बुधवार, 2 जून 2010

दाल-रोटी खाओ......प्रभु के गुण गाओ

आज कल लोग देशी टॉनिकों की बात नहीं करते--वे उन टॉनिकों की बात करते हैं जिन की मार्केटिंग में ये कंपनियां हाथ धो कर पीछे पड़ी हुई हैं। और पता नहीं लोग इन कंपनियों की बात सुनते भी हैं, हम सारा दिन दाल-रोटी-सब्जी खाने की बात करते हैं और हमारे बच्चे भी हमारी सुन कर राजी नहीं हैं--- वे भी कुछ कुछ दालों एवं ज़्यादातर सब्जियों की कटोरी को यूं पीछे सरकाते हैं जैसे उन में दवाई मिली हो।
वैसे कभी आपने यह सोचा है कि कुछ विदेशी कंपनियां जो इस तरह के टॉनिक-वॉनिक सप्लाई करती हैं वे तो कितने कितने जबरदस्त हथकंडे अपनाती हैं, अपने कर्मचारियों को आकर्षक इंसैंटिव भी देती हैं। लेकिन इन के द्वारा किये जा रहे प्रचार को काउंटर करने के लिये ----लोगों को जागरूक करने का ढांचा देखिये कितना ढीला ढाला है --- सभी अच्छे चिकित्सकों को सम्मान देते हुये मैं भी अकसर देखता हूं कि अधिकांश सरकारी हस्पतालों में डाक्टर लोग सुबह से शाम तक बीमारों की तीमारदारी में ही इतने मसरूफ़ रहते हैं कि आप को लगता है कि उन में से अधिकांश को इस तरह के जागरूकता अभियान का हिस्सा बनने का समय भी मिलता होगा।
तो फिर ऐसे में होता क्या है ? --लोगों को लगता है कि जो बाहर की कंपनियां फरमा रही हैं, वह एकदम दुरूस्त है, इन टॉनिकों को लेकर ही फिट रहा जा सकता है।
लेकिन मैं इस बात से बिल्कुल भी इत्तफाक नहीं रखता --क्या पहले लोग जीते नहीं थे --- देखा जाए तो जीते वही थे, आज तो लोग बस टाइम को धक्का मार रहे हैं।
एक बात और भी है कि सीधी सादी सी बातें भी तो लोगों को समझ में नहीं आती ---जो बातें कहने सुनने में कठिन लगें, लच्छेदार हों, मीठी चासनी में घुली हों, उन्हें वही भाती हैं।
यकीन मानिये जिस मां का बच्चा रोटी नहीं खाता, दाल सब्जी नहीं खाता ---यह लगभग एक राष्ट्रीय समस्या सी हो गई है-- वह जब डाक्टर से किसी टॉनिक के लिये पूछती है और अगर कोई भला डाक्टर अपना समय निकाल कर उस के चिप्स, बिस्कुट, भुजिया, बर्गर बंद करने की सलाह देता है और रोटी दाल सब्जी खाने की सलाह देता है तो उस मां को शायद यह सलाह सब से बेकार लगती होगी और जाते समय वह कैमिस्ट से कोई न कोई टॉनिक की शीशी तो ले ही लेती होगी।
क्या कहें, क्या न कहें---सब कुछ गोरखधंधा है --किसी कैमिस्ट की दुकान पर देखो तो उस के काउंटर पर और आसपास ढ़ेरों अनाप शनाप टॉनिक-ज्यूस बिखरे पड़े होते हैं ----रैसिपी तो सेहत की एक ही है ---सादा संतुलित आहार --जो सदियों से देश खाता आ रहा है --- दाल-रोटी-सब्जी-चावल, सलाद और मौसमी फल ---इस के अलावा कैमिस्टों की दुकान से फिटनैस ढूढना बेकार है।
मैं कईं बार बैठा बैठा सोचता हूं कि बचपन में जो बच्चे बहुत सी सब्जियों-दालों से दूर रहते हैं ----शायद छोटेपन में तो चल जाता है ---क्योंकि यह सब भी कमबख्त लाड-प्यारा की परिभाषा में आ जाता है कि अगर लल्लन नहीं खा रहा यह सब कुछ तो चलो उसे दो-तीन परांठे सेंक दें ----और यह दौर चलता ही रहता है। नतीजा यह हो जाता है कि लल्लन 10-12 साल तक फूल के कुप्पा हो जाता है ----और फिर फिटनैस ढूंढी जाती है देशी-विदेशी टॉनिकों में।
तो आज की इस पोस्ट से केवल इस बात को उठायें कि बच्चों को छोटी उम्र से ही सभी सब्जियां, दालें और अनाज खाने की आदत डालें और अगर किसी कारणवश यह सब आप से नहीं हो रहा तो एक बहुत ही ज़्यादा गंभीर मुद्दा है ----क्योंकि मेरा अनुभव तो यही कहता है कि जो बच्चे बचपन में इन कुदरती वरदानों से दूर रहते हैं वे फिर बड़े होकर भी पिज़्जा, बर्गर, हाट-डाग, चाइनीज़, हाका, कोल्ड-ड्रिंक्स, और इसी तरह की अनेकों वस्तुओँ से भूख मिटाते फिरते हैं --------सब कुछ होता है इन के पास बड़ी बड़ी डिग्रीयां, बढ़िया अंग्रेज़ी, बढ़िया पे-पैकेट, ब्रैंडेड कपडे, अतिआधुनिक मोबाइल फोन..............और भी सब कुछ जिस की कोई भी कल्पना कर सकता है लेकिन अच्छी सेहत, फिटनैस के बिना यह सब किसी काम का। अच्छी सेहत तो साधी सादे हिंदोस्तानी खाने से ही आयेगी ---- यकीन मान लें कि और कोई भी रास्ता नहीं है फिट रहने के लिये।
और अब बात कि अगर ये सब इतने टॉनिक बन रहे हैं तो ये किस के लिये ? ---ये बीमार लोगों के लिये हैं, सेहतमंद लोगों के लिये , न ही ये अच्छे खाने का विकल्प हो सकते हैं----ये जो टॉनिक-वॉनिक हैं, इन्हें अकसर क्वालीफाईड चिकित्सक बीमार लोगों को देते हैं ताकि उन को जल्दी से सेहतलाभ हो।
मेरे को जब भी कोई इस तरह के टॉनिकों आदि के बारे में बताता है, इन की तारीफ़ों के पुल बांधता है, मैं शिष्टाचार वश उस की बात तो सन लेता हूं ----लेकिन किसी भी सेहतमंद आदमी को इन की सिफारिश करना तो दूर---मैं कभी इन का नाम तक लोगों के सामने नहीं लेता और न ही अपनी ओपीडी में इन का कोई विज्ञापन ही चिपकने देता हूं -----क्या है, कईं बार लोग इस तरह के इश्तिहार से भी इन के चक्कर में आ जाते हैं। बहुत बार सोचता हूं कि हम लोगों को काम भी ढिढोरची जैसा ही है ------हर समय किसी न किसी बात का ढिंढोरा पीटते रहना --------ताकि अज्ञानता वश कोई चक्कर में न पड़े।
जाते जाते एक बात का ध्यान आ गया ---क्या आपने कभी सुना है कि फलां फलां बच्चा बचपन में तो दाल-सब्जी नहीं खाता था लेकिन बड़ा होकर वह सब खाने लग गया है ----अगर सुना है तो टिप्पणी में ज़रूर लिखना -----क्योंकि मैंने तो ऐसा कभी नहीं सुना।

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही उम्दा विवेचना की आपने डॉ.साहब ,लेकिन दुर्भाग्य है की काली कमाई और लूट के धन के इस दुनिया में सबकी बुद्धि विनाश की और ज्यादा चलने लगी है | कास लोग आपके सन्देश को समझ पाते और उसे अपनाने की कोशिस करते |

    जवाब देंहटाएं
  2. aapne bahut sahi kaha...

    vichaarneeya aur sammaanneeya post !

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सही बात कही आप ने, लेकिन भारत मै यह सब खाना शान समझी जाती है, शायद लोग सोचते है यह तो अमीरो का खाना है, हम बहुत कम पिज्जा खाते है ओर वो भी घर का बना, बर्गर,हेम बर्गर कई सालो मै एक आध बार, चिपस साल दो साल मै कभी कभार, नुडल, मेगी महीने मै एक बार उस मै भी ताजी ओर भारतिया सब्जियां... जनाब दाल रोटी ओर सब्जी यह हैओ अमीरो यानी सेहत के अमीरो का खाना, हम ने कभी टानिक नही खरीदा, भारत मै जाओ सब के घर बहुत तरह के टानिंक मिलते है महंगे से मंहंगे.... ओर वो शान से दिखाते है, ओर बच्चो को पिलाते है.... ओर हम उन की नादानी पर हंसने के सिवा कुछ नही कर सकते

    जवाब देंहटाएं
  4. वाकई लोग इन टॉनिकों को सेहत का स्रोत समझ लेते हैं जबकि संतुलित आहार के अलावा अच्छी सेहत के लिये कोई दवाई नहीं है। कम्पनियाँ भी अपने इन उत्पादों के प्रचार के लिये ऐसे विज्ञापन बनवाती हैं कि फलां टॉनिक पीते ही थका हुआ आदमी उठकर दौड़ने लगा जिससे लोग इनके झांसे में आ जाते हैं।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत उम्दा लेख! आपके पिछले लेखों की तरह।
    आपने लिखा
    क्या आपने कभी सुना है कि फलां फलां बच्चा बचपन में तो दाल-सब्जी नहीं खाता था लेकिन बड़ा होकर वह सब खाने लग गया है ----अगर सुना है तो टिप्पणी में ज़रूर लिखना -----क्योंकि मैंने तो ऐसा कभी नहीं सुना।
    इस बारे में कहना चाहूंगा कि मैं खुद इस तरह का हूं जो बचपन में हरी सब्जियों से चिढ़ता रहा। जब भी घर में हरी सब्जी बनती मैं बहाना बना कर खाना नहीं खाता और फिर माताजी मनुहार करती.. पैसे दे देती।
    आज हाल यह है कि घर में अगर दो दिन हरी सब्जी ना बने तो यूं लगता है मानो खाना ही नहीं खाय़ा हो। जिस करेले, लौकी, तुरई से मैं चिढ़ता था आज वे मेरी पसंदीदा सब्जियां है। हाँ आप आश्चर्य करेंगे मुझे आज भी भिण्डी बिल्कुल नहीं भाती।

    जवाब देंहटाएं
  6. Aapne shat pratishat sahi kaha. Mei ek doctor houn, US mein rahate hun . mere bacche roti daal kha kar hi bade hue. mein aur kuch kiya ya nahin par sabko Bhartiya shakahaari khana jaroor bana ke khilaya. Kabhi koi tonic nahin. uske saath saath antibiotics bhi nahin. shayad 25 saal mein 2-3 baar kisi ko antibiotics ki jaroorat padi hogi kisiko bhi. Ham rishiyon ki santan hain. afsos is baat ka ki jo baaten west chod raha hai, hamara desh ki javani unhi ke peeche bhaag rahi hai

    जवाब देंहटाएं

इस पोस्ट पर आप के विचार जानने का बेसब्री से इंतज़ार है ...