बुधवार, 24 नवंबर 2010

एड्स से बचाव के लिये रोज़ाना दवाई -- यह क्या बात हुई ?

अभी मैं न्यू-यार्क टाइम्स की साइट पर यह रिपोर्ट पढ़ रहा था -- Daily Pill Greatly Lowers AIDS Risk, Study Finds. शायद आप को भी ध्यान होगा कि आज से 20-25साल पहले एक फैशन सा चला था कि मलेरिया रोग से बचने के लिये हर सप्ताह एक टैबलेट ले लें तो मलेरिया से बचे रहा जा सकता है – इस फैशन का भी जम कर विरोध हुआ था, उन दिनों मीडिया भी इतना चुस्त-दुरूस्त था नहीं, इसलिये अपने आप को समझदार समझने वाले जीव कुछ अरसा तक यह गोली खाते रहे...लेकिन बाद में धीरे धीरे यह मामला ठंडा पड़ गया। आजकल किसी को कहते नहीं सुना कि वह मलेरिया से बचने के लिये कोई गोली आदि खाता है।

एक बात और भी समझ में आती है कि जब किसी एचआईव्ही संक्रमित व्यक्ति पर काम करते हुये किसी चिकित्सा कर्मी को कोई सूई इत्यादि चुभ जाती है तो उसे भी एचआईव्ही संक्रमण से बचने के लिये दो महीने पर कुछ स्ट्रांग सी दवाईयां लेनी होती हैं ताकि वॉयरस उस के शरीर में पनप न सके –इसे पोस्ट post-exposure prophylaxis – वायरस से संपर्क होने के बाद जो एहतियात के तौर पर दवाईयां ली जाएं।

लेकिन आज इस न्यू-यार्क टाइम रिपोर्ट में यह पढ़ा कि किस तरह इस बात पर भी ज़ोरों शोरों से रिसर्च चल रही है कि जिस लोगों का हाई-रिस्क बिहेवियर है जैसे कि समलैंगी पुरूष –अगर ये रोज़ाना एंटी-वायरल दवाई की एक खुराक ले लेते हैं तो इन को एचआईव्ही संक्रमण होने का खतरा लगभग 44 फीसदी कम हो जाता है। और ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि अगर समलैंगिक पुरूषों में रोज़ाना दवाई लेने से खतरा कम हो सकता है तो फिर अन्य हाई-रिस्क लोगों जैसे की सैक्स वर्करों, ड्रग-यूज़रों (जो लोग ड्रग्स—नशा -- लेने के लिये एक दूसरे की सूई इस्तेमाल करते हैं) में भी रोज़ाना यह दवाई लेने से यह खतरा तो कम हो ही जायेगा। अभी इस पर भी ज़ोरों-शोरों से काम चल रहा है।

मैं जब यह रिपोर्ट पढ़ रहा था तो यही सोच रहा था कि इस तरह का धंधा भी देर-सवेर चल ही निकलेगा कि एचआईव्ही से बचने के लिये स्वस्थ लोग भी रोज़ाना दवाई लेनी शुरू कर देंगे। लेकिन सोचने की बात है कि यह दवाईयां फिलहाल इतनी महंगी हैं कि इन्हें खरीदना किस के बस की बात है? एक बात और भी तो है कि भारत जैसे बहुत से अन्य विकासशील देशों में जो लोग एचआईव्ही से पहले से संक्रमित है उन तक तो ये दवाईयां पहुंच नहीं पा रही हैं, ऐसे में समलैंगिकों, सैक्स वर्करों और सूई से नशा करने वालों की फिक्र ही कौन करेगा ?

रिपोर्ट पढ़ कर मुझे तो ऐसा भी लगा जैसे कि लोगों के हाई-रिस्क को दूर करने की बजाए हम लोग उन्हें एक आसान सा विकल्प उपलब्ध करवा रहे हैं कि तुम अपना काम चालू रखो, लेकिन एचआईव्ही से अपना बचाव करने के लिये रोज़ाना दवाई ले लिया करो। इस रिपोर्ट में तो यह कहा गया है कि यह दवाईयां सुरक्षित हैं, लेकिन दवाई तो दवाई है ---अगर किसी को मजबूरन लेनी पड़ती हैं तो दूसरी बात है, लेकिन अगर हाई-रिस्क बिहेवियर को ज़िंदा रखने के लिये अगर ये दवाईयां ली जाने की बात हो रही है तो बात हजम सी नहीं हो रही। आप का क्या ख्याल है?

रिपोर्ट पढ़ते पढ़ते यही ध्यान आ रहा था कि आज विश्व की समस्त विषम समस्याओं का हल क्यों भारत के पास ही है? इन सब बातों का सही इलाज अध्यात्म ही है, और कोई दूसरा पक्का उपाय इस तरह की विकृतियों को दूर करने का किसी के पास तो है नहीं। यह क्या बात है , समलैंगिक पुरूष हाई-रिस्क में चाहे लगे रहें, नशा करने वाले नशे में लिप्त रहें लेकिन एचआईव्ही संक्रमण से बचने के लिये रोज़ाना दवाई ले लिया करें---यह भी कोई बात हुई। एक तो इतनी महंगी दवाईयां, ऊपर से इतने सारे दूसरे मुद्दे और बस यहां फिक्र हो रही है कि किस तरह से उसे संक्रमण से बचा लिया जाए। बचा लो, भाई, अगर बचा सकते हो तो बचा लो, लेकिन अगर उस की लाइन ही बदल दी जाए, उस की सोच, उस की प्रवृत्ति ही बदल दी जाए तो कैसा रहे ----- यह चाबी केवल और केवल भारत ही के पास है।

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

शुगर डॉयन खाये जात है ...

कल शाम को मुझे एक बंदा मिला – 50-52 की उम्र—चिकित्सा क्षेत्र से ही संबंधित—बातचीत के दौरान उस ने अपने यूरिन-टैस्ट की रिपोर्ट मेरे आगे की – ज़रा देखो कि क्या सब कुछ ठीक है ? मैं बड़ा हैरान हुआ –यूरिन में शूगर डबल प्लस, साथ में यूरिन में पस सैल(pus cells), रक्त सैल और क्रिसटल्स का भी ज़िक्र था। मैंने पूछा कि यार, तुमने यह टैस्ट करवाया क्यों था ? बताने लगा कि यह टैस्ट उस ने इसलिये करवाया क्योंकि उस के अंडरवियर पर पीले दाग पड़ने लगे हैं जो धुलने से भी नहीं छूटते।

आगे उस ने बताया कि दरअसल उसे लगभग 15 वर्ष पहले पेट में दर्द हुआ था –उस के विवरण से पता लग रहा था कि गुर्दे का दर्द था। खैर, उस ने बताया कि उसे इतने सालों में कोई तकलीफ़ नहीं थी। लेकिन अब यह अंडरवियर वाली बात से वह परेशान था, वैसे उस ने मुझे बताया कि पंद्रह सोलह साल पहले भी जो यूरिन टैस्ट करवाया था उस में भी क्रिस्टल्स की बात तो आई थी, लेकिन उसे कोई तकलीफ़ नहीं थी और इसलिये उस ने किसी तरह का मशवरा लेना ज़रूरी नहीं समझा।

मुझे उस की रिपोर्ट देख कर बहुत अफसोस सा हुआ – इतना मस्त रहने वाला बंदा, न किसी की बुराई में न किसी की अच्छाई में... लेकिन इत्मीनान इतना था कि चलो अगर कोई तकलीफ़ है तो पकड़ी तो जायेगी।

सो, मैंने आज सुबह उसे खाली पेट ब्लड-शूगर टैस्ट करवाने के लिये कहा ---रिपोर्ट आई 297mg%. यह तो तय ही हो गया कि शूगर (मधुमेह) तो है ही। अब उसे पेट का अल्ट्रासाउंड (Ultrasound Abdomen) करवाने के लिये कहा है और साथ में किडनी फंक्शन टैस्ट, और अन्य सामान्य टैस्ट आदि ---बाद में और भी टैस्ट तो करवाने ही होंगे।

आज मेरा मूड उस के बारे में सोच कर खराब ही रहा। बस वही बातें जो अकसर ऐसे मौकों पर होती हैं –मेरे पूछने पर उस ने बताया कि मीठे का तो वह शौकीन है ही --- वैसा चलता तो वह पैदल ही है। मैंने उसे कहा कि यार, चिंता न करो, बस फिजिशियन के बताए अनुसार दवाई तो लेनी ही होगी, और अपने खाने पीने का ध्यान रखना होगा.........

मैं यही सोच रहा हूं कि उस बंदे को तो चिकित्सा विज्ञान के बारे में थोडी बहुत नालेज थी, इतना भी कहूंगा कि साहसी था कि उस ने अपनी मर्जी से ही यूरिन टैस्ट करवा लिया और अभी बाकी टैस्ट करवाने को राजी हो गया---- वरना, बिना किसी जटिलता (complication) के कहां अकसर लोग शूगर वूगर टैस्ट करवाते हैं जब कि 35-40 वर्ष की उम्र के बाद एक-दो साल के बाद इस तरह की जांच तो जरूरी है ही।

अब इस बंदे में भी पता नहीं कि कब से यह रोग था --- बता रहा था कि पिछले दो-तीन साल से दो-तीन किलो वज़न कम चल रहा है। बिना दवाई के अनियंत्रित शूगर-रोग हमारे शरीर के महत्वपूर्ण अंगों (vital organs—kidneys, heart, eyes, vascular and nervous system)को तब तक नुकसान पहुंचाता रहता है जब तक कि वे हड़ताल ही न कर दें।

वैसे एक बात आप से साझी करूं --- यह टैस्ट वैस्ट करवाने में डर बड़ा लगता है, मुझे भी अपने सभी सामान्य टैस्ट करवाये तीन साल हो गये है.......पता नहीं यह क्या मसला है, डाक्टर वाक्टर ऊपर से कितने भी साहसी से नज़र आते हैं , मैंने देखा है जब उन की अपनी एवं उन के सगे-संबंधियों की बात होती है तो बिल्कुल बच्चे जैसे डरे से, भयभीत से, आशंकित से ---------बस, बिल्कुल एक आम मरीज़ की तरह ही होते हैं -----शायद उस से भी बढ़ के।

सोमवार, 22 नवंबर 2010

जमा हुई दवाईयों का भूल-भुलैय्या

अकसर डाक्टरों के आसपास के लोग –परिचित, रिश्तेदार,मित्र-सगा उन से यह बात कहते रहते हैं कि भई हमें तो आम तकलीफ़ों के लिये कुछ दवाईयां लिखवा दो, जिसे हम ज़रूरत पड़ने पर इस्तेमाल कर लिया करें। और अकसर लोग यह भी करते हैं कि घर में जमा हो चुकी दवाईयां किसी डाक्टर (जिस से उन्हें डांट-फटकार का डर न हो) के पास ले जाकर उन के नाम एवं उन के प्रभाव लिखने की कोशिश करते हैं।

जिस तरह से आज जीवनशैली से संबंधित तकलीफ़ें बढ़ गई हैं और जिस तरह से तरह तरह के रोगों के लिये नई नई दवाईयां आ गई हैं, ऐसे में एक आम आदमी की बड़ी आफ़त हो गई है। इतनी सारी दवाईयां –तीन चार इस तकलीफ़ के लिये, तीन चार उस के लिये ---अब कैसे कोई हिसाब रखे कि कौन सी कब खानी है, कितनी खानी है। मैं इस विषय के बारे में बहुत सोच विचार करने के बाद इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि यह सब हिसाब किताब रखना अगर नामुमकिन नहीं तो बेहद दुर्गम तो है ही। और ऊपर से अनपढ़ता, स्ट्रिपों के ऊपर नाम इंगलिश में लिखे रहते हैं, और कईं बार किसी दवाई का एक ब्रांड नहीं मिलता, अगली बार किसी और दवाई का पुराना ब्रांड नहीं मिलता ----बस, इस तरह की अनगिनत समस्यायें –देखने में छोटी दिखती हैं लेकिन जिसे उन्हें खाना होता है उन की हालत दयनीय होती है।

मैं डाक्टरों की उस श्रेणी से संबंधित रखता हूं कि जिन के साथ कोई भी किसी भी समय कितनी भी बेतकल्लुफी से बात करते हुये किसी तरह की डांट फटकार से नहीं डरता—क्योंकि मैं इतने वर्षों के बाद यही सीखा है कि मरीज से ऐसी डांट-डपट करने वाले बंदे से ज़्यादा ओछा कोई भी नहीं हो सकता। मेरे को कोई भी इन दवाईयों के बारे में कितने भी सवाल पूछे मैं कभी भी तंग नहीं आता ---- जिस का जो काम है, वही बात ही तो लोग पूछेंगे। वरना यह ज्ञान-विज्ञान किस काम का।

इस तरह के लोगों से जिन्हें इंगलिश नहीं आती, बेबस हैं, मुझे इन पर बहुत तरस आता है, तरस इसलिये नहीं कि इंगलिश नहीं आती , बल्कि यह सोच कर कि यह सब मेरे से पूछने के बाद भी ठीक दवाईयां ठीक समय पर कैसे लेंगे ? गलती होने का पूरा चांस रहता ही है।

आज भी एक अम्मा जी आईं --- चार-पांच पत्ते दिखा कर कहने लगीं कि बेटा, ज़रा बता दे कि किस तकलीफ़ के लिये कौन सी दवा लेनी है, दवाईयां वह कहीं और से लेकर आ रही थीं। बता तो मैंने अच्छे से दिया --- न ही मैंने जल्दबाजी ही की और न ही मैंने उस के ऊपर किसी तरह की नाराज़गी करने की हिमाकत ही की --- वह बीबी तो संतुष्ट हो गईं लेकिन मुझे बिल्कुल भी संतोष नहीं हुआ क्योंकि मैं इस बात से बिल्कुल भी कनविंस नहीं हूं कि उस ने सब कुछ अच्छे से समझ लिया होगा और सत्तर पार की उम्र में सब कुछ याद भी रखेगी। लेकिन यह एक ऐसा मुद्दा है कि इस के बारे में कितना भी सोच लें ----- अपने लोगों की अनपढ़ता का कसूर और ऊपर से दवाईयां बनाने वाले कंपनियों का इंगलिश-प्रेम। सुना तो भाई मैंने भी है कि इन दवाईयों के पत्तों पर हिंदी में भी नाम लिखे जाने ज़रूरी हो गये हैं, या खुदा जाने कब से ज़रूरी हो जाएंगे---पता नहीं, कुछ तो आ रहा था एक-दो साल पहले मीडिया में।

वैसे एक बात है घर में अगर आठ दस तरह की दवाईयां हों तो अकसर नान-मैडीकल लोगों में यह उत्सुकता सी रहती है कि यार, कहीं से यह पता लग जाए कि यह किस किस तकलीफ़ के लिये है तो बात बन जाए। ऐसे में मेरी मां जी तो पहले या कभी कभी अभी भी यह करती आई हैं कि वह दवाईयों के नाम एक काग़ज पर लिख कर मेरे से उन के इस्तेमाल के बारे में भी पूछ कर लिख लेती हैं।

और एक महाशय हैं जो मेरे पास अकसर कुछ महीनों बाद दस-बारह स्ट्रिप लेकर आते हैं साथ में स्टैप्लर ---मेरे से हर स्ट्रिप के बारे में पूछ कर एक छोटी सी स्लिप पर वह सूचना पंजाबी में लिख लेते हैं और फिर उसे उस पत्ते के साथ स्टेपल कर देते हैं। मुझे उन का यह आईडिया अच्छा लगा --- आज भी वो सुबह मेरे पास इस काम के लिये आये थे –तो मैंने सोचा था कि यह आईडिया मैं नेट पर लिखूंगा, सो मैंने अपना काम कर दिया। वैसे जाते जाते एक बार और भी है कि जब भी आप किसी स्ट्रिप से कोई टैबलेट अथवा कैप्सूल निकालें तो कुछ इस तरह का ध्यान रहे कि आखिरी टैबलेट तक उस पत्ते के पीछे लिखी एक्सपायरी की तारीख दिखती रहे ---ऐसा करना बिल्कुल संभव है – वरना मैं बहुत बार देखा है कि अभी स्ट्रिप में छः गोली होती हैं लेकिन उस के पीछे एक्सपॉयरी की तारीख न होने की वजह से वह कुछ दिनों बाद कचरेदान में ही जाती है।

कहां ये सब दवाईयों-वाईयों की बातें --- परमात्मा से प्रार्थना है कि सब तंदरूस्त रहें --- और हमेशा मस्त रहें। आमीन !!

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

सुबह-सवेरे टहलने का प्रेरणादायी जज़्बा

मैं अभी अभी साइकिल पर टहल कर आ रहा हूं—जहां हम रहते हैं वहां आसपास हरे-भरे खेतों से घिरे गांव हैं। मैंने एक-डेढ़ महीने से यह रूटीन बनाई है कि दिन में लगभग एक घंटा साईकिल चला लेता हूं। अच्छा लगता है। तीन-चार किलो वजन भी कम हुआ है। लेकिन जिस बात ने आज सुबह मुझे हिला दिया और जिस ने मुझे आज तीन महीने बाद वापिस चिट्ठा लिखने के लिये विवश किया वह यह है।

मैंने आज सुबह एक बुज़ुर्ग को गांव में टहलते देखा ---इस में क्या खास बात है? लेकिन इस में खास बात यह है कि वह बंदा कोई सामान्य बंदा नहीं था --- उस की एक टांग में कुछ समस्या थी जिस की वजह से वह मुश्किल से चल पा रहा था, और दूसरे हाथ में उस ने लाठी पकड़ रखी थी लेकिन मैं जिस वजह से उसे देखता रह गया वह यह थी कि उस के यूरिन-बैग लगा हुआ था जिसे उस ने अपनी बाजू पर टांग रखा था। मैं वापिस लौटता उस बहादुर इंसान के ज़ज़्बे की मन ही मन प्रशंसा कर रहा था।

मैं उस की शारीरिक मानसिक परिस्थिति के बारे में नहीं जानता लेकिन इतना तो मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि उस की जैसी भी हालत है उसे इस टहलने का लाभ तो मिलेगा ही। और मैंने उस अनजान आदमी के स्वास्थ्य लाभ की भरपूर कामना की।

मैं लगभग तीन महीने चिट्ठाकारी से दूर रहा –कईं कारण थे, जॉब में व्यस्त था। और मुझे कुछ कुछ यह लगने लग गया था कि इंटरनेट की वजह से मुझे सिरदर्द और गरदन में दर्द होने लगा है और मैं चिड़चिड़ा सा होने लगा हूं –सुबह उठते ही मैं लैपटाप के आगे सज जाता था। लेकिन अब वह आदत छूट चुकी है--- अपने आप को भी समय देना इंटरनेट से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है। वैसे इस दौरान मैंने अपनी एक वेबसाइट भी लांच की है --- हैल्थ बाबा.... कभी हो सके तो देखना।

हां, तो मैं उस बुज़ुर्ग बंदे की बात जब सोच रहा था तो यही ध्यान आ रहा था कि बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो हृष्ट-पुष्ट होते हुये भी किसी तरह की शारीरिक कसरत से दूर भागते हैं, टहलने से कतराते हैं और अकसर इस सब के चलते हम लोग बीसियों तरह की शारीरिक एवं मानसिक विपदाओं को बुलावा दे बैठते हैं। काश, हम सब लोग समय रहते समझ जाएं और सुबह सवेरे लैपटाप की बजाए प्रकृति के साथ अपना समय बिताना शुरू कर दें ---सिर का दर्द, गरदन का दर्द अपने आप भाग जायेगा---जैसे मेरा भाग गया।

बुधवार, 16 जून 2010

आखिर हम लोग नमक क्यों कम नहीं कर पाते ?

यह तो शत-प्रतिशत सच ही है कि नमक का ज़्यादा इस्तेमाल करने से ब्लड-प्रेशर होता ही है---वही चोली दामन वाला साथ, कितनी बार हम लोग इस के बारे में बतिया चुके हैं। लेकिन फिर भी जब मैं अपने आस पास देखता हूं तो पाता हूं कि लोग इस के बारे में बिल्कुल भी सीरियस नहीं है। हां, अगर खुदा-ना-खास्ता एक बार झटका लग जाता है तो थोड़ा बहुत बात समझने में आने लगती है।
लेकिन मेरी समस्या यह है कि मैं जब भी नेट पर नमक के बारे में कोई भी गर्मागर्म खबर पढ़ता हूं तो मुझे अपने देशवासियों का ख्याल आ जाता है --- इसलिये बार बार वही घिसा पिटा रिकार्ड चलाने लग जाता हूं।
शायद ही मुझे किसी मरीज़ से यह सुनने को मिला हो कि वह नमक का ज़्यादा इस्तेमाल करता है। किसी को भी पूछने पर यही जवाब मिलता है कि नहीं, नहीं, हम तो बस नार्मल ही खाते हैं। इस के बारे में हम एक बार बहुत गहराई से चर्चा कर चुके हैं कि आखिर कितना नमक हम लोगों के लिये काफ़ी है? और दूसरी बात यह कि एक बार मैंने यह भी बताने का प्रयास तो किया था कि केवल नमक ही नमकीन नहीं है।
अच्छा तो देश में यह भी बड़ा वहम है कि पाकिस्तानी नमक कम नमकीन है। नमक तो बंधुओ नमक ही है।
अच्छा तो अभी अभी मैं पढ़ रहा था कि इस नमक की वजह से अमेरिका में भी बहुत हो-हल्ला हो रहा है क्योंकि वहां लोग ज़्यादा प्रोसैसड खाध्य पदार्थ ही खाते हैं और यह तो नमक से लैस होता ही है लेकिन हमें इतना खश होने की ज़रूरत नहीं --हम लोग भी जहां हो सके नमक फैंक ही देते हैं ---लस्सी, रायता, आचार, लस्सी, गन्ने का रस, फलों के दूसरे रस (अगली बार जब जूस पीने लगें तो दुकानदार के चम्मच का साइज देखियेगा, आप को उस का हाथ रोकना चाहेंगे) .....बिस्कुट, तरह तरह के भुजिया, नमकीन, ......लिस्ट इतनी लंबी है कि एक पोस्ट भी कम पड़ेगी इसे लिखने में।
हां, तो अमेरिका में भी लोगों को नमक कम खाने की सलाह देते हुये यह कहा गया है कि वे रोज़ाना डेढ़ ग्राम से ज़्यादा नमक न लिया करें -- और जो आजकल सिफारिशें हैं उस के अनुसार सभी लोगों को चाय के एक चम्मच से ज़्यादा (जिस में लगभग दो-अढ़ाई ग्राम नमक आता है) नमक नहीं लेना चाहिये और जिन लोगों को उच्च रक्तचाप है या कोई और रिस्क है उन्हें तो डेढ़ ग्राम से ज्यादा नहीं लेना चाहिये। लेकिन अभी नई पैनल ने सिफारिश की है कि कोई भी हो, डेढ़ ग्राम से ज़्यादा बिलकुल नहीं।
आज जब मैं यह लिख रहा हूं तो यही सोच रहा हूं कि अगर हम लोग बस इसी बात को ही पकड़ लें तो कितने करोड़ों लोग रोगों से बच जायेंगे, कितनों का ब्लड-प्रैशर कंट्रोल होने लगेगा, दवाईयां कम होने लगेंगी और शायद आप का डाक्टर आप का सामान्य रक्तचाप देखते हुये उन्हें बिल्कुल ही बंद कर दे।
लेकिन एक बात है कि इस डेंढ़ ग्राम नमक का मतलब वह नमक नहीं है जो केवल दाल-सब्जी में ही डलता है, इस में सभी अन्य तरह के नमक के इस्तेमाल सम्मिलित हैं। मेरी सलाह है हमें भी शुरूआत तो करनी ही चाहिये --कोई ज़्यादा मुश्किल नहीं है, मैं भी कभी भी जूस में नमक नहीं डलवाता, दही में नमक नहीं, लेकिन रायते में बिना नमक के नहीं चलता, मैं सालाद के ऊपर नमक नहीं छिड़कता....लेकिन जब बीकानेरी भुजिया खाने लगता हूं तो यह सारा पाठ भूल जाता हूं ---इसलिये अब ध्यान ऱखूंगा।
किस्मत में क्या लिखा है, क्या जाने ---लेकिन जहां तक हो सके तो विशेषज्ञों की राय मानने में ही समझदारी है, केवल मुंह के स्वाद के लिये हम लोग किसी चक्कर में पड़ जाएं ....यह तो बात ना हुई। अमेरिका में तो होटल वालों ने भी अपने खाद्य़ पदार्थों में नमक कर दिया है।
इस रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि एक नमक इंस्टीच्यूट का कहना है कि नहीं, नहीं यह डेढ़ ग्राम नमक वाला फंडा ठीक नहीं है, वे कहते हैं कि सारी दुनिया में लोग तीन से पांच ग्राम नमक रोज़ाना खाते हैं क्योंकि यह उन की ज़रूरत है।
लेकिन मैं तो उस डेढ़ ग्राम नमक वाली बात की ही हिमायत करता हूं क्योंकि मैं नमक ज़्यादा खाने से होने वाले रोगों के भयंकर परिणाम देखता भी हूं, रोज़ाना सुनता भी हूं। वैसे आपने क्या फैसला किया है। लेकिन यह क्या, आप कह रहे हैं कि यार, अब शिकंजी, लस्सी भी फीकी ही पिलाओगे क्या ? ----बंधओ, इतने अच्छे बच्चे बनने की भी क्या पड़ी है, कभी कभी तो यह सब चलता ही है। वैसे शिंकजी में कभी कम नमक डाल कर देखिये।
जाते जाते यह बात लिखना चाह रहा हूं कि हम लोग गर्म देश में रहते हैं, गर्मियों में पसीना खूब आता है ---जिस से नमक भी निकलता है, इसलिये हमें गर्मी के दिनों में थोड़ी रिलैक्सेशन मिल सकती है ---लेकिन वह भी ब्लड-प्रैशर से पहले से ही जूझ रहे लोगों को तो बि्लकुल नहीं। मुद्दा केवल इतना है कि दवाईयों से भी कहीं ज़्यादा नमक की मात्रा के बारे में जागरूक रहें...............आप के स्वास्थ्य की कामना के साथ यहीं विराम लेता हूं। .

रविवार, 6 जून 2010

इंटरनेट लेखन के दांव-पेच...पाठ संख्या 5.

मेरे विचार में एक दिन के चार पाठ ठीक हैं ---इतनी थ्यूरी ठीक है-- अब ज़रा प्रैक्टीकल के लिये लैब का रूख करते हैं। हां, तो अब मैं आप से अपनी सब से मनपसंद साइट के बारे में दो बातें करना चाहूंगा।
मुझे BBC news की साइट बेहद पसंद है--- यह रहा इस का होम-पेज। मैं कंटैंट के ऊपर कुछ ज़्यादा कहना नहीं चाहता क्योंकि मुझे कुछ ज़्यादा पढ़ने का समय ही नहीं मिल पाता। लेकिन जिस इंटरनेट लेखन की बात हम लोग सुबह से कर रहे हैं और जिस के दांव-पेच आप जैसे धुरंधर लिक्खाड़ों को मैं बताने की हिमाकत कर रहा हूं --- उस इंटरनेट लेखन का नमूना जानने के लिये हमें वेब-राइटिंग वर्कशाप के दौरान बीसियों बार बीबीसी न्यूज़ की साइट पर घुमाया गया।
अभी तो आप इस साइट को निहारिये -- उदाहरण के लिये यह रहा इस के हैल्थ सैक्शन का होमपेज और किसी एक हैल्थ स्टोरी पर क्लिक करने पर आप देखेंगे कि कितने जबरदस्त तरीके से न्यूज़-स्टोरी को प्रस्तुत किया गया है।
बीबीसी की हिंदी साइट पर क्या आप कभी गये हैं? इस के विज्ञान के होमपेज को देखिये और एक खबर पर क्लिक करने पर यह देखिेये कौन सी खबर आ गई ---ब्रश करें दिल के रोग से बचें!
अच्छा तो आप इस साइट की विशेषताओं के बारे में सोचिये --शीर्षक, पैराग्राफ, सीधी सादी भाषा और सब तरह से बढ़िया प्रस्तुति। इस का विश्लेषण बाद में करेंगे कि क्यों यह साइट मुझे बेहद पसंद है। यह मेरे व्यक्तिगत मत भी हो सकता है लेकिन मैं इसे विस्तार से आप के साथ कभी शेयर करूंगा।
मुझे यह साइट (विशेषकर अंग्रेज़ी वर्ज़न) इतनी पसंद है कि मैं इसे रोज़ाना देखता हूं ---यह मुझे अपने लेखन की कमियों की तरफ़ झांकने के लिये प्रेरित करती है। आप से भी अनुरोध है कि आप भी इस साइट (अंग्रेज़ी अथवा हिंदी वर्ज़न) को बुकमार्क कर लें। बहुत कुछ सीखने को मिलेगा अगर रोज़ाना इसे देखेंगे ---वैसे हम इसी साइट के बारे में विस्तार से चर्चा तो करेंगे ही।
पता नहीं इस की हिंदी साइट का फांट बहुत छोटा लगता है, लिखा तो था मैंने उन को कि फांट का कुछ हो सके तो देखो ----और पता नहीं क्यों हिंदी वर्जन के पन्ने फीके-फीके से लगते हैं------बिल्कुल मेरी मैट्रिक की क्लास की भूगोल विज्ञान की किताब की तरह? क्या मेरे को ही ऐसा लगता है या आप को भी ऐसा कुछ लगा, हो सके तो बताना। मैं इस बात को समझना चाहता हूं ---- और हां, एक बात और इस साइट पर हिंदी के ब्लाग भी हैं साइट पर टिप्पणी देकर आप को शायद एक-दो दिन का इंतज़ार करना पड़ सकता है कि ब्लागर साहब की नज़रे एनायत हुईं कि नहीं ---अगर हो गईं तो आप की टिप्पणी दिख जाएगी----------------वरना। निःसंदेह अंग्रेज़ी वर्जन में बहुत ज़्यादा खुलापन (interactivity) है जो होमपेज पर नज़र डालने से ही पता लग जाता है।
बस, आज के दिन के पाठ यहीं खत्म होते हैं ---दोपहर में ऐसे ही बैठे बस विचार आया कि इस तरह के पाठ ही दोहरा लूं, सो बैठ गया यह सब लिखने ---आप से कहीं ज़्यादा अपने आप को ये सब बातें याद दिलानें कि वेब-राइटिंग के दांव-पेचों को अभ्यास करने का समय यही है ----इस से पहले की कैसे भी कुछ भी लिख कर छुट्टी कर लेने की मेरी पुरानी आदतें पक जाएं।

इंटरनेट लेखन के दांव-पेच..... पाठ संख्या 4

क्यों दूं मैं लिंक अपने लेख में? मेहनत करूं मैं और इस का फल चखें बाकी सब? मुझ से यह ना होगा कि मैं सब को बताता फिरू कि अपने लेख के आइडिया मुझे आते कहां से हैं? क्या ज़रूरत है सारे जग को बताने की इतनी बढ़िया जानकारी आखिर नेट पर पड़ी कहां है ? --- अजीब सी बातें लगती हैं ना दोस्तो, लेकिन यह वेब-राइटिंग वाला ट्रेनिंग कोर्स से पहले मेरी सोच बिल्कुल ऐसी ही थी।
लेकिन इस इंटरनेट लेखन के प्रोग्राम के दौरान नेट पर कंटैंट मुहैया करवाने के बारे में मेरे विचारों में इतना शिफ्ट आया कि मैं ब्यां नहीं कर सकता। जब मैंने कोर्स ज्वाइन किया तो मेरे आइडिया बिल्कुल फिक्सड कि यार, क्या मुसीबत है अपने लेखों में तरह तरह के लिंक देने की ज़हमत उठाने की। जिसे ज़रूरत होगी खुद ढूंढ लेगा---ऐसे संकीर्ण विचार मैंने अपने मन में पाल रखे थे।
लेकिन इंटरनेट लेखन पर वर्कशाप में शिरकत करने पर सही में पता चला कि इंटरनेट की आत्मा आखिर है क्या? -- जब हम इंटरनेट (अंतर्जाल) की बात करते हैं तो हमें मकड़ी के जाल की तरह एक दूसरे के कंटैंट पर लिंक तो करना ही चाहिये। दरअसल इंटरनेट की सुंदरता ही इस लिंक्स की वजह से है ---इस लिये एक अहम् सबक जो मैं उस वर्कशाप से लेकर आया और जिसे मैं हमेशा प्रैक्टिस भी करूंगा -----लिंक लगाएं, लिंक लगाएं और लिंक लगाएं।
लेकिन अपने लेखों में लिंक (हाइपरलिंक) लगाने के भी कुछ संदर से कायदे हैं, नियम हैं जिन्हें मानने से वे लिंक हमारे लेखों की शोभा में चार चांद लगा देते हैं। हां, तो मैं बात कर रहा था कि इस वर्कशाप से पहले मैंने जितना भी कंटैट अपने ब्लॉग पर डाला है उस में लिंक ही नहीं डाले --इस का कारण मैं पहले ही बता चुका हूं।
लेकिन वर्कशाप से लौटने के बाद मैंने जो भी लिखा है उस पर समुचित लिंक डाले हुये हैं--- एक फायदा यह भी है कि लिंक डालने से हमारी ही विश्वसनीयता बढ़ती है और इस से बढ़ कर वैसे देखा जाए तो है ही क्या? अब अगर मैं किसी इलाज की समीक्षा कर रहा हूं, किसी नईं दवाई के बारे में लिख रहा हूं तो क्या एक लिंक के द्वारा पाठकों को यह जानने का भी अधिकार नहीं है कि आखिर मेरी जानकारी का स्रोत क्या है ? मेरे कुछ भी कहने को वे आखिर मानें क्यों ? --क्या पता कुछ लिखने के पीछे मेरा कोई निजी स्वार्थ हो !!
और दूसरी बात यह है कि हम अपने पाठकों को जितने विकल्प देंगे, वे हमारे लेखों पर आने में उतनी ही रूचि दिखायेंगे। लेकिन जब तक समझ नहीं थी तो मैं भी कहां इस तरह के विकल्प देकर राजी था, बस अपना ही राग अलापने में सुख मिलता था। लेकिन फिर धीरे धीरे अपने लेखों में अपनी ही अन्य पोस्टों के लिंक (internal links -- इंटरनल लिंक्स) देने लगा ---- फिर बाद में बाहर के लिंक्स (external links) देने की हिम्मत आने लगी.
हिम्मत शब्द का इस्तेमाल इसलिये कर रहा हूं क्योंकि शूरू शूरू में शायद हमें लगता है कि पहले ही इतनी मुश्किल से कोई पाठक हमारे लेख तक पहुंचा है, बाहर का लिंक देने से तो कहीं यह भी न भाग जाये। लेकिन यह इंटरनेट -- web 2.0 की भावना नहीं है,आज इंटरनेट की स्पिरिट है, बात करने की , बात सुनने की, पाठकों को अधिक से अधिक विकल्प मुहैया करवाने की-----पाठक हमारे एक लेख से अगले पल कहीं और उस से अगले पल कहीं और पहुंचता है तो आखिर हमें एतराज़ क्यों? नेट पर हम भी तो ऐसा ही करते हैं जहां हमें बेहतर विक्लप मिलते हैं हम उधर घूमने निकल पड़ते हैं।
और तो और, हम लोग जब नेट पर कोई लेख आदि देख रहे होते हैं तो इतनी सूझबूझ से लगाये गये लिंकों की वजह से हमारा काम कितना आसान और अनुभव कितना सुखद हो जाता है ----तो हम दूसरों को विशेषकर हिंदी के पाठकों को इन सुखों से क्यों वंचित रखें? यह मैं इसलिये कह रहा हूं क्योंकि हिंदी के लेखों में, चिट्ठों के अलावा भी विभिन्न हिंदी न्यूज़-साइटों पर मुझे इन लिंक्स की कमी खलती है। इस से कहीं न कहीं लेखक की क्रेडिबिलिटी पर चाहे बिलकुल फीका ही सही लेकिन चिंह तो लगता ही है।
हमें उस वेब-राइटिंग वर्कशाप के दौरान यह भी आभास दिलाया गया कि ये जो हाइपरलिंक्स हैं, ये सारे लेख में अच्छे ढंग से बिखरे से हों, ऐसी कोशिश रहनी चाहिए --- हमारे ट्रेनर्ज़ शब्द इस्तेमाल करते थे ---links should be sprinkled throughout the online article. लेकिन लिंक बस नाम के लिये ही टिका देने से भी पाठक चिढ़ से जाते हैं और समझ जाते हैं।
केवल अपने लेख से संबंधित लिंक ही डालें ---- और लिंक्स हम लोग नेट पर मौजूद फोटो के लिये और दूसरे तरह के रिसोर्सेज़ के लिये भी डाल सकते हैं। आप देखिये यह जो आज कल हम लोगों के चिट्ठों पर यह आइकन लगा है ---आप इसे भी पसंद करेंगे और इस के साथ ही तीन-चार पुरानी पोस्टें दिखती हैं, यह भी अच्छा आइडिया है (मेरे ब्लॉग पर भी यह लगा हुआ है) ।
लेकिन लिंक डालते समय इस बात का भी ध्यान रखें कि एक ही लेख में एक लिंक को दोबारा न टिकाया जाए। इस से पाठक को खुन्नस आती है------और डैड-लिंक्स ----Dead links --- बाप रे बाप, इन का तो विशेष ध्यान रखें ----पाठक ने किसी लिंक पर क्लिक किया और वह डैड-लिंक (अर्थात् कोई पेज खुला ही नहीं) निकला तो समझ लें पाठक नाराज़।
हम सब चाहते हैं ना कि हमारे चिट्ठे के लिंक लोग अपने लेखों में, अपने चिट्ठों पर डालें लेकिन पता नहीं हम दूसरों के लिये क्यों आलसी बन जाते हैं --आज जब मैंने इन दांव पेचों को आप के साथ बांटना शुरू किया तो मैंने रवि रतलामी जी के ब्लाग का और समीर लाल जी के ब्लाग का ज़िक्र किया तो मेरा कर्तव्य बनता था कि मैं वहां इन के चिट्ठों के लिंक देता ......लेकिन बस छोटे छोटे कामों के लिये यह आलस के कीड़े का बहाना सा बनाने की आदत हो गई है -----------------लेकिन आप कभी भी लिंक्स डालने में आलस न करें-----यह हमारे लेखन को निखारता है, पारदर्शिता के साथ साथ हमारे कहे को विश्वसनीयता प्रदान करता है।

इंटरनेट लेखन के दांव-पेच--पाठ संख्या 3.

हां तो अपनी चर्चा चल रही थी कि इंटरनेट पर लिखे लेख का शीर्षक कैसा होना चाहिए ? बिल्कुल दुरूस्त टिप्पणीयां आईं कि शीर्षक ऐसा तो हो कि पाठक को आकर्षक लगे। तो आइये इसी बात को थोड़ा सा विस्तार से देखते हैं ..
वैसे यहां पर मैं जिन बिंदुओं को रेखांकित करूंगा वे ज़्यादातर न्यूज़-स्टोरी के लिये लागू होते हैं--चूंकि अब ब्लागिंग एवं न्यूज़-रिपोर्टिंग के बीच की दूरी तेज़ी से खत्म होती दिख रही है इसलिये ये सब बिंदु हमारे चिट्ठों के लिये भी उतने ही लागू होते हैं।
  1. नेट पर कहीं भी हमें कोई अलग थलग पड़ा हुआ शीर्षक भी मिल जाए तो हमें उसे से यह तो पता लगना ही चाहिये कि उस शीर्षक के अंतर्गत लेखक क्या कहना चाह रहा है। In other words, headlines has to tell us what the story is about.
  2. जहां तक हो सके शीर्षक में एक क्रियात्मक शब्द तो होना ही चाहिये --- जिसे हम लोग अंग्रेज़ी में verb कहते हैं --यानि कि पता लगना चाहिये शीर्षक से क्या चल रहा है, और जहां तक हो सके यह strong verb होना चाहिए।
  3. जैसा कि अपने ही साथी ब्लॉगरों ने विचार रखे हैं कि हमारे लेखों के शीर्षक कमबख्त इतने आकर्षक हों कि पाठक वहीं रूक जाए और उस का नोटिस लेने पर मजबूर हो जाए। Headlines should be catchy, punchy, and must attract attention.
  4. एक बहुत महत्वपूर्ण बात यह भी है जहां तक हो सके शीर्षक छोटा, सटीक ओर एकदम सीधा तीर की तरह जाने वाला हो --- It should be short, to-the-point and snappy.
  5. शायद आपने भी नोटिस किया होगा कि बीबीसी की स्टोरीज़ के शीर्षक आम तौर पर चार शब्दों के ही होते हैं लेकिन जहां तक हो सके छः शब्दों से ज़्यादा शब्द शीर्षक में नहीं रखने चाहिये।
  6. एक बात कहते हैं ना कि KISS principle को पूरी तरह फॉलो करना चाहिये ---- चलिये लगे हाथ इस KISS का राज़ भी खोल ही देते हैं --- Keep it short and simple!!
  7. शीर्षक लगभग हमेशा वर्तमान टैंस में ही लिखा होना चाहिये --- Present tense is used. मेरा विचार है कि चिट्ठाकारी करते समय अकसर हमें इस नियम से हटना पड़ सकता है। लेकिन लेखन की सुंदरता इसी में है कि कैसे इस नियम का भी पालन कर सकें। वर्तमान टैंस होने से शीर्षक पाठक को लुभाता, पाठक में कुछ प्रासांगिक मिलने की आतुरता रहती है।
  8. यह तो सुनिश्चित किया ही जाना चाहिये कि शीर्षक में कोई गलतियां आदि न हों, इस से पाठक चिढ़ जाता है और कईं बार लेखक के बारे में शीर्षक देख कर ही अपनी राय बना बैठता है।
  9. जहां तक हो सके शीर्षक में ऐब्रीविएशन (abbreviations) का इस्तेमाल न किया जाए --- लेकिन कुछ बहुत ही प्रचलित छोटे नामों के लिये यह छूट ली जा सकती है जैसे कि यू.एन, यू एस ए, यू के आदि।
और जाते जाते वही पुरानी बात ---धन्यवाद है ब्लागवाणी का, चिट्ठाजगत का ---हमें अपने सभी परिचितों के चिट्ठे एक साथ मिल जाते हैं और काफी तो हम ने बुकमार्क कर रखे हैं, सब्सक्राइब कर रखे हैं, लेकिन अब सोचने की बात है कि जब भी हम लोग अपने किसी भी लेख के लिये शीर्षक लिखने लगें तो थोड़ा यह अवश्य सोच लें कि अगर इस तरह का शीर्षक मुझे नेट पर कहीं अलग-थलग (isolated) पड़ा दिख जाएगा तो क्या उस पर क्लिक कर के लेख तक जाने की ज़हमत उठाना चाहूंगा कि नहीं ?
चलिये, आप के लिये भी एक अभ्यास (exercise) -- यह पाठ पढ़ने के बाद आप एक बार ब्लागवाणी या चिट्ठाजगत पर आज प्रकाशित चिट्ठों पर जल्दी से नज़र दौड़ाएं और फिर सोचें कि हम कैसे और भी अच्छे, उम्दा और आकर्षक शीर्षक लिख सकते हैं। वैसे भी आजकल तो पैकिंग पर इतना ज़्यादा ज़ोर दिया जा रहा है, तो फिर हम लोग क्यों किसी से पीछे रहें !

इंटरनेट लेखन के दांव-पेच...पाठ संख्या 2.

आज मैं सोच कर हंस रहा हूं कि जब मैंने शूरू शूरू में नेट पर लिखना शुरू किया तो मेरे हैल्थ-टिप्स वाले ब्लॉंग पर कुछ इस तरह के शीर्षक मैंने अपनी पोस्टों को दिये ----
पहले तो मैं इन शीर्षकों आदि के बारे में जागरूक न था लेकिन उस वेब-राइटिंग ट्रेनिंग के दौरान यह सीखने का मौका मिला कि ये शीर्षक नेट पर लिखते समय कितने महत्वपूर्ण हैं ---अब कोई मेरे को कहें कि भलेमानुस, यार, तुम बताओ हम लोग जूस पीने जाएं या ताड़ी पीने ---तुम से मतलब ? और उस गन्ने के रस वाली पोस्ट पढ़ कर कोई चाहे तो मुझे यह ही कह दे --क्यों भाई तुम नहीं पीते ? और राजू वाली पोस्ट का हैडिंग देख कर कोई कहे ---यार, राजू मुसीबत में है तो हुआ करे, हमें क्यों यह सब सुना के परेशान कर रहा है?
तो मेरे ब्लॉग से ही बुरे शीर्षकों के उदाहरण आपने देख लिये। अब एक बात का जवाब दीजिये कि अगर इस तरह के शीर्षक आप को नेट पर इधर उधर यहां वहां बिखरे दिख जाएं तो क्या आप उन्हें पढ़ना चाहेंगे......शायद नहीं। क्योंकि न तो शीर्षक का कोई सिर है, न पैर है ---न ही उस से पता चल रहा है कि लेखक आखिर कहना क्या चाहता है ----ऐसे में क्यों आयेगा हमारे लेख कर कोई बंदा ?
एक बात जो बहुत ही अहम उस ट्रेनिंग के दौरान मैंने सीखी और समझी वह यह कि हम अपने लेखों पर दिये जाने वाले शीर्षकों को कभी भी हल्केपन से न लें. और विशेषकर जब इंटरनेट पर लिखे लेखों की बात चलती है तो इन का महत्व तो कहीं ज़्यादा है ----क्योंकि हमारे लेखों के ये शीर्षक नेट पर अलग अलग जगहों पर बिखरे पड़े हैं ----कुछ ब्लॉग एग्रीगेटरों के अलावा बहुत ही अन्य साइटें भी हैं जहां ये शीर्षक हमारी सोच के नमूने के रूप में सजे हैं। और बहुत हद तक तो ये शीर्षक ही तय करते हैं कि नेटयूज़र उस पर क्लिक कर के हमारे लेख तक पहुंचता है कि नहीं ? मुझे तो यह बात झट से समझ आ गई थी ---और उस ट्रेनिंग के बाद इस के बारे में थोड़ा बहुत सजग रहता हूं।
अब आप के मन में यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि आखिर पता तो चले कि बढ़िया सा शीर्षक लगाने की रैसिपी है क्या ? दोस्तो, वेबराइटिंग के इस पहलू को हमारे सूस्त दिमाग में डालने के लिये ट्रेनिग के दौरान पूरा एक दिन इन शीर्षकों को ही समर्पित था--हमें तरह तरह के लेख दिये गये ----सभी प्रतिभागियों से अलग अलग किस्से सुनने के बाद हम से पूछा गया कि अगर आपने इस घटना को कोई शीर्षक देना हो तो आप क्या हैडिंग देंगे। और इस तरह से काफी कुछ सीखने को मिला।
बस, एक बात का ज़रा करने का ज़रूरत है कि जब हम नेट पर कोई लेख प्रकाशित करते समय अपने लेख को कोई शीर्षक दें तो इतना तो कर ही करते हैं कि अपने आप से इतना पूछ लें कि अगर इस तरह का शीर्षक नेट पर कहीं पड़ा मिल जायेगा तो क्या मैं उस लेख को पढ़ना चाहूंगा ?
चूंकि पोस्ट लंबी हो गई है, इसलिये एक बढ़िया शीर्षक तैयार करने की आखिर रैसिपी क्या है, इस के लिये अगली पोस्ट में बात करते हैं। ठीक लग रहा है ना, कहीं बोर तो नहीं हो रहे, बता देना, भाईयो. कहीं बाद में पता चले कि मैं इन दांव-पचों के भाषण के चक्कर में आप का बढ़िया सा रविवार बेकार करता रहा !!

इंटरनेट लेखन के दांव-पेच

मुझे पता था कि आप शीर्षक देख कर यही कहने वाले हैं कि क्या यार, जुम्मा जुम्मा दो रोज़ हुये नहीं नेट पर लिखते हुये और तू हम धुरंधरों को बतायेगा ये दांव-पेच कि नेट पर कैसे लिखना होगा। लेकिन बात तो सुनिये ---हमें हर एक की बात सुन तो लेनी ही चाहिये --मानना ना मानना तो आप के हाथ में है।
तो सुनिये मुझे आज सुबह ही विचार आया है कि मुझे इंटरनेट लेखन के ऊपर थोड़ा बहुत लिखना चाहिये। कारण? ---दरअसल यह विषय मेरे दिल के करीब है। कुछ अरसा पहले जर्मनी की स्टेट ब्राडकॉस्टिंग (Deutsche welle) से विशेषज्ञ आये.. और दिल्ली में मुझे उन से एक महीने की इसी वेब-राइटिंग पर ट्रेनिंग लेने का अवसर मिला। बहुत कुछ सीखने का मौका मिला और अब मैं उन सब अनुभवों को आप के साथ बांटने के लिये तैयार हूं।
इस तरह से यह ज्ञान बांटने के पीछे मेरा एक स्वार्थ भी है ---मेरा पाठ भी पक्का हो जायेगा क्योंकि वहां उस ट्रेनिंग के दौरान बहुत ही ऐसी बातें सीखी हैं जिन्हें मैं अभी प्रैक्टिस नहीं कर पा रहा हूं।
मैं भी दोस्तो पिछले लगभग अढाई साल से नेट पर लिख रहा हूं। आज कल जो लिख रहा हूं ---मैं कंटैंट की बात नहीं कर रहा हूं ---वो तो जैसा भी होता है हरेक के मन की मौज है---लेकिन मैं प्रस्तुति की बात कर रहा हूं------ हां, तो अपने लिखने के बारे में कह रहा हूं कि जब मैं अपने आज कल के लेखों की शुरूआती दौर के लेखों से तुलना करता हूं तो पाता हूं कि यार, हिम्मत है उन शुभचिंतकों की जिन्होंने उन्हें पड़ने की मशक्कत की और फिर टिप्पणीयां भी लिखीं। कभी मौका मिला तो इन सब शख्शियतों का व्यक्तिगत रूप से शुक्रिया करूंगा।
सब से पहले तो बात करते हैं ---लिखने के अंदाज़ की। ऐसा भी नहीं कि जो बातें मैं लिखूंगा वे कोई नई बातें हैं, बिल्कुल मामूली बातें हैं ---लेकिन कईं बार इन्हें बार बार दोहराना ज़रूरी सा हो जाता है।
यह तो हम सब जानते ही हैं कि जो बंदा इंटरनेट पर बैठा है वह बहुत जल्दी में है, पूरी संभावना है कि वह एक तो नेट पर म्यूज़िक का आनंद ले रहा है--यू-ट्यूब पर,साथ में शायद अपने दोस्तों के साथ चैटिंग पर मसरूफ है--- साथ में शायद कुछ अपने मतलब की गूगल-सर्च भी कर रहा है---और इतनी मसरूफीयत के बावजूद अगर उस ने हमारे ब्लॉग की भी विंडो खोल कर हमारा लेख पढ़ने की हिम्मत जुटा ही ली है तो हम आखिर क्यों उस के सब्र का इम्तिहान लें?
दरअसल होता यह है कि नेट पर बड़े बड़े लेख देख कर अकसर कोई भी झट से क्लिक मार से कहीं से कहीं निकल जाता है। इसलिये नेट पर कंटैट के साथ साथ लेखों की लंबाई-चौड़ाई की तरफ़ ध्यान देना भी बहुत ज़रूरी है। लंबाई तो हो गई लेकिन यह लेख की चौड़ाई का क्या चोंचला है, इस के बारे में भी बात करेंगे।
नेट पर लिखते समय बिल्कुल बोलचाल वाली भाषा हो तो मजा ही आ जाए---- दरअसल किसी लेख को पढ़ते वक्त मेरे जैसे को कुछेक शब्द ऐसे मुश्किल से मिल जाते हैं जिन के शब्दार्थ के बारे में मैं कोई तुक्का भी नहीं मार सकता ---तो मैं जैसे तैसे अगले पैराग्राफ में झांकने की कोशिश करता हूं --लेकिन अगर वहां पर भी यह समस्या दिखती है तो आप को पता ही है कि हम लोगों के पास सब से बढ़िया हथियार जो हमें किसी भी विपदा से बचा लेता है ---माउस ---- बस क्लिक करते ही पहुंच गये कहीं के कहीं और मिल गया सभी मुसीबतों से छुटकारा। क्या ख्याल है हम सब लोग यह हथियार इस काम के लिये भी इस्तेमाल करते हैं ना ---है कि नहीं ?
इसलिये नेट पर लिखते समय बिल्कुल छोटे छोटे वाक्य, छोटे छोटे पैराग्राफ हों तो ठीक रहता है। मैं हाथ जोड़ कर सभी चिट्ठाकारों से क्षमाप्रार्थी हूं कि चाहते हुये भी मुझे बहुत ज़्यादा पढ़ने का अवसर नहीं मिल पाता ---सर्विस की वजह से मसरूफ रहना, फिर अपने लेख लिखने के लिये रिसर्च करना ....। लेकिन मुझे इस समय समीर लाल जी की उड़न तश्तरी और रवि रतलामी जी के ब्लाग का ध्यान आ रहा है ---वाक्यों की रचना में और पैराग्राफ की लंबाई में वे इस के बारे में बहुत सजग हैं। लेखों की लंबाई के बारे में फिर कभी सोचेंगे।
क्या है ना ---वेब पर बैठा आदमी इतनी जल्दी से है कि उसे तो बस बुलेटेड लि्स्ट के माध्यम से जानकारी चाहिये ---यानि 1,2,3 ........और यह गया लेख और वह हो गया फ्री। ऐसे में यह काफी हद तक हमारे ऊपर है कि कैसे कम उस का ध्यान अपने लेख की तरफ़ लेकर आएं और उसे वही टिकने पर मजबूर कर दें।
इस पोस्ट को इधर ही खत्म करता हूं --कहीं आप यह ही न समझ लें कि यार तू दांव पेच क्या दिखायेगा ---तुम तो स्वयं ही उन्हें फॉलो नहीं करते । सो, इसी डर के साथ यहीं विराम लेता हूं ---अगली पोस्ट कुछ घंटों के बाद।

शनिवार, 5 जून 2010

डा महेश सिन्हा की पोस्ट---ब्रेन हैमरेज के रोगी की पहचान...

अभी अभी ब्लागवाणी देख रहा था तो डा महेश सिन्हा की एक बहुत उपयोगी पोस्ट दिख गई ---मस्तिष्क आघात के मरीज़ को कैसे पहचानें? मस्तिष्क आघात --जी वही, जिसे कईं बार ब्रेन-स्ट्रोक भी कह दिया जाता है अथवा आम भाषा में दिमाग की नस फटना या ब्रेन-हैमरेज भी कह देते हैं।
इस के बारे में पोस्ट डाक्टर साहब को किसी मित्र से मिली है --
वे लिखते हैं ---- एक पार्टी चल रही थी, एक मित्र को थोड़ी ठोकर सी लगी और वह गिरते गिरते संभल गई और अपने आस पास के लोगों को उस ने यह कह कर आश्वस्त किया कि सब कुछ ठीक है, बस नये बूट की वजह से एक ईंट से थोड़ी ठोकर लग गई थी। (आस पास के लोगों ने ऐम्बुलैंस बुलाने की पेशकश भी की).
साथ में खड़े मित्रों ने उन्हें साफ़ होने में उन की मदद की और एक नई प्लेट भी आ गई। ऐसा लग रहा था कि इन्ग्रिड थोड़ा अपने आप में नहीं है लेकिन वह पूरी शाम पार्टी तो एकदम एन्जॉय करती रहीं। बाद में इन्ग्रिड के पति का लोगों को फोन आया कि कि उसे हस्पताल में ले जाया गया लेकिन वहां पर उस ने उसी शाम को दम तोड़ दिया।
दरअसल उस पार्टी के दौरान इन्ग्रिड को ब्रेन-हैमरेज हुआ था --अगर वहां पर मौजूद लोगों में से कोई इस अवस्था की पहचान कर पाता तो आज इन्ग्रिड हमारे बीच होती।
ठीक है ब्रेन-हैमरेज से कुछ लोग मरते नहीं है --लेकिन वे सारी उम्र के लिये अपाहिज और बेबसी वाला जीवन जीने पर मजबूर तो हो ही जाते हैं।
जो नीचे लिखा है इसे पढ़ने में केवल आप का एक मिनट लगेगा ---
स्ट्रोक की पहचान ---
एक न्यूरोलॉजिस्ट कहते हैं कि अगर स्ट्रोक का कोई मरीज़ उन के पास तीन घंटे के अंदर पहुंच जाए तो वह उस स्ट्रोक के प्रभाव को समाप्त (reverse)भी कर सकते हैं---पूरी तरह से। उन का मानना है कि सारी ट्रिक बस यही है कि कैसे भी स्ट्रोक के मरीज़ की तुरंत पहचान हो, उस का निदान हो और उस को तीन घंटे के अंदर डाक्टरी चिकित्सा मुहैया हो, और अकसर यह सब ही अज्ञानता वश हो नहीं पाता।
स्ट्रोक के मरीज़ की पहचान के लिये तीन बातें ध्यान में रखिये --और इस से पहले हमेशा याद रखिये ----STR.
डाक्टरों का मानना है कि एक राहगीर भी तीन प्रश्नों के उत्तर के आधार पर एक स्ट्रोक के मरीज की पहचान करने एवं उस का बहुमूल्य जीवन बचाने में योगदान कर सकता है.......इसे अच्छे से पढ़िये और मन में बैठा लीजिए --
S ---Smile आप उस व्यक्ति को मुस्कुराने के लिये कहिए।
T-- talk उस व्यक्ति को कोई भी सीधा सा एक वाक्य बोलने के लिये कहें जैसे कि आज मौसम बहुत अच्छा है।
R --- Raise उस व्यक्ति को दोनों बाजू ऊपर उठाने के लिये कहें।
अगर इस व्यक्ति को ऊपर लिखे तीन कामों में से एक भी काम करने में दिक्कत है , तो तुरंत ऐम्बुलैंस बुला कर उसे अस्पताल शिफ्ट करें और जो आदमी साथ जा रहा है उसे इन लक्षणों के बारे में बता दें ताकि वह आगे जा कर डाक्टर से इस का खुलासा कर सके।
नोट करें ---- स्ट्रोक का एक लक्षण यह भी है --
1. उस आदमी को जिह्वा (जुबान) बाहर निकालने को कहें।
2. अगर जुबान सीधी बाहर नहीं आ रही और वह एक तरफ़ को मुड़ सी रही है तो भी यह एक स्ट्रोक का लक्षण है।
एक सुप्रसिद्ध कार्डियोलॉजिस्ट का कहना है कि अगर इस ई-मेल को पढ़ने वाला इसे आगे दस लोगों को भेजे तो शर्तिया तौर पर आप एक बेशकीमती जान तो बचा ही सकते हैं ....
और यह जान आप की अपनी भी हो सकती है।
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डा्क्टर साहब की यह पोस्ट को हिंदी में लिखने का ध्यान आया क्योंकि मुझे अपनी बड़ी बहन का ध्यान आ गया। बात 1990 की है, वे जयपुर में प्रोफैसर हैं, एक दिन अचानक वह अचानक दाएं पैर की चप्पल बाएं में और बाएं की दाएं की डाल कर चलने लगीं तो घर में बच्चियां हंसने लगीं --- और थोड़े समय में उन की जुबान भी बताते हैं कांप सी रही थीं। जीजा जी उन्हें तुरंत फैमिली डाक्टर के पास ले गये ---अब देखिये फैमिली डाकटर भी कितने मंजे होते हैं ---उन्होंने उन्हें तुरंत डा पनगड़िया (जयुपर के क्या ,सारे विश्व के एक सुप्रसिद्ध न्यूरोलॉजिस्ट हैं डा पनगड़िया)की तरफ़ इन्हें रवाना कर दिया ...जाते ही उन का सीटी हुआ ---पता चला कि यह transient ischemic attack (TIA) है --- इस दौरान दिमाग में रक्त की मात्रा अचानक बहुत कम पहुचंती है --- और यह स्ट्रोक की तरफ़ भी जा सकता है। बस, उन्हें डाक्टर साहब द्वारा तुरंत एक इंजैक्शन दिया गया ---शायद ट्रैंटल नाम का टीका था ----जो तुरंत छोटे मोटे थक्के (clot) को घोल देता है।
तुंरत ही मेरी बहन ठीक हो गईं और बाद में कुछ हफ्तों के लिये लेकिन उन्हें दवाई खानी पड़ी थी। भगवान की दुआ से अब बिल्कुल तंदरूस्त हैं। यह बहन की बात इसलिये लिखी की सही समय पर तुरंत डा्क्टरी सहायता मिलना कितना ज़रूरी है इस बात को रेखांकित किया जा सके और साथ में अपने फैमिली डाक्टर से हमेशा सलाह लेने में ही बेहतरी है ---वरना शिक्षा से जुड़े लोगों को कहां पता रहता कि कौन न्यूरोलॉजिस्ट और किस के पास जाना है ?
बहरहाल, काम तो मैं नेट पर कुछ और करने बैठा था--- लाइट है नहीं, इंवरटर पर काम चालू है। घर वाले सभी जयपुर गये हैं ---बेटे को कह रहा हूं कि यार एक कप चाय पिला दो ---कह रहा है कि नहीं पापा, यह ना होगा ---देखता हूं शायद मुझे ही उठना होगा।
जब डाक्टर सिंहा की यह पोस्ट देखी तो रहा नहीं गया ----ऐसा लगा कि डाक्टर साहब जो निश्चेतना विशेषज्ञ हैं, अगर उन्होंने इतनी बढ़िया पोस्ट हम सब तक पहुंचा कर इतना सार्थक कार्य किया है तो अपना थोड़ा योगदान भी तो बनता ही है, बॉस.।
बहरहाल, डा सिंहा जी, गुस्ताखी माफ़ ----आप का लेख चुराने के लिये। Hope you dont mind, which i am sure you won't.

शुक्रवार, 4 जून 2010

अमेरिकी टीनएजर्स का सैक्सुअल बिहेवियर- एक रिपोर्ट

अमेरिका की एक सरकारी संस्था है --सैंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल-- इस ने कल ही वहां के टीनएजर्स के सैक्सुअल बिहेवियर के बारे में एक रिपोर्ट जारी की है ---CDC Report Looks at Trends in Teen Sexual Behaviour; Attitudes toward Pregnancy.
इस रिपोर्ट के मुताबिक कुछ बातें हैं जिन्हें हिंदी चिट्ठों के पाठकों से साझा करना ज़रूरी लग रहा है। मैंने ये आंकड़े इस रिपोर्ट के आधार पर cnn.com पर छपी इस स्टोरी से लिये हैं-- Teens having sex: Numbers staying steady.
15से19 साल के युवक-युवतियों के सैक्सुअल बिवेवियर के बारे में छपी इस रिपोर्ट के अनुसार 2006 से 2008 के दो साल के आंकड़ों से यह पाया गया है कि 42 प्रतिशत से ज़्यादा अथवा 43 लाख टीनएज किशोरियां कम से कम एक बार यौन संबंध बना चुकी हैं। टीनएज लड़कों के लिये ये आंकड़ें 43 प्रतिशत के हैं या 45 लाख लड़के।
जिन लड़के-लड़कियों का सर्वे किया गया उन में से 30 प्रतिशत के दो अथवा उस के अधिक पार्टनर रहे हैं। जिन टीनएज लड़कियों ने छोटी उम्र में ही पहला सैक्सुअल अनुभव किया था, उन के पार्टनर ज़्यादा होने की संभावना रहती है। और यह भी पता चला कि जो टीनएज़र अपने मां-बाप की पहली संतान हैं और 14 वर्ष की आयु में अगर वे एक टूटे परिवार (जहां मां-बाप एक साथ नहीं रहते) में रहते हैं तो उन के सैक्सुअली एक्टिव होने की संभावना ज़्यादा होती है।
यह तो आप जानते ही हैं कि अमेरिका में टीनएज उम्र की लड़कियों के मां बनने के आंकडे़ काफी ऊपर हैं। अमेरिका के बाद अगला नंबर है युनाइटेड किंगडम का। कैनेडा में टीन-बर्थ रेट है 1000 में से 13 (13 per1000) जब कि अमेरिका में यह रेट है 43 per 1000.
इस स्टोरी में तो यह भी लिखा गया है कि उन्हें इस बात की तसल्ली तो है कि लगभग 80 प्रतिशत टीनएज लड़कियां और 90 प्रतिशत टीनएज लड़के अपने पहले सैक्सुअल अनुभव के वक्त किसी न किसी तरह का गर्भनिरोध का तरीका इस्तेमाल करते हैं। कांडोम के गर्भ निरोध के लिये सब से ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है। 95 प्रतिशत सैक्सुअली अनुभवी लड़कियों ने कम से कम एक बार इस का उपयोग किया है। इस के बाद नंबर आता है वीर्य-स्खलन से पहले ही withdraw कर लेना और उस के बाद में नंबर आता है गर्भनिरोधक गोली का।
और जो टीनएजर पूरी तरह से यौन संबंधों से किनारा किये रहते हैं उन का इस तरह के व्यवहार से दूर रहने के नैतिक अथवा धार्मिक कारण पहले नंबर पर हैं --दूसरा नंबर है गर्भ ठहर जाने का डर। इस स्टोरी में यह भी लिखा है कि ऐसा नहीं कि प्रेगनैंसी ने किसी तरह से टीनएजर्स को रोक के रखा हुआ है। इस में लिखा है कि मां बाप को तो शायद सुन कर हैरानगी होगी कि ऐसे लड़के लड़कियों (जो इस तरह के संबंधों में लिप्त होते हैं) में से लगभग एक चौथाई ने तो यह कहा कि उन्हें खुशी होगी अगर वे गर्भवती हो जाएं अथवा अपने पार्टनर को गर्भवती कर दें।
और अधिकांश टीनएजर्स -- 64 प्रतिशत लड़कों एवं 71 प्रतिशत लड़कियों ने यह माना कि अगर शादी-ब्याह के बिना बच्चा हो भी जाता है तो यह ठीक है।
और एक दुःखद बात देखिये --सर्वे में पाया गया है कि 15 से 19 उम्र की टीनएज लड़कियों में यौनजनित रोग ---क्लैमाइडिया एवं गोनोरिया रोग (Chlamydia and Gonorrhoea)...किसी भी दूसरे आयुवर्ग एवं लड़कों की तुलना में काफी ज़्यादा संख्या में हैं।
इस स्टडी के लिये लगभग 3000 टीनएज लड़के लड़कियों का इंटरव्यू लिया गया था।
आप किस सोच में पड़ गये ? ऐसा ही लगते है ना कि ज़माना वास्तव में ही बहुत आगे निकल गया है। और यहां पर कुछ समय पहले शायद एक लिव-इन रिलेशशिप पर कोई फैसला आया था तो कितना बवाल मचा था । अब क्या ठीक है क्या गलत----- यह निर्णय करना एक लेखक का काम नहीं, उस का काम है तसवीर पेश करना, सो कर दी है। वैसे जो ऊपर cnn वाली स्टोरी है उस पर टिप्पणीयां बहुत ही आई हुई हैं, हो सके तो देखियेगा। मुझे तो टाइम नहीं मिला। आज शायद पहली बार मैंने इस तरह के सरकारी आंकड़े पढ़े हैं, सुनी सुनाई बात और होती है और प्रामाणिक तौर पर जारी कोई रिपोर्ट ही विश्वसनीय होती है।
बस इस बात को इधर यहीं पर दफन करते हैं। वैसे भी ...... हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है.....।

तो क्या अब मधुमेह से बचने के लिये भी दवाईयां लेनी होंगी?

एक बार तो यह रिपोर्ट देख कर मेरा भी दिमाग घूम गया कि अब नौबत यहां तक आ पहुंची है कि मधुमेह जैसे रोग से बचने के लिये भी दवाईयों का सहारा लेना होगा। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि प्री-डॉयबीटिज़ को मधुमेह तक न पहुंचने में दवाईयां सहायता कर सकती हैं।
प्री-ड़ॉयबीटिज़ से तो आप सब भली भांति परिचित ही हैं ---यानि कि डॉयबीटिज की पूर्व-अवस्था। इस के बारे में जाने के लिये इस पोस्ट को देख सकते हैं...क्या आप प्री-डॉयबीटिज़ के बारे में जानते हैं ?
हम सब लोग समझते हैं कि हैल्थ-जर्नलिज़्म भी एक मिशन जैसा काम है। ऐसा नहीं हो सकता कि किसी को भी कुछ भी परोस कर हम किनारा कर लें----क्योंकि हैल्थ से जुड़ी न्यूज़-रिपोर्ट को लोग कुछ ज़्यादा ही गंभीरता से लेते हैं ---इसलिये इन में हमेशा वस्तुनिष्ठता (objectivity) का होना बहुत लाज़मी सा है।
पता नहीं जब मैंने भी इस रिपोर्ट....Drug Combo staves off Type2 Diabetes-- को पढ़ना शुरु किया तो बात मुझे बिल्कुल हज़्म नहीं हो रही थी लेकिन जैसे तैसे पढ़ना जारी रखा तो बहुत सी बातें अपने आप ही स्पष्ट होने लगीं ---अर्थात् इस तरह की सिफारिश कर कौन रहा है, इस तरह का अध्ययन कितने लोगों पर किया गया है, यह स्टड़ी करने के लिये फंड कहां से आए और सब से अहम् बात यह कि इस के बारे में मंजे हुये विशेषज्ञों का क्या कहना है?
एक बात का ध्यान आ रहा है कि जिन दवाईयों की बात हो रही है उन में से एक के तो कभी कभी बुरे प्रभाव भी देखने को मिलते हैं और इस तरह की कुछ रिपोर्टें पीछे देखने को भी मिलीं। लेकिन जब विशेषज्ञ डाक्टर किसी मधुमेह के रोगी को ये दवाईयां देते हैं तो सब देख भाल कर देते हैं और उन के प्रभावों को नियमित मानीटर करते रहते हैं ----और रिस्क और लाभ को तोल कर---भारी पलड़ा देख कर ही इस तरह के निर्णय लेते हैं। लेकिन जब इस तरह की दवाईयों की बात मधुमेह से बचने के लिये की जाए तो किसी के भी कान खड़े हो जाना स्वाभाविक सा ही है।
हां, तो जब सारी रिपोर्ट पढ़ी तो यह पता चला कि यह अध्ययन केवल 207 लोगों पर किया गया ---जैसा कि इस रिपोर्ट में बताया गया है कि चाहे किया तो इसे गया लगभग चार साल के लिये लेकिन इस स्टडी को करने के लिये ये दवाईयां बनाने वाली कंपनी ने फंड उपलब्ध करवाये। और साथ ही साथ आप पारदर्शिता की हद देखिये कि रिपोर्ट में एक तटस्थ विशेषज्ञ (independent expert) की राय भी छापी गई है।
विशेषज्ञ की राय की तरफ़ भी ध्यान करिये कि वह कह रहे हैं कि प्री-डायबीटिज़ एक ऐसी अवस्था तो है जिस के बारे में जागरूक रहने की ज़रूरत है और इस को डायबीटिज तक पहुंचने से रोकने के लिये अपना वज़न नियंत्रित करने के साथ साथ नियमित शारीरिक व्यायाम करना भी बेहद लाजमी है। रिपोर्ट के आखिरी लाइन में तो उस ने यह भी कह दिया कि इस छोटे से अध्ययन के परिणामों से यह नहीं कहा जा सकता कि इन दवाईयों के प्रभाव से प्री-डायबीटिज को डायबीटिज़ में तबदील होने से रोका जा सकता है।
अब आप देखिये कि हैल्थ रिपोर्टिंग कितने ध्यान से की जानी चाहिये----अखबारों में छपी इन खबरों को हज़ारों-लाखों लोग पढ़ते हैं और फिर बहुत बार रिपोर्ट में लिखी सारी बातों को पत्थर पर लकीर की तरह मान लेते हैं। और तो और, अगर किसी हिंदी अखबार में यही खबर छपे तो पता है कैसे छपेगी-----डायबीटिज़ से बचने के लिये वैज्ञानिकों ने रोज़ाना दवाई लेने की सलाह दी है -------और शीर्षक भी कुछ ऐसा ही होता -----"डायबीटिज़ की रोकथाम के लिये लें दवाईयां" ।
अच्छा तो हो गई खबर----अब आपने क्या फैसला किया है --- शायद मेरी ही तरह रोज़ाना टहलने का मन बनाया हो, मीठा कम करने की ठानी हो और मैंने तो फिर से साइकिल चलाने की प्लॉनिंग कर ली है।
मुझे यह सब लिखने का बड़ा फायदा है---- मेरे गुरू जी कहते हैं कि तुम लोग किसी बात को अपनी लाइफ में उतारना चाहते हो तो उस से संबंधित ज्ञान को दूसरों के साथ बांटना शूरू कर दो ----इस से जितनी बार तुम दूसरों को इस के बारे में कहोगे, उतनी ही बार अपने आप से भी तो कहोगे और वह पक्की होती जायेगी। मेरे खाने-पीने के साथ भी ऐसा ही हुआ ----मैं पिछले कुछ वर्षों से जब से सेहत विषयों पर लिख रहा हूं तो मैंने भी बाहर खाना बंद कर दिया है, जंक बिल्कुल बंद है -------क्या हुआ छः महीने साल में एक बार कुछ खा लिया तो क्या है !!
अब मैं चाहता हूं कि नियमित शारीरिक व्यायाम और मीठे के कंट्रोल के बारे में भी मैं इतनी बातें लिखूं कि मुझे भी थोड़ी शर्म तो महसूस होने लगे ------परउपदेश कुशल बहुतेरे!!!!

मूंगफली मुक्त अमेरिकी उड़ाने ?

अमेरिका में कुछ लोगों को मूंगफली से एलर्जी है इसलिये वहां पर एयरलाइन कंपनियां अपनी उड़ानों को मूंगफली मुक्त करने पर गंभीरता से विचार कर रही हैं। आप स्वयं भी cnn यह रिपोर्ट पढ़ सकते हैं --US considers banning peanuts on planes.
यह मानना पड़ेगा कि उन देशों में यह एलर्जी वगैरह की टैस्टिंग बहुत बढ़िया ढंगों से की जाती है। क्या आपने अपने यहां भी कभी सुना कि किसी को मूंगफली से एलर्जी है, मैंने तो नहीं सुना। एक बात और भी है ना कि यहां तो वैसे ही हमारे पास सेहत से जुड़े इतने बड़े बड़े मुद्दे हैं कि अब इस मूंगफली की एलर्जी को कौन ढूंढवाता फिरे ?
अमेरिका में तो केवल मूंगफली से ही नहीं, इन उड़ानों के दौरान मूंगफली से बनी अन्य चीज़ों पर भी रोक लगाने का मामला विचाराधीन है। मूंगफली से और क्या बनता है? -- आप भी मेरी तरह गज्जक (चिक्की) के बारे में सोच रहे हैं, लेकिन इस से मक्खन भी बनता है (Peanut butter).
कुछ महीने पहले मैंने एक लेख लिया था कि कैसे विदेश में कुछ स्कूलों ने बच्चों के मूंगफली खाने पर प्रतिबंध लगा दिया है-- क्योंकि वहां कुछ बच्चों को इस से एलर्जी होती है।
चलिये, वहां तो इस तरह के प्रतिबंध लगाये जा रहे हैं, विचाराधीन हैं---लेकिन हम यहां क्या करें ? आप भी मेरी तरह मूंगफली का जश्न तब तक मनाते रहें जब तक कि कोई विदेशी कंपनी के महंगे टैस्ट आपके या मेरे कान खींच कर यह न कह दे कि ओए, यह क्या खा रहा है, तेरे को तो इस से एलर्जी है?
यह तो मानते ही हैं कि मूंगफली प्रोटीन का एक बेहत उमदा स्रोत है। और हमारे देश में खून की कमी (एनीमिया) की बीमारी बहुत आम है। इसलिये मैं हरेक को विशेष कर कमज़ोर महिलाओं को एवं सभी बच्चों को यह सलाह देता हूं कि ठीक है सर्दियों में मूंगफली खाएं लेकिन रात को अगर एक मुट्ठी मूंगफली के कच्चे दाने पानी में भिगो के सुबह गुड़ के साथ नाश्ते के समय खा लें तो बहुत बढ़िया रहता है। मैं भी कईं साल ऐसा करता रहा हूं।
कईं बार ऐसा प्रश्न सामने आता है कि यह सब क्या ग्रीष्मकाल में भी ? ---जी हां, बिल्कुल गर्मी के मौसम में भी इसे भिगो कर खाते रहें --- यह सेहत के लिये, खून की कमी को पूरा करने के लिये बहुत बढ़िया देसी जुगाड़ है। लेकिन यह ध्यान रहे कि ऐसे लोग जो पहले ही से ओवर-व्हेट हैं, स्थूल काया के हैं, मोटापे से परेशान हैं, वे इस के इस्तेमाल से बच कर रहें।
और एक बात ---अब हमें आने वाले समय में सचेत रहना होगा कि हम लोग इन उड़ानों के दौरान जेब में मूंगफली डाल पर हवाईअड्डों पर न दिखें ---- और न ही वहां रह रहे अपने सगे-संबंधियों के लिये मूंगफली से तैयार किये कुछ उम्दा खाद्य पदार्थ ही वहां लेकर जाएं -----कहीं ऐसा न हो कि उड़ान के दौरान किसी को मूंगफली से एलर्जी का अटैक हो जाए और आप के लिये आफ़त हो जाए।
अपने यहां कोई दिक्कत नहीं ---खाते जाएं....चबाते जाएं --मस्त रहें, लेकिन छिलके केवल डस्टबिन में --नहीं तो घर में भी डांट पड़ती है और बाहर लोग बड़े अजीब ढंग से घूरने लगते हैं।
संपादित --15:30......इस पोस्ट पर आई टिप्पणीयां देख कर लगा है कि मैडीकल लेखन में हर बात को खोल के लिखना कितना ज़रूरी है, मुझे लगता है कि मेरी मूंगफली से एलर्जी वाली बात को पाठकों ने वह एलर्जी समझ लिया है जिस के बारे में हम लोग अकसर कह देते हैं कि यार, मुझे यार तेरी इस बात से बड़ी एलर्जी है , मुझे उस से बड़ी एलर्जी है। लेकिन यहां बात हो रही है मैडीकल एलर्जी की ---जिस में मूंगफली खाने से या उस के संपर्क में आने से वही सब कुछ होता है जो किसी को दवाई की या किसी इँजैक्शन से एलर्जी के कारण होता है ---सारे शरीर में सूजन, खाज-खुजली, सांस लेने में दिक्तत, घबराहट और यहां तक कि बहुत बार तो इस के लिये तुरंत कुछ टीके भी लगवाने पड़ सकते हैं ---कईं बार कुछ एैंटी-एलर्जिक दवाईयों से भी काम चल जाता है।

गुरुवार, 3 जून 2010

दुर्बलता(?) के शिकार पुरूषों की सेहत से खिलवाड़

आज मैं एक रिपोर्ट देख रहा था जिस में इस बात का खुलासा किया गया था कि इंपोटैंस (दुर्बलता, नपुंसकता) के लिये लोग डाक्टर से बात करने की बजाए अपने आप ही नैट से इस तकलीफ़ को दुरूस्त करने के लिये दवाईयां खरीदने लगते हैं।
और नेट पर इस तरह से खरीदी दवाईयों की हानि यह है कि कईं बार तो इन में टॉक्सिंस(toxins) मिले रहते हैं, बहुत बार इन में साल्ट की बहुत ज़्यादा खुराक होती है और कईं बार बिल्कुल कम होती है। और तो और इस तरह की दवाईयां जो नेट पर आर्डर कर के खरीदी जाती हैं उन में नकली माल भी धडल्ले से ठेला जाता है क्योंकि ऐसे नकली माल का रैकेट चलाने वाले जानते हैं कि लोग अकसर इन केसों में नकली-वकली का मुद्दा नहीं उठाते। तो, बस इन की चांदी ही चांदी।
अपनी ही मरजी से अपनी ही च्वाईस अनुसार मार्केट से इस तरह की दवाईयां उठा के खाना खतरनाक तो है ही लेकिन उच्च रक्त चाप वाले पुरूषों एवं हृदय रोग से जूझ रहे लोगों के लिये तो ये और भी खतरनाक हैं।
आप यह रिपोर्ट - Dangers lurk in impotence drugs sold on web..देख कर इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि इस तरह की दवाईयों में भी नकलीपन का जबरदस्त कीड़ा लग चुका है।
शायद अपने यहां यह नेट पर इस तरह की दवाईयां लेने जैसा कोई बड़ा मुद्दा है नहीं, हो भी तो कह नहीं सकते क्योंकि यह तो flipkart से शॉपिंग करने जैसा हो गया। लेकिन आप को भी इस समय यही लग रहा होगा कि अगर विकसित देशों में यह सब गोलमाल चल रहा है तो अपने यहां तो हालात कितने खौफ़नाक होंगे।
मुझे तो आपत्ति है जिस तरह से रोज़ाना सुबह अखबारों में तरह तरह के विज्ञापन लोगों को ये "ताकत वाले कैप्सल" आदि लेने के लिये उकसाते हैं----बादशाही, खानदानी कोर्स करने के लिये भ्रमित करते हैं ----गोल्ड-सिल्वर पैकेज़, और भी पता नहीं क्या क्या इस्तेमाल करने के लिये अपने झांसे में लेने की कोशिश करते हैं।
और इन विज्ञापनों में इन के बारे में कुछ भी तो नहीं लिखा रहता कि इन में क्या है, और कितनी मात्रा में है। मुझे इतना विश्वास है कि इन में सब तरह के अनाप-शनाप कैमीकल्स तो होते ही होंगे.....और ये कुछ समय बाद किस तरह से शरीर को कितनी बीमारियां लगा देंगे, यह तो समय ही बताता है।
तो फिर कोई करे तो क्या करे ? ---सब से पहले तो इतना समझ के चलने के ज़रूरत है कि अधिकांश केसों में लिंग में पूरे तनाव का न हो पाना ....यह दिमाग की समस्या है...भ्रम है, और इसे भ्रम को ही ये नीम-हकीम भुना भूना कर बहुमंजिली इमारतें खड़ी कर लेते हैं। युवा वर्ग में तो अधिकांश तौर पर किसी तरह के इलाज की ज़रूरत होती नहीं ---केवल खाना पीना ठीक रखा जाए, नशों से दूर रहा जाए....और बस अपने आप में मस्त रहा जाए तो कैसे यह तकलीफ़ जवानी में किसी के पास भी फटक सकती है।
लेकिन अगर किसी व्यक्ति को यह तकलीफ़ है भी तो उसे तुरंत अपने फ़िज़िशियन से मिलना चाहिए ---वे इस बात का पता लगाते हैं कि शरीर में ऐसी कोई व्याधि तो नहीं है जिस की वजह से यह हो रहा है, या किसी शारीरिक तकलीफ़ में दी जाने वाली दवाईयों के प्रभाव के कारण तनाव पूरा नहीं हो पा रहा या फिर कोई ऐसी बात है जिस के लिये किसी छोटे से आप्रेशन की ज़रूरत पड़ सकती है। लेकिन यह आप्रेशन वाली बात तो बहुत ही कम केसों में होती है। और कईं बार तो डाक्टर से केवल बात कर लेने से ही मन में कोने में दुबका चोर भाग जाता है।
अब फि़जिशियन क्या करते हैं ? -सारी बात की गहराई में जा कर मरीज़ की हैल्प करते हैं और शायद कुछ केसों में इस तकलीफ़ के समाधान के लिये बाज़ार में उपलब्ध कुछ दवाई भी दे सकते हैं। और अगर फिजिशियन को लगता है कि सर्जन से भी चैक-अप करवाना ज़रूरी है तो वह मरीज़ को सर्जन से मिलने की सलाह देता है।
कहने का अभिप्रायः है कि बात छोटी सी होती है लेकिन अज्ञानता वश या फिर इन नीमहकीमों के लालच के कारण बड़ी हो जाती है। लेकिन जो है सो है, लकीर पीटने से क्या हासिल ---कोई चाहे कितने समय से ही इन चमत्कारी बाबाओं की भस्मों, जड़ी बूटियों के चक्कर में पड़ा हुआ हो लेकिन ठीक काम की शुरूआत तो आज से की ही जा सकती है। क्या है, अगर लिंग में तनाव नहीं हो रहा, तो नहीं हो रहा, यह भी एक शारीरिक समस्या है जिस का पूर्ण समाधान क्वालीफाईड डाक्टरों के पास है। और अगर वह इस के लिये कोई दवाई लेने का नुस्खा भी देता है तो कौन सी बड़ी बात है ----यह मैडीकल फील्ड की अच्छी खासी उपलब्धि है। लेकिन अपने आप ही अपनी मरजी से किसी के भी कहने पर कुछ भी खा लेना, कुछ भी पी लेना, कुछ भी स्प्रे कर लेना, किसी भी ऐरी-गैरी वस्तु से मालिश कर लेना तो भई खतरे से खाली नहीं है।
एक अंग्रेज़ी का बहुत बढ़िया कहावत है --- There is never a wrong time to do the right thing. इसलिये अगर किसी को इस तरह की तकलीफ़ है भी तो यह कौन सी इतनी बड़ी आफ़त है -----डाक्टर हैं, उन से दिल खोल कर बात करने की देर है---- उन के पास समाधानों का पिटारा है। शायद मरीज़ को लगे कि यार, यह सब डाक्टर को पता लगेगा तो वह क्या सोचेगा? ---उन के पास रोज़ाना ऐसे मरीज़ आते हैं और उन्हें कहां इतनी फुर्सत है कि मरीज़ के जाने के बाद भी ये सब सोच कर परेशान होते रहें। अच्छे डाक्टर का केवल एक लक्ष्य होता है कि कैसे उसे के चेहरे पर मुस्कान लौटाई जाए -----अब इतना पढ़ने के बाद भी कोई इधर उधर चक्करों में पड़ना चाहे तो कोई उसे क्या कहे।
इस विषय से संबंधित ये लेख भी उपयोगी हैं .....

अवसाद (डिप्रेशन) के लिये ली जाने वाली टैबलेट क्या संजीवनी है ?

अकसर मैं सोचता हूं कि यह कैसे संभव है कि डिप्रेशन के लिये ली जाने वाली गोली संजीवनी बूटी जैसा काम कर देगी और मूड को लिफ्ट करा देगी। वैसे तो मैं कहने को एलोपैथी से ही संबंधित हूं लेकिन पता नहीं क्यों कुछ तकलीफ़ों के लिये मुझे सीधा दवाईयों का रूख करना कभी भी मुनासिब नहीं लगता।
जिस तरह से मैंने एक बार प्रश्न उठाया था कि यह कैसे हो सकता है कि केवल ब्लड-प्रैशर की टेबलेट लेने मात्र से ही सब दुरूस्त हो जाए ----यार सीधी सी बात है कि अगर दवाईयों से ही सेहत मिलती होती तो बात ही क्या थी !!
कोई मनोरोग विज्ञानी इस लेख को पढ़ेगा तो इस से कोई दूसरा मतलब भी निकाल सकता है। लेकिन मुझे डिप्रेशन जैसे रोग के लिये लंबे लंबे समय तक दवाईयां लेने पर बहुत एतराज़ है। डिप्रेशन तो आप सब समझते ही हैं ---बस उदासी सी छाई रहना, कुछ भी काम में मन न लगना, हर समय सुस्ती सी, हर समय कुछ अनिष्ट होने के ख्याल....बस और भी इस तरह की बहुत से भाव। हर समय़ थका थका सा रहना और जीने की तमन्ना का ही खत्म सा हो जाना।
एक बात का ध्यान आ रहा है कि क्या आपने कभी सुना है कि आप के घर में जो बाई काम कर रही है, उसे डिप्रेशन हो गई है या कपड़े प्रैस करने वाला चार डिप्रेशन में आ गया है या कुछ मज़दूरों को अवसाद हो गया है। नहीं सुना ना ----शायद इन में भी होता तो होगा ही, लेकिन ये सब प्राणी अपनी दाल-रोटी के जुगाड़ में इतने घुसे रहते हैं कि इन की बला से यह अवसाद, वाद............शायद ये झट से हर परिस्थिति के साथ समझौता करने में कुछ ज़्यादा सक्षम होते हैं ---शायद मुझे ही कुछ ऐसा लगता हो।
लेकिन यह डिप्रेशन रोग तो लगता है पढ़े लिखे संभ्रांत लोगों के हिस्से में ही आया है। आदमी आदमी से दूर होता जा रहा है, किसी को बिना मतलब किसी से बात करने तक की फुर्सत है नहीं, ऊपर से उपभोक्तावाद का दबाव, पारिवारिेक मसले, कामकाज के दबाव, बच्चे के साथ जैनरेशन गैप का मुद्दा..............खाने पीने में बदपरहेजी, मिलावटी सामान, लेट-नाइट पार्टीयां......इन सब के प्रभाव से जब कोई डिप्रेशन में चला जाता है तो क्यों हम लोग समझ लेते हैं कि बस रोज़ाना एक टेबलेट लेने से ही सब कुछ फिट हो जायेगा।
मुझे याद है जब हम बंबई में था तो बेकार बेकार बातों की कुछ ज़्यादा ही फिक्र किया करता था ---और इसी चक्कर में मैंने दो-तीन दिन के लिये चिंता कम करने वाली दवाई ली थी -----भगवान जानता है कि उन दिनों मेरे साथ क्या बीती। और मैंने तौबा कर ली थी इन दवाईयों के चक्कर में नहीं पड़ना।
वैसे आज बैठे बैठे मुझे इस डिप्रेशन का ध्यान कैसे आया ? ---आदत से मजबूर जब मैडीकल खबरों की खबर ले रहा था तो इस खबर पर नज़र अटक गई ---Americans prefer drugs for depression : survey. इस में लिखा है कि अमेरिका में जिन लोगों को डिप्रेशन है उन में से अस्सी फीसदी तो इस के लिये कोई न कोई दवाई लेते हैं और वे इस के लिये किसी मनोवैज्ञानिक अथवा सोशल-वर्कर से बात करने से भी ज़्यादा कारगर इस टेबलेट को ही मानते हैं।वे लोग इस के लिये नईं नईं दवाईयों को आजमाना नहीं चाहते क्योंकि उन से साइड-इफैक्ट ज़्यादा होने की संभावना होती है। इस सर्वेक्षण में पाया गया है कि इन दवाईयों के साइड-इफैक्ट्स तो हैं ही लेकिन फिर भी इन्हें --विशेषकर इस तरह की दवाईयां लेने वालों में यौन-इच्छा एवं क्षमता का कम होना--- पिछले सर्वेक्षणों की तुलना में कम ही पाया गया है।
आप को भी शायद लगता होगा कि आज कल लोगों का support system खत्म सा हो गया है---- लोगों को ऐसा कोई कंधा नहीं दिखता जिस पर वे अपना सिर रख कर मन की बात खोल कर हल्का महसूस कर लें। और जितना जितना हम लोग दुनियावी बुलंदियों को छूने लगते हैं यह कमी और भी ज़्यादा खलने लगती है।
अच्छा, बहुत हो गई बातें ----आप मेरे से यही प्रश्न पूछना चाहते हैं ना कि अगर डिप्रेशन में मनोवैज्ञानिक या मनोरोग चिकित्सक के पास भी न जाएं तो फिर करें क्या ---इस में क्या है, सारा जग जिन बातों को जानता है उन पर पहले चलने की कोशिस करें ----लिस्ट दे दें ?
  1. सुबह सवेरे जल्दी उठने की आदत डालें---रोज़ाना टहलने का अभ्यास करें--थोड़ी बहुत शारीरिक कसरत, थोड़ा बहुत प्राणायाम् और योगाभ्यास करना सीखें। साईकिल चलाना क्यों छोड़ रखा है ? ....हौंसला बढ़ाने के लिये देखिये मैंने हरेक क्रिया के साथ थोड़ा जोड़ दिया है लेकिन जैसे ही मन टिकने लगे इन की अवधि बढ़ा दें --- और किसी योगाचार्य से अगर समाधि ध्यान (meditation) सीख कर उस का नियमित अभ्यास करें तो क्या कहने !!
  2. ऐसी वस्तुओं से हमेशा दूरी बना के रखें जिन की नैगेटिव प्राणिक ऊर्जा है जैसे कि सभी तरह के नशे---तंबाकू, शराब, बार बार चाय की आदत।
  3. अपने खाने में कच्चा खाना जैसे कि सलाद, अंकुरित दालें एवं अनाज की मात्रा बढ़ाते चले जाएं --- ये तो पॉवर-डायनैमो हैं, एक बार आजमा कर तो देख लें।
  4. रात के समय बिल्कुल कम खाना खाएं-- अगर तीन चपाती लेते हैं और आज से एक कर दें ---खूब सारा सलाद लें और फिर देखिये नींद कितनी सुखद होती है और सुबह आप कितना फ्रैश उठते हैं।
  5. वैसे तो यह देश हज़ारों सालों से जानता है कि जब लोग सत्संग आदि में जुड़ते हैं तो वे मस्त रहते हैं, खुशी खुशी बातें एक दूसरे के साथ साझी करते हैं, और क्या चाहिए ? ---क्या कहा मोक्ष --भई, वह तो मुझे पता नहीं, और न ही वह मेरा विषय है। मैं तो बात कर रहा था बाहर के देशों में होने वाली रिसर्च की जिन्होंने इस बात की प्रामाणिक तौर पर पुष्टि की है कि जो महिलायें सत्संग जैसे आयोजनों के साथ नियमित तौर पर जुड़ी रहती हैं वे अवसाद का बहुत ही कम शिकार होती हैं। और जहां तक मोक्ष की बात है, वह तो परलोक की बात है, चलिये पहले यह लोक तो सुहेला करें.......इस लिस्ट को देखते समय यह मन में मत रखिये कि जो ज्यादा महत्वपूर्ण बातें हैं वे ऊपर रखी हैं और कम महत्व की बातें नीचे हैं---------इसलिये इस सत्संग वाली बात को आप पहले नंबर से भी ऊपर जानिये।
  6. क्या लग रहा है कि यह डाक्टर भी अब इन सत्संगों की बातें करने लगा है? लगता है कि इस पर भी चैनलों का जादू चल गया है। ऐसा नहीं है, मैं बिल्कुल वैज्ञानिक सच्चाई ही ब्यां कर रहा हूं.। और किस सत्संग में जाएं ? ---जहां जाकर आप के मन को खुशी मिले,,आप कुछ हंसे, अपने दुःख-सुख बांटे, अपने हम उम्र लोगों का संग करें ------ बस यही सत्संग है जहां से कुछ भी ऐसा ग्रहण करने को मिले ----बाकी मोक्ष के पीछे अभी मत भागिये ---वह लक्ष्य तो अभी इंतज़ार भी कर सकता है।
(इस लिस्ट में आप सब लोग भी कुछ जोड़ने का सुझाव देंगे तो बहुत अच्छा लगेगा.....सोचिये और लिखें टिप्पणी में)

अब आते हैं, एक अहम् बात पर कि अगर लिस्ट के मुताबिक ही जीवन चल रहा है लेकिन फिर भी अवसाद है, डिप्रेशन है तो भाई आप किसी मनोवैज्ञानिक अथवा मनोरोग विशेषज्ञ से ज़रूर मिलें जो फिर बातचीत (काउंसलिंग) के ज़रिये आप को समझा बुझा कर ...नहीं तो दवाईयां देकर आप के उदास मन को लिफ्ट करवाने की कोशिश करेगा।

दरअसल हमारी समस्या यही है कि हम लोग इस लिस्ट को तो देखते नहीं, सीधा पहुंच जाते हैं डाक्टर के पास जो पर्चे पर डिप्रेशन लिख कर दवा लिख कर छुट्टी करता है, लैब अनेकों टैस्ट करवा के छुटट्टी कर लेती है, कैमिस्ट दवा बेच के छुट्टी करता है, मरीज़ दवा खा के छुट्टी कर लेता है.........सब की छुट्टी हो जाती है सिवाय अवसाद के-----वह कमबख्त ढीठ बन कर वहीं का वहीं खड़ा रहता है।
लगता है मैं भी अपने दिमाग को विराम दूं ----कहीं यह भी अवसाद में सरक गया तो ......!!

बुधवार, 2 जून 2010

बड़ी आंत की सफाई वाला बिजनैस ?

एक वेबसाइट है जिस पर प्रिंटमीडिया एवं इलैक्ट्रोनिक मीडिया पर चल रही सेहत संबंधी समाचारों की खिंचाई भी होती और जो बिल्कुल सुथरा और बिना किसी लाग-लपेट के सेहत के बारे में बढ़िया संदेश देते हैं उन की प्रशंसा भी की जाती है --इस साइट का नाम है healthnewsreview.org. मैं अकसर एक दो दिन में इस साइट को ज़रूर विज़िट करता हूं ---हो सके तो कभी कभी आप भी देख लिया करें।
मैं इस पर एक रिपोट---क्या अपने आप आंत साफ करने वाली दवाईयां सेहत में सुधार करती हैं?--- देख रहा था जिस में बड़ी आंत को साफ़ करने संबंधी एक न्यूज़-रिपोर्ट को इस साइट पर पांच सितारे मिले थे क्योंकि उस में बड़ी साफगोई से आंत की सफाई के लिये मार्कीट में आने वाले प्रोडक्टस् की पोल खोली गई है।
बड़ी आंत की सफ़ाई की बात करते हैं तो मुझे अपने योग में बहुत सक्रिय होने वाले दिन याद आ जाते हैं--यह बात आठ सल पहले की है जब हम लोग योग के एक रैज़ीडैंशियल कार्यक्रम के लिये जाया करते थे तो वहां पर एक क्रिया करते थे --शंख-प्रक्षालन। इस क्रिया के दौरान हमें एक दिन सुबह सुबह गुनगुना नमकीन पानी पीने को कहते थे ---जितना हम आसानी से पी सकें ---होता यूं था कि कुछ गिलास पीने के बाद हम लोग टायलेट की तरफ़ भागना शुरू कर देते थे --- और शायद एक घंटे में आठ दस बार हमें टायलेट जाना पड़ता था ---कुछ ही मिनटों में बिल्कुल पानी जैसे मल होने लगते थे और देखते ही देखते बिल्कुल हल्कापन --- और उस के बाद हमें चावल का पानी (क्या बोलते हैं उसे मांड) दिया जाता था।
और हमें यह सचेत भी किया जाता था कि हम लोग इस प्रक्रिया को अपने आप घर में ना आजमाएं ---केवल योग गुरू की निगरानी में ही यह प्रक्रिया दो महीने के बाद की जा सकती है। मुझे भी इस तरह की क्रिया को एक योग आश्रम में तीन-चार बार करने का अवसर मिला।
अच्छा हम लोग तो उस रिपोर्ट की चर्चा कर रहे थे जिस में कुछ विज्ञापनों का विश्लेषण किया गया है जो अपने प्रोड्क्टस के द्वारा बड़ी आंत को साफ़ करने का ढिंढोरा पीट रहे हैं। दरअसल अमीर दूर-देशों में आंत की बहुत ज़्यादा तकलीफ़े हैं --अन्य कारणों के साथ साथ वहां पर यह जो नॉन-वैजीटेरियन खाना बहुत चलता है और वह भी अत्यंत प्रोसैस्ड----इस सब से यह तकलीफ़ें जैसे कि बड़ी आंत का कैंसर जैसे रोग काफी आम हैं।
मैं जब इस रिपोर्ट को देख रहा था तो मैं भी यह सोच कर दंग था कि ऐसे कैसे किसी स्वस्थ बंदे की आंत में 10पाउंड, बीस पाउंड और यहां तक कि चालीस पाउंड तक मल फंसा रहता है जिस के परिणामस्वरूप उसे हमेशा यह बोझा ढोने के लिये मजबूर होना पड़ता है।
इस में कोई शक नहीं कि अगर पेट ठीक तरह से साफ़ नहीं होता तो तबीयत नासाज़ सी ही रहती है । लेकिन अब अगर तीस चालीस पाउंड मल आंतों में फंसे होने की बात कोई कहे तो कोई उसे क्या कहे?
इस बढ़िया सा रिपोर्ट की पारदर्शिता देखिये कि उस में एक पेट के रोगों के माहिर डाक्टर की टिप्पणी भी दी गई थी। उसे भी यह बीस-तीस-चालीस पाउंड वाली बात बड़ी रोचक दिखी--उस ने मज़ाक में यह भी कह दिया कि गिनिज़ बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड को खंगालना पड़ सकता है।
और उस ने इस तरह के प्रोड्कट्स के बारे में लोगों को यह कहते हुये भी सचेत किया कि इस में मैग्नीशयम की मात्रा इतनी ज़्यादा होती है कि यह गुर्दे के रोगों से जूझ रहे लोगों के लिये खतरनाक हो सकती है। और जाते जाते उन्होंने यह भी कह दिया अगर कोई स्लिम-ट्रिम होने के लिये इन आंत की सफाई के लिये आने वाले पावडरों का सहारा ले रहा है तो उसे भी इन से दूर ही रहने की ज़रूरत है।
वैसे आप को भी लगता होगा कि अखबार में,मीडिया में छपने वाली सेहत की खबरों की अगर रोज़ाना इतनी खिंचाई होगी तो यह सब लिख कर लोगों को भ्रमित करने वाले लोग कैसे अपने आप लाइन पर न आएंगे।
मुझे यह लिखते लिखते ध्यान आ रहा है कि रिपोर्ट का पोस्ट-मार्टम तो हो गया लेकिन क्या इस में लिखी बातों ने क्या हमें कुछ सोचने पर मजबूर भी किया ? -- बात सोचने वाली यह भी है कि आंते भी क्या करें ----ऐसी कौन सी मशीनरी है जो 365दिन चौबीस घंटे चलती रहे --कोई विश्राम नहीं ----आखिर वह कब थोड़ी सुस्ताए --- वह तो तभी हो सकता है जब हम अपने मुंह को थोड़ा विराम दें ----उपवास रखने की आदत डालें ----दिन, विधि और अवधि आप स्वयं तय करें। मैं भी सोच रहा हूं कि उपवास रखना शूरू करूं।

दाल-रोटी खाओ......प्रभु के गुण गाओ

आज कल लोग देशी टॉनिकों की बात नहीं करते--वे उन टॉनिकों की बात करते हैं जिन की मार्केटिंग में ये कंपनियां हाथ धो कर पीछे पड़ी हुई हैं। और पता नहीं लोग इन कंपनियों की बात सुनते भी हैं, हम सारा दिन दाल-रोटी-सब्जी खाने की बात करते हैं और हमारे बच्चे भी हमारी सुन कर राजी नहीं हैं--- वे भी कुछ कुछ दालों एवं ज़्यादातर सब्जियों की कटोरी को यूं पीछे सरकाते हैं जैसे उन में दवाई मिली हो।
वैसे कभी आपने यह सोचा है कि कुछ विदेशी कंपनियां जो इस तरह के टॉनिक-वॉनिक सप्लाई करती हैं वे तो कितने कितने जबरदस्त हथकंडे अपनाती हैं, अपने कर्मचारियों को आकर्षक इंसैंटिव भी देती हैं। लेकिन इन के द्वारा किये जा रहे प्रचार को काउंटर करने के लिये ----लोगों को जागरूक करने का ढांचा देखिये कितना ढीला ढाला है --- सभी अच्छे चिकित्सकों को सम्मान देते हुये मैं भी अकसर देखता हूं कि अधिकांश सरकारी हस्पतालों में डाक्टर लोग सुबह से शाम तक बीमारों की तीमारदारी में ही इतने मसरूफ़ रहते हैं कि आप को लगता है कि उन में से अधिकांश को इस तरह के जागरूकता अभियान का हिस्सा बनने का समय भी मिलता होगा।
तो फिर ऐसे में होता क्या है ? --लोगों को लगता है कि जो बाहर की कंपनियां फरमा रही हैं, वह एकदम दुरूस्त है, इन टॉनिकों को लेकर ही फिट रहा जा सकता है।
लेकिन मैं इस बात से बिल्कुल भी इत्तफाक नहीं रखता --क्या पहले लोग जीते नहीं थे --- देखा जाए तो जीते वही थे, आज तो लोग बस टाइम को धक्का मार रहे हैं।
एक बात और भी है कि सीधी सादी सी बातें भी तो लोगों को समझ में नहीं आती ---जो बातें कहने सुनने में कठिन लगें, लच्छेदार हों, मीठी चासनी में घुली हों, उन्हें वही भाती हैं।
यकीन मानिये जिस मां का बच्चा रोटी नहीं खाता, दाल सब्जी नहीं खाता ---यह लगभग एक राष्ट्रीय समस्या सी हो गई है-- वह जब डाक्टर से किसी टॉनिक के लिये पूछती है और अगर कोई भला डाक्टर अपना समय निकाल कर उस के चिप्स, बिस्कुट, भुजिया, बर्गर बंद करने की सलाह देता है और रोटी दाल सब्जी खाने की सलाह देता है तो उस मां को शायद यह सलाह सब से बेकार लगती होगी और जाते समय वह कैमिस्ट से कोई न कोई टॉनिक की शीशी तो ले ही लेती होगी।
क्या कहें, क्या न कहें---सब कुछ गोरखधंधा है --किसी कैमिस्ट की दुकान पर देखो तो उस के काउंटर पर और आसपास ढ़ेरों अनाप शनाप टॉनिक-ज्यूस बिखरे पड़े होते हैं ----रैसिपी तो सेहत की एक ही है ---सादा संतुलित आहार --जो सदियों से देश खाता आ रहा है --- दाल-रोटी-सब्जी-चावल, सलाद और मौसमी फल ---इस के अलावा कैमिस्टों की दुकान से फिटनैस ढूढना बेकार है।
मैं कईं बार बैठा बैठा सोचता हूं कि बचपन में जो बच्चे बहुत सी सब्जियों-दालों से दूर रहते हैं ----शायद छोटेपन में तो चल जाता है ---क्योंकि यह सब भी कमबख्त लाड-प्यारा की परिभाषा में आ जाता है कि अगर लल्लन नहीं खा रहा यह सब कुछ तो चलो उसे दो-तीन परांठे सेंक दें ----और यह दौर चलता ही रहता है। नतीजा यह हो जाता है कि लल्लन 10-12 साल तक फूल के कुप्पा हो जाता है ----और फिर फिटनैस ढूंढी जाती है देशी-विदेशी टॉनिकों में।
तो आज की इस पोस्ट से केवल इस बात को उठायें कि बच्चों को छोटी उम्र से ही सभी सब्जियां, दालें और अनाज खाने की आदत डालें और अगर किसी कारणवश यह सब आप से नहीं हो रहा तो एक बहुत ही ज़्यादा गंभीर मुद्दा है ----क्योंकि मेरा अनुभव तो यही कहता है कि जो बच्चे बचपन में इन कुदरती वरदानों से दूर रहते हैं वे फिर बड़े होकर भी पिज़्जा, बर्गर, हाट-डाग, चाइनीज़, हाका, कोल्ड-ड्रिंक्स, और इसी तरह की अनेकों वस्तुओँ से भूख मिटाते फिरते हैं --------सब कुछ होता है इन के पास बड़ी बड़ी डिग्रीयां, बढ़िया अंग्रेज़ी, बढ़िया पे-पैकेट, ब्रैंडेड कपडे, अतिआधुनिक मोबाइल फोन..............और भी सब कुछ जिस की कोई भी कल्पना कर सकता है लेकिन अच्छी सेहत, फिटनैस के बिना यह सब किसी काम का। अच्छी सेहत तो साधी सादे हिंदोस्तानी खाने से ही आयेगी ---- यकीन मान लें कि और कोई भी रास्ता नहीं है फिट रहने के लिये।
और अब बात कि अगर ये सब इतने टॉनिक बन रहे हैं तो ये किस के लिये ? ---ये बीमार लोगों के लिये हैं, सेहतमंद लोगों के लिये , न ही ये अच्छे खाने का विकल्प हो सकते हैं----ये जो टॉनिक-वॉनिक हैं, इन्हें अकसर क्वालीफाईड चिकित्सक बीमार लोगों को देते हैं ताकि उन को जल्दी से सेहतलाभ हो।
मेरे को जब भी कोई इस तरह के टॉनिकों आदि के बारे में बताता है, इन की तारीफ़ों के पुल बांधता है, मैं शिष्टाचार वश उस की बात तो सन लेता हूं ----लेकिन किसी भी सेहतमंद आदमी को इन की सिफारिश करना तो दूर---मैं कभी इन का नाम तक लोगों के सामने नहीं लेता और न ही अपनी ओपीडी में इन का कोई विज्ञापन ही चिपकने देता हूं -----क्या है, कईं बार लोग इस तरह के इश्तिहार से भी इन के चक्कर में आ जाते हैं। बहुत बार सोचता हूं कि हम लोगों को काम भी ढिढोरची जैसा ही है ------हर समय किसी न किसी बात का ढिंढोरा पीटते रहना --------ताकि अज्ञानता वश कोई चक्कर में न पड़े।
जाते जाते एक बात का ध्यान आ गया ---क्या आपने कभी सुना है कि फलां फलां बच्चा बचपन में तो दाल-सब्जी नहीं खाता था लेकिन बड़ा होकर वह सब खाने लग गया है ----अगर सुना है तो टिप्पणी में ज़रूर लिखना -----क्योंकि मैंने तो ऐसा कभी नहीं सुना।

सोमवार, 31 मई 2010

तंबाकू दिवस पर तंबाकू को पैरों तले रोंदा नहीं?

आज विश्व तंबाकू निषेध दिवस है और मैं कुछ बातें दिल से करना चाहता हूं। मुझे व्यस्कों को बीड़ी-सिगरेट-तंबाकू का इस्तेमाल करते हुये देख कर कुछ दुःख होता है लेकिन ऐसे छोटे छोटे बच्चों को देख कर तो बहुत ही दुःख होता है जिन के मां-बाप तंबाकू का किसी भी रूप में इस्तेमाल करते हैं। और दुःख स्कूली बच्चों को बीड़ी-सिगरेट पीते देख कर भी बहुत होता है।

वैसे मुझे हार तो नहीं माननी चाहिये लेकिन पता नहीं मुझे क्यों लगता है कि जो व्यस्क हैं, कुछ वर्षों से तंबाकू का इस्तेमाल कर रहे हैं, डाक्टर लोग उन के लिये ज़्यादा से ज़्यादा क्या कर लेंगे? मेरा अनुभव कहता है कि बहुत कम ही इन लोगों के लिये कुछ किया जा सकता है। इस का कारण यह है कि ये लोग पक चुके हैं, तंबाकू के आदि हो चुक हैं, किसी की सुन के राजी नहीं हैं, और अकसर ये लोग तंबाकू को त्यागने का नाटक तो करते हैं---लेकिन पता नहीं कितने सीरियस होते हैं, मैं आज तक समझ नहीं पाया।
जो व्यस्क लोग तंबाकू के आदि हो चुके हैं, मैं समझता हूं कि वे अपनी च्वाइस से ऐसा कर रहे हैं। वैसे हम लोग तंबाकू की चेतावनियों के बारे में अकसर टिप्पणी तो करते हैं लेकिन समझ में नहीं आता कि क्यों ये लोग डरावनी चेतावनियों का इंतज़ार करते रहते हैं।
सब से ज़्यादा दुःख मुझे छोटे छोटे स्कूली एवं कॉलेज के छात्रों को तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन करते हुये होता है। क्योंकि मुझे लगता है कि यह एक राष्ट्रीय त्रासदी है—ये लोग एक बार इस ज़हर के, इस शैतान के भंवर में फंस गये तो समझो गये। बस, एक बार कुछ ही वर्षों में आदि हुये नहीं कि ढ़ेरों बीमारियां शरीर में घर कर लेती हैं। इसलिये कुछ भी कर के इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि किसी भी तरह से बच्चे इस राक्षस से दूर रहें। और इस के लिये शुरूआत पहले मां बाप को करनी होगी ----तंबाकू के सभी उत्पादों को हमेशा के लिये त्याग कर।
और फिर मुझे यह भी बहुत बुरा लगता है कि जब कोई परिवार कहीं बैठा है या यात्रा कर रहा है तो आदमी बीड़ी पर बीड़ी फूंके जा रहा है और इस से उठने वाले धुयें से उस का बच्चा जिसे उस की बीवी ने गोद में उठाया होता है, वह परेशान होता रहता है। हो सकता है कि उस आदमी को इस का आभास न हो, लेकिन अगर सारा संसार चीख चीख कर कह रहा है कि पैसिव स्मोकिंग के भी बहुत नुकसान हैं तो हैं। इसी तरह से गर्भवती महिलायें भी अपने पतियों के तंबाकू के धुयें का शिकार होती रहती हैं।
मेरा चिट्ठा है, दिल की बात इधर न लिखूंगा तो कहां लिखूंगा----सच में लिख रहा हूं कि मुझे उम्र में बड़े लोगों के तंबाकू की लत में फंसे होने का बहुत कम दुःख होता है ---अब पॉलिटिकली करैक्ट तो लिखना ही है कि दुःख तो होता ही है..... क्योंकि मुझे लगता है कि अकसर इस तरह के लोग किसी की सुनते नहीं, इन्हें बाकी सभी नफ़े-नुकसान तो अच्छे से पता है लेकिन तंबाकू के लिये क्यों ये चाहते हैं कि आसमान से फरिश्ता उतर कर इन की मदद करे। ऐसा कैसा हो सकता है ---सभी अस्पतालों के डाक्टर सारा दिन तंबाकू से होने वाले नुकसान को ठीक करने की हारी हुई जंग लड़ने में व्यस्त रहते हैं। जंग तो उस्ताद हारी हराई ही होती है
हम तो पैसिव स्मोकिंग की बात कर के छुट्टी कर लेते हैं – बस यही सोचते हैं कि कैसे किसी दूसरे को टोकें कि यार, तुम्हारी सिगरेट,बीड़ी से मुझे दिक्कत हो रही है। मैं कल कही पढ़ रहा था कि पैसिव स्मोकिंग से लाखों-करोड़ों लोग मारे जाते हैं ---अर्थात् उन्होंने स्वयं तो कभी तंबाकू का इस्तेमाल किया नही लेकिन उन के आस पास के लोगों की तंबाकू की आदत ने उन की जान ले ली।
सार्वजनिक स्थानों पर सिगरेट-बीड़ी पीना सख्त मना है---शायद कानूनी अपराध है या शायद केवल ज़ुर्माने का ही प्रावधान है ---क्या बसों में, गाड़ियों में , बस अड़्डों पर, रेलवे स्टेशनों पर लोग अब बीड़ी सिगरेट नहीं पीते? मैंने तो बहुत से लोगों को पब्लिक जगहों पर फेफड़े सेंकते देखता हूं। लेकिन मैं कहता किसी से कुछ नहीं हूं ---क्योंकि मैं बिना वजह किसी झगड़े से बचना चाहता हूं। यहां तक कि कॉलेज के बच्चों को भी तंबाकू का इस्तेमाल करते देखते हुये भी इन्हें कुछ कहने से डरता हूं कि कहीं बीच सड़क में पिट गया तो किसी को बता भी नहीं पाऊंगा।
और तंबाकू छुड़वाने के लिये तरह तरह के च्यूईंग गम आदि के मार्केटिंग के लोग मेरे तक भी पहुंचते तो हैं लेकिन मैंने आज तक किसी एक भी मरीज़ को इसे लेने की सलाह नहीं दी। कारण ? –मुझे लगता है कि जिस बंदे को तंबाकू छोड़ने के लिये निकोटिन-च्यूईंग गम आदि का पता है वह मेरी हरी झंडी की तो इंतज़ार कर नहीं रहा। खरीद कर खा ही लेगा अगर इतना व्याकुल होगा तंबाकू को लात मारने के लिये। और मैं ऐसे कैसे अढ़ाई रूपये की बीड़ी मारने वाले को पचास रूपये की निकोटिन च्यूईंग गम चबाने के लिये कह दूं-----यह अपने से नहीं होता।
और एक बात --- कुछ क्लीनिक व्यसन-मुक्ति के लिये भी चल रहे हैं --- जहां पर ड्रग्स एवं दारू आदि से मुक्ति दिलाई जाती है। लेकिन मुझे कभी भी नहीं लगा कि मैं किसी मरीज़ को इन जगहों पर जाने की सलाह दूं ---अगर किसी ने जाना होगा तो चला जायेगा। पिछले 25 सालों में तो मैंने अपने व्यक्तिगत अनुभव में किसी को इस तरह के स्थान पर जा कर तंबाकू को त्याग कर आते तो देखा नहीं ----शायद यह मेरा अल्प अनुभव होगा, शायद यह सब मुमकिन होता होगा।
तो मैंने कैसे केस देखे हैं जहां पर लोग तंबाकू को गाली निकाल कर लात मार देते हैं। जब किसी नज़दीकी सगे-संबंधी को तंबाकू के उपयोग से जुड़ी कोई जटिलता उत्पन्न हो जाती है या फिर तंबाकू का इस्तेमाल करने वाले के सीने में दर्द उठता है और डाक्टर ऐंजियोग्राफी करवाने की सलाह देता है तब मैंने लोगों को तुरंत इस ज़हर को हमेशा के लिये थूकते देखा है। और मैंने यह भी देखा है कि जो समर्पित डाक्टर हैं वे मरीज़ों के मुंह में झांक कर उन्हें तंबाकू से होने वाली तरह तरह की बीमारियों के बारे में आगाह भी करते रहते हैं------------बात तो उस्ताद वही है, कि मरीज़ चाहे खुद छोड़े या कोई छुड़वाये, ये सब दिल से करने वाली बातें है।
मैं जिस हस्पताल में काम करता हूं वहां पर हज़ारों कर्मचारी इलाज के लिये पंजीकृत हैं ---इसलिये मैं उन के मन में पैसिव स्मोकिंग के प्रति ज़हर भरता ही रहता हूं ----बस बातों बातों में उन्हें उकसाता रहता हूं कि अगर साथी सिगरेट-बीड़ी पीता है तो वह तुम्हारी सेहत की भी ऐसी तैसी फेर रहा है, उसे प्यार से रोक दिया करो। वर्क प्लेस पर ही नहीं, मुझे लगता है कि अब वे दिन भी दूर नहीं जब बीवी तंबाकू पीने वाले पति से दूर रहने की फिराक में रहेगी ---उसे बार बार ताने मारेगी, अपने छोटे छोटे बच्चों की सेहत का वास्ता देकर, अपने पेट में बढ़ रहे बच्चे की जान की खातिर इस शैतान का साथ छोड़ने की बात कहेगी और कितना अच्छा हो कि बच्चे ही घर में हड़ताल कर दें कि वे खाना तभी खाएंगे जब बाप बीड़ी पीना बंद करेगा या तो फिर अगर उसे तंबाकू पीना ही है तो घऱ के बाहर ही पी कर आया करे ----क्योंकि उस का मुंह बास मारता है और पैसिव स्मोकिंग से उन के फेफड़े भी जलते हैं। वैसे इस तरह की पैसिव स्मोकिंग के खतरों के बारे में जागरूक करने वाले कुछ पाठ अगर स्कूल-कॉलेज की किताबों में रहेंगे तो कैसा रहेगा ?
चलो यार, बहुत बातें हो गईं –अब खत्म करते हैं लेकिन इसी ताकीद के साथ कि अगर तंबाकू का इस्तेमाल आप कर रहे हैं तो तुरंत छोड़ दें -----इस में कोई आप की मदद नहीं करेगा ---यह काम आप को ही करना होगा—कैसे भी ...किसी भी तरह से ......लेकिन एक बात का विशेष ध्यान रखें कि अगर आप को पता लगे कि आप का बच्चा छुप छुप कर बाथरूम में कभी कभी कश मारने लगा है तो भी इसे एक एमरजैंसी समझ कर इस से निपट लें। वैसे तो मैं बच्चों के साथ किसी तरह की ज़ोर-जबरदस्ती का घोर विरोधी हूं लेकिन इस तंबाकू, सिगरेट, बीड़ी, गुटखा, दारू, बीयर के बारे में आप कोई भी साधन अपनायें ---क्या कहते हैं -----वह मुझे ठीक से याद भी तो नहीं ---साम, ढंड,भेद ... .........।
क्या आप को नहीं लगता कि 31 मई का दिवस तंबाकू निषेध दिवस तो है ही ---लेकिन जिन परिवारों में लोग इस तरह के व्यसन के आदि हैं क्या उन के लिये यह शोक दिवस नहीं है? ----हर साल यह दिन उन में और एक अंधी खाई के दरमियान के फासले कम करता जा रहा है।
भारत वैसे है ग्रेट देश -----मेरे जैसे लोग बीस-तीस सालों तक माथा पीटते रहते हैं और चंद लोगों को तंबाकू छुड़ाने में शायद सफल हो पाते हैं लेकिन यहां पर जो संत लोग हैं, मैं बहुत हैरान होता हूं कि सतसंग में उन के संपर्क में आने पर हज़ारों लोग तंबाकू, दारू, जुआ छोड़े देते हैं -----क्या कहा? यह अंधविश्वास है, अंध श्रद्धा है, आप इसे नहीं मानते ----------कोई बात नहीं, आप की मर्जी, लेकिन मैं इस तरह के लोग रोज़ देखता हूं जो सतसंग में जाने के बाद (अगर और जानकारी चाहिये तो मुझे ई-मेल करियेगा drparveenchopra@gmail.com ) पूरी तरह से बदल जाते हैं, व्यसन से दूर भागते हैं................बस, इसीलिये भारत तो बस भारत ही है। यहां पर बहुत सी ऐसी बातें हैं जिन्हें दिमाग से नहीं बल्कि दिल से समझा जा सकता है।
इसलिये बेहतर होगा कि तंबाकू की लत की ऐसी की तैसी करने के लिये न तो किसी कानून की इंतज़ार ही की जाए कि कोई कानून आ कर आप के हाथ से बीड़ी छीन लेगा और न ही सिगरेट के पैकटों पर भयानक चेतावनियों की बाट जोहते रहें ----सियासत करने वालों को जम कर सियासत करने दें ----आप अपना काम करिये -- जलती सिगरेट, सुलगती बीड़ी को अपने जूते के तले हमेशा के लिये रोंध दे और तंबाकू थूक दें...............शाबाश!! यह हुई न बात !!
PS......आज यह पोस्ट लिखते समय इतना ज़्यादा गाली गलौज़ करने की इच्छा हो रही थी कि पता नहीं कैसे काबू कर पाया हूं ---मन ही मन मैंने इस कमबख्त तंबाकू को पंजाबी भाषी में उपलब्ध बीसियों मोटी मोटी गालियां बक दी हैं ----आप मेरे बिना लिखे ही समझ लेना कि वे क्या क्या हो सकती हैं। सच में इस ने सारे संसार की सेहत की ऐसी की तैसी की हुई है और लोग हैं कि इस पर भी सियासत से बाझ नहीं आते। केवल जागरूकता ही इस से बचने का अस्त्र है।

गुरुवार, 27 मई 2010

छाती की जलन के लिये ली जाने वाली दवाई बढ़ा देती है फ्रैक्चर रिस्क

आज की आधुनिकता की अंधी दौड़ की एक देन तो है कि हर दूसरा आदमी छाती की जलन से परेशान है और इस के लिये बहुत बार बिना किसी डाक्टरी नुस्खे के ही अपने आप ही पेट में एसि़ड कम करने वाली दवाईयां लेना शुरू कर देते हैं।
और इस तरह की दवाईयों की हाई डोज़ अथवा लंबे समय तक सामान्य डोज़ लेना रिस्क से खाली नहीं है, वैज्ञानिकों की खोज से पता चला है कि हाई डोज़ अथवा लंबे समय तक इन दवाईयों को लेने से हिप (कुल्हा), कलाई एवं स्पाईन (रीढ़ की हड्डी) का फ्रैक्चर होने का रिस्क बढ़ जाता है।
पता नहीं आज कल इन दवाईयों का चलन बहुत ही ज़्यादा बढ़ गया है ---जिन हस्पतालों में दवाईयां मुफ्त वितरित की जाती हैं वहां भी मरीज इन दवाईयों का नाम ले कर इस तरह से मांगते हैं जैसे पिपरमिंट की गोलियों हों। और खाने पीने संबंधी बदलाव की सलाह देने पर वही जवाब होता है कि हम तो पहले ही से सावधानी बरतते हैं।
क्या आप को नहीं लगता कि हमारे शरीर में जो कुछ भी पदार्थ (सिक्रेशन्ज़-- secretions) आदि बन रहे हैं उन का अपना बहुत महत्व है--वे कईं शारीरिक क्रियाओं में अहम् भूमिका निभाते हैं। इस लिये अपनी मरजी से इस तरह की बिल्कुल हानिरहित सी दिखने वाली दवाईयां ले लेने से हम लोग कईं रिस्क मोल ले लेते हैं।
लेकिन अगर क्वालीफाईड डाक्टर कुछ समय के लिये इस तरह की दवाईयां खाने का नुख्सा दे तो अवश्य लें---वैसे तो इस रिपोर्ट में डाक्टरों को भी इन दवाईयों को लंबे समय तक मरीज़ों को देने के बारे में अच्छा खासा चेताया गया है।
बिल्कुल छोटे छोटे से तो देखते थे कि नानी-दादी इस काम के लिये थोड़ा सा मीठा सोड़ा पानी में घोल कर पी लिया करती थीं--- घर में बात करते हैं कि मेरी दादी पकौड़ों की बहुत शौकीन थीं --- और इन्हें खाने के बाद मीठे सोडा तो उन्हें चाहिये ही था। फिर समय आया जब हम लोग 15-20 साल के हुये तो टीवी पर हाजमा दुरूस्त करने के लिये एक पावडर का विज्ञापना बहुत आता था जिस की शीशी को लोगों ने घर में रखना एक स्टेट्स सिंबल समझना शुरु कर दिया था।
फिर हम लोग मैडीकल की पढ़ाई पढ़ने लगे तो देखा कि एंटासि़ड की गोलियां और पीने वाली दवाईयां खूब पापुलर हो गई हैं। और पिछले कुछ सालों से तो लोगों का इन एंटासिड की गोलियों एवं सिरिपों से भी कुछ नहीं बनता ---अब तो वे चाहते हैं कि किसी तरह से पेट में पैदा होने वाले एसिड् को समाप्त ही कर दिया जाये, लेकिन इस तरह की दवाईयां मनमर्जी से एवं लंबे समय तक लेने से होने वाले रिस्क आप जान ही गये हैं।
दवाई तो दवाई है ---- साल्ट है, ऐसे कैसे हो सकता है कि किसी भी साल्ट का कोई भी दुष्परिणाम न हो। और हां, जिन एंटासिड की गोलियों एवं सिरिपों की बात हो रही थी उन के अंधाधुंध इस्तेमाल से होने वाले दुष्परिणामों ( जैसे कि फ्रैक्चर रिस्क बढ़ना) के बारे में भी कुछ समय पहले खूब रिपोर्ट दिखीं थीं।
और तो और कुछ समय से यह भी सुनने में आ रहा है कि ये जो कोलेस्ट्रोल कम करने के लिये इस्तेमाल की जाने वाली दवाईयां है इन के भी लिवर पर, किडनी पर बुरे प्रभाव हो सकते हैं और इन के उपयोग से सफेद मोतिया भी हो सकता है ---अब बात यह है कि अगर कोई पहले से ऐसी दवाईयां ले रहा है तो क्या वह इसे बंद कर दे। नहीं, ऐसा करना उचित नहीं है, फ़िज़िशियन ने आप के लिये वे दवाईयां लिखी हैं तो लेनी ही होंगी ताकि आप के हृदय की सेहत की रक्षा की जा सके।
लेकिन यह ध्यान भी रखा जाना ज़रूरी है कि इस तरह की दवाईयां लेते समय अगर कोई भी ऐसे वैसे अजीब से लक्षण दिखें तो डाक्टर से संपर्क अवश्य करें और मैं कुछ दिन पहले कहीं पढ़ रहा था कि ऐसे ज़्यादातर दुष्परिणाम इस तरह की दवाईयां शुरू करने के एक साल के भीतर होने की संभावना ज़्यादा होती है।
वैसे आप को भी लगता होगा कि इस तरह की कोलैस्ट्रोल कम करने वाली दवाईयों को अगर एक बैशाखी के रूप में इस्तेमाल किया जाए तो ही बेहतर है ---ठीक है, डाक्टर कहते हैं तो लेनी ही पड़ती हैं लेकिन क्यों न अपने खाने-पीने के तौर-तरीके और जीवन शैली इस कद्र बदल दिये जाएं कि डाक्टर लोग जब लिपिड प्रोफाईल जैसा टैस्ट करवायें और वे इतने आश्वस्त हो जाएं कि इन्हें बंद करने की सलाह ही दे डालें।
हां, बात शूरू हुई थी छाती में जलन से इसलिये बात खत्म भी वही होनी चाहिये ----मेरे को भी महीने में एक-आध बार इस तरह की समस्या तो होती ही है ---कईं बार तंग आ कर मैं भी इस तरह के कैप्सूल ले तो लेता हूं लेकिन बहुत बार मैं इस काम के लिये आंवले के पावडर का एक चम्मच ले कर सैट हो जाता हूं ----आप भी इसे आजमा सकते हैं।

शनिवार, 22 मई 2010

हार्ट-अटैक के बाद संभोग से इतना खौफ़ज़दा क्यों ?

हार्ट-अटैक के इलाज के बाद जब मरीज़ को हस्पताल से छुट्टी मिलती है तो डाक्टर लोग उससे उस की सैक्स लाइफ के बारे में कुछ भी चर्चा नहीं करते। ना तो मरीज़ ही खुल कर इस तरह की बात पूछने की "हिम्मत" ही जुटा पाते हैं... और इसी चक्कर में होता यह है कि हार्ट-अटैक से बचने पर लोग सैक्स से यह सोच कर दूर भागना शुरू कर देते हैं कि संभोग करना उन के लिये जानलेवा सिद्ध हो सकता है।

अब आप बीबीसी आनलाइन पर प्रकाशित इस रिपोर्ट --- Heart attack survivors 'fear sex' ---को देखेंगे तो आप भी यह सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि अगर अमेरिका जैसे देश में जहां इस तरह के मुद्दों पर बात करने में इतना खुलापन है ---अगर वहां यह समस्या है तो अपने यहां यह समस्या का कितना विकराल रूप होगा।

इस तरह का अध्ययन अमेरिका में 1700 लोगों पर किया गया --और फिर इन वैज्ञानिकों नें अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन की एक मीटिंग में अपनी रिपोर्ट पेश करते हुये साफ शब्दों में यह कहा है कि हार्ट-अटैक से ठीक हो चुके जिन मरीज़ों के डाक्टर उन के साथ उन की सैक्स लाइफ के बारे में बात नहीं करते, वही लोग हैं जो सैक्स के नाम से भागने लगते हैं।

और देखिये विशेषज्ञों ने कितना देसी फार्मूला बता दिया है कि वे लोग जिन्हें कुछ समय पहले हार्ट अटैक हुआ है और वे अब ठीक महसूस कर रहे हैं तो अगर वे कुछ सीढियां आसानी से चढ़ लेते हैं तो वे पूर्ण आत्मविश्वास के साथ संभोग करना भी शुरू कर सकते हैं।

और यह जो फार्मूला बताया गया है यह बहुत ही सटीक है। यह नहीं कि कोई ऐसा मरीज़ अपने डाक्टर से पूछ बैठे कि वह कितने समय तक सैक्सुयली सक्रिय हो सकता है तो एक डाक्टर कहे दो महीने बाद, कोई कहे छः महीने बाद ---और कोई मरीज़ को आंखे फाड़ फाड़ कर देखते हुये उसे यह आभास करवा दे कि कहीं उस ने ऐसा प्रश्न पूछ कर कोई गुनाह तो नहीं कर दिया------तो सब से बढ़िया जवाब या सुझाव जो आप भी अपने किसी मित्र को देने में ज़रा भी हिचक महसूस नहीं करेंगे ---- अगर सीढ़ियां ठीक ठाक बिना किसी दिक्कत के चढ़ लेते हो तो फिर समझ लो तुम अपने वैवाहिक जीवन को भी खुशी खुशी निबाह पाने में सक्षम है --------और वैसे भी हिंदोस्तानी को तो बस इशारा ही काफी है।

लेकिन कहीं आप यह तो नहीं समझ रहे कि यह मार्गदर्शन केवल पुरूषों के लिये ही है ---ऐसा नहीं है, महिलाओं के लिये भी यही सलाह है। इस बात का ध्यान रखे कि महिलायें भी हार्ट अटैक जैसे आघात से उभरने के बाद तभी सैक्सुयली सक्रिय हो पाने में सक्षम होती हैं जब वे सीढ़ियां आराम से चढ़ना शुरू कर देती हैं। और इस अवस्था तक पहुंचने में हर बंदे को अलग अलग समय लग सकता है।

मुझे इस रिपोर्ट द्वारा यह जान कर बहुत हैरानगी हुई कि वहां पर भी लोग इस तरह के अहम् मामले में बात करते वक्त इतने संकोची हैं और दूसरी बात यह महसूस हुई कि हमारे यहां तो फिर हालात एकदम फटेहाल होंगे ----शायद कुछ लोग एक बार हार्ट अटैक होने पर इसी तरह के डर से अपना आत्मविश्वास डगमगाने की वजह से लंबे समय तक संभोग से दूर ही भागते रहते होंगे। और बात केवल इतनी सी कि न तो उन के चिकित्सक ने उन से इस मुद्दे पर बात करना उचित समझा और दूसरी तरफ़ बेचारा मरीज --- हम हिंदोस्तानी लोग खुले में इस तरह की "गंदी बातें" कैसे पूछें, हम तो अच्छे बच्चे है.........अंदर ही अंदर कुढ़ते रहें, कुठित होते रहे लेकिन .......।

दरअसल जैसा कि इस रिपोर्ट में भी कहा गया है कि सैक्स भी मरीज़ों की ज़िंदगी का एक अहम् भाग है और इसलिये शायद वे यह अपेक्षा भी करते हैं कि डाक्टरों को इस के बारे में भी थोड़ी बात करनी चाहिये। क्या आप को नहीं लगता कि मरीज़ों का ऐसा सोचना एकदम दुरूस्त है।

इस तरह के कुछ मरीज़ों को यह भी डर लगता है कि संभोग में लगने वाली परिश्रम की वजह से कहीं से दूसरे हार्ट अटैक को आमंत्रित न कर बैठें, लेकिन ऐसा बहुत ही बहुत ही कम बार होता है ---आप यही समझें कि यह रिस्क न के ही बराबर है -----क्योंकि रिपोर्ट में शब्द लिखा गया है ---extremely unlikely. अब इस से ज़्यादा गारंटी क्या होगी ?

एक बात और भी है कि हार्ट के किसी रोगी में जैसे कोई भी शारिरिक परिश्रम कईं बार छाती में थोड़ा बहुत भारीपन ला सकता है वैसे ही अगर संभोग के दौरान भी अगर ऐसा महसूस हो तो वह व्यक्ति ऐसी किसी भी अवस्था के समाधान के लिये स्प्रे (यह "वो वाला स्प्रे" नहीं है..... जिस के कईं विज्ञापन रोजाना अखबारों में दिखते हैं) का या जुबान के नीचे रखी जाने वाली उपर्युक्त टेबलैट का इस्तेमाल कर सकता है, जिस से तुरंत राहत मिल जाती है।
और इस रिपोर्ट के अंत में लिखा है ---

"Caressing and being intimate is a good way to start resuming sexual relationships and increase your confidence." अब इस का अनुवाद मैं कैसे करूं, हैरान हूं ---मेरी हिंदी इतनी रिफाइन्ड है नहीं, अच्छी भली संभ्रांत भाषा को कहीं अश्लील न बना दूं -----इसलिये समझने वाले समझ लो।

मुद्दा बहुत गंभीर है--- लेकिन इसे हल्के-फुल्के ढंग से इसलिये पेश किया है ताकि बात सब के मन में बैठ जाये। आप इस पोस्ट में लिखी बातों के प्रचार-प्रसार के लिये या इस में चर्चित न्यूज़-रिपोर्ट के लिंक को बहुत से दूसरे लोगों पर पहुंचाने में क्या मेरा सहयोग कर सकते हैं ?

क्या आप को नहीं लगता कि कईं बार हम लोग कुछ ऐसा पढ़ लेते हैं, देख लेते हैं जिस को आगे शेयर करने से हम अनेकों लोगों की सुस्त पड़ी ज़िंदगी में बहार लाने के लिये अपनी तुच्छ भूमिका निभा सकते हैं ? मैं तो बड़ी शिद्दत से इस बात को महसूस करता हूं।

शुक्रवार, 21 मई 2010

चलिये ज़रा देखते हैं हमारे गुर्दे कैसे काम करते हैं ?

इस वीडियों में आप देख सकते हैं कि हमारे गुर्दे काम कैसे करते हैं --- मैंने हिंदी भाषा का सहारा लेकर इसे थोड़ा आसान सा करना चाहा है।

यूरिनरी ट्रैक्ट में हमारे गुर्दे, यूरेटर्ज़, ब्लैडर एवं यूरैथरा शामिल हैं। हरेक गुर्दे में मूत्र बाहरी कोरटैक्स से अंदरूनी मैडुला की तरफ़ आता है। और रिनल पैल्विस(renal pelvis) एक फनल का काम करती है जिस से होकर मूत्र गुर्दे से निकल कर यूरेटर में बह जाता है।

गुर्दे से गुज़रते गुज़रते यूरिन अच्छा खासा कंसैनट्रेट्ड हो जाता है। और जब यह कुछ ज़्यादा ही कंसैनट्रेटैड हो जाता है तो कैल्शीयम, यूरिक एसिड साल्ट और अन्य कैमीकल जो कि मूत्र में मिले रहते हैं वे क्रिस्टैलाइज़ होना शुरू कर देते हैं जिस से गुर्दे में पत्थरी बन जाती है --- kidney stone(renal calculus).

आम तौर पर यह पत्थरी एक छोटे से कंकर के आकार की होती है लेकिन यूरेटर्ज़ की बनावट ऐसी होती है कि जब पत्थरी के कारण इन में खिंचाव आता है तो बहुत ज़्यादा दर्द होने लगता हैआम तौर पर लोगों को तब तक पता ही नहीं होता कि उन के गुर्दे में पत्थरी है जब तक कि उन्हें इस तरह का दर्द नहीं सताता। खुशकिस्मती यह है कि चोटे पत्थर गुर्दे से और आगे यूरेटर्ज़ से होकर अपने आप बिना किसी तकलीफ़ के बाहर निकल जाते हैं।

लेकिन यह बात तो है कि कईं बार इस पत्थरी की वजह से तब बहुत दिक्कत हो जाती है जब ये मूत्र के बहने में ही रूकावट पैदा कर देते हैं।

PS....कभी कभी जब मुझे इस तरह से थोड़ी अंग्रेज़ी को सरल अनुवाद कर के हिंदी में लिखना होता है तो मेरी खाट खड़ी हो जाती है और फिर मुझे लगने लगता है कि बेपरवाह हो कर लिखना बिलकुल बेपरवाह बहती जलधारा के समान है और इस तरह से अनुवाद कितना कठिन, दुर्गम, उबाऊ और थकाने वाला काम है, बहरहाल आज तो कर दिया है, फुर्सत हो तो ऊपर जिस वीडियो का लिंक मैंने दिया है उसे ज़रूर देखें। शायद इस के लिये आप को प्लग-इन इंस्टाल करने की ज़रूरत होगी जो उसी पेज़ पर दिये गये लिंक से आसानी से हो सकती है। और मैडलाइन-न्यूज़ की साइट ऐसी बीसियों वीडियो पड़ी हैं जिन के द्वारा आप अपने शरीर की कार्य-प्रणाली के बारे मे जानकारी हासिल कर सकते हैं।

गुरुवार, 20 मई 2010

विवाह-शादियों में शिरकत तो करें लेकिन आखिर खाएं क्या?

कल ऐसे ही हम कुछ दोस्त लोग बैठे हुये थे तो चर्चा चली कि आखिर क्यों किसी विवाह-शादी या पार्टी-वार्टी में खाकर तबीयत क्यों बिगड़ सी जाती है, हम लोग ऐसे ही मज़ाक कर रहे थे कि पहले तो हम डाक्टर लोग ही कह दिया करते थे कि इन पार्टियों आदि में तो बस थोड़ा दही-चावल लेकर छुट्टी करनी चाहिए। लेकिन अब तो वह दही भी उस लिस्ट में गायब होने लगा है।

चलिये थोड़ा विस्तार से देखें तो सही कि आखिर हम किस स्टॉल पर जाएं और किस पर ना जाएं---

आप में से कुछ लोगों को लग सकता है कि इतने भ्रम किये जाएंगे तो फिर कैसे चलेगा, लेकिन अगर हम यह सोचते हैं तो फिर पेट की तकलीफ़ों के लिये भी तैयार ही रहना चाहिये। अच्छा तो हम यहां चर्चा उन वस्तुओं की ही करेंगे जिन से बच के रहना चाहिये।

जहां तक हो सके इन समारोहों में पानी पीने से बचना चाहिये -----यह कैसे संभव है, मुझे भी नहीं मालूम---क्योंकि अकसर पानी प्रदूषित न भी हो तो भी उस की हैंडलिंग गलत ढंग से होने से बीमारीयां फैलती ही हैं। और यह जो आजकल गिलास की पैकिंग का ज़माना आ गया है अब इन में भी कितनी शुद्धता है कितनी नहीं, कौन जाने। और इस पानी को पी लेने से शायद उतनी प्यास नहीं बुझती जितना अपराधबोध हो जाता है कि यार, इस तरह के प्लास्टिक के गिलास में पानी पीना कहां से पर्यावरण की सेहत के अनुकूल है!!

चलिये, आगे चलें ---अभी बारात आने में टाइम है--- इसलिये पानी-पूरी के स्टॉल का चक्कर लगा कर आते हैं --- अब इस में इस्तेमाल किये जाने वाले पानी के बारे में आप का विचार है, तरह तरह के इसैंस, कलर, फ्लेवर आदि को नज़र-अंदाज़ कर भी दें तो जो बंदा अपने हाथ के साथ साथ आधी बाजू को भी उस खट्टे-मीठे पानी के मटके में बार बार डाल रहा है, और किसी किसी फेशुनबल, हैल्थ-कांसियस पार्टी में उस नें डाकटरों वाले दस्ताने डाल रखे होते हैं ---- आप यही पूछ रहे हैं न कि फिर पानी पूरी भी न खाएं ----- यह आप का निर्णय है। और बर्फ के गोलों, शर्बत आदि में कौन सा पानी- कौन सी बर्फ इस्तेमाल हो रही है, इसे देखने की किसे फुर्सत है।

मिल्क से बने उत्पाद --- पिछले तीन सालों में मिलावटी नकली दूध के बारे में इतना पढ़ सुन चुका हूं कि कईं बार सोचता हूं कि इस के बारे में तो मेरा ब्रेन-वॉश हो गया है। और यह खौफ़ इस कद्र भारी है कि मैं बाज़ार से कभी भी चाय-काफ़ी पीना पिछले कईं महीनों से छोड़ चुका हूं। अच्छा तो यह भी देखते हैं कि दूध से बनी क्या क्या वस्तुयें इन पार्टियों में मौजूद रहती हैं ---- मटका कुल्फी, आइसक्रीम, पनीर, दही, कईं कईं जगहों पर रबड़ी वाला दूध --- मेरे अपने व्यक्तिगत विचार इन सब के बारे में ये हैं कि ये सब ऐसे वैसे दूध से ही तैयार होते हैं ---और अगर कुछ नहीं भी है तो भी मिलावट की तो लगभग गारंटी होती ही है। ऐसे में क्यों ऐसा कुछ खाकर अगले चार दिन के लिये खटिया पकड़ ली जाए।

और यह इधर क्या नज़र आ रहा है-----इतनी लंबी लाइन यहां क्यों हैं? ---यहां पर फ्रूट-चाट का स्टॉल है और सत्तर के दशक में अमिताभ बच्चन की फिल्म के पहले दिन पहले शो जितनी भीड़ है --- लेकिन यहां भी दो तीन चीजें ध्यान देने योग्य हैं -- बर्फ जिन पर ये फल कटे हुये सजे पड़े हैं, फलों की क्वालिटी ---कुछ तो लंबे सयम से कटे होते हैं और गर्मी के मौसम में तो इस से फिर पेट की बीमारियां तो उत्पन्न होती ही हैं। इसलिये अगली बार फ्रूट-चाट के स्टाल की तऱफ़ लपकने से पहले थोड़ा ध्यान करिये।

और हां सलाद के बारे में तो बात कैसे हम लोग भूल गये ----न तो ये खीरे,टमाटर,ककड़ी, प्याज ढंग से धोते हैं और न ही काटते और हैंडलिंग के समय कोई विशेष साफ सफाई का ध्यान रखा जाता है ---तो फिर क्या शक है कि इन से सेहत कम और बीमारी ज़्यादा मिलने की संभावना रहती है। पता नहीं अकसर लोग घर में तो साफ-सुथरे तरीके से तैयार किये गये सलाद से तो दूर भागते हैं लेकिन इन सार्वजनिक जगहों पर तो सलाद ज़रूर चाहिये।

हां, और क्या रह गया ? ---हां, उधर तरफ़ से जलेबियों और अमरतियों की बहुत जबरदस्त खुशबू आ रही है। तो, चलिये एक एक हो जाये लेकिन रबड़ी के साथ तो बिलुकल नहीं, क्योंकि पता नहीं क्यों हम भूल जाते हैं कि इतनी रबड़ी के लिये कहां से आ गया इतना दूध -----लेकिन जलेबी-अमरती भी तभी अगर उस में नकली रंग नहीं डाले गये हैं। और कृपया यह तो देखना ही होगा कि कहीं ये बीमारी परोसने वाले दोने तो नहीं है।

आप को यह पोस्ट पढ़ कर यही लग रहा है ना कि डाक्टर तूने भी झाड़ दी ना हर बात पर डाक्टरी --- मैं मान रहा हूं कि आप मुझ से पूछना चाहते हैं कि फिऱ खाएं क्या--- चुपचाप थोड़े चावल और दाल लेकर लगे रहें।

मुझे भी यह सब लिखते बहुत दुःख हो रहा था क्योंकि कोई अगर मेरे को पहली बार पढ़ने वाला होगा तो उसे मैं बहुत घमंडी लगूंगा लेकिन तस्वीर का दूसरा रूख दिखाना भी मेरा कर्तव्य है। मुझे इस बात का भी अच्छी तरह से आभास है कि इन पार्टियों में जो सामान इस्तेमाल हो रहा है उन में घरवालों का रती भर भी दोष नहीं है ---- वे भी क्या करें, पैसा ही खर्च सकते हैं ---मिलावट हर चीज़ में इतनी व्याप्त हो गई है कि वे भी क्या करें ?

और अब बात अपने आप से पूछता हूं कि अगर मेरे घर में कोई इतना बड़ा समारोह होगा तो क्या मेरे पास इन सब मिलावटी चीज़ों को खरीदने-परोसने के अलावा कोई विकल्प है------ नहीं है, तो फिर इन सब से बचते हुये अपनी सेहत की रक्षा करने का एक ही मूलमंत्र बच जाता है ---------अवेयरनैस -----इन सब बातों के बारे में जगह जगह पर बात करें ताकि जनमानस को जागरूक किया जा सके।

क्या हुआ अभी आप के दाल-चावल ही खत्म नहीं हुये? ---- वैसे कैसी रही पार्टी --- ओ हो, जाते जाते उस मीठे पान को चबाने से पहले यह ध्यान रखिये कि उस पर उस मिलावटी चांदी का वर्क तो नहीं चढ़ा हुआ। और एक बात, दांतों में टुथ-पिक का इस्तेमाल सख्त वर्जित है।

मैं भी क्या---- आप की पार्टी का मज़ा किरकिरा कर दिया -----तो फिर इस समय यह गाना सुनिये जो मुझे भी बहुत पसंदे हैं ----- विशेषकर इसके बोल ------ धागे तोड़ लायो चांदनी से नूर के ...............................वाह, भई, वाह, यह किस ने लिखा है, क्या आप बता सकते हैं ?