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शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

ज़्यादा नमक का सेवन कितना खतरनाक है....

इस का जवाब आज की टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने पर मिलेगा कि ज़्यादा नमक के सेवन से हर वर्ष कितने लाखों लोग अपनी जान गंवा रहे हैं.....ज़्यादा नमक खाने का मतलब सीधा सीधा -- उच्च रक्त चाप (हाई ब्लड-प्रेशर) और साथ में होने वाले हृदय रोग। आप इस लिंक पर उस न्यूज़-रिपोर्ट को देख सकते हैं......बड़ी विश्वसनीय रिपोर्ट जान पड़ रही है.....अब इस रिपोर्ट के पीछे तो किसी का कोई वेस्टेड इंट्रस्ट नज़र नहीं ना आ रहा, लेकिन हम मानें तो....
 1.7 million deaths due to too much salt in diet

 भारत में तो लोग और भी ज़्यादा ज़्यादा नमक खाने के शौकीन हैं.... आप इस रिपोर्ट में भी देख सकते हैं। यह कोई हैरान करने वाली बात नहीं है..क्योंकि जिस तरह से सुबह सवेरे पारंपरिक जंक फूड--समोसे, कचोरियां, भजिया.... यह सब कुछ सुबह से ही बिकने लगता है..... और जिस तरह से वेस्टर्न जंक फूड--बर्गर, पिज्जा, नूड्लस.... और भी पता नहीं क्या क्या.......आज का युवा इन सब का आदि होता जा रहा है, इस में कोई शक नहीं कि २० वर्ष की उम्र में भी युवा  मोटापे और हाई-ब्लड-प्रैशर का शिकार हुए जा रहे हैं.

दरअसल हम लोग कभी इस तरफ़ ध्यान ही नहीं देते कि इस तरह का सारा खाना किस तरह से नमक से लैस होता है, जी हां, खराब तरह के फैट्स (वसा) आदि के साथ साथ नमक की भरमार होती है इन सब से। और किस तरह से बिस्कुट, तरह तरह की नमकीन आदि में भी सोडियम इतनी अधिक मात्रा में पाया जाता है और हम लोग कितने शौकीन हैं इन सब के.....यह चौंकाने वाली बात है। आचार, चटनियां भी नमक से लैस होती हैं। और कितने दर्ज़जों तरह के आचार हम खाते रहते हैं। ज़रूरत है कि हम अभी भी संभल लें.......वरना बहुत देर हो जाएगी।

और एक बात यह जो आज के युवा बड़े बड़े मालों से प्रोसैसड फूड उठा कर ले आते हैं....रेडीमेड दालें, रेडीमेड सब्जियां, पनीर ...और भी बहुत कुछ मिलता है ऐसा ही, मुझे तो नाम भी नहीं आते.....ये सब पदार्थ नमक से लबालब लैस होते हैं।

मैं अकसर अपने मरीज़ों को कहता हूं कि घर में जो टेबल पर नमकदानी होती है वह तो होनी ही नहीं चाहिए...अगर रखी होती है तो कोई दही में डालने लगता है, कोई सब्जी में, कोई ज्यूस में....... नमक जितना बस दाल-साग-सब्जी में पढ़ कर आता है, वही हमारे लिए पर्याप्त है। और अगर किसी को हाई ब्लड-प्रैशर है तो उसे तो उस दाल-साग-सब्जी वाली नमक को भी कम करने की सलाह दी जाती है।

मुझे अभी अभी लगा कि यह नमक वाला पाठ तो मैं इस मीडिया डाक्टर वाली क्लास में आप सब के साथ मिल बैठ कर पहले भी डिस्कस कर चुका हूं.......कहीं वही बातें तो दोहरा नहीं रहा, इसलिए मैंने मीडिया डाक्टर ब्लाग पर दाईं तरफ़ के सर्च आप्शन में देवनागरी में नमक लिखा तो मेरे लिए ये लेख प्रकट हो गये......यकीन मानिए, इन में लिखी एक एक बात पर आप यकीन कर सकतें......बिना किसी संदेह के.......

मीडिया डाक्टर: केवल नमक ही तो नहीं है नमकीन ! (जनवरी १५ २००८)
मीडिया डाक्टर: एक ग्राम कम नमक से हो सकती है ... सितंबर २६ २००९
मीडिया डाक्टर: नमक के बारे में सोचने का समय ...(मार्च २९ २००९)
आखिर हम लोग नमक क्यों कम नहीं कर पाते (जून १६ २०१०)
श्रृंखला ---कैसे रहेंगे गुर्दे एक दम फिट (अक्टूबर ४ , २००८)
आज एक पुराने पाठ को ही दोहरा लेते हैं (जनवरी २९ २००९)
मीडिया डाक्टर: श्रृंखला ---कैसे रहेंगे ... (अक्टूबर १ २००८)

सर्च रिजल्ट में तो बहुत से और भी परिणाम आए हैं ..जिन में भी नमक शब्द का इस्तेमाल किया गया था।  मेरे विचार में आज के लिए इतने ही काफ़ी हैं।

आज इस विषय पर लिख कर यह लगा कि इस तरह के पाठ बार बार मीडिया डाक्टर चौपाल पर बैठ कर दोहराते रहना चाहिए......अगर किसी ने भी आज से नमक कम खाना शुरू कर दिया तो जो थोड़ी सी मैंने मेहनत की, वह सफल हो गई। मेरे ऊपर भी इस लिखे का असर हुआ.....मैं अभी अभी जब दाल वाली रोटी (बिना तली हुई).. खाने लगा तो मेरे हाथ आम के आचार की शीशी की तरफ़ बढ़ते बढ़ते रूक गये। ऐसे ही छोटे से छोटे प्रयास करते रहना चाहिए।

यह पाठ तो हम ने दोहरा लिया, आप अपनी कापियां-किताबें बंद कर सकते हैं .....और आज स्वतंत्रता दिवस के मौके पर एक दूसरा पाठ भी दोहराने की ज़रूरत है......मैं तो इसे अकसर दोहरा लेता हूं.....आप भी सुनिए यह लाजवाब संदेश...

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

बिना काटे आम खाना बीमारी मोल लेने जैसा

फिर चाहे वह लखनऊवा हो, सफ़ेदा हो या दशहरी ....किसी भी आम को बिना काटे खाने का मतलब है बीमार होना। अभी आप को इस का प्रमाण दे रहा हूं।

मुझे वैसे तो आमों की विभिन्न किस्मों का विशेष ज्ञान है नहीं लेकिन यहां लखनऊ में रहते रहते अब थोड़ा होने लगा है। वैसे तो मैं भी कईं बार लिख चुका हूं कि आम को काट कर खाना चाहिए, उस के छिलके को मुंह से लगाना भी उचित नहीं लगता ---हमें पता ही नहीं कि ये लोग कौन कौन से कैमीकल इस्तेमाल कर के, किन किन घोलों में इन्हें भिगो कर रखने के बाद पकाये जाने पर हम तक पहुंचाते हैं......तभी तो बाहर से आम बिल्कुल सही और अंदर से बिल्कुल गला सड़ा निकल आता है।

मेरी श्रीमति जी मुझे हमेशा आम को बिना काट कर खाने से मना करती रहती हैं। और मैं बहुत बार तो बात मान लेता हूं लेकिन कभी कभी बिना वजह की जल्दबाजी में आम को चूसने लगता हूं। लेकिन बहुत बार ऐसा मूड खराब होता है कि क्या कहें.....यह दशहरी, चौसा, सफ़ेदा या लखनऊवा किसी भी किस्म का हो सकता है। सभी के साथ कुछ न कुछ भयानक अनुभव होते रहते हैं।

आज भी अभी रात्रि भोज के बाद मैं लखनऊवा आम चूसने लगा.......अब उस जैसे आम को लगता है कि क्या काटो, छोटा सा तो रहता है, लेकिन जैसे ही मैंने उस की गुठली बाहर निकाली, मैं दंग रह गया......वैसे इतना दंग होने की बात तो थी नहीं, कईं बार हो चुका है, हम ही ढीठ प्राणी हैं, वह अंदर से बिल्कुल सड़ा-गला था....अजीब सी दुर्गंध आ रही थी, तुरंत उसे फैंका।

काटे हुए लखनऊवे आम का अंदरूनी रूप 
अभी मुझे इडिएट-बॉक्स के सामने बैठे पांच मिनट ही हुए थे कि श्रीमति ने यह प्लेट मेरे सामने रखते हुए कहा...विशाल के बापू, आप को कितनी बार कहा है कि आम काट के खाया करो, यह देखो। मैं तो यार यह प्लेट देख कर ही डर गया। आप के लिए भी यह तस्वीर इधर टिका रहा हूं।

मेरी इच्छा हुई कि उसे उलट पलट कर देखूं तो कि बाहर से कैसा है, तो आप भी देखिए कि बाहर से यही आम कितना साफ़-सुथरा और आकर्षक लग रहा है। ऐसे में कोई भी धोखा खा कर इसे काटने की बजाए चूसने को उठा ले।

बाहर से ठीक ठाक दिखता ऊपर वाला लखनऊवा आम 
लेकिन पता नहीं आज कर चीज़ों को क्या हो गया है, कितनी बार इस तरह के सड़न-गलन सामने आने लगी है।

अब दाल में कंकड़  आ जाए, तो उसे हम थूक भी दें, अगर ऐसे आम को चूस लिया और गुठली निकालने पर पर्दाफाश हुआ तो उस का क्या फायदा, कमबख्त उल्टी भी न हो पाए.......अंदर गया सो गया। अब राम जी भला करेंगे।

पहले भी मैं कितनी बार सुझाव दे चुका हूं कि आम की फांकें काट कर चमच से खा लेना ठीक है।

वैसे श्रीमति जो को आम इस तरह से खाना पसंद है.........अब मुझे भी लगने लगा है कि यही तरीका या फिर काट कर चम्मच से खाना ही ठीक है, कम से कम पता तो लगता है कि खा क्या रहे हैं, वरना तो पता ही नहीं चलता कि पेट में क्या चला गया। फिर अब पछताए क्या होत.......वाली बात।

आम खाने का एक साफ़-सुथरा तरीका 
दो दिन पहले ही मैं पढ़ रहा था कि किसी दूर देश में किस तरह से भुट्टे (मक्के) में किसी तरह की बीमारी को मानव जाति में किसी बीमारी से लिंक किया जा रहा है और वहां पर हड़कंप मचा हुआ है। उस जगह का ध्यान नहीं आ रहा, कभी ढूंढ कर लिंक लगाऊंगा।

यह पहली बार नहीं हुआ .....बहुत बार ऐसा हो चुका है, और बहुत से फलों के साथ ऐसा हो चुका है। मेरी श्रीमति जी मुझे हर एक फल को काट कर खाने की ही सलाह देती रहती हैं....... अमरूदों, सेबों के साथ भी ऐसे अनुभव हो चुके हैं.

मुझे बिल्कुल पके हुए पीले अमरूद बहुत पसंद हैं.......मैं उन्हें ऐसे ही बिना काटे खा जाया करता था, लेकिन मिसिज़ की आदत चाकू से काटने के बाद भी उस का गहन निरीक्षण करने के बाद ही कुछ खाती हैं या खाने को देती हैं।

ऐसी ही एक घटना पिछले साल की है .....उन्होंने मेरे सामने एक अमरूद काट कर रखा कि आप देखो इस में कितने छोटे छोटे कीड़े हैं, मैंने तुरंत कहा कि यह तो बिल्कुल साफ सुथरा है, इस में तो कीड़े हैं ही नहीं, लेकिन जब उन्होंने मुझे वह कीड़े दिखाए तो मैं स्तब्ध रह गया........मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ कि मैं कितनी गलती करता रहा। वैसे मैंने अमरूद में मौजूद कीड़ों के खाए जाने पर होने वाले नुकसान के बारे में नेट पर बहुत ढूंढा लेकिन मुझे कुछ खास मिला नहीं, लेिकन बात फिर भी वही है कि मक्खी देख कर तो निगली नहीं जाती।

हां, मैंने उस अमरूद में मौजूद कीड़ों के चलने -फिरने की एक वीडियो ज़रूर बना ली और अपने यू-ट्यूब चैनल पर अपलोड कर दी, आप भी देखिए.........(और गल्ती से इसे पब्लिक करना भूल गया..)

लगता है आज से एक बार फिर संकल्प करना होगा कि बिना काटे केवल आम ही नहीं, कोई भी फल खाना ही नहीं,  यह बहुत बड़ी हिमाकत है.............आप भी सावधान रहियेगा।

शनिवार, 5 जून 2010

डा महेश सिन्हा की पोस्ट---ब्रेन हैमरेज के रोगी की पहचान...

अभी अभी ब्लागवाणी देख रहा था तो डा महेश सिन्हा की एक बहुत उपयोगी पोस्ट दिख गई ---मस्तिष्क आघात के मरीज़ को कैसे पहचानें? मस्तिष्क आघात --जी वही, जिसे कईं बार ब्रेन-स्ट्रोक भी कह दिया जाता है अथवा आम भाषा में दिमाग की नस फटना या ब्रेन-हैमरेज भी कह देते हैं।
इस के बारे में पोस्ट डाक्टर साहब को किसी मित्र से मिली है --
वे लिखते हैं ---- एक पार्टी चल रही थी, एक मित्र को थोड़ी ठोकर सी लगी और वह गिरते गिरते संभल गई और अपने आस पास के लोगों को उस ने यह कह कर आश्वस्त किया कि सब कुछ ठीक है, बस नये बूट की वजह से एक ईंट से थोड़ी ठोकर लग गई थी। (आस पास के लोगों ने ऐम्बुलैंस बुलाने की पेशकश भी की).
साथ में खड़े मित्रों ने उन्हें साफ़ होने में उन की मदद की और एक नई प्लेट भी आ गई। ऐसा लग रहा था कि इन्ग्रिड थोड़ा अपने आप में नहीं है लेकिन वह पूरी शाम पार्टी तो एकदम एन्जॉय करती रहीं। बाद में इन्ग्रिड के पति का लोगों को फोन आया कि कि उसे हस्पताल में ले जाया गया लेकिन वहां पर उस ने उसी शाम को दम तोड़ दिया।
दरअसल उस पार्टी के दौरान इन्ग्रिड को ब्रेन-हैमरेज हुआ था --अगर वहां पर मौजूद लोगों में से कोई इस अवस्था की पहचान कर पाता तो आज इन्ग्रिड हमारे बीच होती।
ठीक है ब्रेन-हैमरेज से कुछ लोग मरते नहीं है --लेकिन वे सारी उम्र के लिये अपाहिज और बेबसी वाला जीवन जीने पर मजबूर तो हो ही जाते हैं।
जो नीचे लिखा है इसे पढ़ने में केवल आप का एक मिनट लगेगा ---
स्ट्रोक की पहचान ---
एक न्यूरोलॉजिस्ट कहते हैं कि अगर स्ट्रोक का कोई मरीज़ उन के पास तीन घंटे के अंदर पहुंच जाए तो वह उस स्ट्रोक के प्रभाव को समाप्त (reverse)भी कर सकते हैं---पूरी तरह से। उन का मानना है कि सारी ट्रिक बस यही है कि कैसे भी स्ट्रोक के मरीज़ की तुरंत पहचान हो, उस का निदान हो और उस को तीन घंटे के अंदर डाक्टरी चिकित्सा मुहैया हो, और अकसर यह सब ही अज्ञानता वश हो नहीं पाता।
स्ट्रोक के मरीज़ की पहचान के लिये तीन बातें ध्यान में रखिये --और इस से पहले हमेशा याद रखिये ----STR.
डाक्टरों का मानना है कि एक राहगीर भी तीन प्रश्नों के उत्तर के आधार पर एक स्ट्रोक के मरीज की पहचान करने एवं उस का बहुमूल्य जीवन बचाने में योगदान कर सकता है.......इसे अच्छे से पढ़िये और मन में बैठा लीजिए --
S ---Smile आप उस व्यक्ति को मुस्कुराने के लिये कहिए।
T-- talk उस व्यक्ति को कोई भी सीधा सा एक वाक्य बोलने के लिये कहें जैसे कि आज मौसम बहुत अच्छा है।
R --- Raise उस व्यक्ति को दोनों बाजू ऊपर उठाने के लिये कहें।
अगर इस व्यक्ति को ऊपर लिखे तीन कामों में से एक भी काम करने में दिक्कत है , तो तुरंत ऐम्बुलैंस बुला कर उसे अस्पताल शिफ्ट करें और जो आदमी साथ जा रहा है उसे इन लक्षणों के बारे में बता दें ताकि वह आगे जा कर डाक्टर से इस का खुलासा कर सके।
नोट करें ---- स्ट्रोक का एक लक्षण यह भी है --
1. उस आदमी को जिह्वा (जुबान) बाहर निकालने को कहें।
2. अगर जुबान सीधी बाहर नहीं आ रही और वह एक तरफ़ को मुड़ सी रही है तो भी यह एक स्ट्रोक का लक्षण है।
एक सुप्रसिद्ध कार्डियोलॉजिस्ट का कहना है कि अगर इस ई-मेल को पढ़ने वाला इसे आगे दस लोगों को भेजे तो शर्तिया तौर पर आप एक बेशकीमती जान तो बचा ही सकते हैं ....
और यह जान आप की अपनी भी हो सकती है।
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डा्क्टर साहब की यह पोस्ट को हिंदी में लिखने का ध्यान आया क्योंकि मुझे अपनी बड़ी बहन का ध्यान आ गया। बात 1990 की है, वे जयपुर में प्रोफैसर हैं, एक दिन अचानक वह अचानक दाएं पैर की चप्पल बाएं में और बाएं की दाएं की डाल कर चलने लगीं तो घर में बच्चियां हंसने लगीं --- और थोड़े समय में उन की जुबान भी बताते हैं कांप सी रही थीं। जीजा जी उन्हें तुरंत फैमिली डाक्टर के पास ले गये ---अब देखिये फैमिली डाकटर भी कितने मंजे होते हैं ---उन्होंने उन्हें तुरंत डा पनगड़िया (जयुपर के क्या ,सारे विश्व के एक सुप्रसिद्ध न्यूरोलॉजिस्ट हैं डा पनगड़िया)की तरफ़ इन्हें रवाना कर दिया ...जाते ही उन का सीटी हुआ ---पता चला कि यह transient ischemic attack (TIA) है --- इस दौरान दिमाग में रक्त की मात्रा अचानक बहुत कम पहुचंती है --- और यह स्ट्रोक की तरफ़ भी जा सकता है। बस, उन्हें डाक्टर साहब द्वारा तुरंत एक इंजैक्शन दिया गया ---शायद ट्रैंटल नाम का टीका था ----जो तुरंत छोटे मोटे थक्के (clot) को घोल देता है।
तुंरत ही मेरी बहन ठीक हो गईं और बाद में कुछ हफ्तों के लिये लेकिन उन्हें दवाई खानी पड़ी थी। भगवान की दुआ से अब बिल्कुल तंदरूस्त हैं। यह बहन की बात इसलिये लिखी की सही समय पर तुरंत डा्क्टरी सहायता मिलना कितना ज़रूरी है इस बात को रेखांकित किया जा सके और साथ में अपने फैमिली डाक्टर से हमेशा सलाह लेने में ही बेहतरी है ---वरना शिक्षा से जुड़े लोगों को कहां पता रहता कि कौन न्यूरोलॉजिस्ट और किस के पास जाना है ?
बहरहाल, काम तो मैं नेट पर कुछ और करने बैठा था--- लाइट है नहीं, इंवरटर पर काम चालू है। घर वाले सभी जयपुर गये हैं ---बेटे को कह रहा हूं कि यार एक कप चाय पिला दो ---कह रहा है कि नहीं पापा, यह ना होगा ---देखता हूं शायद मुझे ही उठना होगा।
जब डाक्टर सिंहा की यह पोस्ट देखी तो रहा नहीं गया ----ऐसा लगा कि डाक्टर साहब जो निश्चेतना विशेषज्ञ हैं, अगर उन्होंने इतनी बढ़िया पोस्ट हम सब तक पहुंचा कर इतना सार्थक कार्य किया है तो अपना थोड़ा योगदान भी तो बनता ही है, बॉस.।
बहरहाल, डा सिंहा जी, गुस्ताखी माफ़ ----आप का लेख चुराने के लिये। Hope you dont mind, which i am sure you won't.

गुरुवार, 13 मई 2010

तो क्या सच में भूसी इतने काम की चीज़ है ?

शायद अगर आप भी मेरे साथ इस वक्त अपने बचपन के दिन याद करेंगे तो याद आ ही जायेगा कि सुबह सुबह गायें गली-मौहल्लों में घूमते आ जाया करती थी और घरों की महिलायें रोज़ाना उन के आगे एक बर्तन कर दिया करती थीं जिन में दो-एक बासी रोटी और बहुत सी भूसी(चोकर, Bran) पड़ी रहती थी। और गायें इन्हें बड़े चाव से खाती थीं। हम छोटे छोटे थे, हमें देख कर यही लगता था कि हो न हो यह भूसी भी बहुत बेकार की ही चीज होगी।
लेकिन फिर जैसे जैसे पढ़ने लगे तो पता चलने लगा कि यह भूसी तो काम की चीज है। हां, तो बचपन में क्या देखते थे--कि आटा को गूंथने से पहले उसे छाननी से जब छाना जाता तो जितना भी चोकर(भूसी) निकलती उसे गाय आदि के लिये अलग रख दिया जाता। और फिर समय आ गया कि लोग गेहूं को पिसवाने से पहले उस का रूला करवाने लगे ---मुझे इस के बारे में कोई विशेष जानकारी तो नहीं है, लेकिन ज़रूर पता है कि रूला करने के प्रक्रिया के दौरान भी उस गेहूं के दाने की बाहर की चमड़ी (Outer thin covering) उतार दी जाती है। ज़ाहिर है इस से पौष्टिक तत्वों का ह्रास ही होता है।

और मैंने कईं बार आटे की चक्कीयों में देखा है कि लोग उन से बिल्कुल सफ़ेद,बारीक आटे की डिमांड करते हैं ---इसलिये इन चक्की वालों ने इस तरह का सफेद आटा तैयार करते वक्त निकली भूसी को अलग से जमा किया होता है ---जो पहले तो केवल पशुओं को खिलाने के लिये ही लोग खरीद कर ले जाया करते थे लेकिन अब मैंने सुना है कि मीडिया में सुन कर लोग भी इसे खरीदने लगे हैं ताकि इसे बाद में बाज़ारी आटे में मिला सकें।

जी हां, भूसी(चोकर) गेहूं की जान है ---मैं तो बहुत पहले से जान चुका हूं लेकिन अधिकांश लोग तभी मानते हैं जब इस बात को गोरे लोग अपने मुखारबिंद से कहते हैं ---तो फिर सुन लीजिये, अमेरिका की हार्डवर्ड इंस्टीच्यूट ऑफ पब्लिक हैल्थ ने यह प्रमाणित कर दिया है कि भूसी के बहुत फायदे हैं ----आप को तो पता ही है कि जो बात यह लोग रिसर्च करने के बाद कहते हैं वे एक तरह से पत्थर पर लकीर होती है....क्योंकि इन के रिसर्च करने के तौर-तरीके एकदम जबरदस्त हैं --न कोई कंपनी इन को इंफ्ल्यूऐंस कर सके और न किसी भी तरह की सिफारिश ही इन के पास फटक पाए।

हां, तो इन वैज्ञानिकों ने लगभग 8000 महिलायों पर यह रिसर्च की है --और आप इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि इन्होंने इस रिसर्च को 26 वर्षों तक जारी रखा और उस के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि भूसी का लाभ डायबीटिज़( मधुमेह) के रोगियों को तो बहुत ही ज़्यादा होता है, और आप स्वयं मैडी-न्यूज़ पर प्रकाशित इस रिपोर्ट को विस्तार से पढ़ लें ---Bran Intake helps those with Diabetes.

वैसे तो इस रिपोर्ट में इतने बढ़िया ढंग से सब कुछ ब्यां किया गया है लेकिन अगर मैडीकल भाषा थोड़ी मुश्किल लगे तो परवाह नहीं। हम ने आम गिन कर क्या करने हैं, आम छक के बात को दफ़ा करने की बात करते हैं। कितने अच्छे से लिखा है कि जिन डायबीटीज़ से ग्रस्त लोगों ने भूसी का इस्तेमाल किया और ऱेशेदार खाने वाली चीज़ों( जैसे कि साबुत अनाज आदि) उन में हृदय-रोग की वजह से मृत्यु होने के चांस 35फीसदी कम हो गये---------क्या यह कम उपलब्धि है ?

बातें सुनने सुनाने में तो और भी बहुत बढ़िया बढ़िया हैं ----क्या हमें भूसी के फायदों का पहले से पता नहीं है, लेकिन हमारी वेदों-शास्त्रों पर दर्ज़ इन बातों पर जब विदेशी समझदार लोगों की मोहर लग जाती है, हम लोग तभी सुनने के लिये तैयार होते हैं वरना हमें लगता है---ठीक है, देख लेंगे, कभी ट्राई कर लेंगे।

अब, भूसी को कैसे अपने खाने पीने में लाएं --सब से पहले मोटा आटा इस्तेमाल करें जिस में से न तो चोकर ही निकला हो और न ही उस का रूला किया गया हो। यह बेइंतहा ज़रूरी है ---- हर अच्छे चिकित्सक द्वारा इस का ढिंढोरा पीटा जा रहा है लेकिन मरीज़ इस तरफ़ शायद कोई विशेष ध्यान नहीं देते।

और मैं कईं मरीजों से सुनता हूं कि वे भूसी बाज़ार से खरीद लाते हैं -----मेरा व्यक्तिगत विचार है कि जहां हर तरह मिलावट का बा़ज़ार गर्म है, वहां बाज़ार में बिकने वाली इस भूसी में भी मिलावट का कीड़ा लगते कहां देर लगेगी ?

इसलिये बेहतर होगा कि हम लोग मोटे आटे से शूरूआत करें ---और मैंने कुछ लोगों से बात की है कि इस आटे को छानना तो पड़ता ही है, वह ठीक है, छानिये, लेकिन कचरा अलग कर के भूसी को वापिस आटे में मिला ही देना चाहिये।

यह स्टडी तो है मधुमेह के रोगियों को लेकर -----लेकिन इस तरह का मोटा आटे खाने से स्वस्थ लोगों को भी अपनी सेहत बरकरार रखने में मदद मिलती है। इस तरह का आटा रक्त-की नाड़ियों के अंदरूनी परत के लिये तो लाभदायक है, यह हमें पेट की नाना प्रकार की बीमारियों से बचा लेता है।

बाजार मे मिलने वाले आटे के बारे में आप का क्या ख्याल है ? -- क्या करें, बड़े शहरों में रहने वालों की अपनी मजबूरियां होंगी, लेकिन फिर भी इतना तो ध्यान रखें ही आटा मोटा है, और उस में चोकर है, इस के बारे में अवश्य ध्यान देना होगा------सफेद, मैदे, रबड़ जैसी रोटियों के पीछे भागने से परेशानी ही हाथ लगेगी।

आटे का दिल देखिये, उस का चेहरा नहीं। और साबुत अनाज लेने के भी बहुत लाभ बताये गये हैं क्योंकि इन में रेशे (fibre) की मात्रा बहुत अधिक होती है। बहुत बार सुनता हूं कि यह डबलरोटी रिफाइन्ड फ्लोर से नहीं होल-व्हीट से तैयार की गई है ----अब कौन जाने इस में कितना सच है, मुझे बहुत बार लगता है कि क्या शुद्ध गेहूं का इस्तेमाल करने से ही डबलरोटी इतनी ब्राउन हो जाती है ----हो न हो, कोई कलर वलर का लफड़ा तो होगा ही। लेकिन अब किस किस बात की पोल खोलें -----यहां तो जिस भी तरफ़ नज़र घुमाओ लफड़े ही लफड़े हैं, ऐसे में क्या करें..........फिलहाल, मोटे आटे (जिस में भूसी मौजूद हो) की बनी बढ़िया बढ़िया रोटियां सिकवायें।

और हां, उुस घर की चक्की को याद करती हुई एक संत की बात का ध्यान आ गया --
दादू दुनिया बावरी पत्थर पूजन जाए,
घर की चक्की कोई न पूजे जिस का पीसा खाए।