्ग ही ज़मीं पर उतार दिया है। निःसंदेह वहां का वातावरण बेहद नैसर्गिक है और अंदर जाते ही इतनी शांति का अनुभव होता है कि ब्यां नहीं कर सकता।

जब भी मैं पतंजलि योगपीठ में विभिन्न सुविधाओं की फोटो खींच रहा था और वहां पर लगे बड़े-बड़े बोर्डो की फोटो खींच रहा था तो अनायास ही मेरा ध्यान पंकज अवधिया जी और ज्ञान चंद पांडे और एक दो और बलागर बंधुओं की तरफ जा रहा था जिन की इन पुरातन चिकित्सा विधियों में इतनी गहरी ऋद्धा से मैं बहुत प्रभावित हूं......सो , वहां पर कईं फोटो तो मैंने इन के इंटरेस्ट को ध्यान में ही रखते हुए खींचे जो कि मैं अब अपनी इस पतंजलि योगपीठ से संबंधित पोस्टों के साथ आप के साथ शेयर करता रहूंगा। और ये हमें गहराई से इन के बारे में बतलायेंगे।

वहां पहुंचने के बाद , वहां ठहरना भी कोई समस्या नहीं है, डॉरमैट्री आवास मात्र 50 रूपये प्रतिदिन के हिसाब से , साधारण रूम 300, 400, 550 (क्रमशः सिंगल, डबल और ट्रिपल) और इस से दोगुने रेट में ए.सी कमरे भी उपलब्ध हैं......वैसे हम तो वहां ठहरे नहीं , शाम को वापिस आ गये थे।

वहां पर उपलब्ध सुविधाओं के बारे में विस्तार से चर्चा करता रहूंगा लेकिन संक्षेप मे तो अभी यही सुझाव दूंगा कि हम लोग दूर-दूर जाते हैं हमेशा अपने परिवार को लेकर छुट्टियां मनाने, उस में यह डैस्टीनेशन आप यह भी जोड़ लें...........यकीन मानिए , देखने वाली जगह है। इतनी सफाई, इतनी शांति ,इतना अनुशासन, इतना ठहराव..............................अगर आप ने प्रकृति के साथ कुछ समय बिताने का फैसला कर लिया है तो इस जगह का कोई जवाब नहीं है।

और हां, यह बताना तो भूल ही गया कि हरिद्वार स्टेशन के बाहर ही से शेयरिंग में आटो-रिक्शा भी मिलते हैं जो प्रति सवारी 20रूपये किराया लेते हैं। बस , अब यही विराम लेता नहीं , अगर पहली ही पोस्ट इतनी लंबी कर दूंगा और अगर आप फिर इस ब्लोग पर आये ही नहीं तो मेरा क्या होगा कालिया........क्या करूं, सब सोचना पड़ता है।

सोमवार, 28 जनवरी 2008

हिंदी फिल्मअवार्ड समारोहों में अंग्रेज़ी का बोलबाला....


मैं कल रात को टीवी पर एक काफी मशहूर फिल्म अवार्ड समारोहों को देख रहा था। पूरे तो देखे नहीं- उसे के कईं कारण थे----सब से पहले तो यह कि इन बार-बार विज्ञापनों की वजह से मेरा तो दोस्तो सिर दुःखने ही लग जाता है ,अब कौन बार बार इतना सब झेल पाए। और वह भी जब ये समारोह कुछ दिन पहले हो चुके होते हैं , तो इन के परिणामों का भी कुछ ज्यादा क्रेज़ होता नहीं है। मैं यह शायद सोच रहा था कि यह प्रोग्राम डैफर्ड लाइव ही चल रहा है, लेकिन इन बच्चों को तो हम से भी ज्यादा पता होता है न, सो उन से पता चला कि यह प्रोग्राम तो दो-सप्ताह पहले हो चुका है।दूसरी बात यह थी कि उस प्रोग्राम के दौरान हमारे स्थानीय केबल-आप्रेटर के द्वारा दिए गये विज्ञापन भी बेहद परेशान कर रहे थे, जिन्होंनेस्क्रीन का लगभग एक चौथाई भाग कवर कर रखा था।
हां, जिस विशेष कारण के लिए मैंने यह पोस्ट लिखी है --वह यह है कि मुझे इस समारके दौरान कुछ इस तरह का आभास हो रहा था कि जैसे कुछ लोग प्रोग्राम के दौरान जब स्टेज पर आते थे तो कुछ इस तरह के नखरे कर रहे थे मानो कि देश के करोड़ों लोगों के ऊपर हिंदी के दो शब्द बोल कर कोई अहसान कर रहे थे।कुछ लोग तो हिंदी का नाम आने पर इतना ज्यादा स्टाईल मार रहे थे( या यूं कहूं कि मारते हैं) कि उन पर हंसी ही आ रही थी। मुझे तो यही समझ यही नहीं आता कि क्या किसी को मस्ती की खुजली इतना भी परेशान कर सकती है कि वह अपने लोगों से अपनी ही भाषा में मुखातिब न हो सके। अंग्रेज़ी की इतनी भरमार देख कर बहुत दुःख होता है, मन खराब होता है कि जिन करोड़ों लोगों ने सिनेमा हाल की टिक्टें खरीद-खरीद कर आप को ऐसे सम्मान लेने एवं देने के काबिल बनाया, आप उन को ही भूलने की कैसे ज़ुर्रत करने की सोच भी सकते हो। ज़रा सोचिए कि देश की कितनी जनता इंगलिश समझ सकती है,तो फिर बीच बीच में यह इंगलिश बोल कर स्टाईल क्यों मारे जाते हैं।
इन की स्टाईल मार मार कर बोली गई हिंदी सुन कर तो यही लगने लग जाता है कि ये लोग हिंदी फिल्मों में ही काम करते हैं यां हालीवुड से आये हैं। बस, दोस्तो,कल तो कुछ अजीब सा ही दिखा। कम्पीयर करने वालेने भी बीच में बहुत ही ज्यादा शुद्ध हिंदी बोलनी शुरु कर दी जिस से मुझे तो हिंदी भाषा का मज़ाक उड़ाने की बास आ रही थी। समझ में नहीं आ रहा कि इन को अब कौन समझाए। हिंदी ब्लोग तो ये लोग कहां पड़ते होंगे, लेकिन अपने मन की लिख कर अपना बोझ हल्का करने से तो मुझे कोई रोक नहीं सकता...सो वही कर रहा हूं।
एक बार और याद आई है कि अपने शास्त्री जी की ब्लोग पर पिछले कुछ दिनों पहले एक पोस्ट थी कि अपने ब्लोग को कैसे पापुलर बनाएं....उन में मेरे ख्याल में एक बात और जुड़ जानी चाहिए कि जितना भी हो सके, हम सहज हो कर लिखें...बोल चाल की भाषा लिखेंगे तो लगता है कि हम अपने लोगों से बातें ही कर रहे हैं, अन्यथा मेरे जैसा बंदोंको जिस ने हिंदी केवल मैट्रिक तक ही दूसरी भाषा के रूप में पढ़ी है, कुछ कुछ बातें समझने में दिक्कत हो जाती है। और मैंने देखा है जहां बंदा कुछ शब्दों पर अटका बस वही उस का मन भी भटका। इसलिए आप सब बलोगर बंधुओं से भी निवेदन है कि भाषा जितनी सीधी सादी रख सकें उतना ही बेहतर होगा। वैसे भी हम
लोग यह सब आपस में एक दूसरे को पढ़वाने के लिए तो लिख नहीं रहे, अगर हमने देश के आमजन को आते समय में इस चिट्ठाकारी के रास्ते हिंदी भाषा से और इंटरनेट से जोड़ना है तो हमें भाषा तो बिल्कुल सादी और बोलचाल की ही लिखनी होगी......नहीं तो लोग इस से भी दूर ही भागेंगे। हमें ज़रूरत है यह देखने कि आज कल हिंदी के समाचार चैनल इतने लोकप्रिय क्यों हैं, हमारे रेडियो-जॉकी हमें इतने अपने-से क्यों लगते हैं कि क्योंकि वे हमारी आम बोलचाल की ही भाषा बोलते हैं, हमें अपनी बातों से खुश रखते हैं....यही उन की सफलता का रहस्य है। चलो, अभी से मैं भी यह प्रण करता हूं कि कभी कभी अपनी पोस्टों पर जो एक-दो वाक्य अंग्रेजी के झाड़ कर खुश हो लेता हूं...मैं भी यह आदत छोड़ने की पूरी कोशिश करूंगा.....आर्शीवाद दें कि मैं इस में सफल हो सकूं।
वैसे जाते जाते यह तो कह दूं कि मनोज कुमार जी का जो सम्मान इस समारोह में किया गया वह बहुत अच्छा लगा और इस से ठीक पहले एवं इससे संबंधित ही उर्मिला मटोंडकर की प्रस्तुति भी बहुत अच्छी लगी। विशेषकर उर्मिला का स्टेज से नीचे उतर कर मनोज जी को अपने साथ उन का हाथ पकड़ कर स्टेज पर लाना हमारे भी मन को छू गया।

शुक्रवार, 18 जनवरी 2008

हिंदी फिल्मी गीतों जादू.....


बिल्कुल जादू ही दोस्तो, पता नहीं कैसे बांध लेते हैं ये लोगों को दशकों तक.....एक फिल्म जो हिट हो जाती है या एक गाना जो सुपरहिट हो जाता है , क्या वो अपने आप में अजूबा नहीं है।
अभी चंद मिनट पहले मैं हरे रामा हरे कृष्णा का वही सुपर-डुपर गीत सुन कर झूम रहा था......नहीं, नहीं...खुल कर नहीं, इतनी मेरे जैसे बुझदिल की कहां हिम्मत, इसलिए केवल मन ही मन झूम रहा था और इसे लिखने वाले, इसे गाने वाले, इसे संगीत देने वाले, इसे फिल्म में फिल्माने वाले , इस में सहयोग देने वाले सैंकड़ों लोगों --स्पाट ब्वाय तक और उस सारे यूनिट को बारबार चाय पिला पिला कर चुस्त -दुरूस्ट रखने वाले किसी गुमनाम माई के लाल की दाद दिए बिना न रह सका। यही सोच रहा था जब कोई महान कृति बन कर हमारे सामने आती है तो हमें उस को बनाने के पीछे हर उस गुमनाम बंदे के प्रति नतमस्तकहोनाही चाहिए जिस की भी उस में भूमिका रही।
दोस्तो, यह हिंदी फिल्मों का , हिंदी फिल्मी गानों का भी हमारी लाइफ में कितना बड़ा रोल है, मैं इस के बारे में अकसर बड़ा सोचता हूं । पता है ऐसा क्यों है....क्योंकि ये हमारी सभी भावनाओं को दर्शाती हैं...ज़रा आप यह सोच कर देखिए कि हमारी कौन सी मानसिक स्थिति है जो इन फिल्मों में चित्रित नहीं है, तभी तो हमें दिन में कईं बार ये फिल्मे, इन के गोल्डन गाने याद आते रहते हैं, रास्ता दिखाते रहते हैं।
दोस्तो, क्या कोई भी बंदा जिस को रोटी फिल्म का वह गीत याद है कि .......जिस ने पाप न किया हो, जो पापी न हो, .....वो ही पहला पत्थर मारे......और किस तरह फिल्म में दिखाई गई सारी पब्लिक उस तिरस्कृत महिला को मारने के लिए सारे पत्थर नीचे फैंक देती है.....क्या ऐसा बंदा जिस की स्मृति में यह गाना घर चुका है, क्या वह बंदा किसे के ऊपर कोई अत्याचार कर सकता है, मैं तो समझता हूं ...कभी नहीं, और अगर वोह करता भी है तो मेरी नज़र में बेहद घटिया हरकत करता है।
दोस्तो, फिल्में हमें रास्ता दिखाने में आखिर कहां चूकती हैं.। जिस गाने की मैं पहले चर्चा कर रहा था , हरे रामा हरे कृष्णा फिलम के गीत की......उसमें केवल आप हिप्पीयों को ही न देखें, उस की कुछ लाइनें ये भी हैं.....
गोरे हों या काले,
अपने हैं सारे,
यहां कोई नहीं गैर......
और, हम कितनी दशकों से यह सब सुन रहे हैं, क्या हम ने ज़ीनत अमान जी की इस बात के बारे में भी कभी सोचने की कोशिश की..........लगता तो नहीं , अगर ऐसा होता तो, परसों रात को आजतक चैनल पर आसाम में आदिवासियों पर हो रहे घोर अत्याचार की तस्वीरें देख कर मेरे का शरमसार न होना पड़ता.....दोस्तो, उन खुदा के बंदों को रूईँ की तरह पीटा जा रहा था.....अच्छा , तो दोस्तो, अब यहां थोड़ा सा विराम लेता हूं क्योंकि मुझे भी तो एक हिंदोस्तानी होने के नाते शरम से सिर मुझे भी तो घोर शर्मिंदगी से अपने सिर झुकाने की रस्म-अदायिगी करनी है। आप क्या सोच रहे हैं.....इतना मत सोचा करो.... तकलीफ़ हो जाएगी, दोस्तो। मेरा क्या है, मैं तो थोडा़ आदत से मजबूर हूं।

मंगलवार, 15 जनवरी 2008

जहां पर वडे-पाव का भी भरोसा नहीं, वहां भी रेडियो-जाकी........

हां, तो दोस्तो बात हो रही थी मुझे मेरी स्लेट मिलने की जो मुझे कल इस बलोग के रूप में मिल ही गई। अब आएगा मज़ा---साथियो, अब देखना मैं कैसी मस्ती से इस पर अपने दबे हुए, अव्यवस्थित , उलझे हुए, literally cluttered विचारों से नित नईं तस्वीरें बनाऊंगा...............और इस के साथ ही साथ जो जिंदगी में सीखा उसे दोबारा से भूलने के लिए भी इस स्लेट का इस्तेमाल करूंगा। लेकिन आप का साथ जरूरी है, हौंसला बना रहेगा, अगर अकेला हो गया तो कहीं डर न जाऊं----ठीक उसी तरह से जैसे बचपन में मां रात के समय स्टोर से कुछ लाने को कहतीं तो मैं चला तो जाता लेकिन वहां जाते हुए भी और वहां से वापिस आते हुए भी ...बीजी, बीजी, बीजी, ......पुकारता रहता था, और वह भी बार बार हां, हां, हां कहते कहां थकती थीं।
दोस्तो, एक विचार जो अभी आ रहा है वह यह है कि जब स्कूल के पहले दिन स्लेट थमा दी जाती है तो लिखने को कुछ खास नहीं होता....लेकिन आज लिखने को इतना कुछ है कि समझ में ही नहीं आ रहा कि आखिर कहां से शुरूआत करूं......लेकिन यह भी कोई बात है ...लिखना तो शुरू करना ही होगा....अब यह बहाने बाजीयां आप से तो चलेंगी नहीं।
वैसे हैं तो हम पक्के बहाने बाज........अकसर यह भी बहाना करने से नहीं चूकते कि ज़िंदगी में कुछ मज़ा है नहीं.....कुछ spark सा नहीं है यार लाइफ....लेकिन अगर हम अपने आसपास एक नज़र दौडाएं तो हम समझ पाएंगे कि ज़िंदगी आखिर है क्या......इतनी ज्यादा इंस्पीऱेशन इस कायनात के कतरे कतरे में भरी पड़ी है कि हम जितनी बटोरना चाहें बटोर लें। चलिए, बात एक रेडियो-जाकी की जिंदगी से करते हैं......क्या आप समझते हैं कि उस खुदा के बंदे की लाइफ में कोई धूप-छांव नहीं होगी.....क्या उस का मूड हमेशा टाप गेयर में ही होता होगा....नहीं, बिलकुल जरूरी नहीं , वह भी आखिर इंसान है.....पता नहीं किन किन जिंदगी की परेशानियों से वह बेचारा दोचार हो रहा है या हो रही है, लेकिन हम तो बस हर बात को टेकन फार गारंटिड वाले अपने मांदड-सेट से नहीं निकल पाते। लेकिन उस की ज़िंदा दिली देखिए कि वह अपने हिस्से के तनाव कितनी बखूबी किसी भीतरी कौने में दबा के कैसे आप के चेहरे पर सुबह सुबह पहली मुस्कुराहट लाता है। जीना इसी का नाम है.....कितना बडा आर्ट है किसी के चेहरे पर मुस्कुराहट बिखेरना..............चेहरे पर असली मुस्कुराहट तभी आती है जब अंदर से रूह खुश होती है, नहीं तो भला किसे पड़ी है आज के दौर में अपने चेहरे की मांसपेशियों को कष्ट देने की। So, hats off to these radio-jockeys !! I am highly impressed by their energy levels…..howsoever turbulent times they might be facing in their personal lives. May God bless them always so that they keep on spreading broad smiles on the faces of a common man……फुटपाथ पर अखबारों का बिस्तर बना कर सो रहे जिन बेचारों को यह भी नहीं पता होता कि सुबह के वडे-पाव का जुगाड़ होना भी है या नहीं, उन को भी यह हमारा हीरो- रेडियो जाकी- नए दिन की शुभकामनाएं खुले दिल से बांटने बिलकुल समय पर आ जाता है जिसे वह अपना फुटपाथी बंधू झट से या तो अपने पास ही पड़े किसी एफएम पर उसी समय रिसीव कर लेता है , नहीं तो पास के किसी चाय के खोमचे से एफएम की आवाज़ सुन कर यही समझता है कि वह रेडियो वाला उसे ही सुप्रभात कह रहा है, कह रहा है कि उठ जा बंदे, कमर कस ले, देख आज का सूरज तेरे लिए एक नया संदेश, नया तोहफा लेकर आया है कि जी ले जितनी जिंदादिली से जी सकता है...............बस यही है जिंदगी.........और साथ में अपना रेडियो-जाकी एक फड़कता हुया गाना भी सुना देता है.......
ओ सिकंदर- ओ सिकंदर – ओ सिकंदर--------
झांक ले झांक ले तू दिल के अंदर......
.......
आँख भला तेरी क्यों नम होती है,
पल में हवाएं पूरब से पश्चिम होती हैं।
वैसे, दोस्तो, अब मेरे एफएम पर भी एक दिल को छू लेने वाला फड़कता हुया गीत बज रहा है....विविध भारती पर सुहाना सफर कार्यक्रम में.............
आंसू भी हैं और खुशियां भी हैं,
दुःख सुख से भरी है यह जिंदगी,
तुझे कैसी मिली है यह जिंदगी,
ज़रा जी के तो देखो......
वाह, भई, वाह......कवि भाईयों, आप की भी कल्पना की उड़ान की दाद दिए बिना मैं कैसे विराम ले लूं......पता नहीं ये सब किस जगह बैठ कर यह सब कुछ रच देते हैं। लेकिन,दोस्तो, आपने फिर एक बार इतना हिला देने वाला गाना मिस कर दिया न.......इस लिए तो कहता हूं कि एफएम विशेषकर विविध भारती प्रोग्राम जरूर सुना करो.....यह हम सब देशवासियों को एक माला में तो पिरो के रखता ही है, साथ ही साथ मेरे जैसे करोड़ों को जमीन से जोड़ के भी रखता है। आप को क्या लगता है ....
अच्छा,तो दोस्तो, मेरी स्लेटी खत्म हो गई है, साथ में स्लेट भी तो भर गई है........चलो, कहीं से डस्तर ढूढता हूं.......
फिर मिलते हैं।।। Please take care !!