शुक्रवार, 18 जनवरी 2008

क्या ये बीमारियां परोसने वाले दोने हैं?




दोस्तो, आप भी सोच तो जरूर होंगे कि यह इस बलागिये ने तो जब से चिट्ठों की दुनिया में पांव रखा है न, बस हर वक्त डराता ही रहता है कि यह न खायो, वो न खायो, उस में यह है,उसमें वह है......बोर हो लिए यार इस की डराने वाली बातो से....हम तो जो दिल करेगा... करेंगे, खाएंगे पीएंगे, मजा करेंगे......वही कुछ कुछ ठीक उस पंजाबी गाने की तरह....
खाओ, पियो ,ऐश करो मितरो,
दिल पर किसी दा दुखायो न.....
लेकिन जब खाने वाली चीज़े जिस दोने में परोसी जा रही हैं, अगर वह ही आप की सेहत से खिलवाड़ करने लगे तो .....वो कहते हैं न कि बाड़ ही खेत को खाने लगे तो फिर कोई क्या करे....चुपचाप बैठा रहे, या शोर डाल कर लोगों को चेताया जाए। बस,दोस्तो, कुछ वैसा ही काम करने की एक बिलकुल छोटी सी कोशिश करता रहता हूं।
कल रात की ही बात है दोस्तो हम सब घूमने बाज़ार गये हुए थे। वहां पर एक अच्छी खासी मशहूर दुकान से मेरा बेटा एक दोने में गाजर का हलवा खा रहा था, अचानक उस ने शिकायत की यह हलवे के ऊपर क्या लगा है, अकसर हम उसे ऐसे ही कह देते हैं कि यार, तू न ज्यादा वहम न किया कर , बस खा लिया कर, कुछ नहीं है। अकसर हम इसलिए कहते हैं क्योंकि वह हर चीज़ को बड़ी अच्छी तरह से चैक कर के ही खाता है...शायद मां-बाप दोनों डाक्टर होने का ही कुछ असर है। कल भी ऐसा ही हुया, हम ने उसे मज़ाक में फिर कह दिया कि यार तेरी ही खाने की चीज़ में कुछ न कुछ लफड़ा होता है, लेकिन दोस्तो जब उस ने उस गाजर के हलवे से भरा चम्मच हमारे सामने किया तो हम दंग रह गए। बात क्या थी, दोस्तो, कि जिस दोने में वह गाजर का हलवा खा रहा था, वह वही आज कल कईं जगह पर मिलने वाले कुछकुछ ट्रेडी फैशुनेबल से डोने से ही खा रहा था, जो होता तो किसी पेड़ के पत्ते का ही है, लेकिन अंदर उस के एक चमकीली सी परत लगी होती है।
चूंकि वह उस तरह के ही दोने से खा रहा था तो यह समझते देर न लगी कि यहउस दोने की चमकीली ही उस हलवे के साथ उतर कर पेट में जा रही है।
दोस्तो, आप को भी शाकिंग लगा न, तुरंत वेटर ने वह दोना तो बदल दिया, लेकिन जिन करोड़ों बंदों को इस बात का ज्ञान नहीं है, बात उन के दोने बदलने की है, उन तक भी यह दोने न पहुंचे, बात तो तब बने.....
दोस्तो, मैं भी कल तक यही समझ रहा था कि इन बड़े आकर्षक दिखने वाले दोनों में कुछ उसी तरह का मैटिरियल लगा होता होगा जिस फायल में आजकल चपातियां लपेटने का चलन है। लेकिन आते वक्त उत्सुकता वश मैं वहां से एक खाली दोना मांग कर ले आया......दोस्तो, आप हैरान होंगे जब घर आकर मैंने उस दोने के ऊपर लगी परत को उतारा तो दंग रह गया ...यह कोई फायल-वायल नहीं था, ये तो एक पतला सा मोमी कागज था, पालीथीन जैसा जो अकसर दशहरे के दिनों में बच्चों के तीर कमान बनाने वाले, बच्चों के मुकुट बनाने वाले इस्तेमाल करतेहैं। यह सब देख कर बड़ा ही दुःख हुया कि आमजन की सेहत से कितना खिलवाड़ हो रहा है, यह सब चीज़ें हमारे शरीर में जाकरइतना ज्यादा नुकसान करती हैं कि अब क्या क्या लिखूं क्या छोडूं...फिर आप ही कहें कि बलोग की पोस्टिंग बड़ी हो गई है। तो , दोस्तो, आगे से आप भी इन बातों की तरफ जरूर ध्यान दीजिएगा। वही दशकों पुराने पत्ते के दोने में ही यह खाने-पीने की चीज़े खानी ठीक हैं, उस में यह बिना वजह की आधुनिक का मुलम्मा चढ़ाने का क्या फायदा ...और वह भी जब यह हमारे शरीर में ही इक्टठा हो रहा है। गाजर के हलवे में तो हम ने उसे पकड़ लिया, लेकिन क्याइस तरह के ही माड्रऩदोने में परोसी जा रहीं जलेबियों, गर्मागर्म टिक्कीयों,एवं पानी-पूरी इत्यादि के रास्ते हमारे शरीर के अंदर जा कर यह बीमारियों को खुला नियंत्रण नहीं देता होगा .....आप भी मेरी ही तरह यही सोच रहे हैं न। तो ,फिर अगली बार ज़रा दोने का ध्यान रखिएगा .......
पता नहीं , आप मेरी बात पर अमल कर पाएंगे या नहीं, लेकिन इस पूरे ऐपिसोड का मेरे बेटे को जरूर फायदा हो गया ......He got a cash reward of fifty rupees for his keen sense of observation…..दोस्तो, बस एक और भी है न अब बलोगरी में पांव रख ही लिया है , तो उन्हें जमाने के लिए ऐसे stingers को भी समय समय पर प्रोत्साहित तो करते ही रहने पड़ेगा, दोस्तो।

9 टिप्‍पणियां:

  1. डॉक्टर साहब, वो एक गाना था न, जिधर देखूं तेरी तस्वीर नज़र आती है……अगर आपकी बात के संदर्भ मे इसकी पैरोडी कहूं तो होगा कि" जिधर देखूं यही सब नज़र आता है…… । तो फिर किया क्या जाए क्योंकि अगर हर पल, हर स्टेप में यही सब ध्यान रखें तो कैसे खाएं पिएं कैसे जिएं।
    लोचा है न यह सब!!



    शराब और अंकुरित चना-मूंग का रिश्ता?

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  2. बात तो आप की सोलह आने सच है ।

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  3. मिट्टी का पुरवा और पत्तल का दोना तो पिछड़ापन हो गया. अब लो खाओ जहरबुझे पत्तल और दोने में और विकास कर आधुनिक हो जाओ. कंपनियों ने मति मार दी है लोगों की.

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  4. बहुत सही कह रहे है आप अब तो डोना ऑर पट्तल भी प्लास्टिक के आ गये है थोड़ा उसके बाबत भी जानकारी दे

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  5. डॉक्‍टर साहब आपका ब्‍लॉगजगत में आना बहुत मानीखेज़ है । कई फ्रन्‍टों पर आप कमाल कर रहे हैं, डॉक्‍टरी मुद्दे शानदार तरीके से उठा रहे हैं । दूसरी तरफ रेडियो पर आपने जो लिखा है शानदार लिखा है, मेरा निजी निवेदन है कि आप रेडियोनामा में शामिल हो जाएं । इससे पहले भी आपको रिक्‍वेस्‍ट भेजी थी शायद आपकी नजर नहीं पड़ी होगी ।

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  6. पहले अपने बचपन में माँ को महिला मंडल की ओर से अन्नपूर्णा, जिसमें महिलाएँ खाद्य सामग्री बनाकर बेचती हैं, में भाग लेते देखती थी । पिछले ३० वर्षों से खुद भाग ले रही हूँ और लगभग १७ वर्ष से उसके उचित तरह से संयोजन का भार मेरा रहा है । पहले हम लोग बादाम के बड़े बड़े पत्तों में पकोड़े, जलेबी केक आदि देते थे और उनके या ढाक के पत्तलों के दोने बनवाकर अन्य चीजें देते थै । प्लास्टिक का उपयोग तो लगभग होता ही नहीं था । आइसक्रीम तक सौफ्टी वाले कोन में दे देते थे । पर अब कोई भी पत्ते में देने खाने को तैयार नहीं होता । सभी को लगता है यह कंजूसी है । अब किस किसको पर्यावरण और स्वास्थ्य के बारे में सिखाएँ ?
    घुघूती बासूती

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  7. डॉ साहब
    एक कबाड़ी के यहाँ मैने देखा है कि रद्दी में चमकीले बॉक्स( जिनमें एक तरफ कागज और एक तरह मोमी या चमकीला कागज होता है) आते हैं उन्हें अलग टाल कर रख दिया जाता है। बाद में एक सामान्य मशीन में उन बक्सों को दबाकर दोने का रूप देकर बाकी हिस्से को काट लिया जाता है।
    वे बक्से इतनी गंदी हालत में होते हैं कि मत पूछिये आप।
    बाद में उन्ही चमकीले दोनों में हम चाट पकोड़ी बे आनन्द से खाते हैं।

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