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मंगलवार, 24 जून 2014

बस हिंदी के नाम ही से डर गए...

पिछले दिनों हिंदी बहुत ज़्यादा खबरों में रही। सोशल वोशल मीडिया पर हिंदी के इस्तेमाल पर या हिंदी इंगलिश दोनों के इस्तेमाल पर खूब चर्चा भी हुई..कईं जगह बवाल भी मचा।

लेकिन क्या किसी ने यह देखने का कष्ट भी किया कि आखिर ब्लागिंग, ट्विटिंग एवं फेसबुक पर सरकारी विभागों के बंदों द्वारा कितनी हिंदी इस्तेमाल हो रही है....और यह सब जो इंगलिश में हो रहा है , उस की आखिर फ्रिक्वेंसी है क्या।

आप कभी इस बात की रिसर्च करेंगे तो पाएंगे कि हिंदी की तो बात क्या करें, इंगलिश के माध्यम से भी सोशल मीडिया और ब्लॉग्स पर कुछ विशेष कहा ही नहीं जा रहा। और यह उतना आसान भी नहीं है जितना दिखाई जान पड़ता है।

इस का एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि एक फरमान के आते ही किसी को इंटरनेट पर हिंदी का इस्तेमाल करना नहीं आ जाता। जैसे हर काम सीखने से आता है, इस के लिए भी एक अनुशासित ट्रेनिंग दरकार होती है। और यह भी एक तपस्या ही है।

लोग बाग आठ-आठ दस-दस वर्ष से हिंदी में ब्लॉगिंग कर रहे हैं, और अभी भी सीखने वालों की ही श्रेणी में आते हैं। मैं भी इस विधा का एक प्रारंभिक छात्र हूं।

मेरा बस इतना कहना है कि बस फरमान से ही एक ओपिनियन न कायम कर लिया करें......कभी रिसर्च भी किया करें कि ज़मीनी वास्तविकता क्या है, अब इस से ज़्यादा मैं यहां कह नहीं सकता, आप स्वयं देखें कि चल क्या रहा है !! आप भी सब समझ जाएंगे। 

गुरुवार, 12 जून 2014

ऐपल पर ठीक तरह से हिंदी न लिख पाने की व्यथा..

शायद मैं पिछले एक वर्ष से ऐपल पर काम कर रहा हूं और देख रहा हूं कि इस पर हिंदी ढंग से लिखी नहीं जा रही थी, बड़ी दिक्कत थी।

लेकिन एक बात तो थी कि जब जी-मेल या फेसबुक पर कुछ टिपियाना हो तो सब कुछ ठीक से लिखा जाता था।
लेकिन वर्ल्ड डाक्यूमैंट पर कुछ लिखना सिर दर्द के बराबर था।

बहुत महीने ऐसे ही चलता रहा, लेकिन परेशान होकर दो दिन पहले मैंने आलोक जी से ई-मेल के द्वारा संपर्क किया और उन के मार्ग-दर्शन के अनुसार ओपन ऑफिस का इस्तेमाल शुरू कर दिया है , अब ठीक से लिखा जाता है।

इस लिखे को भी अभी अपने ब्लॉग पर पोस्ट के रूप में डाल कर देखता हूं कि यह प्रयोग कितना सफल रहा है।

देखते हैं.........

आज कल जून की भयंकर गर्मी चल रही है......पता नहीं कैसे इस गीत का दो दिन से ध्यान बार बार आ रहा है कि किस तरह से भयंकर गर्मी के दिनों में ही अमृतसर के एक थियेटर में साईकिल पर जा कर यह फिल्म डिस्को-डांसर देखी थी......कितना क्रेज़ सा मिथुन की फिल्मों का, उस के गीतों का, उस के डांस का............. OMG..... लीजिए, आप भी मेरे साथ सुनिए.........राजेश खन्ना तो आउटस्टैंडिंग है ही, इस लिटिल मास्टर को भी इस की धांसू पर्फाममैंस के लिए १०में से १० अंक.......

बुधवार, 12 सितंबर 2012

राइटर ब्लॉक से निजात मिल ही गई

आज से दस बारह वर्ष पहले का समय था जब अखबार में यह सोच सोच कर लेख भेजा करते थे कि हम गिनती के 40-45 लेख ही तो लिख पाएंगे ...इसलिए लेखों को इस तरह संभाल कर रखते थे मानो....। 

लेकिन एक बार अच्छी यह हुई कि 2-3 नवलेखक शिविरों में शिरकत करने का अवसर मिल गया --जोरहाट में, अमृतसर में -------बस तब से समझ आ गया कि लेखों की कमी तो कोई है ही नहीं, कमी हम में है जो इस विधा को समय दे नहीं पाते। 

अब मेरी ही देखिए कि यह मेरा सबसे पहले ब्लॉग -मीडिया डाक्टर --इस को ही मैं कितने लंबे अरसे के लिए नज़रअंदाज़ करता रहा। पिछले सात महीने से कुछ नहीं लिख इस पर --बस आज लिखूंगा-कल लिखूंगा के चक्कर में सर्दी से गर्मी हो गई और अब फिर से लगभग सर्द ऋतु की कगार पर ही तो खड़े हैं। 

अब समस्या यह है कि सुबह से लेकर शाम तक बीसियों लेख आंखों के सामने तैरते रहते हैं ...लेकिन बस यह आलस बुरी बला है.....दुआ करें कि मैं इसे त्याग पाऊं ... 

हां, तो एक बात तो बतानी भूल ही गया जो कि मैं सभी पाठकों से सांझा करना चाहता हूं ---जब मैं जोरहाट --यह शहर गुवाहाटी से ट्रेन के एक रात के सफर जितना दूर है --सुबह शायद चार पांच बजे ही सूर्योदय और शाम को पांच साढ़े पांच बजे सू्र्यास्त ...हां, तो जो गुरू जी हमारे लेखक शिविर के प्रभारी थे, उन्होंने हमें एक बात कही .. क्या तुम लोग समझते हो कि बहुत बड़ी बड़ी बातें लिख कर ही साहित्यकार बना जा सकता है? --उन्हें हमें अपने नाना जी के बारे में बताया -- बहुत पुरानी बात बता रहे होंगे क्योंकि वे स्वयं भी वयोवृद्ध थे -- हां, तो उन्होंने एक दिन हमें मूड में आकर सुनाया कि उन के नाना जी नित प्रतिदिन एक पोथी पर रोज़ाना होने वाला खर्च लिखा करते थे ---लेकिन कोई आलस नहीं ---बिना नागा ...........हुआ क्या कि जब इतने दशकों बात उसे खोल कर देखते हैं तो पता चलता है कि तब आटे-नमक का क्या भाव था, यह भी साहित्य ही है .........और हम अच्छे से समझ गये कि वे कितनी बड़ी बात कितनी सहजता से कह गये।

अपने सभी पाठकों से एक बात और भी कहना चाहूंगा कि आप भी लिखने की आदत डालें --- चाहें तो ब्लॉग ही शुरू कर डालें --- देश-समाज को बदलने का मंसूबा बनाने की कोई ज़रूरत नहीं ---सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा -- डोंट वरी -- बस रोज़ाना एक पन्ना लिखने से शुरू तो कर के देखिए -- अगर नियमित लिखेंगे साल में 365 पन्ने तैयार हो जाएंगे और उन में से हमारे लेखन के गुरूजी ने बताया कि 50-60 तो कम से कम प्रकाशित होने के क़ाबिल तो होंगे ही.... 

शायद मैं पूरी तरह से राइटर ब्लॉक का शिकार नहीं था -- क्योंकि मैं अपने दूसरे ब्लॉगों पर .... सेहतनामा और Health baba पर लगभग नियमित लिख ही रहा था, इन पर क्लिक कर के क्या आप देखना चाहेंगे कि मैं पिछले लगभग छः सात महीने आखिर कर क्या रहा था।

आज के लिए इतनी बातें काफ़ी हैं, कल फिर से करेंगे ...................चलते चलते एक गीत ही सुन लिया जाए, मेरी पसंद का ..... 
आंखे भी होती हैं दिल की जुबा, बिन बोले कर देती हैं हालत ये पल में ब्यां .......

रविवार, 6 जून 2010

इंटरनेट लेखन के दांव-पेच...पाठ संख्या 5.

मेरे विचार में एक दिन के चार पाठ ठीक हैं ---इतनी थ्यूरी ठीक है-- अब ज़रा प्रैक्टीकल के लिये लैब का रूख करते हैं। हां, तो अब मैं आप से अपनी सब से मनपसंद साइट के बारे में दो बातें करना चाहूंगा।
मुझे BBC news की साइट बेहद पसंद है--- यह रहा इस का होम-पेज। मैं कंटैंट के ऊपर कुछ ज़्यादा कहना नहीं चाहता क्योंकि मुझे कुछ ज़्यादा पढ़ने का समय ही नहीं मिल पाता। लेकिन जिस इंटरनेट लेखन की बात हम लोग सुबह से कर रहे हैं और जिस के दांव-पेच आप जैसे धुरंधर लिक्खाड़ों को मैं बताने की हिमाकत कर रहा हूं --- उस इंटरनेट लेखन का नमूना जानने के लिये हमें वेब-राइटिंग वर्कशाप के दौरान बीसियों बार बीबीसी न्यूज़ की साइट पर घुमाया गया।
अभी तो आप इस साइट को निहारिये -- उदाहरण के लिये यह रहा इस के हैल्थ सैक्शन का होमपेज और किसी एक हैल्थ स्टोरी पर क्लिक करने पर आप देखेंगे कि कितने जबरदस्त तरीके से न्यूज़-स्टोरी को प्रस्तुत किया गया है।
बीबीसी की हिंदी साइट पर क्या आप कभी गये हैं? इस के विज्ञान के होमपेज को देखिये और एक खबर पर क्लिक करने पर यह देखिेये कौन सी खबर आ गई ---ब्रश करें दिल के रोग से बचें!
अच्छा तो आप इस साइट की विशेषताओं के बारे में सोचिये --शीर्षक, पैराग्राफ, सीधी सादी भाषा और सब तरह से बढ़िया प्रस्तुति। इस का विश्लेषण बाद में करेंगे कि क्यों यह साइट मुझे बेहद पसंद है। यह मेरे व्यक्तिगत मत भी हो सकता है लेकिन मैं इसे विस्तार से आप के साथ कभी शेयर करूंगा।
मुझे यह साइट (विशेषकर अंग्रेज़ी वर्ज़न) इतनी पसंद है कि मैं इसे रोज़ाना देखता हूं ---यह मुझे अपने लेखन की कमियों की तरफ़ झांकने के लिये प्रेरित करती है। आप से भी अनुरोध है कि आप भी इस साइट (अंग्रेज़ी अथवा हिंदी वर्ज़न) को बुकमार्क कर लें। बहुत कुछ सीखने को मिलेगा अगर रोज़ाना इसे देखेंगे ---वैसे हम इसी साइट के बारे में विस्तार से चर्चा तो करेंगे ही।
पता नहीं इस की हिंदी साइट का फांट बहुत छोटा लगता है, लिखा तो था मैंने उन को कि फांट का कुछ हो सके तो देखो ----और पता नहीं क्यों हिंदी वर्जन के पन्ने फीके-फीके से लगते हैं------बिल्कुल मेरी मैट्रिक की क्लास की भूगोल विज्ञान की किताब की तरह? क्या मेरे को ही ऐसा लगता है या आप को भी ऐसा कुछ लगा, हो सके तो बताना। मैं इस बात को समझना चाहता हूं ---- और हां, एक बात और इस साइट पर हिंदी के ब्लाग भी हैं साइट पर टिप्पणी देकर आप को शायद एक-दो दिन का इंतज़ार करना पड़ सकता है कि ब्लागर साहब की नज़रे एनायत हुईं कि नहीं ---अगर हो गईं तो आप की टिप्पणी दिख जाएगी----------------वरना। निःसंदेह अंग्रेज़ी वर्जन में बहुत ज़्यादा खुलापन (interactivity) है जो होमपेज पर नज़र डालने से ही पता लग जाता है।
बस, आज के दिन के पाठ यहीं खत्म होते हैं ---दोपहर में ऐसे ही बैठे बस विचार आया कि इस तरह के पाठ ही दोहरा लूं, सो बैठ गया यह सब लिखने ---आप से कहीं ज़्यादा अपने आप को ये सब बातें याद दिलानें कि वेब-राइटिंग के दांव-पेचों को अभ्यास करने का समय यही है ----इस से पहले की कैसे भी कुछ भी लिख कर छुट्टी कर लेने की मेरी पुरानी आदतें पक जाएं।

इंटरनेट लेखन के दांव-पेच..... पाठ संख्या 4

क्यों दूं मैं लिंक अपने लेख में? मेहनत करूं मैं और इस का फल चखें बाकी सब? मुझ से यह ना होगा कि मैं सब को बताता फिरू कि अपने लेख के आइडिया मुझे आते कहां से हैं? क्या ज़रूरत है सारे जग को बताने की इतनी बढ़िया जानकारी आखिर नेट पर पड़ी कहां है ? --- अजीब सी बातें लगती हैं ना दोस्तो, लेकिन यह वेब-राइटिंग वाला ट्रेनिंग कोर्स से पहले मेरी सोच बिल्कुल ऐसी ही थी।
लेकिन इस इंटरनेट लेखन के प्रोग्राम के दौरान नेट पर कंटैंट मुहैया करवाने के बारे में मेरे विचारों में इतना शिफ्ट आया कि मैं ब्यां नहीं कर सकता। जब मैंने कोर्स ज्वाइन किया तो मेरे आइडिया बिल्कुल फिक्सड कि यार, क्या मुसीबत है अपने लेखों में तरह तरह के लिंक देने की ज़हमत उठाने की। जिसे ज़रूरत होगी खुद ढूंढ लेगा---ऐसे संकीर्ण विचार मैंने अपने मन में पाल रखे थे।
लेकिन इंटरनेट लेखन पर वर्कशाप में शिरकत करने पर सही में पता चला कि इंटरनेट की आत्मा आखिर है क्या? -- जब हम इंटरनेट (अंतर्जाल) की बात करते हैं तो हमें मकड़ी के जाल की तरह एक दूसरे के कंटैंट पर लिंक तो करना ही चाहिये। दरअसल इंटरनेट की सुंदरता ही इस लिंक्स की वजह से है ---इस लिये एक अहम् सबक जो मैं उस वर्कशाप से लेकर आया और जिसे मैं हमेशा प्रैक्टिस भी करूंगा -----लिंक लगाएं, लिंक लगाएं और लिंक लगाएं।
लेकिन अपने लेखों में लिंक (हाइपरलिंक) लगाने के भी कुछ संदर से कायदे हैं, नियम हैं जिन्हें मानने से वे लिंक हमारे लेखों की शोभा में चार चांद लगा देते हैं। हां, तो मैं बात कर रहा था कि इस वर्कशाप से पहले मैंने जितना भी कंटैट अपने ब्लॉग पर डाला है उस में लिंक ही नहीं डाले --इस का कारण मैं पहले ही बता चुका हूं।
लेकिन वर्कशाप से लौटने के बाद मैंने जो भी लिखा है उस पर समुचित लिंक डाले हुये हैं--- एक फायदा यह भी है कि लिंक डालने से हमारी ही विश्वसनीयता बढ़ती है और इस से बढ़ कर वैसे देखा जाए तो है ही क्या? अब अगर मैं किसी इलाज की समीक्षा कर रहा हूं, किसी नईं दवाई के बारे में लिख रहा हूं तो क्या एक लिंक के द्वारा पाठकों को यह जानने का भी अधिकार नहीं है कि आखिर मेरी जानकारी का स्रोत क्या है ? मेरे कुछ भी कहने को वे आखिर मानें क्यों ? --क्या पता कुछ लिखने के पीछे मेरा कोई निजी स्वार्थ हो !!
और दूसरी बात यह है कि हम अपने पाठकों को जितने विकल्प देंगे, वे हमारे लेखों पर आने में उतनी ही रूचि दिखायेंगे। लेकिन जब तक समझ नहीं थी तो मैं भी कहां इस तरह के विकल्प देकर राजी था, बस अपना ही राग अलापने में सुख मिलता था। लेकिन फिर धीरे धीरे अपने लेखों में अपनी ही अन्य पोस्टों के लिंक (internal links -- इंटरनल लिंक्स) देने लगा ---- फिर बाद में बाहर के लिंक्स (external links) देने की हिम्मत आने लगी.
हिम्मत शब्द का इस्तेमाल इसलिये कर रहा हूं क्योंकि शूरू शूरू में शायद हमें लगता है कि पहले ही इतनी मुश्किल से कोई पाठक हमारे लेख तक पहुंचा है, बाहर का लिंक देने से तो कहीं यह भी न भाग जाये। लेकिन यह इंटरनेट -- web 2.0 की भावना नहीं है,आज इंटरनेट की स्पिरिट है, बात करने की , बात सुनने की, पाठकों को अधिक से अधिक विकल्प मुहैया करवाने की-----पाठक हमारे एक लेख से अगले पल कहीं और उस से अगले पल कहीं और पहुंचता है तो आखिर हमें एतराज़ क्यों? नेट पर हम भी तो ऐसा ही करते हैं जहां हमें बेहतर विक्लप मिलते हैं हम उधर घूमने निकल पड़ते हैं।
और तो और, हम लोग जब नेट पर कोई लेख आदि देख रहे होते हैं तो इतनी सूझबूझ से लगाये गये लिंकों की वजह से हमारा काम कितना आसान और अनुभव कितना सुखद हो जाता है ----तो हम दूसरों को विशेषकर हिंदी के पाठकों को इन सुखों से क्यों वंचित रखें? यह मैं इसलिये कह रहा हूं क्योंकि हिंदी के लेखों में, चिट्ठों के अलावा भी विभिन्न हिंदी न्यूज़-साइटों पर मुझे इन लिंक्स की कमी खलती है। इस से कहीं न कहीं लेखक की क्रेडिबिलिटी पर चाहे बिलकुल फीका ही सही लेकिन चिंह तो लगता ही है।
हमें उस वेब-राइटिंग वर्कशाप के दौरान यह भी आभास दिलाया गया कि ये जो हाइपरलिंक्स हैं, ये सारे लेख में अच्छे ढंग से बिखरे से हों, ऐसी कोशिश रहनी चाहिए --- हमारे ट्रेनर्ज़ शब्द इस्तेमाल करते थे ---links should be sprinkled throughout the online article. लेकिन लिंक बस नाम के लिये ही टिका देने से भी पाठक चिढ़ से जाते हैं और समझ जाते हैं।
केवल अपने लेख से संबंधित लिंक ही डालें ---- और लिंक्स हम लोग नेट पर मौजूद फोटो के लिये और दूसरे तरह के रिसोर्सेज़ के लिये भी डाल सकते हैं। आप देखिये यह जो आज कल हम लोगों के चिट्ठों पर यह आइकन लगा है ---आप इसे भी पसंद करेंगे और इस के साथ ही तीन-चार पुरानी पोस्टें दिखती हैं, यह भी अच्छा आइडिया है (मेरे ब्लॉग पर भी यह लगा हुआ है) ।
लेकिन लिंक डालते समय इस बात का भी ध्यान रखें कि एक ही लेख में एक लिंक को दोबारा न टिकाया जाए। इस से पाठक को खुन्नस आती है------और डैड-लिंक्स ----Dead links --- बाप रे बाप, इन का तो विशेष ध्यान रखें ----पाठक ने किसी लिंक पर क्लिक किया और वह डैड-लिंक (अर्थात् कोई पेज खुला ही नहीं) निकला तो समझ लें पाठक नाराज़।
हम सब चाहते हैं ना कि हमारे चिट्ठे के लिंक लोग अपने लेखों में, अपने चिट्ठों पर डालें लेकिन पता नहीं हम दूसरों के लिये क्यों आलसी बन जाते हैं --आज जब मैंने इन दांव पेचों को आप के साथ बांटना शुरू किया तो मैंने रवि रतलामी जी के ब्लाग का और समीर लाल जी के ब्लाग का ज़िक्र किया तो मेरा कर्तव्य बनता था कि मैं वहां इन के चिट्ठों के लिंक देता ......लेकिन बस छोटे छोटे कामों के लिये यह आलस के कीड़े का बहाना सा बनाने की आदत हो गई है -----------------लेकिन आप कभी भी लिंक्स डालने में आलस न करें-----यह हमारे लेखन को निखारता है, पारदर्शिता के साथ साथ हमारे कहे को विश्वसनीयता प्रदान करता है।

इंटरनेट लेखन के दांव-पेच--पाठ संख्या 3.

हां तो अपनी चर्चा चल रही थी कि इंटरनेट पर लिखे लेख का शीर्षक कैसा होना चाहिए ? बिल्कुल दुरूस्त टिप्पणीयां आईं कि शीर्षक ऐसा तो हो कि पाठक को आकर्षक लगे। तो आइये इसी बात को थोड़ा सा विस्तार से देखते हैं ..
वैसे यहां पर मैं जिन बिंदुओं को रेखांकित करूंगा वे ज़्यादातर न्यूज़-स्टोरी के लिये लागू होते हैं--चूंकि अब ब्लागिंग एवं न्यूज़-रिपोर्टिंग के बीच की दूरी तेज़ी से खत्म होती दिख रही है इसलिये ये सब बिंदु हमारे चिट्ठों के लिये भी उतने ही लागू होते हैं।
  1. नेट पर कहीं भी हमें कोई अलग थलग पड़ा हुआ शीर्षक भी मिल जाए तो हमें उसे से यह तो पता लगना ही चाहिये कि उस शीर्षक के अंतर्गत लेखक क्या कहना चाह रहा है। In other words, headlines has to tell us what the story is about.
  2. जहां तक हो सके शीर्षक में एक क्रियात्मक शब्द तो होना ही चाहिये --- जिसे हम लोग अंग्रेज़ी में verb कहते हैं --यानि कि पता लगना चाहिये शीर्षक से क्या चल रहा है, और जहां तक हो सके यह strong verb होना चाहिए।
  3. जैसा कि अपने ही साथी ब्लॉगरों ने विचार रखे हैं कि हमारे लेखों के शीर्षक कमबख्त इतने आकर्षक हों कि पाठक वहीं रूक जाए और उस का नोटिस लेने पर मजबूर हो जाए। Headlines should be catchy, punchy, and must attract attention.
  4. एक बहुत महत्वपूर्ण बात यह भी है जहां तक हो सके शीर्षक छोटा, सटीक ओर एकदम सीधा तीर की तरह जाने वाला हो --- It should be short, to-the-point and snappy.
  5. शायद आपने भी नोटिस किया होगा कि बीबीसी की स्टोरीज़ के शीर्षक आम तौर पर चार शब्दों के ही होते हैं लेकिन जहां तक हो सके छः शब्दों से ज़्यादा शब्द शीर्षक में नहीं रखने चाहिये।
  6. एक बात कहते हैं ना कि KISS principle को पूरी तरह फॉलो करना चाहिये ---- चलिये लगे हाथ इस KISS का राज़ भी खोल ही देते हैं --- Keep it short and simple!!
  7. शीर्षक लगभग हमेशा वर्तमान टैंस में ही लिखा होना चाहिये --- Present tense is used. मेरा विचार है कि चिट्ठाकारी करते समय अकसर हमें इस नियम से हटना पड़ सकता है। लेकिन लेखन की सुंदरता इसी में है कि कैसे इस नियम का भी पालन कर सकें। वर्तमान टैंस होने से शीर्षक पाठक को लुभाता, पाठक में कुछ प्रासांगिक मिलने की आतुरता रहती है।
  8. यह तो सुनिश्चित किया ही जाना चाहिये कि शीर्षक में कोई गलतियां आदि न हों, इस से पाठक चिढ़ जाता है और कईं बार लेखक के बारे में शीर्षक देख कर ही अपनी राय बना बैठता है।
  9. जहां तक हो सके शीर्षक में ऐब्रीविएशन (abbreviations) का इस्तेमाल न किया जाए --- लेकिन कुछ बहुत ही प्रचलित छोटे नामों के लिये यह छूट ली जा सकती है जैसे कि यू.एन, यू एस ए, यू के आदि।
और जाते जाते वही पुरानी बात ---धन्यवाद है ब्लागवाणी का, चिट्ठाजगत का ---हमें अपने सभी परिचितों के चिट्ठे एक साथ मिल जाते हैं और काफी तो हम ने बुकमार्क कर रखे हैं, सब्सक्राइब कर रखे हैं, लेकिन अब सोचने की बात है कि जब भी हम लोग अपने किसी भी लेख के लिये शीर्षक लिखने लगें तो थोड़ा यह अवश्य सोच लें कि अगर इस तरह का शीर्षक मुझे नेट पर कहीं अलग-थलग (isolated) पड़ा दिख जाएगा तो क्या उस पर क्लिक कर के लेख तक जाने की ज़हमत उठाना चाहूंगा कि नहीं ?
चलिये, आप के लिये भी एक अभ्यास (exercise) -- यह पाठ पढ़ने के बाद आप एक बार ब्लागवाणी या चिट्ठाजगत पर आज प्रकाशित चिट्ठों पर जल्दी से नज़र दौड़ाएं और फिर सोचें कि हम कैसे और भी अच्छे, उम्दा और आकर्षक शीर्षक लिख सकते हैं। वैसे भी आजकल तो पैकिंग पर इतना ज़्यादा ज़ोर दिया जा रहा है, तो फिर हम लोग क्यों किसी से पीछे रहें !

इंटरनेट लेखन के दांव-पेच...पाठ संख्या 2.

आज मैं सोच कर हंस रहा हूं कि जब मैंने शूरू शूरू में नेट पर लिखना शुरू किया तो मेरे हैल्थ-टिप्स वाले ब्लॉंग पर कुछ इस तरह के शीर्षक मैंने अपनी पोस्टों को दिये ----
पहले तो मैं इन शीर्षकों आदि के बारे में जागरूक न था लेकिन उस वेब-राइटिंग ट्रेनिंग के दौरान यह सीखने का मौका मिला कि ये शीर्षक नेट पर लिखते समय कितने महत्वपूर्ण हैं ---अब कोई मेरे को कहें कि भलेमानुस, यार, तुम बताओ हम लोग जूस पीने जाएं या ताड़ी पीने ---तुम से मतलब ? और उस गन्ने के रस वाली पोस्ट पढ़ कर कोई चाहे तो मुझे यह ही कह दे --क्यों भाई तुम नहीं पीते ? और राजू वाली पोस्ट का हैडिंग देख कर कोई कहे ---यार, राजू मुसीबत में है तो हुआ करे, हमें क्यों यह सब सुना के परेशान कर रहा है?
तो मेरे ब्लॉग से ही बुरे शीर्षकों के उदाहरण आपने देख लिये। अब एक बात का जवाब दीजिये कि अगर इस तरह के शीर्षक आप को नेट पर इधर उधर यहां वहां बिखरे दिख जाएं तो क्या आप उन्हें पढ़ना चाहेंगे......शायद नहीं। क्योंकि न तो शीर्षक का कोई सिर है, न पैर है ---न ही उस से पता चल रहा है कि लेखक आखिर कहना क्या चाहता है ----ऐसे में क्यों आयेगा हमारे लेख कर कोई बंदा ?
एक बात जो बहुत ही अहम उस ट्रेनिंग के दौरान मैंने सीखी और समझी वह यह कि हम अपने लेखों पर दिये जाने वाले शीर्षकों को कभी भी हल्केपन से न लें. और विशेषकर जब इंटरनेट पर लिखे लेखों की बात चलती है तो इन का महत्व तो कहीं ज़्यादा है ----क्योंकि हमारे लेखों के ये शीर्षक नेट पर अलग अलग जगहों पर बिखरे पड़े हैं ----कुछ ब्लॉग एग्रीगेटरों के अलावा बहुत ही अन्य साइटें भी हैं जहां ये शीर्षक हमारी सोच के नमूने के रूप में सजे हैं। और बहुत हद तक तो ये शीर्षक ही तय करते हैं कि नेटयूज़र उस पर क्लिक कर के हमारे लेख तक पहुंचता है कि नहीं ? मुझे तो यह बात झट से समझ आ गई थी ---और उस ट्रेनिंग के बाद इस के बारे में थोड़ा बहुत सजग रहता हूं।
अब आप के मन में यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि आखिर पता तो चले कि बढ़िया सा शीर्षक लगाने की रैसिपी है क्या ? दोस्तो, वेबराइटिंग के इस पहलू को हमारे सूस्त दिमाग में डालने के लिये ट्रेनिग के दौरान पूरा एक दिन इन शीर्षकों को ही समर्पित था--हमें तरह तरह के लेख दिये गये ----सभी प्रतिभागियों से अलग अलग किस्से सुनने के बाद हम से पूछा गया कि अगर आपने इस घटना को कोई शीर्षक देना हो तो आप क्या हैडिंग देंगे। और इस तरह से काफी कुछ सीखने को मिला।
बस, एक बात का ज़रा करने का ज़रूरत है कि जब हम नेट पर कोई लेख प्रकाशित करते समय अपने लेख को कोई शीर्षक दें तो इतना तो कर ही करते हैं कि अपने आप से इतना पूछ लें कि अगर इस तरह का शीर्षक नेट पर कहीं पड़ा मिल जायेगा तो क्या मैं उस लेख को पढ़ना चाहूंगा ?
चूंकि पोस्ट लंबी हो गई है, इसलिये एक बढ़िया शीर्षक तैयार करने की आखिर रैसिपी क्या है, इस के लिये अगली पोस्ट में बात करते हैं। ठीक लग रहा है ना, कहीं बोर तो नहीं हो रहे, बता देना, भाईयो. कहीं बाद में पता चले कि मैं इन दांव-पचों के भाषण के चक्कर में आप का बढ़िया सा रविवार बेकार करता रहा !!

इंटरनेट लेखन के दांव-पेच

मुझे पता था कि आप शीर्षक देख कर यही कहने वाले हैं कि क्या यार, जुम्मा जुम्मा दो रोज़ हुये नहीं नेट पर लिखते हुये और तू हम धुरंधरों को बतायेगा ये दांव-पेच कि नेट पर कैसे लिखना होगा। लेकिन बात तो सुनिये ---हमें हर एक की बात सुन तो लेनी ही चाहिये --मानना ना मानना तो आप के हाथ में है।
तो सुनिये मुझे आज सुबह ही विचार आया है कि मुझे इंटरनेट लेखन के ऊपर थोड़ा बहुत लिखना चाहिये। कारण? ---दरअसल यह विषय मेरे दिल के करीब है। कुछ अरसा पहले जर्मनी की स्टेट ब्राडकॉस्टिंग (Deutsche welle) से विशेषज्ञ आये.. और दिल्ली में मुझे उन से एक महीने की इसी वेब-राइटिंग पर ट्रेनिंग लेने का अवसर मिला। बहुत कुछ सीखने का मौका मिला और अब मैं उन सब अनुभवों को आप के साथ बांटने के लिये तैयार हूं।
इस तरह से यह ज्ञान बांटने के पीछे मेरा एक स्वार्थ भी है ---मेरा पाठ भी पक्का हो जायेगा क्योंकि वहां उस ट्रेनिंग के दौरान बहुत ही ऐसी बातें सीखी हैं जिन्हें मैं अभी प्रैक्टिस नहीं कर पा रहा हूं।
मैं भी दोस्तो पिछले लगभग अढाई साल से नेट पर लिख रहा हूं। आज कल जो लिख रहा हूं ---मैं कंटैंट की बात नहीं कर रहा हूं ---वो तो जैसा भी होता है हरेक के मन की मौज है---लेकिन मैं प्रस्तुति की बात कर रहा हूं------ हां, तो अपने लिखने के बारे में कह रहा हूं कि जब मैं अपने आज कल के लेखों की शुरूआती दौर के लेखों से तुलना करता हूं तो पाता हूं कि यार, हिम्मत है उन शुभचिंतकों की जिन्होंने उन्हें पड़ने की मशक्कत की और फिर टिप्पणीयां भी लिखीं। कभी मौका मिला तो इन सब शख्शियतों का व्यक्तिगत रूप से शुक्रिया करूंगा।
सब से पहले तो बात करते हैं ---लिखने के अंदाज़ की। ऐसा भी नहीं कि जो बातें मैं लिखूंगा वे कोई नई बातें हैं, बिल्कुल मामूली बातें हैं ---लेकिन कईं बार इन्हें बार बार दोहराना ज़रूरी सा हो जाता है।
यह तो हम सब जानते ही हैं कि जो बंदा इंटरनेट पर बैठा है वह बहुत जल्दी में है, पूरी संभावना है कि वह एक तो नेट पर म्यूज़िक का आनंद ले रहा है--यू-ट्यूब पर,साथ में शायद अपने दोस्तों के साथ चैटिंग पर मसरूफ है--- साथ में शायद कुछ अपने मतलब की गूगल-सर्च भी कर रहा है---और इतनी मसरूफीयत के बावजूद अगर उस ने हमारे ब्लॉग की भी विंडो खोल कर हमारा लेख पढ़ने की हिम्मत जुटा ही ली है तो हम आखिर क्यों उस के सब्र का इम्तिहान लें?
दरअसल होता यह है कि नेट पर बड़े बड़े लेख देख कर अकसर कोई भी झट से क्लिक मार से कहीं से कहीं निकल जाता है। इसलिये नेट पर कंटैट के साथ साथ लेखों की लंबाई-चौड़ाई की तरफ़ ध्यान देना भी बहुत ज़रूरी है। लंबाई तो हो गई लेकिन यह लेख की चौड़ाई का क्या चोंचला है, इस के बारे में भी बात करेंगे।
नेट पर लिखते समय बिल्कुल बोलचाल वाली भाषा हो तो मजा ही आ जाए---- दरअसल किसी लेख को पढ़ते वक्त मेरे जैसे को कुछेक शब्द ऐसे मुश्किल से मिल जाते हैं जिन के शब्दार्थ के बारे में मैं कोई तुक्का भी नहीं मार सकता ---तो मैं जैसे तैसे अगले पैराग्राफ में झांकने की कोशिश करता हूं --लेकिन अगर वहां पर भी यह समस्या दिखती है तो आप को पता ही है कि हम लोगों के पास सब से बढ़िया हथियार जो हमें किसी भी विपदा से बचा लेता है ---माउस ---- बस क्लिक करते ही पहुंच गये कहीं के कहीं और मिल गया सभी मुसीबतों से छुटकारा। क्या ख्याल है हम सब लोग यह हथियार इस काम के लिये भी इस्तेमाल करते हैं ना ---है कि नहीं ?
इसलिये नेट पर लिखते समय बिल्कुल छोटे छोटे वाक्य, छोटे छोटे पैराग्राफ हों तो ठीक रहता है। मैं हाथ जोड़ कर सभी चिट्ठाकारों से क्षमाप्रार्थी हूं कि चाहते हुये भी मुझे बहुत ज़्यादा पढ़ने का अवसर नहीं मिल पाता ---सर्विस की वजह से मसरूफ रहना, फिर अपने लेख लिखने के लिये रिसर्च करना ....। लेकिन मुझे इस समय समीर लाल जी की उड़न तश्तरी और रवि रतलामी जी के ब्लाग का ध्यान आ रहा है ---वाक्यों की रचना में और पैराग्राफ की लंबाई में वे इस के बारे में बहुत सजग हैं। लेखों की लंबाई के बारे में फिर कभी सोचेंगे।
क्या है ना ---वेब पर बैठा आदमी इतनी जल्दी से है कि उसे तो बस बुलेटेड लि्स्ट के माध्यम से जानकारी चाहिये ---यानि 1,2,3 ........और यह गया लेख और वह हो गया फ्री। ऐसे में यह काफी हद तक हमारे ऊपर है कि कैसे कम उस का ध्यान अपने लेख की तरफ़ लेकर आएं और उसे वही टिकने पर मजबूर कर दें।
इस पोस्ट को इधर ही खत्म करता हूं --कहीं आप यह ही न समझ लें कि यार तू दांव पेच क्या दिखायेगा ---तुम तो स्वयं ही उन्हें फॉलो नहीं करते । सो, इसी डर के साथ यहीं विराम लेता हूं ---अगली पोस्ट कुछ घंटों के बाद।

बुधवार, 31 दिसंबर 2008

पाबला जी के नाम पत्र –

पाबला जी, सति श्री अकाल -
सब से पहले तो आप का धन्यवाद इस बात के लिये करना चाहूंगा कि आप ने मेरा एक लेख पढ़ने के बाद उस पर एक बहुत अच्छी पोस्ट लिखी – उसे पढ़ कर बहुत अच्छा लगा – मैं यह केवल औपचारिक तौर पर ही नहीं कह रहा हूं बल्कि आप के साथ विस्तार से अपने विचार बांटने की कोशिश करता हूं।

जब कोई हमारे लेखन के बारे में बताता है तो मैं समझता हूं वह हिंदी भाषा के साथ साथ हमारी भी बहुत सेवा कर रहा है --- मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ --- एक बात है ना कि पाबला जी अगर कोई ठीक तरह से समझायेगा तो ही सुधरने की गुंजाईश रहती है। इसलिये भी मैं आप का बहुत धन्यवादी हूं।

आप ने लिखा कि मेरे ब्लॉग पर अंग्रेज़ी शब्दों की भरमार होती है – आप ने बिल्कुल सही कहा – और उसी दिन से मैंने यह ठान ली है कि जितना हो सकेगा इस तरफ़ दिया करूंगा। और अगर कभी कोई किसी भारी भरकम अंग्रेज़ी के शब्द का इस्तेमाल करना भी पड़ा तो शिष्टाचार वश उस के साथ ही एक प्रकोष्ठ में उस का हिंदी में शब्दार्थ लिख दिया करूंगा।

मैं आज ही सुबह देख रहा था कि अपने ज्ञानदत्त पांडे जी के चिट्ठे पर उन की आज की पोस्ट में उन्होंने एक अंग्रेज़ी शब्द को देवनागरी में लिखा तो लेकिन उस के साथ ही ब्रैकट डाल कर उस का हिंदी में शब्दार्थ भी लिख दिया –यह देख कर अच्छा लगा और कोशिश करूंगा कि नॉन-मैडीकल शब्दों के लिये मैं भी कुछ इस तरह की व्यवस्था कर दिया करूं ।

आपने बिल्कुल सही कहा कि जैसे चोपड़ा का सिर किसी शुद्ध हिंदी की साइट पर जाकर भारी होता है ,ठीक उसी तरह से किसी हिंदी प्रेमी का मेरी ब्लाग पर आने के बाद अंग्रेज़ी के इतने शब्द देख कर थोड़ा बहुत नाराज़ होना स्वाभाविक ही तो है। इस बात ने मुझे अपने अंदर झांकने का मौका दिया कि यार सिर दर्द की शिकायत केवल मेरी ही नहीं है, ऐसा दूसरे लोगों के साथ भी हो सकता है जो मेरी ब्लाग पर आते होंगे और कईं बार कुछ इंगलिश के शब्दों के चक्कर में नाराज़ भी हो जाते होंगे।

और एक बहुत ही खास बात जिस के साथ आप ने मुझे रू-ब-रू करवाया वह यह कि किसी हिंदी भाषी को क्या पड़ी है कि वह गूगल सर्च करते समय डायबिटिज़ ही लिखे --- आपने बिल्कुल सही कहा कि वह सीधे सीधे मधुमेह लिख कर ही क्यों न मधुमेह से संबंधित जानकारी प्राप्त कर लेगा ---- पाबला जी, आप के साथ पूरी तरह से सहमत हूं और विशेषकर जब मैंने इन दोनों तरीकों से गूगल-सर्च के नतीजे देखे तो मेरी तो आंखें ही खुल गईं।

आप ने बिल्कुल दुरूस्त कहा कि हम लोग वैसे भी तो कईं बातें सीखते ही हैं फिर हिंदी को भी सुधारने के लिये हमेशा प्रयासरत रहना चाहिये --- ऐसा ही होगा --- और ऐसा करने के लिये हम लोगों को किसी जगह जाने की ज़रूरत भी तो नहीं है --- हिंदी के चिट्ठों पर ही सब कुछ मिल जाता है – आज सुबह वकील साहब ( दिनेशराय द्विवेदी जी) की पोस्ट देखी जिस में उन्होंने विराम, अल्पविराम आदि के बारे में इतनी सहजता से समझा दिया कि क्या कहें !!

दरअसल मेरी बस एक ही समस्या है कि जब मैं किसी चिट्ठे पर हिंदी के बहुत बहुत कठिन शब्द देखता हूं तो मेरी ध्यान फिर वहां लगता नहीं ---- अब आप सोच रहे होंगे कि इस का क्या है यार, एक हिंदी की अच्छी सी डिक्शनरी खरीद लो ना --- दरअसल पाबला जी, शब्द कोषों का तो पूरा संग्रह है लेकिन बस तुरंत उस का शब्दार्थ देखने का आलस्य ही कर जाता हूं।

लेकिन अभी लिखते लिखते ही ध्यान आ रहा है कि अब एक ही चंद शब्दों को उस समय किसी कागज़ पर लिख लिया करूंगा और बाद में किसी समय उस का मतलब ढूंढ लिया करूंगा --- यहां मुझे ध्यान आ रहा है शास्त्री जी का ( sarathi.info) – मुझे लगता है कि वह हिंदी भाषी नहीं है लेकिन उन का भाषा ज्ञान देख कर मैं अकसर दंग रह जाता हूं। सीखने की सौभाग्यवश कोई भी सीमा होती नहीं है इसलिये मैं भी कोशिश करूंगा कि अपनी हिंदी में थोड़ा बहुत सुधार लाता चला जाऊं।

सोच रहा हूं कि एक ऐसा ब्लाग शुरू करूं जिस पर दिन में जितने कठिन शब्द देखे उन 8-10 शब्दों का शब्दार्थ उस में लिखा करूं --- इस समय यही विचार बन रहा है कि इस से एक तो आप सब हिंदी के विद्वानों को यह पता चलता रहेगा कि हिंदी के एक औसत पाठक का स्तर क्या है – उसे क्या मुश्किल लग रहा है , वह कितना समझ पा रहा है --- सोचता हूं यह काम तो शीघ्र शुरू करूंगा – स्वयं मेरे को भी इस से लाभ होगा और शेष हिंदी का औसर ज्ञान रखने वाले ( मेरे जैसे) बंधुओं के लिये भी यह ब्लॉग उपयोगी होगा --- इस के बारे में आप का क्या ख्याल है, लिखियेगा।

बस, अभी तो कहने को इतना ही है, पाबला जी, पत्र यहीं बंद कर रहा हूं --- आप को पत्र लिख कर बहुत अच्छा लगा --- और आप सब को भी नववर्ष की बहुत बहुत शुभकामनायें। और जाते जाते यह बताना चाहूंगा कि आप की पोस्ट देख कर बहुत ही अच्छा लगा --- आप ने कहा था कि मैं इसे अन्यथा न लूं ---वैसे तो सर उन में ऐसा कुछ था ही नहीं कि जिसे मेरे जैसा तुच्छ व्यक्ति अन्यथा ले सके और दूसरा यह कि मेरी खाल बहुत मोटी है । इसलिये आप से सविनय अनुरोध है कि भविष्य में भी अपना भाई समझ कर उचित मार्ग-दर्शन करते रहियेगा। शुभकामनाओं सहित,

प्रवीण
यमुनानगर

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

ब्लॉगिंग की डगर की मेरी रूकावटें ...

एक साल से ज़्यादा हो गया है इस ब्लॉगिंग के चक्कर में पड़े हुये ---लेकिन बहुत बार बहुत कुछ लिखना चाहते हुये भी आलस्य कर जाता हूं- इस के कारण आज आप के समक्ष बैठ कर ढूंढने का प्रयास कर रहा हूं ---

1. एक कारण इस आलस्य का यह है कि मुझे मोबाइल फोन से कंप्यूटर में या लैपटाप में तस्वीरें ट्रांस्फर करने का ज्ञान नहीं है। और पिछले एक साल से ही सोच रहा हूं कि यह काम सीखना है --- लेकिन बस सोचता ही रहता हूं। मेरे पास इतनी इतनी बढ़िया तस्वीरों का संग्रह है कि क्या बतलाऊं ---- मुझे पता है कि यह सीखना 10-15 मिनट का काम है । लेकिन पता नहीं कभी इच्छा ही नहीं होती --- लेकिन इस चक्कर में मेरे लेखन पर बहुत ही ज़्यादा असर पड़ रहा है, इसलिये अब सोचता हूं कि इस काम को गंभीरता से लेकर इन तस्वीरों को लैपटाप पर ट्रांसफर करना भी सीख ही लूंगा।

इस आलस्य का एक कारण यह भी है कि हमारे घर में इतनी ज़्यादा तारें हैं कि मैं उन्हें देख देख कर कंफ्यूज़ ही रहता हूं। बस, मेरा तो नेट लग जाये तो मैं इत्मीनान कर लेता हूं। इतनी ज़्यादा तारें होने की वजह से जिस वक्त जिस केबल की ज़रूरत होती है वही नहीं मिलती, बस सब कुछ मिल जाता है। इस अव्यवस्था में मेरे बेटों की भी काफ़ी भूमिका है ---- कभी इन उपकरणों को व्यवस्थित करने की उन्होंने भी कोशिश नहीं की।

2. दूसरा कारण भी वैसे तो इस से मिलता जुलता ही है कि एक अच्छे खासे डिजीटल कैमरे से तस्वीरें लैप-टाप में ट्रांस्फर करना अभी मैंने सीखा नहीं है और छोटी छोटी बात के लिये मुझे किसी के ऊपर निर्भर रहना कुछ ठीक नहीं लगता। इसलिये बस उस में बंद तस्वीरें उस में ही बंद रहती हैं जब तक कि कोई उन को लैपटाप में या कंप्यूटर में ट्रांस्फर न कर दे।

लेकिन अब सोचता हूं कि अगर चिट्ठाकारी करनी है तो इन सब बातों का कार्यसाधक ज्ञान तो होना बहुत ही ज़रूरी है और विशेषकर अगर आप किसी विज्ञान से संबंधित विषय पर लिख रहे हैं तो इन उपकरणों की ज़रूरत तो और भी बढ़ जाती है।

3. तीसरा कारण है कि मैं बड़ा परफैक्शनिस्ट किस्म का इंसान हूं ---जब तक मैं किसी बात के बारे में स्वयं पूरी तरह से आश्वस्त न हो लूं, मैं उसे पब्लिक डोमेन पर डालना उचित नहीं समझता हूं। वैसे चिकित्सा जैसे विषय में अगर कोई लिख रहा है तो यह विश्वसनीयता बेहद आवश्यक है ---वरना लिखने के नाम तो बहुत कुछ लिखा जा ही रहा है। तो, इस लिये सब तथ्य जुटाने के चक्कर में कईं बार थोड़ी ऊब सी होने लगती है।

लेकिन पता नहीं यही कारण है कि मैंने अपनी कुछ पोस्टों में अपने व्यक्तिगत जीवन, प्रोफैशनल जीवन से उठाकर इतनी गहरी बातें इन चिट्ठों पर डाल दी हैं कि मैं अपने आप को बिल्कुल खाली समझने लगा हूं --- एकदम हल्का। इतना हल्का कि जिन जिन विषयों पर मैं लिख चुका हूं उन के बारे में मेरे द्वारा कुछ भी और कहना बचा नहीं है ।
और इतना भी जानता हूं कि जब कभी इस चिट्ठा पर कोई किताब छापने की खुराफ़ात सवार होगी (मुझे पता है कि देर-सवेर यह होगी ही !!) तो बिना किसी संपादन के ही इसे छपवा दूंगा और सारी टिप्पणीयां भी साथ ही लगी रहने दूंगा ---यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि चिट्ठाकारी पर छपने वाली किताब की महक इसी तरह ही कायम रह सकती है।

4. ब्लागिंग को सुंदर बनाना नहीं आता ---सुंदर से मेरा भाव है कि कुछ एचटीएमएल नुस्खों के द्वारा किस तरह से ब्लाग को सुंदर बनाया जा सकता है इसे सीखने की मेरी इच्छा तो बहुत है लेकिन पता नहीं कुछ बात बन ही नहीं रही । अब मैं समझता हूं कि पोस्ट में हाइलाइटिंग होनी बहुत ज़रूरी है लेकिन पता नहीं बार बार भूल जाता हूं । अब सोचता हूं कि ये सब बातें जब सीखूंगा तो किसी नोटबुक में नोट कर लिया करूंगा।

5. बहुत बार अतीत में चला जाता हूं --- सब से पहले मैंने 9-10 साल सर्विस बंबई में की ---बहुत अच्छा था ---बंबई सैंट्रल में ही हम लोग रहते थे ---शाम को कभी चौपाटी, कभी मैरीन ड्राइव, कभी नरीमन प्वाईंट और कुछ नहीं तो बंबई सैंट्रल स्टेशन का पांच नंबर प्लेटफार्म ही इतना लंबा था कि अपनी बिल्डिंग से नीचे उतर कर वहां पर ही पंद्रह बीस मिनट टहल लिया करते थे। बंबई में मैंने बहुत कुछ सीखा --- इस नगरी में भी ऐसी बात है कि जब आदमी वहां पर रह रहा होता है तो लगता है कि कैसे भी हो, बस यहां से भाग लिया जाये लेकिन जब यह नगरी छूट जाती है तो इस की बहुत ही ज़्यादा याद आती है --- और अब जहां पर हूं वहां पर किसी जगह घूमने जाने का आलस्य ही लगा रहता है ---- अजीब सी सड़के, ट्रैफिक की कोई इतनी व्यवस्था नहीं, सड़कों पर स्ट्रीट लाइटें कभी जल पड़ी कभी बंद रहीं ----- बस, यूं कह लीजिये कि जैसे तैसे कट रही है। इसलिये ये सब बातें जब सोचने लग जाता हूं तो कुछ भी लिखने की इच्छा नहीं होती।
लेकिन यह कोई मेरी ब्लागिंग के लिये इतनी बड़ी रूकावट नहीं है ---- यह बहानेबाजी ज़्यादा है ।

वैसे इतना लंबी चौड़ी पोस्ट लिखने के बाद लग रहा है कि यार, ये रूकावटें भी क्या कोई रूकावटें हैं ---- अपने आप से कह रहा हूं कि बहाने बनाने छोड़ और ब्लागिंग को गंभीरता से लेना शुरू कर ---- और ध्यान आ रहा है कि मुझे तो इस प्रभु का बार बार शुक्रिया अदा करना चाहिये कि मैं एक ऐसे प्रोफैशन में हूं जिस में जनता-जनार्दन की सेवा कर सकता हूं, कंप्यूटर है, इंटरनैट है, अच्छी भली सोच है और अंगुलियां दुरूस्त हैं लिखने के लिये तो इस के इलावा तो जो भी रूकावटें गिना डाली हैं वे तो वास्तव में कोई रूकावट न हुईं।

देखिये, जब हम लोग कलम उठा लेते हैं तो हमें बहुत सी बातें अपने आप ही समझ आने लगती हैं ---जैसे मुझे आज यह आभास हो गया है कि मैं अपनी ब्लागिंग की डगर पर आने वाली जिन रूकावटों की बात कर रहा हूं वे तो बहुत ही तुच्छ हैं । तो इसलिये यह निश्चय किया है कि अगले तीन-चार दिनों में ही ऊपर लिखी सभी रूकावटों को दूर करने की पूरी पूरी कोशिश करूंगा ---ताकि पहली जनवरी 2009 से जो पोस्टें लिखूं उन को अपने ढंग से लिखूं ----- न तो फोटो डालने के लिये कोई आलस्य हो और न ही हाइलाइटिंग के नाम से ही घबराना पड़े
---------------इसे आप मेरा नव-वर्ष का अग्रिम संकल्प जान लीजिये या कुछ और, लेकिन नये वर्ष में मैं अपने चिट्ठे को नय रूप, नया स्वरूप देने का वायदा अपने आप से कर रहा हूं।

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

हर कागज़ बहुत कुछ कह देता है –

इस समय मेरे सामने एक दिल्ली के बहुत ही मशहूर मैडीकल विशेषज्ञ का पर्चा पड़ा हुआ है --- यह एक A-4साइज के पर्चे का फोटोस्टैट है जिसे मैंने अपने एक मरीज़ से मांग लिया था। मैंने भी इस तरह का पर्चा लाइफ़ में पहली बार ही देखा था--- आप भी सोच रहे होंगे कि ऐसी भी क्या मरीज़ को बीमारी थी कि मुझे उस में इतनी दिलचस्पी हुई कि मैंने उस की फोटोस्टैट ही अपने पास रख ली। लेकिन बात दरअसल मरीज़ की बीमारी की नहीं थी – यह तो बात ही कुछ और थी ।

हां तो उस पर्चे की खासियत यह थी कि उस के फ्रंट का लगभग 75 फीसदी हिस्सा ( शायद यह 70 फीसदी हो सकता है, लेकिन इस से कम तो कतई नहीं !!)- तो पद्मश्री एवं पद्मविभूषण डाक्टर साहब ने ही घेर रखा था – इस में डाक्टर साहब के बारे में पूरी सूचना छपी हुई थी --- तीन चार पंक्तियों में डिग्रीयां, और फिर 25-30 लाइनों में उन जगहों के नाम लिखे हुये थे जहां पर उन्होंने पहले काम किया है –अगली सात-आठ लाइनों में अवार्ड्स की चर्चा थी, फिर था Please note का शीर्षक था जिन ने 10-15 लाइनें घेर रखी थीं जिन में कुछ पंक्तियों में यह लिखा था –
Home visits Not undertaken मरीज़ को घर देखने नहीं जाया जायेगा।
Punctuality is not assured समय के अनुपालन का कोई वायदा नहीं है।
Appointments can be cancelled at short notice. अपवायंटमैंट को किसी भी समय रद्द किया जा सकता है।

अगली 10-15 लाइनों में लिखा हुआ है कि डाक्टर साहब के पास किस किस संस्था की फैलोशिप है- और आगे बारी आती है उन संस्थाओं के नाम की जिन के लाइफ-मैंबरशिप डाक्टर साहब ने ले रखी है। यह तो हो गया, उस पेज का पचास प्रतिशत हिस्सा ।

शेष 25 फीसदी हिस्सा उन सभी क्लीनिकों के बारे में बता रहा होता है जहां जहां डाक्टर बाबू जाया करते हैं।
बस, यार मेरा सिर दुखने लग गया है इतनी बारीक जानकारी पढ़ते पढ़ते --- लेकिन चलिये उन के पैड की पिछली साइड को भी देख लें --- उस का लगभग 30 फीसदी हिस्सा भी कुछ हिदायतें देता है और मरीज़ों को यह कह कर भी डराता है कि किसी किस्म की ज़िम्मेदारी नहीं होगी ----बिल्कुल वैसा लग रहा है जैसा हिंदी के अखबार में विज्ञापनों के बीचों बीच एक नोटिस रहता है कि विज्ञापनों के बारे में हमारी कोई जिम्मेदारी है नहीं – और हां, उसी पेज़ पर एक विस्तृत नक्शा भी बना हुआ है कि किस तरह इन डाक्टर महोदय के पास पहुंचा जा सकता है। चलिये, मरीज़ की सहूलियत के लिये यह भी ठीक है लेकिन उसे देख कर किसी शादी के कार्ड पर किसी बारात-घर तक पहुंचने का नक्शा ज़रूर ध्यान में आ गया।

जिस मरीज़ का यह पर्चा था ( वह खुदा को प्यारा हो चुका है – मुझे उसे देख कर बहुत खुशी होती थी – अस्सी के आस पास था लेकिन एकदम फिट एंड फाइन दिखता था – मैं उस को अकसर कहा करता था कि आप तो बिल्कुल रिटायर्ड जज दिखते हो- वह बहुत हंसता था। एक बार मैंने उसे कहा कि अब की बार दिल्ली जब अपने डाक्टर को मिलने जाओगे तो उस से यह भी पूछ कर आना कि क्या उन्होंने हार्ट की बीमारी से बचाव के कोई पैंफलैट छपवाये हुये हैं तो उस ने मुझे कहा कि डाक्टर साहब, मैं कोशिश करूंगा ---क्योंकि सभी मरीज़ उस से बहुत डरते हैं ----उस के साथ केवल मतलब की एक-दो बात ही करनी होती है, वरना वह बहुत भड़क जाता है । उस के बाद मैंने उस डाक्टर के बारे में उस से कोई बात ही कभी नहीं की, बस यह उस का यह नुस्खा मेरे पास धड़ा-पड़ा है, और शायद मैं किसी डाक्टर का इतना रोचक पैड फिर कभी देख न पाऊं।

यह तो हो गई उस दिल्ली वाले डाक्टर की और मेरे मरीज़ की राम-कहानी – लेकिन इस के माध्यम से मैं बात केवल इतनी ही रेखांकित करना चाह रहा हूं कि हर कागज़ बहुत कुछ कहता है ----इतना कुछ कि मैं शायद ब्यां करने में असमर्थ हूं – ऊपर उदाहरण तो आपने देख ही ली – लेकिन चलिये लिखावट की भी बात कर लेते हैं ----हम किसी को कोई चिट्ठी भेजते हैं तो हमारी लिखावट ही बहुत कुछ हमारे व्यक्तित्व के बारे में बता देती है।
यहां तक कि कागज़ किस किस्म है यह भी बहुत कुछ बता देता है कि लिखने वाला जिसे लिख रहा है उस की नज़रों में उस की क्या हैसियत है । याद आ गया ना कि प्रेमी-प्रेमिका किस तरह से खत लिखने के लिये नये नये राइटिंग पैड मार्कीट में ढूंढा करते हैं।

पेपर की क्वालिटी भी बहुत कुछ कहती है --- जहां पर हम लोग बिल्कुल लापरवाही से लिखते हैं हम कोई भी कागज़ इस्तेमाल कर लेते हैं, वरना हम लोग कागज़ के बारे में बहुत सचेत होते हैं ।

किसी शादी के कार्ड की प्रिंटिंग, उस का पेपर भी बहुत कुछ बोलता है और हां, तरह तरह के विजिटिंग कार्ड भी अपने मालिक के बारे में कितना कुछ कह जाते है।

बात केवल इतनी सी है कि हमारा लैटर पैड, हमारे हाथ का लिखा खत, हमारा विज़िटिंग कार्ड, हमारे द्वारा भेजा किसी को आमंत्रण, आदि कुछ ऐसे दस्तावेज़ हैं जो कि हमारे ब्रांड- अम्बैसेडर हैं ----लेकिन अकसर लोग इन को इतनी गंभीरता से लेते नहीं – और कुछ भी चला लेते हैं ----लेकिन हमेशा याद रखिये कि हर कागज़ हमारे बारे में बहुत कुछ बोलता है ---- ठीक उस गाने की तरह जिस के बोल हैं -----लाख छिपाओ छुप न सकेगा , राज़ यह दिल का गहरा, दिल की बात बता देता है, असली नकली चेहरा।

वैसा पता नहीं ऐसा करना चाहिये कि नहीं, लेकिन मैं इन छोटे छोटे कागज़ी कलपुर्ज़ों के आधार पर ही किसी भी आदमी का थोड़ा बहुत चरित्र-चित्रण कर लेता हूं --- वैसे मुझे खुद पता नहीं कि मैंने आज इतनी बड़ी ढींग कैसे हांक दी है !!

रविवार, 23 नवंबर 2008

मुझे नेट पर हिंदी लिखना किसने सिखाया ?-हिंदी ब्लागिंग में एक साल --थैंक्स गिविंग !!



ब्लागिंग करते करते एक साल हो गया .....सोच रहा हूं कि बढ़िया टाइम-पास है...जो भी मन में है लिख कर हल्कापन महसूस होने लगता है। पहले अखबारों के लिये लिखा करता था लेकिन जब से नेट पर लिखना शुरू किया पता नहीं कभी भी अखबार में कभी भी कोई लेख भेजा ही नहीं ----पता है इस का क्या कारण है ?---न ही टका वहां मिलता था और न ही यहां मिलता है , लेकिन यहां यह संतुष्टि है कि हम लोग अपनी मर्जी के मालिक हैं ---जो चाहा, लिख लिया, और बंदा खुश।

अखबारों के लिये पहले लेख लिखो---फिर फैक्स करो, उस के बाद दो-तीन बार फोन कर के कंफर्म करो कि ठीक तरह से रिसीव हो गया है कि नहीं--- यह सब बहुत किया ---कईं साल किया ---खीझ खीझ कर किया ---लेकिन इस के इलावा अपनी बात जनमानस तक पहुंचाने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। और उस समय तो बहुतत ही चिढ़ हुआ करती थी जब अखबार के दफ्तर में काम कर रहा कोई बारहवीं पास या अंडर-ग्रेजुएट छोरा लेखों को इवैल्यूएट किया करता था - बस, जैसे तैसे समय पास हो रहा था ----पिछले साल नवंबर के महीने की 15-20 तारीख के आसपास एक संपादक ने मुझे हिंदी लेख ई-मेल के माध्यम से भेजने के लिये कहा था।

मेरी बेटे से बात हुई ----उस ने दो-चार दिन में बड़ी मेहनत करने के बाद पता नहीं कहां से यह पता कर के मुझे बता दिया कि Alt +Shift दबाने से हिंदी लिखी जा सकती है, ऐसे ही हिंदी में ई-मेल भेजी जा सकती है यह भी उसने ही मुझे बतलाया और फिर पता नहीं कहां से रविरतलामी जी के हिंदी ब्लाग का पता उस ने ही ढूंढ निकाला ---उन के ब्लाग से पहली बार जाना कि हिंदी में भी ब्लागरी हो रही है ......बस, दो चार दिन हैरान होने के बाद 21 नवंबर 2007 को ब्लाग पर पहली पोस्ट ठेल ही दी। चूंकि मुझे इन्स्क्रिप्ट टाईपिंग का पिछले कईं सालों से अभ्यास था तो नेट पर हिंदी लिखने में कोई दिक्कत नहीं हुई । ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत जैसे हिंदी ब्लाग ऐगरीगेटरों के बारे में भी मुझे बताने वाला विशाल ही है।

तो मेरे इस हिंदी ब्लागिंग में घुसने का पूरा श्रेष्य मैं अपने बेटे विशाल को देता हूं ---तब वह +2 में पढ़ रहा था लेकिन फिर भी मेरे हर प्रश्न का जवाब देने के लिये सदैव तत्पर रहता था ---कईं बार तो अपनी पढ़ाई छोड़ कर मेरे पास बैठ जाता था ---आज कल वह कंप्यूटर इंजीनियरिंग कर रहा है -----( नहीं, नही, डाक्टरी नहीं, उस की कभी इस में रूचि ही नहीं थी ) ----मुझे कुछ पता नहीं था कि इमेज़ कैसे डालना है ब्लाग में, यू-टयूब से लिंक कैसे डालने है और इस के साथ साथ और भी बहुत सी बातें जो उस ने मुझे बतलाई। इस दौरान कईं बार तो इरीटेट भी हुआ खास कर उस समय जब मैं उस के इंटरनैट टाइम पर एनक्रोच कर जाता था ----- गर्मी खा कर बहुत बार यह भी कह देता है कि पापा, देख लेना मैं किसी दिन आप का गूगल एकाऊंट ही उड़ा दूंगा ----और यह बात तो बहुत बार कह चुका है कि पापा, मैं तो पछता रहा हूं उस दिन को जिस दिन मैं आप को यह बता बैठा कि हिंदी ब्लागिंग नाम की भी कोई चीज़ है। खैर, एक दो मिनट के बाद अपनी कही हुई बात भूल जाता है।

थैंक-यू विशाल

कुछ बातें जो मैंने नेट पर आ कर सीखी है वह यह है कि ब्लागिंग करने से मन हल्का हो जाता है -----यह एक बढ़िया स्ट्रैस-मैनेजमैंट है -----और जब ब्लाग लिखना शुरू किया था तो कोई एजैंडा था नहीं ----बस अपने आप ही एक बात से दूसरी बात निकलती गई। यहां तक कि एक पोस्ट लिखते वक्त भी कुछ खास मन में होता नहीं ----बस लिखते लिखते कलम अपने आप चल निकलती है।

ब्लॉग का असर ------ आज कल अखबारों में कईं बार आप एक कॉलम देखते हैं ना ----खबर का असर। ठीक उसी प्रकार आज मैं ब्लाग का असर बता रहा हूं -----मैंने कुछ महीने पहले एक पोस्ट लिखी थी कि मोटापा कम करने का सुपरहिट फार्मूला ------इस में मैंने अपने खान-पान के बारे में विस्तार से लिखा ----इस पोस्ट पर कुछ कमैंट्स मिले और वैसे भी पोस्ट लिखते लिखते ही मैं अपने खाने पीने के तौर-तरीके देख कर डर सा गया और उसी दिन से पूरा परहेज़ करना शुरू कर दिया और इसी चक्कर में चार-महीनों में लगभग आठ किलो वज़न कम हो गया---इसलिये हल्कापन महसूस होने लगा है।

मुझे याद है हमारे गुरू जी ब्रह्मषि श्री ऋषि प्रभाकर जी अकसर यही कहते हैं कि किसी विद्या को जीवित रखने के लिये या उसे जीने के लिये सब से बढ़िया है कि तुम उस को दूसरों को सिखाना शुरू कर दो -----दूसरों को पढ़ाना शुरू कर दो ----वे कहते हैं कि इस ज्ञान को दूसरों के साथ बे-धड़क हो कर बांटने का मतलब है कि तुम जितनी बार भी कोई बात किसी से कह रहे हो उतनी ही बार अपने आप से भी तो कह रहे हो ---इसलिये वह बात तुम्हें भी पक्की हो जाती है। इसी चक्कर में मेरे खान-पान में सुधार हुआ है और मैंने प्रातःकाल का भ्रमण शुरू कर दिया है -----अब तो मुझे केवल यह जानने की उत्सुकता हो रही है कि क्या आपने यह सब करना शुरू किया है कि नहीं ----कम से कम नमक का इस्तेमाल तो कम कर ही दिया होगा। चलिये, अच्छा है , खुश रहें, स्वस्थ रहें ----यूं ही लगे रहिये।

रविवार, 14 सितंबर 2008

यह कैसी हिंदी है......कोरी सिरदर्दी है, दोस्तो।


कुछ दिन पहले जब मैं बाहर गया हुआ था तो मुझे मेरे बेटे की ई-मेल मिली ....खासी लंबी थी....इतनी लंबी कि मुझे उसे पढ़ते पढ़ते उस पर खीझ आ रही थी। लिखी तो उस बेचारे ने बहुत आत्मीयता से थी, लेकिन पता है उस खीझ का कारण क्या था.....वह रोमन स्क्रिप्ट में लिखी गई थी। अर्थात् ......Papa, aur aap kaise hain…….and so on……

ई-मेल तो पहले भी वह रोमन स्क्रिप्ट में कईं बार भेजता है, लेकिन कभी ये इतनी अखरती नहीं थीं। शायद इसलिये क्यों कि ये बिल्कुल छोटी छोटी हुआ करती थीं। लेकिन उस लंबी सी मेल को रोमन में पढ़ना ......मैं इतना बोर हुआ कि क्या बताऊं.......बिल्कुल सिरदर्दी सी लगी।

और जब मैं बेटे को मिला तो मैंने उसे कहा है कि यार, देख , तुम तो मुझे मेल इंगलिश में ही किया करो....और अगर तुम्हें हिंदी लिखनी ही हो तो देवनागरी में क्विल-पैड की मदद से लिखा करो।

चूंकि क्विल-पैड में लिखना भी थोड़ा जटिल तो है ही, इसलिये बेहतर यही  होगा कि रोमन में हिंदी लिखने वाले अपनी मेल को जितनी छोटी रखे उतना ही बढ़िया है, वरना तो भई रोमन में हिंदी पढ़ने वाले के सब्र का इम्तिहान हो जाता है। मैं तो यह सोचता हूं कि हिंदी-ब्लागरी में टिपियाते समय भी हमें इस बार का ध्यान रख लेना चाहिये। 
कितनी बार मैं अंग्रेज़ी अखबारों में या कईं बार हिंदी के अखबारों में भी पूरे पन्ने वाले या आधे-पन्ने वाले ऐसे विज्ञापन देखता हूं जो कहने को तो हिंदी में होते हैं लेकिन लिखे होते हैं...रोमन में। इन्हें देख कर भी बहुत अजीब सा लगता है।
सीधी सी बात है कि किसी भी जुबान का फ्लेवर उस की उचित लिपि के साथ ही कायम रह सकता है। वरना वही बात लगती है जिस तरह से थ्री-पीस सूट के साथ बाटा की हवाई चप्पल पहन ली  जाये .....इन दोनों का जैसे कोई मेल नहीं है, उसी तरह से सीधी-सादी हिंदी भाषा को भी अंग्रेज़ी एल्फाबेट का सूट-बूट न ही पहनायें तो बेहतर होगा.....कम से कम पढ़ने वाले का सिर तो नहीं दुःखेगा।

रही बात नेट पर हिंदी लिखने की.......इतने सारे साफ्टवेयर मौजूद हैं...जैसे www.quillpad.com या फिर सब से बढ़िया है कि inscript हिंदी टाइपिंग ही सीख ली जाये.......इसे सीखना बहुत आसान है .....आप अपने कंप्यूटर पर ही इसे सीख सकते हैं.......5-7 दिन में ही की-बोर्ड पर अंगुलियां चलनी शुरू हो जाती हैं....बाकी तो प्रैक्टिस की बात है।
अच्छी तो भई हिंदी टाइपिंग तो आप अपनी फुर्सत में देख लीजियेगा........लेकिन अगर हिंदी को रोमन में लिखना हो तो प्लीज़ लंबी लंबी बातें लिखने से ज़रा गुरेज करें तो बेहतर होगा। 

शनिवार, 26 जुलाई 2008

यह मैंने भी क्या लिख दिया !!

मेरे साथ कईं बार ऐसा होता है कि जब मैं अपनी किसी पुरानी पोस्ट को पढ़ता हूं तो लगता है कि यार, यह मैंने भीक्या लिख दिया। शायद कभी कभी थोड़ी एम्बैरेसमैंट भी होती है और लगता है कि चलो, यार, कौन देख रहा है, डिलीट कर देता हूं। लेकिन मैंने आज तक अपनी किसी भी पोस्ट को इस कारण की वजह से डिलीट नहीं किया कियार, उस दिन पता नहीं क्या मूड था, क्या परिस्थितियां थीं कि ऐसा कुछ लिखा गया।

मैं सोचता हूं कि जिस घड़ी में हम जो लिख रहे हैं...अगर मैं पूरी इमानदारी से लिख रहा हूं तो वह उस समय की मेरीअंतररात्मा की आवाज़ है। और जो भी उस समय मन लिखने को कह रहा है, मैं लिख रहा हूं...तो फिर इस मेंएम्बैरेसमैंट आखिर कहां से गई। खुल कर आने दो अपने विचार दुनिया के सामने.....काले हैं, गोरे हैं, रंग-बिरंगेहैं या मटमैले हैं...विचार तो मेरे ही हैं, तो फिर इस से क्या घबराना।

मुझे लगता है कि अपनी किसी भी पुरानी पोस्ट को इस तरह के छोटे मोटे कारणों की वजह से डिलीट कर के हमलोग अपना ही नुकसान कर रहे हैं.......मैं समझता हूं कि यह सच्चाई से भागने वाली बात है। जो भी है, जो भीलिखा है , हमें उस पर स्टैंड करना चाहिये।

एक विचार और भी रहा है कि अगर हम लोग अपनी किसी पोस्ट को एडिट भी करें तो हमें पोस्ट की बॉडी में हीडेट डाल कर यह बता देना चाहिये कि मैं इस तारीख को इस पोस्ट को इन कारणों से एडिट कर रहा हूं। मैं समझताहूं कि इस से हमारी बात की विश्वसनीयता बढ़ती है। वैसे पोस्ट के नीचे तो ही जाता है जब हम लोग अपनीकिसी पोस्ट का संपादन करते हैं , लेकिन अगर पोस्ट की बॉडी में ही इस तरह की बात हो जाये तो अच्छा रहेगा।

अपनी किसी पुरानी पोस्ट को डिलीट करने की बात से ध्यान रहा है कि जब ब्लाग का नाम ही है.....वेबलॉग.....अर्थात् हम लोग जब अपनी एक डायरी ही लिख रहे हैं तो उस में इतना हो-हल्ला क्यों !!..छूटने दें जो भीकलम रंग छोड़ना चाहती है। रह रह कर वही खुशवंत सिहं जी की बात याद आती रहती है कि ऊपर वाले का शुक्र हैकि किसी ने पेन के लिये कंडोम नहीं बनाया। क्या हम लोग अपनी किसी डायरी से पुराने पन्ने निकाल कर फाड़तेहैं....क्या उन्हें इरेज़ करने की कोशिश करते हैं तो फिर पुरानी किसी भी पोस्ट को डिलीट करने का विचार भी क्योंआता है ?

लेकिन यह मेरी सोच है......आप की सोच अनेकों कारणों की वजह से मेरे से भिन्न हो सकती है। यही तो अपनीडायरी लिखने का मज़ा है, यही तो स्लेट पर घसीटे मारने का मज़ा है, जो चाहो लिखो......जितनी चाहे मस्तीकरो.....और फिर मिटा दो...............नहीं, नहीं, इस नेट वाली स्लेट से कुछ भी मिटाओ....अगर ज़रूरत हो तोपोस्ट को एडिट कर लिया जाये............क्या फर्क पड़ता है।

मुझे याद है जिस दिन मैंने यह ब्लाग मेरी स्लेट शुरू की थी ....उस दिन शायद पहली पोस्ट मैंने यही लिखा था किमेरे मन में जो भी आयेगा , लिखूंगा, उस को फिर पोंछ डालूंगा, फिर कुछ नया लिखूंगा ......लेकिन आज मैं कुछअलग ही सोच रहा हूं। और एक राज़ की बात आप से शेयर करना चाह रहा हूं कि मैं अकसर अपनी पुराने पोस्टेंपढ़ता ही नहीं हूं.......अब कौन हलवाई अपनी मिठाई खाये और वह भी बासी !!

शुक्रवार, 18 जुलाई 2008

हिंदी लेखकों के लिये कमाई के साधन !!

बहुत दिनों बाद लिख रहा हूं .....लिखता हूं तो मैं अपनी मस्ती से ही लिखता हूं ....किसी बात की भी ज़्यादा परवाह लिखते समय मैं करता नहीं हूं। मैं कभी कभी सोचता हूं कि कुछ भी लिखने के लिये किसी मानदेय की अपेक्षा करना ठीक नहीं है.....लेकिन जब मैं इमानदारी से अपने मन को टटोलता हूं तो यह भी मुझे मेरी कईं अन्य बातों की तरह केवल एक ढकोंसलेबाजी ही ज़्यादा दिखती है। वैसे देखा जाये तो लेखक अपने लेख को क्यों किसी के लिये लिखे बिना पैसे के !!

मैं पिछले कईं सालों में शायद सैंकड़ों लेख लिख डाले....अपना खूब खर्च किया, फैक्स पर , फोन पर , कलर्ड प्रिंटर पर, डाक पर, स्पीड पोस्ट पर .........बहुत ही खर्च किया लेकिन कभी हिसाब नहीं रखा। शायद तब कुछ उम्र का दौर ही कुछ ऐसा था कि लगता था कि बस, यार अखबार में फोटो के साथ लेख छप गया है ना, तो बस ठीक है। लेकिन मुझे कभी भी अखबार वालों की तरफ़ से कुछ नहीं मिला।

मुझे कृपया इस पोस्ट की टिप्पणी में यह मत लिखियेगा कि लेखक का काम तो समाज सेवा ही होता है उसे पैसे वैसे से क्या लेना देना। मैं भी बहुत बार ऐसा ही सोचता हूं .....लेकिन दिल की गहराईयों में मैं बहुत कुछ और भी सोचता हूं .....वह यह कि आखिर लेखक की मेहनत की ही इस देश में कद्र क्यों नहीं है।

मैं तो अच्छी खासी नौकरी करता हूं .....ऊपर वाले की मेहरबानी है ....लेकिन फिर भी मुझे यह इच्छा तो हमेशा रही है कि यार लिखने के एवज़ में कुछ तो मिलना ही चाहिये । इसलिये जब मैं अपने उन लेखक भाईयों की तरफ़ देखता हूं कि जो अखबार में कम तनख्वाह वाली नौकरीयां कर रहे होते हैं या केवल अपने लेखन के भरोसे ही जीते हैं तो मुझे यकीन मानिये बेइंतहा दुख होता है और इसलिये ये जब धड़ाधड़ नौकरियां बदलते हैं तो मुझे लगता है कि क्या करें वे भी .....ठीक कर रहे हैं।

इमानदारी से बताऊं तो मेरा यह व्यक्तिगत विचार है कि चाहे ब्लागिंग ही हो, लेकिन जहां पर कुछ कमाई वाई नहीं दिखती तो दिल ऊब ही जाता है। मुझे तो लगता है कि यह ह्यूमन सायकालोजी है........ब्लागिंग में भी मेरे साथ यही हो रहा है।

बलागिंग में भी क्या है.......बस कमाई विज्ञापनों से ही संभव है और वह भी केवल इतनी कि किसी के ब्राड-बैंड का खर्च निकल जाता है....ऐसा मैंने पढ़ा था किसी ब्लाग पर ही । हां, हां ठीक है ब्लागिंग से मन को संतुष्टि मिलती है ......

यह बात भी बहुत अखरती है कि इंजीनियरिंग करने के तुरंत बाद ये लड़के 35-40 हजार रूपये महीना कमाना शुरू कर देते हैं ......कैंपस प्लेसमेंट हो जाती है और जर्नलिज़म करने के बाद इतने इतने तेजस्वी पत्रकार केवल तीन-चार हज़ार पर ही नौकरी हासिल कर पाते हैं.....लेकिन मैं भी पता नहीं काम की बातें पता नहीं अकसर क्यों भूल जाता हूं........ये पत्रकार-वत्रकार ( मैं भी एक क्वालीफाइड पत्रकार हूं) तो बस समाज सेवा के लिये हैं ......इन्हें क्या ज़रूरत है कि ये अपने जीवन में थोड़ी सुख-सुविधायें भोग लें.......अच्छा है अगर इन्हें घर पर एसी की आदत नहीं पड़ेगी, अच्छा घर खरीद कर भी क्या करेंगे.....इन की जाब में तो इतनी मोबिलिटी है, क्या करेंगे कोई अच्छी कार मेनटेन कर के .....विकास पत्रकारिता पर इस का बुरा प्रभाव पड़ेगा, ..........कितनी बातें और गिनाऊं ??......

बस , ब्लागिंग का यह फायदा तो उठा ही लिया....अपने मन की बात दुनिया के सामने रख कर अपने मन का बोझ हलका कर लिया । लेकिन एक उलाहना तो कुछ लेखकों के साथ रहेगा कि हम लोग दिल खोल कर अपनी ट्रेड सीक्रेट्स अपने दूसरे लेखक बंधुओं के साथ शेयर नहीं करते ।

सोमवार, 30 जून 2008

Yahoo Answers ने बना दिया टॉप-कंटरीब्यूटर

मैं पिछले लगभग दो-हफ्ते से ब्लागिंग से दूर रहा ...क्योंकि मैं याहू आंसर्ज़ में जवाब देने में व्यस्त था। बस, ऐसे ही जैसे कभी भी ब्लागिंग की धुन सवार हो जाती है , बस कुछ दिन yahoo! answers का भूत सवार रहा । इसलिये मुझे पिछले दिनों जब भी समय मिलता मैं याहू पर जवाब देने के लिये बैठ जाता। मुझे इन प्रश्नों का जवाब देने के दौरान यह तो पता चल ही गया कि वैस्टर्न -वर्ल्ड में सब कुछ इतना rosy नहीं है, उन लोगों की समस्यायें भी हम लोगों जैसी ही हैं ...और कईं कईं केसों में तो हम से भी कहीं बदतर। बस, यह बड़ा मिक्सड़ सा अनुभव रहा । वैसे मैं अपने याहू आंसर्ज़ पेज का लिंक नीचे दे रहा हूं---आप क्लिक कीजिये और फिर मुझे भी फीड-बैक दीजिये।

in.answers.yahoo.com/my/profile?show=AA10015966

हिंदी ब्लागिंग के पितामहों के लिये मेरा एक प्रश्न है कि याहू आंसर्ज़ विश्व की बहुत सी भाषाओं में उपलब्ध है....लेकिन आप को इसे हिंदी में भी लाने के लिये कुछ करना होगा.। वैसे एक रोचक बात बता रहा हूं कि पंद्रह दिन पहले जब मैंने इस पर हिंदी में लिख कर जवाब देने शुरू किये तो हिंदी बढ़िया इस पर आने लगी। मुझे लगा कि यार, यह तो बढ़िया है ...अपने देशवासियों से हिंदी के उत्तरों के माध्यम से जुड़ने का एक बढ़िया तरीकाहै यह. लेकिन यह क्या, अभी मैं आप लोगों के साथ यह सब शेयर करना ही चाह रहा था कि मुझे याहू, आंसर्ज़ से एक मेल आया कि हम आप का एक जवाब डिलीट कर रहे हैं जिस का कारण यह दिया गया कि आप की भाषा गलत है (यानि हिंदी है। )......सो, मुझे बहुत दुख हुया । सोचा, आप से यह सब तो बाद में शेयर करूंगा.....लेकिन मैं उस के बाद अंग्रेज़ी में ही जवाब देता गया । वैसे यह याहू आंसर्ज़ का अनुभव है बड़ा रोमांचक। आप सब भी इस में कूद पढ़िये।

लेकिन असली बात बतानी तो मैं भूल ही गया कि आज मैं बहुत खुश हूं .....कारण ? .......वैसे कारण कोई इतना महान भी नहीं है....बस इतना सा कारण है कि आज याहू, आंसर्ज़ वालों ने इस नाचीज़ के नाम पर टॉप-कंटरीब्यूटर ( top contributor) की मोहर लगा दी है।

सोमवार, 2 जून 2008

क्या करें नए रचनाकार....

नए लेखकों को क्या करना चाहिए ?...इस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं प्रख्यात लेखक मुद्राराक्षस। ......दोस्तो, मैंने यह जबरदस्त लेख तीन साल पहले एक अखबार में पढ़ा था, इस ने मुझे इतना कुछ कह दिया कि मैंने इस की कतरन अपनी नोटबुक में लगा रखी है। आज अपने स्टडी-रूम की सफाई करते करते जब इस कापी के ऊपर नज़र पड़ी तो सोचा कि यार, यह तो आप सब से शेयर करने वाली क्लिपिंग है। सो, इस को जैसे का तैसे ही लिख रहा हूं।
युवा रचनाकारों को कोई सलाह दे पाना मुश्किल काम है। लगभग 54 बरस हो गए हैं लिखते और छपते लेकिन हर नई चीज़ के लिए कलम उठाने से पहले गहरी उलझन होती है कि वह लिखने के लिए मेरे पास पूरी तैयारी नहीं है।
सार्त्र ने आत्मकथा में लिखा था कि लेखन एक बंदूक होता है। बंदूक सिर्फ उसका घोड़ा दबाने से ही काम नहीं करती । उससे निशाना लेने के लिए लंबे और श्रमसाध्य अभ्यास की जरूरत होती है। फिर बंदूक चलने पर निशाना ही नहीं लगाती, वह चलाने वाले को भी भरपूर धक्का देती है।
कुछ निशानेबाजी तो सिर्फ कौशल के लिए होती है और कुछ कारगर। लेखन भी बहुत कुछ ऐसी ही चीज़ है।
युवा लेखक को सलाह इसलिए भी मुश्किल काम है कि हर लेखक नई दुनिया खोजता है। उसे कौन बता सकता है कि तुम अमुक को खोजो क्योंकि जिस अमुक की सलाहें दी जाएंगी वह तो सलाह देने वाले की खोज है। क्या निराला को किसी ने बताया था कि तुम ऐसी कविता लिखो? आइन्सटाइन को किसने बताया था कि वे क्वाण्टम फिजिक्स का नया इतिहास रचें बल्कि उनके अध्यापक तो उनके काम से गहरी असहमति जताते थे। नए लेखक को एक घबराहट ज़रूर होती है कि उसकी रचना अक्सर छप नहीं पाती या संपादक अस्वीकार कर देता है। कुछ लेखकों को संयोग से यह कभी नहीं झेलना पड़ता लेकिन ऐसा कुछ झेला तो भवभूति जैसे शिखर के संस्कृत नाटककार ने भी , तभी उसने लिखा था कि धरती बहुत बड़ी है और समय निरवधि है, कभी तो लोग पहचानेंगे। और वे पहचाने गए।
निराला का विरोध भी हुआ और उनकी रचनाएं अस्वीकृत भी हुईं....तभी उन्होंने लिखा था ....एक संपादकगण निरानंद, वापस कर देते पढ़ सत्वर, दे एक पंक्ति दो में उत्तर। मुक्तिबोध तो बड़े उदाहरण हैं कि उनकी कोई कविता या निबंध की किताब उनके जीवनकाल में नहीं छपी थी। कभी-कभी किसी तेजस्वी लेखक के साथ यह भी होता है। इसके लिए भी लेखक को तैयार रहना चाहिए।
एक विनम्र सुझाव देना चाहूंगा...किसी भी रचना को लिखने से पहले व्यापक अध्ययन ज़रूरी होता है। अपने समय का ओर अपने इतिहास में जो कुछ लिखा गया वह गंभीरता से पढ़ना चाहिए। दुनिया में क्या लिखा गया, इसका भी बोध होना चाहिय, तभी पता लग सकता है कि कितना और कैसा क्या कुछ लिखा गया है। तभी यह भी पता लगता है कि जो कुछ लिखा जा चुका है उससे अलग और बेहतर कुछ कैसे लिखा जा सकता है।
PS…..मुझे लेखक मुद्राराक्षस जी की सभी बातें बहुत भा गई। हिंदी चिट्ठाकारी में बहुत से साहित्यकार हैं...अगर मुद्राराक्षस जी के लेखन एवं जीवन के बारे में बतलाने का कष्ट करेंगे तो अच्छा लगेगा।
देखिये , आज एक बार फिर इस पोस्ट को लिखने के चक्कर में मेरा स्टड़ी-रूम साफ होते होते रह गया। ....पता नहीं इस कबाड़खाने की किस्मत कब खुलेगी.....दोस्तो, यह रूम इतना ज़्यादा अव्यवस्थित है कि मुझे यहां बैठ कर कुछ लिखे पढ़े महीनों बीत जाते हैं।