मैं अभी अभी यही सोच रहा हूं कि मैं तो आप सब से देश के विभिन्न आंचलों में प्रचलित हिंदी भाषा के बहुत बढ़िया शब्द सीख रहा हूं....तो क्या मेरा फर्ज़ नहीं बनता कि मैं पंजाबी में प्रचलित – बहुत ज्यादा पापुलर- शब्दों से भी आप का तारूफ़ करवाऊं। तो आज का शब्द है ....फुकरा। जी हां, हमारे यहां जिस शोहदे टाइप बंदे पर बहुत ज़्यादा गुस्सा सा आता है उसे हम खुल्ले दिल से फुकरा कह देते हैं। लेकिन अफसोस है कि आज मैं इस शब्द को किसी बहुत ही दर्दनाक घटना से जोड़ कर आप के सामने रख रहा हूं।
तो , आज सुबह सुबह जब टाइम्स ऑफ इंडिया में यह पढ़ा कि मोदीनगर(गाजियाबाद) में किसी विवाह के दौरान ऐसे ही मस्ती में एक देशी पिस्टल से चली गोली से किसी के 14 साल के लाडले ने जान ले ली। खबर में तो यह भी बतलाया गया कि वहां पर मौजूद मेहमानों ने गोली चलाने वाले की इतनी पिटाई की कि उसे हस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा। मैं यही सोच रहा हूं कि एक बंदे की फुकरापंथी से किसी के तो गुलशन में ही वीराना हो गया ना.....अब केस तो उस पर भी चलेगा....।
..( मेरा दिमाग तो मुझे अपने मुंह पर उंगली रखने को कह रहा है और कह रहा है कि तू ज़्यादा मत बोला कर, लेकिन मन मान नहीं रहा.....इसीलिए दोस्तो मैं तो भई अपने आप को सफल बलोगर तभी मानूंगा जब मैं लिखते समय शत-प्रतिशत अपने मन की ही बात मानूंगा..................लेकिन इमानदारी से कह रहा हूं कि मैं कोशिश तो पूरी करता हूं ....लेकिन शत-प्रतिशत मैं अपने मन की नहीं सुन रहा हूं......मेरा तो उद्देश्य यही है कि कुछ भी हो अपने मन की 100% माना करूं....लेकिन क्या करूं ..हूं तो बुझदिल ही ना.......हालांकि यह मुझे भी अच्छी तरह से पता है कि यहां पर 99 और 100 प्रतिशत में भी ज़मीन आसमान का अंतर है। क्योंकि यह जो एक परसेंट है न यही हमें जीने नहीं देता.....कचोटता रहता है कि यार, तू बंदा है , तू अगर लिखने जैसी चीज़ में भी अपने दिल की बात नहीं मान रहा तो आखिर कर क्या रहा है। सो, मुझे तो केवल आशीर्वाद दीजिए कि मैं इस मिशन में सफल हो पाऊं...और मैं आज 26फरवरी 2008 तो आप से यह वायदा करता हूं कि मेरा मिशन ही लेखन में इस स्तर तक पहुंचना है, नहीं तो क्या है, ऐसे ही क्या लिखने का फ्राड करना.....बहुत से बड़े से बड़े विचारक एवं लेखक इस महान देश में पड़े हैं , लेकिन रोना वही है ना कि उन को इस इंटरनैट पर पहुंचने में पता नहीं कितने ज़माने लग जायेंगे......फिर सोचता हूं कि बाबा बुल्लेशाह , भगत कबीर , बाबा फरीद या उस महान मुंशी प्रेमचंद के पास क्या ये सब कुछ सुविधाएं थीं.....नहीं ना, तो फिर क्यों उन सब का नाम दुनिया में हीरे-ज्वाहरातों से लिखा हुया है और हमेशा लिखा रहेगा।
ओ हो , एक तो मैं बाल की खाल बहुत खींचने लगता हूं...शुरू कहां से हुया था और कहां पहुंच गया हूं। हां, तो बात हो रही थी किसी फुकरे की जिस ने एक 14साल के किसी मां के दुलार, किसी बाप के संसार , किसी बहन के नाज़ को गोली का निशाना बना दिया। उस केस का आगे चल कर क्या होगा, इस में क्या पड़ें.....लेकिन इस से क्या वह बेचारा विवाह में हंसी खुशी खेल रहा बच्चा वापिस आ जायेगा। इसलिए मुझे इस तरह की फुकरापंथी करने वालों से बेहद शिकायत है , क्योंकि तुम ने तो भई दिखा लिया अपना शोहदापन , लेकिन किसी परिवार का तो संसार ही लुट गया।
यह तो था कि किसी की जान ही चली गई, लेकिन मैं आप को ब्रीफ में एक ऐसी सच्ची बात बताता हूं जिस में एक छोटी सी लड़की की पूरी दाईं बाजू ही उड़ गई थी। जी हां, यह लड़की अमृतसर में हमारे पड़ोस में ही रहती थी......हम इक्ट्ठे ही खेलते थे...बहुत नेक-दिल लड़की थी, अच्छी दोस्त थी। उस के दाईं बाजू केवल कंधे तक ही थी.....हमें बताया गया था कि वह जब गोद में ही थी तो अपने किसी मामा की शादी में अंबाला गई हुई थी, ...उस के रिश्तेदार ने उसे गोद में उठाया हुया था , इतने में ही बारात में किसी ने हवा में गोली दाग दी...जो गलती से उस की बाजू में लगी ...और उस का खौफनाक रिजल्ट हमारे सामने था। बहुत गुस्सा आता था जब भी कभी उस के बारे में घर में बात चलती थी...खून खौलने लगता था।
और एक रोना यह भी है ना कि अकसर विवाह शादियों में सब रिश्ते की तारों के साथ जुड़े होते हैं , तो किसी के ऊपर कानूनी कार्रवाई करने की बात सोचना ही मूर्खता होगी.....अगर शुरू शुरू की गर्मी में कुछ थोड़ा बहुत कहा-सुना भी जाता है तो उस को हमारे भारतीय समाज के बोझिल रिश्तों का ताना-बाना ऐसा दबा देता है कि यह मात्र एक दबी चीख ही बन कर रह जाती है। हमारे पड़ोस में रहने वाली मेरी मित्र से भी कुछ यही हुया था। लेकिन अभी सोच रहा हूं कि यार , हम लोग कुछ बचपन से ही बहुत सेंसेटिव से, कुछ ज्यादा ही अंडरस्टेंडिंग रहे होंगे ...मुझे नहीं याद, खुदा कसम, कि कभी भी हम में से किसी भी बच्चे ने उस का सपने में भी मज़ाक बनाया हो या चिढ़ाया हो.....। हम उस को इतना अपनी सारी गतिविधियों में इन्वाल्व कर के रखते थे और वह भी बहुत हिम्मत वाली थी....आत्मविश्वास तो उस में कूटकूट कर भरा हुया था.....आज कल वह दिल्ली के एक सरकारी कार्य में सर्विस कर रही है......अपने परिवार में खुश है...अभी दो-तीन साल पहले मिले थे.......।
बस , यार , अब विराम लेता हूं...जब से सुबह वाली खबर पढ़ी है ना मूड खराब है। धिक्कार है ऐसी फुकरापंथी पर। पता नहीं हमें कब इन बातों की अकल आयेगी। आज के ज़माने पर में भी इस तरह के शौक पालने.........मुझे शिकायत है, बहुत शिकायत है,....बहुत ज़्यादा शिकायत है.......................चलिए अकेला ही बकता जाता हूं, कभी तो किसी के मन को लगेगी।
जो भी हो, मुझे वह ऊपर वाला आशीर्वाद( जो मैंने आप से मांगा है) देना न भूलियेगा।
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मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008
गुरुवार, 3 जनवरी 2008
इन लेखकों एवं चित्रकारों का टेलेंट तो रेलगाड़ी के बाथरूमों तक ही सीमित होता है.....
चलिए , यह भी एक इत्मीनान की ही बात है कि इन चित्रकारों का टेलेंट तो रेलगाड़ी के बाथरूमों तक ही सीमित रहता है। उन की यह कला उस से बाहर न ही आए तो ही ठीक है, नहीं तो गदर मच जाएगा। जब ये तरह तरह की अश्लील बातें अथवा ऊट-पटांग बातें मोटे मोटे अक्षरों में वहां लिखते हैं तो यह क्यों भूल जाते हैं कि इन पर समाज के हर आयु वर्ग के लोगों की नज़र पढ़ेगी। कई बार तो अबोध बच्चे भी यह सब पढ़ कर, चित्रकारी देख कर हैरान परेशान हो जाते होंगे। मैं अकसर सोचता हूं कि इस देश के अबोध बच्चों की यौन-शिक्षा के पहले पाठ तो शायद यहीं लिखे रहते हैं...।अफसोस तो बस इसी बात का ही होता है कि इन बाथ-रूम बलागरों को भी लगता है कि अपनी कला के जौहर दिखाने का उचित मौका मिला नहीं। इस अजीबो-गरीब बलागरी का दुनिया भी कुछ इंटरनैट ब्लागरी जैसी ही चलती है----अर्थात् कई लोग तो ये विवरण देख कर एवं लाइन ड्रांईंग देख कर इतने भड़क जाते हैं कि उन्होंने टिप्पणी के रूप में अपना करारा सा जवाब भी लिखा होता है। इस तरह की ग्रैफिटी रेल के बाथरूमों में ही नहीं, कईं बार तो मुझे मुंबई की लोकल गाड़ीयों में भी देखने को मिलीं। लेकिन बम्बई में इस तरह की ग्रैफिटी के ऊपर तुरंत कुछ पेंट पोत दिया जाता है...भई, ऐसे तो हज़ारों लोगों की नज़रों में यह सब आ जाएगा। कई बार तो नोटों पर भी इस तरह की ग्रैफिटी देखने को मिलती है, लेकिन वह बड़ी शालीन सी ही दिखती है। बंटी लव्स बबली या पिंचू लव्स पिंकी तक ही यह सीमित होती है। लेकिन कईं बार तो ये कलाकार एतिहासिक स्थानों को भी स्पेयर नहीं करते-- और उन पर भी अपनी छाप छोड़ने की पूरी कोशिश करते हैं। अरे भाई, कुछ ऐसी छाप ही छोड़नी है तो शाहजहां का अनुसरण करिए......उस ने कैसे अपने प्यार को अमर ही कर दिया। इन छोटी-मोटी हरकतों से तो कुछ हासिल होने से रहा, rather you are only corrupting the tender yound minds of our dear youngsters which happen to be our greatest assets!!
काश!! ऊपर वाला इन आत्माओं को सदबुद्धि प्रदान करें ताकि वे अपनी कलम के जौहर दिखाने के लिए बलागरी में पांव रखें।
काश!! ऊपर वाला इन आत्माओं को सदबुद्धि प्रदान करें ताकि वे अपनी कलम के जौहर दिखाने के लिए बलागरी में पांव रखें।
मंगलवार, 1 जनवरी 2008
रेलवे के वेटिंग रूम के अटैंडैंट के साथ बिना वजह की टसल----सारी खुन्नस उस पर !!
रेलवे के वेटिंग रूम के अटैंडैंट के साथ बिना वजह की टसल----सारी खुन्नस उस पर !!
दोस्तो, मुझे ऐसे लोगों से बड़ी शिकायत है जो कि रेलवे के वेटिंग रूम के अटैंडैंटो के साथ यूं ही गर्म हो पड़ते हैं--- मेरी तरह शायद आपने भी बडी़ बार यह नोटिस किया होगा कि जब भी वह किसी यात्री की टिकट देखना चाहता है तो यात्री अकसर भड़क से पड़ते हैं। भई, इस में उस बेचारे का आखिर क्या दोष क्या----उस की जो ड्यूटी है वह तो वही कर रहा है।ि सरकार ने उसे इस काम के लिए ही तो रखा हुया है। अकसर ऊंची श्रेणी से यात्रा करने वाले कुछ यात्रियों में मैंने यह बात नोटिस की है। दो दिन पहले ही जब नई दिल्ली स्टेशन के ऐसे ही एक वेटिंग रूम की परिचारिका ने किसी जैंटलमैन से टिकट के बारे में पूछा, तो उस ने तपाक से उत्तर दिया----तुम क्या समझ रही हो, शताब्दी का टिकट है !! उस की बात सुन कर हंसी भी आई कि भई, इस पर शताब्दी की धाक जमाने की क्या पड़ी है....शताब्दी की टिकट है या राजधानी की....हुया करे, उसे तो बस एक प्रूफ चाहिए। ज्यादा लंबी चौड़ी बात तो है नहीं। इस तरह की टसल मई-जून में तो कुछ ज्यादा ही नहीं आती है----यात्री पसीनो-पसीना, ऊपर से भारी भरकम सूटकेसों ने दिमाग घुमाया होता है या कुलियों के साथ अभी बहसबाजी खत्म नहीं हुई होती कि इस वेटिंग रूम के अटैंडैंट की इस ड्रामे में एंट्री हो जाती है। ऐसे में किस की खुन्नस किस पर निकलती है, कुछ पता नहीं।
वैसे आज कल जब सार्वजनिक स्थानों पर उपद्रवी घटनाएं बढ़ गई हैं, ऐसे में हमें तो उस अटैंडैंट का शुक्रिया ही करना चाहिए कि वह हम सब के लिए एक सुरक्षा चक्र की भूमिका अदा कर रहा है। वैसे भी आप ने नोटिस किया होगा कि इन वेटिंग रूम के बाथ-रूम को प्लेट-फार्म पर घूम रहे यात्रियों द्वारा इस्तेमाल करने की अकसर कोशिश रहती है----अब दिल्ली बम्बई जैसे नगरों में यह एंट्री बिना किसी तरह की रोक-टोक के हो जाएगी तो इन बाथ-रूमों में गदर मच जाएगा, दोस्तो। तो फिर, दोस्तो, अगली बार उस वेटिंग रूम अटैंडैंट के ऊपर हम किसी की खुन्नस न निकालने की शपथ आज ले ही लें।
दोस्तो, मुझे ऐसे लोगों से बड़ी शिकायत है जो कि रेलवे के वेटिंग रूम के अटैंडैंटो के साथ यूं ही गर्म हो पड़ते हैं--- मेरी तरह शायद आपने भी बडी़ बार यह नोटिस किया होगा कि जब भी वह किसी यात्री की टिकट देखना चाहता है तो यात्री अकसर भड़क से पड़ते हैं। भई, इस में उस बेचारे का आखिर क्या दोष क्या----उस की जो ड्यूटी है वह तो वही कर रहा है।ि सरकार ने उसे इस काम के लिए ही तो रखा हुया है। अकसर ऊंची श्रेणी से यात्रा करने वाले कुछ यात्रियों में मैंने यह बात नोटिस की है। दो दिन पहले ही जब नई दिल्ली स्टेशन के ऐसे ही एक वेटिंग रूम की परिचारिका ने किसी जैंटलमैन से टिकट के बारे में पूछा, तो उस ने तपाक से उत्तर दिया----तुम क्या समझ रही हो, शताब्दी का टिकट है !! उस की बात सुन कर हंसी भी आई कि भई, इस पर शताब्दी की धाक जमाने की क्या पड़ी है....शताब्दी की टिकट है या राजधानी की....हुया करे, उसे तो बस एक प्रूफ चाहिए। ज्यादा लंबी चौड़ी बात तो है नहीं। इस तरह की टसल मई-जून में तो कुछ ज्यादा ही नहीं आती है----यात्री पसीनो-पसीना, ऊपर से भारी भरकम सूटकेसों ने दिमाग घुमाया होता है या कुलियों के साथ अभी बहसबाजी खत्म नहीं हुई होती कि इस वेटिंग रूम के अटैंडैंट की इस ड्रामे में एंट्री हो जाती है। ऐसे में किस की खुन्नस किस पर निकलती है, कुछ पता नहीं।
वैसे आज कल जब सार्वजनिक स्थानों पर उपद्रवी घटनाएं बढ़ गई हैं, ऐसे में हमें तो उस अटैंडैंट का शुक्रिया ही करना चाहिए कि वह हम सब के लिए एक सुरक्षा चक्र की भूमिका अदा कर रहा है। वैसे भी आप ने नोटिस किया होगा कि इन वेटिंग रूम के बाथ-रूम को प्लेट-फार्म पर घूम रहे यात्रियों द्वारा इस्तेमाल करने की अकसर कोशिश रहती है----अब दिल्ली बम्बई जैसे नगरों में यह एंट्री बिना किसी तरह की रोक-टोक के हो जाएगी तो इन बाथ-रूमों में गदर मच जाएगा, दोस्तो। तो फिर, दोस्तो, अगली बार उस वेटिंग रूम अटैंडैंट के ऊपर हम किसी की खुन्नस न निकालने की शपथ आज ले ही लें।
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